पुंश्चली .. (१), पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३), पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ) और पुंश्चली .. (६) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-
गतांक से आगे तो आज मन्टू की शादी ना करने की अटल ज़िद्द की वज़ह और एक पन्तुआ के कारण रंजन व अंजलि की हुई पहचान वाली बतकही करने की बात हुई थी अपनी।
पर अभी-अभी इसी मुहल्ले में रहने वाले वक़ील साहब रोज की तरह सुबह-सुबह की चाय पीने अपने नियत समय पर रसिकवा की चाय की दुकान के सामने रखे बेंच पर .. बस विराजमान होने ही आ रहे हैं। मन्टू और रंजन-अंजलि की तो बीती बातें फिर बाद में भी होती रहेंगी। फ़िलहाल वक़ील साहब और उनकी 'टीम' की गतिविधियों पर नज़र रखना ज्यादा जरूरी है .. शायद ...
यहाँ पहले से ही उनका पेशकार उनकी प्रतीक्षा में उनके दो मुवक्किलों के साथ आधे घन्टे पहले से बैठा हुआ है। दरअसल आज ही इन दोनों मुवक्किलों के 'केस' की तारीख़ है। इन वक़ील साहब की पुरानी आदत है, 'कोर्ट' में पड़ी तारीख़ के दिन न्यायालय परिसर तक जाने के पहले सुबह कम से कम आधे से एक घन्टे तक के लिए अपने मुवक्किलों को इसी मुहल्ले वाली रसिक चाय दुकान पर बुला कर उनसे मिलना। मिलने के समय की अवधि आधे से लेकर एक घन्टे तक के बीच प्रायः मुवक्किलों के 'केस' के वजन पर निर्भर करता है। मिल कर उनके 'केस' से सम्बन्धित जरूरी दाँव-पेंच उनको बतलाने के साथ-साथ उनसे मिले आवश्यक कागज़ातों की गहनता से उनके सामने ही जाँच-पड़ताल भी कर लेते हैं।
कई दफ़ा तो रसिकवा के कोयले वाले चूल्हे से राख़ लेकर उनके पेशकार को कुछ कागज़ातों पर मलते-रगड़ते भी देखा जाता है। उस कागज़ को तोड़-मरोड़ कर बदशक्ल करते भी देखा गया है। वक़ील साहब की अनुपस्थिति में उनके उसी पेशकार से कभी-कभी इसकी जानकारी लेने पर वह बतलाता है कि 'कोर्ट' में बहस के दौरान 'केस' जीतने के पक्ष में दलील देते हुए सबूत के तौर पर कुछ पुराने इकरारनामे या कोई प्रमाण पत्र जज साहब के सामने पेश करने पड़ते हैं, जो कि पहले से होता ही नहीं है। इसे तो वक़ील साहब के तिकड़मी दिमाग़ के बदौलत आनन-फ़ानन में तैयार करवा के पुराने होने के दावे भर किये जाने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं। .. शायद ...
हम इंसानों के समाज में भी तो मूल मन और सोच को परिष्कृत करने की बजाए ठीक इसी तरह ही तन को 'ब्रांडेड' परिधानों से लिपटाए, कृत्रिम रासायनिक सौंदर्य प्रसाधनों को चुपड़े और ऊपरी सज्जनता वाली भाव-भंगिमाओं के वैशाखी के सहारे .. इसी तरह हम सभी अपनी-अपनी तिकड़मी चाल के मुताबिक अपने-अपने बनावटी शरीफ़ चेहरों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते नज़र आते हैं अक़्सर .. शायद ...
वक़ील साहब के विशाल पुश्तैनी मकान में पिता जी के देहांत के बाद हुए बँटवारे के बाद भी उनके बरामदे और बैठकखाने में तो इतनी जगह है, कि वह अपने पेशकार और मुवक्किलों को वहीं घर पर बुलाने के बाद सुबह बैठा कर चाय भी पिला सकते हैं और 'केस' से सम्बन्धित बातचीत भी कर सकते हैं। पर ऐसा नहीं करने का एक वजह तो उनकी अंदरुनी समस्या है और दूसरी लाभ-हानि के जोड़-घटाव की है .. शायद ...
उनकी अंदरुनी समस्या .. मतलब .. दरअसल वक़ील साहब की धर्मपत्नी बहुत ही ज्यादा जाति-धर्म के नाम पर छुआछूत की भावना मन में किसी लोहे के तवे की पेंदी में जमे कालेपन की तरह जमा कर रखने वाली हैं। जबकि उनके घर की दाल-रोटी में हर जाति-धर्म के मुवक्किलों के पैसों का योगदान तो होता ही है। फिर भी उनकी नज़र में किसी का धर्म बहुत ही बुरा है, तो किसी की जाति घर में बिठाने लायक नहीं है। घर के बर्तनों में ऐसे लोगों को चाय-पानी कराना तो उनके यहाँ कोई सोच ही नहीं सकता है कभी भी।
दूसरी तरफ रसिक की दुकान में चाय पीने से घर पर बनने वाली चाय में घर की चाय पत्ती, दूध, चीनी के अलावा जूठे बर्तनों को साफ़ करने में लगने वाले 'डिटर्जेंट' साबुन में होने वाले ख़र्चे की बचत हो जाती है और .. उल्टा एक-दो बार या उससे भी ज्यादा बार सभी द्वारा पी गयी रसिकवा की चाय की क़ीमत बेचारे मुवक्किलों को ही भरनी पड़ती है। प्रायः खैनी खाने वाले मुवक्किल से पेशकार का काम चल जाता है और जो कोई सिगरेट ना भी पीने वाला हो, तो भी वक़ील साहब को तो अपने जेब से खरीद कर पिलाना ही पड़ता है हर रोज तारीख़ पड़ने पर।
अभी-अभी वक़ील साहब के आते ही रसिकवा का लगभग बारह वर्षीय एकलौता 'स्टाफ'- कलुआ कुल्हड़ में सभी के लिए चाय लेकर हाज़िर हो गया है। एक मुवक्किल पहले से उनके लिए लाए 'विल्स फ़िल्टर' सिगरेट का एक डब्बा और एक माचिस उनको पकड़ा रहा है। पर वक़ील साहब माचिस अपने जेब के हवाले करते हुए अपने दूसरे जेब से किसी मुवक्किल द्वारा भेंट में दी गयी एक विदेशी 'लाइटर' निकाल कर सिगरेट सुलगा रहे हैं। चाय की चुस्की और सिगरेट के कश के दम पर ही वक़ील साहब के दिमाग़ का घोड़ा 'केस' के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर सरपट दौड़ पाता है .. शायद ...
आज के आए हुए दो मुवक्किलों में से एक- माखन पासवान है, जिस के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई है। दूसरा- असग़र अंसारी है जो अपने अब्बू की पहली पत्नी यानि अपनी सौतेली अम्मी से जने अपने दबंग बड़े सौतेले भाई से अब्बू के घर में अपने हिस्से के लिए एक साल से 'केस' लड़ रहा है।
वक़ील साहब के सिगरेट की लम्बाई जैसे-जैसे धुएँ में उड़ कर और राख़ की शक़्ल में झड़ कर घट रही है, माखन पासवान के अपने बेटे की 'केस' जीतने की उम्मीद उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। पर उस बेचारे को क्या मालूम कि वकील लोग कई बार जानबूझकर ऐसी गलती करते हैं, कि कमजोर और ग़रीब मुवक्किल केस हार जाए और इसके बदले में दबंग और अमीर विरोधी पक्ष से उन्हें मोटी रक़म डकारने का मौका मिल जाए। लगभग संवेदनशून्य ही होते हैं अक़्सर ये काले कोट और ख़ाकी वर्दी वाले .. शायद ...
माखन पासवान - " सरकार हम्मर (हमारा) मंगड़ा छुट जायी (जाएगा) ना ? उ (वह) निर्दोष है साहिब .. अब अपने के (आपको) का (क्या) बताऊ (बताएँ) ? "
वक़ील साहब - " बताना तो सब पड़ेगा ही ना माखन ! वैसे चिन्ता मत करो .. छुट जाएगा तुम्हारा बेटा "
माखन पासवान - " सब रुपइया (रुपया) तो खतम (ख़त्म) हो गया सरकार .. मंगड़ा के माए (माँ) के (की) नाक के (की) छुच्छी (लौंग) तक बेच दिए हैं सरकार .. झोपड़ी और झोपड़ी भर जमीन भी सरपंच साहेब के आदमी के पास गिरवी है सरकार .. गिरवी ना रहता तो उ (वो) भी बेच देते मालिक अप्पन (अपने) मंगड़ा के लिए "
वक़ील साहब - " घबराओ नहीं .. सब ठीक हो जाएगा .."
मंगड़ा .. एकलौता बेटा है माखन का .. उसके और उसकी मेहरारू के बुढ़ापे की लाठी समान .. गूँगा भले ही है, पर मालिक लोगों के खेतों में काम कर के कमायी तो कर लाता था। भला घबराएगा क्यों नहीं ! ...
सुगिया के बलात्कार के दिन तो मंगड़ा मलेरिया बुखार से घर में बेसुध पड़ा हुआ था पिछले एक सप्ताह से। अगले दिन उसी हालत में पुलिस उसको झोपड़ी से ज़बरन ले जाकर थाने के हाजत में बन्द कर दी थी। पीछे-पीछे माखन और उसकी मेहरारू रोते-चिल्लाते थाना के 'गेट' तक गये थे। अंदर जाने की ना तो उनकी हिम्मत थी और ना ही थाने के खाक़ीधारी साहिब लोगों की इजाज़त। हाँ .. उसी समय सरपंच और उनका बेटा वहाँ जरूर अपने 'बोलेरो' से अपने आठ-दस चेला-चटिया के साथ थाना के अंदर पधारे थे। लगभग आधा घन्टा तक अंदर रहे थे।
क्या पता अंदर सिपाही-दारोग़ा मंगड़ा को पीट भी रहे होंगे तो वो बेचारा गूँगा चिल्ला भी तो ना सकेगा। ऐसा सोच-सोच कर माखन और उसकी मेहरारू का मन भीतर ही भीतर कटी हुई गड़ई-माँगुर मछली की तरह छटपटा के रह गया था। वो दिन याद करके माखन की धँसी आँखें छलछला आयी है, जिसे अपनी मटमैली धोती के कोर से सोखने का वह असफल प्रयास कर रहा है।
अब तक दो बार रसिकवा की कुल्हड़ वाली चाय पी लेने के बाद माखन और असगर दोनों वक़ील साहब और पेशकार की ओर ताक रहे हैं .. मानो पूछ रहे हों कि अभी और भी चाय-सिगरेट लेंगे वक़ील साहब या अब तक के पैसे भुगतान कर दें दोनों मिलकर।
दोनों को इस बात का जवाब वक़ील साहब के ये कहने से मिल गया कि - " ठीक हैं असगर .. अब निकलो तुम दोनों .. तुमलोग समय से अपने-अपने 'कोर्ट' पहुँच जाना .. पेशकार साहब समय से मिल जायेंगे वहाँ और हम भी। जैसा बतलाए हैं उतना ही बोलना है। ख़ासकर असगर तुमको कह रहे हैं। मंगड़ा के लिए तो कोई लफ़ड़ा ही नहीं है। गूँगा है तो जो कहना है हम कहेंगे और ना तो माखन .. चाहे उसका गवाह बोलेगा ..."
इतना कह कर वक़ील साहब और उनका पेशकार अपने-अपने घर की ओर बढ़ चले हैं। असगर और माखन आपस में मिलकर रसिकवा को पैसे की भुगतान आधा-आधा कर रहे हैं।
तभी कलुआ को सामने से इसी मुहल्ले में ही किराए के मकान में रहने वाले 'ड्यूटी' पर जा रहे सिपाही जी की फटफटिया आती सुनायी और दिखायी भी देती है। उनकी 'एज़डी मोटरसाइकिल' से भड-भड निकलने वाली तेज आवाज़ के कारण ही कलुआ और साथ में सारा मुहल्ला ही इसे फटफटिया कहता है। कलुआ अचानक सजग हो जाता है और मन ही मन मुहल्ला के "बुढ़वा हनुमान" जी से मनता मानता है कि अगर आज सिपाही जी के सामने उससे कोई भूल ना हुई तो बमबम हलवाई के दुकान से लेकर सवा रुपए का मकुदाना (इलायची दाना) चढ़ाएगा ; वर्ना उसको सिपाही जी से भोरे-भोरे माय-बहिन (माँ-बहन) वाली भद्दी-भद्दी गाली सुननी पड़ जाएगी और .. सारा दिन उदास मन लिए बेजान लाश की तरह बना काम करता रहना पड़ेगा।
रसिकवा के दुकान की चाय .. वो भी मलाई के साथ और एक सिगरेट भी .. माचिस के साथ .. ये किसी मन्दिर के तथाकथित देवी-देवता को नियमित दोनों शाम चढ़ने वाले चढ़ावे की तरह ही सिपाही जी को सुबह-शाम चढ़ाना पड़ता है रसिकवा को .. 'ड्यूटी' जाते समय भी और 'ड्यूटी' से लौटने पर भी। जिसका रोज दोनों शाम चश्मदीद गवाह बनता है बेचारा बारह वर्षीय कलुआ। इसके अलावा आपको पहले भी बतला चुके हैं कि यहाँ फ़ुटपाथ पर दुकान लगाने के बदले में रसिकवा को हर सप्ताह इन्हीं सिपाही जी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है।
सिपाही जी को अपनी फटफटिया से उतर कर बेंच तक बैठने आने के पहले ही वक़ील साहब के जूठे कुल्हड़ और बेंच पर गिरे सिगरेट की राख़ को कलुआ तेजी से साफ़ कर रहा है। पास आते ही सिपाही जी को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर "जै (जय) राम जी की सिपाही जी" बोलते हुए अभी उनके लिए बनने वाली 'स्पेशल' चाय के पहले उनके वास्ते उनकी पसन्द के 'ब्रांड' का एक 'गोल्डफ्लैक फ़िल्टर' सिगरेट और माचिस लाने के लिए जा रहा है।
पास में ही कूड़ेदानों में से रोज-रोज अपने मतलब के चीजों को छाँटते हुए अपनी पीठ पर लदी बोरियों में भर कर कबाड़ी के पास बेचने से मिले कुछ रुपयों से अपना पेट पालने वाली- फुलवा .. थोड़ा सुस्ताने के ख्याल से अपने ब्लाऊज में रखे बीड़ी के बंडल से एक बीड़ी और माचिस निकाल कर बीड़ी सुलगाने जा रही है।
अब तक कलुआ द्वारा मिले सिगरेट-माचिस का सदुपयोग सिपाही जी भी करना शुरू कर दिए हैं। ऐसे में आसपास की हवा में फुलवा की बीड़ी का धुआँ और सिपाही जी के सिगरेट का धुआँ आपस में बिंदास मिलकर उच्च-नीच के भेद को मिटाने का काम कर रहा है। वैसे भी अगर आरक्षण ना रहे समाज में तो उच्च और नीच वाली भावनाओं के पनपने की सम्भावनाएँ कुछ तो कम हो ही सकती है .. शायद ... जिसकी सम्भावना है ही नहीं अपने हाथों में तो फ़िलहाल .. बस यूँ ही ...
ख़ैर ! .. फिलहाल तो .. फ़िलहाल की बात करें कि .. उपरोक्त दृष्टान्तों में, जो कई चौक-चौराहों पर आम है, अपने देश के किन-किन कानूनों की धज्जियाँ उड़ने का भान हमें हो पाया है .. या नहीं हो पाया है ? अगर हो पाया है, तो क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? .. फ़िलहाल हम स्वयं से ही हर सवाल करें भी और स्वयं को ही जवाब देने का भी काम करते हैं हम सभी .. बस यूँ ही ...
【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】