Saturday, August 26, 2023

इस अँधेरे से डरता हूँ मैं .. शायद ...

"ठंडा मतलब कोका कोला" - एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के 'कार्बोनेटेड' शीतल पेय जैसे उत्पाद के इस विज्ञापन की 'पंच लाइन' से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ़ है। आप भी हैं और हम भी .. शायद ...

हालांकि अगस्त, 2003 में ही "विज्ञान और पर्यावरण केंद्र" की निदेशक और प्रसिद्ध पर्यावरणविद् "सुनीता नारायण" ने इसके निर्माण सामग्री में उपस्थित रसायनों .. ख़ासकर कीटनाशक की गलत प्रतिशत मात्रा के आधार पर स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से इसे एक हानिकारक शीतल पेय होने के कई सारे प्रमाण प्रस्तुत किए थे। इसके बावज़ूद अपने देश क्या समस्त विश्व भर में यह मीठा ज़हर लोगों को लोकप्रिय है। ये विडंबना है कि हमारी एक-तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या "सपना चौधरी" से तो वाकिफ़ है, पर सुनीता नारायण से या उनकी लाभप्रद बातों से पूर्णतः या आंशिक रूप से अनभिज्ञ हैं या फिर जान कर भी अंजान हैं .. शायद ...

ख़ैर ! .. अभी का विषय इस शीतल पेय के गुण-अवगुणों के विश्लेषण करने का नहीं है, बल्कि इसके बहुचर्चित  'पंच लाइन' वाले विज्ञापन के रचनाकार को जानने का है। यूँ तो यह भी सर्वविदित है कि इसके रचनाकार हैं- प्रसून जोशी .. जोकि एक प्रसिद्ध हिन्दी कवि, लेखक, पटकथा लेखक होने के साथ-साथ भारतीय सिनेमा के गीतकार भी हैं। एक अजीबोग़रीब विडंबना है, कि हम फ़िल्मी गीतकारों की रचना को साहित्यिक मानने में प्रायः कोताही बरतते हैं। वैसे तो वह एक अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञापन कंपनी "मैकऐन इरिक्सन" के कार्यकारी अध्यक्ष के साथ-साथ भारत के "फ़िल्म सेंसर बोर्ड" के भी अध्यक्ष हैं। फ़िल्म- "तारे ज़मीन पर" के गाने -

"मैं कभी, बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ 

यूँ तो मैं, दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ 

तुझे सब है पता, है न माँ तुझे सब है पता.. मेरी माँ" ~~~~

के लिए उन्हें "राष्ट्रीय पुरस्कार" भी मिल चुका है।

अब थोड़ी-सी चर्चा कर ली जाए एक सर्वविदित व्यक्तित्व की। दूरदर्शन के 'सीरियल'- "हमराही" की "देवकी भौजाई", फ़िल्म - "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" की "बुआ जी", फ़िल्म - "हम आपके है कौन" की "डॉ रज़िया" के साथ-साथ "हप्पू की उलटन पलटन" जैसी वर्तमान में भी प्रसारित होने वाली 'टी वी सीरियल' के मुख्य क़िरदार हप्पू सिंह के "अम्मा जी" को भला कौन नहीं जानता-पहचानता भला यहाँ .. जो यूँ हैं तो एक 'स्कूल टीचर'- हरी दत्त भट्ट जी की 'आर्गेनिक केमेस्ट्री' में परास्नातक बेटी, परन्तु अपनी विधा के पारंगत और फ़िल्म- 'बैंडिट क्वीन' में "फूल सिंह" के क़िरदार के अलावा "अंतहीन", "तू चोर मैं सिपाही", "अब आएगा मजा" और "बाबुल" जैसी फिल्मों के अभिनेता रहे- ज्ञान शिवपुरी जी से प्रेम विवाह करके वह तथाकथित भारतीय (अंध)परम्परा के तहत हिमानी भट्ट से हिमानी शिवपुरी बन गयीं। उनके जिस नाम से ही आज हम सभी अवगत हैं। हालांकि आज वह विधवा हैं और आज भी वह बिंदास हास्य अभिनय कर रहीं हैं अनवरत, अथक।

अब संक्षेप में बात कर लेते हैं .. केरल कैडर से एक 'आईपीएस' की जो 'इंटेलिजेंस ब्यूरो' के 'चीफ' के पद से 'रिटायर' होने के बाद वर्तमान में अपने स्वदेश के सर्वविदित पाँचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं - अजित कुमार डोभाल जी की।

प्रसून जोशी, हिमानी शिवपुरी जी और अजित कुमार डोभाल जी ..तीनों के तीनों अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में माहिर हैं, प्रसिद्ध हैं .. पर तीनों में एक समानता है .. कि .. तीनों के तीनों ही उत्तराखण्ड (वे अपने-अपने जन्म के समय तत्कालीन उत्तरप्रदेश) राज्य के रहने वाले हैं। अजित कुमार डोभाल जी उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के पौड़ी गढ़वाल से, हिमानी भट्ट उर्फ़ हिमानी  शिवपुरी जी वर्तमान राजधानी देहरादून से और प्रसून जोशी जी यहाँ के कुमाऊँ क्षेत्र के अलमोड़ा जिला से हैं।

अब आज तीनों की चर्चा एक साथ करने का मेरा उद्देश्य केवल यह बतलाना है, कि आज तीनों को पूरा देश जानता है। जानता है, ये तो आपको भी मालूम है। हमको भी मालूम है। पर यह बतकही उनलोगो के लिए है, जो क्षेत्रवादिता में मदान्ध अपनी नयी पीढ़ी को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति बचाने की आड़ लेकर धीमी गति के विष दे रहे हैं। ऐसे में इनकी भाषा, संस्कृति जीवित रहेगी या नहीं पर नयी पीढ़ी की मानसिक बढ़त जरूर थम जायेगी .. मर-सी जायेगी .. शायद ...

जब कभी भी प्रसून जोशी लिखते हैं -

"मैं कभी, बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ 

यूँ तो मैं, दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ 

तुझे सब है पता, है न माँ तुझे सब है पता.. मेरी माँ" ~~~~

तो वह पूरे भारत की माँ के लिए लिखते हैं .. भारत की हर माँ को सम्बोधित करते हैं। हिमानी शिवपुरी जी पूरे भारत की देवकी भौजाई प्रतीत होती हैं .. और अपने उत्कृष्ट  अभिनय से समस्त भारत का मनोरंजन करती हैं .. और जब अजित कुमार डोभाल जी स्वदेश की रक्षा के लिए कोई भी रणनीति तैयार करते हैं तो पूरे भारत के लिए, नाकि केवल उत्तराखण्ड के लिए। 

उपरोक्त सारी बतकही का लब्बोलुआब ये है कि प्रसून जोशी कुछ भी लिखते हैं तो पूरे भारत के लिए, हिमानी शिवपुरी जी कोई भी अभिनय करती हैं तो समस्त भारतवासी के मनोरंजन के लिए और अजित कुमार डोभाल जी रक्षा की बात सोचते हैं तो सम्पूर्ण भारत की सोचते हैं। तभी तो समस्त भारत ही क्या समस्त विश्व में भी लोग उनके नाम से वाकिफ़ हैं और इन क्षेत्रवादियों को सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की वादियों में भी हर कोई नहीं जानता .. शायद ...

ये लोग कभी भी मदान्ध हो होकर केवल गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी बोलने से ही अपनी संस्कृति बचने की बात नहीं करते या बाहरी राज्य वालों को 'एलियन' की तरह नहीं देखते या फिर नयी 'डोमिसाइल' योजना की बात नहीं करते .. "बड़ा" सोचते हैं .. विस्तृत सोचते हैं .. तभी "बड़े" (अमीर वाले बड़े नहीं) हैं .. क्षेत्रवादिता की संकुचित विचारधारा वालों को एक बार इस देव की नगरी- देवनगरी यानि चारों धाम को समाहित किये हुए शिव की नगरी वाले पावन राज्य में तथाकथित शिव की उपासना में पंडित नरेन्द्र शर्मा जी द्वारा रचित शिव भजन के मुखड़े "सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~" के साथ-साथ इसके अंतराओं -  

(१)

राम अवध में,काशी में शिव,

कान्हा वृन्दावन में,

दया करो प्रभु, देखूँ इनको,

हर घर के आँगन में,

राधा मोहन शरणम्,

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~

                  और

(२)

एक सूर्य है, एक गगन है,

एक ही धरती माता,

दया करो प्रभु, एक बने सब,

सबका एक से नाता,

राधा मोहन शरणम्,

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~

पर भी ध्यान केन्द्रित करके हमें पुनः अपने चिन्तन-मनन को विस्तार देना चाहिए .. शिव की जटा वाली उस गंगा की तरह जो बिना भेद किए विस्तार से सभी जाति-वर्ग और धर्म-सम्प्रदाय वालों के लिए कई राज्यों से होते हुए सदियों से अनवरत, अथक, निरन्तर, निःस्वार्थ बही जा रहीं हैं .. और शिव के जटा वाले उस चाँद की तरह जो बिना भेद किए ..  हम हरेक समस्त धरतीवासी को अपनी चाँदनी की शीतलता वर्षों से बिना भेद किए प्रदान किये जा रहा है .. शायद ...

हम सभी पूरी पृथ्वी के लिए धरती माता सम्बोधन व्यवहार में लाते हैं .. शायद केवल मौखिक रूप से .. वर्ना हम विदेशियों की तो बात छोड़ ही दें बंधु ! .. हम तो इतर राज्यों वालों के समक्ष स्वयं को "पहाड़ी" मान कर, सोच कर, बोल कर इतराते नहीं और सामने वाले से कतराते नहीं .. शायद ... वैसे तो यहाँ अन्य राज्यों की तरह आपस में भी भेद ही भेद हैं। उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ सर्वाधिक तथाकथित ब्राह्मणों वाले राज्यों में अकेले उत्तराखण्ड में लगभग पचहत्तर किस्म के ब्राह्मण हैं। इनके अलावा अन्य जातियाँ-सम्प्रदाय के लोग जो हैं , सो तो हैं ही। 

उपरोक्त सारी बतकही उन सभी राज्यों या स्थानों के लिए भी अक्षरशः सत्य हैं, जहाँ-जहाँ इस तरह का भेदभाव किया जाता है .. शायद ...

ख़ैर ! .. जाने भी दिजिए लोगों को .. लोग तो अपनी डफली - अपना राग के आदी हैं। हम भला क्यों राग-संगीत का मौका जाने दें अपने हाथों से .. जीवन भला है ही कितने दिन की .. है ना ? .. तो आइए .. सुनते हैं पहले प्रसून जोशी की रचना को, जिसे फ़िल्म- "तारे ज़मीन पर" के लिए संगीत से सजाया है शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी ने और आवाज़ दी है इसी तिकड़ी में से एक स्वयं- शंकर महादेवन ने। साथ ही सुनते हैं ... पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की रचना को जिसे फ़िल्म - "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" के लिए संगीतबद्ध किया था- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी की जोड़ी ने और आवाज़ से सजाया था- लता जी ने .. बस यूँ ही ...



( Both Videos Courtesy - @T-Series & @Music World respectively. )


Friday, August 25, 2023

बाप की तारीफ़ में कंजूसी काहे ...

चंद्रयान के 'लैंडिंग' के वक्त चाँद पर

'रोवर' की रफ़्तार कम करने जैसी, 

आरम्भ हुई थी जो मुहीम कम करने की

आपातकाल के साल में, जनसंख्या अपनी,

ज़बरन कुँवारों तक की तब करवायी गयी थी नसबंदी,

"बीरू " के मना करने पर भी नकियाती "बसंती"

नाच रही थी गब्बर के आगे तब ता-ता थैया-ता-ता थैया,

नज़रबन्द 'मीडिया', रहबर सारे, जब देश डूब रियो थो, 

तब "बर्मन दा" के सपूत "शोले" में गा रियो थो भाया-

"दिल डूबा ~~ ओ महबूबा ~~ ऐ महबूबा ~~~"।

पर आज वर्षों बाद भी छिद्रान्वेषण में लीन, 

"लगे रहो मुन्ना भाई" की तरह तल्लीन,

कर ही डाले मिलकर सारे अब तक बढ़ोतरी तिगुनी,  

चौगुनी तक करने की भी है कोशिश जारी,

पड़ोसी से है होड़ लगी जो, उससे भी है ऊपर जानी भाया।


मची है अब अफ़रा-तफ़री ,

अब सूझ रही इनको बेरोजगारी,

ठहरा कर दोषी सरकार को 

बेरोजगारी की चिल्ल-पों मचाने वालों,

हल तो हो इसको भी एक तगड़ो-सो भाया।

है जब घर में एक-दो ही दाई-नौकर की आवश्यकता,

फिर भी अपने घर दस-बीस क्यों नहीं रख रियो हो भाया,

बेरोजगारी की समस्या भी हल हो जावेगी

और काम भी वो तेरे सारे, वे सारे मिल के निपटावेंगे

और खाली समय में तुम सब मिलकर 

चौगुनी-पाँचगुनी वृद्धि में .. क्या कर रियो हो भाया ? 

चंद्रयान के 'लैंडिंग' के वक्त चाँद पर 'रोवर' की 

रफ़्तार जैसी, रफ़्तार धीमी क्यों नहीं कर रियो हो भाया ?


शहर चाहिए 'सिटी-मेट्रो' जैसी, सड़कें भी चिकनी-चौड़ी,

पर पेड़ काटे जाने पर क्यों तेरो दम घुट रियो हो भाया ?

'गैजेटस्' चाहिए तुमको तो विज्ञान की तरक्की से पनपी

सारी की सारी, फिर चिन्ता भला तुम क्यों पर्यावरण की 

'सोशल मीडिया' में झूठ-मूठ चिपका रियो हो भाया ?

शराबों-सिगरेटों से कैंसर होने के भय वाले सारे

विज्ञापनों के ही क्या भाया, देश के भी तो ख़र्चे सारे

'एक्साइज ड्यूटी' से इनके ही निकल रियो है भाया।

इन्हीं हानिकारक बतलाने वाले सरकारी विज्ञापनों जैसी

अरे .. हाल तुम्हारो तो हो रियो है भाया।


मौसम की मार से जो हुआ टमाटर महँगा,

हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ...

सरकार इसके लिए भी कोई 'कोल्डस्टोरेज' या फिर

'फैक्ट्री' देवे कोई खोल, ऐसा क्या सोच रियो हो भाया ?

अपने-अपने छत पर 'किचेन गार्डेन' में भला 

टमाटर क्यों नहीं उगा रियो हो भाया ?

गैस की तरह इसकी भी 'सब्सिडी' ख़ोज रियो हो भाया ?


घरवाली ने जो बनायी हो स्वादिष्ट तसमई या बिरयानी,

ऐसे में प्रशंसा तो उसकी करनी ही है बनती, पर ...

अगर पति जो सोच रियो हो हाड़तोड़ मेहनत को अपनी,

जिससे तेल, मसाले, बासमती चावल, दूध, शक्कर,

पकने और खाने के सारे बर्त्तन और 'गैस सिलेंडर',

रसोईघर तक तसमई या बिरयानी पकने को सब थो आयो,

इस योगदान की ख़ातिर भी जो पति को मिल रही प्रशंसा,

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ...

ये अब नागवार तुम्हें क्यों गुजर रियो है भाया ?

किसान जो उपजाओ तसमई या बिरयानी के चावल 

उसे भी हक़ है अपनों छप्पन इंच सीनो फुलानो को भाया

नहीं क्या ? क्या बोल रियो हो, क्या सोच रियो हो भाया ?


अब अगर जो बेटा 'आईआईटीयन' या ...

'आईएएस-आईपीएस' बन गयो हो भाया,

उसकी तारीफ़ तो होनो ही चाहो हो भाया,

पर बाप की बेटे को पढ़ाने वाली वर्षों की योजना,

बेटे की पढ़ाई में ख़र्च कियो गयो बाप को रुपया,

ये सब भी तो हक़दार हैं बाप की तारीफ़ को भाया।

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ... बेटे के साथ 

बाप की तारीफ़ में कंजूसी काहे कर रियो हो भाया ?


सब "अंधभक्त" दिख रहे तुमको, पर तुम तो अपनी

आँखों से टीन को चश्मो क्यों नहीं उतार रहो हो भाया ?

पता है, गा तो सकते नहीं, गुनगुना भर ही तो लो अब,

अपने " गोपालदास (सक्सेना) 'नीरज' " जी को भाया,

" चश्मा उतारो, फिर देखो यारों,

   दुनिया नयी है, चेहरा पुराना, कहता है जोकर   ..."

सोच रियो है भाया इस लेखन के क्षेत्र में भी जो होतो,

जाति के नाम पर मुस्टंडों को भी आरक्षण जैसी भिक्षा, 

तो लेखन की क्या दुर्गति हो गयो होतो भाया ?

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ... 

मैं सोच रिया हूँ, कुछ तुम भी क्यों ना सोच रियो हो भाया ? .. बस यूँ ही ...

【चलते-चलते आइए अपने मन के कसैलेपन को दूर करने की ख़ातिर सुनते हैं " गोपालदास (सक्सेना) 'नीरज' " जी की अमर रचना को शंकर-जयकिशन जी के संगीत की चाशनी में डूबी मुकेश जी की सुरीली आवाज़ में .. बस यूँ ही ... 】



(Video Courtesy - @musictotheinfinity)


Thursday, August 24, 2023

पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ) और पुंश्चली .. (६) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे तो आज मन्टू की शादी ना करने की अटल ज़िद्द की वज़ह और एक पन्तुआ के कारण रंजन व अंजलि की हुई पहचान वाली बतकही करने की बात हुई थी अपनी। 

पर अभी-अभी इसी मुहल्ले में रहने वाले वक़ील साहब रोज की तरह सुबह-सुबह की चाय पीने अपने नियत समय पर रसिकवा की चाय की दुकान के सामने रखे बेंच पर .. बस विराजमान होने ही आ रहे हैं। मन्टू और रंजन-अंजलि की तो बीती बातें फिर बाद में भी होती रहेंगी। फ़िलहाल वक़ील साहब और उनकी 'टीम' की गतिविधियों पर नज़र रखना ज्यादा जरूरी है .. शायद ...

यहाँ पहले से ही उनका पेशकार उनकी प्रतीक्षा में उनके दो मुवक्किलों के साथ आधे घन्टे पहले से बैठा हुआ है। दरअसल आज ही इन दोनों मुवक्किलों के 'केस' की तारीख़ है। इन वक़ील साहब की पुरानी आदत है, 'कोर्ट' में पड़ी तारीख़ के दिन न्यायालय परिसर तक जाने के पहले सुबह कम से कम आधे से एक घन्टे तक के लिए अपने मुवक्किलों को इसी मुहल्ले वाली रसिक चाय दुकान पर बुला कर उनसे मिलना। मिलने के समय की अवधि आधे से लेकर एक घन्टे तक के बीच प्रायः मुवक्किलों के 'केस' के वजन पर निर्भर करता है। मिल कर उनके 'केस' से सम्बन्धित जरूरी दाँव-पेंच उनको बतलाने के साथ-साथ उनसे मिले आवश्यक कागज़ातों की गहनता से उनके सामने ही जाँच-पड़ताल भी कर लेते हैं। 

कई दफ़ा तो रसिकवा के कोयले वाले चूल्हे से राख़ लेकर उनके पेशकार को कुछ कागज़ातों पर मलते-रगड़ते भी देखा जाता है। उस कागज़ को तोड़-मरोड़ कर बदशक्ल करते भी देखा गया है। वक़ील साहब की अनुपस्थिति में उनके उसी पेशकार से कभी-कभी इसकी जानकारी लेने पर वह बतलाता है कि 'कोर्ट' में बहस के दौरान 'केस' जीतने के पक्ष में दलील देते हुए सबूत के तौर पर कुछ पुराने इकरारनामे या कोई प्रमाण पत्र जज साहब के सामने पेश करने पड़ते हैं, जो कि पहले से होता ही नहीं है। इसे तो वक़ील साहब के तिकड़मी दिमाग़ के बदौलत आनन-फ़ानन में तैयार करवा के पुराने होने के दावे भर किये जाने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं। .. शायद ...

हम इंसानों के समाज में भी तो मूल मन और सोच को परिष्कृत करने की बजाए ठीक इसी तरह ही तन को 'ब्रांडेड' परिधानों से लिपटाए, कृत्रिम रासायनिक सौंदर्य प्रसाधनों को चुपड़े और ऊपरी सज्जनता वाली भाव-भंगिमाओं के वैशाखी के सहारे .. इसी तरह हम सभी अपनी-अपनी तिकड़मी चाल के मुताबिक अपने-अपने बनावटी शरीफ़ चेहरों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते नज़र आते हैं अक़्सर .. शायद ...

वक़ील साहब के विशाल पुश्तैनी मकान में पिता जी के देहांत के बाद हुए बँटवारे के बाद भी उनके बरामदे और बैठकखाने में तो इतनी जगह है, कि वह अपने पेशकार और मुवक्किलों को वहीं घर पर बुलाने के बाद सुबह बैठा कर चाय भी पिला सकते हैं और 'केस' से सम्बन्धित बातचीत भी कर सकते हैं। पर ऐसा नहीं करने का एक वजह तो उनकी अंदरुनी समस्या है और दूसरी लाभ-हानि के जोड़-घटाव की है .. शायद ...

उनकी अंदरुनी समस्या .. मतलब .. दरअसल वक़ील साहब की धर्मपत्नी बहुत ही ज्यादा जाति-धर्म के नाम पर छुआछूत की भावना मन में किसी लोहे के तवे की पेंदी में जमे कालेपन की तरह जमा कर रखने वाली हैं। जबकि उनके घर की दाल-रोटी में हर जाति-धर्म के मुवक्किलों के पैसों का योगदान तो होता ही है। फिर भी उनकी नज़र में किसी का धर्म बहुत ही बुरा है, तो किसी की जाति घर में बिठाने लायक नहीं है। घर के बर्तनों में ऐसे लोगों को चाय-पानी कराना तो उनके यहाँ कोई सोच ही नहीं सकता है कभी भी।

दूसरी तरफ रसिक की दुकान में चाय पीने से घर पर बनने वाली चाय में घर की चाय पत्ती, दूध, चीनी के अलावा जूठे बर्तनों को साफ़ करने में लगने वाले 'डिटर्जेंट' साबुन में होने वाले ख़र्चे की बचत हो जाती है और .. उल्टा एक-दो बार या उससे भी ज्यादा बार सभी द्वारा पी गयी रसिकवा की चाय की क़ीमत बेचारे मुवक्किलों को ही भरनी पड़ती है। प्रायः खैनी खाने वाले मुवक्किल से पेशकार का काम चल जाता है और जो कोई सिगरेट ना भी पीने वाला हो, तो भी वक़ील साहब को तो अपने जेब से खरीद कर पिलाना ही पड़ता है हर रोज तारीख़ पड़ने पर।

अभी-अभी वक़ील साहब के आते ही रसिकवा का लगभग बारह वर्षीय एकलौता 'स्टाफ'- कलुआ कुल्हड़ में सभी के लिए चाय लेकर हाज़िर हो गया है। एक मुवक्किल पहले से उनके लिए लाए 'विल्स फ़िल्टर' सिगरेट का एक डब्बा और एक माचिस उनको पकड़ा रहा है। पर वक़ील साहब माचिस अपने जेब के हवाले करते हुए अपने दूसरे जेब से किसी मुवक्किल द्वारा भेंट में दी गयी एक विदेशी 'लाइटर' निकाल कर सिगरेट सुलगा रहे हैं। चाय की चुस्की और सिगरेट के कश के दम पर ही वक़ील साहब के दिमाग़ का घोड़ा 'केस' के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर सरपट दौड़ पाता है .. शायद ...

आज के आए हुए दो मुवक्किलों में से एक- माखन पासवान है, जिस के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई है। दूसरा- असग़र अंसारी है जो अपने अब्बू की पहली पत्नी यानि अपनी सौतेली अम्मी से जने अपने दबंग बड़े सौतेले भाई से अब्बू के घर में अपने हिस्से के लिए एक साल से 'केस' लड़ रहा है।

वक़ील साहब के सिगरेट की लम्बाई जैसे-जैसे धुएँ में उड़ कर और राख़ की शक़्ल में झड़ कर घट रही है, माखन पासवान के अपने बेटे की 'केस' जीतने की उम्मीद उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। पर उस बेचारे को क्या मालूम कि वकील लोग कई बार जानबूझकर ऐसी गलती करते हैं, कि कमजोर और ग़रीब मुवक्किल केस हार जाए और इसके बदले में दबंग और अमीर विरोधी पक्ष से उन्हें मोटी रक़म डकारने का मौका मिल जाए। लगभग संवेदनशून्य ही होते हैं अक़्सर ये काले कोट और ख़ाकी वर्दी वाले .. शायद ...

माखन पासवान - " सरकार हम्मर (हमारा) मंगड़ा छुट जायी (जाएगा) ना ? उ (वह) निर्दोष है साहिब .. अब अपने के (आपको) का (क्या) बताऊ (बताएँ) ? "

वक़ील साहब - " बताना तो सब पड़ेगा ही ना माखन ! वैसे चिन्ता मत करो .. छुट जाएगा तुम्हारा बेटा "

माखन पासवान - " सब रुपइया (रुपया) तो खतम (ख़त्म) हो गया सरकार .. मंगड़ा के माए (माँ) के (की) नाक के (की) छुच्छी (लौंग) तक बेच दिए हैं सरकार .. झोपड़ी और झोपड़ी भर जमीन भी सरपंच साहेब के आदमी के पास गिरवी है सरकार .. गिरवी ना रहता तो उ (वो) भी बेच देते मालिक अप्पन (अपने) मंगड़ा के लिए "

वक़ील साहब - " घबराओ नहीं .. सब ठीक हो जाएगा .."

मंगड़ा .. एकलौता बेटा है माखन का .. उसके और उसकी मेहरारू के बुढ़ापे की लाठी समान .. गूँगा भले ही है, पर मालिक लोगों के खेतों में काम कर के कमायी तो कर लाता था। भला घबराएगा क्यों नहीं ! ...

सुगिया के बलात्कार के दिन तो मंगड़ा मलेरिया बुखार से घर में बेसुध पड़ा हुआ था पिछले एक सप्ताह से। अगले दिन उसी हालत में पुलिस उसको झोपड़ी से ज़बरन ले जाकर थाने के हाजत में बन्द कर दी थी। पीछे-पीछे माखन और उसकी मेहरारू रोते-चिल्लाते थाना के 'गेट' तक गये थे। अंदर जाने की ना तो उनकी हिम्मत थी और ना ही थाने के खाक़ीधारी साहिब लोगों की इजाज़त। हाँ .. उसी समय सरपंच और उनका बेटा वहाँ जरूर अपने 'बोलेरो' से अपने आठ-दस चेला-चटिया के साथ थाना के अंदर पधारे थे। लगभग आधा घन्टा तक अंदर रहे थे। 

क्या पता अंदर सिपाही-दारोग़ा मंगड़ा को पीट भी रहे होंगे तो वो बेचारा गूँगा चिल्ला भी तो ना सकेगा। ऐसा सोच-सोच कर माखन और उसकी मेहरारू का मन भीतर ही भीतर कटी हुई गड़ई-माँगुर मछली की तरह छटपटा के रह गया था। वो दिन याद करके माखन की धँसी आँखें छलछला आयी है, जिसे अपनी मटमैली धोती के कोर से सोखने का वह असफल प्रयास कर रहा है। 

अब तक दो बार रसिकवा की कुल्हड़ वाली चाय पी लेने के बाद माखन और असगर दोनों वक़ील साहब और पेशकार की ओर ताक रहे हैं .. मानो पूछ रहे हों कि अभी और भी चाय-सिगरेट लेंगे वक़ील साहब या अब तक के पैसे भुगतान कर दें दोनों मिलकर। 

दोनों को इस बात का जवाब वक़ील साहब के ये कहने से मिल गया कि - " ठीक हैं असगर .. अब निकलो तुम दोनों .. तुमलोग समय से अपने-अपने 'कोर्ट' पहुँच जाना .. पेशकार साहब समय से मिल जायेंगे वहाँ और हम भी। जैसा बतलाए हैं उतना ही बोलना है। ख़ासकर असगर तुमको कह रहे हैं। मंगड़ा के लिए तो कोई लफ़ड़ा ही नहीं है। गूँगा है तो जो कहना है हम कहेंगे और ना तो माखन .. चाहे उसका गवाह बोलेगा ..."

इतना कह कर वक़ील साहब और उनका पेशकार अपने-अपने घर की ओर बढ़ चले हैं। असगर और माखन आपस में मिलकर रसिकवा को पैसे की भुगतान आधा-आधा कर रहे हैं।

तभी कलुआ को सामने से इसी मुहल्ले में ही किराए के मकान में रहने वाले 'ड्यूटी' पर जा रहे सिपाही जी की फटफटिया आती सुनायी और दिखायी भी देती है। उनकी 'एज़डी मोटरसाइकिल' से भड-भड निकलने वाली तेज आवाज़ के कारण ही कलुआ और साथ में सारा मुहल्ला ही इसे फटफटिया कहता है। कलुआ अचानक सजग हो जाता है और मन ही मन मुहल्ला के "बुढ़वा हनुमान" जी से मनता मानता है कि अगर आज सिपाही जी के सामने उससे कोई भूल ना हुई तो बमबम हलवाई के दुकान से लेकर सवा रुपए का मकुदाना (इलायची दाना) चढ़ाएगा ; वर्ना उसको सिपाही जी से भोरे-भोरे माय-बहिन (माँ-बहन) वाली भद्दी-भद्दी गाली सुननी पड़ जाएगी और .. सारा दिन उदास मन लिए बेजान लाश की तरह बना काम करता रहना पड़ेगा। 

रसिकवा के दुकान की चाय .. वो भी मलाई के साथ और एक सिगरेट भी .. माचिस के साथ .. ये किसी मन्दिर के तथाकथित देवी-देवता को नियमित दोनों शाम चढ़ने वाले चढ़ावे की तरह ही सिपाही जी को सुबह-शाम चढ़ाना पड़ता है रसिकवा को .. 'ड्यूटी' जाते समय भी और 'ड्यूटी' से लौटने पर भी। जिसका रोज दोनों शाम चश्मदीद गवाह बनता है बेचारा बारह वर्षीय कलुआ। इसके अलावा आपको पहले भी बतला चुके हैं कि यहाँ फ़ुटपाथ पर दुकान लगाने के बदले में रसिकवा को हर सप्ताह इन्हीं सिपाही जी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है। 

सिपाही जी को अपनी फटफटिया से उतर कर बेंच तक बैठने आने के पहले ही वक़ील साहब के जूठे कुल्हड़ और बेंच पर गिरे सिगरेट की राख़ को कलुआ तेजी से साफ़ कर रहा है। पास आते ही  सिपाही जी को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर "जै (जय) राम जी की सिपाही जी" बोलते हुए अभी उनके लिए बनने वाली 'स्पेशल' चाय के पहले उनके वास्ते उनकी पसन्द के 'ब्रांड' का एक 'गोल्डफ्लैक फ़िल्टर' सिगरेट और माचिस लाने के लिए जा रहा है।

पास में ही कूड़ेदानों में से रोज-रोज अपने मतलब के चीजों को छाँटते हुए अपनी पीठ पर लदी बोरियों में भर कर कबाड़ी के पास बेचने से मिले कुछ रुपयों से अपना पेट पालने वाली- फुलवा .. थोड़ा सुस्ताने के ख्याल से अपने ब्लाऊज में रखे बीड़ी के बंडल से एक बीड़ी और माचिस निकाल कर बीड़ी सुलगाने जा रही है।  

अब तक कलुआ द्वारा मिले सिगरेट-माचिस का सदुपयोग सिपाही जी भी करना शुरू कर दिए हैं। ऐसे में आसपास की हवा में फुलवा की बीड़ी का धुआँ और सिपाही जी के सिगरेट का धुआँ आपस में बिंदास मिलकर उच्च-नीच के भेद को मिटाने का काम कर रहा है। वैसे भी अगर आरक्षण ना रहे समाज में तो उच्च और नीच वाली भावनाओं के पनपने की सम्भावनाएँ कुछ तो कम हो ही सकती है .. शायद ... जिसकी सम्भावना है ही नहीं अपने हाथों में तो फ़िलहाल .. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. फिलहाल तो .. फ़िलहाल की बात करें कि .. उपरोक्त दृष्टान्तों में, जो कई चौक-चौराहों पर आम है, अपने देश के किन-किन कानूनों की धज्जियाँ उड़ने का भान हमें हो पाया है .. या नहीं हो पाया है ? अगर हो पाया है, तो क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? .. फ़िलहाल हम स्वयं से ही हर सवाल करें भी और स्वयं को ही जवाब देने का भी काम करते हैं हम सभी .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Wednesday, August 23, 2023

वांछा की विसर्पी लताएँ ...

जीवन-डगर के 

एक अर्थहीन 

मोड़ पर किसी,

मिल जाना 

अंजाना 

किसी का कभी,

बस यूँ ही ...

चंद पल,

चंद बातें,

चंद मंद-मंद 

मुस्कुराहटें,

चंद स्पंदन की 

अनसुनी आहटें,

पनपा जाती हैं

क्षणांश में

हौले से

एक कोमल 

अर्थपूर्ण अंकुरण

अंजाना अपनापन का

मन में,

पनपने के लिए,

चंद सम्भावनाएँ लिए

भावनाओं की 

आरोही लताएँ,

वांछा की 

विसर्पी लताएँ,

भरसक .. 

बरबस .. 

तत्पर ...

लिपट जाने के लिए

अपने सुकुमार

लता-तंतु के सहारे

अथक ..

अनायास ..

अनवरत ...

सोचों के ठूँठ पर .. बस यूँ ही ...





Monday, August 21, 2023

हे भगवान !!! ...

" बेटे के साथ दोस्त बन कर रहो। बाप बनने की कोशिश मत करो। बाप तो तुम हो ही। " - ये संवाद अभी हाल ही में 'रिलीज़' हुई 'सेंसर बोर्ड' से मिली 'ए सर्टिफिकेट' वाली 'फ़िल्म' - "ओ एम् जी 2" (ओह माय गॉड 2) का है, जो कि पुरानी फ़िल्म "ओह माय गॉड" की 'सीक्वल' है। बेटे के संदर्भ में बोले गये यही संवाद बेटी के लिए भी उतना ही उचित है। बस .. दोस्त की जगह सहेली बनने की जरूरत है, पिता को भी .. माँ को भी। यह संवाद किसी भी अभिभावक के लिए एक मूलमंत्र है या यूँ कहें कि .. सफल अभिभावक होने की पहली शर्त्त है। साथ ही कट्टर अभिभावकों के सुधरने के लिए एक उचित सीख भी है .. शायद ...

"ओह माय गॉड" .. जिसका शाब्दिक अर्थ यूँ तो होता है - "हे भगवान !" या "हाय भगवान !" .. किन्तु गूगल द्वारा विशेषार्थ भी बतलाया गया है .. "अरे बाप रे !" .. स्वाभाविक भी लगता है कि हम सामान्य परिस्थितियों में कितनी भी विदेशी भाषा झाड़ लें .. पर विपदा में मुँह से अनायास "अरे बाप रे !" या "अरे मईया रे !" ही प्रायः निकलता है। यूँ तो 'आउच' बोलने वाली की भी जनसंख्या कम नहीं है जी ! .. शायद ...

अभी हाल ही में मेरे आईआईटीयन बेटे ( आईआईटीयन बोलने में गर्व महसूस होता है, है ना ? ) द्वारा देखे जाने के बाद इस 'फ़िल्म' की प्रसंसा करते हुए देख लेने की सलाह मिलने के बाद कल रविवार की छुट्टी के मौके पर इसे देख पाया .. बस यूँ ही ...

अभी एक या दो दिन पहले ही एक 'न्यूज़ चैनल' पर हालिया 'रिलीज़' तीन फिल्मों की 'बॉक्स ऑफिस' पर रुपया बटोरने के आधार पर समीक्षा की जा रही थी, जिसके अनुसार हालिया 'रिलीज़' फिल्मों - "ग़दर 2", "जेलर" और "ओ एम् जी 2" - तीनों में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली 'फ़िल्म' - "ग़दर 2" है और सबसे कम कमाई वाली - "ओ एम् जी 2"। इसकी वज़ह तो 'फ़िल्म' देखने के बाद समझ में आयी।

दरअसल हमारा तथाकथित समाज अपने द्वारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत समाज की तयशुदा सही या गलत रुपरेखा में किसी भी तरह का उचित या अनुचित हस्तक्षेप सहज स्वीकार नहीं कर पाता है .. शायद ...

अब जिस समाज के पास मध्यप्रदेश के छतरपुर में पत्थर के बने सैकड़ों साल पहले के विश्वविख्यात "खजुराहो मंदिर" के अलावा, बिहार के हाजीपुर में लकड़ी के बने मिनी खजुराहो और उत्तरप्रदेश के वाराणसी अवस्थित नेपाली मंदिर के साथ-साथ नेपाल में भी खजुराहो सदृश मंदिर हैं, जिनकी दीवारें रतिक्रीड़ाओं की विभिन्न भावभंगिमाओं वाली मूर्त्तियों से श्रृंगारित की गयीं हैं। इनके अलावा सैकड़ों साल पहले ही रची गयी अनुपम रचना - "कोकशास्त्र" की थाती है, जिसके आधार पर विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी देशों में भी 'रिसर्च' किये जाते रहे हैं। और तो और .. जिस यौन क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उसे ही हमारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज निषिद्ध साबित करने में आमादा दिखता है। ऐसे में हमारा ये समाज उस डॉक्टर की तरह प्रतीत होता है, जो अपने 'केबिन' में धूम्रपान करते हुए किसी कैंसर के मरीज़ को सिगरेट ना पीने की सलाह दे रहा होता है .. शायद ...

वैसे भी हमारा हमेशा ये यक्ष प्रश्न रहा है तथाकथित समाज से कि जिन क्रियाओं द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उन के विषय पर खुल कर बात करना निषिद्ध कैसे हो सकता है भला ? .. वो "गन्दी बातें" भी कैसे हो सकती हैं भला ? ख़ैर ! .. इन खुले विचारों वाला अभिभावकता तो हमें नसीब नहीं हो पाया था, पर हमें आत्मसंतोष है इस बात का कि हम स्वयं ऐसा .. हर विषय पर खुल कर बातें करने वाला अभिभावक बन सके .. बस यूँ ही ...

सहस्त्रों वर्ष पूर्व हमारे पुरखों द्वारा हमारी दिनचर्या की तय वैज्ञानिक और न्यायोचित सटीक पद्धतियाँ कई सारे प्रदूषित संस्कारों वाले बाहरी आक्रमणकारियों और दमनकारियों की कूटनीति के कारण उनका अपभ्रंश स्वरूप भर ही आज हमारे इस समाज का आदर्श बना हुआ है, जिसे हम अपनी गर्दन अकड़ाते हुए ढो रहे हैं .. शायद ...

इस 'फ़िल्म' में सभी बड़ों को ये नसीहत दी गयी है कि हमें बच्चों और युवाओं के साथ यौन शिक्षा पर खुल कर बात करनी चाहिए। ताकि वो सारे अपने बालपन से युवावस्था के बीच की पगडंडी सुगमता से नाप सकें। ना कि इस ज्ञान की कमी में उन्हें अपनी तमाम स्वाभाविक उत्सुकता को शान्त करने के लिए गलत और अनुचित लोगों के सम्पर्क में आकर स्वयं का और .. स्वाभाविक है उनसे जुड़ा हम अभिभावकों का भी सारा सुनहरा सपना चकनाचूर हो जाए .. सारा का सारा भविष्य मटियामेट हो जाए। वैसे भी एक समझदार अभिभावक अपने बच्चों के साथ उनकी बढ़ती उम्र के क्रमानुसार, वह उन सब घटनाओं की चर्चा करता है, जिससे वह अपनी आयु की उस अवस्था में दो-चार हुआ होता है और उसके फलस्वरूप होने वाले तमाम लाभों या होने वाली हानियों से रूबरू हुआ होता है .. शायद ...

उन्हीं घटनाओं में से एक है .. हस्तमैथुन .. जिसके संदर्भ में हमारे सभ्य समाज में समाज के तमाम हम जैसे सभ्य लोगों की स्थिति अपने 'केबिन' में धूम्रपान करने वाले उसी डॉक्टर की तरह है .. शायद ...

कई दिनों से ऋतुस्राव यानि मासिकधर्म पर समाज-परिवार में खुल कर बात करने और इस प्राकृतिक प्रक्रिया को कुंठा की श्रेणी से निकाल बाहर करने का समर्थन करते हुए, हस्तमैथुन जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के विषय पर भी चर्चा करने की इच्छा केवल सभ्य समाज के सभ्य जनों के मन खट्टा हो जाने के भय से सशंकित और दमित हुआ पड़ा था मन के किसी अँधेरे कोने में। परन्तु इस 'फ़िल्म' से उस दमित इच्छा को सहज़ मार्गदर्शन करती हुई रोशनी मिली और अभी हम इस विषय पर निःसंकोच लिखने की हिम्मत कर पा रहे हैं .. बस यूँ ही ...

अंत में प्रसंगवश .. "रोटी" 'फ़िल्म' के लिए लिखी गयी आनंद बक्षी जी की दर्शनशास्त्र से सराबोर एक रचना की चर्चा करने की हिमाक़त कर रहे हैं, जिसका मुखड़ा है -

"यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो ~~~

जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो" ~~~

और उसी का एक अंतरा है जो अंतर्मन को उद्वेलित कर जाता है - 

"इस पापन को आज सजा देंगे, मिलकर हम सारे

लेकिन जो पापी न हो, वो पहला पत्थर मारे ~~~

हो ~~~ पहले अपने मन साफ़ करो रे ~~~

फिर औरों का इंसाफ करो" ~~~

इसका आशय यही है कि इस बतकही को अनर्गल कह कर सिरे से नकारने के पहले एक बार हम अपने अतीत के 'एल्बम' के पन्नों को .. भले ही अकेले में .. पर एक बार टटोलने का कष्ट जरूर करें कि हम भले ही आदी हों या ना हों .. पर .. उम्र के किसी ना किसी पड़ाव पर .. कभी ना कभी .. किया भी है या ... सच में नहीं किया है कभी भी .. हस्तमैथुन ? ...

फ़िलहाल .. आइए सुनते हैं आनंद बक्षी की रचना को ... लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत के साथ किशोर कुमार जी की आवाज़ में .. बस यूँ ही ...




Saturday, August 19, 2023

एक 'क्लोन' तुम्हारा ...


अक़्सर टहलती हो 

तुम भले ही

सपाट सड़कों पर 

अपनी दिनचर्या की,

मटकता रहता है पर .. हर क्षण,

चंद स्मृतियों की 

कोशिकाओं से विकसित 

मन के प्रयोगशाला में  

एक 'क्लोन' तुम्हारा,

पथरीले पथ पर मेरे मस्तिष्क के .. बस यूँ ही ...


बाँध लेती होगी तुम भले ही 

लम्बे-घने बालों को अपने,

समेट कर अब जुड़े

ऊपर अपनी गर्दन के,

बरसाती उमस भरी गर्मियों में,

बनाती हुईं ...

ख़मीर भरे घोल से,

परिवार भर को प्रिय 

मूँग दाल के कड़क चीले, 

अपने रसोईघर में .. शायद ...


पर आता है अब भी .. वो .. 

एक 'क्लोन' तुम्हारा क़रीब मेरे 

खुले बालों में ही अक़्सर,

भले ही हो वो आपादमस्तक

स्वेद बूँदों से तरबतर,

मालूम है उसे .. सोख ही लेंगे ..

सोख्ता काग़ज़ के जैसे,

उसकी शोख़ स्वेद बूँदों को,

गर्दन से माथे तक .. सरक-सरक कर .. 

सारे के सारे .. होंठ हमारे .. बस यूँ ही ...


Friday, August 18, 2023

घी या घोंघा ...

सर्वविदित है कि हमारे देश में विशेषकर मैदानी क्षेत्रों (बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान) में चाँद की गति के आधार पर अथार्त् चन्द्र पंचांग पर आधारित हिन्दू पंचांग वाले कैलेंडर की मान्यता है। जबकि पहाड़ी इलाकों (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में भी) में सूर्य पंचांग पर आधारित कैलेंडर को लोग मानते हैं।

अतः मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पहाड़ी क्षेत्रों के स्थानीय कैलेंडरों में सूर्य के अनुसार माह बदलता है यानि सूर्य की अपनी एक राशि से दूसरी राशि में जाने के दिन से। जिन भोगौलिक घटनाओं को हम "संक्रांती" कहते हैं और इसे धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ कर हम यदाकदा अलग-अलग नाम से लोकपर्व की तरह भी मना लेते हैं।

हालांकि उत्तराखंड के एक अन्य "संक्रांती" पर ही आधारित लोकपर्व "फूलदेई" की बतकही करने के दौरान साल भर के बारहों संक्रांतियों की चर्चा पहले ही विस्तारपूर्वक हुई हैं। उन्हीं में से इस एक संक्रांति में जब सूर्य कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करता है, तो इस भादो महीने की संक्रांति को यहाँ सिंह संक्रांति कहते हैं या फिर लोक पर्व की तरह "घी संक्रांति" या "पत्यूड़ संक्रांती" के नाम से मनाते हैं। दरअसल गढ़वाली भाषा में अरबी को "पत्यूड़" कहते हैं। "घी संक्रांति" या "पत्यूड़ संक्रांती" को गढ़वाली भाषा में "घ्यू त्यार" कहते हैं। कल (17.08.2023) ही था इस लोकपर्व का वह दिन यहाँ। इस प्रकार उत्तराखंड में यहाँ बीते कल से ही भादो माह शुरू हो चुका है।

यहाँ के दोनों अंचलों - कुमाऊँ और गढ़वाल में - इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं। उड़द दाल को रात भर पानी में भींगोने के बाद सील-लोढ़े से या 'मिक्सी' में लुगदी की तरह गीला ही पीस कर उसमें आटा, सूजी, नमक, जीरा, अजवाइन-मंगड़ैला (कलौंजी), अपने अनुसार घी या तेल के मोयन और पानी डालते हुए हल्के नरम गुँथकर उनकी लोइयों से पूड़ी, पराठे या रोटी बनती हैं। कुछ लोग पीसे उड़द दाल को भर कर भरवा पूड़ी या रोटी भी बनाते हैं। उड़द दाल के सम्मिश्रण से ही बड़ा, पुए आदि भी बनते हैं। गढ़वाली भाषा के अनुसार मूला (मूली), लौकी (कद्दू / Bottle gourd), कद्दू (कोहड़ा / Pumpkin), तरोई (नेनुआ या घिया) और पिनालू यानि पत्यूड़ (अरबी) के गाबों (पत्तों) को मिलाकर सब्जी, विशेष तौर से लोहे की कढ़ाही में, बनायी जाती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी इलाकों से इतर कद्दू को लौकी और कोहड़े को कद्दू बोला जाता है .. ऐसा ही देखने-सुनने के लिए मिलता है यहाँ के बाज़ारों में। 
इसके अलावा अपने अनुसार पिसी हुई राई, हल्दी, नमक मिला कर ककड़ी या खीरा का रायता बनाया जाता है। पर हाँ .. राई की मात्रा इतनी तो पड़ती ही है, कि रायता का पहला निवाला मुँह में रखते ही नाक से लेकर दिमाग़ तक झनझना यानि सनसना जाए।

यहाँ कुमाऊँनी भाषा में कुल्थी को "गहत या गहथ" कहते हैं, इसी गहत और मक्के के सम्मिश्रण की भी कुछ लोग पकौड़ी बनाते हैं। अब अगर "पत्यूड़ संक्रांती" के अवसर पर "पत्यूड़ यानी पिनालू के गाबों" यानि मैदानी क्षेत्रों में "अरबी के पत्ते" कहे जाने वाले के और उड़द के दाल के "पात्यौड़" (पकौड़े) और उसकी सब्जी साथ में ना बनें तो "पत्यूड़ संक्रांती" भला मनेगा भी तो कैसे ?

साथ ही लाल चावल की गाढ़ी रबड़ीदार "बकली खीर" बनाई जाती है, जिनमें सिंझने यानि पकने के बाद ऊपर से घी डाला जाता है। कुछ लोग यहाँ के लोकप्रिय "झंगोरा" की खीर भी बनाते हैं।

"झंगोरा" या झिंगोरा के ज़िक्र होने पर प्रसंगवश ये बतलाते चलें कि देहरादून आने के पश्चात झंगोरे का भात खाना हमारी प्रतिदिन की दिनचर्या में शामिल है। ख़ास कर 'ब्रंच' में। यदाकदा इसी की खीर, इसी की खिचड़ी भी। वैसे भी गत बारह-तेरह सालों से मधुमेहग्रस्त होने के कारण यहाँ से पहले पटना में रहते हुए गत चार-पाँच सालों से चावल के विकल्प के रूप में स्थानीय बाज़ारों में आसानी से उपलब्ध नहीं होने के कारण सावाँ, कोदो, कंगनी, कुटकी और चीना के 'कॉम्बो पैक' तथा लाल व सफ़ेद क्विनोआ को प्रायः 'अमेजॉन' से 'ऑनलाइन'  मँगवा कर उपभोग करता था। कारण था या है भी कि इनमें चावल की तुलना में ज्यादा मात्रा में 'फाइबर' (रेशे) और 'कार्ब्स' ('कार्बोहाइड्रेट') कम मात्रा में पाया जाता है, जो मधुमेहग्रस्त व्यक्तियों के लिए लाभकारी होता है .. शायद ... पर यहाँ देहरादून में आसानी से झंगोरा या झिंगोरा उपलब्ध हो जाने कारण वो 'कॉम्बो पैक' को मँगवाना तो बंद कर दिया है, क्विनोआ भी कम ही खाना हो पाता है। यहाँ के बाज़ारों में चौलाई के बीज- राजगिरा या रामदाना के लावा की भी सहज उपलब्धता और उसकी पौष्टिकता अपनी ओर आकर्षित करती है।

उपरोक्त 'ब्रंच' (Brunch) जैसे अंग्रेजी शब्द का तात्पर्य है .. सुबह के नाश्ते और दोपहर के भोजन का मिलाजुला रूप। जो शायद अंग्रेजी के 'ब्रेकफास्ट' (Breakfast) और 'लंच' (Lunch) शब्दों की शिल्पकारी से जन्म लिया होगा। दस साल पूर्व लगभग इक्कीस-बाइस सालों की घुमन्तू नौकरी के दौरान सुबह होटल या 'पी जी' से 'ब्रंच' खाकर निकलने वाली आदत अब तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है।

धत् तेरे की !! ... अपनी एक और गंदी आदत के अनुसार वर्तमान के विषय से भटक ही गए हम तो .. ख़ैर ! .. "घी संक्रांति" की ही बतकही करते हैं फ़िलहाल तो ... तो इस अवसर पर उपरोक्त व्यंजनों के साथ-साथ मुख्य रूप से, जिनके घर में पालतू दुधारू मवेशी हैं, उनके स्वयं के घर में बने हुए शुद्ध घी, विशेष तौर से गाय के दूध से बने घी, का उपभोग किया जाता है। पर देहरादून जैसे शहरों में जिनके पास पालतू के नाम पर केवल कुत्ते हैं, तो .. उनके द्वारा तो बाज़ारों से ही उपलब्ध खुले स्थानीय 'डेयरी' वाले या कोई सीलबंद 'ब्रांडेड' घी का ही इस्तेमाल किया जाता है। गाय के घी को प्रसाद स्वरूप सिर पर भी रखा जाता है या माथे पर तिलक की तरह लगाते हैं। छोटे दुधमुँहे बच्चों के सिर में घी मला भर जाता है या उनके तालू में नाममात्र का स्पर्श कराया जाता है। "घी संक्रांति" के दिन, जिनको स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से घी-तेल की मनाही होती है, उनको भी पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार एक चम्मच घी खाना ही होता है।

वर्ना ...  यहाँ एक पुरानी मान्यता है कि जो इस दिन घी नहीं खाएगा, वह अगले जन्म में घोंघा यानि गढ़वाली भाषा में "गनैल" के रूप में जन्म लेता है। जिनका जीवन काफ़ी सुस्त और कुछ ही दिनों का होता है।

इस तथ्यहीन मान्यता के लिए वर्तमान में बुद्धिजीवियों का तर्क होता है कि बरसात के मौसम में जो लोग पानी बरसने से घर में ज्यादातर रहते हुए सुस्त हो जाते हैं और इस मौके पर बहुतायत से उपलब्ध हरे चारे को खाए मवेशियों द्वारा दुहे गये दूध में वसा और पौष्टिकता काफ़ी होती है, जिनसे बने घी को खाकर लोग आगामी शीत ऋतु के लिए पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त बनते हैं।
एक बार के लिए इस तर्क को तथ्यपरक अगर मान भी लिया जाए तो फिर भी हमें भावी पीढ़ियों को कम से कम मूलभूत बातों से .. तथ्यों से अवगत कराना चाहिए .. नाकि आधारहीन किंवदंतियों से भरी मान्यताओं को अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाए रखने वाले तर्क की आड़ में ज्यों का त्यों हम उनके समक्ष परोस दें। यह अंधपरम्परा को ढोने वाली कृति तो हम बुद्धिजीवियों के समाज के समक्ष एक यक्ष प्रश्न है .. शायद ... आख़िर हम .. अबोध शिशुओं के साथ-साथ युवाओं को भी चाँद की सत्यता ना बतला कर, जबकि युवाओं को चाँद की सत्यता हम से ज़्यादा मालूम है, कब तक "चन्दा मामा दूर के, पुए पकाए गुड़ के" .. गा-गा कर बहलाते-फुसलाते रहेंगें .. आख़िर कब तक ? .. भला कब तक ? ...