अक़्सर जीते हैं
आए दिन
हम कुछ
मुहावरों का सच,
मसलन ....
'गिरगिट का रंग',
'रंगा सियार'
'हाथी के दाँत',
'दो मुँहा साँप'
'आस्तीन और साँप',
'आँत की माप'
वग़ैरह-वग़ैरह ..
वैसे ये सारे
जानवर तो
हैं बस बदनाम,
बस यूँ ही ...
जानवरों की
हर फ़ितरत ने
इंसानों से
आज मात
है खायी
और फिर ..
बढ़ भी गई है
अब शायद
बावन हाथ वाले
आँत की लम्बाई।
ऐसे में लगता नहीं
अब क्या कि ...
करना होगा हर
मुहावरे में परिवर्तन,
हमारे संविधान-सा
यथोचित संशोधन ? ...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 29 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत सही।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteआज के मनुष्य के आचरण पर कई मुहावरे सटीक बैठ रहे हैं। आपकी कविता से समाज को यह संकेत जाता है।सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteवाह
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteसुन्दर प्रस्तुति.. सही कहा मुहावरों को बदलने की जरूरत तो है...कई बार बदल भी दिया जाता है...
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत आला दर्ज़ा आलमी कलम जनाब की ,आदाब अता करता हूँ।
Deleteveeruji05.blogspot.com
जी ! आभार आपका ...
Deleteजी ! आभार आपका ...
Deletewaah
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
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