Monday, September 30, 2019

बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती - (तीन बन्दर बनाम तीन रचनाएँ)

(1)#
बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती
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कुछ भूल हुई तुम से भी ना बापू !?
उसी से तो है दुनिया आज बेक़ाबू
पाठ पढ़ाया तीनों को पर ...
तीनों के तीनों ही बन्दर
भला भूल गया क्यों तुमसा ज्ञानी
हर सृजन के लिए है "मादा" जरुरी
बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती

अब देखो ना ...ना ना .. सुनो ना !
वैसे भी पुरखों से है अक़्सर सुना
सुना भर है पर ... कभी नहीं गुना
कहते हैं सब "तीन टिकट महा विकट"
पर तुमसा ज्ञानी भी तो रखा सदा
तीन ही बन्दर अपने निकट
खैर ! बहरहाल ... सब की तरह
है ये मुझे भी पता कि तुमने तीनों को
है अलग-अलग सिखलाया
"बुरा मत देखो"
"बुरा मत सुनो"
"बुरा मत बोलो"

एक अदद और चौथा रख लेते
सिखलाते उसको बस एक और सबक़
कि ... "बुरा मत करो"
तो तुम्हारा क्या जाता !? बोलो ना जरा !!
तुम्हारा ये "चौथा बन्दर" ही ना ...
आज तक मचा रहा कोहराम
बुराई के विरुद्ध यहाँ तो चुप हैं सभी
इनकी आँख भी हैं मूंदी
कान भी तो बन्द पड़े हैं इनके
पर बुरा कर्म कर तो सभी रहे हैं
बोलो ना तनिक तुम भी कि ...
इस बुरे पर लगेगा भला कैसे विराम !?
बोलो ना बापू ... भला कैसे विराम !???

(2)#
बापू ! तेरे आशिक़ आज
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बापू ! तेरे 'आशिक़' आज
तेरा जन्मदिन 2 अक्टूबर
Celebrate करेंगे
सुबह Colgate से
brush कर के
कुछ नर Gillette से
shave करेंगे और
कुछ नारी Revlon की
lipstick लगाएगी और
कुछ नर-नारी मंच पर
भाषण देने जायेंगे
कुछ भाषण सुनने जाएंगे
और सभा का इतिश्री कर
कुछ घर वापस लौट जायेंगें

और कुछ Multiplex में जाकर
अपना दिल बहलायेंगे
फिर ...आज छुट्टी जो है
तेरे जन्मदिन के नाम पर तो
Lee या Levis के
Jeans पहन कर
KFC या Broaster में भी कुछ
शाम entertain करेंगे
आज के "dry day" का
बीते कल ही करके तगड़ा तोड़
कुछ इन्तजाम करेंगे ताबड़तोड़
bigbasket.com से online
Danish Premium Mutton Chops का चखना मंगवा कर "cheers" के साथ
इस मुफ़्त मिली छुट्टी का लुत्फ़ उठाएंगे ...

(3)#
बापू ! आपका बंदर
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बापू !
डाक-टिकटों पर अंकित आपका चेहरा
रोज़ाना मुहर की काली-काली स्याही
चौराहों- बागों में खड़ी प्रस्तर प्रतिमा
प्रायः बीट करते नभचर मुक्त प्राणी
फिर भी आँखें बंद ? मानो आपका पहला बंदर !!

बापू !
अदालतों में टंगी मुस्कुराती आपकी छवि
गीता की कसम, फिर भी झूठी गवाही
सांप्रदायिक दंगे और  क्रूर आतंकवादी
सब तरफ धमाके, चारों ओर तबाही
फिर भी कान बंद ? मानो आपका दूसरा बंदर !!

बापू !
मुद्राओं पर मुद्रित आपका हँसता मुखड़ा
विनिमय साधन - मजबूरों का काया दोहन
आम जनता का अनसुना, अनदेखा दुखड़ा
खादी, ख़ाकी, सफेदपोशों का मुद्रा-मोचन
फिर भी आप चुप ? मानो आपका तीसरा बंदर !!


Sunday, September 29, 2019

कपसता है सुर ...

अनवरत निरपेक्ष ...
किए बिना भेद ... किसी धर्म-जाति का
या फिर किसी भी देश-नस्ल का
षड्ज से निषाद तक के
सात स्वरों के सुर से सजता है सरगम
मानो ... इन्द्रधनुष सजाता हो जैसे
बैंगनी से लाल तक के
सात रंगों से सजा वर्णक्रम

पर बारहा बाँट देते हैं हम नादान
इन सुरों को जाति-धर्म में अक़्सर
मंदिरों में भजन हो जाता हिन्दूओं का सुर ...
गिरजा में प्रार्थना ईसाई का सुर तो
गुरूद्वारे में शबद-वाणी सिक्खों का सुर
मज़ारों के कव्वाली मुसलमानों का सुर
पर एक "सुर" ...  सुर यानि देवता
ढूँढ़ते हैं अक़्सर जिन्हें हम
मंदिरों की पथरीली मूर्तियों में
लगता तो है कि वे भी बसते हैं
इन्हीं सात सुरों के सरगम में ही जैसे

पर हर कहीं नहीं !? ... हर बार कहाँ !?...
जरुरी नहीं कि हर बार सुर
सुहाने होते ही हो यहाँ
कभी - कभी या कई बार तो
किसी के मन की मज़बूर कसक
ढल के मुजरे में कपसता है सुर
बलिवेदी पर निरीह की अनसुनी कराह
हर बार कुचल देता है मन्त्रों का सुर
कई बार बनता है निवालों का साधन
ये सुर सजता है जब अक़्सर गलियों में
चौराहों पर ... फुटपाथों पर या ट्रेनों में

सुर हो और ताल ना हो
तो सुर की बातें बेमानी होती हैं ...
पर ताल भी अक़्सर भरमाते हैं
बचपन से बजता एक गीत सुना  -
" बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं "
सच में ऐसा है क्या !? सोचो ना जरा !!!
बैलों के ही क्यों हर मवेशियों के
गले के घुंघरूओं के सुर-ताल से ही
ग़ुलामी करते रहने का उनके हम हरदम
अनुमान लगाते हैं या गुम हो जाने पर
बीहड़ से इन्हीं आवाज़ों से ढूँढ़ लाते हैं
सच कहूँ तो ... ना जाने क्यों अक़्सर
गहने का गुमां देने वाले पायल
मवेशियों के उन्ही घुंघरुओं सा
अहसास कराते हैं ...

सुर हो या ताल हर बार सुहाने होते नहीं
कई बार हमें ये रुलाते हैं ... कपसाते हैं ...

Friday, September 27, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१८ ) - "मन के दूरबीन से" - बस यूँ ही ...

(१)*

माना ...
इन दिनों
छीन लिया है
तुम्हारे सिरहाने से
मेरी बाँहों का तकिया
मेरे 'फ्रोजेन शोल्डर' ने ...

बहरहाल आओ
मन बहला लो
सुन्दर रंगोली से
जो है सजी
तन पर मेरे
'इन्सुलिन की सुइयों' से ...

(२)*

माना ...
मासूम बच्चों को
अब तक
बहुत बार
दो बूँद पिलाया
पोलियो का

अब क्यों ना ...
सनके सयानों के लिए
प्रयोगशालाओं में
बनाया जाए
"डोपामाइन-
हार्मोन्स" का टीका !?...

(३)*

लाख दूर
रहने पर भी
पल-पल
पास-पास
तुम्हारा ...
रूमानी अहसास
मेरे मन के
दूरबीन से ...

देखो ना जरा ! ...
मैं कहीं
"गैलीलियो" तो नहीं
बन गया !? ...



Sunday, September 22, 2019

एक काफ़िर का सजदा ...

मौला भी तू, रब भी तू
अल्लाह भी तू ही, तू ही है ख़ुदा
करना जो चाहूँ सजदा तुम्हें
तो ज़माने भर से है सुना
हम काफ़िरों को है सजदा मना
अब बता जरा है हमारी क्या खता

करते है सब सजदे तुम्हें
रुख़ करके पश्चिम सदा
कहते हैं कि तू काबा में है बसा
अब समझा जरा इस काफ़िर को तू कि ...
काबा के उस काले पत्थर में ढूँढू तुम्हें
या फिर दफ़न वक़्त के कब्र में
बेजान तीन सौ साठ बुतों में है तू सोया

अक़्सर मैं ये सोचता हूँ कि ...
आब-ए-ज़मज़म से क्या मिट सकेंगे
लगे हैं जो दाग़ अस्मतदरी के बारहा
यूँ तो सिर उनके भी झुके हैं अक़्सर
तेरे सजदे में मेरे मौला
थी जिनकी धिंड में भागीदारी
और जो थे अस्मतदरी की वज़ह
और उनके भी तो सिर झुके हीं होंगे
सजदे में तुम्हारे ही आगे
जिनकी इज्ज़त की उड़ी थी धज्जियाँ

चाहे म्यांमार की काफ़िर बौद्ध भिक्षुणियाँ हों
या कश्मीरी समुदाय विशेष की लड़कियाँ
और बँटवारे के वक्त तू सोया था कहाँ
जब फिसल रहे थे नंगे स्तनों पर
काटने को प्यासे दरिंदों के ख़ूनी खंजर
तब उनकी अनसुनी चीखों पर
क्यों नहीं तू फ़फ़क-फ़फ़क कर था रोया

होकर काफ़िर भी मैं
सजदा करूँ आगे तुम्हारे
बस शर्त्त है ये कि ...
अगर जो तू ले ले रोकने की हर
अस्मतदरी की जिम्मेदारी यहाँ ...
तभी नसीब होगा तुझे मेरे मौला
इस एक काफ़िर का सजदा ...
हाँ ... एक काफ़िर का सजदा ...





Friday, September 20, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१७) - "चहलकदमियाँ"- बस यूँ ही ...

(१):-

बस रात भर
मोहताज़ है
दरबे का
ये फ़ाख़्ता

वर्ना दिन में बारहा
अनगिनत मुंडेरों
और छतों पर
चहलकदमियाँ
करने से कौन
रोक पाता हैं भला

आकाश भी तो
नाप ही आता है
परों के औक़ात भर
ये मनमाना ...

(२):-

मेरी ही
नामौज़ूदगी के
लम्हों को
अपनी उदासी का
सबब बताते तो हैं
अक़्सर...

पर बारहा
उन लम्हों में
उन्हें गुनगुनाते
थिरकते
और मचलते भी
देखा है
रक़ीबों के गीतों पर...

(३):-

शौक़ जो पाला है
हमने मुजरे गाने के
तो ..... फिर ...
साज़िंदों पर रिझने
और उन्हें रिझाने का
सिलसिला
थमेगा कब भला !?...

मुजरे हैं तो
साजिंदे होंगे
और ...
फिर साजिंदे ही क्यों
अनगिनत क़द्रदानों के
मुन्तज़िर भी तो
ये मन
होगा ही ना !?...

(४):-

मदारी और मुजरे
कभी
हुआ करते थे
नुमाइश
और
वाह्ह्ह्ह्ह्-वाही के
मुन्तज़िर ...

इन दिनों
हम शरीफ़ों के
शहर में भी
ये चलन कुछ ...
पुरजोर हो चला है ...


Thursday, September 19, 2019

मन के मेरे 'स्पेक्ट्रम' के

जानती हूँ मैं तुमको
स्वयं से भी ज्यादा
अब भले ही
तुम मानो या ना मानो
पर मैं तो मानती हूँ
तुम जानो या ना जानो
पर मैं तो ये जानती हूँ कि ...

मन के मेरे 'स्पेक्ट्रम' के
सतरंगी इंद्रधनुषी
'बैनीआहपीनाला' तो
देख लेते हैं बारहा
मेरा ख़्याल रखने वाले
अपने-सगे सारे के सारे
कुछ मेरे पहचान वाले
पर तुम ही तो केवल हो
जो महसूस कर पाते हो
मेरे मन की सारी
कोमल भावनाओं की
और नरम संवेदनाओं की
'अवरक्त किरणों' की आभा

अनुमान कर ही लेते हो
मेरे गहरे अवसादों की
और असीम वेदनाओं की
'पराबैंगनी किरणों' की ऊष्मा
और ... बावजूद
भौगोलिक दूरी के भी
अक़्सर सिक्त समानुभूति से 
तुम्हारी बातों की 'ओज़ोन परतें'
छा कर मेरे वजूद पर
सोख लेती ही हैं सारे के सारे
मेरे अवसादों
मेरी वेदनाओं की
झुलसाती 'पराबैंगनी किरणों' की ऊष्मा ...



Wednesday, September 18, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (16) - "मादा जुगनूओं के" - बस यूँ ही ...

(1)***

यूँ तो सुना है ...
क़ुदरत की एक
नाइंसाफी कि ...
मादा जुगनूओं के
पंख नहीं होते

ये रेंगतीं हैं बस
उड़ नहीं सकती
नर जुगनूओं की तरह
मनचाहा आकाश में

बस गढ़ सकती हैं
कड़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी
मायके में पाले सपनों के
पंखों को कतरी गई
आम औरतों की तरह ...

(2)***

आदतें अक़्सर बस
"बदल" जाती हैं
पर "बदलती" हैं
कहाँ भला !?

आकाश में उड़ती
पतंगों से ज्यादा
कटी पतंगों को
देख कर बचपन की
चमकने वाली आँखें

सयानी होने पर
आकाश में चमकते
तारों में नहीं
टूटते तारों में
अपनी इच्छाएं पूरी
होने की चमक
भरती हैं ...

(3)***

वाह री चलन दुनिया की
जीवित बिल्लियों के
राह में गुजरने से
खराब हो जाती है
'जतरा' (जात्रा) इनकी

और किसी के सगे की
मृत देह वाली
गुजरती अर्थी के
देखने से कहते हैं
'जतरा' (जात्रा) बनती ...