Friday, April 22, 2022

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की ...

अक़्सर .. अनायास ...

कुम्हला ही जाता है चेहरा अपना,

जब कभी भी .. सोचता हूँ जानाँ,

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की

विरुद्ध हुई मन के तुम्हारे  

बात पर किसी भी।


हो मानो .. आए दिन 

या हर दिन, प्रतिदिन,

किए हुए अतिक्रमण

किसी 'फ्लाईओवर' के नीचे

या फिर किसी 'फुटपाथ' पर,

देकर रोजाना चौपाए-से पगुराते 

गुटखाभक्षी को किसी, 

कानूनी या गैरकानूनी ज़बरन उगाही,

सुबह से शाम तक बैठी, 

किसी सब्जी-मंडी की 

वो उदास सब्जीवाली की

निस्तेज चेहरे की कुम्हलाहट।


देर शाम तक टोकरी में जिसकी 

शेष बचे हों आधे से ज्यादा 

कुम्हलाए पालक और लाल साग,

तो कभी बथुआ, खेंसारी या चना के,

या कभी चौलाई या गदपूरना के भी साग,

अनुसार मौसम के अलग-अलग।


और तो और ..

मुनाफ़ा तो दूर, पूँजी भी जिसकी

देर शाम तक भी हो ना लौटी।

तो तरोताज़े साग-सी,

मुस्कराहट सुबह वाली जिसकी, 

देर शाम तक तब 

शेष बचे कुम्हलाए साग में हो,

जो यूँ बेजान-सी अटकी।

सोचती .. बुझेगी भला आज कैसे ..

बच्चों के पेट की आग ?

बेसुरा-सा हो जिस बेचारी के

जीवन का हर राग .. बस यूँ ही ...





Sunday, April 17, 2022

चौपाई - जो समझ आयी .. बस यूँ ही ...


आराध्यों को अपने-अपने यूँ तो श्रद्धा सुमन,

करने के लिए अर्पण ज्ञानियों ने थी बतलायी।

श्रद्धा भूल बैठे हैं हम, सुमन ही याद रह पायी,

सदियों से सुमनों की तभी तो है शामत आयी .. शायद ...




वजह चिल्लाने की अज्ञात, ऊहापोह भी, क्या बहरे हैं "उनके वाले"?
प्रश्न अनुत्तरित जोह रहा बाट, आज भी कबीर का सैकड़ों सालों से।
खड़ा कर रहे अब तुम भी एक और प्रश्न, 'लाउडस्पीकर' बाँट-२ के,
कबीर भौंचक सोच रहे, बहरे हो गए साहिब ! अब "तुम्हारे वाले"?


Sunday, April 10, 2022

.. कोंचती है अंतर्मना अंतर्मन ...

क़बीलों में बँटे आदिमानव सारे

प्रागैतिहासिक कालखंड के,

या फिर मानव हों तदुपरांत प्राचीन काल के।

मध्यकालीन या आधुनिक इतिहास को 

क्रमशः क़ाबिल होकर काबिज करने वाले,

या पाषाण युग, धातु युग को गढ़ने वाले,

या फिर क्रमबद्ध सनातनी सत्य युग, 

त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग के 

क्रमबद्ध गवाह रहे मानव सारे।

सभ्यताएँ भी रहीं हो चाहे कोई भी,

मिस्त्र, मेसोपोटामिया, सुमेरिया, बेबिलोनिया,

असीरिया, चीन, यूनान, रोम या फिर

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो वाली सिंधु घाटी की सभ्यता।

हर बार देखी हैं किसी ने यूँ तो, या है सुनी,

या फिर किसी-किसी ने तो झेली भी हैं त्रासदियाँ,

युद्ध, विश्वयुद्ध, समर, महासमर, ग़दर, दंगे-फ़साद की।

पर साहिब ! वो तो कर रखे हैं कुछ ज्यादा ही 

जानने वालों ने मुफ़्त में केवल कलियुग को ही

बदनाम बस बेकार .. बस यूँ ही ... 


मारपीट, मारकाट, प्रहार, प्रतिकार, 

मर्माहत, हताहत लोगबाग, रक्तप्रवाह, जनसंहार, 

अफरा-तफरी, शोर-शराबा, खून-खराबा, 

यातनाएँ, प्रताड़नाएं, व्यथाएँ,

कपसती व्यथाएँ, अथाह लाशें,

खंडहर, राख़-धुआँ, चीख पुकार,

बर्बरता, बर्बादी, वर्चस्व, बलात्कार, अनसुना चीत्कार,

दिखती तो हैं ऊपर-ऊपर बार-बार, हर बार।

पर .. बलात्कार .. कई-कईयों के साथ, कई-कई बार,

युद्धक्षेत्र की भरी दुपहरी हो या 

शरणार्थी शिविर की मटमैली-सी रात।

और .. साहिब !! ... इस धरती पर पश्चात हर युद्ध के, 

तदुपरांत ... उगती आयी हैं युग-युगांतर से, 

उग ही आती हैं हौले से, चुपके से, 

अनगिनत बलात्कारों के गह्वर में,

अनचाही, अनायास, अनगिनत संकर नस्लों की फ़सलें

फिर कर लें चाहे जटाधारी शंकर नृत्य तांडव,

या झूम लें, गा लें, या फिर कितना भी हँस लें।

शायद .. ऐसे ही चलता है संसार .. बस यूँ ही ...


साहिब !!! .. ऐसे में .. 

ऐसी पाशविकता से भी परे वाली वो कृतियाँ, विकृतियाँ,

कोंचती है अंतर्मना अंतर्मन को अक़्सर यहाँ

कि .. तदुपरांत ... अनगिनत शुक्राणुओं के महासमर के,

प्रतिक्षारत किसी एक अदद अंडाणु से संधि कर के,

लाने वाला हम मानव को अस्तित्व में, 

महासमर का गवाह रहा, 

एक अदद शुक्राणु ही तो कहीं .. कारण नहीं,

बुनियादी तौर पर हम इंसानों के फ़ितरती लड़ाकू होने का ?

साहिब ! .. सोच रहे होंगे आप भी ..

कर दिया खराब हमने छुट्टी के दिन भी,

आपका दिन, आपका मन, आपका सारा दिनमान।

अब .. हम भी भला अभी से क्यों हों परेशान !?

है ना !? .. हम तो हैं सुरक्षित (?) .. शायद ...

धरती के इस छोर पे, अपनी बला से बनते हों उस छोर पे,

सामूहिक क़ब्रिस्तान, धधकती हों, सुलगती हों श्मशान ...

धत् .. वैसे भी .. ये सारी कोई गूढ़ बातें तो हैं नहीं, 

हैं बस .. मुझ बकलोल की एक अदद बतकही,

बस एक अदद 'टाइम पास' विचार .. बस यूँ ही ... 




Wednesday, April 6, 2022

चंद चिप्पियाँ .. बस यूँ ही ...

(१) रिवायतें तगड़ी ...

कहीं मुंडे हुए सिर, कहीं जटाएँ, कहीं टिक्की, 

कहीं टोपी, कहीं मुरेठे-साफे, तो कहीं पगड़ी।


अफ़सोस, इंसानों को इंसानों से ही बाँटने की 

इंसानों ने ही हैं बनायी नायाब रिवायतें तगड़ी।


(२) विदेशी पट्टे ...

देखा हाथों में हमने अक़्सर स्वदेशी की बातें करने वालों के,

विदेशी नस्ली किसी कुत्ते के गले में लिपटे हुए विदेशी पट्टे।


देखा बाज़ारों में हमने अक़्सर "बाल श्रम अधिनियम" वाले,

पोस्टर चिपकाते दस-ग्यारह साल के फटेहाल-से छोटे बच्चे।


(३) चंद चिप्पियों की ...

रिश्ते की अपनी निकल ही जाती 

हवा, नुकीली कीलों से चुप्पियों की,


पर मात देने में इसे, करामात रही 

तुम्हारी यादों की चंद चिप्पियों की।


(४) सीने के वास्ते ...

आहों के कपास थामे,

सोचों की तकली से,

काते हैं हमने,

आँसूओं के धागे .. बस यूँ ही ...

टुकड़ों को सारे,

सीने के दर्द के,

सीने के वास्ते,

अक़्सर हमने .. बस यूँ ही ...


(५) एक अदद इंसान ...

मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारे या गिरजा के सामने,

कतारों में हो तलाशते तुम पैगम्बर या भगवान .. बस यूँ ही ...


गाँव-शहर, चौक-मुहल्ले, बाज़ार, हरेक ठिकाने,

ताउम्र तलाश रहे हम तो बस एक अदद इंसान .. बस यूँ ही ...




Sunday, April 3, 2022

बाद भी वो तवायफ़ ...

रंगों या सुगंधों से फूलों को तौलना भला क्या,

काश होता लेना फलों का ज़ायका ही जायज़ .. शायद ...


यूँ मार्फ़त फूलों के होता मिलन बारहा अपना,

पर डाली से फूल को जुदा करना है नाजायज़ .. शायद ... 


धमाके, आग-धुआँ, क़त्लेआम और  बलात्कार,

इंसानी शक्लों में हैं हैवानों-सी सदियों से रिवायत..शायद ...


बारूदी दहक में पसीजते मासूम आँखों से आँसू,

ये हैं भला यूँ भी कैसे तरक्क़ी पसंदों के क़वायद .. शायद ...


किसी की माँ या बहन या पत्नी होती है औरत,

बनने से पहले या बनने के बाद भी वो तवायफ़ .. शायद ...




Wednesday, March 30, 2022

तनिक उम्मीद ...

हो जाती हैं नम चश्म हमारी सुनकर बारहा,

जब कभी करतूतें तुम्हारी चश्मदीद कहते हैं .. बस यूँ ही ...


हैं हैवानियत की हदें पार करने की यूँ चर्चा,

ऐसे भी भला तुम जैसे क्या फ़रीद बनते हैं?.. बस यूँ ही ...


हैं मुर्दों के ख़बरी आँकड़े, पर आहों के कहाँ,

हैं रहते महफ़ूज़ मीर सारे, बस मुरीद मरते हैं .. बस यूँ ही ...


तमाम कत्लेआम भी कहाँ थका पाते भला,

लाख तुम्हें तमाम फ़लसफ़ी ताकीद करते हैं .. बस यूँ ही ...


दरिंदगी की दरयाफ़्त भी भला क्या करना,

दया की दिल में तेरे तनिक उम्मीद करते हैं .. बस यूँ ही ...









Monday, March 28, 2022

यूँ मटियामेट ...

माना है जायज़ तुम्हारा सारे बुतों से गुरेज़, 

तो क्यों नहीं भला मुर्दे मज़ारों से परहेज़ ?


गजवा-ए-हिन्द मायने ख़बरें सनसनीखेज़,

सनक ने की राख़ इंसानियत की दस्तावेज़।


खता लगती नहीं तुम्हें करके कभी ख़तना,

समझते हो हलाल यूँ ज़िल्लत भरी हलाला।



दकियानूसी सोचों से सजी यूँ दिमाग़ी सेज,

क़ैद हिजाबों में सलोने चेहरे हैं बने निस्तेज।


क़ाफ़िर भी हैं इंसाँ, समझो ना तुम आखेट,

अगरचे हो रहे हो तुम भी तो यूँ मटियामेट।


पाने की ज़न्नत में बहत्तर हुर्रों के हो दीवाना,

भले बन जाए जहन्नुम आज अपना ज़माना।