Sunday, May 3, 2020

शोहरत की चाह में

                                (१)

समय और समाज को ही है जब तय करना जिसे
ख़ातिर उसके तू भला क्यों है इतना मतवाला ?
है होना धूमिल आज नहीं तो कल-परसों जिसे
काल और सभ्यता की परतों का बन कर निवाला

हो आतुर व्याकुल मन उस शोहरत की चाह में
क्यों पल-पल खंडित करता है अंतर्मन की शाला ?
हो मदांध शोहरत में ऐसे साहित्यकार बन बैठे
समानुभूति को भूल कर सहानुभूति रचने वाला ?

                                    (२)

किसी सुबह हाथ में चाय की प्याली, जम्हाई, सामने फैला अख़बार
या फिर किसी शाम वातानुकूलित कमरे में बैठा पूरा परिवार
उधर सामने चलते चालू टी वी के पर्दे पर चीख़ता पत्रकार
कहीं मॉब-लीचिंग में मारा गया कभी एक-दो, कभी तीन-चार
कभी तेज़ाब से नहाया कोई मासूम चेहरा तो कभी तन तो
कभी किसी अबला के सामूहिक बलात्कार का समाचार
इधर पास डायनिंग टेबल पर सजा कॉन्टिनेंटल डिनर
रोज की तरह ही भर पेट खाकर लेते हुए डकार
बीच-बीच में "च्-च्-च्" करता संवेदनशील बनता पूरा परिवार
अपलक निहारते हुए उस रात का चित्कार भरा समाचार

देख जिसे पनपती संवेदना, तभी संग जागते साहित्यकार
भोजनोपरांत फिर उन समाचार वाली लाशों से भी भारी-भरकम
सहेजना कई शब्दों का चंद लम्हों में मन ही मन अम्बार
कर के कुछ सोच-विचार, गढ़ना छंदों का सुविधानुसार श्रृंगार
मिला कर जिसमें अपनी तथाकथित संवेदना की लार
साहित्यकार करते हैं फिर शोहरत की चाह में एक कॉकटेल तैयार
फिर वेव-पृष्ठों पर सोशल मिडिया के करते ही प्रेषित-प्रचार
लग जाता है शोहरत जैसा ही कई लाइक-कमेंट का अम्बार

ना , ना, बिदकना मत मेरी बातों से साहित्यकार
वैसे तो क़ुदरत ना करे कभी ऐसा हो पर फिर भी ...
फ़र्ज़ करो मॉब लिंचिंग हो जाए आपकी या आपके रिश्तेदार की
या किसी दिन सामूहिक बलात्कार अपने ही किसी परिवार की
तब भी आप क्या रच पाओगे कोई रचना संवेदना भरी ?
आप क्या तब भी कोई पोस्ट करोगे सोशल मिडिया पर रोष भरी ?
नहीं .. शायद नहीं साहित्यकार ... तब होगी आपकी आँखें भरी
है शोहरत की चाह ये या संवेदनशीलता आपकी .. पता नहीं
साहित्यकार एक बार महसूस कीजिए समानुभूति भी कभी
सहानुभूति तो अक़्सर रखते हैं हम गली के कुत्तों से भी ...
है ना साहित्यकार ....???...







Friday, May 1, 2020

मजदूरिन दिवस

आज शोर है .. बहुत साहिब .. है ना ?
शायद .. आज मज़दूर दिवस है .. है ना ?
बैंक बंद .. बड़े-बड़े संस्थान बन्द
फैक्टरियाँ भी हैं बंद ... है ना ?
वैसे तो हैं बन्द ढेरों काम कई दिनों से
लॉकडाउन के कारण भी .. है ना ?

पर लगता है अब तक उतरी नहीं तुम्हारी
एक अप्रैल की अप्रैल-फूल वाली ख़ुमारी
तभी तो आज आप एक मई को भी
चटका रहे नसें साहिब हम सब की
मना रहे कई दिनों से लॉकडाउन में जब कि
बैठे ठाले मज़दूर दिवस हम मज़दूर सभी .. है ना ?

और हाँ ... मनाओगे कब भला साहिब
पुरुष-प्रधान समाज में आप सभी
मिल कर एक बार मजदूरिन दिवस भी
रोज़ चूल्हे की भट्ठी में खुद को जो झोंक रही
ढो रही बोझ आज के दिन भी अपने कोख़ की
पाल रही जिनमें तुम्हारी अगली पीढ़ी की कड़ी
एक बार तो सोचो उनके बारे में भी सही
मनाओगे ना साहिब मजदूरिन दिवस भी? ... है ना ?






Thursday, April 30, 2020

मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा ...



● (अ) ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में :-
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Storytelling यानी हिन्दी में जिसे कहानीकारी कहते हैं। हाँ , यही कहते हैं इस विधा को। जिसमें Storyteller अर्थात कहानीकार अपनी बात प्रभावी तरीके से कहता है।
कहानीकारी आज की युवा पीढ़ी के लिए ओपन मिक (Open Mic ) के मंच से रूबरू या यूट्यूब के माध्यम से इंटरनेट के माध्यम से अपने दर्शकों को कोई भी कहानी, घटना, संस्मरण या आपबीती संवेदनशील और जीवंत तरीके से कहने के लिए या यूँ कहें कि श्रोता या दर्शक के दिल में उतरने के लिए एक सशक्त माध्यम है।
कहानीकारी या Storytelling संज्ञा भले ही नयी युवा पीढ़ी को नयी लग रही हो पर बात पुरानी है। मोबाइल और टी वी के आने से पहले तक के बाल या युवा पीढ़ी के लिए अपने-अपने बुजुर्गों द्वारा रातों में या छुट्टी के दिनों में ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में भावपूर्ण सुनाई गई राजा-रानी की कहानियाँ या जातककथाएं कहानीकारी ही तो थी। जिसमें कई दफ़ा हम डरते भी थे, रोते भी थे, हँसते-हँसते लोटपोट भी होते थे। किसी चलचित्र की तरह कहानी का पात्र और घटनाएँ आँखों के सामने से गुजरती हुई महसूस होती थी।
हिन्दी विकिपीडिया के अनुसार कहानीकारी (Storytelling) कहानियाँ बनाने व सुनाने की समाजिक व सांस्कृतिक क्रिया होती है। हर संस्कृति की अपनी कहानियाँ होती हैं, जिन्हें मनोरंजन, शिक्षा, संस्कृति के संरक्षण और नैतिक सिद्धांतों के प्रसार के लिये सुनाया जाता है। कहानियों और कहानिकारी में कथानक, पात्रों, घटनाओं और दृष्टिकोणों को बुनकर प्रस्तुत किया जाता है।


● (ब) सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं :-
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वैसे तो एक-दो और भी सदियों पुराने सशक्त उदाहरण हैं इस कहानीकारी के। वैसे इसे कहानीकारी कहने से शायद किसी की धार्मिक भावना आहत हो। तो इसको कहानीकारी जैसी कह सकते हैं। प्राचीनकाल में मनीषीजन अपने भक्तसमूह या भक्तवृंद को श्लोकों के माध्यम से मुँहजुबानी कथा के तौर पर ही तो सुनाया करते होंगे शायद।
पर शामे गरीबा तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
चूँकि हमारे पापा 90 के दशक में लगभग आठ वर्षों तक बिहार के सीवान जिला के हुसेनगंज प्रखंड में बिहार सरकार के मुलाज़िम थे, तो प्रायः छुट्टियों में वहाँ जाने और वहाँ की जिन्दगानी से रूबरू होने का मौका भी मिलता था। वहाँ के कुछ मूल निवासी तथाकथित शिया मुसलमानों से गहरी दोस्ती हो गई थी, तो हम दोनों एक दूसरे के त्योहारों और पारिवारिक या सामूहिक आयोजनों में बिंदास पारिवारिक सदस्य की तरह एक दूसरे के घर आते-जाते थे। तब आज की तरह कोई भेद-भाव नहीं होता था हमारे बीच। वैसे तो इंशा अल्लाह आज भी नहीं है। वहीं मुझे शामे गरीबा में शरीक होने का मौका मिला था।
मोहर्रम के समय कर्बला में ताजिया दफन करने के बाद शिया आबादी वाले इलाकों में शामें गरीबा की मजलिस आयोजित की जाती है। इस दौरान लोग बिना फर्शे अजा बिछाए खाक पर बैठ कर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। मजलिस के दौरान चिराग गुल कर दिए जाते हैं। इस दौरान करबला का वाकया सुनाया जाता है। 
इन की मान्यता के अनुसार दस मोहर्रम को इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ यजीदी फौज ने शहीद कर दिया और उसके बाद यजीदी फौज ने ख्यामे हुसैनी में आग लगा दी, जिससे ख्यामे हुसैनी के बच्चे सहम गए तथा यजीदी फौज ने इमाम हुसैन की बहन व नवासी ए रसूल जनाबे जैनब व अन्य औरतों की चादरें छीन लीं तथा शाहदते इमाम हुसैन के बाद यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के छः  माह के बेटे हजरत अली असगर की कब्र खोदकर हजरत अली असगर के तन व सिर जुदा कर दिया तथा इमाम हुसैन की चार साल की बेटी जनाबे सकीना के गौहर छीन लिए थे।
शामे गरीबा की मजलिस में शाहदते इमाम हुसैन व असीरा ने कर्बला का बयान सुनकर अजादारों की आँखें नम हो जाती हैं। इसे सुनकर  उपस्थित जनसमूह विशेषकर सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं।
                                     तात्पर्य यह है कि कर्बला की शहादत को इतनी शिद्दत से कही जाती है कि सुनने वाला उस दृश्य में डूब कर ग़मगीन हो कर रोने लगता है। तो ये है ताकत कहानीकारी की।
                                    

● (स) मेरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है :-
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हमने भी एक प्रयास किया है कहानीकारी की एक स्क्रिप्ट लिखने की और कहने/पढ़ने/अभिनीत करने की भी। इसे लिखते वक्त मैं स्वयं को उस बेटी का पिता महसूस कर रहा था। लिखते वक्त लग रहा था कि मेंरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है ये सारी बातें। वही सारी बातें स्क्रिप्ट में उतर कर आई है। ना जाने क्यों आँखें बार-बार नम हो जा रही थीं हमारी।
                           गत वर्ष 07.04.2019 को एक Open Mic में युवाओं के बीच इसे पढ़ा भी था। जिसे उन लोगों ने यूट्यूब पर उपलोड भी किया था। इस कहानी/घटना में एक बेटी अपने ग़मगीन, ख़ामोश .. मौन पापा से अपनी बात कह रही है। पापा के मौन की वजह और बेटी की बातें या मनुहार का कारण आपको इस की स्क्रिप्ट से या वीडियो से पता चल जाएगा। इसके स्क्रिप्ट के साथ वो वीडियो भी संलग्न है आप लोगों के लिए।


● (द) मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?..
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 ( कहानीकारी का मूल स्क्रिप्ट :-)
" पापा ! .. आज फिर से एक बार मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा। जो मेरे बचपन में अक़्सर मेरे लिए गाया करते थे आप - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी ... ' ... आप .. ख़ामोश क्यों हो पापा ? आपकी लाडली परी के पर क़तर दिए गए हैं इसीलिए ? बोलो ना पापा ! 
याद है पापा, जब पहली बार अपने कपड़े पर ख़ून के धब्बे देख कर कितनी डर गई थी मैं। कितनी घबरायी हुई स्कूल से घर आई थी मैं। पर जब माँ ने समझाया कि बेटा ! ये तुम्हारे बच्ची से बड़ा हो जाने का संकेत है। भगवान ने हम औरतों को ही तो ये अनमोल तोहफ़ा दिया है। हम मानव नस्ल की रचयिता हैं। हम पीढ़ी दर पीढ़ी की रचना करते हैं बेटी। तब मैं बहुत गर्व महसूस कर रही थी। आप कुछ बोल नहीं रहे थे। केवल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मैं कितना शरमा रही थी तब आप से। है ना पापा? रोज़ प्यार से आपके गले लगने वाली आपकी लाडली आपके सामने आने से भी क़तरा रही थी।
पर उस दिन तो ... उन चारों ने मिल कर नंगा ही कर दिया था पापा। पूरी तरह नंगा। मैं कितना शरमायी थी पापा। "

" याद है एक बार मेरी ऊँगली कट गई थी। ख़ून बह रहा था और मैं जोर-जोर से रो रही थी। आप दौड़े-दौड़े आनन-फानन में गलती से Dettol की शीशी ले आये थे मेरे पास ... मैं और भी जोर से रोने लगी थी। फिर आपको अपनी भूल की एहसास हुई थी और आप दुबारा जाकर Savlon की बोतल ले कर आये थे, क्योंकि आपको पता था पापा कि Dettol से आपकी लाडली बिटिया को बहुत जलन होती है। पर घर में तो रखना पड़ता है ना। कारण .. माँ को इसकी महक पसंद है।
पर उस दिन तो ना Dettol था और ना Savlon .. सिर्फ़ .. ख़ून .. दर्द .. और मैं ... मैं किस तरह झेल रही थी पापा ...। पर .. उन चारों को कोई एहसास नहीं था मेरे दर्द का। होता भी भला कैसे ? वे चारों भी तो उसी समाज की पैदाइश थे ना पापा, जहाँ बलि और क़ुर्बानी के नाम पर मासूमों का ख़ून बहाया जाता है। उस बलि और क़ुर्बानी के वक्त उन्हें उन निरीह मासूम पशुओं की चीख कहाँ सुनाई देती है भला? उनकी मौत और ख़ून पर जश्न मनाते हैं ये समाज वाले। मैं तो कम से कम ज़िन्दा हूँ ना पापा .. पर कतरी परी की तरह ही सही .. पर ज़िन्दा हूँ ना पापा? गाओ ना पापा -' मेरे घर आई एक नन्हीं परी .... ' "

" याद है ना पापा .. एक रात पढ़ते वक्त मेरे study table पर छत्त से छिपकली टपक पड़ी थी। मैं कितनी जोर से चीख़ी थी। याद है ना पापा ? आप दूसरे कमरे से शायद अपना favorite T.V. show .. रजत अंकल वाली 'आप की अदालत' .. वो भी अपने favorite artist पंकज कपूर की अदालत छोड़ कर दौड़े-दौड़े आये थे और मिनटों मुझे गले से लगाए रखे थे। ताकि उस वक्त मेरा डर और heart beat दोनों कम हो।
पर उस दिन .. उस दिन तो चीख भी नहीं पाई थी पापा। उन चारों ने पूरी तरह जकड़ रखा था। एक ने मेरे दोनों हाथ .. एक ने दोनों पैर .. एक ने जोर से मुँह दबा रखा था और एक ........... बहुत दर्द हो रहा था पापा .... चारों ने बारी-बारी से आपस में अपने जगह बदले और मैं ... चारों बार तड़पी .. बस तड़पी पापा ... चीख भी नहीं पा रही थी पापा। मेरी हालत का अंदाजा नहीं लगा सकते आप .. उस से अच्छा माँ के गर्भ में ही मुझे मार देते पापा।
मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?.. आप .. आप आते ना पापा? मैं चीख़ती .. आप आ जाते .. फिर मैं बच जाती ना पापा .. आँ ?
आप ठीक ही कहते हैं - ये भगवान नहीं होता। "

" माँ !! अब आप भी मान लो पापा की बात कि भगवान नहीं होता है। भगवान या अल्लाह केवल इंसान के बनाए धर्मग्रथों और मंदिर-मस्जिदों में होता है। फिल्मों और टी वी सीरियलों में होता है। अगर सच में होता तो मुझे बचा लेता ना माँ उन वहशी दरिंदों से? बचा लेता ना ? "

" है ना पापा ? बोलो ना पापा। गाओ ना पापा .. प्लीज .. एक बार .. बस एक बार .. अपनी पर कटी परी के लिए - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी, एक नन्हीं परी .. एक नन्हीं परी ...' "                       
********************************************** आप इसे पढ़िए या देखिये या दोनों ही कीजिए। पर बतलाना मत भूलियेगा कि इस वीडियो ने आपकी आँखों को नम किया या नहीं ... 🤔🤔🤔

◆ वीडियो ( Video ) ◆ :-



Tuesday, April 28, 2020

कतरनों और कचरे से कृतियाँ - हस्तशिल्प - (भाग-1,2,3.)

1)
आओ आज कतरनों से कविताएं रचते हैं 
और मिलकर कचरों से कहानियाँ गढ़ते हैं।
2)
नज़रें हो अगर तूलिका तो ... कतरनों में कविताएं और ...
कचरों में कहानियाँ तलाशने की आदत-सी हो ही जाती है ।

(1) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (१).

School & College के जमाने वाले हस्तशिल्प/ Handicraft की अभिरुचि को Lock Down के बाद एक नया पुनर्जीवन मिला है।
ठीक वैसे ही जैसे लेखन को 2018 ( 52 वर्ष के उम्र में ) से युवाओं के साथ Openmic के सहारे और 2019 में ब्लॉग के सहारे पुनर्जीवन मिला । साथ ही युवाओं के साथ ही यूट्यूब फ़िल्म निर्माण से मंचन/अभिनय को पुनर्जीवन मिला है।
वर्षों से जमा किए गए कबाड़ ( धर्मपत्नी की भाषा में ) जिसे हालांकि धर्मपत्नी ही संभाल कर रखती जाती है, उसी की मदद से निकलवाया और धूल की परतों को हटाया। दो -तीन दिन तो वैसे उसी में निकल गए।
                                         फ़ालतू की बेजान चीजें मसलन - फ़िलहाल तो इस Wall Hanging की बात करें तो ... इस के लिए - नए undergarments के खाली डब्बे से गत्ते, पिस्ते के छिलके, आडू/सतालू का बीज, गेहूँ की बाली, पुराना मौली सूत व बद्धि( जो मिलने पर पहनता तो नहीं, पर ऐसे मौकों के लिए जमा कर लेता हूँ ) , खीरनी (फल) का बीज, Velvet Paper, Fevicol, कैची, ब्रश और obviously ... Lock Down का क़ीमती समय ...☺☺☺
वैसे कैसा लग रहा ... अब आप lock down में बोर होने का रोना 😢😢😢 मत रोइएगा ...😊






(2) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (२).

दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं होता .. शायद ... । मसलन लौकी के छिलके जिसे अमूमन फेंक दिया जाता हैं, प्रायः बंगाली रसोईघर में उसकी भुजिया बना ली जाती है। फैक्ट्री में जब सोयाबीन से तेल ( रिफाइन) निकाला गया तो उस के बचे खल्ली से सोयाबीन का बड़ी बना लिया गया। यहाँ तक कि मानव-मल (इसकी चर्चा शायद घृणा उपजा रही हो) तक से खाद तैयार कर लिया जाता है, जिसे "स्वर्ण खाद"   कहते हैं। कहते हैं ना - वही कालिख, कहीं काजल तो कहीं दाग ...
                      तो आज बनाया है .. कई सालों में जमा किए हुए पके और सूखे नेनुए ( घीया ) और खिरनी ( फल ) के बीजों के संयोजन से एक Wall Hanging और उन्हीं नेनुए के तीन कंकाल और एक पुरानी टोकरी, तार, होल्डर, रंगीन नाईट बल्ब के संयोजन से एक Night Lamp भी ...
Lock Down जरा भी बोर नहीं कर रहा ... बल्कि कई सोयी अभिरुचियों को अंगड़ाई लेने का मौका मिल रहा ... लोग तो मज़बूर मज़दूरों के लिए बिना लंगर चलाए ही Social Media का Page रंग ही रहे हैं ... तब तक ... बस यूँ ही ...☺






(3) बस यूँ ही ...
#Lock Down के बहाने - #Handicraft/हस्तशिल्प - (३).

हमलोगों में से अधिकांश लोग सुबह किसी ना किसी कम्पनी के टूथपेस्ट वाले ट्यूब या पुरुष वर्ग शेविंग क्रीम के ट्यूब ( अब Tuesday, Thursday और Saturday को shaving नहीं करने वाले और उसकी अंधपरम्परा की बात नहीं करूँगा ) का इस्तेमाल करते ही करते हैं। उनमें से कुछ लोग ट्यूब दबा- दबा कर अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ते और कुछ मेरे जैसे लोग उसको कैंची से काट कर उसके सारे अंश (चाट)-पोछ कर इस्तेमाल कर जाते हैं। और ... जैसा कि मेरा मानना है कि दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं होता .. शायद ... पर कम ही लोग उस बचे हुए ट्यूब और उसके ढक्कन को धो-पोछ व सूखा कर सम्भाल कर जमा करते रहते हैं।
हमलोग रोजमर्रे के जीवन में लहसुन-प्याज ( अब उनकी बात नहीं कर रहा जो इसके खाने या छूने को पाप समझते हैं या सावन-कार्तिक में इसका त्याग कर शुद्ध-सात्विक बन जाते हैं ) तो इस्तेमाल करते ही हैं। तो कभी-कभी धर्मपत्नी के रसोईघर से फेंके जाने वाले इन लहसुन और प्याज़ के छिलकों पर भी प्यार आ जाता है और हम उसे अपनी जमा-पूँजी के भंडारण में शामिल कर लेते हैं।
तो आइए आज बनाते हैं उन्हीं टूथपेस्ट और शेविंग क्रीम के खाली ट्यूब, प्याज-लहसुन के छिलके, साड़ी या सूट के डब्बे से काला कार्ड-बोर्ड, पिस्ते के छिलके, पके नेनुआ का बीज, कुछ काँच की नली, कुछ मोतियाँ के संयोजन से और Fevicol & कैंची के सहयोग से कुछ Wall Hangings ... वैसे कैसा बना है ...☺☺☺






हस्तशिल्प का ये सफ़र बस यूँ ही ... चलता रहेगा ... एक आशा - एक उम्मीद ...

Sunday, April 26, 2020

" लंका-दहन बनाम माचिस " - हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ...-भाग-४-( आलेख/विचार ).

आजकल लॉकडाउन की अवधि में हम में से कई परिवार के लोग सपरिवार बहुत ही तन्मयता के साथ रामायण नामक टी वी धारावाहिक का डी डी नेशनल चैनल पर हो रहे पुनः प्रसारण का आनन्द ले ही रहे होंगें। इस के किसी एक या अधिक एपिसोडों में निश्चित रूप से महिमामंडित लंका-दहन का प्रकरण का प्रसारण भी आया ही होगा।
इस दौरान हमारी पीढ़ी को जो कुछ भी विचारधाराएँ अपने बुजुर्गों से डाउनलोड की गई हैं और जो उन्हें भी क्रमवार उनके पुरखों से उन्हें मिलता आया है, अपनी नई पीढ़ी को भी डाउनलोड करने से हमलोगों ने जरा सा परहेज नहीं किया होगा। करना भी नहीं चाहिए .. धर्म और आस्था की बातें हैं, भले ही मिथक हों।
बहरहाल हम इस विषय पर बहस नहीं कर रहे कि किसी भी प्राणी की पूँछ में आग लगने पर वह नहीं जलेगा क्या ? आपकी (अन्ध)भक्ति और (अन्ध)आस्था हताहत ना हो इसीलिए इस समय इसकी चर्चा भी बेमानी है कि इच्छानुसार किसी प्राणी की अपनी पूँछ या शरीर को घटाना या बढ़ाना असंभव है। खैर ! आपके अनुसार वे कुछ भी कर सकते थे और कर सकते हैं। भगवान जो ठहरे।
ऐसे में हमारे मन में जलाते हए और जलते हुए तथाकथित वीर हनुमान जी की पूँछ और लंका के स्वर्ण-महल को देख कर कभी हमारे मन में उस आग के स्रोत के बारे में ख़्याल ना आया हो, पर कम से कम उस नई पीढ़ी को तो दिमाग पर जोर देने देना चाहिए था जो पीढ़ी इसे अग्नि देवता की करामात की जगह एक आम रासायनिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्त्पन्न ऊर्जा को जिम्मेवार मानती है। पर नहीं ... आप ऐसा नहीं करेंगे, आप तो उस अंधानुकरण का चश्मा उसे अवश्य पहनायेंगे, जो खुद बचपन से पहनते आये हैं।
वैसे पुरखों ने कहा भी है कि :-
ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।
मतलब तो आपको पता ही होगा कि :-
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूं। सृष्टि के पूर्व भी आप थे और आपके अग्निरूप से ही सृष्टि की रचना हुई। हे अग्निरूप परमात्मा! आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं ऋतु में पूज्य हैं। आप ही अपने अग्निरूप से जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं एवं वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाले हैं। हे अग्निरूप परमात्मा ! आप ही सब उत्तम पदार्थों को धारण करने एवं कराने वाले है।
पुरखों द्वारा परोसी मिथक बातों का आपका अन्धानुसरण उस बेचारे को पाठ्यक्रम की बातें, रासायनिक प्रतिक्रियाएँ , ऊर्जा-विज्ञान सब भूला देती हैं। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी वे बेचारे पढ़ते कुछ और हैं, मानते कुछ और हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम बोलते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। मुँह से कुछ और बोलते हैं और मन में कुछ और रखते हैं। दोहरी मानसिकता ... दोहरी ज़िन्दगी।
कम से कम एक बार तो सोचने देते नई पीढ़ी को कि क्या उस लंका-दहन के समय माचिस थी ?
अगर नहीं थी तो आग जलाते कैसे थे ? महसूस कीजिये कि पहली बार जब चकमक पत्थर से आदिमानव ने आग की चिंगारी निकाली होगी और उसके उपयोग से शिकार में मारे गए जानवरों के माँस को कच्चे की जगह भून कर, पका कर खाया होगा। बहुत बाद में क्रमवार जब आग की खोज हुई होगी पहिया के पहले, पहिया ही की तरह , तो क्या ये अग्नि देवता ने आग को जन्माया होगा या मानव परिकल्पना ने अग्नि देवता की कल्पना करके उनका मानवीकरण या भगवानीकरण की होगी ? एक बार सोचना चाहिए। है ना ?
अगर ऐसे सवालों में हम या हमारी कोई भी पीढ़ी उलझी होती तो शायद हम को श्रेय मिलता इस आज मामूली सी दिखने वाली माचिस और उसकी तिल्ली को बनाने या आविष्कार करने का। पर शर्म आती है ये सोच कर कि हम तो अग्नि देवता को पूजते रहे .. मनों, टनों अनाज और पशु तक को भी हवन के नाम पर जलाते रहे, सुलगाते रहे और उधर दूसरे देशों में क्रमवार माचिस पर शोध होता रहा। आज हम उसका ही सबसे सुधरा हुआ रूप प्रयोग में ला रहे हैं।
हमने कभी सोचा कि माचिस या दियासलाई का आविष्कार कैसे, कब और कहाँ हुआ या माचिस की तिल्लियाँ किस पेड़ की लकड़ी से बनती है ? शायद नहीं।
दियासलाई बहुत काम की चीज है। इसके बिना आग जलाना संभव नहीं है। हालांकि अब आग जलाने के लिए अच्छे लाईटर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रामीण चूल्हे पर लकड़ी जलाने के लिए आज भी दियासलाई का ही प्रयोग किया जाता है। या फिर मंदिर का दिया और मज़ार की अगरबत्ती जलाने के लिए भी इसी को प्रयोग में लाते हैं। और हाँ ... श्मशान में भी। है ना !?  छोटी सी डिबिया, जिनमें नन्हीं-नन्हीं तीलियाँ। आज भी दियासलाई काफी सस्ती आती है और यह लाइटर से तो बहुत ही सस्ती आती हैं। इस वजह से दियासलाई का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।
परन्तु प्रचीन काल में लोग चकमक पत्थर से रगड़कर आग पैदा करते थे। ‌‌‌पुराने जमाने में जब दियासलाइयाँ नहीं थीं तो लोग हमेशा आग को जलाए रखते थे। यदि किसी घर में आग बुझ जाती थी तो दूसरे घर से आग को लाया जाता था। यह स्थिति 19वीं शताब्दी के पहले तक की है। 19वीं शताब्दी में ही दियासलाई का आविष्कार कई लोगों द्वारा कई चरणों में अलग-अलग विदेशों में हुआ था।
ब्रिटेन के जॉन वॉकर ने 1827 के अंत यानी दिसम्बर महीने में हमारे इसी अग्नि देवता को सबसे सुरक्षित और आज वाली सुधरे हए रूप वाली माचिस की डिब्बी में भरने की कोशिश की थी।
भारत में माचिस का निर्माण 1895 में अहमदाबाद में और फिर 1909 में कलकत्ता (कोलकाता) में शुरू हुआ था, जिसका रसायन विदेश से आता था। इसके पहले तक माचिस 1827 में इसके सुधरे हुए रूप के आविष्कार होने के बहुत बाद में विदेश से भारत आती थी। उसके बाद भारत में लगभह 200 छोटे-बड़े और कारखाने भी खुल गए। 1926 में भारत सरकार ने दियासलाई उधोग को संरक्षण प्रदान किया। जिसके बाद 1927 में शिवाकाशी में नाडार बंधुओं द्वारा पूर्णतः स्वदेशी माचिस का उत्पादन शुरू किया गया था।
तिल्लियाँ बनाने के लिए पहले केवल चीड़ की लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। लेकिन अब हर प्रकार की लकड़ी प्रयोग की जा सकती है, जो जल्दी सूखने की क्षमता रखती हो। सबसे पहले तिल्ली को ऐमोनियम फॉस्फेट अम्ल से लेप करते हैं। उसके बाद पैराफिन मोम और फिर फास्फोरस का प्रयोग किया जाता है। इसमें ‌‌‌रंग भी मिला दिया जाता है।
आइए ! ... अब से जब भी हम माचिस जलाएं तो एक बार अपने सनातनी अग्नि देवता और शून्य के आविष्कार के लिए गर्दन अकड़ाने के पहले उस फिरंगी/ब्रिटिश जॉन वॉकर को भी मन से धन्यवाद, शुक्रिया अवश्य प्रदान करें, जिसने आज ये मामूली-सी दिखने वाली सुविधजनक माचिस या दियासलाई नामक वस्तु हमें प्रदान की है। नहीं तो आज भी हम अपने अग्नि देवता को अनवरत जिन्दा रखने के लिए अपने-अपने घरों में अनवरत कोई ना कोई ईंधन जला कर बर्बाद कर रहे होते।
आप नहीं तो कम से कम अपनी अगली युवा पीढ़ी को तो तार्किक होने दीजिए। उसके तर्क करने की क्षमता को कुतर्की, नास्तिक, मुँहजोर, अनुशासनहीन, उद्दंड या नालायक के विशेषण का तमगा मत दीजिए। आज ना सही ... आने वाले सुनहरे कल के लिए ही सही ... प्लीज ........






सुलगते हैं कई बदन

चूल्हा और
चकलाघर में
अंतर नहीं ज्यादा
बस फ़र्क इतना कि
एक होता है ईंधन से
रोशन और दूसरा
हमारे जले सपने
और जलते तन से
पर दोनों ही जलते हैं
किसी की आग को
बुझाने के लिए
एक जलता है किसी के
पेट की आग तो दूसरा
पेट के नीचे की आग
बुझाने के लिए साहिब !

अक़्सर कई घरों में
चहारदीवारी के भीतर
अनुशासन के साथ
बिना शोर-शराबे के भी
जलते हैं कई सपने
सुलगते हैं कई बदन
मेरी ही तरह क्योंकि एक
हम ही नहीं वेश्याएँ केवल
ब्याहताएँ भी तो कभी-कहीं
सुलगा करती हैं साहिब !

अंतर बस इतना कि
हम जलती हैं
दो शहरों या गाँवों को
जोड़ती सड़कों के
किनारे किसी ढाबे में
जलने वाले चूल्हे की तरह
अनवरत दिन-रात
जलती-सुलगती
और वो किसी
संभ्रांत परिवार की
रसोईघर में जलने वाले
दिनचर्या के अनुसार
नियत समय या समय-समय पर
पर जलती दोनों ही हैं
हम वेश्याएँ और ब्याहताएँ भी
ठीक किसी जलते-सुलगते
चूल्हे की तरह ही तो साहिब !


Saturday, April 25, 2020

किनारा


(1)@ :-

जानाँ !
निर्बाध बहती जाना तुम बन कर उच्छृंखल नदी की बहती धारा
ताउम्र निगहबान बनेगी बाँहें मेरी, हो जैसे नदी का दोनों किनारा ।


(2)@ :-

हो ही जाती होगी कभी-कभी भूल
नभ के उस तथाकथित विधाता से
अक़्सर होने वाली हम इंसानों सी।

वैसे भले ही पूर्व जन्म के पाप-पुण्य
और कर्म-कमाई से इसे ब्राह्मणों के
पुरखों ने हो ज़बरन जोड़ कर रखी।

कुछ अंगों की ही तो है बात यहाँ
जिसे जीव-विज्ञान सदा है मानता
अंतःस्रावी ग्रंथि की मामूली कमी।

संज्ञा तो "हिजड़ा" का दे दिया मगर
करता है क्यों उन से समाज किनारा
भेद आज तक मुझे समझ नहीं आयी।


(3)@ :-

नफ़रत "जातिवाचक संज्ञा" से तुम्हारे
और समाज से दूर बसी बस्ती तुम्हारी
हिक़ारत भरी नजरों से देखते तुम्हें सब
पर गुनाह करते सारे ये मर्द व्यभिचारी।

तुम भी तो किसी की बहन होगी
या लाडली बेटी किसी की कुवाँरी
तथाकथित कोठे तक तेरा आना
मर्ज़ी थी या कोई मजबूरी तुम्हारी।



किनारा करने वाला समाज अगर
पूछ लेता हाल एक बार तुम्हारी
देख पाता समाज अपना ही चेहरा
तब अपने ही पाप की मोटी गठरी।