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Wednesday, August 3, 2022

बस मन का ...


 (१)

बतियाने वाला स्वयं से अकेले में, कभी अकेला नहीं होता,

खिलौने हों अगर कायनात, तो खोने का झमेला नहीं होता 

 .. शायद ...



(२)

साहिब ! यहाँ संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण नहीं होता,

कुछ रिश्तों के लिए कभी कोई व्याकरण नहीं होता 

.. शायद ...




(३)

साहिब ! ..जगह दिल में वो भला क्या ख़ाक देगा,

जो किराए में ग़ैर-मज़हबी को कभी घर नहीं देता

.. शायद ...










(४)

आबादी भी भला शहर भर की थी कब सुधरी,

ना थी, ना है और ना रहेगी कभी साफ़-सुथरी।

साहिब ! है सच तो ये कि सफाईकर्मियों से ही,

हैं चकाचक चौराहे, मुहल्ले, सड़क-गली सारी

.. शायद ...




(५)

परिभाषा कामयाबी की है सब की अलग-अलग,

है किसी को पद या दौलत का मद, कोई है मलंग 

.. शायद ...








(६)

चाहे लाखों हों यहाँ पहरे ज़माने भर के, अनेकों बागडोर,

पर खींचे इन से इतर सनम, बस मन का एक कच्चा डोर 

.. बस यूँ ही ...

Sunday, July 31, 2022

भींजे ख़्वाबों में .. बस यूँ ही ...


 

यूँ तो कहते हैं सब कि

"समुन्दर में 

नहा कर तुम 

और भी 

नमकीन हो गई हो ~~~",

पर पता है कहाँ उन्हें, 

कि ..

समुन्दर में कम ..

सनम ...

तुम तो 

मेरे नयनों के

खारे पानी वाले 

भींजे ख़्वाबों में

भींज-भींज कर ही

तनिक ज्यादा

या तनिक कम 

नमकीन हुई हो .. बस यूँ ही ...

Monday, July 18, 2022

 बस यूँ ही ...

 

(1)

तुम ना सही, 

तेरी यादें ही सही, 

मन के आले पर संभाले, 

रखा हूँ आज भी तुम्हें सहेज करके .. बस यूँ ही ...


वर्ना यूँ तो 

पूजते हैं जिसे सभी,

अक़्सर उन्हें भी ताखे से 

फ़ुटपाथों पे छोड़ने में नहीं गुरेज़ करते .. बस यूँ ही ...



(2)

गाते हैं सभी 

यूँ तो यहाँ पर

"ये हसीं वादियाँ ..

 ये खुला आसमां"~~~,

पर जानम बिन तेरे

है मेरे लिए तो ये

जैसे कोई मसान .. बस यूँ ही ...


सुलगते

भीमसेनी कपूर-सी

तुम्हारी

सोंधी साँसों के

बिन है जानम 

सब ये यहाँ

सुनसान, वीरान ..बस यूँ ही ...

Saturday, April 23, 2022

'मेन एट वर्क' ...


जितनी ही ज्यादा स्वयं को 

'वर्किंग लेडी' कह के जब-जब 

आपने अपनी गर्दन है अकड़ाई ;

उतनी ही ज्यादा उन्होंने ख़ुद को 

'हाउस वाइफ' बतलाते हुए तब-तब 

अपनी गर्दन है झुकाई .. शायद ...


साहिबान !!  तनिक देखिए तो ..

भला अब किसने वहाँ पे तख़्ती 

'मेन एट वर्क' की है लगाई ?

पर उनकी डगमगाती गर्दन पे अड़े

सिर पर धरे बोझ ईंटों के देख के भी

लज्जा जिन्हें आयी ना आयी .. शायद ...



【 हमारे तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी समाज की विडंबना  एक तरफ ये है, कि एक दिन के चंद तय घंटों के लिए नौकरीशुदा महिलाएँ अपनी गर्दनें अकड़ाती हैं और चौबीसों घंटे स्वयं को समर्पित की हुई औरतें झेपतीं हैं अक़्सर ये कहते हुए कि "कुछ नहीं करती हम .. हम बस 'सिम्पली हाउस वाइफ' हैं जी" .. और ... दूसरी ओर मेरी सोच से .. ये 'मेन एट वर्क' वाली तख्तियाँ भी शायद पुरुष प्रधान सोच की उपज की ही द्योतक हैं , जब कि 'पीपल एट वर्क' की तख़्ती लगानी ही तर्कसंगत होनी चाहिए .. शायद .. बस यूँ ही ... 】






Friday, April 22, 2022

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की ...

अक़्सर .. अनायास ...

कुम्हला ही जाता है चेहरा अपना,

जब कभी भी .. सोचता हूँ जानाँ,

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की

विरुद्ध हुई मन के तुम्हारे  

बात पर किसी भी।


हो मानो .. आए दिन 

या हर दिन, प्रतिदिन,

किए हुए अतिक्रमण

किसी 'फ्लाईओवर' के नीचे

या फिर किसी 'फुटपाथ' पर,

देकर रोजाना चौपाए-से पगुराते 

गुटखाभक्षी को किसी, 

कानूनी या गैरकानूनी ज़बरन उगाही,

सुबह से शाम तक बैठी, 

किसी सब्जी-मंडी की 

वो उदास सब्जीवाली की

निस्तेज चेहरे की कुम्हलाहट।


देर शाम तक टोकरी में जिसकी 

शेष बचे हों आधे से ज्यादा 

कुम्हलाए पालक और लाल साग,

तो कभी बथुआ, खेंसारी या चना के,

या कभी चौलाई या गदपूरना के भी साग,

अनुसार मौसम के अलग-अलग।


और तो और ..

मुनाफ़ा तो दूर, पूँजी भी जिसकी

देर शाम तक भी हो ना लौटी।

तो तरोताज़े साग-सी,

मुस्कराहट सुबह वाली जिसकी, 

देर शाम तक तब 

शेष बचे कुम्हलाए साग में हो,

जो यूँ बेजान-सी अटकी।

सोचती .. बुझेगी भला आज कैसे ..

बच्चों के पेट की आग ?

बेसुरा-सा हो जिस बेचारी के

जीवन का हर राग .. बस यूँ ही ...





Sunday, April 17, 2022

चौपाई - जो समझ आयी .. बस यूँ ही ...


आराध्यों को अपने-अपने यूँ तो श्रद्धा सुमन,

करने के लिए अर्पण ज्ञानियों ने थी बतलायी।

श्रद्धा भूल बैठे हैं हम, सुमन ही याद रह पायी,

सदियों से सुमनों की तभी तो है शामत आयी .. शायद ...




वजह चिल्लाने की अज्ञात, ऊहापोह भी, क्या बहरे हैं "उनके वाले"?
प्रश्न अनुत्तरित जोह रहा बाट, आज भी कबीर का सैकड़ों सालों से।
खड़ा कर रहे अब तुम भी एक और प्रश्न, 'लाउडस्पीकर' बाँट-२ के,
कबीर भौंचक सोच रहे, बहरे हो गए साहिब ! अब "तुम्हारे वाले"?


Wednesday, April 6, 2022

चंद चिप्पियाँ .. बस यूँ ही ...

(१) रिवायतें तगड़ी ...

कहीं मुंडे हुए सिर, कहीं जटाएँ, कहीं टिक्की, 

कहीं टोपी, कहीं मुरेठे-साफे, तो कहीं पगड़ी।


अफ़सोस, इंसानों को इंसानों से ही बाँटने की 

इंसानों ने ही हैं बनायी नायाब रिवायतें तगड़ी।


(२) विदेशी पट्टे ...

देखा हाथों में हमने अक़्सर स्वदेशी की बातें करने वालों के,

विदेशी नस्ली किसी कुत्ते के गले में लिपटे हुए विदेशी पट्टे।


देखा बाज़ारों में हमने अक़्सर "बाल श्रम अधिनियम" वाले,

पोस्टर चिपकाते दस-ग्यारह साल के फटेहाल-से छोटे बच्चे।


(३) चंद चिप्पियों की ...

रिश्ते की अपनी निकल ही जाती 

हवा, नुकीली कीलों से चुप्पियों की,


पर मात देने में इसे, करामात रही 

तुम्हारी यादों की चंद चिप्पियों की।


(४) सीने के वास्ते ...

आहों के कपास थामे,

सोचों की तकली से,

काते हैं हमने,

आँसूओं के धागे .. बस यूँ ही ...

टुकड़ों को सारे,

सीने के दर्द के,

सीने के वास्ते,

अक़्सर हमने .. बस यूँ ही ...


(५) एक अदद इंसान ...

मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारे या गिरजा के सामने,

कतारों में हो तलाशते तुम पैगम्बर या भगवान .. बस यूँ ही ...


गाँव-शहर, चौक-मुहल्ले, बाज़ार, हरेक ठिकाने,

ताउम्र तलाश रहे हम तो बस एक अदद इंसान .. बस यूँ ही ...




Sunday, December 5, 2021

तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...

साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

कर दीजिए ना तनिक .. 

बस .. एक अदद मदद आप,

'बहुते' (बहुत ही) 'इमरजेंसी' है माई-बाप,

दे दीजिए ना हुजूर !! .. समझ कर चंदा या दान,

चाहिए हमें आप सभी से चंद धनराशि।


छपवाने हैं कुछ इश्तिहार,

जिसे साटने हैं हर गली,

हर मुहल्ले की निजी, 

सरकारी या लावारिस दीवारों पर।

होंगे टंगवाने हर एक चौक-चौराहों पर

छपवा कर कुछ रंगीन फ्लैक्स-बैनर भी।


रेडियो पर, टीवी पर, अख़बारों में भी

देने होंगे इश्तिहार, संग में भुगतान के 

तय कुछ "पक्के में" रुपए भी।

दिन-रात हर तरफ, हर ओर,

क्या गाँव, क्या शहर, हर महानगर,

करवानी भी होगी निरंतर मुनादी भी।


लिखवाने होंगे अब तो FIR भी 

हर एक थाने में और देने पड़ेंगे,

थाने में भी साहिब .. साहिबों को फिर कुछ ..

रुपए "कच्चे" में, माँगे गए "ख़र्चे-पानी" के .. शायद ...

थक चुके हैं अब तक तो हम युग-युगांतर से,

कर अकेले जद्दोजहद गुमशुदा उस कुनबे की तलाश की। 


घर में खोजा, अगल-बगल खोजा, मुहल्ले भर में भी,

खोजा वहाँ-वहाँ .. थी जहाँ तक पहुँच अपनी, 

सोच अपनी, पर अता-पता नहीं चला ..

पूरे के पूरे उस कुनबे का अब तक कहीं भी।

निरन्तर, अनवरत, आज भी, 

अब भी .. तलाश है जारी ... 


साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

पर नतीज़ा "ज़ीरो बटा सन्नाटा" है अभी भी।

दिखे जो उस कुनबे का एक भी,

तो मिलवा जरूर दीजिएगा जल्द ही।

आने-जाने का किराया मुहैया कराने के 

साथ-साथ मिलेगा एक यथोचित पारितोषिक भी।


है कुनबे के गुमशुदा लोगों की पहचान, 

उनमें से है .. कोई बैल पर सवार,

तो है किसी की शेर की सवारी,

है कोई उल्लू पर सवार, तो किसी की चूहे की सवारी, 

कोई पूँछधारी तो .. कोई सूँढ़धारी ..

हमारी तो अब भी इनकी तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...



Monday, November 29, 2021

एक पोटली .. बस यूँ ही ...

चहलक़दमियों की 

उंगलियों को थाम,

जाना इस शरद

पिछवाड़े घर के,

उद्यान में भिनसार तुम .. बस यूँ ही ...


लाना भर-भर

अँजुरी में अपनी,

रात भर के 

बिछे-पसरे,

महमहाते 

हरसिंगार तुम .. बस यूँ ही ...


आँखें मूंदे अपनी फिर

लेना एक नर्म उच्छवास 

अँजुरी में अपनी और .. 

भेजना मेरे हिस्से 

उस उच्छवास के 

नम निश्वास की फिर

एक पोटली तैयार तुम .. बस यूँ ही ...


हरसिंगार की 

मादक महमहाहट,

संग अपनी साँसों की

नम .. नर्म .. गरमाहट,

बस .. इतने से ही

झुठला दोगी 

किसी भी .. उम्दा से उम्दा ..

'कॉकटेल' को यार तुम .. बस यूँ ही .. शायद ...







Wednesday, July 14, 2021

इक बगल में ...

आना कभी
तुम ..
किसी
शरद पूर्णिमा की,
गुलाबी-सी 
हो कोई जब
रूमानी, 
नशीली रात,
लेने मेरे पास
रेहन रखी 
अपनी 
साँसें सोंधी
और अपनी 
धड़कनों की
अनूठी सौग़ात।

दिन के 
उजाले में
पड़ोसियों के
देखे जाने
और फिर ..
रंगेहाथ हमारे 
पकड़े जाने का
भय भी होगा।
शोर-शराबे में, 
दिन के उजाले में,
रूमानियत 
भी तो यूँ ..
सुना है कि
सिकुड़-सा 
जाता है शायद।

दरवाजे पर 
तो है मेरे
'डोर बेल',
पर बजाना 
ना तुम,
धमक से ही
तुम्हारी 
मैं जान
जाऊँगा
जान ! ...
खुलने तक 
दरवाजा,
तुम पर
संभाले रखना 
अपनी जज़्बात।

यक़ीन है,
मुझे कि तुम
यहाँ आओगी
सजी-सँवरी ही, 
महकती 
हुई सी,
मटकती
हुई सी,
फिर अपनी 
बाँहों में
भर कर 
मुझको,
मुझसे ही
लिपट जाओगी,
लिए तिलिस्मात।

पर मुझे भी
तो तनिक
सजने देना,
तत्क्षण हटा
खुरदुरी बढ़ी 
अब तक की दाढ़ी,
'आफ़्टर शेव' 
और 'डिओ' से 
महकता हुआ,
सिर पर उगी
चाँदी के सफ़ेद
तारों की तरह,
झक्कास सफ़ेद 
लिबास में खोलूँगा 
दरवाजा मैं अकस्मात।

जानता हूँ
कि .. तुम 
ज़िद्दी हो,
वो भी
ज़बरदस्त वाली,
जब कभी भी
आओगी तो,
जी भर कर प्यार 
करोगी मुझसे,
सात फेरे और
सिंदूर वाले
हमारे पुराने
सारे बंधन
तुड़वा दोगी
तुम ज़बरन।

जागने के
पहले ही
सभी के,
हो जाओगी
मुझे लेकर
रफूचक्कर,
तुम्हारे 
आगमन से
प्रस्थान 
तक के 
जश्न की 
तैयारी
कितनी 
भी हो
यहाँ ज़बरदस्त।

यूँ तो 
इक बग़ल में 
मेरी सोयी होगी
अर्धांगिनी
हमारी,
हाँ .. मेरी धर्मपत्नी ..
तुम्हारी सौत।
फिर भी ..
दूसरी बग़ल में
पास हमारे
तुम सट कर
सो जाना,
लगा कर
मुझे गले 
ऐ !!! मेरी प्यारी-प्यारी .. मौत .. बस यूँ ही ...


【 बचपन में अक़्सर हम मज़ाक-मज़ाक में ये ज़ुमले बोला-सुना करते थे ..  "एक था राजा, एक थी रानी। दोनों मर गए, ख़त्म कहानी " .. ठीक उसी तर्ज़ पर, अभी उपर्युक्त बतकही पर मिट्टी डाल के, उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं और ठीक अभी-अभी "इक बगल में ..." जैसे वाक्यांश/शीर्षक को मेरे बोलने/सुनने भर से ही, मेरे ज़ेहन में अनायास ही एक गीत की जो गुनगुनाहट तारी हुई है .. जिसके शब्द, संगीत, आवाज़ और प्रदर्शन, सब कुछ हैं .. लोकप्रिय पीयूष मिश्रा जी के ; तो ... अगर फ़ुरसत हो, तो आइए सुनते हैं .. मौत-वौत को भूल कर .. वह प्यारा-सा गीत ...
 .. बस यूँ ही ... 】

( कृपया  इस गीत का वीडियो देखने-सुनने के लिए इसके Web Version वाला पन्ना पर जाइए .. बस यूँ ही ...)






Wednesday, November 11, 2020

गिरमिटिया के राम - चंद पंक्तियाँ-(29)-बस यूँ ही ...

 (1) निरीह "कलावती"

"कलावती" के पति के 

जहाज़ को डुबोने वाले,

चाय लदी जहाज़ भी

कलुषित फ़िरंगियों के 

एक-दो भी तो डुबोते,

भला क्यों नहीं डुबाए तुमने ?

【कलावती = सत्यनारायण व्रतकथा की एक पात्रा】


(2) "गिरमिटिया" के राम

अपनी भार्या के 

अपहरण-जनित वियोग में,

हे अवतार ! तुम रोते-बिलखते

उसकी ख़ोज में तो फ़ौरन भागे,


पर कितनी ही सधवाएँ

ताउम्र विधवा-सी तड़पती रही

और मीलों दूर वो "गिरमिटिया" भी,

फिर भी भला तुम क्यों नहीं जागे ?

【गिरमिटिया = अंग्रेज़ों ने हमारे पुरखों को गुलामी की शर्त पर वर्षों तक जहाज में भर-भर कर धोखे से विदेश भेजे, जिनमें हमारे लोग ही "आरकटिया" बन कर हमारे लोगों को ही ग़ुलाम/बंधुआ मज़दूर बनाते रहे। इन मज़दूरों को ही "गिरमिटिया" की संज्ञा मिली। गिरमिट शब्द अंग्रेज़ी के `एग्रीमेंट/Agreement' शब्द का अपभ्रंश बताया जाता है।】




Friday, October 30, 2020

होठों की तूलिका - चंद पंक्तियाँ - (27)- बस यूँ ही ...

आज शरद पूर्णिमा के पावन अवसर पर ....

(१) होठों की तूलिका

आज सारी रात

शरद पूर्णिमा की चाँदनी

मेरी बाहों का चित्रफलक 

तुम्हारे तन का कैनवास

मेरे होठों की तूलिका


आओ ना ! ..

आओ तो ...

रचें दोनों मिलकर

एक मौन रचना 

'खजुराहो' सरीखा ...

( चित्रफलक - Easel,

   कैनवास - Canvas,

   तूलिका - Painting Brush ).


(२) चाहतों की मीनार 

मैं 

तुम्हारे 

सुकून की 

नींव बन जाऊँ


तुम 

मेरी 

चाहतों की 

मीनार बन जाना ...


(३) मन की कंदरा ...

माना कि ..

है रौशन

चाँद से

बेशक़ 

ये सारा जहाँ ...


पर एक अदद 

जुगनू है बहुत

करने को 

रौशन

मन की कंदरा ...







Friday, October 16, 2020

किस्तों में जज़्ब ...

 " मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। " - " गेहूँ बनाम गुलाब " नामक रचना में रामवृक्ष बेनीपुरी जी की ये विचारधारा उच्च विद्यालय में हिन्दी साहित्य के अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ने के बाद से अपने टीनएज वाले कच्चे-अधपके मन में स्वयं के मानव जाति (?) में जन्म लेने पर गर्वोक्ति की अनुभूति हुई थी।

बेनीपुरी जी के इस तर्क को अगर सआदत हसन मंटो जी अपनी भाषा में विस्तार देते तो वह पेट के नीचे यानि प्रजनन तंत्र वाले कामपिपासा की भी बात करते और कहते कि पशुओं की तरह मानव शरीर में यह अंग भी पशुओं की तरह समानांतर नहीं है, बल्कि क्रमवार मस्तिष्‍क, हृदय और पेट से भी नीचे है। एक और ख़ास ग़ौरतलब बात कि पशुओं से इतर मानव-शरीर काम-क्रीड़ा के क्षणों में आमने-सामने होते हैं। मानव के सिवाय धरती पर उपलब्ध किसी भी अन्य प्राणियों में ऐसा नहीं देखा गया है या देखा जाता है कि रतिक्रिया के लम्हों में उनकी श्वसन तंत्र और उसकी प्रक्रिया एक-दूसरे के आमने-सामने हों .. शायद ...

पर इतनी सारी विशिष्टता की जानकारी के बावज़ूद भी बाद में ना जानें क्यों .. हमारे वयस्क-मानस को लगने लगा कि कई मायनों में पशु-पक्षियों की जातियाँ-प्रजातियाँ हम मनुष्यों की जाति-प्रजाति से काफ़ी बेहतर हैं। उनके समूह में कभी मानव समाज की तरह किसी बलात्कार की घटना के बारे में ना तो सुनी गयी है और ना ही देखी गयी है। पशु-पक्षियों के नरों को क़ुदरत से वरदानस्वरुप मिली अपनी-अपनी मादाओं को रिझाने की अलग-अलग कलाओं द्वारा वे सभी अपनी-अपनी मादाओं को रिझाते हैं, फिर उनकी मर्ज़ी से ही काम-क्रीड़ा या रतिक्रिया करते हैं। और तो और हम मानव से इतर क़ुदरत ने उनके काम-क्रीड़ा का अलग-अलग एक ख़ास मौसम प्रदान किया है, जिसके फलस्वरूप उनकी भावी नस्लों की कड़ियाँ आगे बढ़ती है। साथ ही हम मानव की तरह ना तो वे हस्तमैथुन करते हैं और ना ही अप्राकृतिक या समलैंगिक सम्बन्ध बनाते हैं।

ऐसे मामलों के कारण सारे अंग यानि मानस, हृदय, पेट और पेट के नीचे वाले प्रजनन अंगों के समानांतर होते हुए भी पशु-पक्षी हम मानव से बेहतर प्रतीत होते हैं, भले हम मानवों में यही सारे अंग क्रमशः क्रमबद्ध ऊपर से नीचे की ओर ही क्यों ना प्रदान किया हो क़ुदरत ने। कम-से -कम उनके समाज में बलात्कार तो नहीं होता है ना .. शायद ...

वैसे तो क़ुदरत ने हमें पशु-पक्षियों के तरह ही अपनी नस्लों की कड़ियों को आगे निरन्तर बढ़ाने के लिए ही प्रजनन-तंत्र प्रदान किया है। पर हम भटक कर या यूँ कहें कि बहक कर इनका दुरुपयोग करने लगे। सरकार ने 9वीं व 10वीं के जीव-विज्ञान के पाठ्यक्रम में हमारी भावी पीढ़ी के समक्ष उनके भावी जीवन में यौन-शिक्षा के उपयोग पर विस्तार  से प्रकाश डालने की कोशिश की है। पर हम अपने युवा से इन विषयों पर बात-विमर्श करने से कतराते हैं अक़्सर। हमारे तथाकथित सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज में इन विषयों पर लोगबाग प्रायः बात लुक-छिप कर करते हैं या फिर करने वाले को बुरा इंसान मानते हैं, जबकि आज हम उसी के कारण ही तो पूरे विश्व में चीन के बाद दूसरे नम्बर पर पहुँचने का गर्व प्राप्त किये हैं। हो सकता है कल ..  कुछ दशकों के बाद चीन को मात देकर जनसंख्या के संदर्भ में हम विश्वविजयी बन जाएं .. शायद ...

हालांकि हमारे पुरखे साहित्य और संगीत के योगदान से हम मानवों को पशु से बेहतर साबित करने की युगों पहले से प्रयास करते आ रहे हैं। लेकिन दोहरी मानसिकता वाले मुखौटे अगर हम उतार फेंके अपने वजूद से , तभी बेनीपुरी जी की सोच सार्थक होने की सम्भावना दिख पाएगी .. शायद ...

वैसे तो पशु-पक्षियों के मन में भी तो प्रेम-बिम्ब बनते ही होंगे .. शायद ... परन्तु उनसे इतर हम इंसान अपने मन-मस्तिष्क में जब कभी भी प्रेम से ओत-प्रोत बिम्ब गढ़ते हैं तो उन्हें कागज़ी पन्नों पर या वेब-पन्नों पर शब्दों का ज़ामा पहना कर उतार पाते हैं और अन्य कुछ लोगों से साझा भी कर पाते हैं। वैसे तो .. अनुमानतः .. बिम्ब तो बलात्कारी भी गढ़ते होंगे ,  पर वीभत्स ही .. शायद ... 

ख़ैर ! .. हमें क्या करना इन बातों का भला ! है कि नहीं ? हमें तो अपने पुरखों के कहे को लकीर का फकीर मान कर उनका अनुकरण करते जाना है .. बस .. और मन ही मन दोहराना या बुदबुदाना है कि - 

" सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। "

फिलहाल तो  ..  प्रेम से ओत-प्रोत ऐसे ही कुछ बिम्बों को शब्दों का जामा पहना कर आज दो रचनाओं/विचारों से वेब-पन्ने को भरने की हिमाक़त कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ...

(1)  तमन्नाओं की ताप में

चाहत के चाक पर तुम्हारे

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

गढ़ सकी जो एक सुघड़ सुराही

और फिर पकी जो तुम्हारी 

तमन्नाओं की ताप में कहीं ..


तो भर लूँगा उस पकी

सुराही में अपनी, सोचों की 

गंगधार को प्रेम की तुम्हारी

और अगर पक ना पायी

और गढ़ भी ना पायी 

कहीं जो सोचों की नम मिट्टी ..


तो बह चलेगी फिर

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

संग-संग .. कण-कण ..

अनवरत .. निर्बाध .. 

प्रेम की गंगधार में तुम्हारी ..

बस यूँ ही ...


(2)  किस्तों में जज़्ब


मन के 

लिफ़ाफ़े में

परत-दर-परत

किस्तों में जज़्ब

जज़्बातों को मेरे,


कर दो ना

सीलबंद 

कभी अपने नर्म-गर्म 

पिघलते-पसरते

एहसासों की लाह से,


ब्राह्मी लिपि में उकेरे

शब्दों वाले अपने 

लरज़ते होठों की

मुहर रख कर .. 

बस .. एक बार

शुष्क होठों पर मेरे ...





Tuesday, April 28, 2020

कतरनों और कचरे से कृतियाँ - हस्तशिल्प - (भाग-1,2,3.)

1)
आओ आज कतरनों से कविताएं रचते हैं 
और मिलकर कचरों से कहानियाँ गढ़ते हैं।
2)
नज़रें हो अगर तूलिका तो ... कतरनों में कविताएं और ...
कचरों में कहानियाँ तलाशने की आदत-सी हो ही जाती है ।

(1) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (१).

School & College के जमाने वाले हस्तशिल्प/ Handicraft की अभिरुचि को Lock Down के बाद एक नया पुनर्जीवन मिला है।
ठीक वैसे ही जैसे लेखन को 2018 ( 52 वर्ष के उम्र में ) से युवाओं के साथ Openmic के सहारे और 2019 में ब्लॉग के सहारे पुनर्जीवन मिला । साथ ही युवाओं के साथ ही यूट्यूब फ़िल्म निर्माण से मंचन/अभिनय को पुनर्जीवन मिला है।
वर्षों से जमा किए गए कबाड़ ( धर्मपत्नी की भाषा में ) जिसे हालांकि धर्मपत्नी ही संभाल कर रखती जाती है, उसी की मदद से निकलवाया और धूल की परतों को हटाया। दो -तीन दिन तो वैसे उसी में निकल गए।
                                         फ़ालतू की बेजान चीजें मसलन - फ़िलहाल तो इस Wall Hanging की बात करें तो ... इस के लिए - नए undergarments के खाली डब्बे से गत्ते, पिस्ते के छिलके, आडू/सतालू का बीज, गेहूँ की बाली, पुराना मौली सूत व बद्धि( जो मिलने पर पहनता तो नहीं, पर ऐसे मौकों के लिए जमा कर लेता हूँ ) , खीरनी (फल) का बीज, Velvet Paper, Fevicol, कैची, ब्रश और obviously ... Lock Down का क़ीमती समय ...☺☺☺
वैसे कैसा लग रहा ... अब आप lock down में बोर होने का रोना 😢😢😢 मत रोइएगा ...😊






(2) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (२).

दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं होता .. शायद ... । मसलन लौकी के छिलके जिसे अमूमन फेंक दिया जाता हैं, प्रायः बंगाली रसोईघर में उसकी भुजिया बना ली जाती है। फैक्ट्री में जब सोयाबीन से तेल ( रिफाइन) निकाला गया तो उस के बचे खल्ली से सोयाबीन का बड़ी बना लिया गया। यहाँ तक कि मानव-मल (इसकी चर्चा शायद घृणा उपजा रही हो) तक से खाद तैयार कर लिया जाता है, जिसे "स्वर्ण खाद"   कहते हैं। कहते हैं ना - वही कालिख, कहीं काजल तो कहीं दाग ...
                      तो आज बनाया है .. कई सालों में जमा किए हुए पके और सूखे नेनुए ( घीया ) और खिरनी ( फल ) के बीजों के संयोजन से एक Wall Hanging और उन्हीं नेनुए के तीन कंकाल और एक पुरानी टोकरी, तार, होल्डर, रंगीन नाईट बल्ब के संयोजन से एक Night Lamp भी ...
Lock Down जरा भी बोर नहीं कर रहा ... बल्कि कई सोयी अभिरुचियों को अंगड़ाई लेने का मौका मिल रहा ... लोग तो मज़बूर मज़दूरों के लिए बिना लंगर चलाए ही Social Media का Page रंग ही रहे हैं ... तब तक ... बस यूँ ही ...☺






(3) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (३).

हमलोगों में से अधिकांश लोग सुबह किसी ना किसी कम्पनी के टूथपेस्ट वाले ट्यूब या पुरुष वर्ग शेविंग क्रीम के ट्यूब ( अब Tuesday, Thursday और Saturday को shaving नहीं करने वाले और उसकी अंधपरम्परा की बात नहीं करूँगा ) का इस्तेमाल करते ही करते हैं। उनमें से कुछ लोग ट्यूब दबा- दबा कर अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ते और कुछ मेरे जैसे लोग उसको कैंची से काट कर उसके सारे अंश (चाट)-पोछ कर इस्तेमाल कर जाते हैं। और ... जैसा कि मेरा मानना है कि दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं होता .. शायद ... पर कम ही लोग उस बचे हुए ट्यूब और उसके ढक्कन को धो-पोछ व सूखा कर सम्भाल कर जमा करते रहते हैं।
हमलोग रोजमर्रे के जीवन में लहसुन-प्याज ( अब उनकी बात नहीं कर रहा जो इसके खाने या छूने को पाप समझते हैं या सावन-कार्तिक में इसका त्याग कर शुद्ध-सात्विक बन जाते हैं ) तो इस्तेमाल करते ही हैं। तो कभी-कभी धर्मपत्नी के रसोईघर से फेंके जाने वाले इन लहसुन और प्याज़ के छिलकों पर भी प्यार आ जाता है और हम उसे अपनी जमा-पूँजी के भंडारण में शामिल कर लेते हैं।
तो आइए आज बनाते हैं उन्हीं टूथपेस्ट और शेविंग क्रीम के खाली ट्यूब, प्याज-लहसुन के छिलके, साड़ी या सूट के डब्बे से काला कार्ड-बोर्ड, पिस्ते के छिलके, पके नेनुआ का बीज, कुछ काँच की नली, कुछ मोतियाँ के संयोजन से और Fevicol & कैंची के सहयोग से कुछ Wall Hangings ... वैसे कैसा बना है ...☺☺☺






हस्तशिल्प का ये सफ़र बस यूँ ही ... चलता रहेगा ... एक आशा - एक उम्मीद ...