Tuesday, June 18, 2019

अनचाहा डी. एन. ए.

अपने कंधों पर लिए
अपने पूर्वजों के डी. एन. ए. का
अनमना-सा अनचाहा बोझ
ठीक उस मज़बूर मसीहे की तरह
जो  था मज़बूर अंतिम क्षणों में
स्वयं के कंधे पर ढोने को वो सलीब
जिस सलीब पर था टांका जाना उसे
अन्ततः समक्ष जन सैलाब के ...

हाँ ... तो बात हो रही थी
हमारे पूर्वजों के डी. एन. ए. की
जो हर साल , साल-दर-साल
मनाती आई है ज़श्न आज़ादी की
पर रहता कहाँ याद इसे
भला बँटवारे का मातम
सोचिए ना जरा फ़ुर्सत से, गौर से ....कि
पूरा देश जब मन रहा होता है
जश्न - ए - आज़ादी हर साल
उस वक्त मना रहा होता है ....
बँटवारे का मातम
बस और बस ... भुक्तभोगी परिवार

फिर भला उम्मीद ही क्यों
उन डी. एन. ए. से ... कि ...
भला मनाए वे सारे मिलकर
मातम 'चमकी' के विदारक मौत की ...
बजाय मनाने के जश्न मिलकर
'मैनचेस्टर' की आभासी जीत की......


Monday, June 17, 2019

भावनाओं के ऊन

किसी पहाड़ी वादियों में
कुलाँचे मारते भेंड़ों के झुण्ड जैसी
भागमभाग वाली हमारी दिनचर्या
और उन भेंड़ों के बदन से
ज़बरन कतरे गए मुलायम
उनके बालों जैसे कतरे गए
हमारी दिनचर्या से हमारे चंद पल
जिनसे कातते हैं हम
अक़्सर भावनाओं के ऊन

फिर स्वेटर बुनने वाले
दो सलाइयों के मानिंद
हमारा-तुम्हारा मन अक़्सर
बुना करते हैं मिलकर
गरमाहट देने वाले,
मुलायम, मनमोहक,
और रंगीन सपने
ठीक ग्राफ वाले
रंगीन स्वेटर की तरह

जैसे बुना करती हैं औरतें
अपनी 'तुहीना क्रीम' से महकती
मखमली हथेलियों से अक़्सर
दायीं तर्जनी को
बार-बार उचकाती
कभी दो-चार मिल गप्पें लड़ाती
कभी गुनगुनाती अकेली
ठिठुरती रातों में बोरसी के आगे
ख़ुद को गरमाती

चार अँगुल या फिर ...
एक बित्ता भर बुनने के बाद
कभी रात में करवट बदले पीठ पर
या  सुबह-सवेरे कभी उनींदे में ही
सगे के सीने पर रख कर
नापे गए स्वेटर की तरह
अपने साझा बुने सपने को
सच करने की औकात मापते हैं या
उम्मीदों भरे अवसर भर भाँपते हैं

भले सोचों में ही अक़्सर
मिलते हैं गले दोनों
ठीक बुनती दोनों सलाइयों की तरह
और उचक-उचक कर बुनती
दायीं तर्जनी की मानिंद
दोनों की बाँहें उचक कर
और भी गझिन गिरफ़्त बनाती हैं
ऊन से स्वेटर बनाती फंदों जैसी
एक-दूसरे की चाहतों की .....





Sunday, June 16, 2019

बस आम पिता-सा

गर्भ में नौ माह तक कहाँ रखा
झेला भी तो नहीं प्रसव-पीड़ा
नसीब नहीं था दूध भी पिलाना
ना रोज-रोज साथ खेलना
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

ताउम्र 'सेल्स' की घुमन्तु नौकरी में
शहर-शहर भटकता रहा
फ़ुर्सत मिली कब इतनी
तुम्हें जरा भी समय दे पाता
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

खुद पहन 'एच.एम्.टी.'की घड़ियाँ
तुम्हे 'टाईटन रागा' पहनाया
फुटपाथी अंगरखे पहन कर
तुम्हे अक़्सर 'जॉकी' ही दिलवाया
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

उम्र गुजरी 'स्लीपर' में सफ़र कर
तुम्हे अक़्सर 'ए. सी.' में ही भेजा
घिसा अपना तो 'खादिम, श्रीलेदर्स' में
तुम्हें चाहा 'हश पप्पीज' खरीदवाना
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

'नर्सरी' की नौबत ही ना आई
बिस्तर के पास तुम्हारे छुटपन में
जो तीन बड़े-बड़े वर्णमाला, गिनती
और 'अल्फाबेट्स' के 'कैलेंडर' था लटकाया
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

'एल के जी' से तुम्हें नौकरी मिलने तक
कभी प्रशंसा के दो शब्द ना बोला
पर परिचितों, सगे-सम्बन्धियों को
तुम्हारी उपलब्धियाँ बारम्बार दुहराया
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा...

ख़ास नहीं ... बस आम पिता-सा
अनिश्चित वृद्ध-भविष्य की ख़ातिर
जुगाड़े हुए चन्द 'एफ डी' , 'आर. डी'
और 'एस आई पी' , तुम्हारी पढ़ाई की ख़ातिर
परिपक्व होने के पूर्व ही तुड़वाया
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा ...

अब तुम्हारा ये कहना कि
"कभी मेरे बारे में भी सोचिए जरा !!!"
या फिर ये उलाहना कि
"आप मेरे लिए अब तक किए ही क्या !?"
बिल्कुल सच कह रहे हो तुम
इसमें भला झूठ है क्या !!!!
बेटा ! प्यार कर ही पाया कहाँ
मैं तुम्हारा एक पापा जो ठहरा ...


Saturday, June 15, 2019

चन्द पंक्तियाँ (५) ... - बस यूँ ही ...

(1)#

बड़ा बेरंग-सा था
ये जीवन अपना
तेरे प्यार के प्रिज़्म ने इसे
'बैनीआहपीनाला' कर दिया .....

(2)#

अमरबेल-सा
परजीवी
मेरा मन
तुम्हारे
शिरीष के
शाखों-से
मन पर
लटका है
अटका है
तभी तो
जिन्दा है.....है ना !???

(3)#

बादलों !
बरसो छत्त पर उनके
जिन्हें तेरा कुछ पल .....
भींगाना भाता है।

पगले !
हमारा क्या !?....
हम तो....सालों भर
प्यार में 'उनके' भींगे रहते है ...

चन्द पंक्तियाँ (४) ... - बस यूँ ही ...

(1)

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा....

(2)

तालियाँ जो नहीं बजी
महफ़िल में तो शक
क्यों करता है
हुनर पर अपने
गीली होंगी शायद अभी ...
मेंहदी उनकी हथेलियों की ....

(3)

बन्जारे हैं हम
वीराने में भी अक़्सर
बस्ती तलाश लेते हैं

आबादी से दूर
भले हवा में ही अपना
आशियाना तराश लेते हैं ...

Wednesday, June 12, 2019

चन्द पंक्तियाँ (३)... - बस यूँ ही ...

(1)

कपसता है
कई बार ...
ब्याहता तन के
आवरण में
अनछुआ-सा
एक कुँवारा मन .....

(2)

जानती हो !!
इन दिनों
रोज़ ...
रात में अक़्सर
इन्सुलिन की सुइयाँ
चुभती कम हैं ....

बस .... तुम्हारी
शैतानियों भरी
मेरे जाँघों पर
काटी चिकोटियों की
बस चुगली
करती भर हैं ....

(3)

आने की तुम्हारी
उम्मीदों के सारे
दरवाज़े बन्द
संयोग की सारी
खिड़कियाँ भी यूँ ....

फिर ये मन के
रोशनदान पर
हर पल, हर पहर
करता है कौन ...
"गुटर-गूँ, गुटर-गूँ" .....

Sunday, June 9, 2019

चन्द पंक्तियाँ (२)... - बस यूँ ही ...

(1)

बेशक़ एक ही दिन
वर्ष भर में सुहागन
करती होगी सुहाग की
लम्बी उम्र की खातिर
उमंग से वट-सावित्री पूजा

पर उसका क्या जो
हर दिन, हर पल तुम्हारे
कुँवारे मन का अदृश्य
कच्चा धागा मेरे मन के
बरगद से लिपटता ही रहा

पल-पल हो जाना तुम्हारा
मेरे "मन की अर्धाङ्गिनी"
क्या मतलब फिर इन
सुहागन, अर्धाङ्गिनी,
ब्याहता जैसे शब्दों का ....

तनिक बोलो तो मनमीता !!!

(2)

साल भर में बस एक शाम
टुकड़े भर चाँद देख
एक-दूसरे के गले मिलकर
ईद की खुशियों में
माना कि हम सब बस ...
सराबोर हो जाते हैं

पर उनके ईद का क्या
जो रोज-रोज, पल-पल,
अपने पूरे चाँद को
नजर भर निहार कर
उसी से गले भी मिलते ह

'सोचों' में ही सही .....

(3)

सुबह-सुबह आज ... ये क्या !!..
बासी मुँह .... पर ...
स्वाद मीठा-मीठा
उनींदा शरीर ... पर ...
इत्र-सा महकता हुआ
अरे हाँ .. कल रात ..
सुबह होने तक
गले लगकर संग मेरे तुम
ईद मनाती रही और ...
मैं तुम्हारी मीठी-सोंधी
साँसों की सेवइयां और ...
होठों के ज़ाफ़रानी जर्दा पुलाव
चखता रहा तल्लीन होकर....
मीठा- मीठा सुगंधित असर
है ये शायद ... उसी का

भला कैसे कहें कि ...
ये बस एक सपना था ....

चित्र - स्वयं लेंसबध (साभार- पटना संग्रहालय).