Friday, December 22, 2023

पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२३)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठ कर जाते-जाते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है। 

गतांक के आगे :-

ललन चच्चा के रसिक चाय दुकान के नजदीक आने से कुछ क़दम पहले ही रेशमा का अपने स्थान से उठकर दो-चार क़दम उनकी ओर बढ़ कर उनका पाँव छूना ही और वहाँ चाय की चुस्की लेने वाली उपस्थित मंडली का चुस्ती के साथ आदर भाव सहित अपने-अपने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार करते हुए अभी-अभी उठ जाना भी सामाजिक दायरे में उनकी प्रतिष्ठा को बतलाने के लिए पर्याप्त है .. शायद ...

परन्तु हमेशा प्रफुल्लित रहने वाला और आध्यात्मिक आभा से दैदीप्यमान रहने वाला ललन चच्चा का मुखड़ा अभी कुम्हलाया देख कर आसपास उपस्थित लगभग हर लोग उनकी ओर सहानुभूति की दृष्टि से देख रहे हैं। उनके बैठने लिए रसिक की दुकान के बेंच पर खाली किए गए जगह पर वह अब बैठ रहे हैं। आख़िरकार मन्टू उनके निकट आ कर उनकी उदासी की वजह वाले सभी ऊहापोह को ख़त्म करने के लिए विनम्रता के साथ अभी कुछ पूछने की सोच ही रहा है कि... रेशमा ही अपने जगह से बैठे-बैठे ही उनसे वार्तालाप की शुरुआत कर देती है ...

रेशमा - " चच्चा ! .. आज सुबह-सुबह क्या हो गया .. जो आप परेशान दिख रहे हैं ? .. आज आपके हारमोनियम की धौंकनी में कुछ गड़बड़ी हो गयी है या विशाखा की किसी ऊटपटाँग फ़रमाइश ने आपको परेशान कर डाला है सुबह-सुबह ? "

रेशमा के द्वारा सवाल पूछे जाने के कारण .. विशेष तौर पर रेशमा को सम्बोधित करते हुए और साथ-साथ बेचारगी युक्त अपनी क़ातर नज़रों से सभी को देखते हुए वह अपने रुँधे हुए कंठ से मानो फूट पड़े हैं।

ललन चाचा - " तुम लोग ईमानदारी से बतलाना कि .. हमारे या हमारे कुल तीन लोगों के परिवार से तुमलोगों को कभी कोई परेशानी हुई है क्या इतने वर्षों में ? .. "

मन्टू - " क्या बात बोल रहे हैं आप चच्चा ? .. उल्टा .. आप के यहाँ रहने से हम सभी को गर्व महसूस होता है .. नहीं क्या चाँद भाई ? "

रेशमा - " और नहीं तो क्या ? .. एकदम सही बात बोल रहे हो भाई .. सुबह-सुबह इनके रियाज़ के दौरान लिए गए आलापों और विशाखा के सरगम छेड़ने से तो मुहल्ले भर में सभी की हर सुबह आँखें खुलती हैं। "

चाँद - " और हर शाम भी तो इनके ग़ज़लों के रियाज़ से पूरा मुहल्ला गुलज़ार हो जाता है .. है कि नहीं मन्टू भैया ? .. "

मन्टू - " अभी तो .. आप ही बतलाइए ना जरा .. आख़िर किसको परेशानी हो गयी यहाँ पर भला .. आपके और आपके परिवार के रहने से ? "

रेशमा - " हाँ .. चच्चा .. बतलाइए ना .. "

ललन चाचा - " बेटा ! .. तुम लोग तो जब से होश सम्भाले हो या जो लोग भी जब से आये हो इस मुहल्ले में .. हमको तो शुरू दिन से ही जानते हो .. "

रेशमा - " हाँ जी चच्चा .. इस में तो कोई भी शंका वाली बात ही नहीं है .."

ललन चाचा - " इतने दिनों में तुम लोगों को तो कभी भी हमसे किसी भी तरह की परेशानी नहीं हुई है .. बल्कि रेशमा और .. इसके अलावा भी कई लड़के-लड़की भी मेरे घर आ-आकर मुफ़्त में गायकी की बारीकी सीखते हैं .. "

मन्टू - " एकदम सही बात है चच्चा .."

रेशमा - " चच्चा आज तक कभी झूठ बोले ही नहीं हैं .."

ललन चाचा - " विशाखा बेटी भी तो आज चौदह साल की हुई है .. तुम्हीं लोगों के सामने .. कभी भी हम लोगों की ऊँची आवाज़ सुने हो तुम लोग ? "

भूरा - " ना चच्चा .. कभी भी ना .. उल्टा .. आप तो हमेशा लोगों के आपसी झगड़े सुलझाते रहते हैं चच्चा .."

चाँद - " ये सब बोलने-बतलाने की बात ही नहीं है भूरा .. कि .. चच्चा एक निहायत ही शरीफ़ इंसान हैं इस मुहल्ले भर में .. "

रेशमा - " छोड़ो भी भाई लोग ये सब .. चच्चा .. आप अपनी बात बतलाइए कि .. कौन हो रहा है भला आप से परेशान ? "

ललन चाचा - " रेशमा .. क्या बोलें तुमको .. एक सप्ताह से मेरे मकान मालिक को मेरे और विशाखा के सुबह-शाम गाने के अभ्यास से अशांति हो रही है। जोकि हम लोग वर्षों से करते आ रहे हैं। यही गीत-संगीत तो हमारी आजीविका कल भी थी और आज भी है .. " 

रेशमा - " आप से सुखपाल चच्चा को परेशानी हो रही है या उनकी पत्नी को ? या फिर उनके बड़े वाले बेटे-बहू को ? "

ललन चाचा - " अंदर की पारिवारिक बात तो नहीं मालूम रेशमा .. पर हमको तो सुखपाल जी ही घर खाली करने की चेतावनी दिए हैं कि .. एक महीने के अंदर ही घर खाली करना होगा, क्योंकि हमलोगों से उन लोगों की शांति भंग हो जाती है। पता नहीं क्यों अचानक से .. जबकि शुरू से ही हर माह समय पर उनके हाथ में किराया देते आ रहे हैं .. फिर भी ..."

मन्टू - " मकान मालिकों का कोई ठिकाना नहीं चच्चा .. अभी ज्यादा किराया देने वाला कोई मिल गया होगा, तो फिर आपका पत्ता साफ़ कर दिया सुखपाल बाबू ने .. इनके साथ आपका वर्षों का रिश्ता .. बस .. मिनटों में फ़ुस्स हो जाता है .. नहीं क्या ? .. अब .. सब कोई मेरी मकान मालकिन शनिचरी चाची जैसी थोड़े ही ना हो जाता है चच्चा .." 

ललन चाचा - " सही कह रहे हो बेटा .. हम तो उनको अपने बड़े भाई की तरह मानते रहे .. उनकी पत्नी को भाभी और उनके बच्चों को अपनी आँखों के सामने बड़ा होते देखे हैं .. उनकी शादी .. फिर उनके बच्चे .. उन बच्चों का बड़ा होना .. सब कुछ हमारी इन्हीं आँखों के सामने हुआ है .. दिन-दिन भर उनके बेटे-बेटी, फिर उनके पोते-पोतियाँ हमारे घर में लोटपोट करते रहते थे .. उनका गुह-मूत सब हमने और विशाखा की माँ ने किया है .. "

रेशमा - " ये सब तो कोई बतलाने वाली बात थोड़े ही ना है चच्चा .."

ललन चाचा - " और तो और .. सुबह-साम की चाय हमलोग साथ में पीते थे .. हम दोनों परिवार के यहाँ कुछ भी विशेष व्यंजन बनने पर हमदोनों के घर में आदान-प्रदान होता था .. तीज-त्योहारों को साथ-साथ मिलकर दोनों परिवार मनाते थे। तीज और करवा चौथ के दिन तो भाभी जी विशेष कर के विशाखा के माँ के साथ मिल कर मेरे ही कमरे में सारा अनुष्ठान करती थीं और नवरात्री के समय या छठ व्रत के दौरान प्रसाद के नाम पर हम तीनों का खाना-पीना उनके ही घर होता था .. फिर अचानक से .. ऐसा व्यवहार ? .. दरअसल अक़्सर अवसर मिलते ही इंसानी इच्छाएँ बलवती हो उठती हैं बेटा .. रात के अँधियारे वाले दुशाले में ना जाने कब इंसान दुश्चरित्रता के पसीने में तरबतर हो जाए .. "

चाँद - " आप ठहरे चच्चा .. एक फ़नकार आदमी, तो .. आप तो जज़्बाती होंगे ही .. जो भी इंसान मन से फ़नकार होता है ना चच्चा .. उसका जज़्बाती होना लाज़िमी है .. या फिर आप ये भी कह सकते हैं कि जज़्बाती इंसान ही फ़नकार होता है चच्चा .. " 

ललन चाचा - " वो तो है बेटा .."

चाँद - " अब आप तो सबसे दिल से जुड़ जाते हैं पर .. लोग  हैं कि आप से तिजारती ही बने रहते हैं .."

रेशमा - " पर ऐसे लोग बहुत ही खतरनाक होते हैं चच्चा .. आप तो देख ही रहे हैं ना .. जिन-जिन देशों में या सभ्यताओं में संगीत-साहित्य के लिए जगह नहीं है .. वो सारे के सारे पूरी दुनिया में आतंकवादी बने फिर रहे हैं .. वो ना तो ख़ुद चैन से रह पाते हैं और ना आम इंसान को चैन से रहने देते हैं .. "

इनलोगों की बातचीत के बीच कलुआ ललन चाचा के लिए बिना चीनी वाली चाय कुल्हड़ में ले कर आ गया है। कलुआ से चाय का कुल्हड़ लेकर ...

ललन चाचा - " एक और बात रेशमा .. हमने जब उनसे बोला कि इतने सालों बाद आपके घर में रहने के बाद इन सारे सामानों के साथ कहाँ और कैसे जाएँगे ? इतने सारे सामान, इतने सारे पौधों के गमले  .. सब कैसे लेकर जा पायेंगे .. जो किराया बढ़ाना हो बढ़ा लीजिए पर .. यहीं रहने दीजिए ना .. "

रेशमा - " घबराइए मत चच्चा .. हम लोग हैं ना .. हमलोग किस दिन काम आयेंगे चच्चा .. जल्दी ही कोई व्यवस्था करते हैं हमलोग .. और .. आपको इसी मुहल्ला में ही रखेंगे .. बाहर कहीं नहीं जाने देंगे .. "

ललन चाचा को रेशमा की बातों से कुछ ढाढ़स होता सा लग रहा है। उनके चेहरे की उदासी कुछ कम हो गयी है। 

ललन चाचा - " जब हमारे पौधों वाले गमले की बात हमने उनसे कही तो .. उनका कहना था कि .. जैसे अपना सब सामान अपने कँधे पर लाद लेकर जाइएगा .. वैसे ही इन गमलों को भी अपने कँधे पर लाद कर ले जाइयेगा .. मेरा तो कलेजा फट गया बेटा .. ऐसी रूखी बात उनके मुँह से सुन कर तो .." 

मन्टू - " तो .. तो क्या चच्चा .. इसमें आपकी बेईज्ज़ती थोड़े ही ना है .. इससे तो उनकी अज्ञानता झलकती है चच्चा .. "

रेशमा - " हाँ .. और क्या .. उस नादान आदमी को ये भी एहसास नहीं है कि .. आपको, हमको, हम सबको और .. उनको भी .. एक ना एक दिन .. चार इंसानी कँधों पर लद कर ही अपने जीवन की अंतिम यात्रा तय करनी है .. फिर ये दूसरे को ऐसी बात कह के नीचे गिराना .. "

मन्टू - " इंसान ख़ुद ही नीचे गिर जाता है .. "

रेशमा - " हाँ तो .. और ये मकान मालिक होने का धौंस जमाना भी एक मूर्खतापूर्ण क़दम है चच्चा .. जबकि इस धरती पर रहने वाला हर इंसान एक किराएदार है .. चाहे वह पचास साल का हो .. सौ साल का हो .. पर है तो वो किराएदार ही .. बस .. उसकी आँखें जब कभी भी चिरनिंद्रा में मूँदी और वह उसी पल अपनी जायदाद से बेदख़ल हो जाता है .. फिर भी इतनी हेकड़ी ? .."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, December 14, 2023

पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "

गतांक के आगे :-

रेशमा के इस तथ्यात्मक सवाल से मयंक निरूत्तर होकर अपनी दोनों हथेलियों से जुड़ी दसों उंगलियों को चटकाते हुए, सामने बैठी रेशमा से लगभग अपनी नज़रें चुराते हुए समर, अमर और अजीत की ओर देखने का प्रयास भर कर रहा है .. जो फ़िलहाल यहाँ से वापस जाने की सोच रहे हैं और ऐसा बोल भी चुके हैं। 

किसी भी इंसान के पास जब कभी भी किसी सवाल या समस्या का हल ना हो तो वह उससे अक़्सर निपटने के बजाए बचने का भरसक प्रयास करता ही नज़र आता है .. कभी अपनी हथेलियों की उंगलियों को चटका कर तो .. कभी पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदने का असफल प्रयास कर के .. शायद ...

तभी अचानक शशांक वर्तमान की वस्तुस्थिती समझते हुए .. रेशमा को ठहरने का इशारा करते हुए अजीत को सम्बोधित करके कह रहा है ...

शशांक - " अजीत .. ठीक है .. तुम लोग निकलो .. तुम लोगों को देर हो रही है .."

अजीत - " हाँ .. सही .. फिर आते हैं हम तीनों किसी भी छुट्टी के दिन .."

अमर - " हाँ.. अब तो आना ही होगा .. कम से कम रसिक भाई की कड़क चाय पीने के लिए तो .. "

समर - " हमको भी रेशमा जी से मिलना अच्छा लगा .. आपके विचार अच्छे लगे .. अब तो बार-बार मिलना ही होगा .. है ना ? .."

बातें करते-करते भावुकतावश नम हो गयी रेशमा की आँखों को देखते हुए अब समर अपनी बात कह रहा है। वैसे तो इन तीनों की बातों में औपचारिकता की झलक तो लेशमात्र भी नहीं जान पड़ रही .. हाँ .. बेशक़ उनकी बातों में आत्मीयता का ही भान हो रहा है। वैसे भी जब दो इंसानों के विचार आपस में मिलते हों तो ... तो .. पर .. हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज किन्नरों को इंसान मानता कब है भला ? 

किन्नरों को तो .. हमारा उपरोक्त समाज हिजड़ा, छक्का, नामर्द जैसे संज्ञाओं से विभूषित करके सदियों से .. पीढ़ी दर पीढ़ी उपहास का पात्र बनाकर किसी 'एलियन' की तरह घूरता आया है। हमारी सामाजिक दकियानूसी सोचों के कारणवश ही, हमारे लिए सहज-सुलभ उपलब्ध कई सारे अवसरों से भी, सदियों उन्हें वंचित रख कर हमने अपने जननांगों पर अपनी गर्दन अकड़ाई है .. शायद ...

अब ऐसे में उन लोगों का मज़बूरीवश किसी 'ट्रेन-बस' में या कभी-कभी चलते-फिरते सड़कों-बाज़ारों में अक़्सर अपनी एक हथेली क्षैतिजतः और दूसरी को उर्ध्वाधरतः दिशा की मुद्रा में रखकर और दोनों हथेलियों की उंगलियों को लगभग नब्बे डिग्री पर अलग-अलग दिशा में रखते हुए .. सर्वाधिकार सुरक्षित वाली मुद्रा में विशेष तरीके से .. ताली बजा-बजा कर और .. प्राकृतिक रूप से अपनी काया के 'हार्मोनल' असंतुलन के कारणवश भारी आवाज़ या यूँ कहें कर्कश आवाज़ में कई तरह के लोकगीत या फिर फ़िल्मी हास्यानुकृति (पैरोडी/Parody) गा-गा कर अपने जीविकार्जन के लिए या तो .. प्रेमपूर्वक अपने हाथ फैला कर लोगों से सहायता माँगते हैं या कई बार भद्दे ढंग से छेड़ के या यूँ कहें कि .. परेशान करके रुपए वसूलते हैं। इनकी इन सब बेतुकी करतूतों के लिए भी हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज ही उत्तरदायी है .. शायद ...

प्रसंगवश .. यूँ तो सर्वविदित है कि हमारे सभ्य समाज की ताली का स्वरूप, इनकी ताली से इतर होता है। किन्नरों से इतर नर-नारी वाले हमारे तथाकथित समाज की तालियों के दौरान दोनों हथेलियाँ प्रायः उर्ध्वाधरतः रहती हैं और दोनों हथेलियों की सारी उंगलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श करती हुईं, एक-दूसरे के सामने समानान्तर होती हैं। इन तालियों के भी कई ताल और ताल पर आधारित इनके नाना प्रकार होते हैं। मसलन- आरती-पूजा की ताली, कव्वाली की ताली, योगाभ्यास की ताली, 'सिनेमा हॉल' या 'मल्टीप्लेक्स' में बजने वाली ताली, खेल के मैदान में बजने वाली तालियाँ, नेता जी के भाषण के तदोपरान्त वाली ताली, किसी विशिष्ट जन के स्वागत की ताली, कवि गोष्ठी या मुशायरे वाली ताली, गुस्से में "वाह बेटा ! वाह !" कहते हुए हथेलियों को मसल-मसल कर बजायी गयी ताली, तम्बाकू (खैनी) मलते समय बजने वाली ताली, रास्ते या मैदान में साइकिल या 'स्कूटी' चलाना सीख रहे या रही किसी नवसिखुए के असंतुलित होकर गिर जाने पर आसपास खेल रहे बच्चों द्वारा बजायी गयी ताली, अबोध बच्चों द्वारा हर्षोल्लास में अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से बजायी गयी ताली, तथाकथित सभ्य जन द्वारा किसी सभा में बेआवाज़ बजायी जाने वाली सभ्य ताली, लोकसभा और राज्यसभा में क्रमशः सांसद और विधायकों द्वारा .. "ताली दोनों हाथ से बजती है" जैसे मुहावरे को मुँह चिढ़ाते हुए .. मेज पर एक ही हथेली से थपकी दे-देकर किसी बात के समर्थन में या किसी बात की ख़ुशी में बजने वाली ताली, मेले, मदारी, सर्कस में दर्शकों की सामूहिक तालियाँ इत्यादि नाना प्रकार की तालियों को .. करतल ध्वनियों के ताल-बेताल वाले सुर-ताल के साथ तो .. हम और हमारा तथाकथित सभ्य समाज सहर्ष स्वीकार कर ही लेता है .. परन्तु .. सिवाय और सिवाय एक ताली के .. किन्नरों की तालियों के .. शायद ...

ख़ैर ! .. अब रसिक चाय दुकान की कड़क चाय पीने के बाद समर, अमर और अजीत .. तीनों लोग मयंक, शशांक, रेशमा, रेशमा की टोली, मन्टू, चाँद और भूरा के साथ-साथ रसिक और कलुआ से भी मिलकर अपने 'पी जी' वाले गन्तव्य की ओर सभी को 'टाटा' की मुद्रा में हाथ हिलाते हुए प्रस्थान कर रहे हैं। 

तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठते-उठते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर  की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है। 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

 

Sunday, December 10, 2023

पूजा विथ पर्पस ...


"पूजा विथ पर्पस" (Puja with Purpose)
.. जी हाँ ! .. आज की बतकही का शीर्षक यही रखा है हमने। कुछ ऊटपटाँग-सा .. शायद ... हिंदी और अँग्रेजी शब्दों के घालमेल से .. पर .. दरअसल यह किसी समाज का नारा (Slogan) है। हम तो केवल .. यूँ समझ लीजिए कि .. इस सच्चे नारे से सम्बन्धित एक सच्ची घटना को आप तक ज्यों का त्यों रख रहे हैं .. बस यूँ ही ...

समाज के बुद्धिजीवियों का दकियानूसी वर्ग प्रायः समाज के हर सकारात्मक बदलाव को ऊटपटाँग मान कर या तो नकारने का भरसक प्रयास करता है या तो फिर कम से कम उसकी आलोचना करने भर से तो नहीं चूकता है। ऐसे में तथ्यपरक घटनाओं के लिए भी तथ्यहीन छिद्रान्वेषण करके स्वयं का और दकियानूसी वर्ग के लिए भी तुष्टिकरण का ही तथाकथित पुनीत कार्य करता है .. साथ ही वह बेशक़ .. ऊटपटाँग औचित्यहीन दकियानूसी अंधपरम्पराओं को सिर माथे पर चढ़ाए, उसके क़सीदे पढ़ने में मशग़ूल रहता है .. शायद ...

दूसरी ओर इसी समाज के कुछेक बुद्धिजीवियों का वर्ग अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के तहत समाज को यथोचित सकारात्मक राह की ओर मोड़ने की ख़ातिर कुछ ना कुछ अच्छा करके या यूँ कहें कि .. कुछ बेहतर करके समाज के सामने एक आदमकद दर्पण रख देता है, ताकि जिनमें उसी समाज के दकियानूसी सोच वालों को अपने अट्टहास करते हुए घिनौने और क्रूर मुखड़े की झलक भर दिख जाए .. शायद ...

ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना को, जो उत्तराखंड जैसे अंधपरम्पराओं और रूढ़ीवादी रीति-रिवाजों वाले राज्य में भी काशीपुर के जितेन्द्र भट्ट नाम के एक संगीत शिक्षक ने अपनी बेटी रागिनी की पहली माहवारी शुरू होने पर इसी वर्ष अभी हाल ही में किसी जन्मदिन के समान ही उत्सव का आयोजन किया था और जिसे हमने अपनी बतकही से भरी अपनी "साप्ताहिक धारावाहिक पुंश्चली के चौथे भाग" में गूँथ कर परोसने का प्रयास भर किया था .. बस यूँ ही ...

आज ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना की चर्चा अपनी आज की बतकही में कर के हम उन क्रांतिकारी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के वर्ग की सराहना करने का प्रयास भर कर रहे हैं .. शायद ...

दरअसल अभी कल ही 'सोशल मीडिया' के माध्यम से सप्रमाण हमारे संज्ञान में आया कि भारत भर में सर्वाधिक आदिवासियों की जनसंख्या वाले राज्य- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में, जहाँ वर्ष 1984 में इसी दिसम्बर माह के दो-तीन तारीख़ की दरमियानी रात को अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन की भारतीय सहायक कंपनी के कीटनाशक बनाने वाले 'प्लांट' से हुए ज़हरीले 'मिथाइल आइसोसाइनेट गैस' के रिसाव के कारण तात्कालिक साँस लेने वाले हजारों मानव शरीर निर्जीव हो गए थे और लाखों अपंग .. जिन "भोपाल गैस काण्ड" के मुआवज़े के हक़दार .. हजारों आमजन तत्कालीन सरकार की ओर टकटकी लगाए-लगाए निराश हो गए थे .. शायद ...

मध्यप्रदेश की उसी राजधानी भोपाल में "भोपाल गैस काण्ड" के लगभग उनचालीस वर्षों बाद .. इसी वर्ष वहाँ की एक बंगला भाषी बाहुल्य वाले मुहल्ले- अरेरा कॉलोनी में अवस्थित दुर्गा बाड़ी के अन्नपूर्णा देवी मंदिर में विगत कुछ महीनों से अन्नपूर्णा देवी को पेड़-पौधों की नाज़ुक डालियों से निर्ममता के साथ तोड़े गए फूलों-पत्तियों, मिठाईयों या रुपयों-पैसों का चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता है।

जिन चढ़ावों में से प्रायः चढ़ावे वाले फूलों-पत्तियों को बाद में कचरे में या नदी-नालों में प्रदूषणों का सबब बनाया जाता है। चढ़ावे वाली मिठाईयों की ज़िक्र करें, तो .. बाज़ारों में उपलब्ध अधिकांशतः मिलावटी मिठाईयों से हम अपना और पड़ोसियों के भी स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं और रुपयों-पैसों की बात करें तो इन से देश भर में चलने वाले कुछेक बहुउपयोगी संस्थानों को छोड़ दें, तो अधिकांश मामलों में तो .. ये सारे धन तोंदिलों की तोंदों की गोलाई के घेरों को बढ़ाने के काम ही आ पाता है .. शायद ...

अतः इन सभी के बदले यहाँ 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप' चढ़ाए जा रहे हैं। हाँ, सही ही पढ़ा है आपने .. 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप'। 'सोशल मीडिया' के सूत्रों से यह ज्ञात हो रहा है, कि अब तक लगभग ग्यारह हजार 'सैनिटरी पैड' चढ़ाए जा चुके हैं, जिनका बाद में भोपाल की ही गन्दी बस्तियों और सरकारी बालिका विद्यालयों की रजस्वला बालिकाओं और महिलाओं के बीच मुफ़्त में वितरण कर दिया जाता है .. बस यूँ ही ...

प्रसंगवश हम क्षमाप्रार्थी हैं .. अभी-अभी "गन्दी बस्तियों" जैसे शब्दों को व्यवहार में लाने के लिए .. पर हमारी मज़बूरी है, कि 'स्लम एरिया' का हिंदी में शाब्दिक अर्थ तो "गन्दी बस्ती" ही होता है। लेकिन यही 'स्लम एरिया' या 'स्लम' बस्ती जैसे शब्द हम धड़ल्ले से कह जाते हैं और गन्दी बस्ती बोलने से तो वहाँ के निवासियों के लिए अमूमन गाली की तरह एहसास कराता है। ऐसे और भी अन्य उदाहरण हैं। मसलन - हम प्रायः धड़ल्ले से 'बाथरूम', 'वाशरूम', 'रेस्ट रूम', 'पॉटी' या 'पोट्टी' जाने की बात या फिर 'प्रेशर' लगी है जैसे ज़ुमले बोल देते हैं, परन्तु उतनी ही बेझिझक हम .. पखाना जा रहे हैं .. नहीं बोल पाते हैं। ऐसा बोलने पर हमें असभ्य समझा या कहा जाता है .. और सच्चाई तो यही है कि हमारे खाते वक्त कोई भी ये हिंदी शब्द - पखाना .. बोले तो उबकाई-सी होने लग जाती है .. नहीं क्या ? .. जैसे अभी आपको हमारी ये बतकही पढ़ते हुए ऊब हो रही होगी .. शायद ...

ख़ैर ! .. आज की बतकही के मुख्य विषय पर लौटते हुए .. हालांकि यहाँ पर हिंदू मान्यताओं के अनुसार तीन दानों- अन्न दान, विद्या दान और आरोग्य दान को तरजीह दी गयी है, पर समय और सोच के अनुसार बदले हुए रूप में .. शायद ...

दरअसल अन्न दान के तहत गेहूँ या दालें दान किए जाते हैं। ताकि एक ग़रीब परिवार में भी सभी मिल कर राजेंद्र कृष्ण जी की रचना को गुनगुना सकें कि "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .. दूसरा विद्या दान के तहत किताबें, कलम, कॉपी और अन्य लेखन-पाठन सामग्रियाँ; ताकि आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के बच्चों को भी शिक्षित किया जा सके और .. तीसरा .. आरोग्य दान के तहत ही 'सैनिटरी पैड्स' और 'मेंस्ट्रुअल कप्स' भी ग़रीब-असहाय परिवार की रजस्वला बच्चियों-महिलाओं को दान कर दिए जाते हैं।

इस मन्दिर का पूरा पता है- इ-७ / ३०४-ए, अरेरा कॉलोनी, रेणु विद्यापीठ विद्यालय के बगल में, भोपाल -४६२०१६, मध्यप्रदेश (E-7 / 304-A, Arera Colony, Beside - Renu Vidyapith School, Bhopal - 462016, Madhya Pradesh) है।

इस सकारात्मक सोच के पीछे वहाँ की बुद्धिजीवी आम जनता की क्रांतिकारी सोच के साथ-साथ वहाँ की एक गैर सरकारी संगठन (NGO) - "हेशेल प्रतिष्ठान" ( Heychel Foundation ) का भी बेशकीमती योगदान है और इस "हेशेल प्रतिष्ठान" के इस नेक कार्य में सहायता प्रदान करती है .. अपने देश की एक पंजीकृत दानी संस्था (Registered Charity)- "भारतीय परिवार नियोजन संघ" (Family Planning Association of India - FPA, India), जिसकी लगभग चालीस शाखाएँ देश भर में यौन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन को बढ़ावा देती हैं।

भोपाल के इसी दानी संस्था जैसे गैर सरकारी संगठन- "हेशेल प्रतिष्ठान" का नारा है - "पूजा विथ पर्पस" (Puja with Purpose) यानी उद्देश्य के साथ पूजा .. आज की बतकही में बस इतना ही .. बस यूँ ही ...

आइए .. अंत में हम सभी मिलकर राजेंद्र कृष्ण जी की उस रचना को गुनगुनाते हैं, जिसे वर्ष 1973 में, जब हम महज़ सात वर्ष के रहे होंगे, फ़िल्म- "ज्वार भाटा" के लिए संगीतबद्ध किया था- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने, अपनी सुरीली आवाज़ दी थी- लता मंगेश्कर जी और किशोर कुमार जी ने और फ़िल्मी पर्दे के लिए धर्मेन्द्र और सायरा बानो जी की जोड़ी को फ़िल्माया था- तेलगु फ़िल्म के निर्देशक अदुर्थी सुब्बा राव जी ने, जो फ़िल्म तेलगु फ़िल्म "दगुडु मुथालु" का हिंदी संस्करण था। तो .. हो जाए .. "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .





Thursday, December 7, 2023

पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२१)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ - " क़ानून और एन जी ओ .. सही कह रहे तुम .. वैसे तो .. "

गतांक के आगे :-

समर - " वैसे तो .. एक बात हम कहें ? .. फिर आप बोलिएगा .. "

रेशमा - " जरूर .. "

समर - " हमारा चेहरा अभी नया है इस मुहल्ले में और हम वक़ील चाचा को जानते भी नहीं अभी और ना ही हमें वह .. इसीलिए हम टोके नहीं आप दोनों के बीच में वर्ना .. हम उनसे पूछते कि अगर अपने आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से 'काउंट डाउन' के अंतिम चरण के बाद किसी भी अंतरिक्ष यान को 'लॉन्च' करते समय यदि वहाँ उपस्थित किसी वैज्ञानिक को छींक आ जाएगी तो .. क्या उस यान को रोक लेना चाहिए .. या क्या उस यान को फिर से 'प्लेटफॉर्म' पर हम लौटा लायेंगे कि फलां को छींक आ गयी है, जतरा ख़राब हो गया है, अभी थोड़ा रुक कर दुबारा 'लॉन्च' करेंगे। मतलब .. उसे वापस कर के फिर से 'काउंट डाउन' .. "

समर की इस बात को सुनकर रेशमा के साथ-साथ यहाँ उपस्थित सभी हँसने लगे हैं। समर भी इन लोगों की हँसी में शामिल होकर फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए रेशमा की प्रशंसा करते हुए बोल रहा है, कि ...

समर - " आप बिंदास हो कर किसी को उसकी दकियानूसी सोच पर जिस तरह बेहिचक टोक देती हैं .. अच्छा लगा हमको। हम भी तो कई बार लोगों को टोक पाते हैं और .. कई बार झेंप के कारण नहीं बोल पाते हैं। "

रेशमा - " तुम्हें लगता होगा कि मालूम नहीं सामने वाला बुरा मान जाएगा और तुमको बुरा-भला कहेगा या फिर उसके साथ तुम्हारे सम्बन्ध बिगड़ जायेंगे .. है ना ? "

समर - " हाँ ! .. बिल्कुल सही कह रही हो आप .. "

रेशमा - " पर .. यदि तुम्हारे मन के तराजू पर कोई भी तथ्य सही लगे तो .. बातें मन में नहीं रखनी चाहिए .. बक देनी चाहिए। समझे ? .. अगर नहीं बोलोगे तो .. मन में दबी-दबी वही बातें तुम्हारे दिल के दौरे का कारण बन जाएगी एक दिन .." 

अब प्रसंगवश अपने सभ्य समाज के एक आम प्रचलन की बात कर ही लेते हैं। अभी हम चर्चा कर रहे थे वक़ील चाचा की, तो .. वक़ील चाचा, दारोग़ा मामा, 'मजिस्ट्रेट' जीजा जी, प्रोफ़ेसर फ़ूफ़ा जी, 'टिचराइन' दीदी, नेता मौसा जैसे सम्बोधन हमारे बुद्धिजीवी समाज में आम हैं। इन तरह की परिस्थितियों में इंसान के नाम वाला या सम्बन्ध वाला संज्ञा गौण हो जाता है और उनके पद या व्यवसाय वाले विशेषण मुखर हो जाते हैं। दरअसल उनके पद को बातों-बातों में सम्बोधन के बहाने उभारने में स्वयं के और सामने वाले के अहम् को पोषण मिलता है .. शायद ...

रेशमा - " जाने भी दो ना समर .. तुम भला उस समाज से क्या अपेक्षा कर सकते हो .. जिस समाज में हरी मिर्ची और नींबू का उपयोग लोग अपने स्वास्थ्य और स्वाद के लिए खाने से भी कहीं ज्यादा प्रत्येक शनिवार को टोने-टोटके के लिए दरवाजे पर लटकाने में करते हैं .. "

समर - " वाकई .. और हर सप्ताह ही .. एक सप्ताह के बाद उसके टंगे-टंगे सूख जाने पर कचरे में फेंक देते हैं "

रेशमा - " समर .. हम भी तो इस समाज में कचरे की तरह ही तो ढोए जा रहे हैं ना ? .. तुम क़ानून और एन जी ओ की बात कर रहे थे ना अभी .. माना कि हमें .. युगों बाद मतदान का, शिक्षा का, रोजगार का और सामाजिक स्वीकार्यता का भी समान अधिकार दिया गया है। है ना ? .. और तो और .. पिछड़े वर्ग का आरक्षण भी दिया गया है। "

मयंक - " हाँ तो ! .. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किन्नरों को लिंग के तीसरे वर्ग के रूप में मान्यता देने के बाद से हमारा देश विश्व में ऐसा पहला देश बन गया है। "

समर - " तभी तो शबनम मौसी, किन्नर सोनम चिश्ती, मधु किन्नर जैसे कई किन्नरों को समाज के लिए अपना योगदान प्रदान करने का मौका मिला है। नहीं क्या ? .. "

शशांक - " कई सारे सरकारी और ग़ैर सरकारी संगठन आपलोगों के लिए दिन-रात सेवारत हैं। "

रेशमा - " वो सब तो ठीक है .. आप सभी सही बात बतला रहे हैं, पर .. आप बोलिए मयंक भईया कि .. आप लोगों को किसी भी 'मॉल', 'सिनेमा हॉल', 'स्कूल-कॉलेज', सरकारी या निजी कार्यालय जैसे सार्वजनिक स्थल या फिर किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में भी 'वाशरूम' के लिए 'ही' (HE) और 'शी' (She) के अलावा भी कोई तीसरी तख़्ती या 'बोर्ड' टँगी दिखी है क्या कभी ? "

रेशमा अपने 'डिस्पोजेबल कप' से चाय की आख़िरी घूँट को अपने मुँह में उड़ेलते हुए उस 'कप' को सामने ही पड़े 'डस्टबीन' में फेंक कर, फिर से अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए कह रही है ...

रेशमा - " कोलकाता में कुछ बसों को छोड़ कर पूरे देश भर के 'बस', 'ट्राम', 'डबल डेकर' जैसे सार्वजनिक परिवहनों में "केवल महिलाओं के लिए" की तरह "केवल किन्नरों के लिए" भी लिखा दिखता है क्या कहीं ? "

रेशमा के इन प्रश्नों के पूछे जाने पर यहाँ उपस्थित सभी निरूत्तर होकर रेशमा से अपनी नज़रें बचाने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं। 

रेशमा - " किसी से सुना या जाना भी है क्या कि .. अपने देश के किसी भी चुनाव क्षेत्र में महिला या किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित 'सीट' की तरह किन्नरों के लिए भी कोई 'सीट' आरक्षित है ? है क्या ? "

मन्टू - " नहीं ... "

पास ही में कलुआ इनलोगों की बातों के विषय से आंशिक या पूर्णतः अनभिज्ञ पहले तो खड़ा-खड़ा .. फिर थक कर चुक्कु-मुक्कु बैठा, किसी चोटी की तरह, एक दूसरे में गूँथी हुई अपने दोनों हाथों की उँगलियों के गुँथे हुई हिस्से पर अपने सिर के पिछले हिस्से को टिका कर मुलुर-मुलुर सब का मुँह देखते हुए .. थोड़ी-बहुत .. कुछ भी बात अपने दिमाग़ में अँटाने की कोशिश कर रहा है। 

अचानक चाँद उसकी ओर देख कर रसिक चाय वाले को बोलता है कि ...

चाँद -" रसिक भाई ! .. आप दुकान बढ़ाने के बाद कलुआ को पढ़ने के लिए मयंक भईया के पास क्यों नहीं भेज देते हैं ? दो-चार अक्षर पहचानने लग जाएगा तो अपने भावी  जीवन का गणित भी समझ पाएगा। .. समझ रहे हैं न.  .. जो हम कहना चाह रहे हैं ? " 

अभी चाँद रसिक को नसीहत दे ही रहा है, तभी सरकारी बालिका विद्यालय की कुछ लड़कियों की एक टोली अपने स्कूल की ओर जाने के क्रम में सामने से गुजर रही है और उन्हीं में से एक छात्रा अपनी टोली से दो-चार क़दम आगे कुलेलें करते और चौकड़ी भरते हुए एक पुराने फ़िल्म का गाना गाती जा रही है ...

छात्रा - " पंछी बनूँ , उड़ती फिरूँ, मस्त गगन में ~~~ "

तभी रेशमा उस बच्ची के बोल के बाद उसके सुर में सुर मिलाते हुए अपनी सुरीली आवाज़ में उस का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करती है ...

रेशमा - " आज मैं आज़ाद हूँ, दुनिया की चमन में .. हिल्लोरी हिल्लोरी ..~~~ "

वह छात्रा मुस्कुराते हुए रेशमा की ओर मुड़ कर देख रही है। तभी रेशमा भी मुस्कुरा कर उस से प्यार से पूछती है...

रेशमा - " स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम का पूर्वाभ्यास तुम राह चलते कर रही हो ? .. आँ ?.. "

वह छात्रा झेंपती और सकुचाती-मुस्कुराती हुई और भी तेजी से आगे निकल जाती है।

समर - "अब चलना चाहिए अमर भईया .."

अमर - " हाँ .. चलो .. "

रेशमा - " इतनी जल्दी भी क्या है समर भाई .. थोड़ी देर और .. तुम्हें तुम्हारे पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी जी की एक रचना- "गेहूँ और गुलाब" पढ़ायी जायेगी, जो हमने पढ़ी है, जिसमें उन्होंने कभी ये लिख कर .. कि .. मानव-शरीर में पेट का स्थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। " 

अचानक रेशमा की नज़र मयंक की ओर जाती है, जो उसी की ओर देख रहा है। उसे यह भान होता है कि दरअसल वह यही बात कई दफ़ा मयंक और शशांक के साथ भी कर चुकी है। वह इस विषय को बोलते वक्त प्रायः द्रवित हो जाती है। अभी भी वह .. 

रेशमा - " हम मानवों के पेट, हृदय और मस्तिष्क की चर्चा के साथ-साथ पशुओं से तुलना करने की कोशिश तो की जरूर है रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने, पर .. हमारे जननांगों की चर्चा तो नहीं की है एक बार भी। मतलब .. उनकी नज़रों में हम इंसानों के पेट, हृदय और मस्तिष्क ही हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक और मुख्य भी हैं और होनी भी चाहिए .. नहीं क्या ? "

समर - " हाँ .. बातें तो सही हैं .."

अक़्सर हर इंसान अपने पक्ष की बात होने पर, उसे विस्तारपूर्वक अविराम होते रहने देना चाहता है। वह बातों के वर्तमान सिलसिले के दौरान तत्क्षण अपने हर पहलू का विस्तार चाहता है।

रेशमा - " हमारे जन्मजात अविकसित जननांगों के कारण ही हम में एक संतानोत्पत्ति की क्षमता की ही तो कमी है। इस कमी में भी हमारा कोई दोष नहीं, वरन् यह एक क़ुदरती विज्ञान है, जिसकी त्रुटियों का ही यह प्रतिफल होता है .. हमारा अविकसित गुप्तांग या जननांग। वैसे भी तो हमारे देश की जनसंख्या आवश्यकता से अधिक है। ऐसे में अगर हमारे जैसे कुछ लोग बच्चे पैदा नहीं कर पाते हैं, तो इससे कौन सी आफ़त आ जायेगी .. हमारे समाज में .. हमारे देश में या .. इस धरती पर ? .. आँ ! .. "

शशांक - " कुछ भी तो नहीं .."

रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

 

Thursday, November 30, 2023

पुंश्चली .. (२१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२०)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - "ये सब गलत बातें हैं बच्चों .. अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो .. अब जाओ भी .. देर हो गयी तो मैम मारेंगी .. जल्दी जाओ .."

गतांक के आगे :-

रेशमा की दी गयी नसीहत से स्कूल जा रहे बच्चों के मुखमंडल पर मानो ऊहापोह के भाव आलेपित हो गए हैं। स्वाभाविक भी है कि इन बच्चों के मन में बसे इनके आदर्श .. इनके माता-पिता और इनके शिक्षकगण .. सभी जिन घटनाओं से प्रायः जोर देकर अपशकुन को जोड़ते हैं, उसी के लिए रेशमा का इस तरह प्रतिक्रिया देना कि यह तो एक आम घटना भर ही है .. जिसके लिए यूँ राह चलते अचानक इन सभी का थम जाना एक बेवकूफ़ी के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

ख़ैर ! .. बच्चे अपने कोमल बालमन में उधेड़बुन की ताना-बाना बुनते-गढ़ते अपने-अपने स्कूल की ओर जा रहे हैं और इधर कलुआ के हाथों से पूरे ग्यारह लोगों की मंडली के लिए चाय भी आ गयी है। ग्यारह लोग मतलब .. रेशमा, उसकी टोली के सात किन्नर लोगों के अलावा भूरा, चाँद और मन्टू .. सभी लोग बारी-बारी से चाय से भरी एक-एक 'डिस्पोजेबल कप' उठा कर अब कमोबेश चाय सुड़कने लगे हैं। दरसअल .. चाय पीना तो बस .. इन लोगों का एक बहाना भर होता है। सच्चाई तो होती है .. चाय की चुस्कियों के साथ-साथ आस-पड़ोस, घर-मुहल्ले, गाँव-शहर, देश-विदेश, चाँद-मंगल, धरती-ब्रह्मांड, भगवान-शैतान, जाति-धर्म, सरकार-विपक्ष की चटपटी बातों के सिलसिला को क़ायम रखना। पर हाँ .. बेशक़ सभी की बातों के विषय एक जैसे नहीं होते .. अलग-अलग होते हैं .. वो भी इनकी रूचि और इनकी मानसिकता के अनुसार .. शायद ...

अभी चाय की चुस्की और घूँट से क्रमशः सभी के होंठों और गले की खुश्की चायसिक्त होते ही किसी भी विषय पर कुछ-कुछ बातें निकलने ही वाली हैं, तभी तपाक से भूरा चाय सुड़कते हुए अपनी दायीं तर्जनी से इंगित करते हुए बोल पड़ा है ...

भूरा - " अरे ! .. देखो मयंक और शशांक भईया फिर से इधर ही आ रहे हैं .. कोई भी कुछ भी ऊटपटाँग बातें मत छेड़ना .. समझे ना सब ? " 

चाँद - " अभी सुबह ही तो चाय पीकर गए थे दोनों .. फिर से ? .. दोबारा .. शाम के बदले अभी ही आ रहे हैं .. "

मन्टू - " साथ में तीन बन्दे और भी हैं उन दोनों के .. तीनों नए चेहरे हैं .. "

रेशमा - " हाँ .. सही में .. इसके पहले इन लोगों को यहाँ नहीं देखा कभी .. है ना चाँद भईया ? .. "

तब तक मयंक और शशांक तीन अन्य नए लड़कों के साथ इन लोगों के समीप आकर ..

मयंक - " सही कह रहे हैं आप लोग .. ये तीनों आज पहली बार ही आए हैं यहाँ .. हम दोनों से मिलने हमारे पी जी में .."

शशांक - " अभी इन तीनों के आने पर .. इनको चाय पिलाने के बहाने रसिक के दुकान पर आने के कारण आप लोगों से भी मुलाकात हो गयी .. ख़ासकर के .. रेशमा से .. है ना मयंक ? .. "

मयंक - " हाँ .. हाँ .. सही में .. इससे हफ़्तों भेंट नहीं हो पाती है .. " - रेशमा को सम्बोधित करते हुए - " कैसी हो रेशमा ? .. तुम सब लोग स्वस्थ हो ना ? " 

रेशमा - " हाँ मयंक भईया .. हम सब कुशलमंगल हैं .. और आप लोग ? "

शशांक - " हम सबलोग भी ठीक हैं। इन तीनों से भी मिलो आप लोग। ये है अमर, अजीत और समर .. अमर और अजीत .. दोनों एक ही गाँव के हैं .. यहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने आये हैं और समर तो अभी इंटरमीडिएट और उससे आगे की पढ़ाई करने के लिए यहाँ आया है .."

मयंक - " दरअसल समर कल ही अपने गाँव से यहाँ आया है। यहाँ के एक अच्छे 'कॉलेज" के 'एडमिशन लिस्ट' में इसका नाम आ गया है। अपने गाँव से ही दसवीं का 'बोर्ड एग्जाम' 'पास' किया है, पर .. आगे की अकादमिक पढ़ाई के लिए इसके पिता जी ने यहाँ पढ़ाई की अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण भेजा है .."

शशांक - " अमर और अजीत पहले तो मोनिका भाभी वाले अपने ही पी जी में रहने आए थे, पर यहाँ ना तो कोई 'रूम' खाली है और ना ही कोई 'बेड' तो .. ये लोग अम्बेदकर नगर वाले पी जी में रह रहे हैं .. " 

मयंक - " भविष्य में कभी यहाँ खाली हुआ तो ये लोग यहीं आ जायेंगे .. वैसे तो .. भले ही उस समय मोनिका भाभी के पी जी में रूम या बेड नहीं मिला, पर इनसे अपनी जान-पहचान उसी दौरान हुई थी .. " 

रेशमा - " बीच-बीच में तो .. रूम या बेड खाली होता ही रहता है ना .. "

शशांक - " खाली जब होगा, तब होगा पर .. पर पहली मुलाक़ात में ही हमलोगों की आपसी बातचीत के दरम्यान आपसी विचारों के बहुत हद तक मेल खाने के कारण इनका कुछ दिनों से यदाकदा यहाँ आना-जाना लगा रहता है। जिनके साथ विचार मेल खाते हों, तो उनके साथ समय बिताने में समय का पता ही नहीं चलता और सकारात्मक अनुभूति भी होती है .. नहीं क्या ? "

मयंक - " आज अमर और अजीत आएँ हैं समर को हम दोनों के साथ-साथ मोनिका भाभी से पहली बार मिलवाने और हमलोगों के पी जी को दिखलाने भी। संयोग है कि .. अभी आप सभी से इकट्ठे भेंट हो गयी .."

अचानक रेशमा का ध्यान अभी-अभी आए मयंक-शशांक सहित पाँच लोगों के लिए चाय मँगवाने की ओर गया, तो वह कलुआ को भी सुनाते हुए रसिक को बोल रही है।

रेशमा - " रसिक भईया .. पाँच और चाय भेजिए जल्दी से .. मयंक भईया के 'स्टाइल' में .. एकदम से कड़क बना के जरूर भेजिएगा .. "

कलुआ एक साथ इतने सारे ग्राहक को इकट्ठे देख कर थोड़ी ज्यादा ही फ़ुर्ती से काम करने लगा है। पर बाद का पाँच कप चाय लाने के बाद अब भले ही यह चुकुमुकु बैठ कर सभी का चेहरा अपनी दोनों निस्तेज आँखों से मुलुर-मुलुर ताकने लगा है और अपनी मटमैली कर्णपाली इन लोगों की बातों पर लगाए हुए है। वैसे तो फ़ुर्सत के वक्त, जब ग्राहक ना के बराबर होते हैं रसिक चाय दुकान पर, तो अक़्सर यह पुराने अख़बार के पन्ने से एक कोने को फाड़ के फुरेरी बना कर अपने कान की सफ़ाई करता रहता है और दुकान पर आए कई ग्राहकों की देखा देखी नाक में भी वैसी ही फुरेरी डाल कर छींकता रहता है। कभी-कभी तो कुछ वृद्ध ग्राहकों की ही देख-देख कर सूरज की तेज किरणों की ओर नाक-मुँह कर के भी छींकने का प्रयास करता है। वह छींकता भी है तो अपने नाक-मुँह पर बिना हाथ रखे हुए। रुमाल नाम का कोई कपड़ा का टुकड़ा तो उस के शब्दकोश में है ही नहीं। पर हाँ .. कई-कई बार मयंक और शशांक के सामने ही नाक-मुँह पर बिना हाथ रखे हुए छींकने पर, उन के द्वारा बार-बार टोकते रहने पर और सही तरीका बतलाते रहने पर .. कम से कम उन लोगों के सामने तो स्वाभाविक छींक आने पर भी कलुआ अपनी नाक अपने दायीं या बायीं बाजू-काँख में जल्दी से घुसेड़ लेता है।

तीनों आगंतुकों के साथ सभी एक दूसरे से परिचित होने के बाद चाय की चुस्की का आनन्द ले-ले कर बातें करने लगे हैं। पर मन्टू का ध्यान अभी भी अंजलि के घर के कूड़े से मिली गर्भ जाँच वाली 'स्ट्रिप' की दोनों गुलाबी रेखाओं की बाड़ में ही क़ैद है।

इसी बीच कलुआ को जोर से छींक आयी और वह मयंक के डर के कारण जल्दी से मुँह घुमा कर जोर से छींक दिया है। तभी रेशमा का ध्यान सड़क की ओर गया कि कलुआ के छींकते ही, अभी 'कोर्ट' जाते हुए मुहल्ले वाले वक़ील साहब कलुआ की ओर गुस्से में घूरते हुए वापस अपने घर की ओर  चार क़दम चल के खड़े हो गए हैं। तभी रेशमा ठठाकर हँस पड़ती है और ठिठोली वाले अंदाज में वक़ील साहब से पूछती है।

रेशमा - " क्या हुआ वक़ील चाचा ? घर पर कुछ भूल आए हैं क्या ? "

वक़ील साहब - " अरे ना ! .. इ कलुआ छींक के मेरा जतरा बिगाड़ दिया भोरे-भोरे .. "

रेशमा - " चच्चा .. ऐसा किस पुराण में पढ़ लिए हैं आप ? अब इसको सर्दी से छींक आ गयी तो आपका जतरा बिगड़ गया .. है ना ? चच्चा ! .. समय के साथ अपनी दकियानूसी सोच बदल दीजिए। अंतरिक्ष यान पर सैर करने जाने की तैयारी करने की बारी आ रही है और आप छींक में अटक-भटक रहे हैं .. च् .. च् .. च् .."

आसपास के लगभग सभी लोग मुँह छुपा कर और वक़ील साहब से नज़रें बचा कर मुस्कुरा रहे हैं रेशमा की बातों पर और प्रतिक्रियास्वरुप वक़ील साहब के खीझने और झेंपने पर।

इतना बोल कर रेशमा अपना रुख़ समर की ओर करती है, क्योंकि वक़ील चाचा को जो कहना चाह रही थी, वह कह चुकी है। अब समर से पूछती है वह।

रेशमा - " अच्छा ! .. तो तुम अपने गाँव से दसवीं 'पास' करके यहाँ आगे की पढ़ाई करने आये हो ? अभी ग्यारहवीं में 'एडमिशन' लिए हो ? "

समर - " हाँ .. पर अभी 'क्लासेज' शुरू नहीं हुई है। "

रेशमा - " हमारी पढ़ाई भी बारहवीं तक ही हुई है .. आगे की पढ़ाई करने की कोशिश कर रहे हैं .. पर .. "

समर - " पर क्या ? ..."

रेशमा - " पर कुछ नहीं। हमारी जाने भी दो। हम किन्नर अगर इतना भी पढ़ पाए तो बहुत है। "

समर - " कौन कहता है .. अब तो किन्नर की भलाई के लिए बहुत सारे समर्थन में देश के क़ानून बने हैं .. कई एन जी ओ काम कर रही है .. "

रेशमा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ - " क़ानून और एन जी ओ .. सही कह रहे तुम .. वैसे तो .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Thursday, November 23, 2023

पुंश्चली .. (२०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (१९)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अब इन लोगों को अपनी चाय की दुकान की ओर आता देखकर रसिकवा का नाबालिग 'स्टाफ'- कलुआ अपनी (?) चाय की दुकान के सामने रखे दोनों बेंचों को कपड़े से जल्दी-जल्दी पोंछने लगा है। साथ में .. उनके पीछे से मन्टू की टोली भी फिलहाल अंजलि के वर्तमान प्रकरण को अपने दिमाग़ से झटकने की कोशिश करते हुए,  नगर निगम वाले कचड़े के डब्बों के पास से चाय की दुकान की ओर बढ़ चली है ..

गतांक के आगे :-

रेशमा .. एक किन्नर .. सात किन्नरों की टोली की 'हेड' होते हुए भी पूरे मुहल्ले के लोगों से सम्मान पाती है। उसे सम्मान मिले भी भला क्यों नहीं ? .. वह है ही ऐसे स्वभाव और सोच की .. यूँ तो प्रायः कोई बुज़ुर्गवार ही अपनी टोली की 'हेड' होती है। परन्तु रेशमा के साथ ये बात लागू नहीं होती। वह तो अभी महज़ छ्ब्बीस वर्ष की ही है। पर अपनी क़ाबिलियत के दम पर अपनी मंजू माँ, जो इसके पहले इस टोली की 'हेड' थी और रेशमा की पालनहार थी .. जिसको टोली के सभी किन्नर ही नहीं सारे मुहल्ले वाले भी इसी नाम से बुलाते थे, के मरने के बाद टोली में सबसे कम उम्र की होने के बावजूद भी आपस में सब के द्वारा टोली की 'हेड' मान ली गयी थी। आज तक इस जिम्मेवारी को यह बख़ूबी निभा भी रही है। 

लगभग दो वर्ष की रही होगी, जब मंजू माँ इसे रेलवे यार्ड में खड़ी किसी मालगाड़ी के एक खाली डब्बे से बेहोशी की हालत में ले कर आयी थी। दरअसल मंजू माँ को रोजाना सुबह-सुबह भटकते लावारिस जानवरों को कुछ-कुछ खिलाने की आदत थी। ख़ासकर कुत्तों को .. इसी क्रम में वह उस दिन रेलवे यार्ड में भटकते कुत्तों को रोटी खिलाने गयी थी। जहाँ खिलाने के क्रम में एक डब्बे में घुसते कुत्ते का पीछा करते हुए जब मंजू माँ डब्बे में उचक कर झाँकी तो एक बदहाल बच्ची को देख कर भौंचक्की रह गयी थी। बाद में सभी को समझ में आया था, कि ये भी उन्हीं की बिरादरी की है। शायद इसे इसी कारण से इसके निर्दयी माँ-बाप ने अपनी जगहँसाई के भय से अपना पीछा छुड़ाते हुए लावारिस मरने के लिए छोड़ दिया था। 

वो तो भला हो मंजू माँ की, कि उसकी नेक नीयत ने इसकी नियति सुधारते हुए इसे रेशमा नाम देकर अपनी जान से भी ज्यादा प्यार-दुलार से पालन-पोषण किया था। ऐसे में मंजू माँ की परवरिश और उसके स्वयं के जन्मजात संस्कार ने, किन्नरों के बीच पलते-बढ़ते हुए और स्वयं किन्नर होने के बावज़ूद भी एक समझदार और संवेदनशील इंसान है रेशमा। मंजू माँ रेशमा को भले स्कूल नहीं भेजती थी, पर मोनिका भाभी के पी जी में रहने वाले पढ़े-लिखे लोगों के पास पढ़ने अवश्य भेजती थी। उसी पी जी में रहने वाले मयंक और शशांक भी रेशमा की कुशाग्रता के क़ायल हैं। रंजन भी जब जीवित था , तो उससे भी रेशमा पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ देश-दुनिया की ख़बरों की बातें किया करती थी। अक़्सर रंजन को चिढ़ाती हुई, ख़ासकर अंजलि और शनिचरी चाची के सामने कहती थी, कि- "ऐ रंजन भईया ! .. एक और शादी कीजिए ना .. तब फिर से हफ़्तों बुनिया खाने के लिए मिलेगा।" 

ऐसे मौके पर अंजलि केवल मुस्कुराती रहती और शनिचरी चाची भी मज़ाक-मज़ाक में उससे कहतीं कि - "तुम्हीं कोई अपनी पसन्द की लड़की बतलाओ, तो तुमको बुनिया खिलाने के लिए रंजनवा का फिर से ब्याह कर देंगे। अंजलि और वो .. दोनों मेरे घर में रहेगी।"

फिर सब मिलकर हँस पड़ते थे। तभी गम्भीर हो कर रेशमा कहती थी, कि - " सच में चाची .. अब तो 'कैटेरिंग-बुफे कल्चर' में भोज के बाद भी हफ़्तों बुनिया खाना और बाँटना लुप्तप्राय ही हो गया है। है ना चाची ?

शनिचरी चाची - "हाँ .. ठीक ही तो कह रही हो ..भोज-भात के बाद भी तब के समय हफ़्तों बुनिया की बहार रहती थी।"

अब रेशमा अगर किन्नर है तो .. किन्नर होना कोई गुनाह भी तो नहीं .. वो तो तथाकथित समाज की थोथी सोचों और मान्यताओं ने इन्हें जबरन गुनाहगार बना रखा है .. शायद ... आख़िर क्या गुनाह है इनका जो इन्हें हमारे तथाकथित मानव समाज में ससम्मान साँस लेने की अनुमति नहीं मिली है ? ये एक अपवाद ही है, जो इस मुहल्ले में किन्नरों की टोली को इतना सम्मान मिलता है।पर .. वैसे .. केवल किसी इंसान के जननांग की प्राकृतिक विकृति भर उस इंसान की अवमानना की वजह कैसे बन सकती है भला ? किसी भी इंसान का कोई भी बाहरी या भीतरी अंग प्राकृतिक रूप से या किसी भी अन्य दुर्घटना से विकृत हो जाए तो यह विकृति उसकी सोच को .. उसकी संवेदनशीलता को भी विकृत कर देती है क्या ? .. कर देती है क्या ? .. शायद नहीं ...

अभी सभी लोगों में से कुछ लोग दोनों बेंचों पर और कुछ लोग पिलखन के पेड़ के नीचे चाय की प्रतीक्षा में बैठ कर इधर-उधर की बातें कर ही रहे हैं .. तब तक कुछ देर पहले मन्टू के मारे गए पत्थर से चोटिल कुतिया-बसन्तिया अपने काले शरीर और मुँह के बीच अपनी गुलाबी जीभ निकाले आकर रेशमा के पाँव के पास बैठ गयी है। रेशमा को पता है कि इस बसन्तिया को जब भूख लगी होती है, तभी वह रेशमा के पास प्यार जतलाने आ जाती है, वर्ना मुहल्ले भर में मटकती फिरती है। वैसे भी इसको मुहल्ले भर में दरवाजे-दरवाजे जाकर चाटने की आदत है। बहुत ही चटोरी है ये बसन्तिया। पर .. ये भी ख़ासियत है इसमें कि जब कभी भी इसका पेट भर जाता है, तो एक चुटकी भर भी खाने का सामान मुँह में नहीं डालती है।

रेशमा - "रसिक भईया आप अपनी स्वादिष्ट चाय के पहले कलुआ से दो पाव भेज दीजिए .. हम सब की दुलारी बसन्तिया को भूख लगी है। उस पर तनिक दूध टपका भर दीजिएगा।"

पल भर में कलुआ एक प्लेट में दो पाव लिए हाज़िर हो गया है। बसन्तिया पाव आता देखकर अपने मुँह पर अपनी जीभ फिराने लगी है। अब दूध में भींगे हुए पाव को टुकड़ा-टुकड़ा करके रेशमा उसको खिलाने लगी है। तभी सड़क उस पार से मुहल्ले में ही घर-घर भटकने वाला एक मोटा-ताजा बिल्ला .. बसन्तिया को पाव खाता देखकर इस तरफ दौड़ता आ रहा है। 

तभी पास के ही सरकारी स्कूल में सुबह-सुबह पढ़ने जाने वाले मुहल्ले के कुछ बच्चों की एक टोली जाते-जाते अचानक रुक जाती है। उनमें से एक बच्ची एक क़दम आगे बढ़ कर .. थू-थू कर थूकती है और एक साइकिल वाले के गुजरने के बाद ही फिर सभी बच्चे स्कूल की ओर बढ़ने ही वाले हैं , कि .. रेशमा थूकने वाली बच्ची को अपने पास इशारे से बुलाती है - "सुनो .. यहाँ आओ .. मेरे पास .."

वह बच्ची सकुचाती-सी रेशमा के पास आ जाती है।

रेशमा - "अभी तुम सभी स्कूल जाते-जाते रुक क्यों गयी थी ?"

बच्ची - "अभी एक बिल्ली रास्ता काट गयी थी, ..."

रेशमा - "वैसे भी वो बिल्ली नहीं .. बिल्ला है .. तो इसके गुजरने से तुम लोगों के रुकने की वजह नहीं समझ आयी मुझे .."

बच्ची - "इस से दिन ख़राब हो जाता है .."

रेशमा - "ऐसा किसने कहा तुम लोगों से ?"

बच्ची - "मम्मी-पापा और .. टीचर मैम ने भी ..."

रेशमा - "ऐसा कुछ भी नहीं होता .. तुम्हारी किताबों में भी ऐसा लिखा है क्या ?"

बच्ची - "ऊँहुँ .. नहीं .."

रेशमा - "ये सब गलत बातें हैं बच्चों .. अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो .. अब जाओ भी .. देर हो गयी तो मैम मारेंगी .. जल्दी जाओ .."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


"उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" ...



यूँ तो सर्वविदित है कि देशभर में या विश्व भर में जहाँ-जहाँ हिन्दूओं की जनसंख्या वास करती है, वहाँ-वहाँ चन्द्र-पंचांग पर आधारित कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या को क्रमशः धनतेरस, छोटी दीपावली और बड़ी दीपावली यानी दिवाली धूमधाम से मनायी जाती है।

इनके अलावा इसी माह में "देव दीपावली" और "बूढ़ी दीपावली" भी क्रमशः देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार मनायी जाती है। जिनमें देव दीपावली, तथाकथित राक्षस त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की जीत के रूप में, दिवाली के पन्द्रह दिनों के बाद कार्तिक माह के पूर्णिमा के दिन विशेष तौर पर उत्तरप्रदेश में मनायी जाती है। जिसे लोग "त्रिपुरोत्सव" भी कहते हैं। 

वैसे भी सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार कार्तिक मास को सर्वाधिक पुण्यप्रद मान कर हर दिन पर्व की तरह मनाने का विधान है। चन्द्र-पंचांग के प्रत्येक माह में होने वाली दो एकादशी तिथियों की तरह विशेष तौर पर पुराण-सम्मत कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को "रमा एकादशी" और शुक्ल पक्ष की एकादशी को "प्रबोधिनी एकादशी" कहा जाता है।

इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को लोक मान्यताओं के अनुसार कई क्षेत्रों में हिन्दुओं द्वारा तथाकथित भगवान विष्णु की विधि पूर्वक पूजा-आराधना करने का विधान है, जिसके अनुसार इस दिन पीला वस्त्र धारण करके उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनके सहस्त्रनाम का पाठ किया जाता है। इन सब के अलावा .. नेक संदेशें देती जो सबसे ख़ास धर्म-सम्मत बातें हैं .. इस दिन गरीब-असहाय लोगों की सहायता करने की और झूठ-अन्याय से बचने वाली मान्यताओं की, जो कर्मकांडों की धुँध में लगभग गौण ही हो चुकी हैं .. शायद ...

इन सभी से परे उत्तराखंड में इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को यानी देश भर में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारह दिनों के बाद एक लोकपर्व- "बूढ़ी दीपावली" श्रद्धा और उल्लास के साथ मनायी जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में "इगास बग्वाल" कहा जाता है, क्योंकि गढ़वाली भाषा के अनुसार एकादशी को "इगास" और दीपावली को "बग्वाल" बोला जाता है। जिसके तहत दीयों और पटाखों की जगह पर सांस्कृतिक व लोक परम्परागत तरीके से "भैलो" खेली जाती है। 

आपसी सौहार्द और सहभागिता का संदेश देता पारम्परिक "भैलो नृत्य" इस लोक पर्व का खास आकर्षण होता है।
"भैलो" भी एक गढ़वाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है .. मशाल, लुआठी या लुकाठी; जो विशेष तौर से चीड़ की लकड़ी से बनायी जाती है। जिसके लिए चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गाँठ एक रस्सी या तार से बाँधी जाती है। सर्वविदित है कि चीड़ की लकड़ी में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तेल, जिनसे तारपीन का तेल बनता है और चिपचिपे गोंद, जिनसे औषधीय गुणों वाले गंधविरोजा का निर्माण होता है, के कारण इससे बनी "भैलो" काफ़ी देर तक तेज प्रकाश बिखेरती हुई जलने की क्षमता रखती है। 

इनके अलावा पहाड़ी उपजों- भाँग, तिल, छिल्ले, हिसर आदि की सूखी लकड़ियों के गट्ठर को सिरालू या मालू की रस्सी से बाँध कर शाम के समय गाँव के किसी खाली खेत-खलिहान में या चौक-चौराहे जैसे किसी भी सार्वजनिक स्थल पर जलाया जाता है। जिसकी आग से "भैलो" को जलाने की परम्परा है और "भैलो" की रस्सी या तार को पकड़कर नृत्य करते हुए कलात्मक व लयबद्ध तरीके से अपने सिर के ऊपर से घुमायी जाती है। 

इस दौरान सामुदायिक रूप से लोक वाद्य-यंत्रों .. ढोल-दमाऊँ की थाप पर पारम्परिक लोकनृत्य "चाँछड़ी और झुमेलों" के साथ-साथ गीत-संगीत और आमोद-प्रमोद का माहौल व्याप्त रहता है। इस अवसर पर प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगीतों- "भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल" या "भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" आदि को गाए जाते हैं। इस अवसर पर कहीं-कहीं पर "गैड़" यानी रस्साकस्सी का भी खेल खेला जाता है।

उत्तराखंडी पहाड़ी लोक संस्कृति से जुड़े इस लोक पर्व के दिन लोग घरों की विशेष साफ-सफाई के बाद मीठे-मीठे पकवान बनाते हैं और अपनी आस्था के अनुसार अपने देवी-देवताओं के साथ-साथ गाय-बैलों की भी पूजा करते हैं। यूँ है तो यह भी प्रकाश का ही पर्व, परन्तु सबसे ख़ास और अनुकरणीय बात है, "इगास बग्वाल" के अवसर पर विषाक्त पटाखों का उपयोग नहीं किया जाना। 

अन्य त्योहारों या लोक पर्वों की तरह इस लोक पर्व के पीछे की भी कई लोक मान्यताएँ हैं, जिनमें एक सबसे प्रमुख किंवदंती है, कि तथाकथित पुरूषोत्तम राम द्वारा रावण का वध करके अपने चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन अयोध्या पहुँचने की जानकारी दूरस्थ पहाड़ वासियों को ग्यारह दिनों बाद मिली; तो इनके पुरख़े लोग मूल दिवाली के ग्यारह दिनों के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को ख़ुशी प्रकट करने के लिए दिवाली मनाए थे, जिसे गढ़वाली भाषा में "इगास बग्वाल" कह कर आज भी मनाने की परम्परा है।

दूसरी किंवदंती ये भी है कि दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना तिब्बत और दापाघाट का युद्ध जीतकर दिवाली के ग्यारहवें दिन अपने-अपने घर पहुँची थी, तो उसी की खुशी में उस समय समस्त गढ़वाल में दिवाली मनाई गई थी .. शायद ...

तीसरी मान्यता ये भी है कि शुक्ल पक्ष की इसी "प्रबोधिनी एकादशी" या "हरिबोधनी एकादशी" के दिन तथाकथित श्रीहरि यानी विष्णु जी नाग शैया पर सोते हुए से जागते हैं, जिससे इसे "देवउठनी एकादशी" या अपभ्रंश रूप में "देवठान" भी कहते हैं। इसीलिए इस दिन विष्णु भगवान की पूजा का भी विधान है। यूँ तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी यानी धनतेरस से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि इस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी तक चलता रहता है। 

अब विष्णु की बात हो और धन की तथाकथित देवी लक्ष्मी की चर्चा ना हो तो यह अन्यायपूर्ण कृत्य माना जाएगा .. शायद ... तो चौथी मान्यता ये भी है कि इस दिन ऐसा करने वालों को माता लक्ष्मी कष्टों को दूर करने के संग-संग सुख-समृद्धि भी देती हैं। 

हालांकि ये भी कहा जाता है कि दीपावली के समय पहाड़ों में लोग खेती में व्यस्त रहते हैं। इसीलिए खेती के काम को निपटाने के बाद वे लोग यह पर्व मनाते हैं।

ख़ैर ! .. जो भी हो .. लब्बोलुआब यही है कि सबसे बड़ा मानव-धर्म मानते हुए, हमें सामुदायिक रूप से अँधेरे को भगाने का प्रयास निरन्तर करते रहना चाहिए .. चाहे वो अँधेरा हमारे घर के किसी कोने का हो या मन के कोने का या फिर समाज में व्याप्त अंधपरम्पराओं का हो .. और .. विषाक्त आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करते हुए अपने आसपास स्वच्छता के संग-संग गीत-संगीत, आमोद-प्रमोद और कोमल भावनाओं की मिठास को घोलने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए .. बस यूँ ही ...