Wednesday, April 6, 2022

चंद चिप्पियाँ .. बस यूँ ही ...

(१) रिवायतें तगड़ी ...

कहीं मुंडे हुए सिर, कहीं जटाएँ, कहीं टिक्की, 

कहीं टोपी, कहीं मुरेठे-साफे, तो कहीं पगड़ी।


अफ़सोस, इंसानों को इंसानों से ही बाँटने की 

इंसानों ने ही हैं बनायी नायाब रिवायतें तगड़ी।


(२) विदेशी पट्टे ...

देखा हाथों में हमने अक़्सर स्वदेशी की बातें करने वालों के,

विदेशी नस्ली किसी कुत्ते के गले में लिपटे हुए विदेशी पट्टे।


देखा बाज़ारों में हमने अक़्सर "बाल श्रम अधिनियम" वाले,

पोस्टर चिपकाते दस-ग्यारह साल के फटेहाल-से छोटे बच्चे।


(३) चंद चिप्पियों की ...

रिश्ते की अपनी निकल ही जाती 

हवा, नुकीली कीलों से चुप्पियों की,


पर मात देने में इसे, करामात रही 

तुम्हारी यादों की चंद चिप्पियों की।


(४) सीने के वास्ते ...

आहों के कपास थामे,

सोचों की तकली से,

काते हैं हमने,

आँसूओं के धागे .. बस यूँ ही ...

टुकड़ों को सारे,

सीने के दर्द के,

सीने के वास्ते,

अक़्सर हमने .. बस यूँ ही ...


(५) एक अदद इंसान ...

मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारे या गिरजा के सामने,

कतारों में हो तलाशते तुम पैगम्बर या भगवान .. बस यूँ ही ...


गाँव-शहर, चौक-मुहल्ले, बाज़ार, हरेक ठिकाने,

ताउम्र तलाश रहे हम तो बस एक अदद इंसान .. बस यूँ ही ...




Sunday, April 3, 2022

बाद भी वो तवायफ़ ...

रंगों या सुगंधों से फूलों को तौलना भला क्या,

काश होता लेना फलों का ज़ायका ही जायज़ .. शायद ...


यूँ मार्फ़त फूलों के होता मिलन बारहा अपना,

पर डाली से फूल को जुदा करना है नाजायज़ .. शायद ... 


धमाके, आग-धुआँ, क़त्लेआम और  बलात्कार,

इंसानी शक्लों में हैं हैवानों-सी सदियों से रिवायत..शायद ...


बारूदी दहक में पसीजते मासूम आँखों से आँसू,

ये हैं भला यूँ भी कैसे तरक्क़ी पसंदों के क़वायद .. शायद ...


किसी की माँ या बहन या पत्नी होती है औरत,

बनने से पहले या बनने के बाद भी वो तवायफ़ .. शायद ...




Wednesday, March 30, 2022

तनिक उम्मीद ...

हो जाती हैं नम चश्म हमारी सुनकर बारहा,

जब कभी करतूतें तुम्हारी चश्मदीद कहते हैं .. बस यूँ ही ...


हैं हैवानियत की हदें पार करने की यूँ चर्चा,

ऐसे भी भला तुम जैसे क्या फ़रीद बनते हैं?.. बस यूँ ही ...


हैं मुर्दों के ख़बरी आँकड़े, पर आहों के कहाँ,

हैं रहते महफ़ूज़ मीर सारे, बस मुरीद मरते हैं .. बस यूँ ही ...


तमाम कत्लेआम भी कहाँ थका पाते भला,

लाख तुम्हें तमाम फ़लसफ़ी ताकीद करते हैं .. बस यूँ ही ...


दरिंदगी की दरयाफ़्त भी भला क्या करना,

दया की दिल में तेरे तनिक उम्मीद करते हैं .. बस यूँ ही ...









Monday, March 28, 2022

यूँ मटियामेट ...

माना है जायज़ तुम्हारा सारे बुतों से गुरेज़, 

तो क्यों नहीं भला मुर्दे मज़ारों से परहेज़ ?


गजवा-ए-हिन्द मायने ख़बरें सनसनीखेज़,

सनक ने की राख़ इंसानियत की दस्तावेज़।


खता लगती नहीं तुम्हें करके कभी ख़तना,

समझते हो हलाल यूँ ज़िल्लत भरी हलाला।



दकियानूसी सोचों से सजी यूँ दिमाग़ी सेज,

क़ैद हिजाबों में सलोने चेहरे हैं बने निस्तेज।


क़ाफ़िर भी हैं इंसाँ, समझो ना तुम आखेट,

अगरचे हो रहे हो तुम भी तो यूँ मटियामेट।


पाने की ज़न्नत में बहत्तर हुर्रों के हो दीवाना,

भले बन जाए जहन्नुम आज अपना ज़माना।




Thursday, February 24, 2022

जीरो बटा सन्नाटा ...

# १# 
कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बाद अब तक तो तुलनात्मक कम डरावनी तीसरी लहर भी लगभग समाप्त या धीमी हो चुकी है। राज्य सरकार द्वारा यथोचित चंद पाबंदियों के साथ लगने वाले 'लॉकडाउन' में बहुत हद तक ढील दी गई है, जिसके तहत सुबह - शाम सार्वजनिक पार्कों या मैदानों में 'मास्क' के साथ 'मॉर्निंग वॉक' की भी छूट दे दी गई है।
आज मोटा-मोटी एक-दो माह से सुबह-सुबह बिहार की राजधानी - पटना के गाँधी मैदान में भी लोग लगभग 'लॉकडाउन' लगने के पहले की ही तरह टहलने आने लगे हैं। इन्हीं टहलने वालों में टहलने वालों एक टोली है - श्रीवास्तव जी, तिवारी जी, सिंह जी, शर्मा जी और समीर की, जो वर्षों से यहाँ सुबह-सवेरे नियमित रूप से एक साथ टहलने के लिए आते हैं। इनमें समीर को छोड़ कर चारों लोग लगभग पचास-साठ वर्ष के हैं और समीर यही कोई तीस-पैंतीस का होगा .. शायद ...
श्रीवास्तव जी बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग में 'स्टोर ऑफिसर' के पद पर हैं , जो गाँधी मैदान के पश्चिमी छोर पर स्थित छज्जूबाग कॉलोनी में किसी 'अपार्टमेंट' के एक 'फ्लैट' में रहते हैं। गाँधी मैदान के पूर्वी छोर के नाला रोड में अपने पुश्तैनी मकान में रहने वाले तिवारी जी के पास दो-तीन 'मल्टीनेशनल कंपनियों' की 'एजेंसी' हैं और इसके अलावा अपने जान-पहचान वाले कई अमीर घरों में पूजा-पाठ, कथा-कर्मकांड करवा के भी "जजमानों" (यजमानों) के घरों से भी कमाई कर लेते हैं। वहीं सिंह जी पटना उच्च न्यायालय में वक़ील हैं, जो गाँधी मैदान के उत्तर-पश्चिमी छोर में विराजमान पटना के गोलघर के पास वाले बांकीपुर मुहल्ले में किराए के एक मकान में रहते हैं और शर्मा जी फुलवारीशरीफ प्रखंड के एक सरकारी 'हाई स्कूल' के शिक्षक हैं, जो गाँधी मैदान के दक्षिणी छोर में अवस्थित 'एक्सहिबिशन रोड' के पास सालिमपुर अहरा में अपने पुश्तैनी मकान में रहते हैं। अब बचा समीर .. तो .. वह .. बिहार सरकार में सत्तारूढ़ दल के एक तथाकथित माननीय मंत्री जी के 'मल्टीनेशनल कम्पनी' के 'फोर व्हीलर' वाले कई 'शोरूमों' में से किसी एक का 'फ्लोर मैनेजर' है, जो श्रीवास्तव जी वाले ही छज्जूबाग कॉलोनी में उनका पड़ोसी है। इस तरह चारों अलग-अलग व्यवसाय वाले, अलग-अलग मुहल्ले वाले और अलग-अलग उम्र वाले लोग 'मॉर्निंग वॉक' के नाम पर हर रोज सुबह एक साथ होते हैं। 
अमूमन जब भी मर्दों का समूह एक साथ बैठ कर मद्यपान की महफ़िल सजाते हैं, तो साथ बैठे लोगों में अगर दस-बीस साल की उम्र का अन्तर भी हो तो, ऐसे में .. किसी वर्जित विषय पर भी साथ में चर्चा करने में लोग तनिक भी नहीं झिझकते या हिचकते हैं। यही हाल एक ही कार्यालय में लगभग समान 'पोस्ट' पर काम करने वाले अलग-अलग उम्र वाले कर्मचारियों के साथ भी होता है या फिर 'लोकल ट्रेन' में एक ही 'रूट' के लिए यात्रा करने वाले 'डेली पैसेंजरों' की भी यही स्थिति होती है और .. प्रायः यही हाल समूह में रोज 'मॉर्निंग वॉक' करने वालों के साथ भी होता है। समीर की टोली भी इस हाल से अछूती नहीं है।
यूँ तो एक जगह एकत्रित होने वाले मौकों पर आपसी उम्र के अंतर को दरकिनार करते हुए, महिलाओं के खुलेपन की भी कई मिसाल देखने-सुनने के मौके प्रायः मिलते हैं। चाहे वह किसी ईंट के भट्ठे पर ईंट थापती महिलाएँ हों, गाँव में धान रोपती या खलिहान में काम करती महिलाएँ हों या फिर घर-मुहल्लों में दोपहर-शाम फ़ुर्सत के पलों में गाहे बगाहे इकट्ठी होने वाली महिलाएँ हों। पर अजी साहिबान ! .. मर्दों की तुलना में 'गॉसिप' के लिए तो ... औरतें बस यूँ ही नाहक बदनाम की जाती हैं .. शायद ... 
सभी अलग-अलग मुहल्ले से आकर यहाँ गाँधी मैदान के एक तयशुदा जगह पर रोज सुबह-सुबह मिलते हैं और फिर इस मैदान का चक्कर लगाते हैं। अब ऐसे में एक बात और भी गौर करने की है, कि .. मर्द लोग मौका मिलने पर 'गॉसिप' करने से कब चूकते हैं भला ! मौका मिला नहीं कि अपने घर के गोतिया-नाता से लेकर मोहल्ले भर की कुंडली खँगालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनके अलावा देश-विदेश के गुण-दोष, राजनीति के दाँव-पेच, देश की सीमा-सुरक्षा में कमी वग़ैरह कई मुद्दों पर अपना दिमाग और अपनी जुबान बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा ही देते हैं। 
आइए .. सुनते हैं आज सुबह ही उनकी आपस में की गई गपशप की एक बानगी .. बस यूँ ही ...
शर्मा जी :- "अरे .. तिवारी जी .. राधे-राधे ! .. धन्य भाग्य हमारे, जो आज एक अरसे के बाद आप के दर्शन हुए हैं। लगता है, कि हर साल की तरह आप फिर बैंकॉक गए थे शायद।"
तिवारी जी :- "अरे ना, ना, इस साल तो बगल में ही .. कोलकाता गए थे। कोरोना के चक्कर में सब गुड़-गोबर हुआ पड़ा है। ना धंधा-पानी ठीक से चल रहा है और ना ही खुल के मौज-मस्ती।"
शर्मा जी :- "हम लोग समझे कि हर बार की तरह ही इस बार भी बैंकॉक गए हुए होंगे।"
तिवारी जी :- "हाँ भई ! गया तो था। पर दो साल पहले, कोरोना आने से पहले। श्रीवास्तव जी को तो पता ही है, कि जिन 'कम्पनियों' की 'एजेंसी' हैं अपने पास, उन्हीं 'कम्पनी' वालों की तरफ से साल भर किये गए धंधे के अनुसार तीन दिन से सप्ताह-सप्ताह भर की 'ट्रिप' होती रहती थी। वर्ना अपनी औक़ात कहाँ है भला बैंकॉक-सिंगापूर जाने की। पर इस बार तो कोरोना के कारण सब ... "
श्रीवास्तव जी :- "जो भी हो, जैसे भी गए, जहाँ भी गए, पर गए तो ? मज़े लिए ना खूब जी ?"
समीर :- "वो भी इस उम्र में ?"
सिंह जी :- "अपना तो अपने शहर का होटल ही बहुत है। बहुत हुआ तो मियाँ का दर मस्ज़िद तक, ज्यादा से ज्यादा कोलकाता के सोनागाछी तक ही जायेंगे .. और क्या ?"
श्रीवास्तव जी :- "अपनी किस्मत में बैंकॉक और सिंगापुर की 'बॉडी मसाज' का सुख ऊपर वाले ने लिख कर भेजा ही नहीं है, तो अपन क्या ही कर सकते हैं भला ?"
शर्मा जी :- "अरे भाई, अपने पुरख़े कह गए हैं, कि सीता राम सीता राम सीताराम कहिये, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये। आ ... इ (ये) भी तो सुने ही हैं ना आपलोग, कि मिले तो मारी ना तो बाल ब्रह्मचारी।"
श्रीवास्तव जी :- "अपना भी इसी में विश्वास है भईया।"
तिवारी जी :- "क्यों ? जलन हो रही है क्या आप लोगों को ? और ये उम्र-उम्र क्या लगा रखे हैं जी ! अब .. अगर कबीर बेदी सत्तर वर्ष की उम्र में चौथी शादी कर सकता है, तो भला हम पचास-पचपन में क्या बुरे हैं ? है कि नहीं जी ? हम लोग 'हिन्दू एक्ट' के कारण एक से ज्यादा विधिवत शादी तो नहीं कर सकते, पर विधिवत मौज मस्ती तो कर ही सकते हैं ना ? "
सिंह जी :- "अजी, ऐसी भी अँधेरगर्दी नहीं मची हुई है। अगर आपका टाँका कहीं भीड़ गया है और आपको दूसरी, तीसरी शादी करने का भी मन कर रहा है, तो कौन मना कर रहा है भला .. धर्मेन्द्र और हेमामालिनी की तरह किसी मौलवी के सामने इस्लाम क़बूल कर लीजिए और .. कर लीजिए फ़ौरन निक़ाह।"
श्रीवास्तव जी :- "मने चट मंगनी पट ब्याह। भाई लोग, हमारे स्वतंत्र देश की धर्मनिरपेक्ष वाली विचारधारा ने सब तरह की सुविधा मुहैया करा रखी है। वैसे तो हम लोगों के जनक कहे जाने वाले चित्रगुप्त भगवान भी दो-दो ब्याह किये हैं जी। देश का क़ानून चाहे जो भी हो, दू गो बिआह (दो ब्याह) तो हमलोगों के डीएनए में है जी।"
शर्मा जी :- "अरे भाई, वो सब फ़िल्मी दुनिया की और भगवान लोगों की बात है। वो लोग हीरो-हीरोइन और भगवान हैं, कुछ भी, कभी भी कर सकते हैं। भगवान लोग तो अपने देह के मैल और नाभि से भी बच्चा पैदा कर सकते हैं।"
तिवारी जी :- "तो हम कौनो (कौन) हीरो से कम हैं क्या जी ! ये इतना 'मॉर्निंग वॉक'-शाक कर के 'बॉडी' काहे (क्यों) 'मेन्टेन' किये हुए हैं। अब समीर बाबू के जैसा जवान तो नहीं हैं, पर कागज़ी बादाम और शिलाजीत खा-खा के सब 'मेन्टेन' किये हुए हैं।"
समीर :- "हाँ 'सर', एक कहावत भी तो सुने ही हैं ना हमलोग कि - मर्द साठा तो पाठा .. है कि नहीं श्रीवास्तव जी ?"
श्रीवास्तव जी :- "अब तो कोरोनकाल से घरवाली भी हम लोगों की 'इम्युनिटी पॉवर' बढ़ाने के लिए रोज रात को गाढ़ा-गाढ़ा औंट के मलाईदार हल्दी-केसर वाला सुसुम-सुसुम दूध भी तो ज़बर्दस्ती पिला रही है, ताकि उन लोगों का सुहाग ज़िन्दा रहे। ना तो माँग उज्जर (उजला) हो जाएगा।"
तभी इन चुहलबाजी भरी बातों पर सभी का एक जोरदार सम्मिलित ठहाका पूरे मैदान में पसर जाता है। मानो सुबह-शाम किसी भी बड़े शहर के पार्कों में 'लाफिंग क्लब' वाले समूह के ठहाकों की आवाज़ हो।

#२#
कभी अंग्रेजों के ग़ुलाम रहे इंडिया में हुए कई सारे आंदोलनों तथा कभी आज़ाद भारत में कई दिग्गज राजनीतिज्ञों के भाषणों और देश में लगी 'इमरजेंसी' के दौरान हुए राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ 'पार्टी' के तख़्ता पलट करने वाले "जे पी आंदोलन" का गवाह रहा, बिहार की राजधानी पटना को पूर्वी पटना यानी मुग़लों की ग़ुलामी में विकसित अज़ीमाबाद और पश्चिमी पटना यानी अंग्रेजों की ग़ुलामी में विकसित पटना को लगभग दो हिस्सों में बाँटता हुआ, इस विशाल गाँधी मैदान के चारों ओर, चारों दिशाओं में फ़ैली चौड़ी सड़कें, पूर्वी व पश्चिमी पटना को जोड़ती हैं। इसी सड़क पर दौड़ती अनेकों वाहनों में से एक मोटरसाइकिल पर इस 'मॉर्निंग वॉक' वाले समूह की पैनी नज़र पड़ती है।
श्रीवास्तव जी :- "अरे ये क्या दिखायी दे रहा है जी .. तोता-मैना की जोड़ी भोरे-भोरे 'फटफटिया' (मोटरसाइकिल) पर" ?
शर्मा जी :- "आप भी वही देख रहे हैं, जो हम सभी देख पा रहे हैं सुबह-सुबह, राम नाम के समय में।"
तिवारी जी :- "राम-राम, ये क्या युग आ गया है जी ! इसी को कहते हैं, कलयुग आउर (और) भट्टयुग। है ना जी ?"
सिंह जी :- "तब और क्या जी ? यही सब दिन देखने के लिए तो रह गया है इस उम्र में।"
तिवारी जी :- "अजी, पटना के 'बिजी ट्रैफिक' या 'रेड सिग्नल' पर .. चाहे किसी 'स्पीड ब्रेकर' पर तो 'ब्रेक' के बहाने हचका का ख़ूब मज़ा लेते होंगे दोनों। है कि नहीं ?"
शर्मा जी :- "ओय .. होय .. ओय .. होय .. अरे क्या मसालेदार 'इमेजिनेशन' है आपकी तिवारी जी। मजा आ गया। आपको तो किसी रूमानी फ़िल्म का 'फ़िल्म डायरेक्टर' होना चाहिए था। याद है ना उ (वो) "एक दूजे के लिए" वाला .. फटफटिया पर .. हम बने ~ तुम बने ~ एक दूजे के लिए ~~~ .."
तिवारी जी :- "हाँ जी, आगे था .. तुम हो बुद्धू मान लो, 'यू आर हैंडसम' जान लो ~~ ... इसी मोना 'सिनेमा हॉल' में तो तीन साल तक तहलका मचा था। कइसे (कैसे) भुल सकते हैं भला जी .."
श्रीवास्तव जी :- "ये तो वर्मा जी की बहू है ना "बँहकट्टी बेलाउज" (sleeveless blouse) में ? जिसका पति अभी तीन महीने पहले कोरोना से मर गया है ? इसको कभी सुबह, तो कभी शाम, तो कभी रात में भी इसी लौंडे के साथ अक़्सर फटफटिया पर आते-जाते देखते हैं।।"
समीर :- "हाँ, हाँ, बिलकुल वही थीं।"
श्रीवास्तव जी :- "अच्छा !!"
समीर :- "हाँ .. वो वर्मा 'आँटी' की ही छोटी बहू हैं, दिव्या भाभी।
सिंह जी :- "पति को मरे तीन महीना भी नहीं हुआ और इतने कम समय में ही फुदकने लगी 'मैनिया' का जी ?"
समीर :- "दरअसल वह अभी हाल ही में कंकड़बाग के "जीवक हार्ट" अस्पताल में 'हॉस्पिटल हाउसकीपिंग सुपरवाइजर' का काम पकड़ीं हैं। वहाँ इनकी 'ड्यूटी' 'शिफ़्टों' में होती है। इसीलिए उन्हें कभी सुबह सात बजे वाली, तो कभी रात ग्यारह बजे वाली भी 'नाईट शिफ्ट' के लिए जाना पड़ता है। और जो बाइक ..."
श्रीवास्तव जी :- "हाँ, हाँ .. और जो बाइक .. ?"
समीर :- "और जो बाइक चला रहे थे, वे दीपेश भईया हैं, राहुल के भईया। राहुल .. जो मेरे ही साथ में काम करता है और दीपेश भईया उसी "जीवक हार्ट" अस्पताल में दिव्या भाभी के साथ ही काम करते हैं। ये मन्दिरी मुहल्ले में रहते हैं और दोनों की अगर समान 'शिफ्ट' की 'ड्यूटी' होती है, तो दीपेश भईया जाते समय दिव्या भाभी को  'पिक' कर लेते है और घर लौटते वक्त 'ड्राप' कर जाते हैं।"
श्रीवास्तव जी :- "अच्छा !!"
समीर :- "और तो और .. मेरी ही मार्फ़त दीपेश भईया ने दिव्या भाभी को वहाँ काम पर लगवाया है। दरअसल भईया (दिव्या के  पति) 'प्राइवेट जॉब' करते थे। इस कारण से उनके असमय गुजरने के बाद भाभी के पास कोई 'पेंशन' जैसा आर्थिक आसरा भी नहीं है।"
सिंह जी :- "ओ ..."
समीर :- "दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। अपने साथ-साथ उनका भरण-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, खुद 'थायरॉइड पेशेंट' हैं, तो उनकी दवाईयों के लिए पैसे की ज़रूरत तो पड़ती ही है ना ?"
तिवारी जी :- "वो तो है .."
समीर :- "वो तो ग़नीमत है, कि वर्मा 'अंकल' अपनी सरकारी नौकरी से 'रिटायरमेंट' के बाद मिले एकमुश्त पैसे से अपने एकलौते बेटे-बहू के लिए एक छत्त बना गए हैं, वर्ना मकान का किराया भी भरना पड़ता अलग से।"
शर्मा जी :- "सही बात है ये तो ..."
समीर :- "अब तो ना वर्मा 'अंकल' रहे और ना 'आँटी' .. 'अंकल' को तो बुढ़ापे में 'पेंशन' का सहारा भी था , जो दो साल पहले 'हार्ट अटैक' से गुजर गए। उनके बाद 'आँटी' को 'फैमिली पेंशन' का सहारा था, पर वह भी गत वर्ष 'लीवर डैमेज' से चल बसीं। पर बेचारी दिव्या भाभी को तो वो भी ... "
श्रीवास्तव जी :- "सच में ..."
समीर :- "हम तो आप लोगों से उम्र और तज़ुर्बे में भी बहुत छोटे हैं, पर छोटी मुँह, बड़ी बात कहूँ, अगर आप सभी बुरा नहीं माने तो .. दरअसल जब तक मुँह में सुस्वादु और पौष्टिक व्यंजन वाले ग्रास के पहाड़ से हुलास के झरने मयस्सर ना हों, तब तक रासलीला या अय्याशियों की नदियाँ अठखेलियाँ नहीं कर पाती हैं .. शायद ..." 
तिवारी जी :- "समीर बाबू का तो अपना पास पड़ोस और मुहल्ला वाला 'जी. के.' एकदम से 'अपडेटेड' है श्रीवास्तव जी। आप भी तो उसी कॉलोनी में रहते हैं, पर आपको कुछ भी पता नहीं है। आप एकदम से जीरो बटा सन्नाटा हैं।"


Sunday, February 20, 2022

निगोड़ा बिगाड़ रहा है ...

अक़्सर आए दिन अधिकांश घरों में अभिभावकगण अपने बच्चों या युवाओं के बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण या कई कारणों में से एक कारण या फिर मुख्य कारण मानते हैं - 'मोबाइल' या 'टीवी' को या फिर दोनों को ही और उनके बिगड़ने का कारण मानते हुए, इन दोनों आधुनिक वैज्ञानिक 'इलेक्ट्रॉनिक' उपकरणों को मन भर कोसते भी नज़र आते हैं। उन अभिभावकों के मतानुसार- ये दोनों ही उपकरण दो तरीके से बच्चों या युवाओं को बिगाड़ते हैं। एक तरफ तो इनका उचित उपलब्ध समय बर्बाद कर के और दूसरी तरफ अनुचित 'साइट्स' या 'चैनल' व 'प्रोग्राम' परोस कर .. शायद ...
और तो और .. अक़्सर कई सारे बुद्धिजीवियों की अनुपम लेखनी के सौजन्य से हम सभी की नज़रों से होकर इन आधुनिक वैज्ञानिक 'इलेक्ट्रॉनिक' उपकरणों के लिए उलाहने से भरे कई सारे अनमोल आलेख भी गुजरते रहते हैं; जिनमें नयी पीढ़ी को बिगाड़ने का दोषी मुख्य रूप से इन दोनों को ठहराया जाता है .. शायद ...
लेकिन हमें लगता है, कि शायद ऐसा नहीं है या होना भी नहीं चाहिए। आइए ! .. आज एक बार फिर इसी बहाने खुरपी के ब्याह में हँसुआ का गीत गा लेते हैं .. बस यूँ ही ...
यूँ तो कोरोनकाल में बच्चों या युवाओं के 'ऑनलाइन क्लासेज' के कारण झक मार कर, अभिभावकों को इन्हें 'मोबाइल' सुपुर्द करना पड़ा है और साथ ही इसके चलते इसके 'पॉजिटिव' पक्ष को भी आँकने की सहज सम्भावना ऐसे अभिभावकों के लिए अनायास बन पड़ी है .. शायद ...
सर्वविदित है कि प्रायः किसी ग्रामीण क्षेत्र में लगने वाली हटिया में या किसी शहर या नगर की बहुमंजिली 'मॉल' में खुलने वाली सारी की सारी विभिन्न दुकानों में कोई भी आगन्तुक ग्राहक नहीं जाता, बल्कि सभी अपनी-अपनी रूचि या अपनी-अपनी तत्काल ज़रूरत के अनुसार दुकान-विशेष में ही जाते हैं और उसी में ख़रीदारी करते हुए पाए जाते हैं। नहीं क्या !? ...
मसलन- कोई शाकाहारी ग्राहक किसी हटिया की मछली या माँस की दुकानों में नहीं जाता है, बल्कि शाक-सब्जी की दुकानों में जाता भी है और ख़रीदारी भी करता है। वह भूले से भी माँस-मछली की दुकान की ओर नहीं जाता और शायद नज़र पड़ भी जाए तो घृणा महसूस करता हुआ अपना मुँह फेर लेता है या उन दुकानों से फ़ैलने वाली गन्दी गंध के कारण अपनी नाक पर, अपने पास उपलब्ध गमछा, रुमाल या पल्लू रख लेता या लेती है। दूसरी ओर 'मॉल' में भी लोग हर तल्ले पर अपनी शारीरिक क्षमता और उपलब्ध समय के आधार पर बेशक़ इधर-उधर टहल लें, ताक-झाँक कर लें; पर वो खरीदारी अपनी पसंद, अपनी आवश्यकता और निःसन्देह अपनी क्रय-क्षमता के आधार पर ही करते हैं। एक और आम बात है, कि आम बाज़ार में भी तो, चाहे गाँव हो या शहर, व्यसन की सामग्रियाँ बिकने वाली कई क़ानूनन मान्यता प्राप्त दुकानें खुली होती हैं, पर वहाँ उसके व्यसनी ही खरीदारी करने जाते हैं। चाहे वह दुकान शराब की हो या सिगरेट की या फिर गैरकानूनी ढंग से बिकने वाले अन्य तथाकथित 'ड्रग्स' की हो .. शायद ...
दूसरी तरफ देखें तो, ये सारे बाज़ार और इनकी दुकानें प्रशासन द्वारा या इनके ही 'यूनियन' द्वारा तय समयानुसार या फिर स्थानीय चलन के अनुसार ही नियत समय पर प्रायः खुलते और बंद भी होते हैं। पर हर समय यानी पूरे समय कोई भी ख़रीदार बाज़ारों या दुकानों में नहीं खड़ा होता है, बल्कि अपने आवश्यकतानुसार सामान खरीद कर वापस हो जाता है .. शायद ...
अब हम इन बातों से यानी विभिन्न अच्छे-बुरे सामानों के विक्रय से सम्पूर्ण बाज़ारों या दुकानों को गलत नहीं ठहरा सकते, तो फिर भला अच्छी और बुरी, दोनों ही बातों को परोसने वाले मोबाइल या टीवी को किसी भी बच्चे या युवा को बिगाड़ने के लिए दोषी ठहराना भी तर्कसंगत नहीं लगता है .. शायद ...
जैसे हम बाज़ार तो जाते हैं, परन्तु अपनी आवश्यकतानुसार ही किसी दुकान में जाते-आते हैं या वहाँ अपना बेशकीमती समय व्यतीत करते हैं। इसे तय करने में, यहाँ हमारी आवश्यकता और क्रय-शक्ति के साथ-साथ हमारी बुद्धि और हमारा विवेक भी काम करता है। इसी तरह हमें केवल और केवल .. अच्छी बातों और बुरी बातों के बारे में और उन से होने वाले क्रमशः लाभ-हानि के बारे में विस्तार से बच्चों या युवाओं को बतला- समझा कर, अपना ज्ञान बघारने या बाँटने या एकदम से किसी भी काम की मनाही थोपने से ज्यादा, उनमें यथोचित विवेक उत्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए; ताकि वे 'मोबाइल' या 'टीवी' इस्तेमाल तो करें, पर उन से होने वाले लाभ-हानि को अपने विवेक से मापते हुए, यथोचित समय के अनुसार, यथोचित 'साइट्स', 'चैनल' या 'प्रोग्राम' का अवलोकन करें और वो भी हमारे समक्ष ही, बिना हमसे नाज़ायज लुका-छिपी किये हुए .. शायद ...
स्पष्ट शब्दों में कहें, तो अगर सीधा-सीधा हम उन्हें इन उपकरणों के लिए मना करेंगें या उनको इस्तेमाल नहीं करने देंगें, तो इन उपकरणों के लिए उनकी लालसा या उत्सुकता और भी बढ़ जायेगी। तब वे मौका पाते ही हमसे-आपसे छुपा कर चोरी-छिपे इनका इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगें। तब शायद उनकी हमारी नज़रों से ओझल होकर, अच्छी बातों के बजाय इन उपकरणों से बुरी बातों को ही ज्यादा ग्रहण करने की सम्भावनाएँ बढ़ सकती हैं, क्योंकि हमने उनके सामने केवल इन उपकरणों को बुरा बतलाने का ही काम किया है। सर्वविदित है, कि चींटियों को जिस ओर जाने से रोका जाता है, उधर ही उनकी कतारें बार-बार जाने का प्रयास करती हैं। 
सबसे बड़ी हमारी चूक तो ये होती है, कि हम अपने बच्चों या युवाओं पर बरसने के समय या उनका छिन्द्रान्वेषण करते समय, यह पूर्णतः भुल ही जाते हैं, कि हम भी कभी बच्चे या युवा रहे थे और उन अवस्थाओं में हमने भी कई सारी शरारतें कीं थीं, कुछ अपने अभिभावकों की नज़रों के सामने भी और कुछ .. उन की नज़रों से लुका- छिपा कर भी .. शायद ... 
नगण्य अपवादों को छोड़ कर, तब प्रायः अभिभावकों से छिपाने की नौबत इसीलिए आती थी, कि उन से डाँट खाने की या पिटाई की सजा मिलने का भय होता था। अगर वे लोग हमारे साथ अभिभावक जैसे कम और मित्रवत् ज्यादा पेश आते तो शरारतें, कम से कम, उनसे छुपा कर करने की नौबत तो नहीं ही आती। हैरत की बात तो ये है, कि हम आज भी अपने अभिभावकों की वही गलती अपने संतानों के साथ दोहराने की गलती अक़्सर करते हैं। परन्तु अपनी इसी गलती को सुधारने के लिए हम में इतनी हिम्मत और पारदर्शिता भी होनी चाहिए, कि हम अपनी संतान को अपने अतीत के सारे अच्छे- बुरे कर्मों को पारदर्शिता के साथ किसी इतिहास की कक्षा में पढ़-पढ़ा रहे विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका की तरह बतला सकें और साथ ही इन से हमें हमारे वर्तमान जीवन में मिलने वाले अच्छे-बुरे परिणामों से भी अवगत करा सकें। जिनसे वे सबक़ लेकर अपना विवेक बढ़ा सकेंगे। हमें अपने अतीत की अच्छी- बुरी घटनाओं के लिए तो शायद किसी इतिहासकार की भी दरकार नहीं पड़ेगी, जिनसे कि किसी भी इतिहास को तोड़-मरोड़ के पेश करने की भी कोई संभावना बनेगी, बल्कि हम तो स्वयं ही अपने इतिहास के इतिहासकार हैं। पर सनद रहे कि यह हमारा आपसी वार्तालाप केवल प्राप्तांक के लिए पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका जैसा ना होकर, उस से ज्ञान, विवेक और सबक़ लेने-देने वाले विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका जैसा ही हो .. बस यूँ ही ...
एक बात और गौर करने वाली है, कि जिन राज्यों या देश में जो भी वस्तु क़ानूनी तौर पर निषेध हैं और वहाँ अगर चोरी-छिपे उन निषेध वस्तु का क्रय-विक्रय होता है, तो उसके लिए उसके उपभोक्ताओं को नाज़ायज तरीके से विशेष अतिरिक्त क़ीमत चुकानी होती है .. शायद ... 
मसलन - बिहार में ही तो मद्यपान क़ानूनन ज़ुर्म है। पर पड़ोसी राज्यों से चोरी-छिपे अवैध तस्करी द्वारा तिगुनी क़ीमत पर आसानी से या मुश्किल से, जैसे भी हो, व्यसनियों के लिए ग़ैरक़ानूनी तौर पर उपलब्ध हैं। उसी प्रकार अगर हम उन्हें बिना विवेक दिए, केवल अपनी मनाही उन पर ज़बरन थोपेंगे, तो उनको भी चोरी-छिपे किये गए अपने कृत्यों के लिए, अपने भावी जीवन की मँहगी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है .. शायद ...
अब ऐसे में अगर हम अक़्सर अभिभावक होने के नाते अपना पल्ला झाड़ते हुए, अपने अभिभावक होने का भ्रम पाले, इन दोनों उपकरणों को उपयोग करने की मनाही अपनी संतान पर थोप के, अभिभावक पद की इतिश्री समझते हैं, तो ये भी/ही हमारी भूल है .. शायद ... अब आप से उम्मीद है .. और करबद्ध निवेदन भी है, कि  अब से आप अभिभावक या बड़े होने के नाते किसी बच्चे या युवा को सीधे-सीधे किसी वस्तु या काम के लिए मना करने के बदले, उन्हें अच्छे-बुरे का विवेक देंगें और उनके हाथ में 'मोबाइल' या 'टीवी' का 'रिमोट' होने पर भूले से भी  'अनसा' (चिड़चिड़ा) कर नहीं कहेंगे, कि .. "निगोड़ा बिगाड़ रहा है" .. बस यूँ ही ...

( वैसे .. चलते-चलते ये बतलाते चलें, कि यह कोई कोरी बतोलाबाजी नहीं है, बल्कि स्वयं की एकलौती संतान के साथ उसके बाल्यावस्था में, उसे ज्ञान से ज्यादा "विवेक" देने वाला सफल प्रयोग किया हुआ है। )






Saturday, February 5, 2022

खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-३ (अन्तिम भाग).

(i) खुरपी के ब्याह में हँसुए का गीत : -
अब आज "खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-३" में गत भाग-२ में साझा किए गए ग्राफ़युक्त चित्रों के आधार पर "क़ैद में वर्णमाला" की बतकही को आगे बढ़ाते हैं और इसी बहाने लीक से हट कर खुरपी के ब्याह में हँसुए का गीत गाते हैं .. बस यूँ ही ... 
इन ग्राफ़युक्त चित्रों में .. आपका तो पता नहीं, पर मेरे लिए तो चौंकाने वाली बात है या यूँ कहें कि .. स्वीडन, कनाडा इत्यादि जैसे देशों के नाम और उनके पाठकों की संख्या भी हैं। नहीं क्या ? मुझे तो बहुत ही विस्मयकारी लगा। पहले हम स्वीडन की ही बात करते हैं। 
वैसे तो सर्वविदित है, कि स्वीडन देश यूरोपीय महाद्वीप में स्थित है और स्टॉकहोल्म शहर जैसी राजधानी वाले इस देश की मुख्य भाषा और राजभाषा, दोनों ही स्वीडिश है। यूँ तो ज्यादातर यहाँ बसे हुए विदेशी मूल के लोग नगण्य संख्या में हैं। मुख्यतः सीरिया, फिनलैंड, इराक, पोलैंड, ईरान और सोमालिया आदि जैसे देशों के लोग बसे हुए हैं, पर कुछ भारतीय भी हैं, जो अनुमानतः ज्यादातर हिंदी भाषी ही होने चाहिए .. शायद ...
अब उपरोक्त आंकड़े में जो स्पष्ट रूप से दिख रहा है, कि जिस किसी भी चिट्ठाकार के 'ब्लॉग' से यह 'स्क्रीन शॉट' (Screen shot), जिस दिन भी लिया गया होगा ; उसके विगत सात दिनों में (Last 7 days) उस ब्लॉग विशेष को झाँकने वाले भारत के छः सौ पाठकों की तुलना में स्वीडन के पाठकों की तादाद छः हजार (6K) दिख रही है। अगर गौर किया जाए तो .. भारतीय पाठकों की तुलना में ठीक-ठीक दस गुणा। 
पर ऐसे में .. मन में एक सवाल उठता है, कि लगभग एक सौ पैंतीस करोड़ से भी ज्यादा जनसंख्या वाले देश- भारत की तुलना में उस एक करोड़ से कुछ ही ज्यादा आबादी वाले, जहाँ हिंदी पढ़ने-जानने वाले अगर भारतीय हैं भी, तो बहुत ही कम ; स्वीडन देश में फिर अचानक हिंदी भाषी ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों या पाठिकाओं की बाढ़-सी क्यों और क्योंकर आयी होगी भला ? 
यूँ तो स्वीडन में भी कई विश्वविख्यात लेखक हुए है, जिनमें से अब तक सात लोगों को नोबेल पुरस्कार का सम्मान भी मिल चुका है। पर फिर मन में सवाल आता है कि .. इन नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से अगर आज कई लोग जीवित भी होंगे और स्वीडिश भाषी होने के साथ-साथ अगर उन्हें हिंदी भाषा आती भी होगी, तो इन से पाठकों की इतनी ज्यादा संख्या बढ़ने की संभावना नहीं बनती है। फिर अचानक हिंदी भाषी ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों की बाढ़-सी भारत से ज्यादा स्वीडन में क्यों और क्योंकर भला आ गयी होगी ? 
अगर आप में से किन्हीं सुधीजन को इस विषय में मालूम हो, तो मुझे भी इस की यथोचित वजह से अवगत अवश्य करवाइएगा। वैसे उपरोक्त आंकड़े के अनुसार, अमेरिका के दो सौ सत्ताईस पाठकों की संख्या तो फिर भी समझ में आती है .. शायद ...

(ii) बेरंग हाथ भी नहीं : -
अब मुख्य बिन्दु पर आते हैं। अगर इन विदेशियों में से कोई लिखने वाले (तथाकथित साहित्यकार) अपनी देशी भाषा (जो हमारे लिए निश्चित रूप से विदेशी भाषा ही है और अंजान भी) के साथ-साथ हमारी हिंदी भाषा को भी किसी दुभाषिया की तरह जानते होंगे, तो वह तो हमारी टुच्ची बतकही को तो नहीं, परन्तु आप जैसे प्रबुद्ध लोगों की रचनाओं को बहुत ही आसानी से अपनी भाषा में अनुवाद करके, अपने नाम से प्रकाशित कर या करवा सकते हैं। या फिर राम (तथाकथित) जाने, कि वहाँ के सात नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से ही किसी एक या दो-तीन ने हमारे यहाँ के किसी तथाकथित बहुत ही पुराने दिग्गज चिट्ठाकारों की ही किसी भी नायाब रचना का अपनी स्वीडिश भाषा में भाषांतर या लिप्यंतरण कर के ही नोबेल पुरस्कार झटक लिया हो। 
मतलब .. ये हम नहीं कह रहे या दावा कर रहे हैं, कि वे लोग ऐसा किये ही होंगें या करेंगे ही, बल्कि इसकी एक प्रबल सम्भावना बनती भर है। दूसरी तरफ ना तो हमें उनकी भाषा की और ना ही उनकी लिपि की भी जानकारी है, जो हम उन्हें रंगे हाथ पकड़ पायेंगे, कि वहाँ पर, हमारी टुच्ची बतकही की तो कदापि नहीं पर, आप दिग्गज़ों में से किसी एक की भी रचना की चोरी या डकैती कर ली गई हो या आगे भविष्य में होने की संभावना हो तो भी .. शायद ...
अजी साहिब ! विदेशों में ही क्यों .. अपने ही देश के अन्य वैसे राज्यों में, जहाँ की लिपि देवनागरी से बहुत ही भिन्न हैं ; विशेष कर दक्षिण भारत की। अब अगर वहाँ भी कोई अपनी भाषा के अलावा हिंदी भी जानने-समझने और लिखने-पढ़ने वाले दुभाषिए जैसे हों, तो उन लोगों से भी ऐसी चोरी या नक़ल की संभावना बनती हैं। हम तो तब भी नहीं पकड़ सकेंगे उनको, रंगे हाथ तो क्या, बेरंग हाथ भी नहीं। वैसे ये सब मेरी टुच्ची सोच-समझ की कोरी कल्पना भर भी हो सकती है .. बस यूँ ही ...

(iii) बेचारी सदियों से घेरे में घिरी : -
मगर .. अगर एक बार के लिए उपर्युक्त नक़ल या चोरी की सम्भावना को सच मान लिया जाए, तो फिर आप में से कई लोगों की "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाली महान रचनाओं में से कोई एक-दो ही सही, विश्व की किसी विदेशी भाषा में या अपने ही देश के अन्य राज्य की अंजान भाषा में किसी दुभाषिए की तरह अनुवाद कर के वहाँ कोई छपवा ले या उसी के आधार पर कहीं कोई नोबेल पुरस्कार लपक ले तो ? उन अंजान भाषाओं की जानकारी नहीं होने के कारण हम-आप उन्हें कैसे पकड़ पायेंगे भला ? पकड़ पायेंगे क्या ? शायद .. नहीं ?  और अगर "हाँ" तो, वह विधि हमको भी तनिक बतलाने का कष्ट कीजियेगा आप सभी लोग, जो अपनी-अपनी बेशकीमती रचनाओं के साथ-साथ "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" के फुदने लटकाते हैं .. बस यूँ ही ... 
ज़्यादातर रचनाओं के साथ रचनाकारों के नाम प्रायः © वाले चिन्ह के साथ ही देखने के लिए मिलते हैं। किसी-किसी 'ब्लॉग' पर तो एक टिप्पणीनुमा अनुच्छेद भी चिपका हुआ देखने/पढ़ने के लिए मिलता है यदाकदा। कहीं-कहीं तो विशुद्ध हिंदी में बजाप्ता कनिष्ठ कोष्टक में "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "स्वरचित रचना" का भी 'टैग' या एक फुदना लटका रहता है। गर्वोक्ति के लिए "स्वरचित रचना" वाली 'टैग' तो समझ में आती है, पर ये "सर्वाधिकार सुरक्षित" वाला फुदना हास्यास्पद लगता है, ख़ासकर स्वीडन में या भारत के ही अन्य राज्यों में किसी दुभाषिये साहित्यकार द्वारा इसके गलत इस्तेमाल करने वाली संभावनाओं के मामले में। वैसे इसका अर्थ तो हमें भी समझ में आता ही है, कि © का मतलब .. उन रचनाकार की रचनाओं की 'कॉपीराइट' (Copyright) उनके पास है .. अगर विशुद्ध हिंदी में कहें तो प्रतिलिप्याधिकार या सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। 
परन्तु विश्वस्तर पर अन्य भाषाओं में भाषांतर या लिप्यंतरण कर के, हमारी अपनी चुरायी गई रचना को हम अगर पकड़ नहीं सकते, तो फिर ये  "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाले फुदने अपनी रचनाओं में भला किस के लिए ? केवल अपनी भाषा- हिंदी जानने वाले लोगों के लिए ? ये तो वही बात हो गयी कि अक़्सर देखने में आता है, कि कई मोहतरमा पूरे शहर घुम आती हैं बुर्क़े को अपने 'हैण्ड बैग' में रख के और मुहल्ला-घर आते ही 'हैण्ड बैग' से निकाल कर खुद को बुर्क़े से ढाँक लेती हैं या फिर कई घूँघट वाली बहुएँ 'मल्टीप्लेक्स-मॉल' तो घुम आती हैं बिना घूँघट के और घर आते ही घूँघट काढ़ लेटी हैं, वैसे हम बताते चलें कि हम किसी बुर्क़े या घूँघट के पक्षधर कतई नहीं हैं जी,
हम तो केवल यह कहना चाह रहे हैं, कि जब विश्व के विदेशों के या अपने ही देश के अन्य राज्यों के तथाकथित चोरों से अपनी रचना की चोरी नहीं पहचान या पकड़ सकते तो इस "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" वाले फुदने केवल अपने ही हिंदी भाई-बंधुओं के लिए क्यों लगाना भला ? सवाल नहीं दाग़ रहे हम। ना , ना, हम केवल बात को समझना चाह रहे हैं .. बस यूँ ही ...
दूसरी तरफ अब अगर किसी विदेशी या देशी अन्य राज्यों के साहित्यकार को इस तरह की चोरी-सह-डकैती कर के ख़ुशी मिलती भी है, नाम मिलता भी है, तो क्या बुराई है इसमें भला ? हमने भी तो कभी उनकी चाय, तो कभी चाऊमीन, कभी पिज्ज़ा-बर्गर, तो कभी इडली-डोसा चुरा-चुरा कर अपनी कुल्हड़ें-प्यालियों और थालियों-कटोरियों को सजा कर अपनी गर्दनें अकड़ायी ही हैं। कभी चुरा कर किसी के अचकन-शेरवानी, तो किसी के पतलून, कोट-टाई से हमने अपने परिधानों की शान भी बढ़ाई ही है .. है ना ? ( ये एक विशुद्ध कुतर्क हो गया है .. शायद ... है ना ? 😃😃😃 )
और फिर .. हम तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" के बैनर-पोस्टर वाले हैं ही। कोई चुराया भी तो, है तो अपने परिवार का ही अंग या अंश, फिर भला बिदकना कैसा ? दूसरी ओर हम लाउडस्पीकर पर , बीच-बीच में आयी गैस वाली अपनी लम्बी डकार की आवाज़ के साथ, गीता का सार वांचने वाले लोग भी तो हैं ही, कि "खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ वापस चले जाना है। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।" ऐसे में अपनी रचना चुराए जाने से दुःखी या क्रोधित मन वाले मौकों के लिए, आपके मन की शांति के लिए गीता के सार की इन अनमोल पंक्तियों को भी मन ही मन में दुहराने से भी हमारा-आपका कल्याण हो सकता है .. शायद ... कि "तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए थे, बल्कि जो लिया, यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी/उसी (तथाकथित) भगवान से लिया। जो दिया, इसी/उसी को दिया।" सच भी तो है, कि जो भी लिखा शब्दकोश से उधार लिया या चोरी किया, फिर जो उन्होंने चुराया और हमारी ही चोरी के माल को अपना नाम दे दिया, तो फिर हमें इन सब से परेशान क्यों होना भला ! है कि नहीं ? (ये एक और विशुद्ध कुतर्क हो गया है .. शायद ... 😀😀😀)

(iv) पिया मिलन की आस : -
ऐसे में 'कॉपीराइट' (Copyright) वाली संकेतात्मक चिन्ह - © में अंग्रेजी वर्णमाला वाली C बेचारी सदियों से घेरे में घिरी, क़ैद में चीख़-चीख़ कर कहती जान पड़ती है, कि तथाकथित राम-कथा - रामायण के अनुसार, लक्ष्मण रेखा से घिरी सीता माता को आखिरकार रावण हरण (अपहरण) कर के लंका ले ही गया, तो जब तथाकथित भगवान राम की धर्मपत्नी सीता माता किसी लक्ष्मण रेखा में सुरक्षित ना रह पायीं तो, हम अदना-सी 'सी' (C) कैसे सुरक्षित रह सकती है इस गोल घेरे में भला .. शायद ...
तथाकथित राम और रामायण से एक और घटना याद आयी कि बेचारे तुलसीदास जी और वाल्मीकि जी के घोर परिश्रम वाले रामायण की 'कॉपीराइट' का उल्लंघन रामानंद सागर साहब ने तो किया ही और ना ही उन लोगों को कोई 'रॉयल्टी' मिली .. शायद ... 
यूँ तो अनगिनत उदाहरण हैं तथाकथित 'कॉपीराइट' उल्लंघन के, पर एक और मज़ेदार उल्लंघन की चर्चा कर ही दूँ यहाँ। आपने भी तो सुना ही होगा कि नए या पुराने फ़िल्मी गानों या ग़ज़लों में धड़ल्ले से दो निम्न पंक्तियों को इस्तेमाल किया जाता है -
"कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस,
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।"
जिन्हें उपलब्ध जानकारियों के अनुसार अमीर ख़ुसरो जी के गुरु- निज़ामुद्दीन औलिया जी के भी गुरु- बाबा फ़रीद उर्फ़ हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन गंजशकर जी, जिन्हें भारतवर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है, ने लगभग हजार साल पहले इसे अपनी आवाज़ और सूफ़ी अंदाज़ में गाया होगा .. शायद ...
पर आज इस रचना के साथ ना तो 'कॉपीराइट' और ना ही 'रॉयल्टी' जैसी कोई बात नज़र आती हैं। हो सकता है .. उन्होंने भी मेरी तरह अपनी रचनाओं में "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "©" या फिर "स्वरचित रचना" वाला फुदना ना लटकाया हो, उसी का यह खामियाज़ा भुगत रहे हों .. बस यूँ ही ... 😧😧😧

(v) चलते-चलते ... : -
यूँ तो सर्वविदित है कि 23 अप्रैल को मनाया जाने वाला "विश्व पुस्तक दिवस" (World Book Day) को हम "विश्व पुस्तक और प्रकाशन अधिकार दिवस" (World Book & Copyright Day) या किताबों का अंतरराष्ट्रीय दिवस (International Day of Book) के नाम से भी जानते हैं ; जिसको यूनेस्को यानि "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" (UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) द्वारा तय की गई तारीख 23 अप्रैल' 1995 को सर्वप्रथम मनाया गया था। अलग से कोई भी प्रतिलिप्यधिकार दिवस (Copyright Day) नहीं मनाया जाता है। यह "विश्व पुस्तक और प्रकाशन अधिकार दिवस" में ही समाहित होता है।
यूँ तो अपने देश में "प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम, 1957" (The Copyright Act, 1957) कानून के तहत साहित्यिक रचनाओं, नाट्य रचनाओं, संगीत रचनाओं, कलात्‍मक रचनाओं, चलचित्र रचनाओं और ध्‍वनि रिकार्डिंग से सम्बंधित निर्माणों को सुरक्षा प्रदान की जाती है .. शायद ... 
वैसे हमें और विशेष जानकारी तो नहीं इसके बारे में। यह बतकही को हम वर्तमान "दिवसों" की होड़ में गत वर्ष, 2021 में, ही 23 अप्रैल को इस 'वेब' पन्ने पर चिपकाते, पर गत वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह से ही कोरोनाग्रस्त होने के कारण विस्तारपूर्वक लिख भी नहीं पाए थे, तो इसीलिए चिपका भी नहीं पाए थे .. बस यूँ ही ...