Thursday, July 1, 2021

मचलते तापमानों में ...

(1) मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।
(2) अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
(3) वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है।
(4) ये शरीफ़ों का शहर है,
      यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
      हर तरफ शराफ़त बरसती है
      पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

     
(निम्नलिखित "मचलते तापमानों में ... " नामक बतकही/रचना/विचार के चारों खण्डों से हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ ...)

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-१) :-

मुहल्ले से बचने के लिए :-
कभी .. कहीं .. विवेकानंद जी के एक आत्मसंस्मरण में पढ़ा था, कि वह जब युवावस्था में पहली-पहली बार धर्म की ओर अग्रसर हुए थे, तो उनके घर का रास्ता वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरने के कारण, स्वयं को संन्यासी और त्यागी मानते हुए उस मुहल्ले से बचने के लिए मील-दो मील अतिरिक्त घूम कर इतर रास्ते से कलकत्ता (कोलकाता) के गौरमोहन मुख़र्जी 'लेन/स्ट्रीट' में अवस्थित अपने घर आया जाया करते थे।

प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो :-
इतिहास की मानें तो राजपूताना वंश की एक शाखा- शेखावत (क्षत्रिय) वंश के राजा अजीत सिंह ने झुंझुनूं (राजस्थान) के अपने खेतड़ी कस्बे में एक बार विविदिशानंद जी को स्वामी के रूप में आमन्त्रित किया था। स्वामी जी के जीवन में राजा साहब की एक अहम भूमिका रही थी। इनको विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्रदान करने वाले शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके जाने के लिए उन्होंने ही अपने दीवान- जगमोहन लाल के मार्फ़त आर्थिक सहायता देकर सारी व्यवस्था करवायी थी। वहाँ जाने से पहले उन्होंने ही इनको विविदिशानंद की जगह विवेकानंद नाम दिया था। शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके पहने गए पोशाक- चोगा, कमरबंद (फेंटा), साफ़ा (पगड़ी) आदि तक राजा साहब की ही सप्रेम भेंट थी। बाद में स्वामी जी के रामकृष्ण मिशन की शुरुआत करने वाले सपने के सच हो पाने में भी आर्थिक सहयोग का उनका योगदान रहा था।
उन्हीं राजा साहब ने एक बार अपने राजा-रजवाड़े की परम्परा के अनुसार विवेकानंद जी के स्वागत-समारोह के लिए राज नर्तकी- मैना बाई को बुलवा लिया था। सन्‍यासी विवेकानंद जी उस वक्त अपनी युवावस्‍था में अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करना नहीं सीख पाए थे। अतः ब्रह्मचर्य टूटने के भय से स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिए थे। तब इस घटना को मैना बाई ने अपनी कला और अपने आप को तिरस्कृत समझ कर, स्वामी जी को लक्ष्य करते हुए, सूरदास जी के भजन को बहुत ही तन्मयता से गाया :-
"प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||"

बंद कमरे में भी स्वामी जी तक उसकी दर्द भरी, पर सुरीली आवाज़ पहुँच पा रही थी। वह उसकी भावना को समझ पा रहे थे। वह भजन के माध्यम से बतलाना चाह रही थी, कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है और कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर देवता के मंदिर में पड़े लोहे के टुकड़े को ही सोना कर दे और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को नहीं कर सके, तो वह पारस के नकली होने में कतई संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है, कि स्वामी जी ने राज नर्तकी के इस भजन से प्रभावित होकर मैना बाई को नमन कर के कहा कि - "माता मुझसे भूल हुई है। मुझे माफ कर दो। मुझे आज ज्ञान की प्राप्ति हुई है।" तत्पश्चात उस दिन उन्होंने माना था, कि उस राज नर्तकी को देखकर पहली बार उनके भीतर ना तो आकर्षण हुआ था और न ही विकर्षण। उसके लिए ना प्रेम जागा और न ही नफरत। उन्होंने माना कि - "अब मैं पूरी तरह से संन्यासी बन चुका हूँ। क्योंकि यदि विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है, बस दिशा विपरीत है। नर्तकी या वेश्या से बचना भी पड़े तो कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ यह वेश्या का आकर्षण ही है; जिसका हमें डर रहता है। दरअसल वेश्याओं से कोई नहीं डरता, वरन् अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के प्रति आकर्षण से डरता है।"

जिन्हें तुम सज्जन कहते हो :-
एक बार एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की इस शिकायत पर कि कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के वार्षिकोत्सव में बहुत सारी वेश्याओं के आने के कारण बहुत से सभ्य लोग वहाँ आने से कतराते हैं; उन्होंने अपनी इतर राय देते हुए कहा था, कि "जो लोग मन्दिर में भी यह सोचते हैं, कि यह औरत एक वेश्या है, यह मनुष्य किसी नीच जाति (तथाकथित) का है, दरिद्र है या फिर यह एक मामूली आदमी है; ऐसे लोगों की संख्या, जिन्हें तुम सज्जन कहते हो, यहाँ जितनी कम हो उतना ही अच्छा होगा। क्या वे लोग, जो भक्तों की जाति, लिंग या व्यवसाय देखते हैं, हमारे प्रभु को समझ सकते हैं? मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, कि सैकड़ों वेश्याएँ यहाँ आयें और ईश्वर के चरणों में अपना सिर नवायें और यदि एक भी सज्जन (?) न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याओं, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है।"

स्वामी विवेकानंद जी के जीवन से जुड़े उपर्युक्त तीनों बिन्दुओं का लब्बोलुआब ये है, कि जो स्वामी जी अपने शुरूआती दौर में वेश्यालयों से कतरा कर गुजरते थे, वही मैना बाई के गाए भजन से प्रेरित हो कर बाद में उन लोगों के लिए धर्मालयों में भी प्रवेश की वक़ालत करने लगे थे। पर .. हमारा संस्कारी बुद्धिजीवी समाज आज भी इन के विषय में खुल कर बातें करने से भी कतराता है। दूसरों को भी बातें करने की अनुमति नहीं देता है। पर प्रायः लोगबाग किसी यौन रोगों की चर्चा की तरह दबी जुबान में बातें करते मिलते हैं। मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-२) :-

लाल छतरी :-
तभी तो वर्तमान दौर में मनाए जाने वाले तमाम "विश्वस्तरीय दिवसों" की होड़ में हमारे संस्कारी बुद्धिजीवी समाज ने लगभग एक माह पहले, 2 जून को मनाए जाने वाले "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस" की अनदेखी की है। जबकि सर्वविदित है, कि सन् 1975 ईस्वी में फ्रांस के ल्योन शहर में 2 जून को, वहाँ की पुलिस द्वारा वहाँ के यौनकर्मियों के साथ क़ानून की आड़ में ग़ैरक़ानूनी तरीके से अत्यधिक ज़ुल्म किए जाने के विरुद्ध में, जुलूस और धरना-प्रदर्शन के माध्यम से लगभग सौ यौनकर्मियों ने एकत्रित होकर विरोध प्रकट करने का साहस किया था। उसके अगले वर्ष, सन् 1976 ईस्वी से इसी दिन यानी 2 जून को "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस"  (International Whores’ Day या International Sex Worker's Day) के रूप में हर साल मनाया जाता है। यह दिन उन को सम्मानित करने और उनके द्वारा हमारे समाज में झेली जाने वाली तमाम कठिनाइयों को पहचान कर दूर करने के लिए मनाया जाता है।
यूँ तो संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन में सन् 2003 ईस्वी के 17 दिसम्बर को "अंतरराष्ट्रीय यौनकर्मियों के हिंसा का अन्त दिवस" (International Day to End Violence Against Sex Workers) मनाए जाने के बाद से इस दिवस को भी हर साल मनाया जाता है। सर्वप्रथम सन् 2001 ईस्वी में इटली के वेनिस में यौनकर्मियों ने अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
इन दो दिवसों के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका के ही कैलिफोर्निया में 5 अक्टूबर, सन् 2002 ईस्वी को "अंतरराष्ट्रीय वेश्यावृति उन्मूलन दिवस" (International Day of No Prostitution / IDNP) मनाए जाने के बाद से इसे भी हर वर्ष मनाया जाता है।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-३) :-

वैसे तो सच्चाई यही है, कि समाज का कोई भी अंग या इतिहास का कोई भी कालखंड, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, इनसे विहीन नहीं था और ना ही है और ना शायद रहेगा भी। समाज के विकास का इतिहास और इनके विकास का इतिहास समानांतर चलता रहा है। जो हमारे वैदिक काल में अप्सराएँ और गणिकाएँ कहलाती थीं, वही मध्ययुग में देवदासियाँ और नगरवधुएँ .. कहीं-कहीं गोलियाँ और लौंडियाँ ग़ुलामें भी पुकारी जाती रहीं तथा मुग़ल काल में तवायफ़, वारांगनाएँ या वेश्याएँ बन गर्इं, जो नाम आज भी उपस्थित हैं। और हाँ .. यौनकर्मियों जैसी संज्ञा या सम्बोधन भी जोड़ा है हमारे आधुनिक वर्तमान समाज ने।
प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौसठों कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्ययुगीन काल में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता चला गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गईं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित अनैतिक यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका के लिए तथाकथित समाज की तय की गई सीमारेखा वाली लज्जा तथा संकोच को छोड़ कर अश्लीलता की हद को भी पार कर के अपना जीविकोपार्जन चलाना पड़ा।
समाज में बहु विवाह, रखैल प्रथा और दासी प्रथा ने भी वैश्यावृति को प्रोत्साहित किया। पहले अनेक वेश्याएँ छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं, ताकि अपने बुढ़ापे में उनके युवा होने पर उनसे अनैतिक पेशा करवा कर अपनी जीविका चला सकें। पहले संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को तो राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोष से नियमित कई तरह के भत्ते भी दिए जाते थे। अनेक वेश्याओं द्वारा कई मंदिरों में भी नृत्य-गान की प्रथा थी, जिस के बदले में उन्हें धन आदि मिलता था। सामान्य वेश्याएँ नृत्य-संगीत तथा यौन व्यापार के मिलेजुले कार्य द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं। आज हमारे तथाकथित आधुनिक समाज में उसी के बदले हुए रूप में 'रेड लाइट एरिया' (Red Light Area) और 'डांस बार' (Dance Bar) जैसे ठिकाने मौजूद हैं।
तमाम तथाकथित रोकथाम संशोधन अधिनियम या उन्मूलन विधेयक के होते हुए भी समाज के अपेक्षित नैतिक योगदान के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है। वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करने वाली मान्यताओं और रूढ़ियों का बहिष्कार करना होगा। परन्तु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की तरह नहीं, जिन्होंने इस कुप्रथा का विरोध करते हुए, जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह को इन सब से विमुख करने की कोशिश की थी, तो इतिहासकारों के मुताबिक़ महाराज के दरबार की ही नन्हीं जान नाम की एक वेश्या ने रसोइए से स्वामी जी के खाने में जहर डलवा कर उनकी हत्या करवा दी थी। अतः हमें तो ईमानदारी और मनोयोग से उनके और उनके आश्रितों के जीविकोपार्जन के लिए यथोचित प्रतिस्थापन को भी तलाशना ही होगा .. शायद ...

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-४) :-

ऐसी बहुत ही कम लड़कियाँ या महिलाएं होती हैं, जो अपनी मर्जी से देह व्यापार के धंधे में आती हैं। ज़्यादातर महिलाएं ऐसी ही होती हैं जिनके सामने या तो कोई मज़बूरी होती है या अनजाने में ही इन्हें इन बदनाम बाज़ारों में बेच दिया जाता है। ऐसी ही मज़बूर यौनकर्मियों की अनकही पीड़ा और पीड़ा की कोख़ से जन्मे चीत्कारों को समर्पित हैं, शब्दकोश से उधार लिए निम्नलिखित कुछ शब्दों की तहरीर .. बस यूँ ही ...

(१)
मुश्किल भरे चार दिन :-

यूँ मुश्किल भरे जो लगते हैं
हर महीने के चार दिन तुम्हें,
मिलती है निजात ग्राहकों से,
मिलते हैं उन्हीं दिनों चैन हमें।

(२)
सजी .. सुलगती ..

चंद रुपयों में
क़ीमत अदा
करने वाले शरीफ़ों !
सौन्दर्य प्रसाधनों से
सजी .. सुलगती ..
गोश्त लगी बोटियों की,
हमारे गर्म-नर्म लोथड़ों की ...

पर दर्द से
कटकटाती
हड्डियों की,
मन में दबे
अरमानों की,
सपनों की उड़ानों की
क़ीमत भी दे दो ना ! ...

(३)
सौभग्य बनाम सौ भाग्य :-

पाकर जीवन में बस.. एक सुहाग,
सौभाग्यवती तुम तो कहलाती हो।
भाग्य पर घर वाले खूब इतराते हैं।

भाग्य तनिक तुम मेरे भी तो देखो,
सौ भाग्य चल द्वार हर रात हमारे,
रोटी की यूँ तक़दीर बनाने आते है।

(४)
मचलते तापमान में :-

ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
आदम की औलाद,
बने फ़िरते हैं मर्द, फ़ौलाद,
मौका मिले तो भला कब,
छोड़ते ये मस्ती हैं ?
फिर भी भईया !!! ...
ये मस्ती की बातें,
कोठे की रातें,
रंगीन रातों की बातें,
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

अरी सलमा !
ओ री नग़मा !
तू बता ना जरा
फिर हर शाम भला
किसकी जाम छलकती है ?
किसके लिए तू मटकती है,
तू इतनी सजती-संवरती है,
लिपस्टिक-पाउडर चुपड़ती है।
सारी रात जाग-जाग कर,
सारा दिन तू कहँरती है।
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

पेट की आग बुझाने और
चूल्हा जलाने की ख़ातिर,
लंपटों की तू लपटें बुझाती है,
जो नसों में उनके लपलपाती है।
ना जाने कितनों के बदन की
तू गर्मियाँ सोखती है ?
अलग-अलग मनचलों के
मचलते तापमानों में
अपने बदन के तापमान,
थर्मामीटर-सा तू बदलती है ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

यूँ हैं तो इस शहर के मर्द सारे,
स्कूल-कॉलेजों से मिले
"चरित्र प्रमाण पत्र" वाले,
शरीफ़ हैं सारे, जो आ नहीं सकते।
तो ऐसे में अहिल्या वाले इंद्र या
क्या कुंती वाले सूरज देव की
छली नज़रें तुम्हें रोज़ छलती हैं ?
उघाड़ने वाले तमाशबीनों में
लगाता है क्या कोई पैबंद भी वहाँ,
जहाँ से तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं
अक़्सर आशाएं रिसती हैं ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।








Wednesday, June 30, 2021

रूमानी पलों में भी ...

पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती।

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।


सताते तो हैं लकड़ी के चूल्हे मगर,

आधुनिक चौके भी कब छोड़ते हैं?

बहने का बस इन्हें बहाना चाहिए,

कसरतों से भी यों बह निकलते हैं।


सूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,

मजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।

चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,

जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।


भेदभाव ना जाति-धर्म में और ये

ना करते हैं अच्छे-बुरे में कभी भी।

पसीने पसीने होते हैं  बलात्कारी,

बलात्कृत के भी पसीने छूटते हैं।


यूँ तो कई तरह के होते हैं पसीने,

आँसू-से खारे मजदूरों के पसीने,

प्रेमी-प्रेमिकाओं के गुलाब जल के

बोतलों-से यों ये शायद गमकते हैं।


अचानक सामना हो कभी मौत से,

या जो चोरी से प्रेमी बाँहों में भर ले;

झरोखों से झाँकती पटरानियों-से, 

उत्सुक ये रोम छिद्रों से हुलकते हैं।


पसीना बहाता कभी कोई आदमी,

तो कोई ख़ून पसीना है एक करता,

पसीना पसीना हो जाता है आदमी,

एक अदद घर तभी चला करते हैं।


धर्मालयों में विराजमान विधाता से

माँग के सुखी जीवन की भीख भी;

यूँ तो ज़लज़लों, जिहादी धमाकों, 

सुनामियों से हमारे पसीने छूटते हैं।


बच्चों की जननी माँ के भी तो ..

बहते हैं यूँ प्रसव पीड़ा में पसीने।

उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,

क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।


पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती,

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।






Friday, June 25, 2021

क्यों हैं ये फ़ासले ? ...

अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

मिल कर कभी उर्दू में भी,

हम हनुमान चालीसा पढ़ें।

एक बार कभी अंग्रेजी में,

वज्रासन लगा कुरान पढ़ें।


तो क्यों ना ...

चर्च में मिलकर ईसा की,

संस्कृत में गुणगान करें।

मंदिर में कभी टोपी पहन,

तो धोती में मस्जिद चढ़ें।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

सत्यनारायण स्वामी की 

कथा हो कभी फ़ारसी में,

और क्यों ना आरती हम,

मिलकर अंग्रेजी में गाएं।


तो क्यों ना ...

पगड़ी और पटके पहन के,

मजलिस में सारे ही पधारें।

शाम-ए-ग़रीबाँ के दर्द को,

हिंदी ही में दोहराए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी भगवान के लिए हम,

मंदिर में सूफी कव्वाली गाएं।

कभी अल्लाह को भी मिल,

एक भक्ति के भजन सुनाएं।


तो क्यों ना ...

उतार कर सलीब से कभी,

ईसा को पीताम्बर पहनाएं।

कान्हा हों सलीब पर कभी,

गिरजे में भी शंख बजाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी शिवरात्रि की रात,

ज़र्दा पुलाव प्रसाद चढ़ाएं। 

या शब-ए-बारात में कभी,

सोंधी मीठी पँजीरी बनाएं।


तो क्यों ना ...

मुरीद बन, कभी बक़रीद में 

भतुए की क़ुर्बानी दी जाए।

मंदिरों में टूटे फूलों के बजाय,

गमले समेत ही चढ़ाए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


अगर जो ...

सभी भाषा का ही है ज्ञाता,

वो ऊपर वाला, हैं ऐसा सुने। 

फिर हमारे बीच ही क्यों भला

भेदभाव, क्यों हैं ये फ़ासले ?


अगर जो ...

ऊपर में हमारे ही पालनहार,

हैं भगवान रचयिता बने बैठे।

फिर रूस, पाकिस्तान हो या

यहाँ कौन लाता है जलजले ?


मजलिस = इमाम हुसैन की याद में आयोजित होने वाला कार्यक्रम।】

शाम-ए-ग़रीबाँ = दस मुहर्रम को कर्बला के वाक़िया पर होने वाली एक शोक सभा विशेष।】






Tuesday, June 22, 2021

मन-मंजूषा ...

खींच भी लो हाथ रिश्तों से अगर,

मेरी ख़ातिर अपनी तर्जनी रखना।

मायूसियों में मैं किसी उदास शाम,

मुस्कुरा लूँ, इतनी गुदगुदी करना।


जो किसी गीत के बोल की तरह,

भूल भी जाओ तुम प्यार हमारा।

माना हो जाए मुश्किल वो गाना,

तो बस यूँ ही कभी गुनगुना लेना।


रिश्तों के फूल मुरझा भी जाए तो,

फेंकना बदगुमानी में क़तई भी ना।

मान के किसी मंदिर या मज़ार के,

फूलों-सी मन-मंजूषा सजा रखना।

 

सुलगने से मेरे महकता हो अगर,

रौशन मन का घर-कमरा तुम्हारा।

हरदम किसी मन्दिर की सुलगती,

अगरबत्तियों-सा सुलगता रखना।



Monday, June 21, 2021

आवाज़ दे कहाँ है ...

आज ही सुबह जब हमारे कॉलेज के जमाने के एक परिचित/मित्र, जो तब भी अच्छे तबलावादक थे और आज भी हैं, की "विश्व संगीत दिवस" की शुभकामना वाली व्हाट्सएप्प मेसेज (Whatsapp Message) आयी तो, ये बात याद आयी कि आज यानी 21 जून को "विश्व संगीत दिवस" है; वर्ना जीवन की आपाधापी तो मानो सब भुला देती है। तब हम भी हवाइयन गिटार (Hawaiian Guitar) बजाया करते थे, जिसका अभ्यास अब तो समय के साथ पूर्णतः छूट ही गया और वह सज्जन आज भी एक सरकारी उच्च-माध्यमिक विद्यालय में संगीत-शिक्षक के तौर पर कार्यरत हैं। उन्होंने विधिवत इसकी शिक्षा प्रयाग संगीत समिति से ग्रहण की है, जो मेरी अधूरी ही रह गई .. बस यूँ ही ...
तभी ख़्याल आया कि "विश्व संगीत दिवस" के बहाने ही सही, संगीत की कुछ पुरानी यादें और कुछ नयी बातें, ब्लॉग के पन्ने पर सहेजी जाएं। वैसे तो हर "दिवसों" की तरह यह दिवस भी पूरे विश्व को यूरोपीय देश फ्रांस की देन है; जब से 21 जून को सन् 1982 ईस्वी में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार, पहला "विश्व संगीत दिवस" मनाया गया था। संगीत के साथ सब से अच्छी बात ये है कि इसकी कोई भाषा नहीं होती, जिस के कारण अंजान शब्दों के मायने जानने के लिए बार-बार किसी शब्दकोश विशेष की आवश्यकता हमें नहीं पड़ती। बस ... संगीत विश्व के किसी भी कोने की हो, कानों को स्पर्श करते ही हम झुमने लग जाते हैं। बशर्ते .. अगर मन-मस्तिष्क अच्छी मुद्रा में हो तो  .. शायद ...

वैसे भी हमारे बुद्धिजीवी पुरखों ने ये माना है, कि साहित्य और संगीत विहीन मनुष्य, मनुष्य ना होकर, ब्रह्माण्ड के अन्य जीवित प्राणियों के जैसा ही होता है। विज्ञान ने भी माना है और सिद्ध भी किया है, कि संगीत का सकारात्मक असर पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों पर भी होता है। देखा गया है, कि संगीत के असर से गाय अपनी सामान्य क्षमता से ज्यादा दूध देने लगती है, फल-फसल के पैदावार भी बढ़ जाते हैं।

यूँ तो हर इंसान जाने-अंजाने अपने-आप में एक संगीतकार है; चाहे हृदय-स्पंदन की ताल हो, साँसों की सरगम हो, चूड़ियों की खनखन हो, पायलों की छमछम हो, ओखली, ढेंकी, जाँता या सिलवट की लयबद्ध आवाज़ हो, आज के सन्दर्भ में मिक्सर-ग्राइंडर (Mixer-Grinder) की आवाज़ हो, सूप या डगरे से अनाज फटकते वक्त इन पर पड़ने वाली थपकियों के थापों और चूड़ियों की जुगलबंदी की आवाज़ हो, चलनी से कुछ भी चालते समय की या आटा गूँथते समय की चूड़ियों की लयबद्ध खनखनाहट हो, लोहार की धौंकनी या हथौड़ी की आवाज़ हो, बढ़ई की आरी या रन्दे की आवाज़ हो, सुबह सड़क बुहारते सफाईकर्मी के नारियल-झाड़ू की आवाज़ हो, सुबह दूध वाले के आने पर कॉल-बेल (Call-Bell) पर बजने वाली अपनी पसंदीदा धुन हो, घास चरती बकरियों या गायों के गले में या फिर मंदिरों में बजने वाली नाना प्रकार की घण्टियाँ हों .. हमारे हर तरफ संगीत ही संगीत है .. बस .. दुनियावी तामझाम से परे तनिक गौर करने की आवश्यकता भर है .. शायद ... 

वैसे तो आज ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की विशेष एकादशी - निर्जला एकादशी भी है, जिसके अंतर्गत तथाकथित भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। साथ ही आज विश्व योग दिवस भी है, पर अभी इन पर बात नहीं करनी है।

आइए .. आज ब्लॉग के वेब पन्ने पर रचना/विचार से परे, "विश्व संगीत दिवस" के बहाने ही कुछ संगीत वाद्ययंत्रों (Musical Instruments) के दिग्गज़ों से उनकी उँगलियों और फूँकों की फ़नकारी निहारते-सुनते हैं। अब कहीं-ना-कहीं से तो श्री गणेश करना ही है, तो पहले युवा पीढ़ी से ही आरम्भ करते हैं।

सब से पहले कर्नाटक की लगभग 25 वर्षीया अंजलि (Anjali Shanbhogue) को जानते हैं, जो "सूचना विज्ञान एवं अभियांत्रिकी" की बीई की डिग्री (B.E. Degree in Information science and engineering) लेने बाद, अपनी आईटी (IT) की नौकरी को छोड़कर आज पूर्णरूपेण संगीत को समर्पित है। वह वाद्ययंत्र - सैक्सोफोन (Saxophone) को बजाने में पारंगत है। कई पुरस्कारों का अंबार इसके नाम जमा है। तो आइए .. नीचे की 'लिंक' के 'यूट्यूब' पर उसी से उसके वाद्ययंत्र - सैक्सोफोन से एक फ़िल्मी गीत की धुन सुनते हुए उस से रूबरू भी होते हैं -

अब बारी है, आंध्रप्रदेश की लगभग 34 वर्षीया श्रीवानी की, जिसको वीणा बजाने में महारथ हासिल है और अब वीणा बजाने के कारण ही दुनिया उसे वीणा श्रीवानी के नाम से जानती है। वीणा वाद्ययंत्र की चर्चा होने पर आस्तिकों को निश्चित रूप से वीणापाणि यानी सरस्वती देवी दिमाग में कौंध जाती हैं। ख़ैर ! .. फ़िलहाल 'यूट्यूब' पर इसके द्वारा वीणा से बजायी गयी एक फ़िल्मी गाने की धुन सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

अब मिलते हैं तमिलनाडु के चेन्नई की लगभग 83 वर्षीया विदुषी डॉ नारायण अय्यर राजम यानी एन राजम जी की वायलिन (Violin) की जादूगरी से। जो इस इटली के विदेशी वाद्ययंत्र से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत बजाती हैं। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संगीत की प्राध्यापिका रहीं हैं और अंतत: विभागाध्यक्ष और विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन भी बनीं थीं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (Fellowship) से सम्मानित किया गया है। उन्हें पदम् श्री, पदम् भूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जैसे मुख्य राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा और भी कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। फिलहाल उनके वायलिन और विश्वविख्यात तबलावादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब के तबले की जुगलबंदी से रूबरू हो कर संगीतमय होने की कोशिश करते हैं :-


अब भला मरहूम उस्ताद बिस्मिला ख़ान साहब के बारे में या उनकी शहनाई के बारे में कौन नहीं जानता भला ! .. उनके बारे में तो .. कुछ भी बतलाने की जरुरत ही नहीं है .. शायद ... तो बस उनकी जादुई फूँक वाली शहनाई से एक ठुमरी सुनते हैं, जो ठुमरी एक फ़िल्मी गीत भी बन चुकी है :-

अब हम उस नाम और उनके वाद्ययंत्र में बारे में बात करते हैं, जो सत्तर से नब्बे तक के दशक में किसी भी संभ्रांत परिवार, ख़ासकर बंगाली परिवार में, अपने वाद्ययंत्र -
हवाइयन इलेक्ट्रिक गिटार (Hawaiian Electric Guitar) की धुन के सहारे धीमी-धीमी आवाज़ में बज कर वर्षों तक राज किए। पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता (कोलकाता) के सुनील गाँगुली "दा", जो लगभग बाईस साल पहले अपने 61 वर्ष की उम्र में ही स्वर्गवासी हो गए। आइए उनकी उँगलियों की हरक़त वाली गिटार से एक मशहूर फ़िल्मी गाने की धुन सुनते हैं .. उसी धीमी-धीमी मधुर आवाज़ में :-

अब जम्मू के लगभग 83 वर्षीय
पंडित शिवकुमार शर्मा जी जैसे प्रख्यात भारतीय संतूर वादक की चर्चा करते हैं, जिन्होंने अपने पिता जी, पंडित उमा दत्त शर्मा, द्वारा एक कश्मीरी लोक वाद्य - संतूर पर अत्यधिक शोध करने के कारण, भारत के पहले ऐसे संतूर वादक बनें, जो इस से भारतीय शास्त्रीय संगीत को बजा कर खूब नाम कमाए। इनके ही हमउम्र उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (प्रयागराज) के रहने वाले भारत के प्रसिद्ध बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी, जिनको कई अंतरराष्ट्रीय सम्मानों के अतिरिक्त संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कोणार्क सम्मान, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, हाफ़िज़ अली ख़ान पुरस्कार जैसे कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है। हमारी फ़िल्मी दुनिया में संगीतकारों की जोड़ी वाले चलन के नक़्शेक़दम पर इन दोनों की महान जोड़ी ने "शिव-हरि" नाम से कई मशहूर फिल्मों को अपने संगीत से सजाया है। आइये .. सुनते और देखते हैं , दोनों दिग्गज़ों की जुगलबंदी .. बस यूँ ही ...

अब उपर्युक्त चंद वाद्ययंत्रों की बातों के बाद, चलते-चलते एक गीत सुनने की तकल्लुफ़ भी कर लेते हैं। परतंत्र भारत में जन्मीं, पर बाद में स्वतन्त्र पाकिस्तान की हुई, मशहूर गायिका मरहूम
नूरजहाँ जी की दिलकश और दर्दभरी आवाज़ में सुनते हैं एक पुराने फ़िल्म का गीत .. 
.. बस यूँ ही ... : -


{आज सुबह मित्र/परिचित द्वारा भेजा गया, copy & paste/share वाला Whatsapp Message}

Sunday, June 20, 2021

बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...

आज की रचना/सोच - "बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..."  से पहले आदतन कुछ बतकही करने की ज़्यादती करने के लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं हम।

दरअसल .. रोजमर्रे की आपाधापी में यह ध्यान में ही नहीं रहा कि इस साल भी जून महीने के तीसरे रविवार को, सन् 1910 ईस्वी के बाद से हर वर्ष मनाया जाने वाला "फादर्स डे" (Father's Day) यानी "पिता दिवस", आज 20 जून को ही होगा। यूँ तो गत कई दिनों से चंद सोशल मीडिया से होकर गुजरती हमारी सरसरी निग़ाहों में इसकी सुगबुगाहट महसूस हो रही थी। पर जब ब्लॉग-मंच - "पाँच लिंकों का आनन्द" की 20 जून की प्रस्तुति के लिए अपनी एक .. दो साल पुरानी रचना/सोच - "बस आम पिता-सा ..." के नीचे यशोदा अग्रवाल जी की एक प्रतिक्रिया- "आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 20 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!" पर परसों ही नज़र पड़ी, तब तो पक्का यक़ीन हो गया कि 20 जून को ही "फादर्स डे" है।

तमाम "दिवसों" को लेकर, गाहे-बगाहे मन में ये बात आती है, कि .. कितनी बड़ी विडंबना है, कि एक तरफ तो हम लोगबाग में से चंद बुद्धिजीवी लोग अक़्सर चीखते रहते हैं कि .. हमारी सभ्यता-संस्कृति या भाषा की अस्मिता, अन्य भाषाओं या सभ्यता-संस्कृतियों की घुसपैठ से खतरे में पड़ रही है। वहीं दूसरी तरफ हम हैं कि .. विदेशों से आए "दिवसों" को मनाने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। बल्कि गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि सर्वविदित है कि .. संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी वर्जीनिया में पहली बार "मदर्स डे" (Mother's Day) सन् 1908 ईस्वी में मई महीने के दूसरे रविवार यानी 10 मई को मनाने के बाद, हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को लगभग पूरे विश्व में यह दिवस मनाया जा रहा है।

साथ ही, उसी तर्ज़ पर संयुक्त राज्य अमेरिका की ही राजधानी वाशिंगटन में पहली बार सन् 1910 ईस्वी में जून के तीसरे रविवार यानी 19 जून को "फादर्स डे" (Father's Day) मनाए जाने के बाद से ही हर वर्ष जून महीने के तीसरे रविवार को आज तक यह दिवस मनाया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में इनके विस्तारण में निःसन्देह किसी तथाकथित दैविक शक्ति का तो नहीं, बल्कि विज्ञान का भी/ही बहुत बड़ा योगदान रहा है। विज्ञान के उत्पाद - उपग्रहों से चलने वाले इंटरनेट की नींव पर खड़े सोशल मीडिया की देन से ही यह सम्भव हो पाया है।
विश्व भर में मनाए जाने वाले पहले "फादर्स डे" के इसी 19 जून ने, ना जाने कब यादों के मर्तबान से पाकड़ के 'टुसे' (किसलय) के अचार जैसे कसैले, सन् 2007 ईस्वी के 19 सितम्बर, बुधवार के दिन के उस कसैलेपन को अनायास दिला दिया; जिस दिन ने पापा का साथ हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे और मेरे पूरे परिवार से छीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया था। अगले दिन 20 सितम्बर, वृहष्पतिवार को उनके दाह-संस्कार के दौरान ही इस रचना/सोच -"बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." का बीज दिमाग के तसले में टपका था। तब से वो सोच का टपका हुआ बीज, डभकता-डभकता .. मालूम नहीं कितना पक भी पाया है या कच्चा ही रह गया। अगर पका तो भोग लगेगा और कच्चा रह गया तो भविष्य में पौधा बनने की आशा रहेगी, एक संभावना रहेगी .. शायद ...
तब मेरा बेटा लगभग 10 वर्ष का था और उस के छुटपन के कारण उसे शवयात्रा में व श्मशान तक ले जाने की, उस वक्त वहाँ सभी उपस्थित लोगों की मनाही के बावज़ूद उसे दाह-संस्कार में साथ लेकर गया था। सदैव ये सोच रही है, कि बातें "गन्दी/बुरी" हो या "अच्छी/भली", उसे अपने बच्चों या युवाओं से मित्रवत् साझा करनी चाहिए। साथ ही, उसे दोनों ही के क्रमशः दुष्परिणामों और सुपरिणामों से भी अवगत करानी चाहिए। तभी तो वह आगे जाकर आसानी से अच्छे और बुरे की पहचान करने वाले विवेक के स्वामित्व को आत्मसात् कर सकेंगे। अंग्रेजी में एक कहावत (Proverb) भी है, कि "The child is father to/of the man." .. बस यूँ ही ...

बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...

बेटा !
भूल कर कि ..
उचित है या अनुचित ये,
दस वर्ष की ही
तुम्हारी छोटी आयु में,
शवयात्रा में
तुम्हारे दादा जी की,
शामिल कर के
आज ले आया हूँ मैं
श्मशान तक तुम्हें।
सांत्वना देने वाली
भीड़ द्वारा आज,
छोटी उम्र में तुम्हें यहाँ
लाने के लाख विरोध के विरुद्ध।
भीड़ चाहे अपने समाज की,
रोना रो कर रस्मो-रिवाज की,
भले ही होते रहें क्रुद्ध।
लाया हूँ तुम्हें एक सोच लिए कि
ना जाने इसी बहाने
मिल जाए ना कहीं,
फिर से जगत को
एक और नया बुद्ध।

देखो ना तनिक ! ..
जल रहें हैं किस तरह
अनंत यात्रा के पथिक
देखो ना !! ..
सीने के बाल इनके,
जिन पर बचपन में मैं
फिराया करता था
नन्हें-नन्हें हाथ अपने।
सिकुड़ रही हैं जल कर
रक्तशिराओं के साथ-साथ
उनकी सारी उँगलियाँ भी कैसे ?
और तर्जनियाँ भी तो ..
जो हैं शामिल उन में,
जिन्हें भींच मैं अपनी
नन्हीं मुट्ठियों में
सीखा था चलना
डगमग-डगमग डग भर के।
सुलग रहे हैं
देखो सारे अंग,
फैलाते चिरायंध गंध
और धधक रहे हैं
शिथिल पड़े अब
निष्प्राण इनके सारे तंत्र।

पर .. अभी क्या ..
कभी भी नहीं ! ..
कभी भी नहीं !!! ...
होगा .. ना इनका और
ना कभी भी मेरा अन्त
और हाँ .. तुम्हारा भी।
हो जाए चाहे
मेरा भी देहावसान,
चाहे ऊर्जाविहीन तन
हो जाए देहदान,
सारा घर .. कमरा ..
मेज और कुर्सी,
या फिर बिस्तर का कोना
हो जाए सुनसान।
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी,
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
मेरे "वाई" और अपनी माँ के
"एक्स" गुणसूत्र के युग्मज से
जो हुआ है तुम्हारा निर्माण।

गुणसूत्रों का वाहक मैं,
तुम्हारे दादा जी का और
मेरे गुणसूत्रों के हो तुम।
फिर होगी तुम से
अगली संतति तुम्हारी
बस यूँ ही .. पीढ़ी दर पीढ़ी
चलती रहेगी एक के बाद दूसरी,
फिर तीसरी और ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
जो चला आ रहा है युगों से
चलता ही रहेगा अनवरत ..
जीवित साँसों और
धड़कनों की तरह अनवरत ..
रुकता है ये कब भला पगले !
वो तो मुझमें ना सही
कल तुममें चलेगा ..
परसों किसी और में
पर चलेगा .. निर्बाध ..
अनवरत और ..
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी .. बस यूँ ही ...





 



Wednesday, June 16, 2021

चौथा कंधा ...

लगभग दो साल पहले :-

सन् 2019 ईस्वी। अप्रैल का महीना। शाम का लगभग सात-साढ़े सात बजे का समय। अवनीश अपने घर में शयन कक्ष से इतर एक अन्य कमरे के एक कोने में जमीन पर ही बिछे हुए दरी-चादर वाले बिछौने पर लेटे हुए थे। कुछ ही घन्टे पहले अपने चंद रिश्तेदारों और कुछ पड़ोसियों-दोस्तों के साथ मिलकर "बाँस-घाट" (पटना में गंगा नदी के किनारे एक श्मशान घाट) पर अपने पापा का दाह-संस्कार कर के घर लौटे थे। दाह-संस्कार के क्रम में हुई भाग-दौड़ से ऊपजी शारीरिक थकान और अपने पापा के खोने की पीड़ा से ऊपजी मानसिक थकान के मिलेजुले कारणों से अनायास ऊपजी अवनीश की गहरी नींद की कोख़ से कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज़ जन्म लेने लगी थी, जो घर में पसरी हुई बोझिल ख़ामोशी वाले रिक्त स्थानों को भर रही थी।

अचानक उनके पास ही 'एक्सटेंशन बोर्ड/कॉर्ड' में चार्ज हो रहे उनके और उनकी धर्मपत्नी अवनि के फोन में से एक फोन के बजने से उनकी नींद टूट गई और खर्राटों की आवाज़ की जगह 'मोबाइल' की 'रिंग टोन' ने ले ली थी। वह 'मोबाइल' बिना देखे, अपनी आँखें बन्द किये हुए ही, बस इतनी ही जोर से बोले, ताकि अंदर के कमरे में मम्मी के पास उपस्थित उनकी अवनि उनकी आवाज़ सुन सके और फोन ले जाए - "अव्वी ! .. तुम्हारा फोन .."

 अक़्सर दोनों ही एक-दूसरे को प्यार भरे इसी नाम से सम्बोधित करते हैं। मतलब, अवनीश के लिए अवनि- अव्वी और अवनि के लिए अवनीश भी- अव्वी, यानी अवनीश भी अव्वी और अवनि भी अव्वी .. दोनों ही एक दूसरे के लिए "अव्वी"। यूँ तो दोनों के फोनों के अलग-अलग 'रिंग टोन' होने के कारण, वे दोनों ही फोन आने पर, बिना फोन देखे ही दूर से समझ जाते हैं, कि किसके फ़ोन पर फ़ोन आया है। साथ ही .. एक बात और कि .. आपसी अच्छी तालमेल होने के कारण कोई भी फोन आने पर उत्सुकतावश या जासूसीवश एक दूसरे के मोबाइल के 'स्क्रीन' पर आपस में कोई भी ताकता या झाँकता तक नहीं है और ना ही पूछता भी है, कि किसका फोन आया था या उस से क्या बातें हो रही थी।
अवनि चार्ज होते फोन को चुपचाप निकालकर, कॉल रिसीव कर के धीरे से - "हेल्लो" कहते हुए दूसरे कमरे में चली गई। ताकि उसकी फोन पर बातें करने से अवनीश की नींद ना खराब हो जाए।
फिर पाँच-दस मिनट के बाद ही अवनि वापस आकर अपना मोबाइल फिर से उसी जगह पर चार्ज में लगाने लगी। तभी बस यूँ ही अवनीश ने पूछ भर लिया कि - "किसका फोन था ?"
"मँझले मामा जी का था।"
"क्या कह रहे थे ?"
"कह रहे थे कि एक ही शहर में, पास में ही रह कर, वे पापा जी के दाह संस्कार में शामिल नहीं हो सके हैं, इसका उनको बहुत ही खेद है।"
"कोई बात नहीं, समय नहीं मिल पाया होगा शायद !"
"ना ! ना-ना, बोल रहे थे, कि अभी ढाई महीने पहले ही तो सरिता का कन्यादान किए हैं। इसी कारण से वे लोग अपने सामाजिक रस्म-रिवाज़ वाले नियम-कायदे से बंधे हैं। मज़बूरी है, वर्ना आते जरूर। ये भी बोले कि मेरी तरफ से माफ़ी माँग लेना अवनि बेटा।"
"ओ ! .. कोई बात नहीं। पर बड़े होकर माफ़ी माँगने वाली बात तो .. अच्छी नहीं है। है ना ?"
"बाद में आएंगे मिलने मम्मी जी से .. ऐसा भी बोले हैं।"
"अच्छा ! ठीक है, आने दो, जब उनके समाज के बनाए रस्म-रिवाज उनको आने की अनुमति दे दें, तो आ जाएं, किसने रोका है भला। है कि नहीं।"
सरिता- अवनि के मंझले मामा जी की तीन बेटियों- सरिता, मनीषा और समीरा में से उनकी बड़ी बेटी यानी अवनि की ममेरी बहन है।अभी ढाई माह पहले ही जनवरी महीने वाले शादी के शुभ मुहूर्त में, इसी शहर के एक अच्छे मैरिज हॉल से उसकी शादी हुई थी, जहाँ अवनीश और अवनि भी सपरिवार निमंत्रित थे। तब अवनीश के मम्मी-पापा यानी अवनि की मम्मी जी और पापा जी भी गए थे। पापा जी .. जो अभी कुछ घन्टे पहले ही सनातनी विचारधारा के अनुसार पंच तत्वों में विलीन हो चुके थे।
यह तो सर्वविदित है कि हमारे हिन्दू धर्म में एक लोक(अंध)परम्परा है, जिसके अनुसार जो कोई भी किसी लड़की की शादी में कन्यादान करते हैं या फिर लड़के की शादी करने पर भी, शादी के बाद साल भर तक, किसी के यहाँ भी किसी के मरने पर नहीं जाते हैं। जब तक मृतक के परिवार को "छुतका" (सूतक) रहता है, तब तक उस के यहाँ जाना वर्जित है। हमारे हिन्दू समाज की एक मान्यता है कि अगर ऐसी परिस्थिति में भूले से भी, जो कोई भी, शादी करवाने वाले अभिभावक या नवविवाहित दम्पति जाते हैं, तो उनके साथ कुछ भी अपशकुन घटित हो सकता है। तथाकथित भगवान जी नाराज़ हो जाते हैं .. शायद ...
अभी इस दुःखद घड़ी में भी मंझले मामा जी के आए हुए फोन से, केवल अपनी भगनी- अवनि से बातें होना और अवनीश या उनकी मम्मी से आज की दुःखद घटना के बारे में कोई भी बात ना करना; आपको-हमको शायद अटपटी बात लगे, पर अवनीश के लिए यह कोई भी आश्चर्य का विषय नहीं है। वह अपनी शादी के अब तक के दो-तीन सालों में, अपने ससुराल वालों के इस अलग अंदाज़ वाली आदत से अच्छी तरह वाकिफ़ हो चुके हैं; कि किसी भी तरह के दुःख या ख़ुशी के मौके पर, अवनि के मायके से किसी का भी फोन प्रायः अवनि को ही आता है। और तो और .. यहाँ तक कि उनकी शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं भी अवनि के मायके वाले अकेले अवनि से ही साझा करके उस दिन की औपचारिकता की इतिश्री कर देते हैं हर बार।
वैसे तो अवनीश बचपन से अपने घर-परिवार में ये चलन देखते हुए आए हैं, कि अगर किसी बुआ जी, मौसी जी या किसी भी 'कजिन' दीदी लोगों के ससुराल में किसी ख़ास आयोजन के मौके पर आमन्त्रित करने के लिए या किसी अवसर पर शुभकामनाएं देने के लिए या फिर दुःख की घड़ी में शोक प्रकट करने के लिए उन लोगों के अलावा तदनुसार फूफा जी, मौसा जी या जीजा जी या फिर उनके मम्मी-पापा से बातें की जाती रहीं हैं। हो सकता है यह पुरुष-प्रधान समाज होने के कारण ऐसा होता हो। पर अवनीश करें भी तो क्या भला .. अवनि का मायका इस मामले में है ही कुछ अलग-सा। वैसे तो अवनीश को इन में भी सकारात्मकता नज़र आती है, कि यह पुरुष-प्रधान समाज को चुनौती देती हुई, किसी महिला-प्रधान समाज को गढ़ने की प्रक्रिया वाली शायद कोई चलन या जुगत हो।

इसी साल :-

सन् 2021 ईस्वी। अप्रैल का महीना। अवनीश अपनी सुबह की दिनचर्या निपटाने के बाद रोज़ाना की तरह ही 'वाश रूम' के पास वाले 'वाश-बेसिन' के ऊपर टंगे आइने में अपनी छवि निहारते हुए, अपने 'मैक-थ्री' के 'ट्रिपल ब्लेड' वाले 'शेविंग रेज़र' से दाढ़ी बना रहे थे। वह मंगलवार, बृहस्पतिवार या शनिवार को दाढ़ी नहीं बनाने और ना ही बाल कटवाने से अपशकुन होने जैसी मान्यता या परम्परा को एक दक़ियानूसी सोच की या एक बेबुनियाद ढकोसला की पैदावार भर मानते हैं। उनकी सोच के अनुसार, अगर ऐसा हो रहा होता तो रत्न टाटा, बिरला, अंबानी, अडानी .. ये सब के सब रोज ही 'शेव' करने वाले लोग इतने बड़े आदमी नहीं होते।

तभी पास ही मेज पर पड़े फोन के बजने पर, रसोईघर में नाश्ता की तैयारी कर रही अवनि को उन्होंने आवाज़ दी कि- "अव्वी ! तुम्हारा फोन .."
"आ रही हूँ ..."
"अपने पास ही क्यों नहीं रखती हो, ताकि कोई फोन आए तो तुमको पता चल सके।"
"अच्छा बाबा ! सुबह-सुबह इतना गुस्सा मत होओ।"
"मोबाइल की फिर जरूरत ही क्या है भला .. ऐसे में एक 'लैंड लाइन' फोन लगवा लो।"
"तुम्हारे बकबक में ना ... फोन भी कट गई।"
अवनि फोन लेकर वापस रसोईघर में चली गई। 'कॉल' आए हुए 'नंबर' पर 'कॉल बैक' कर के बातें करने लगी - "प्रणाम मामा जी !,  मामी जी कैसी हैं ? ..." कुछ ही देर में बातें खत्म करते हुए - "अच्छा, प्रणाम मामा जी ... जी, जी, हाँ-हाँ, ठीक है। जी ! बोल दूँगी "इनको"। हाँ, हाँ, समझ रही हूँ। समझा भी दूँगी इनको। अब रखती हूँ। जी, मामा जी। जी, प्रणाम मामा जी।"
अब तक अवनीश 'शेव' करने के बाद अपने गालों पर 'सुथॉल एंटीसेप्टिक लिक्विड' मलते हुए, नाश्ते के लिए 'डाइनिंग टेबल' तक आ चुके थे। पिछले साल की तरह ही, इन दिनों भी 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के अंतर्गत वह घर से ही अपने 'ऑफिस' का काम निपटा रहे थे। अतः नियत समय पर 'ऑफिस' पहुँचने की उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं होती है। इसी कारण से नाश्ता आने तक आज का अख़बार खोल कर पन्नों पर छपे समाचारों पर अपनी नज़रें फिराने लगे।
तभी अवनि गर्मागर्म नाश्ता ले कर आ गई। लगभग आठ बजने वाले थे। अवनि नाश्ता की थाली मेज पर रख कर, 'टीवी' चालू कर के, 'इंडिया टीवी चैनल' पर बाबा राम देव के रोजाना आने वाले लगभग चालीस-पैंतालीस मिनट के कार्यक्रम को 'रिमोट' से चला कर गौर से देखने लगी। मम्मी जी भी मनोयोग से योग वाला कार्यक्रम देखने के लिए आ कर साथ में बैठ गईं। कुछ देर में नाश्ता, अख़बार और योग का कार्यक्रम सब कुछ ख़त्म होने के बाद सभी अपने-अपने काम में लगने के लिए वहाँ से  उठ गए। मम्मी अपने कमरे में लेटने चली गईं, अवनीश अपने काम के मेज पर 'कंप्यूटर' के सामने और अवनि रसोईघर में सभी के लिए काढ़ा बनाने।
पर जाने से पहले, पहले मम्मी जी के जाने के बाद, अवनि .. अवनीश के पास बैठ कर कहने लगी कि- "सुबह उस समय मँझले मामा जी का फोन आया था। कह रहे थे कि परसों उनकी मँझली बेटी- मनीषा की शादी है। पर अभी 'लॉकडाउन' में सरकार के दिशानिर्देश के अनुसार अधिकतम पचास लोग ही शादी के आयोजन में शामिल हो सकते हैं। इसी कारण से वे इस शादी में हमलोगों को नहीं बुला पा रहे हैं।"
"वैसे भी तो .. अभी कोरोना के समय भीड़-भाड़ वाले जगहों में जाने से बचना ही चाहिए। अच्छा हुआ जो निमन्त्रण नहीं आया। आता भी तो शायद नहीं जा पाते हमलोग।"
"कह रहे थे कि उनके गोतिया लोग और लड़के वालों का परिवार मिला कर ही पचास से ज्यादा लोग हो जा रहे हैं। तो गोतिया में से ही कई लोगों को आने से रोका जा रहा है। बाहर से या मुहल्ले से किसी को भी नहीं बुलाया गया है।"
"स्वाभाविक है .. वैसे भी सरकारी दिशानिर्देशों को मानने में हम आम लोगों की ही भलाई है। हमारी रक्षा-सुरक्षा के लिए ही तो बनाए जाते हैं तमाम नियम-क़ानून। है कि नहीं ?"
"एक छोटे-से 'कम्युनिटी हॉल' में सब कुछ सम्पन्न हो रहा है। कोई धूम-धड़ाका नहीं होगा। दरअसल लड़के की माँ बीमार रहती हैं, तो उनकी ज़िद्द से, सरिता की शादी के समय ही ये तय की हुई शादी, जल्दी में निपटायी जा रही है। बोल रहे थे, कि बाद में वे लोग मिलने आ जायेंगे या हमलोग जा कर मिल लेंगें।"
"कोई बात नहीं। चलो .. फ़िलहाल अभी तो 'किचेन' में जल्दी से जा कर अपने इन हाथों से एक 'कप' अदरख़-तेजपत्ता वाली कड़क चाय बना कर लाओ। फिर काम करने बैठूं। काढ़ा दोपहर में पिला देना।"
"ठीक है .. अभी आयी ..."

आज :-

सन् 2021 ईस्वी का जून महीना। तेरह तारीख़, दिन-रविवार। सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे का समय।
"अव्वी !" - अवनि लगभग झकझोरते हुए अवनीश को जगा रही है।
"अरे ! .. क्या हुआ ?.. इतनी क्यों चीख़ रही हो। आज 'सन्डे' है। आज तो कम से कम आराम से सोने दो ना अव्वी ! .. 'प्लीज़' .. अभी सोने दो ..."
"अव्वी, अभी-अभी मंझले मामा जी की छोटी वाली बेटी- समीरा का फ़ोन आया था। मामी जी भी बात कीं। रो -रो के बुरा हाल है दोनों का"
"अरे ! .. क्या हुआ ? .. क्या हो गया सुबह-सुबह ?"- अवनीश घबरा कर बिस्तर पर उठ बैठे।
" मंझले मामा जी नहीं रहे अव्वी।" - अवनि रुआँसी हो गयी।
"मामी जी कह रही थीं, कि कल रात ठीक ही थे। समय से खा-पीकर और कल शनिवार को रात दस बजे आने वाले रजत शर्मा की "आपकी अदालत" 'इंडिया टीवी' पर देख कर देर से सोए थे।"
"फिर ? .. अचानक ?.."
"समीरा बतला रही थी, कि सुबह चार-सवा चार बजे अचानक अपने सीने में दर्द कहते हुए उठे। मामी जी और समीरा को आवाज़ दिए। मामी जी तो पास में ही सोयी थीं, आवाज़ पा कर जाग गईं और समीरा भी बगल वाले कमरे से जाग कर फ़ौरन आयी।"
"बहुत ही दुःखद बात है .."
"अंत समय में .. समीरा के हाथ को कस के पकड़ लिए थे और रोने लगे थे। कहने लगे .. बेटा माफ़ कर देना। तुम्हारी शादी नहीं ... कहते-कहते उनकी जुबान लड़खड़ा गयी। शरीर निढाल हो गया। समीरा के हाथ को पकड़े हुए उनके हाथ की पकड़ ढिली पड़ गयी।"
"ओह ! ..."
"फोन कर के पास वाले डॉक्टर अंकल को बुलाया गया था। वह आकर जाँच कर के बतलाए कि मामा जी अब नहीं रहे। उनको 'मैसिव हार्ट अटैक' आया था। डॉक्टर अंकल बोल रहे थे, कि समय पर इलाज मिल पाता तो .. शायद ..." - अवनि बोलते-बोलते रो पड़ी -
"पर इतनी जल्दी में सारा कुछ हो गया, कि किसी को कुछ भी करने का मौका ही नहीं मिला .."
अब तक अवनीश नींद की गिरफ़्त से पूर्णतः बाहर आ चुके थे। बिस्तर से उठ कर, तेजी से 'वाश रूम' की ओर भागते हुए अवनि को बोले -"तुम भी जल्दी से 'फ़्रेश' होकर तैयार हो जाओ। हम भी आ रहे हैं। हम दोनों को फ़ौरन वहाँ जाना चाहिए।"
आधे घन्टे में दोनों झटपट मामी जी के घर जाने के लिए तैयार हो गए। पर .. अवनि से नहीं रहा गया। वह अपने मन की एक ऊहापोह मिटाने के लिए अवनीश से सवाल पूछ ही बैठी, कि - "अव्वी, पापा जी के वक्त मामा जी, जिस किसी भी कारण से हो, एक शहर में रह कर भी नहीं आए थे। मंझली बेटी की शादी में, जिस किसी भी कारण से हो, बुलाये भी नहीं।"
"तो ?"
"तो फिर ..  अव्वी .. आप कैसे बिना बुलाए उनके यहाँ जाने के लिए अपने मन से तैयार हो गए ?"
"देखो (सुनो) अव्वी, मामा जी उस वक्त नहीं आए, ये उनकी सोच पर आधारित उनका फैसला था। वैसे भी तो ... तुम गौर से देखोगी, कि हमारे समाज की अधिकांश परम्पराएं सभ्यता-संस्कृति के नाम पर सदियों से चली आ रही अंधपरम्पराएँ हैं। जिनमें समय के अनुसार परिवर्त्तन की आवश्यकता है। सोचो ना जरा .. कोई भी परम्परा इंसान की सुविधा के लिए होनी चाहिए, ना कि बाधा बनने के लिए।"
"हाँ ... वो तो है ..."
"आज देखो कि दो माह पहले ही शादी किए हैं मनीषा की और स्वयं ही चले गए। ऐसे में धाराशायी हो गयी ना सूतक मानने वाली अंधपरम्परा और हाँ .. एक और बात, कि किसी के घर उसकी ख़ुशी में शरीक़ होने ना भी जाओ, तो कम से कम और जरूर से जरूर उसकी विपदा की घड़ी में उसके क़रीब जाना चाहिए। ऐसे मौकों पर कोई बुलाता नहीं अव्वी, बल्कि मानवता के नाते हमें जाना होता है या यूँ कहो कि जाना ही चाहिए।"
"हम तो तैयार ही हैं .. बस यूँ ही ... मन में एक बात आयी तो, पूछ लिया आपसे।"
"फिर .. इस शहर में हमलोगों के सिवाय उनका नजदीकी रिश्तेदार कोई है भी तो नहीं। उनके किसी भी रिश्तेदार को अन्य शहर से यहाँ आने में कम से कम सात से आठ घण्टे लगेगें। हो सकता है कि इस कोरोनाकाल में कोरोना के डर से कई लोग आएं भी ना।"
"हाँ, सही कह रहे आप। ऐसा हो सकता है।"
मम्मी को इस दुःखद घटना की जानकारी देकर, दोनों अपनी 'बाइक' पर अपने घर से मात्र लगभग सात किलोमीटर दूर मामा जी के घर के लिए निकल पड़े हैं।

आज ही मामा जी के घर पर :-

घर में प्रवेश करते ही मामी जी और समीरा अवनि से लिपट कर रोने लगीं- "पापा हम को छोड़ के चले गए दीदी। अब हम अनाथ हो गए।"
अवनि ने दोनों को सम्भाला- "ऐसा नहीं बोलते। अभी मामी जी हैं। और हमलोग भी तो हैं ही ना .. ऐसा क्यों सोचती हो तुम।"
अवनीश एक टक से अतिथि कक्ष में जमीन पर एक बिछाए चादर पर पड़े हुए मामा जी के शव को निहार रहे थे। लग रहा था मानो अभी सोए हुए हों। बस .. जाग कर उठ बैठेंगे। पास ही आठ-दस अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं। अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि जिस बाँस के सहारे अभी अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं, उसी बाँस की अर्थी पर सवार हो कर हम इंसानों का शरीर भी सुलग कर .. ना, ना, धधक-धधक कर जल कर राख हो जाता है।
थोड़ा सामान्य होने पर समीरा से पता चला कि रमण 'अंकल' सुबह आये थे। कुछ देर में 'फ़्रेश' हो कर आने बोल गए हैं। दरसअल रमण 'अंकल' मामा जी के गाँव के ही, चार घर छोड़ कर, रहने वाले हैं। एक ही जाति के भी हैं। दोनों साथ ही गाँव के 'हाई स्कूल' से पास किये और शहर के एक ही 'कॉलेज' में पढ़ाई पूरी कर के एक ही साथ इस शहर की 'स्टील' की बड़ी 'फैक्ट्री' में नौकरी 'ज्वाइन' कर ली थी। दोनों साथ ही 'रिटायर' भी हुए हैं। लब्बोलुआब ये कि दोनों लँगोटिया यार रहे हैं। एक बार नौकरी करने आए इस शहर में तो फिर इसी शहर में दोनों ही बस गए हैं।
मामी जी से ये भी पता चला कि सरिता और "मेहमान" (सरिता के पति) पाँच-छः घंटे में आ जायेंगे। मनीषा और मेहमान 'हनीमून' के लिए मालदीव गए हुए हैं, इसलिए उनका समय पर आना सम्भव नहीं है। मुहल्ले में आस-पड़ोस से भी कोरोना के डर से कोई भी झाँकने नहीं आया। अभी किसी तरह भी, किसी की भी मृत्यु हो, तो लोग कोरोना के डर से नहीं आते हैं।
लगभग आधे घन्टे बाद रमण 'अंकल' अपने लगभग तीस वर्षीय इकलौते बेटे- पवन के साथ आ गए हैं। पंडित जी से फोन पर बात कर के एक 'लिस्ट' लिख ली गई है। बाद में अवनीश, रमण 'अंकल' और पवन, सभी आपस में सलाह-मशविरा कर के उस एक 'लिस्ट' से दो 'लिस्ट' बना लिए हैं और बाँस-कफ़न की जुगत में निकल पड़े हैं। पवन अपनी 'बाइक' से अलग और अवनीश रमण 'अंकल' के साथ अलग ओर, ताकि सारा काम समय से निपट जाए।
अब तक रमण 'अंकल', अवनीश और पवन बाज़ार से आ गए हैं। सरिता से समीरा की बात हुई है अभी-अभी। बस .. वह और मेहमान पहुँचने ही वाले हैं। तब तक घर में मामा जी को नहलाने, हल्दी लगाने जैसी रस्में सब लोग पूरी कर रहे हैं। अर्थी सजते-सजते मनीषा और उनके पति आ गए। एक बार फिर से समूह-रुदन की आवाज़ सीने को चीरने लगी है। अब मामा जी को श्मशान घाट ले जाने की भी बारी आ चुकी है।
इधर अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि आज मामा जी की अर्थी को मिलने वाले चार कन्धों में चौथा कंधा उनका होगा। एक- रमण 'अंकल', दूसरा सरिता के पति का, तीसरा रमण 'अंकल' के बेटे पवन का और .. चौथा .. स्वयं अवनीश का। बस ... चार दिन की ज़िन्दगी के पटाक्षेप के बाद मात्र चार कंधे ही तो चाहिए। बाक़ी तो सब .. कहते हैं ना .. कि बाक़ी सब तो मोह-माया है। चाहे समाज की भीड़ हो या समाज की रस्म-रिवाजें। अब आज ही कहाँ गई उन पचास लोगों की भीड़, जो इनकी मँझली बेटी की शादी में जुटी थी। आज कहाँ पालन हो पा रहा है, उस परम्परा की, जिसमें शादी करने के बाद एक साल तक अभिभावक या वे नवविवाहित जोड़ें किसी के मृत्यु होने वाले घर में नहीं आ-जा सकते हैं, वर्ना अपशकुन हो जाता है। मामा जी ने भी तो अपनी मनीषा की शादी लगभग ढाई महीने पहले ही तो की है और आज खुद ही, ख़ुद के घर में मृत पड़े हैं।
अब तक देखते-देखते मामा जी के जाने का समय भी आ ही गया है। मामी जी, सरिता और समीरा, तीनों दरवाजे को छेक कर खड़ी हो गई हैं, किसी शादी में होने वाली द्वार-छेकाई वाली रस्म की तरह-
"मत ले जाइए पापा को।"
"मत ले जाइए मेहमान इनको .. इनके बिना कैसे जी पाएंगे हम। सरिता ! .. समीरा ! .. रोक लो ना पापा को। सरिता ! तुम्हारी बातें तो पापा कभी नहीं टालते हैं ना ! समीरा ! जगाओ ना पापा को । "
मामी जी बेहोश होकर गिर गईं हैं। अवनि ग्लास में पानी अंदर से लाकर मामी जी के मुँह पर छींटा मारती है - "संभालिए मामी जी अपने आप को। अगर आप ऐसे करेंगी तो समीरा, सरिता का क्या होगा। ये सोची हैं अभी? 'प्लीज' संभालिए अपने आप को। समीरा चुप हो जाओ। अपने मन पर काबू रखो सरिता। तुम लोग ऐसे अगर देह छोड़ दोगी, तो घर कौन संभालेगा भला .. बोलो ?"
अब चारों लोगों के कंधे पर सवार होकर मामा जी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हैं- "राम नाम सत्य है।" ... पर अवनीश के मन में राम-नाम की जगह कुछ और ही चल रहा है- "काश ! समाज की उन तमाम बेबुनियाद रस्म-रिवाजों, दकियानूसी सोचों वाली परम्पराओं को भी वह इसी तरह अर्थी पर सजा कर किसी धधकती चिता पर जला पाता .. काश ! ... बस .. केवल तीन अन्य कंधों की तलाश है; क्योंकि  उसका तो है ही ना .. चौथा कंधा .. शायद ...

(आइये .. इस बोझिल माहौल के बोझ को कुछ हल्का करने के लिए सुनते हैं ... साहिर लुधियानवी जी के शब्दों-सोचों को .. गाने की शक़्ल में .. बस यूँ ही ... )