बना कर दहेज़ की रक़म को आधार
करते हैं सब यूँ तो रिश्तों का व्यापार
वधु-पक्ष ढूँढ़ते जो पाए अच्छी पगार
वर खोजे नयन-नक़्श की तीखी धार
मिलाते जन्मपत्री भी दोनों बारम्बार
मँहगी बारात में मिलते दोनों परिवार
साहिब ! यही पति होता क्या सच में दिलदार ?...
जिसे दहेज़ की ना हो कोई दरकार
चेहरे की सुन्दरता करे जो दरकिनार
उत्तम विचारों को ही करे जो स्वीकार
फिर चाहे जले हो तेज़ाब से रुख़्सार
या कोई वेश्या पायी समाज से दुत्कार **
करे मन से जो निज जीवन में स्वीकार
साहिब ! वही है ना शायद एक सच्चा दिलदार ?...
** - परित्यक्ता हो कोई या किए गए हों बलात्कार
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१६ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी ! आभार आपका ...
Deleteबड़ी मुश्किल से मयस्सर होते हैं जहाँ में ऐसे बरखुरदार!
ReplyDeleteइन उम्दा खयालातों का आभार।
रचना तक आने के लिए तहेदिल से आपकी शुक्रिया सरकार !!!...
Deleteसुबोध भाई, ऐसे सच्चे दिलदार मिलना बहुत ही मुश्किल हैं।
ReplyDeleteज्योति बहन ! मुश्किल है .. पर नामुमकिन नहीं ... वैसे भी कोयले के खान में हीरा और युगों में आइन्स्टाइन या सुकरात कम ही मिलते या पैदा होते हैं ... काश! .....
Deleteवाह!!आपकी सोच को नमन 👍
ReplyDeleteजी ! आपको भी मेरा नमन और आभार आपका रचना तक आने के लिए ...
Deleteबहुत बढ़िया और सार्थक।
ReplyDeleteजी ! नमन आपको और आभार आपका रचना के मर्म तक आकर रचना/विचार का मान बढ़ाने के लिए ...
Deleteहर एक को ऐसे ही सच्चे दिलदार की खवाहिश होती हैं ,सुंदर सोच और बेहतरीन सृजन ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ..
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