Wednesday, January 26, 2022

खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-१.

फिर से आज एक बार कुछ बतकही, कुछ इधर की, कुछ उधर की,
ऊल-जलूल, फ़िजूल, बेफजूल, बेसिर पैर की, कहीं भी, कुछ भी     .. बस यूँ ही ...

कुछ ही दिन पहले किसी एक रविवार के दिन, (सम्भवतः इसी नौ   जनवरी को) सुबह-सुबह अपनी दिनचर्या से और सप्ताह भर बनायी गयी रविवारीय अवकाश के दिन किए जाने वाले चंद विशेष कामों की सूची से निपटने के बाद शेष बचे समय को देखते हुए, मन में ख़्याल आया कि अपने अस्थायी निवास वाले किराए के मकान में हरियाली की चाहत में रोपे गए चंद पौधों वाले प्लास्टिक के गमलों की मिट्टी की गुड़ाई-निराई भी आज कर ही ली जाए ; जो कि पिछले कई रविवार से टलती आ रही थी। कुछ तो रविवारीय अवकाश के विशेष कामों की लम्बी सूची के कारण और कुछ इन दिनों यहाँ की शीतलहर वाले मौसम के कारण भी .. शायद ...
अपने प्रिय पेय पदार्थों में से एक- 'लेमन ग्रास' युक्त बिना दूध और बिना चीनी की 'ग्रीन टी' से भरे काँच वाले गिलास को 'सिप' करता हुआ, अपने 'स्टोर रूम' में रखी खुरपी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो खुरपी एकदम से मेरे ऊपर भड़क गयी। भड़क गयी कहना शायद गलत होगा, बल्कि तुनकने के अंदाज़ में बोल पड़ी - "आज मैं काम नहीं करूँगी। नहीं करूँगी कोई भी आपकी गुड़ाई-निराई ..."
मैंने प्यार जताते हुए उस से पूछा - "क्यों भला ? क्या हो गया महारानी आज आपको ? आप भी आज रविवार मना रहीं हैं क्या ?"
दरअसल इस बार वह सच्ची में भड़क उठी - "हुँह ! आपकी तरह जब आपकी धर्मपत्नी जी एक कुशल गृहणी होने के नाते रविवार की छुट्टी नहीं मना सकती तो मैं कैसे मना सकती हूँ भला .. आयँ !? वैसे भी मत कहिए हमको महारानी।"
मैं उसके इस उत्तर से झेंपता हुआ जरुरत से ज्यादा नम्र हो गया - "क्यों ना कहूँ भला आपको महारानी ?"
अब तक वह रुआँसी हो चुकी थी - "हर बार आप लोग "हँसुए के ब्याह में खुरपी का गीत" बोल - बोल कर, हँसुए का ब्याह कराते हो और मेरा गीत गाते हो। अरे कभी हमारा भी तो ब्याह करा दो और हँसुए का गीत गा दो। मगर ऐसा करोगे नहीं आपलोग। आप इंसान लोगों को तो बस एक ही लीक पर चलने की आदत है। अरे कभी लीक से हट कर भी सोचा करो आप लोग।"
"मतलब .. आपका उलाहना है कि कभी-कभार हम आप खुरपी का ब्याह करा कर हँसुए का गीत क्यों नहीं गाते ? युगों से हर बार हँसुए का ब्याह करा कर हमलोग आपका गीत गा देते हैं। है ना ?"
"और नहीं तो क्या !!" - अब तक वह कपस-कपस कर रोने लगी थी। - "आप लोग तो बस ... तथाकथित खरमास अभी उतरेगा नहीं कि फ़ौरन अपनी और अपने लोगों की शादी-ब्याह की चर्चा चालू कर देते हो। कभी ब्याह वाली मेरी भी सनक की सोचो ना ! ..." - फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोलने लगी - "अब ये मेरी सनक या शिकायत की बात किसी और इंसान को मत कह दिजियेगा, वर्ना वो लोग उल्टा आप से पूछेंगे कि ऐसा कौन बोला भला .. दरअसल आप इंसानों के लिए ये ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि .. 'कौन बोला या कौन बोली ?'.. पर ये महत्वपूर्ण नहीं होता कि 'क्या बोला या क्या बोली ?' "
मैं चौंक गया - "महारानी ! आपके ब्याह नहीं होने वाली नाइंसाफी से मैं पूर्णतः सहमत हूँ, परन्तु ये कौन बोला, क्या बोला वाली आपकी शिकायत का क्या मतलब ? ...  ऐसा किस आधार पर कह सकती हैं आप भला ? बोलिए !"
फिर जोर से ठहाका लगाती हुई मुझ से खुरपी बोल पड़ी - "आप भी ना, जान कर अंजान बनते हो। ऐसा नहीं है क्या ? ऐसा ही तो है मेरे भाई। आप तनिक मेरी अभी कही गयी बातें, किसी को कह के परख लेना। सब ध्यान नहीं देंगें, मेरी बातों पर। सोचेंगे .. अरे .. खुरपी की क्या औक़ात जो कुछ ध्यान देने योग्य गम्भीर बातें भी कर सके भला।" 
"हाँ !? ... ऐसा है क्या ?" - मैंने उसके समक्ष अचरज प्रकट किया।
"और नहीं तो क्या भाई .. अभी कई राज्यों में चुनाव का माहौल है ना ? चारों तरफ जातीय समीकरण का ताना-बाना बुना जा रहा है। अपनी -अपनी जाति वाले उम्मीदवार को अधिकांश लोग वोट देंगें। यहाँ भी तो कौन खड़ा है चुनाव में, यह ज्यादा महत्वपूर्ण बना रखा है आप इंसानों ने। पर कैसा खड़ा है, उस पर विचार नहीं करते प्रायः।" - थोड़ा दम लेती हुई फिर से बोली - "अब आप के रचनाकार बुद्धिजीवी इंसान लोगों को ही देखो ना .. अगर किसी पदाधिकारी ने, डॉक्टर की उपाधि वाले ने, किसी 'सेलिब्रिटी' ने या किसी तथाकथित 'बड़े' (वास्तव में धनवान, चाहे काले धन से ही सही) लोगों ने कुछ भी तुकबन्दियाँ कर दी, तो आप लोग 'थर्ड जेंडर' की तरह ताली पीटने लग जाते हो और ... अगर कोई अनपढ़ या मजदूर कोई गम्भीर बात भी कहे तो अनसुनी, अनदेखी कर देते हो आप लोग। वैसे होना तो ये चाहिए कि कह कौन रहा है, उतना मुख्य नहीं हो, बल्कि क्या कहा जा रहा है, उस पर ज्यादा महत्व देने की आवश्यकता है। नहीं क्या !? .. अब पियानो जैसे मंहगे वाद्य यन्त्र से निकलने वाली हर धुन सुरीली ही हो, जरूरी तो नहीं ना ? .. और बाँसुरी जैसे तुलनात्मक सस्ते वाद्य यन्त्र से हमेशा बेसुरी धुन ही निकलती हो, ऐसा भी नहीं है ना ?"
"बिलकुल नहीं।" - आज के अपने गुड़ाई-निराई वाले काम निकालने के लिए, उसे खुश करते हुए हमने अपने स्वार्थ साधने वाले इंसानी गुण से लबरेज़ उसकी बातों में हामी भर दी।
"तो .. फिर हर बार तथाकथित 'बड़े' लोगों की ही बातों को क्यों तरजीह देते हो या फिर जाति के आधार पर इंसान को क्यों अपनाते हो भला आप इंसान लोग ?" 
"हाँ, आपकी ये शिकायत भी सही है।" - हमने आगे भी उसे खुश करने का ही प्रयास किया। जो अक़्सर हम इंसान प्रायः करते हैं कि किसी को भी खुश करना है, तो उसकी हर बातों में हाँ में हाँ मिला देते हैं। चाहे वो बेसिर पैर की ही बातें क्यों ना हो।
इस बार मेरी नम्रता को देख कर वह लगभग बिदक-सी गयी - "हम थोड़े ही ना आपके तथाकथित विश्वकर्मा भगवान की मूक मूर्ति हैं, जो आपके लड्डू, माला, अगरबत्ती, अक्षत् , रोली भर से खुश हो जायेंगे। हम को तो किसी लुहार की भट्टी में तपा-तपा कर और हथौड़े से ठोंक-पीट कर बनाया गया है। हम तो ठोंक-पीट और ताप के तर्क की भाषा ही जानते हैं। आप इंसान लोग अपनी हाँ में हाँ मिलाते हुए एक ही लीक पर चलने वाली भेड़चाल और चापलूसी तो रहने ही दो अपने पास।"
हमको खुरपी की मनोदशा और उसके तेवर से तो लगा कि आज हमारा गुड़ाई-निराई वाला काम तो .. होने से रहा। परन्तु .. फ़ौरन वह मुस्कुराती हुई बोल पड़ी  - "आप इंसानों में यही तो अवगुण है, अगर तनिक तर्क कर दो तो तुनक जाते हो या यूँ कहें कि बिदक ही जाते हो। हम इंसान नहीं है भाई , चलिए आपके आज के काम में हम बिंदास हो कर आपका सहयोग करेंगे।"
मेरी तो जान में जान आयी और हमने शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को अपने मुँह में उड़ेलते हुए, अपने रविवारीय अवकाश के शेष समय हेतु गुड़ाई-निराई की योजना को साकार करने के लिए अपने एक हाथ में चाय वाली खाली गिलास, जिसे रसोईघर में रखना था और दूसरे हाथ में खुरपी महारानी को लिए हुए, हमारी पेशकदमी गमलों की ओर हो चुकी थी।
ख़ैर ! .. बहरहाल आप जाइएगा कहीं भी नहीं, अगर जाइएगा भी तो पुनः आइएगा अवश्य "खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-२" में खुरपी का ब्याह देखने। यूँ तो उम्मीद ही हम इंसानों के हर भावनात्मक दर्द की वजह है, पर फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आप आएंगे जरूर .. शायद .. बस यूँ ही ...



Sunday, December 5, 2021

तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...

साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

कर दीजिए ना तनिक .. 

बस .. एक अदद मदद आप,

'बहुते' (बहुत ही) 'इमरजेंसी' है माई-बाप,

दे दीजिए ना हुजूर !! .. समझ कर चंदा या दान,

चाहिए हमें आप सभी से चंद धनराशि।


छपवाने हैं कुछ इश्तिहार,

जिसे साटने हैं हर गली,

हर मुहल्ले की निजी, 

सरकारी या लावारिस दीवारों पर।

होंगे टंगवाने हर एक चौक-चौराहों पर

छपवा कर कुछ रंगीन फ्लैक्स-बैनर भी।


रेडियो पर, टीवी पर, अख़बारों में भी

देने होंगे इश्तिहार, संग में भुगतान के 

तय कुछ "पक्के में" रुपए भी।

दिन-रात हर तरफ, हर ओर,

क्या गाँव, क्या शहर, हर महानगर,

करवानी भी होगी निरंतर मुनादी भी।


लिखवाने होंगे अब तो FIR भी 

हर एक थाने में और देने पड़ेंगे,

थाने में भी साहिब .. साहिबों को फिर कुछ ..

रुपए "कच्चे" में, माँगे गए "ख़र्चे-पानी" के .. शायद ...

थक चुके हैं अब तक तो हम युग-युगांतर से,

कर अकेले जद्दोजहद गुमशुदा उस कुनबे की तलाश की। 


घर में खोजा, अगल-बगल खोजा, मुहल्ले भर में भी,

खोजा वहाँ-वहाँ .. थी जहाँ तक पहुँच अपनी, 

सोच अपनी, पर अता-पता नहीं चला ..

पूरे के पूरे उस कुनबे का अब तक कहीं भी।

निरन्तर, अनवरत, आज भी, 

अब भी .. तलाश है जारी ... 


साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

पर नतीज़ा "ज़ीरो बटा सन्नाटा" है अभी भी।

दिखे जो उस कुनबे का एक भी,

तो मिलवा जरूर दीजिएगा जल्द ही।

आने-जाने का किराया मुहैया कराने के 

साथ-साथ मिलेगा एक यथोचित पारितोषिक भी।


है कुनबे के गुमशुदा लोगों की पहचान, 

उनमें से है .. कोई बैल पर सवार,

तो है किसी की शेर की सवारी,

है कोई उल्लू पर सवार, तो किसी की चूहे की सवारी, 

कोई पूँछधारी तो .. कोई सूँढ़धारी ..

हमारी तो अब भी इनकी तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...



Saturday, December 4, 2021

मन की मीन ...



खींचे समाज ने 

रीति-रिवाज के,

नियम-क़ानून के,

यूँ तो कई-कई

लक्ष्मण रेखाएँ

अक़्सर गिन-गिन।

फिर भी ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


लाँघ-लाँघ के 

सारी रेखाएँ ये तो,

पल-पल करे

कई-कई ज़ुर्म संगीन,

संग करे ताकधिनाधिन ,

ताक धिना धिन ..

क्योंकि ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


ठहरा के सज़ायाफ़्ता,

बींधे समाज ने यदाकदा,

यूँ तो नुकीले संगीन।

हो तब ग़मगीन ..

बन जाता बेजान-सा,

हो मानो मन बेचारा संगीन ..

तब भी ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


 

Thursday, December 2, 2021

अपनी ठठरी के भी बेचारे ...

इस सितम्बर-अक्टूबर महीने में अपनी वर्तमान नौकरी के कारणवश एक स्थानविशेष पर रह रहे किराए के मकान वाले अस्थायी निवास को कुछ अपरिहार्य कारणों से बदल कर एक अन्य नए किराए के मकान में सपरिवार स्थानांतरण करना पड़ा। 

उस समय तथाकथित पितृपक्ष (20 सितम्बर से 6 अक्टूबर) का दौर था। ऐसे में उस समय कुछ जान-पहचान वाले तथाकथित शुभचिन्तक सज्जनों का मुझे ये टोकना कि - "पितृपक्ष में घर नहीं बदला जाता है या कोई भी नया या शुभ काम नहीं किया जाता है। करने से अपशकुन होता है।" - अनायास ही मुझे संशय और अचरज से लबरेज़ कर गया था। 

हमको उनसे कहना पड़ा कि किसी भी इंसान या प्राणी के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उसका जन्म और मरण। ऐसे में उसका जन्म लेने वाला दिन और उसका मृत्यु वाला दिन तो सब से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। जब उन दो महत्वपूर्ण दिनों के लिए कोई तथाकथित शुभ मुहूर्त तय ही नहीं है, तो फिर मकान बदलने या नए घर के गृह प्रवेश के लिए या फिर किसी की छट्ठी-सतैसा, शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त तय करने-करवाने का क्या औचित्य है भला ? सभी जन मेरे इस तर्क ( या तथाकथित कुतर्क ) को सुनकर हकलाते-से नजर आने लगे। 

फिर हमने कहा कि जब इंसान का मूल अस्थायी घर तो उसका शरीर है और पितृपक्ष में किसी के शरीर छुटने यानि मृत्यु के लिए तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है या फिर नए शरीर में किसी शिशु को इस संसार में आने के लिए भी इन तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है, तो फिर मकान बदलने के लिए पितृपक्ष की समाप्ति की प्रतीक्षा क्यों करनी भला ?

फ़िलहाल उन सज्जनों की बातों को तो जाने देते हैं, पर अगर आप को ये तथाकथित "मुहूर्त, अपशकुन, पितृपक्ष, खरमास" जैसे निष्प्राण चोंचलों के सार्थक औचित्य के कई या कोई भी उचित तर्क या कारण मालूम हो, तो मुझ मूढ़ को भी तनिक इस से अवगत कराने की कृपा किजिएगा .. प्रतीक्षारत - एक मूढ़ बुड़बक .. बस यूँ ही ...

फ़िलहाल उस दौरान मन में पनपे कुछ शब्दों को अपनी बतकही की शक्ल में आगे बढ़ाते हैं :-

(१) शुभ मुहूर्त :-

जन्म-मरण का जो कोई शुभ मुहूर्त होता किसी पत्रा में नहीं,

तो करना कोई भी शुभ काज कभी भी, होगा खतरा में नहीं।

(२) अपनी ठठरी के भी बेचारे ... :-

साहिब! अपनी बहुमंजिली इमारतों पर यूँ भी इतराया नहीं करते,

बननी है जो राख एक दिन या फिर खुद सोनी हो जमीन में गहरे।


यूँ तो पता बदल जाता है अक़्सर,  घर बदलते ही किराएदारों के,

पर बदलते हैं मकान मालिकों के भी, जब सोते श्मशान में पसरे।


"लादे फिरते हैं हम बंजारे की तरह सामान अपने कांधे पर लिए"-

-कहते वे हमें, जिन्हें जाना है एक दिन खुद चार कांधों पे अकड़े।


पल-पल गुजरते पल की तरह गुजरते बंजारे ही हैं यहाँ हम सारे,

आज नहीं तो कल गुजरना तय है, लाख हों ताले, लाख हों पहरे।


वहम पाले समझते हैं खुद को, मकान मालिक भला क्यों ये सारे,

हैं किराएदार खुद ही जो चंद वर्षों के, अपनी ठठरी के भी बेचारे।



Monday, November 29, 2021

एक पोटली .. बस यूँ ही ...

चहलक़दमियों की 

उंगलियों को थाम,

जाना इस शरद

पिछवाड़े घर के,

उद्यान में भिनसार तुम .. बस यूँ ही ...


लाना भर-भर

अँजुरी में अपनी,

रात भर के 

बिछे-पसरे,

महमहाते 

हरसिंगार तुम .. बस यूँ ही ...


आँखें मूंदे अपनी फिर

लेना एक नर्म उच्छवास 

अँजुरी में अपनी और .. 

भेजना मेरे हिस्से 

उस उच्छवास के 

नम निश्वास की फिर

एक पोटली तैयार तुम .. बस यूँ ही ...


हरसिंगार की 

मादक महमहाहट,

संग अपनी साँसों की

नम .. नर्म .. गरमाहट,

बस .. इतने से ही

झुठला दोगी 

किसी भी .. उम्दा से उम्दा ..

'कॉकटेल' को यार तुम .. बस यूँ ही .. शायद ...







Monday, September 13, 2021

रहे याद हमें, उन्हें भी ...

हाल ही में एक पहचान वाले महानुभाव ने चुटकी लेने के अंदाज़ में या पता नहीं गंभीर लहज़े में मुझ से बातों-बातों में कहा कि कलाकार प्रशंसा के भूखे होते हैं। हमको बात कुछ अटपटी लगी, क्योंकि हम ऐसा नहीं मानते; हालांकि वह ख़ुद भी अपने आप को कलाकार ही मानते या कहते हैं। उनके ये कहे प्रशंसा वाले कथन अक़्सर लोगबाग भी कहते हुए सुने जाते हैं। पर हमको अपनी आदतानुसार, किसी की काट्य बातों के लिए भी, केवल उस को ख़ुश रखने के लिए, उसकी बातों में हामी ना भरने वाली अपनी आदत के अनुसार, उन की इस बात से असहमति जताते हुए कहना पड़ा कि आप गलत कह रहे हैं, कलाकार नहीं, बल्कि टुटपुँजिए कलाकार प्रशंसा के भूखे भले ही हो सकते हैं, पर सच्चा कलाकार प्रशंसा का नहीं, बल्कि निष्पक्ष समीक्षा की चाह भर ही रखता है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ये तो हो गई इधर-उधर की बतकही भर, पर कलाकार शब्द की चर्चा से कला की भी याद आ गयी कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से ये मानते आए हैं और सही भी तो है, कि कला के बिना, विशेषकर संगीत और साहित्य के बिना, इंसान और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता। परन्तु पशु बेचारे इन दोनों में रूचि भले ही ना लेते हों, पर कम से कम इनका विरोध भी तो नहीं करते हैं। लेकिन इसी धरती पर इन पशुओं से भी गई-गुजरी कई ऐसी तथाकथित मानव नस्लें हैं, जो इन दोनों का खुलेआम विरोध ही नहीं करतीं, बल्कि इन दोनों में रूचि रखने वाले क़ाबिल लोगों का क़त्लेआम करने में भी तनिक हिचक महसूस नहीं करतीं वरन् शान महसूस करतीं हैं। ऐसा कर के अपने आप को मज़हबी, सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ और पाक-साफ़ भी मानतीं हैं .. ये जो तथाकथित शरीया कानून के या ना जाने वास्तव में किसी कसाई घरों के पाशविक नुमाइंदे हैं .. शायद ...

हम इन दिनों रक्षाबंधन, जन्माष्टमी या तीज जैसे वर्तमान वर्ष के बीते त्योहारों या दशहरा, दीवाली या छठ जैसे भावी त्योहारों के नाम पर लाख खुश हो लें, नाना प्रकार की मिठाईयों या पकवानों से अपना और दूसरों का भी मुँह मीठा कर-करवा लें, एक दूसरे पर शुभकामनाओं और बधाईयों की बौछार कर दें, साहित्यिक बुद्धिजीवी हैं तो कुछ भी लिख लें, कुछ भी 'पोस्ट' कर दें, परन्तु .. कुछ भी करने-कहने से पहले .. वर्तमान में, शायद ही कोई संवेदनशील, साहित्यिक बुद्धिजीवी या आम जन भी होंगे, जो कि विश्व पटल पर अफगानिस्तान में घट रही अनचाही विभिन्न विभत्स घटनाओं को जनसंचार के उपलब्ध विभिन्न संसाधनों के माध्यम से, आधी-अधूरी ही सही, देख-जान कर मर्माहत या चिंतित ना होते होंगें और भविष्य के विध्वंसक भय की अनचाही धमक से भयभीत ना होते होंगे .. शायद ...

बेबस अदना-सा एक अदद इंसान, उन नरपिशाच अदम्यों के समक्ष कर भी क्या सकता है भला ! .. सिवाय अपनी नश्वर, पर .. शेष बची साँसों, धड़कनों .. अपने कतरे भर बचे-खुचे जीवन को बचाने की सफल या असफल गुहार लगाने की .. विवश, बेबस, कातर, करुण गुहार ... आँखों के सामने दिख रहे तथाकथित ज़िहादी मज़हबी इंसानों से भी और तथाकथित अनदेखे ऊपर वाले से भी .. बस यूँ ही ... कि :-

(१) 
रक्त के थक्के .. धब्बे .. :-
शग़ल है शायद
सुनने की तुम्हें 
अनवरत, अविरल,
मंत्रों की फुसफुसाहटें,
कलमों की बुदबुदाहटें,
अज़ानों की चिल्लाहटें .. शायद ...

सुन भी लिया कर
कभी तो तनिक ..
ज़ालिम तुम इन सारे
चीखों औ चीत्कारों को,
सिसकियों और ..
कपसती पुकारों को .. बस यूँ ही ...

लहू निरीहों के बहते,
यूँ तो देखें हैं तू ने बहुतेरे,
हर बार क़ुर्बानियों 
औ बलि के नाम पे, काश ! .. 
देख लेता तू एक बार सूखे, सहमे-से,
इंसानी रक्त के थक्के .. धब्बे .. बस यूँ ही ...

पर तथाकथित अवतारों से की गई इन व्यर्थ की गुहारों के पहले या बाद में या फिर साथ-साथ ही, हम सभी को एक बार ही सही अपने-अपने गिरेबान में भी झाँकने की ज़रूरत है .. शायद .. बस यूँ ही ...

(२)
रहे याद हमें, उन्हें भी ... :-
अक़्सर .. 
जब कभी भी
चढ़ते देखा है कहीं
मंदिर की सीढ़ियों पर यदि
किसी को भी तो अनायास ही।
आ जाते हैं याद मुझे ग़ालिब जी -
"हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
 दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।" .. बस यूँ ही ...

बर्बर ..
हैं ये बेहूदे बेहद ही
दहशत हर रहगुज़र की
करते जो क़त्लेआम नाहक़ ही
नाम पे शरीयत के कहीं भी, कभी भी।
आ जाते काश जो समझाने इन्हें ख़ुसरो जी - 
"खुसरो सोई पीर है, जो जानत पर पीर।
 जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर।" .. बस यूँ ही ...

दरबदर ..
राह से भटके सभी
जितने वे, उतने हम भी,
'तुलसी' जी रहे याद हमें, उन्हें भी
ऊलजलूल कही तत्कालीन 'बातें' सभी।
काश समझते हम, 'तुलसी' जी कम, ज्यादा ख़ुसरो जी
"खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
 वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।" .. बस यूँ ही ...




Thursday, September 9, 2021

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(अंतिम भाग-४).

गत तीन दिनों में प्रस्तुत तीन भागों में लम्बी भूमिकाओं :-

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-१).

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-२).

और 

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-३).

के बाद ... आज बस .. अब .. कल के वादानुसार आइए .. कुछ भी कहते-सुनते (लिखते-पढ़ते) नहीं हैं .. बल्कि हम मिलकर देखते हैं .. मुंशी प्रेमचंद जी की मशहूर कहानी- कफ़न पर आधारित एक लघु फ़िल्म .. हम प्रशिक्षुओं का एक प्रयास भर .. इस "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-४)." - अंतिम भाग  में .. बस यूँ ही ...

(फ़िल्म कफ़न का 'लिंक' - " कफ़न  "या इस ब्लॉग के View web version को click करने से मिल जाएगा।)

                                  कफ़न