इन दिनों देश के कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार, असम और उत्तराखंड आदि, में क़ुदरत अपना क़हर बरपा रहा है; जिस के बारे में हम समाचार पत्रों और अन्य संचार माध्यमों से दिन रात अवगत हो रहे हैं। वैसे तो जब से होश सम्भाला है, बरसात के मौसम में उत्तर बिहार, विशेष कर कोसी क्षेत्र, के विनाशकारी बाढ़ के बारे में हम लोग सुनते आ रहे हैं। इसीलिए कोसी नदी को "बिहार का अभिशाप" या "बिहार का शोक" भी कहा जाता है। ऐसा स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया था। यूँ तो कोसी नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है। ये अलग बात है कि उस जमाने के संचार माध्यमों, अख़बार और रेडियो, की अपनी सीमाएँ थी, जिस से हम दिल दहलाने वाले उन चलायमान दुःखद दृश्यों को आज की तरह देख नहीं पाते थे।
आज बड़ी आसानी से टी वी के पर्दे पर जब ऐसी कई आसपास की कुछ विसंगतियाँ या विषमतायें अंतर्मन को झकझोर जाती है और अपनी कुछ सीमाओं में बंधा इंसान कुछ भी नहीं कर सकने की परिस्थिति में एक घुटन महसूस करता है। तब मन में उठे कुछ सवाल, मन को मथते हैं। मन करता है कि इन विपदाओं के निदान के लिए मनुहार करें, पर किस से ? किसी को ललकारें, पर किसको ? या फिर चित्कार करें, पर किस के समक्ष ? ऐसे ही ऊहापोह की कोख़ से पनपी हैं आज की दोनों रचनाएँ/विचार .. जिनमें पहली में क़ुदरती क़हर पर कुछ सवालात हैं और दूसरी में एक मानवजनित अवहेलना पर ... बस यूँ ही ...
★ (1) झींसी वाली रंगोली
हे इंद्र !!! ...
देवता हैं आप शायद बरसात के,
कहा है ऐसा पुरखों ने,
रचा भी है धर्मग्रंथों में
और आज भी यहाँ शायद यही सब हैं मानते।
पर .. हर साल आपके आने पर ..
हम तो यहाँ कॉफ़ी के घूँटों को
बजाय आवाज़ करते हुए सुरकने के,
कप को होंठों से चूमने वाली
संस्कारी बेआवाज़ चुस्कियों के साथ,
'कोलेस्ट्रॉल'-स्तर को ध्यान में रख कर
'नैपकिन पेपर' से तेल सोखे तले गर्म पकौड़ों को
मुँह के प्रेक्षागार में लारों की गलबहियाँ में लिपटाए
अपनी जीभ के 'रैम्प' पर थिरकाते हुए,
बैठ कर अपनी खिड़की के पास या 'बालकॉनी' पर
महसूसते हैं चेहरे के 'कैनवास' पर बयार की तूलिका से
रची पानी की झींसी वाली रंगोली अक़्सर।
और पास ही बजते किसी मनपसंद रूमानी ग़ज़ल पर
अनामिका और अँगूठा के संगम से जनी
चुटकियाँ चटकाते हुए .. जमीं पर थपकते पाँव संग,
किसी 'टेबल फैन' के मानिंद दाएँ-बाएँ झूमती गर्दन पर
झूमता सिर .. और अलसायी-सी
कभी खुलती .. कभी बंद होती आँखों से निहारते हैं,
सामने वाली छत पर 'एस्बेस्टस' की बनी
ओलती से चूती पानियों की झालर,
'स्टेनलेस स्टील' वाली छत की 'रेलिंग'
और छत पर रखे अलने पर भी अनायास
उग आयी मोतियों की लम्बी क़तार,
साथ ही छत पर जमे बरसाती पानी की परत पर
बनती-मिटती उर्मियों की मचलती मछलियाँ अनगिनत इधर-उधर।
और .. वहाँ पर .. तो प्रभु !! .. तनिक देखिए ना ..
बहता गाँव का गाँव और शहर का शहर,
जान बचा कर भागने के लिए फिर बचता ही नहीं
कोई पुल, कोई पगडंडी या सड़क वाली डगर,
चारों ओर तबाही ही तबाही .. क़हर ही क़हर,
मासूम बच्चे, युवा, वृद्ध, नर-नारी और पशु भी,
सब के सब लाचार बने बेघर।
दूर-दूर तक कोई घर या दर बचता नहीं,
जा कर जहाँ भटक सकें वे दर-ब-दर।
अपनी गृहस्थी की कहानी के गढ़े विन्यास का संक्षेपण
समेटे फटेहाल गठरियों में भर कर .. बेबस-से बाँस की चचरी पर,
बचने की उम्मीद लिए भटकते हैं भूखे-प्यासे बस इधर-उधर।
मूक-बधिर प्रभु ! ..
अब अगर ब्राह्मणों की मान भी लें जो बकर-बकर,
तो क्या पूर्वजन्म के सारे ही पापी जन्मे थे उधर
और बसे थे सारे उसी गाँव में या उसी शहर ?
या हम सारे सच में हैं कोई पुण्यात्मा जन्मे इधर ?
सोचते हैं हम मूढ़ कि ..
ना तो आप है आकाश में, ना पाताल में,
ना तड़ित में, ना बादल, ना बरसात में,
ना मंदिरों के भीतर, ना ही कहीं बाहर, ना इधर .. ना उधर,
भला जन्मदाता या पालक होता है क्या इतना निष्ठुर ?
लगता है ... ये सब तो हैं केवल क़ुदरती क़हर ,
लाखों वर्षों से .. आदिमानव वाले काल से,
जिसे पुरख़े हमारे सदियों से हैं झेलते आये
और कर डाली थी डर से तभी काल्पनिक रचना आपकी
और बस .. आप बस गए पहले उनकी बेबस,
लाचार और डरी हुई सोचों में .. फिर धर्मग्रंथों में ..
और फिर मंदिरों में बन गया आपका पक्का घर।
ये तो था बस उनका डर .. बस और बस .. उनका डर भर।
है अगर सच में कहीं .. जो आप आकाश या पाताल में .. तो ..
प्रभु! .. कुछ तो उन पर रहम कर .. अब तो कुछ .. शरम कर ...
★(2) 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच
सड़े हुए अंडों से भरे कई 'कैरेट' और
सड़े टमाटरों से भरी कुछ टोकरियाँ,
हो गई पलक झपकते खाली सारी की सारी,
हुई जब उन अंडों और टमाटरों की झमाझम बरसात
और बहुरंगी 'कार्टून' बना दिया मंचासीन साहिब को
भीड़ के कुछ लोगों ने करते हुए आदर-सत्कार।
झट साहिब पूछ बैठे धैर्य को रखते हुए बरकरार -
"भाइयों और बहनों ! भला इसकी क्या थी दरकार ?"
भीड़ से बोला एक दुबला-पतला मरियल-सा इंसान -
"बस यूँ ही ... कुछ ख़ास नहीं सरकार !"
दरअसल जब तक पौधों से थे ये टमाटर लटके ..
जब हमने तोड़े थे .. एक उम्मीद से थे अटके ..
तब ये सारे के सारे टमाटर थे ताजे और टटके,
हृष्ट-पुष्ट .. 'कैल्शियम', 'फास्फोरस', 'साइट्रिक एसिड',
'मैलिक एसिड' और 'पालायकोपिन' से लबाबलब और
'विटामिन 'सी' व 'विटामिन 'ए' से भी भरपूर पौष्टिक थे बड़े।
और तो और .. अंडे भी जब मुर्गी से निकले थे,
तब ये सारे 'प्रोटीन', 'कोलीन', 'जिंक', 'विटामिन',
'आयरन' और 'कैल्शियम' से भरे पड़े थे हुए बेकरार।
पर आप को तो है अपने 51% वाले अंकगणित की दरकार
तो फिर 15%, 7.5%, 27% और 10% को जोड़ कर
कुल 59.50% का 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच अपना
बना रखा है आप ने बरकरार।
उसी 59.50% के तहत पहले भर-भर कर
कुछ कम 'विटामिन' और 'प्रोटीन' वाले
कुपोषित और कम पौष्टिक टमाटर और अंडे
उपभोक्ताओं के लिए भेजे जाते हैं बाज़ार।
होती है इस कदर उत्तम उत्पादन बेकदर और
उपभोक्ता भी वर्षों से होते आ रहे हैं कुपोषण के शिकार।
बाक़ी बचे 40.50% हिस्से में ही तो
हृष्ट-पुष्ट टमाटरो और अंडों का फिर हो पाता है व्यापार ..
मिलता है बस .. 40.50% ही बचा उन्हें बाजार।
साहिब !!!
वही शेष बचे हृष्ट-पुष्ट टमाटर और अंडे,
जो तब 'विटामिन' और 'प्रोटीन' से थे भरे,
पर अब सड़ गए हैं रखे-रखे .. बस बाज़ार बिना यूँ ही पड़े-पड़े।
ये वही टमाटर और अंडे हैं अब सड़े,
जो इस वक्त आपके थोबड़े पर हैं पड़े।
इन सब को कर दिया है आपके स्वार्थ ने बेकार।
बस इसी का तो है साहिब .. मौन तकरार ..
आप कर नहीं सकते साहिब .. इस से इंकार।
अब या तो आप अपना बिगड़ा, बदहाल चेहरा झेलिए
या फिर एक बार .. तो सुन लीजिए ना .. साहिब ..
इसकी बहुरंगी बदबूओं की मायूस मौन मनुहार
या हमारी ललकार ... जो कर नहीं पा रही चीत्कार ...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiQ9OKEv3OxHjyG_noTvzMWRLruVMIWL7TZK17oAUSyR9mI9BHtKiiWwcABMcD2B6KVLuwwZdP-pDhZXFm85jQtZ2V2N9V70jP7CLM7P0R1c3XxcrMH3o7T6W1H3VeMALG6ZHxRI4S1Qd2/s320/Screenshot_20200725-150653.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUrqKlC9ZBEUK9MBcM8fhrt5bQIV_9IjqIxOA7SiVAUcwacX_Po4sKDWgz80YPANBCcI7TBngVbh2JHmKG32dk3IIivUalhefH4hIHKIvOigPgpJjIqHtn1tbL4u_ddHVLO-zVlHcjJ78q/s320/Screenshot_20200725-151057.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7l5hSPO9EDYD71_vgB56f4_17SNo7MO7AScOzlnD2dXT06wXGZUSN2fSMf9HhIJsCbo_CkZsMIhvRDMCUAiN3aRItDkgC5JP0SZ9_RS2IXmI2z9WNy6G_c_mV0H-fue-l3YZ1tz6A0vx0/s320/20200725_204603.jpg)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiA_TfmlOATRVu7L2qTDc1sEG9a-4HC_849k0LqXILyu1ceMJfq_9WPytAoXBsy1a8qFxVc6l0DSMzUfAiXsNaKZbQjnLAbcAfBEe-GuQRl86Wyk5-AND2ZdYSQlS5fXN1vO8eGuFp1JuId/s320/Screenshot_20200725-150510.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0KqnNZcfOVW58HlY3pUeXSbGIYf9chKVNPWeTsZ__gUfgc-CWXt_KTWa3ZxEm83qAAkkJaaJAD-UjEkDgH0zcxjahIbpXc94Ao-4iZRFSNpWZAhu0jnNcVrxukaIhprzp-5dxA7Yak14V/s320/Screenshot_20200725-151042.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi043zLtpkNaHYMZ2YxJB9YSlK2z6CofB0B650BLReIOFAnSrBseElkUzaB0aQnHkhC5zuqA0vMdu3LsTsdMEoOkh8GWtN-S2U_q8BTtmo6gPKz3tbRuO0N6NYDmj8z-7hOn57Co5MT65xD/s320/Screenshot_20200725-151311.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjR7RgJqeD4U_DL4N8aEV3Rr6lLBmM3DLKPZu89tk08oz45Sg_rrdFCGiy9GC4Phl61j5a4-WdtaZ3gK9V6caYIMm7s86QPNUFgevNaha-vghVp8icQbUoNme3xiJEUDuYRw9pXguOPaopL/s320/Screenshot_20200725-151746.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjP1e-Z7J65pDYtHiqkny6WKN1AMjSswesMcaqMOKOK-8LbcPDAi5bUiiKiqUCWqdoplqGRXGef4nDaJG2yZwWUVmCBxvmYo_KHKV4ctHTUmG-yoCPIG_rpdv65a3D25bCBKss5hphKTIRk/s320/Screenshot_20200725-151823.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBmioe4sVpHtIUxNBDtliVUE7rgukJUvvTYBel8dT1aUHl7B4YnoxF6xWQcOrK7NLBD2a_VgjBXmXs7-LeNaTjn9qUskBFDyjovr-ynrKVYDZ2fGXZmpLaq9Vmc4QKM6Nv7nfQjaD6v_kg/s320/Screenshot_20200725-151944.png)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjEErZB7u9yvAEDbPDr1LNB7w91w7VN9B1e2dMc6L9-nPnTm-vVs1pHaC93DjRcodwdN6kW4q7lv33ZcXc9A8Qbiz10UY5etYzrek8eP0k8j2XDwETwX2TmpyWkthJPuwXUIROyhMrf3bS/s320/Screenshot_20200725-151953.png)