Thursday, June 3, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१).

कुछ-कुछ ऊहापोह-सा है कि ... आज हम अपनी बतकही शुरू कहाँ से शुरू करें ? ... वैसे अगर हम वर्तमान परिवेश की बातें करें, तो ऐसे में परिहास का मि. इंडिया (Mr. India- एक फ़िल्म का नाम) हो जाना यानी मि. इंडिया की तरह अदृश्य हो जाना स्वाभाविक ही है .. शायद ...। क्योंकि जब आज का परिवेश परेशानियों के दौर से गुजर रहा हो, तो ऐसे में परिहास का गुजारा हो भी तो भला क्योंकर ? ..  ख़ैर ! .. बातों-बातों में फ़िल्म मि. इंडिया के ज़िक्र होने से ये ख़्याल आ रहा है कि क्यों ना .. मनोरंजन के साधनों में से एक साधन - फ़िल्मों की ही कुछ फ़िल्मी बातें कर ली जाएं। शायद .. आज के इस तनावग्रस्त अवसाद भरे क्षणों को कुछ राहत ही मिल पाए .. बस यूँ ही ...

आपने कभी भी किसी गाने के ऐसे मुखड़े को सुना या गाया-गुनगुनाया है क्या ? -

"जो हाल है मस्ती में, कौन है रंजिश, बेहाल बेचारा दिल है" -

शायद .. आपका जवाब "ना" हो और .. अगर आपका जवाब सच्ची-मुच्ची "ना" है, तो आप बिलकुल सही हैं। क्योंकि लगभग अपनी किशोरावस्था के बाद जब सन् 1985 ई. में "गुलामी" नाम की फ़िल्म अपने शहर के सिनेमा हॉल में आयी थी, तो उसके जिस गीत का मुखड़ा हम टीनएज (Teenage) के आख़िरी पड़ाव यानी उन्नीसवें साल में किसी तरह टो-टा कर (अनुमान लगा कर) गुनगुनाने या गाने की भूल भरी कोशिश कर रहे थे .. उस के बारे में बहुत सालों के बीत जाने के बाद जानकारों से जान पाया कि दरसअल उस गीत का मुखड़ा फ़ारसी भाषा में लिखा गया है और अंतरा हिन्दी में। उस लोकप्रिय गीत का वह फ़ारसी मुखड़ा कुछ यूँ है :-

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है" 

जिसका हिन्दी मतलब भी उन्हीं जानकारों से ही कुछ यूँ ज्ञात हुआ था कि :-

"मुझे रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई के मारे यूँ ही बेहाल है।"

इस फ़िल्म का यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था; जो कि राग भैरवी पर आधारित था। जिसके संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल थे और गायिका-गायक थे लता मंगेशकर और शब्बीर कुमार। जिसको फ़िल्मी पर्दे के लिए मिथुन चक्रवर्ती, अनीता राज और हुमा खान के साथ राजस्थान की पृष्ठभूमि में फ़िल्माया गया था। हुमा क़ुरैशी मत समझ लीजिएगा, क्योंकि उनका तो जन्म ही उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1986 ई. में हुआ था। आधिकारिक तौर पर इस लोकप्रिय गीत के गीतकार सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ जाने-माने गुलजार साहब हैं। 
किसी गीत में इस तरह से मुखड़ा फ़ारसी में और अंतरा अन्य भाषा में रचने का एक अनूठा प्रयोग साहित्य जगत में शायद पहली बार नहीं किया था गुलज़ार साहब ने। बल्कि सदियों पहले तेरहवीं-चौदहवीं सदी (1253 - 1325) के दरम्यान ही सूफ़ी गीतों के रचयिता और एक अच्छे संगीतज्ञ अबुल हसन यमीनुद्दीन उर्फ़ अमीर ख़ुसरो जी ने, जिन्हें हिन्द का तोता और मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) भी कहा गया है, फ़ारसी और ब्रज भाषा के सम्मिश्रण से एक अद्भुत और अनूठी रचना रची थी। इस पूरी रचना में पहली पंक्ति फ़ारसी में है, जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में .. जो आज भी एक मील का पत्थर प्रतीत होता है .. शायद ...
यूँ तो इस अनन्त ब्रह्माण्ड का एक अल्पांश भर ही है हमारी पृथ्वी .. जिस पर बसे हम इंसानों द्वारा अनुमानतः छः हजार से भी ज्यादा बोलने-लिखने वाली उपलब्ध भाषाओं को किसी भी एक व्यक्ति विशेष के लिए बोल-सुन पाना या जान-समझ पाना असम्भव ही होता होगा या यूँ कहें कि .. वास्तव में असम्भव ही है .. शायद ...
केवल एक भाषा मात्र ही क्यों .. वैसे तो विश्व भर में उपलब्ध विज्ञान या सामान्य ज्ञान के अलावा और भी विभिन्न प्रकार की कई-कई तकनीकों व ज्ञानों की जानकारी का दायरा भी इस ब्रह्माण्ड की तरह ही असीम-अनन्त जान पड़ता है। जितना भी हम जान-सीख जाएँ, पर हम अपनी गर्दन अकड़ाने के लायक नहीं बन सकते हैं कभी भी। क्योंकि हम ताउम्र अपनी अन्तिम साँस तक जितना कुछ भी जान-सीख पाते हैं ; वो सब विश्व के समस्त ज्ञान-भंडार की तुलना में नगण्य ही जान पड़ता है। सम्भवतः प्राकृतिक रूप से भी विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान को जान-समझ पाने की माद्दा हम में से किसी एक व्यक्ति विशेष के पास है भी नहीं .. शायद ...
ऐसे में .. अक़्सर जो बुद्धिजीवी लोग "मेरी भाषा - तेरी भाषा" जैसी बातें करते रहते हैं या हिन्दी-अंग्रेजी के सम्बन्ध में वैमनस्यता का राग अलापते रहते हैं या फिर जिनको आवश्यकतानुसार भी दूसरी भाषा का किया गया प्रयोग एक घुसपैठ की शक़्ल में दिखता है या दूसरी अन्य भाषओं के प्रयोग से अपनी भाषा का अस्तित्व खतरे में जान पड़ता है; उन सभी महानुभावों की सोच पर तरस खाने के लिए अमीर ख़ुसरो जी की यह रचना ही काफ़ी है  .. शायद ...

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
(फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
(फ़ारसी)
किसे 
पड़ी है जो जा सुनावे

पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)


चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान

हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
 (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||
 (ब्रज)

इस रचना की शुरू की चार पँक्तियों -

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां ।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।।

- का अर्थ इसके जानकारों के अनुसार है :-

"आँखें फेर कर और बातें बना के मेरी बेबसी को नजरअंदाज मत करो। जुदाई की तपन से जान निकल रही है। ऐसे में तुम मुझे अपने सीने से क्यों नही लगा लेते ?"

कुछ जानकारों के अनुसार गुलज़ार साहब के मन को उस लोकप्रिय गीत के मुखड़े के लिए अमीर ख़ुसरो जी की वर्षों पुरानी इसी रचना ने कुछ हद तक या शायद बहुत हद तक अभिप्रेरित किया था।
ख़ैर ! .. इन बातों में जो भी सच्चाई हो ..  फ़िलहाल बात हो रही है फिल्मों के बहाने, अंजान भाषा या शब्दों की .. जिनके अर्थ नहीं जान पाने से उनका अर्थ और भाव नहीं जान पाते हैं हम। अपनी भाषा से इतर अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं होने की कुछ ऐसी ही विवशता होती रहती हैं, कभी न कभी हमारे जीवन में हमारे साथ।
परन्तु उस दौर में (1998 में गूगल के आने के पहले तक) अनसुलझे सवालों को सुलझाने के लिए गूगल नामक कोई सहज-सुलभ माध्यम उपलब्ध नहीं था।  जिस से पलक झपकते ही किसी भी तरह की जानकारी प्रायः हासिल की जा सकती हो। तब तो जिस भाषा का शब्दकोश पास में नहीं होता था, तो उस भाषा के किसी भी अंजान शब्द का अर्थ जानने के लिए हमें अपने अभिभावक, शिक्षक या मुहल्ले के किसी अभिभावकस्वरुप जानकार व्यक्ति पर ही निर्भर होना पड़ता था।

एक बार एक और ऐसा ही अंजाना शब्द पल्ले पड़ा था, जिसका अर्थ पहली बार में पल्ले नहीं पड़ा था ; जब वह शब्द सुना था। वह भी तब, जबकि सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक फ़िल्म आयी थी - " ...... " ... ख़ैर ! .. अब उस फ़िल्म और उस से जुड़े अंजाने शब्द की बातें "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." के लिए छोड़ते हैं और अगली बार मिलते हैं .. बस यूँ ही ...

(तब तक आप नीचे साझा किए गए लिंक से फ़ारसी मुखड़े वाले उस लोकप्रिय गीत से रूबरू हो लीजिए , अगर समय हो तो .. 

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है").








Wednesday, June 2, 2021

'मॉकटेल'-सी नाक ...

अक़्सर ...

बार-बार

हालात की

राख से

मंजे गए,

समय के 

बर्तन में,

पश्चाताप के

ताप से

पके-अधपके 

देह के

बुढ़ापे पर, 

लगाती हुई

पक्की मुहर,

पनप ही

आती हैं

अनायास

अनचाही, 

अनगिनत

झुर्रियाँ काली मिर्च-सी।


ऐसे में भी

ना जाने क्यों ...

लहसुन की 

पकती पत्तियों-से

पियराए, कुम्हलाये,

मुखड़े पर भी

छा जाती है

पुदीने की पत्तियों-सी

झुर्रीदार हरियाली,

जब कभी भी

चाही-अनचाही आती हैं 

यादें तुम्हारी पगी

नेह में तुम्हारे।

तुम्हारी .. वो .. 

कुछ सुतवां और 

कुछ मंगोली के

'मॉकटेल'-सी नाक, ..

तुलसी मंजरी-सी

सोंधी साँसें और ..

नाक की लौंग भी,

ठीक गर्म मसाले वाले 

लौंग के जैसे।


और यादें भी ना ! .. 

मानो जैसे ..

पिघलते हैं,

पसरते हैं,

हौले-हौले

जिह्वा पर 

सुगंधित और

स्वादिष्ट ज़ायक़े

बनकर अक़्सर,

पोपले 

मुँह में

दरकने पर,

अल्प दंतयुक्त

या दंतहीन

मसूड़ों के जाँते में,

हरी पोटली वाली

तिजोरी में बंद

नन्हें-नन्हें,

काले-काले दाने,

छोटी इलायची के .. बस यूँ ही ...


【 माॅकटेल - Mocktail - एकाधिक नशारहित  पेय-मिश्रण। - -  (मिश्रित रूप के अर्थ में) 】.




Sunday, May 30, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३).【अन्तिम भाग】.

हमारे देश भारत में पृथ्वी यानी धरती को हम धरती माता कह कर स्त्री का दर्जा देते आए है। उड़ीसा राज्य के कई भागों में लोगों की मान्यता है कि आषाढ़ मास में चौदह जून यानी आषाढ़ संक्रान्ति के दिन से चार दिनों तक भूदेवी (पृथ्वी/धरती माता), जो इनकी मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु की पत्नी हैं, रजस्वला होती हैं। इस चार दिनों के दौरान खेतीबारी, बुआई, कटाई जैसे जमीन से जुड़े सारे काम बन्द कर दिए जाते हैं, ताकि उनकी मान्यताओं के अनुसार भूदेवी को आराम दे कर वे लोग खुश रखना चाहते हैं। सामान्यतः स्त्री रजस्वला होने के बाद से ही संतानोत्पत्ति में सक्षम हो जाती है। इसीलिए उन चार दिनों के बाद ही वे लोग खेतों में बीज डालते हैं, ताकि उनकी फसल की पैदावार अच्छी हो। स्थानीय लोग यह चार दिन त्योहार के रूप में मनाते हैं और इस रज पर्व को अपनी उड़िया भाषा में "रजो पर्व" कहते हैं।

इस रजपर्व में पहला दिन रज, दूसरा दिन मिथुन संक्रांति, तीसरा दिन बासी-रज कहलाता है। सजावट, गीत-संगीत (सोजा-बोजा) से शुरू होकर चौथे दिन वासुमति स्नान (गाधुआ) अर्थात भूदेवी स्नान के बाद इस पर्व का समापन होता है। इन चारों दिन बालिकाओं, युवतियओं और वयस्क महिलाओं की भी तो मानो बहार-सी छायी रहती है। घर के कामों से इनकी छुट्टी रहती है। वे लोग मेंहदी-आलता से सज-सँवर कर नए-नए कपड़े पहनती हैं। कई स्थानों पर तो खाना बनाने तक का काम उन चार दिनों में पुरुषों को ही करना पड़ता है। महिलाएँ घर का काम बंद कर के झूला झूलती हैं, खेल-मस्ती करती हैं। इन दिनों पीठा और चाकुली पीठा जैसा स्थानीय व्यंजन मुख्य खाना होता है। छेना पोडा, कनिका जैसे पकने में ज्यादा समय लगने वाले मीठे पकवान पर्व के पहले ही बना कर रख लिए जाते है। पाँचवे दिन महिलाएँ सिर/बाल धोकर ही किसी भी शुभ मांगलिक कार्य में शामिल होने लायक ख़ुद को पाती हैं। लब्बोलुआब ये है कि इनके आषाढ़ के वो चार दिन मस्ती भरे होते हैं .. शायद ...

आज भी परंपराओं के नाम पर असम के ही बंगाईगाँव ज़िला (बोंगाईगाँव) के सोलमारी गाँव में किसी भी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर उस लड़की की पहले दिन ही किसी केले के पेड़ से शादी करवा कर किसी भारतीय विवाह की तरह जश्न मनाया जाता है। इस अनोखी शादी को वे लोग "तोलिनी शादी" कहते हैं। इस अंधपरम्परा का बुरा पक्ष भी है कि लड़की को केले के पेड़ से शादी करवाने के बाद उस को ऐसे कमरे में बंद कर दिया जाता है, जहाँ सूरज की रोशनी ना आती हो और उस दौरान वह किसी का चेहरा तक भी नहीं देख सके। भोजन के नाम पर केवल कच्चा (बिना उबला) दूध और फल दिया जाता है, क्योंकि उस अवधि में पका हुआ खाना उनके अनुसार उस लड़की के लिए निषेध होता है। उसको रक्तस्राव बन्द होने के बाद नहा-धोकर (सिर-बाल) तथाकथित शुद्धिकरण होने तक जमीन पर ही सोना भी उसकी दिनचर्या में शामिल होता है। यह हमारे समाज की विडंबना ही है कि जिस अनूठी प्राकृतिक प्रक्रिया के लिए लड़कियों या स्त्रियों को गर्व महसूस करनी चाहिए, उसी से उन्हें हमारी दोहरी मानसिकता वाले समाज के सामने झेंपना पड़ता है .. शायद ...

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों  (दोनों का सयुंक्त रूप- पुराना आंध्र प्रदेश) के अधिकांश हिस्सों में जब किसी लड़की को पहली बार माहवारी आता है, तो इसके ग्यारह दिनों के बाद ... "पुष्पवती महोत्सवम्" (खिले हुए फूल का उत्सव) नामक एक समारोह का आयोजन किया जाता है। वह हमारे किसी भारतीय शादी-विवाह के आयोजन जैसा ही आडंबरयुक्त और खर्चीला होता है, जो परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के साथ सम्पन्न होता है। परन्तु इसका बुरा पक्ष यह है कि इस चक्कर में उस किशोरी की ग्यारह-बारह दिनों की स्कूल की पढ़ाई छुट जाती है। माहवारी के अगले पाँच से ग्यारह दिनों तक उनकी मान्यताओं के अनुसार उस लड़की को नहाने की अनुमति नहीं होती है। जब कि वैज्ञानिक तौर पर इस दौरान नहाना बेहद जरूरी होता है क्योंकि इससे संक्रमण का भय कम होता है। संक्रमण से बांझपन या अन्य कई बीमारियों के होने का भी खतरा रहता है और दूसरी तरफ नहाने से मनोदशा भी अच्छा होता है। साथ ही इस दौरान होने वाली पेट-शरीर के ऐंठन में भी आराम मिलता है। उसे घर में एक तय जगह पर अपनी आवश्यक दिनचर्या की चीजों के साथ रहना होता है। इन दिनों उसका शौचालय भी अलग होता है, ठीक किसी कोरोनाग्रस्त मरीज के स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के जैसा। इस दौरान शारीरिक-हार्मोनल के अलावा और भी कई तरह के बदलाव होते हैं, जिस से कमर और पेट में दर्द, उल्‍टी होना, चक्‍कर आना और पैरों में दर्द आदि लक्षण उभर कर सामने आते हैं। ऐसे में उसे परिवार से अलग-थलग रहने पर अनचाही मानसिक पीड़ा और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है .. शायद ...

जैसा कि माना जाता है कि हमारा देश विविधताओं से सम्पन्न देश है, तो एक ओर जहाँ केरल के सबरीमाला मंदिर में सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट/Supreme Court) की अनुमति के बाद भी आज तक दस साल की लड़की से लेकर पचास साल तक की महिला का प्रवेश वर्जित है। कारण है- वही हमारी अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता अंध-आस्था  और अंधविश्वास वाली सामाजिक मान्यताएँ, जिसके अनुसार इन उम्रों में लड़कियाँ या महिलाएँ अपने मासिक धर्म चक्र के कारण रजस्वला (रजवती/ऋतुमती) होने से अशुद्ध हो जाती हैं। परन्तु दूसरी तरफ हमारे ही देश के असम राज्य के कामाख्या मन्दिर में कोई भी रजस्वला लड़कियाँ या महिलाएँ अपने मासिक धर्म के दौरान भी प्रवेश कर के पूजा सम्पन्न कर सकती हैं।

सर्वविदित है कि हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं के अनुसार तथाकथित भगवान विष्णु द्वारा अपने सुदर्शन चक्र से देवी माता सती/दुर्गा के इक्यावन भागों में अंग-भंग करने पर देवी का योनि-भाग कामाख्या में गिरा था। असम की राजधानी दिसपुर जो कि इस राज्य के महानगर- गुवाहाटी (गौहाटी) का ही एक हिस्सा है और इसी गौहाटी शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित कामख्या शक्तिपीठ मन्दिर में हिन्दू मान्यताओं के तहत देवी सती के उसी तथाकथित कटे योनि-भाग की पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ वर्ष के आषाढ़ महीने में हर वर्ष चार दिनों के लिए लगने वाले अंबुवाची मेला के दौरान लोकमान्यता के अनुसार तीन दिनों के लिए बाईस से पच्चीस जून तक माता रजस्वला होती हैं। जिस कारण से कामाख्या मंदिर उन तीन दिनों के लिए बंद रखा जाता है। चौथे दिन, छ्ब्बीस जून को माता को नहला कर तथाकथित शुद्धिकरण के बाद आस्थावान भक्तगणों के दर्शन के लिए खोल दिया जाता है। यह कामाख्या मंदिर का आषाढ़ के वो चार दिन वाला सबसे बड़ा अनुष्ठान-उत्सव माना जाता है।

सर्वविदित है कि हमारे देश में नवरात्री के अवसर पर या अन्य कई अनुष्ठानों के दौरान कुँवारी कन्याओं की पूजा की जाने की परम्परा है। बजाप्ता उनके पाँव पखारे जाते हैं, पाँव छुए जाते हैं। पर यहाँ "कुँवारी" का अर्थ मैं निजी तौर पर "अनब्याही" लड़की समझता आया था गत वर्ष तक। मेरी यह अनभिज्ञता शायद पूजा-पाठ जैसे आडम्बरों में लिप्त नहीं रहने के कारण हो सकता है। पर गत वर्ष .. बस यूँ ही ... एक विचार-विमर्श के तहत एक जानकार से यह जान कर हैरान हो गया कि "कुँवारी" कन्या का मतलब उन लड़कियों से है, जो अभी तक पहली बार रजस्वला नहीं हुई हैं। इसमें हमें सब से हैरान करने वाली बात यह लगी थी कि जब कोई लड़की प्राकृतिक अनूठे वरदानस्वरुप पहली बार रजस्वला हो कर मानव नस्ल की कड़ी रचने के लिए सक्षम होती है; तब वह पूजने के लायक क्यों नहीं रह जाती है भला !? ...

कैसी बिडंबना है कि जो प्रक्रिया हमारे जीवन की कीमियागरी का आँवल है, हम उसी की खुल कर चर्चा करने से कतराते नज़र आते हैं। ठीक अपनी उस दोहरी मानसिकता की तरह, जिसके तहत हम जिस के लिए अक़्सर "गन्दी बात" कह कर मुँह बिचकाते हैं; उसी "गन्दी बात" के कारण विश्व में जनसंख्या के मामले में शिखर पर रहने वाले हमारे एक पड़ोसी देश के साथ होड़ लगाते हुए अपने देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ा कर अपनी भावी नई पीढ़ियों के लिए उनके भावी जीवन को दुष्कर से भी दुष्कर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...

यूँ तो इस तरह वेब पन्नों को अपनी बकबक से भर कर सोशल मीडिया पर चिपकाने से जरूरतमन्द समाज में बदलाव तो नहीं आ सकता, बल्कि बहुत सारे एनजीओ या सरकारी संस्थानों के अलावा कई लोगों के निजी तौर पर आगे बढ़ कर बुनियादी तौर पर हाथ बढ़ाने से परिदृश्य कमोबेश बदल रहा है। फिर भी अपने देश-समाज के अधिकांश हिस्सों में, जहाँ पर सैनिटरी नैपकिन से महिलाएँ आज भी या तो अन्जान हैं या फिर जानते हुए भी पुराने कपड़ों से काम चलाने के लिए मज़बूर हैं; इस दिशा में अभी भी बहुत काम किए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहली आवश्यकता है कि इस विषय पर खुल कर आपस में बात करने की; क्योंकि यह ना तो शर्मिदगी का विषय है और ना ही छुपाने का। आपस में बात करने से इसके लिए जो कुछ भी सामाजिक भ्रांतियां व मिथक हैं, वो दूर होंगी। मासिक धर्म को लेकर जब सब की चुप्पी टूटेगी, तो इस से जुड़ी वर्जनाएँ भी टूटेगी और गाँव-मुहल्ले की झेंपने वाली महिलाएँ और पुरानी सोच और बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं की कमी के कारण झेलनेने वाली महिलाएँ भी जागरूक होंगीं और उन दिनों में उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। इसके लिए हमें जागरूक होकर समाज को भी जागरूक करना होगा .. शायद ...

काश ! .. हमारा समाज रजस्वला लड़कियों या महिलाओं के मामले में सबरीमाला मन्दिर के नियम की तरह रूढ़िवादी होने के बदले कामाख्या मन्दिर के नियम जैसी उदार मानसिकता अपना पाता .. बस यूँ ही ...


Saturday, May 29, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२).

प्रायः किसी भी शहर की जीवन शैली (Life Style) के आधुनिकीकरण की रफ़्तार बहुत हद तक वहाँ की प्रवासी आबादी (Migrant Population) की मिलीजुली जीवन शैली से प्रभावित होती रहती हैं। चाहे उस प्रवास का कारण- किसी प्रकार का उपनिवेशवाद हो या उस शहर के कल-कारखानों या अन्य संसाधनों से मिलने वाले रोजगार के अवसर हों या फिर कोई और भी अन्य अवसर। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद इत्यादि जैसे कई महानगरीय क्षेत्रों (Metropolitan City) के अलावा झारखण्ड के बोकारो, जमशेदपुर (टाटानगर), पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर, छत्तीसगढ़ के भिलाई इत्यादि जैसे तमाम शहर भी इसके प्रमाण हैं .. शायद ...

पर वर्तमान में प्रवासी आबादी की मिलीजुली जीवन शैली के प्रभाव की कमी को टेलीविजन जैसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) और सोशल मीडिया (Social Media) भी पूरी करती नज़र आती हैं। जिससे छोटे से छोटे मुहल्ले-गाँव-क़स्बे तक की जीवन शैली के आधुनिकीकरण ने आसानी से पाँव पसारने की कोशिश की है। इसमें सहयोग करने के लिए या यूँ कहें कि इन सब से अपना स्वार्थ साधने के लिए कई राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपने उत्पादों के एक रूपये से लेकर पाँच-दस रूपये तक के पाउच पैकिंगों (Pouch Packing) से बाज़ारों को सजाया है; ताकि इस भौतिक आधुनिकीकरण की होड़ में छोटे-मंझोले इलाकों के न्यूनतम से न्यूनतम आय वाले भी शामिल हो कर आधुनिकीकरण की आभासी तृप्ति पा सकें और किसी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की तरह दूसरी ओर कम्पनियाँ भी मालामाल हो सकें .. शायद ...

परन्तु किसी महानगरीय क्षेत्र में रह कर इन भौतिक आधुनिकीकरण के बावजूद भी बहुधा हम मानसिक रूप से उसी समाज की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते पाए जाते हैं, जिस पैतृक समाज से हम संबद्ध होते हैं। यही कारण है कि आज भी गाँव तो गाँव, कई महानगरीय क्षेत्रों में भी कई दवा दुकानों या जेनरल स्टोरों (General Stores) पर कई ग्राहकों (स्त्री, पुरुष दोनों ही) को दुकानदार के हाथों में अपने किसी मनचाहे सैनिटरी नैपकीन (Sanitary Napkins) के ब्रांड (Brand) के नाम लिखे हुए एक कागज़ के टुकड़े की पुड़िया थमा कर, उससे अख़बार में लिपटा हुआ सैनिटरी नैपकीन सकुचाते हुए लेते देखा जाता है .. शायद ...

बचपन में तब तो ये बातें समझ से परे होती थीं, जब घर की कोई महिला अभिभावक किसी अन्य हमउम्र या छोटे सदस्य को ये बोलते सुनी जाती थीं कि - "फलां ! .. जरा खाने के लिए मर्तबान से अचार निकाल दो।" या "फलां ! .. जरा-सा दो-चार दिनों तक सुबह-शाम तुम ही पूजा-घर में दिया जला देना। कुछ दिनों तक हम नहीं छू सकते।" .. और ... यह सिलसिला लगभग हर महीने चार-पाँच दिनों तक देखने-सुनने के लिए मिलता था। बाल-मन उलझन महसूस करता कि आख़िर इस नहीं छूने की वज़ह क्या हो सकती है? तब खुद के बीमार होने की बात जैसा कुछ गोलमोल जवाब दे कर चुप करा दिया जाता था। जैसे .. अक़्सर चुप करा दिया जाता था, जब घर में किसी नन्हें मेहमान के आगमन होने पर घर के हम छोटे बच्चे बड़ों से ये पूछते कि "ये छोटा शिशु कहाँ से आया है ?" .. तो बड़े हँसते हुए बतलाते कि .. "चाची या भाभी के पेट में जो बड़ा-सा घाव (गर्भ) होने से पेट बड़ा-सा हो गया था ना ... तो उसी का ऑपरेशन करवाने अस्पताल गई थी .. तो वहीं से ले कर आई हैं।" पर आज सभी समाज-गाँव-शहर में  शत्-प्रतिशत तो नहीं, पर .. अधिकांश जगहों पर परिदृश्य बदल चुका है। अब आज तो घर के छोटे-बड़े हम सभी एक साथ घरों में बैठ कर इत्मिनान से टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने मनपसन्द कार्यक्रमों को देखते हुए, बीच-बीच में आने वाले कई-कई सैनिटरी नैपकिनों या कंडोमों के कई ब्रांडों के रोचक विज्ञापन सहज ही देखते रहते हैं। साथ ही हमारे साथ हमारी नई पीढ़ी की उपज कई सीरियलों में प्रेम-दृश्यों के भी अवलोकन बख़ूबी करती हैं और उसको समझती भी हैं .. शायद ...
फिर भी .. आज भी कई बार भूलवश या असावधानीवश किसी लड़की या स्त्री के पोशाक के पीछे की ओर उन दिनों वाले रक्त के दाग़ किसी राह चलते मनचले को दिख जाए तो .. उनकी फूहड़ फब्तियों का सबब बन जाता है और कुछ दोहरी मानसिकता वालों के लिए कुटिल मुस्कान का साधन। जब कि हमारी सोच टेलीविजन पर अक़्सर उस डिटर्जेंट पॉवडर (Detergent Power) विशेष के विज्ञापन के तर्ज़ पर ये होनी चाहिए कि - "कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं।" .. शायद ...

अब भले ही जर्मनी के किसी 'वॉश यूनाइटेड' नामक एनजीओ ने सन् 2014 ईस्वी में अठाईस मई को पूरी दुनिया में हर वर्ष "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाने के सिलसिला की शुरुआत की हो, परन्तु हमारे भारत के कई राज्यों में सदियों से इस दिवस को त्योहार के रूप में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। हालांकि उनके स्वरुप अपनी मूल भावना से भटक कर अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता, अंध-आस्था  और अंधविश्वास की दलदल में अपभ्रंश हो चुके हैं .. शायद ...

वैसे तो आज भी कई समाज में घर की किसी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर इस बात को छिपाया जाता है। इसके बारे में हम खुलकर बात नहीं कर पाते, बल्कि ... फुसफुसाते हैं। वहीं हमारे देश के कुछ हिस्सों में रजस्वला की शुरुआत का जश्न मनाया जाता है। अपने देश में कहीं-कहीं इस आर्ताचक्र, रजचक्र, मासिक चक्र, ऋ़तुचक्र या ऋतु स्राव के नाम पर त्योहार भी मनाया जाता है। पर समाज के अधिकांश हिस्सों में आज भी इन शाश्वत और जीवनाधार विषयों पर इस तरह से खुल के बात करनी वर्जित है। आज भी कई बुद्धिजीवियों के बीच, ऐसा करने वालों को बुरी मानसिकता का इंसान माना जाता है या यूँ कहें कि ऐसी बातों की चर्चा या चर्चा करने वाला व्यक्ति जुगुप्साजनक माना जाता है .. शायद ...
                                                       ख़ैर ! .. फ़िलहाल तो .. कुछ समझदार लोगों को जुगुप्सा करने देते हैं और ... फिर तनिक विश्राम के बाद पुनः उपस्थित होते हैं, इसके अगले और आख़िरी भाग- "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३)" के साथ .. बस यूँ ही ...



Friday, May 28, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-१).

प्रकृति प्रदत्त पदार्थों-जीवों का कुछ-कुछ जाना हुआ और कुछ-कुछ अभी भी अंजाना-अनदेखा-सा समुच्चय भर ही तो है हमारा समस्त ब्रह्माण्ड .. शायद ... तभी तो शायद हमारे पाषाणकालीन पुरख़े भी प्रकृति की शक्ति को नमन करते होंगे। कालान्तर में पुरखों की बाद की कड़ियों ने इसी शाश्वत सत्य- प्रकृति का मानवीकरण करते हुए भगवान को गढ़ना शुरू कर दिया होगा। हमारे पुरख़े आग, पहिया, कृषि इत्यादि की प्राप्त जानकारी या ख़ोज के साथ अलग-अलग भौगोलिक परिवेशों में कई-कई क्षेत्रों में कई-कई प्रकार के अलग-अलग खोजों के साथ विकास करते हुए पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में आज यहाँ तक पहुँचे हैं और भविष्य में खोज निरन्तर जारी भी रहनी है .. शायद ...

इसी प्रकृति की देन हम मानवों की शारीरिक संरचनाओं में कुछ पूरक अन्तरों के आधार पर ही मूलतः दो जातियों- (अभी फ़िलहाल तीसरी जाति- किन्नरों की बात नहीं करें तो)- स्त्री-पुरुष, औरत-मर्द, मादा-नर का जमघट ही तो है हमारी पृथ्वी पर। इसी प्रकृति ने स्त्री जाति को पुरुष जाति से इतर गर्भाधान की एक पीड़ादायक पर अनमोल-अतुल्य शक्ति प्रदान की है, जिस से वह हम मानव की दोनों जातियों की नस्लों की कड़ी रचती है। उम्र की जिस देहरी पर स्त्री जब अपनी बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए इस प्रकृति प्रदत्त वरदान हेतु सक्षम होने के लिए अग्रसर होती है, तभी देह के दरवाज़े पर अनायास एक अन्जानी-सी दस्तक होती है और ... बचपन के अल्हड़पन में ख़लल डालने वाली उसी दस्तक को मासिक धर्म, रजोधर्म, माहवारी या महीना (Menstural Cycle, MC या Period) कहते हैं .. शायद ...

सर्वविदित है कि आज अठाईस मई को पूरी दुनिया में "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाया जाता है; जिसका आरम्भ जर्मनी के एक एनजीओ (NGO-Non-Governmental Organization)-  वॉश यूनाइटेड (Wash United) ने सन् 2014 ईस्वी में किया था। इसके अठाईस तारीख़ को ही मनाने का कारण शायद मासिक घर्म के चक्र का अठाईस दिनों का होना है। इसको मनाने का उद्देश्य लड़कियों या महिलाओं को महीने के उन पाँच दिनों में स्वच्छता और सुरक्षा के लिए विश्व स्तर पर जागरूक करना था या है भी .. शायद ...

यूँ तो यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जिसके तहत दस से पन्द्रह साल की आयु के मध्य लड़कियों के अण्डाशय (Ovary) में एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन (Estrogen & Progesterone) नामक हार्मोन (Hormone) उत्पन्न होने के कारण अण्डाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा/Egg) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा, अण्डाशय को गर्भाशय (Uterus) से जोड़ने वाली अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव/Fallopian tube) के द्वारा,  गर्भाशय में जाता है। जिसको अण्डोत्सर्ग (ओव्यूलेशन/Ovulation) कहते हैं। इसी दौरान गर्भाशय रक्त युक्त झिल्ली की एक ताज़ी परत बनाता है, जहाँ उसका अस्तर रक्त और जैविक तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है ताकि अण्डा उर्वरित हो सके और शिशु के रूप में विकसित हो सके। इसी डिम्ब का किसी पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न होने पर यह, गर्भाशय की रक्त युक्त झिल्ली जिसका उपयोग नहीं होता है, के साथ एक स्राव बन कर योनि से निष्कासित हो जाता है। जिसको मासिक धर्म कहते हैं, जिस दौरान तीन से सात दिनों तक में लगभग बीस से साठ मिलीलीटर रक्तस्राव होता है। इसके एक बार आरम्भ होने के बाद हर महीने सामान्यतः अठाईस दिनों के बाद इसकी पुनरावृत्ति होती है, जो प्रायः गर्भवती के गर्भकाल में या रजोनिवृत्ति शुरू होने के बाद ही रूक पाती  है।

बहरहाल हम भी रुक कर विश्राम कर लेते हैं और आप भी और .. इसके अगले भाग "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२)" के साथ मिलते हैं .. बस यूँ ही ...



Wednesday, May 19, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-४ ). [ अन्तिम भाग ].

 प्रिया संग मानसिक संवाद ...

समय आया बुरा बिखराने के लिए शायद

संबंधों के सगे होने के सारे लगाए क़यास।

बिखरते हैं आँधियों में दुर्बल डालों के नीड़

मानो कर के बेकार पंछियों के सारे प्रयास।


कुछ संबंधों जैसे छूटे गंध औ स्वाद, तब भी

प्रिया संग जारी मानसिक संवाद, हो उदास।

बिस्तर भर सिमटा-फैला है जीवन-विस्तार,

डगमग-डगमग है सारा दिनचर्या विन्यास।


हर क्षण संविधान के अनुच्छेद चौदह वाले 

समानता के अधिकार का टूट रहा विश्वास।

डाल से लटका आख़िरी पत्ता भी गिरा रहा, 

वो झोंका बंजारा-आवारा हवा का बिंदास।


लाचार हैं हम, हुए असमर्थ संत्राण भी सारे  

दूर करने में इन दिनों बींधते हुए ये संत्रास।

बन रहा आए दिन .. कभी कोई पड़ोसी या 

कभी सगा भी महामारी कोरोना का ग्रास।



Monday, May 17, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-३ ).

ऐसे नाज़ुक वक्त में सोशल मीडिया पर मित्रों की लम्बी फेहरिस्त बारिश के बाद उग आए इंद्रधनुष के तरह आभासी लगने लगते हैं और शायद सच में होते भी हैं। जो दूर से सतरंगी लगते तो हैं , पर .. बिलकुल आभासी। वैसे हम भी तो इन से इतर नहीं। ऐसे में कबीर जी फिर से अपनी पंक्तियों - " बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजूं आपना , मुझसे बुरा न कोय ।। " के साथ प्रासंगिक जान पड़ते हैं। सच में .. ऐसे पलों में इन आभासी दुनिया की सच्चाई का सहज़ ही आभास हो जाता है। परन्तु .. इन में से भी .. अगर .. कोई एक-दो लोग भी/ही सही .. लगभग माह भर से सोशल मीडिया पर हमारे नदारद होने के कारण उत्सुकतावश मैसेंजर ( Messenger ) पर पाठ संदेश ( text message ) भेज कर या अचानक कॉल ( Call ) कर के हालचाल पूछते हैं , तो .. संक्षेप में कहूँ तो .. बस .. ये कहना शायद काफी होगा कि  " अच्छा लगता है " .. बस यूँ ही ...

चेन्नई के ऐसे ही एक शुभचिन्तक से "कबसुरा कुदिनेर" ( Kabasura Kudineer ) नामक काढ़ा का पता चला , जो हमारे बाज़ार में उपलब्ध काढ़ा से कई गुणा कारगर और बेहतर है। उनके अनुसार गत वर्ष कोरोनकाल के दरम्यान दक्षिण भारत में वहाँ की सरकार द्वारा इनके पैकेट्स आमजन को मुफ़्त में बाँटे गए थे। हमारे स्थानीय बाजार में उपलब्ध नहीं होने के कारण हम ने इसे ऑनलाइन मंगवाया है। पीने में काफ़ी कड़वा तो है , पर ...
स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान ऐसे में बिस्तर पर पड़े-पड़े प्रायः दूरभाष से या पड़ोसियों के द्वारा किसी पड़ोसी या किसी रिश्तेदार के कोरोना के कारण गंभीर बीमार होने की ख़बर मिल रही होती है। साथ ही कभी किसी पड़ोसी या अलग-अलग शहर- गाँव में रहने वाले रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों के असमय गुजर जाने की ख़बर मिलती रहती है। सुन कर मन घबराता है। इस बार स्थानीय मंचों और सम्मेलनों में अक़्सर मिलने के कारण हुई पहचान वालों में से भी कई लोगों को कोरोना ने हम सभी से झपट लिया है। कभी-कभी किसी के बीमार होने के बाद हमारी तरह या हम से भी पहले और बेहतर स्वस्थ हो जाने की ख़बर आती रहती है। बिस्तर पर पड़े-पड़े लगभग हर दिन सड़क से गुजरते एम्बुलेंसों के सायरन की आवाज़ कानों तक आने पर कलेजे में एक अज़ीब सी हूक उठती है।
किसी-किसी दिन तो .. ऐसे माहौल में भी लाउडस्पीकर पर आस-पास से तथाकथित शिव-चर्चा ( ? ) के नाम पर कुछ विशेष आस्थावान महिलाओं की बेसुरी आवाज़ों में फ़िल्मी गानों की पैरोडी से सजे तथाकथित भजन के कानफाड़ू शोर मन को विचलित करते हैं। तो किसी रोज शाम से लेकर देर रात तक डी. जे. ( D J ) , ढोल-ताशे , बैंड-बाजे , ठेलों पर बजने वाले ऑर्केस्ट्रा और पटाख़ों की आने वाली कानफाड़ू आवाज़ें व्यथित कर जाती हैं ; क्योंकि अच्छे संयोग से या बुरे संयोगवश हमारे वर्तमान ठिकाने के समीप ही ठिकाने के दोनों बाज़ू एक-एक मन्दिर और किराए पर उपलब्ध होने वाला एक-एक विवाह-भवन भी हैं।
वैसे तो .. इस तरह के धर्मों और लोक परम्पराओं के अंधानुकरण के नाम पर होने वाले शोर-शराबों में आम दिनों में भी ना तो कोई क़ानून लागू होता हुआ दिखता है .. ना ही इसके रोकथाम के लिए प्रशासन की कोई ठोस पहल/कदम या लोगबाग का डर और ना ही तथाकथित सुसंस्कारी लोगों में नागरिक भावना ( Civic Sense ) वाले किसी संस्कार का दर्शन मात्र मिल पाता है। शुक्र है कि अभी बिहार में उच्च न्यायालय के अलावा अन्य कई संस्थानों के दबाव में/से ही सही .. लॉकडाउन ( Lockdown ) लगा हुआ है।
ऐसे में भी कबीर जी के किए गए समाज के तीन वर्गीकरण की तर्ज़ पर पुनः तीन वर्ग सामने दिख जाता है। आज भी तीन वर्गों में से एक वह वर्ग है जो इस कोरोनकाल में भी अपनी अंदरुनी शक्ति यानि रोग प्रतिरोधक क्षमता ( Immunity Power ) , इच्छाशक्ति  या फिर क़ुदरती संयोगवश आज तक कोरोनाग्रस्त हुआ ही नहीं है और .. क़ुदरत करे कि चाहे जैसे भी हो वो आगे भी सुरक्षित ही रहें .. इन्हीं में से कई लोग शादियों में नाच रहे हैं या बिना मास्क लगाए आज भी बिंदास बाहर घूम रहे हैं। दूसरा वर्ग वह है जो हमारे जैसा संक्रमित हो कर भी संक्रमण से उबरने की ओर अग्रसर होता दिखता है या पूर्णतः संक्रमण मुक्त हो चुका है और तीसरा वर्ग वह है जो संक्रमण से तो नहीं , बल्कि .. अपने जीवन से ही मुक्त हो जा रहा है और उसके पीछे रह जा रहा है जीवित पर .. अधमरा-सा रोता-बिलखता , सिसकता और मायूस उस पर आश्रित उसका मासूम परिवार। जिनको किसी अपने के असमय चले जाने की पीड़ा झेलने के साथ-साथ ही ये भी नहीं सूझ पा रहा है कि आगे घर कैसे चल पाएगा। इस विपदा भरी वैश्विक महामारी की घड़ी में बचपन में पढ़ी गई .. हाथी और सात अंधों वाली कहानी चरितार्थ हो रही है। गत वर्ष कोरोनाकाल में जो जैसा सामना किया था या इस बार कोरोनाकाल की इस दूसरी लहर में अभी कर रहा है , वह वैसी ही धारणा बना रहा है अपने मन-मस्तिष्क में कोरोना के बारे में .. शायद ...
हमारे कोरोना पॉजिटिव हो जाने का पता चल जाने पर अमूमन आसपास मौजूद लोग अज़ीब-सा व्यवहार करने लग जाते हैं। ऐसे घूरते हैं , मानो मन ही मन सोच रहे हों कि बच्चू ! .. जरूर तुम ने ( यानि हमने ) असावधानी बरती होगी। या तो मास्क ठीक से नहीं लगाया होगा या सोशल डिस्टेंसिंग ( Social Distancing ) को मेन्टेन ( Maintain ) नहीं किया होगा। या फिर हैण्ड-वॉश ( Hand Wash ) या सेनेटाइजर का ( Sanitizer ) सही से इस्तेमाल नहीं किया होगा या इस्तेमाल किया ही नहीं होगा। ऐसे में वो नब्बे के दशक का शुरुआती दौर सहसा दिमाग़ में कौंध जाता है .. जब कोरोना (Corona ) जनित कोविड-१९ ( Covid -19 ) की तरह एच आई वी ( HIV- Human Immunodeficiency Viruses ) जनित एड्स ( AIDS- Acquired Immune Deficiency Syndrome ) नामक बीमारी का नया-नया पता चला था। समाज-शहर या मुहल्ले-गाँव में अगर किसी भी शख़्स के एड्सग्रस्त होने का पता चलता था तो कई लोग उसके किसी ऐसे-वैसे के साथ अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध को लेकर आपस में कानाफूसी करते थे या आज भी करते हैं ; जबकि अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध के अलावा इस बीमारी के होने की और भी कई वज़हें थीं और हैं भी। एच आई वी की तरह ही कोरोना एक वायरस ( Virus ) है और एड्स की तरह ही कोविड-१९ सम्बंधित वायरस से उत्पन्न बीमारी का नाम है। परन्तु अभी तो बीमारी के लिए कोविड-१९ की जगह कोरोना नाम ही आम प्रचलन में है।
एक और बात की चर्चा तो भूल ही गया कि स्वयं के कोरोना के चपेट में आने के शुरुआत में गत माह के दूसरे रविवार को स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में जाँच ( Antigen Covid Test ) कराने के एक दिन पहले कार्यालय द्वारा कराए गए जाँच ( RT-PCR Test ) की रिपोर्ट की भी PDF मोबाइल पर उसी दिन शाम में आ गई थी , उसमें भी कोरोना पॉजिटिव ही बतलाया गया था। पर इस रिपोर्ट में Antigen Covid Test से इतर एक ख़ास बात थी - CT Report और इसमें मेरी CT Report - 21.47 थी। यही CT Report उस Antigen Covid Test में नहीं होती है और यही CT Report इस RT-PCR Test की विशेषता व शुद्धता होती है। अभी हाल ही में लगभग एक माह बाद भी घर से बाहर जाने पर पुनः संक्रमित होने के भय से घर पर ही जाँच करने वाले को बुला कर जाँच करवाने पर Antigen Covid Test में तो रिपोर्ट कोरोना निगेटिव आयी पर RT-PCR Test में कोरोना पॉजिटिव ही आयी थी।
प्रसंगवश ये भी बतलाते चलें कि जाँच करने वाला फ़ोन पर नाज़ायज तौर पर कुछ ज़्यादा ही भुगतान लेने की बात तय होने पर राज़ी हो कर आया था। Antigen Covid Test का प्रति जाँच रु.1000 और  RT-PCR Test का प्रति जाँच रु.2000 बोलकर मोलभाव करने पर रु 1500 लिया था। ज्ञात रहे कि प्राइवेट जाँच केंद्रों में केवल RT-PCR Test ही हो रहा है और Antigen Test केवल सरकारी संस्थानों में ही उपलब्ध है। इस के Kit बाज़ार में या प्राइवेट जाँच केंद्रों में उपलब्ध नहीं है। ऐसे में निश्चित रूप से वह जाँच कर्ता किसी ना किसी सरकारी अस्पताल या अन्य सरकारी संस्थान के किसी कर्मचारी से आपसी नाज़ायज तालमेल के आधार पर किट ले कर आया होगा। मतलब .. हम भी दूध के धुले ना रह पाए और .. प्रायः रेलयात्रा के लिए उचित और वांछित बर्थ का आरक्षण समय पर ना मिलने पर टी टी ई ( TTE ) से "सेटिंग" करने की तरह ही .. हम भी अपने बुरे वक्त में लोगबाग की तरह प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः भ्रष्टाचार में शामिल हो ही गए .. शायद ...
ख़ैर ! ... एक सकारात्मक पक्ष यह रहा कि इस बार की CT Report - 30 आयी थी। विशेषज्ञ बतलाते हैं कि ये CT Report का 21.47 से 30 हो जाना शुभ संकेत है। मतलब शरीर में प्राकृतिक एंटीबाडी ( Natural Antibody ) का निर्माण हो रहा है। जानकार बतलाते हैं कि यही CT Report जब 35 या इस से ऊपर हो जाएगी तो कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट आएगी। जानकारों के मुताबिक कुछ तो हमारे मधुमेह के कारण स्वास्थ्य लाभ ( Recovery ) में समय लग रहा है या फिर प्रायः शरीर में वायरस के शेष बचे मृत कोशिकाओं ( Dead Cell ) के कारण भी कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट आती रहती है , जिसके आने की लगभग तीन महीने तक संभावना रहती है। फ़िलहाल तो पूर्णतः ना सही पर .. पहले से बेहतर और सकारात्मक सुधार की ओर अग्रसर हैं , परन्तु आज लगभग 40 दिनों बाद भी विशेष सावधानी बरतते हुए परहेज़ के साथ स्वतः संगरोध जीवन ( Self Quarantine Life ) जी रहे हैं , ताकि अन्य लोग सुरक्षित रहें और हम भी .. बस यूँ ही ...
बीमारी के दौरान डॉक्टर के दूरभाषी परामर्श और अपने बजट के अनुसार प्रतिदिन प्रोटीनयुक्त पौष्टिक आहार लेने के बावजूद भी लगभग तीस दिनों के बाद Weighing Machine पर अपना तौल लेने पर ज्ञात हुआ कि चार-सवा चार किलो अपने शरीर का वजन घट गया है तो आँखें फटी की फटी रह गई। इस सर्वव्यापी महामारी के उपरान्त ( Post-Pandemic ) इसी प्रकार की कई तरह की अनचाही उलझनें उत्पन्न हो रही हैं। जिनमें कमजोरी का महसूस होना तो अमूमन आम बात है। कमजोरी की वज़ह से तो बची-खुची मांसपेशियों में अभी भी ऐंठन महसूस होती है। शायद विटामिन डी या ज़िंक की भी कमी हो जाती है , जिसका साफ़-साफ़ असर नाखूनों और दाँतों पर दिखता है। नाख़ून काफ़ी लचीले हो जाते हैं। लगता है मानो घंटे भर नाखूनों को पानी में डूबा कर रखा गया हो। दाँतों के कुछ हिस्से भुरभुरे हो कर झड़ ( टूट ) रहे हैं। मधुमेह होने के नाते अब तो ब्लैक फंगस ( Black Fungus ) नामक एक नया डर भी सता रहा है। दूसरी तरफ देर-सवेर कई टीकाओं की उपलब्धता और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ( DRDO - Defence Research and Development Organisation ) की ख़ोज 2-DG ( 2-Deoxy-D-Glucose ) भी आज से ही बाज़ार में उपलब्ध होने से एक सकारात्मक आशा की किरण भी मिल रही है।
वैसे एक और परेशानी का सामना बीते दिनों में करना पड़ा था .. पता नहीं वायरस के प्रकोप से या दवा-काढ़ा के पार्श्व प्रभाव ( side effect ) से .. दिन-रात नाक से नाभि तक शुष्कता का एहसास होता था। नाक की शुष्कता के लिए आयुर्वेदिक दवा
1) दिव्य धारा , जो कि रॉल ऑन ( roll on ) के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है , को व्यवहार में लाने की मशविरा दी गई थी और नाभि यानि पेट की या गले की शुष्कता के लिए समय-समय पर गुनगुने पानी का घूँट लेने की। आगे Doxycycline 100 mg से भी श्लेष्मा और गले में खसखसाहट की परेशानी पूर्णतः ठीक नहीं होने पर डॉक्टर की दूरभाषी सलाह पर
1) Dexona - 1 गोली × दो बार × 5 दिनों तक खाना पड़ा था।
बाद में समाचारों में कुछ मरीजों के शरीर में रक्त के थक्का जमने से उनके हृदय गति रुकने ( Heart attack )  के कारण देहांत हो जाने की ख़बर आने पर , ऐसी संभावना से बचने के लिए -
1) Ecosprin 75 mg - 1 गोली × 1 बार × 14 दिनों की भी सलाह मिली , तो परामर्श के अनुसार इन्हें भी खाया। एक और बात .. अगर अजवाइन के साथ-साथ तुलसी पत्ती और पुदीना पत्ती भी सहज उपलब्ध होते तो Karvolplus की जगह इन सब को भी उबाल कर भाप लेने के लिए उपयोग में ला सकता था। परन्तु जो भी हो कोरोनाग्रस्त होने के बाद स्वस्थ हो जा रहे लोगों को भविष्य में आत्मनिर्भरता की पाठ पढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी .. शायद ...
अंत में .. जिनको गत वर्ष से अब तक कोरोना अपनी आग़ोश में नहीं ले पाया , उन तमाम लोगों के लिए मन से शुभकामनाएं है कि उनको और उनके परिवार को भविष्य में भी ये नासपिटा ना छू पाए। साथ ही जो लोग उसकी गिरफ़्त से निकल कर स्वस्थ हो गए , वो सभी सपरिवार भविष्य में स्वस्थ व सुरक्षित रहें। पर .. जिनके अपने असमय छिन गए , क़ुदरत उनके ज़ख़्मों को शीघ्रतिशीघ्र भर कर भविष्य की दिनचर्या के लिए सकारात्मक सोच और शक्ति प्रदान करे। चलते-चलते .. उनके लिए भी हार्दिक आभार संग शुभकामनाएं भी .. जिनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष शुभकामनाओं के असर से और जिन लोगों की प्रत्यक्ष या परोक्ष सेवा से हमारे जैसे लोग पुनः स्वस्थ हो सके हैं या हो रहे हैं .. शायद ...
आज अब बस इतना ही .. स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दौरान कुछ विश्राम ले कर .. इस " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-३ ). " के तीनों भागों की बतकही के बाद इसके " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-४ ) "  में केवल और केवल " प्रिया संग मानसिक संवाद ... " कविता के साथ मिलते हैं .. बस यूँ ही ...