Wednesday, July 21, 2021

वो हो जाने दूँ ? ...

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

देकर एक बार कभी, किसी को तू जीवनदान,
लेता है साल-दर-साल क्यों भला हमारे प्राण?
हर बार, बारम्बार कटती तो हैं यूँ हमारी गर्दनें ,
फिर सामने तेरे क्यों झुकती हैं इनकी ये गर्दनें?

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

शरीयत, हदीस, कलमे बंदों ने या बनायी तूने,
करते हैं 'कलमा इस्तिग़फ़ार' पढ़-पढ़ के तो ये
बंदे तेरे सारे, गुनाह कई , कितनी साफ़गोई से
समझूँ तुझे विधाता है या फिर कोई कसाई रे?

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

सुना है, सुन लेता है तू इनके बुदबुदाए कलमे,
पर मेरी चीखों की पारी में बन जाते हो बहरे।
बख़्श दो विधाता ! कभी तो हमारी भी जानें, 
वर्षों बहुत चबायी हैं तूने नर्म-गर्म हमारी रानें।

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

सुना है कि तू तो सारे जग का है परवरदिगार,
फिर जीने का मेरा भी है क्यों नहीं अख़्तियार?
सच में ! मेरी लाशें, मेरे बहते लहू, तुझे ये सारे,
कर जाते हैं खुश? तू भला कैसा परवरदिगार?

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

यूँ तो जो तेरे गढ़े मामूली इंसान हैं ये, जो ख़ातिर 
जीभ-सेहत की और ख़ातिरदारी में कभी अपने 
मेहमानों की, निरीहों को ही नहीं कर रहे हलाल,
निगल कर धरती को भी तेरी ये कर रहे कंगाल।
तू तो विधाता, क्यों नहीं फिर इन्हें सका संभाल?

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?

बुझती नहीं क्या प्यास तुम्हारी, लहू पी पीकर भी?
बता ना जरा, तेरी लाद बड़ी है या तेरी प्यास बड़ी?
मिटी नहीं भूख, खाकर बोटियाँ मसालेदार हमारी?
डकार भी ले, पेट भरे ना भरे, मुँह भी थकता नहीं?
सुना कभी लहू पीने की आवाज़ भी तो गट-गट की।

विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?


चलते-चलते :- क्षमा साहिबा ! .. क्षमा साहिबान ! .. माफ़ी कद्रदान !!!
                     जाते-जाते .. एक भूल हो रही .. हम भूल ही गए कि .. 
                     देना है आप सभी को तो, आज हमें मुबारकबाद भी ..
                     वर्ना हम धर्म-निरपेक्ष नहीं कहलायेंगें .. और ...   
                     सभ्य समाज से तड़ीपार भी कर दिए जायेंगे, तो ...
                     फिर ईद-उल-अज़हा मुबारक हो भाई जान ! .. 
                     ईद-उल-जुहा मुबारक हो आपा जान ! .. बस यूँ ही ...
                     

                     एक त्रासदी ...
                     ज़िबह करो या मारो झटका,
                      कटता है हर हाल में बकरा।            








Saturday, July 17, 2021

एतवार के एतवार ये ...

मेड़ों से 

सीलबंद

खेतों के 

बर्तनों में

ठहरे पानी 

के बीच,

पनपते

धान के 

बिचड़ों की तरह,

आँखों के

कोटरों की

रुकी खारी 

नमी में भी

उगा करती हैं, 

अक़्सर ही

गृहिणियों की 

कई कई उम्मीदें .. शायद ...


आड़ी-तिरछी 

लकीरें

इनके पपड़ाए

होठों की,

हों मानो ...

'डिकोडिंग' 

कोई ;

एड़ियों की 

इनकी  शुष्क 

बिवाई की 

कई आड़ी-तिरछी 

लकीरों से सजे,

चित्रलिपिबद्ध

अनेक गूढ़ 

पर सारगर्भित

'कोडिंग' के 

सुलझते जैसे .. शायद ...


गर्म मसाले संग

लहसुन-अदरख़ में

लिपटे मुर्गे, मांगुर या 

झींगा मछलियों के

लटपटे मसाले वाली,

या कभी सरसों या 

पोस्ता में पकी 

कड़ाही भर

रोहू , कतला या 

हिलसा के 

झोर की गंध से,

'किचन' से लेकर

'ड्राइंग रूम' तक,

अपने घर की और ...

आसपड़ोस तक की भी,

सजा देती हैं अक़्सर

एतवार के एतवार ये .. शायद ...


शुद्ध शाकाहारी

परिवारों में भी

कभी पनीर की सब्जी,

या तो फिर कभी

कंगनी या मखाना 

या फिर .. 

बासमती चावल की 

स्वादिष्ट सोंधी 

रबड़ीदार तसमई से

सजाती हैं,

'बोन चाइना' की 

धराऊ कटोरियाँ

एतवार के एतवार ये,

ताकि ...

सजे रहें ऐतबार,

घर में हरेक 

रिश्तों के .. बस यूँ ही ...


"गृहिणियों" .. यहाँ, यह संज्ञा, केवल उन गृहिणियों के लिए है, जो आज भी कई भूखण्डों पर, चाहे वहाँ के निवासी या प्रवासी, किसी भी वर्ग (उच्च या निम्न) के लोग हों, उनके परिवारों में महिलायें आज भी खाना बनाने और संतान उत्पन्न करने की सारी यातनाएँ सहती, एक यंत्र मात्र ही हैं। घर-परिवार के किसी भी अहम फैसले में उनकी कोई भी भूमिका नहीं होती। 

बस .. प्रतिक्रियाहीन-विहीन मौन दर्शक भर .. उनकी प्रसव-पीड़ा की चीख़ तक भी, उस "बुधिया" की चीख़ की तरह, आज भी "घीसू" और "माधव" जैसे लोगों द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं .. बस यूँ ही ... 】.








Wednesday, July 14, 2021

इक बगल में ...

आना कभी
तुम ..
किसी
शरद पूर्णिमा की,
गुलाबी-सी 
हो कोई जब
रूमानी, 
नशीली रात,
लेने मेरे पास
रेहन रखी 
अपनी 
साँसें सोंधी
और अपनी 
धड़कनों की
अनूठी सौग़ात।

दिन के 
उजाले में
पड़ोसियों के
देखे जाने
और फिर ..
रंगेहाथ हमारे 
पकड़े जाने का
भय भी होगा।
शोर-शराबे में, 
दिन के उजाले में,
रूमानियत 
भी तो यूँ ..
सुना है कि
सिकुड़-सा 
जाता है शायद।

दरवाजे पर 
तो है मेरे
'डोर बेल',
पर बजाना 
ना तुम,
धमक से ही
तुम्हारी 
मैं जान
जाऊँगा
जान ! ...
खुलने तक 
दरवाजा,
तुम पर
संभाले रखना 
अपनी जज़्बात।

यक़ीन है,
मुझे कि तुम
यहाँ आओगी
सजी-सँवरी ही, 
महकती 
हुई सी,
मटकती
हुई सी,
फिर अपनी 
बाँहों में
भर कर 
मुझको,
मुझसे ही
लिपट जाओगी,
लिए तिलिस्मात।

पर मुझे भी
तो तनिक
सजने देना,
तत्क्षण हटा
खुरदुरी बढ़ी 
अब तक की दाढ़ी,
'आफ़्टर शेव' 
और 'डिओ' से 
महकता हुआ,
सिर पर उगी
चाँदी के सफ़ेद
तारों की तरह,
झक्कास सफ़ेद 
लिबास में खोलूँगा 
दरवाजा मैं अकस्मात।

जानता हूँ
कि .. तुम 
ज़िद्दी हो,
वो भी
ज़बरदस्त वाली,
जब कभी भी
आओगी तो,
जी भर कर प्यार 
करोगी मुझसे,
सात फेरे और
सिंदूर वाले
हमारे पुराने
सारे बंधन
तुड़वा दोगी
तुम ज़बरन।

जागने के
पहले ही
सभी के,
हो जाओगी
मुझे लेकर
रफूचक्कर,
तुम्हारे 
आगमन से
प्रस्थान 
तक के 
जश्न की 
तैयारी
कितनी 
भी हो
यहाँ ज़बरदस्त।

यूँ तो 
इक बग़ल में 
मेरी सोयी होगी
अर्धांगिनी
हमारी,
हाँ .. मेरी धर्मपत्नी ..
तुम्हारी सौत।
फिर भी ..
दूसरी बग़ल में
पास हमारे
तुम सट कर
सो जाना,
लगा कर
मुझे गले 
ऐ !!! मेरी प्यारी-प्यारी .. मौत .. बस यूँ ही ...


【 बचपन में अक़्सर हम मज़ाक-मज़ाक में ये ज़ुमले बोला-सुना करते थे ..  "एक था राजा, एक थी रानी। दोनों मर गए, ख़त्म कहानी " .. ठीक उसी तर्ज़ पर, अभी उपर्युक्त बतकही पर मिट्टी डाल के, उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं और ठीक अभी-अभी "इक बगल में ..." जैसे वाक्यांश/शीर्षक को मेरे बोलने/सुनने भर से ही, मेरे ज़ेहन में अनायास ही एक गीत की जो गुनगुनाहट तारी हुई है .. जिसके शब्द, संगीत, आवाज़ और प्रदर्शन, सब कुछ हैं .. लोकप्रिय पीयूष मिश्रा जी के ; तो ... अगर फ़ुरसत हो, तो आइए सुनते हैं .. मौत-वौत को भूल कर .. वह प्यारा-सा गीत ...
 .. बस यूँ ही ... 】

( कृपया  इस गीत का वीडियो देखने-सुनने के लिए इसके Web Version वाला पन्ना पर जाइए .. बस यूँ ही ...)






Tuesday, July 13, 2021

बाबिल का बाइबल ...

इसी रचना/बतकही से :-

"अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ..."

आज के शीर्षक का "बाइबल" शब्द हमारे लिए उतना अंजाना नहीं है, जितना शायद "बाबिल" शब्द .. वो भी एक व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में हो तो। अपने पुराने नियमों के 929 अध्यायों और नए नियमों के 260 अध्यायों के तहत कुल 31102 चरणों से सजे बाइबल की सारी बातें भले ही पूरी तरह नहीं जानते हों हम, पर एक धर्मग्रंथ होने के नाते बाइबल का नाम तो कम से कम हमारा सुना हुआ है ही। अजी साहिब ! .. हम पूरी तरह अपने वेद-पुराणों को भी कहाँ जान पाते हैं भला ! .. सिवाय चंद व्रत-कथाओं, आरतियों, चालीसाऔर रामायण-महाभारत जैसी पौराणिक कथाओं के ; फिर बाइबल तो .. फिर भी तथाकथित "अलग" ही चीज है .. शायद ...
ख़ैर ! ... फ़िलहाल हम बाइबल को भुला कर, बाबिल की बात करते हैं। हम में से शायद सभी ने इरफ़ान का तो नाम सुना ही होगा ? अरे ! .. ना .. ना .. हम भारतीय बल्ला खिलाड़ी (Cricket Player) - इरफ़ान पठान की बात नहीं कर रहे ; बल्कि अभी तो हम फ़िल्म अभिनेता दिवंगत इरफ़ान खान की बात कर रहे हैं। हालांकि ये भी अपने जीवन के शुरुआती दौर में क्रिकेट के एक अच्छे खिलाड़ी रहे थे। बाबिल उनके ही दो बेटों में बड़ा बेटा है। लगभग 21 वर्षीय बाबिल, यूँ तो आज की युवा पीढ़ी की तरह सोशल मीडिया पर छाए रहने के लिए अपनी तरफ से भरसक प्रयासरत रहता है। परन्तु अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ...
यूँ तो सर्वविदित है कि हर इंसान अपने माता-पिता का 'डीएनए' ले कर ही पैदा होता है। अब जिसके पास इरफ़ान जैसे पिता का डीएनए हो, तो उसकी इस तरह की बयानबाज़ी पर तनिक भी अचरज नहीं होता। वैसे इरफ़ान ने भी अपने नाम के माने- बुद्धि, विवेक, ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान या तमीज़ को जीवन भर सार्थक किया ही है। अपनी मानसिकता के अनुसार, एक तो वह क़ुर्बानी (बलि) जैसी प्रथा के खिलाफ थे, जिस कारण से वह ताउम्र शुद्ध शाकाहारी थे। सभी धर्मों को समान मानते थे। पाखंड और आडम्बर के धुर विरोधी थे। बाद में उन्होंने अपने नाम के आगे लगे, जाति-धर्म सूचक उपनाम- "खान" को भी हटा दिया था। दरअसल वह वंशावली के आधार पर अपनी गर्दन अकड़ाने की बजाय अपने कामों से सिर उठाना जानते थे। तभी तो क़ुदरत से मिली अपनी जानलेवा बीमारी की वज़ह से अपनी कम आयु में भी देश-विदेश की कई सारी उपलब्धियां अपने नाम कर गए हैं इरफ़ान .. मील के एक पत्थर से भी कहीं आगे .. शायद ...
दूसरी ओर बाबिल की माँ - सुतापा सिकदर भी इरफ़ान की तरह ही, लगभग इरफ़ान की हमउम्र, एनएसडी (NSD / National School of Drama, New ) से अभिनय में स्नातक हैं। चूँकि वह पर्दे के पीछे का एक सक्रिय नाम हैं, इसीलिए शायद यह नाम अनसुना सा लगे; जब कि वह फ़िल्म निर्मात्री (Film Producer), संवाद लेखिका (Dialogue Writer) के साथ-साथ एक कुशल पटकथा लेखिका (Screenplay Writer) भी हैं।
एक तरफ इरफ़ान राजस्थानी मुस्लिम परिवार से और दूसरी तरफ सुतापा एक आसामी हिन्दू परिवार से ताल्लुक़ रखने के बावज़ूद, दोनों ने एनएसडी के कलामय प्रांगण में अपने पनपे प्रेम के कई वर्षों बाद, एक मुक़ाम हासिल करने के बाद ही शादी करने के आपसी वादे/समझौते के अनुसार, सन् 1995 ईस्वी में एक साधारण-सा अन्तरधर्मीय कोर्ट मैरिज (Court Marriage) किया था। तब शायद "लव ज़िहाद" जैसा मसला इतना तूल नहीं पकड़ा हुआ था और ना ही इरफ़ान ने आज के "लव ज़िहाद" की तरह अपना धर्म छुपा कर, सुतापा को बरगलाया था। बल्कि दोनों एक दूसरे की मानसिकता, रुचि, व्यवसाय .. सब बातों से वाकिफ़ थे और धर्म तो ... इनके आड़े आया ही नहीं कभी भी, क्योंकि जो सभी धर्मों को, पंथों को, जाति को .. एक जैसा मानता हो, सब को एक इंसान के रूप में देखता हो, वैसे इंसानों को इस जाति-वाती या धर्म-वर्म के पचड़े में क्यों पड़ना भला ! .. शायद ...
अब बाबिल के सोशल मीडिया पर ध्यान आकर्षित करने वाले बयान की बात करते हैं। अपने किसी "हिन्दू-मुस्लिम करने वाले" दकियानूस प्रशंसक द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह मुस्लमान हैं ?,  उसका जवाब भी अपने मरहूम पिता की तरह ही था, कि - " मैं बाबिल हूँ। मेरी पहचान किसी धर्म से नहीं है और वह 'सभी के लिए' हैं। " दरअसल उसने भी अपने पिता की तरह धर्म-जाति सूचक अपने उपनाम को अपने नाम के आगे से हटा दिया है। आगे वह यह कह कर भी अपनी बात पूरी किया , कि - " मैंने बाइबल, भगवत गीता और क़ुरान पढ़ी है। अभी गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ रहा हूं और सभी धर्मों को मानता हूँ। हम एक दूसरे की कैसे सहायता कर सकते हैं और दूसरे को आगे बढ़ाने में कैसे मदद करते हैं, यही सभी धर्मों का आधार है। "
वैसे तो गुरु ग्रंथ साहिब का तो सार ही है, कि :-
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपजाया कौन भले को मंदे"

वर्तमान में वह ब्रिटेन की राजधानी लंदन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय (University of Westminster, London) से फिल्म अध्ययन में कला स्नातक (Bachelor of Arts) की अपनी पढ़ाई छोड़ कर, अपने मरहूम पिता के जीते जी बुने गए सपनों को पूरा करने के लिए भारतीय फ़िल्मी दुनिया में मशग़ूल हो चुका है। जल्द ही नेटफ्लिक्स (Netflix) और 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) के पर्दों पर वह अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरेगा।
ग़ौरतलब बात ये है कि एक तरफ जहाँ हम अपने जाति-धर्म सूचक उपनामों को जिन कारणों से भी छोड़ना नहीं चाहते, बल्कि स्वार्थ की लेई से चिपकाए फ़िरते हैं ; ताकि या तो एक तबक़े के लोगबाग को या उनकी अगली पीढ़ी दर पीढ़ी को, इसके बिना कहीं आरक्षण से वंचित ना रह जाना पड़े और दूसरे तबक़े की भीड़ इसके बिना अपनी तथाकथित वंशावली की आड़ में अपनी गर्दन को अकड़ाने से कहीं चूक ना जाए। फिर तो उनकी पहचान ही नेस्तनाबूद हो जाएगी शायद। ऐसे में .. "हम श्रीवास्तव 'हईं' (हैं)", "हम कायस्थ" बानी (हैं)", "हम फलां हैं", "हम ढिमकां हैं" ... जैसी बातें बोलने वाली प्रजातियों के लुप्तप्राय हो जाने का भी डर रहेगा। ऐसे दौर में .. मात्र 21 साल के इस एक लड़के की ऐसी सोच वाली बयानबाजी यूँ ही ध्यान नहीं आकृष्ट कर पा रही है .. बस यूँ ही ...
आज की युवा पीढ़ी को बाबिल की इस सोच को निश्चित रूप से अपना आदर्श बनाना चाहिए .. शायद ... आज ना कल, युवा पीढ़ी ही समाज की रूढ़िवादिता की क़ब्र खोद सकती है। वर्ना .. वयस्क बुद्धिजीवी वर्ग तो बस एक दूसरे को कुरेदते हुए, इस सवाल में ही उलझा हुआ है, कि हम अपनी नयी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं !? जब कि यह तो तय करेगी .. आने वाले भविष्य में रूढ़िवादिता के जाल से निकली हुई युवा नस्लें। चहकते हुए यह चर्चा कर के, कि - वाह !!! क्या परोसा है हमारे पुरखों ने !! .. सही मायने में आज रूढ़िवादिता परोसने वालों को तो, भावी नस्लें सदियों कोसेंगी, भले ही वह भविष्य - एक दशक के बाद आए या फिर एक शताब्दी के बाद आए या फिर कई दशकों-शताब्दियों के बाद ही सही .. पर वो भविष्य आएगा जरूर .. शायद ...
अब आज बस इतना ही .. इसी उम्मीद के साथ कि हम ना सही .. हमारी भावी पीढ़ी .. कम से कम .. आज नहीं तो कल .. बाबिल की तरह सोचने लग जाए .. काश !!! .. बस यूँ ही ...










Sunday, July 11, 2021

अंट-संट ...


भूमिका :- 

आती हैं पूर्णिमा के दिन .. हर महीने के,

नियमित रूप से घर .. शकुंतला 'आँटी' के,

नौ-साढ़े नौ बजे सुबह खाली पेट मुहल्ले भर की,

स्कूल नहीं जाने वाले कुछ छोटे बच्चों, 

कॉलेज की पढ़ाई के बाद घर पर 'कम्पटीशन' की 

तैयारी कर रहे कुछ युवाओं, कुछ 'रिटायर्ड' बुजुर्ग मर्दों और

'लंच' की 'टिफिन' के साथ अपने पतियों को काम पर 

भेज कर कुछ कुशल गृहिणी औरतों की झुंड मिलकर,

थोड़ा पुण्य कमाने यहाँ सत्यनारायण स्वामी की कथा सुनकर,

सिक्के के बदले आरती लेकर, कलाई पर कलावा बँधवा कर

और अंत में "चरनामरित" (चरणामृत) पीकर और .. 

पावन "परसाद" (प्रसाद) खा कर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - १ :-

अब आज भी आये हुए बच्चे .. बच्चों का क्या है भला !

उनका तो होता नहीं कथा से या पुण्य कमाने से कोई वास्ता,

कोई पाप अब तक किये ही नहीं होते हैं जो वो सारे .. है ना !?

"काकचेष्टा" वाली चेष्टा बस टिकी होती हैं उनकी तो,

थालों में सजे फलों के फ़ाँकों पर .. 

लड्डूओं और पंजीरी पर भी थोड़ी-थोड़ी .. शायद ...

और औरतें तो .. बिताती हैं समय, छुपाती हुई ज्यादा आधे से,  

अक़्सर अपनी फटी एड़ियाँ अपनी साड़ी के 

फॉल वाले निचले हिस्से से या फिर कभी दुपट्टे

या ढीले ढाले 'प्लाजो' के आख़िरी छोर से,  

छुपा पाती हैं भला कब और कहाँ फिर भी .. 

वो अपने मन की उदासियाँ पर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - २ :-

"पंडी" (पंडित) जी चढ़ावे पर "वकोध्यानम" वाला ध्यान लगा कर

उधर शुरू करते हैं कथा का अध्याय पहला और इधर ..

मुहल्ले भर की कथाओं को वांचने लगती है कुछ औरतें मिलकर।

"जाति प्रमाण पत्र" की तरह बाँटने लगती हैं एक-एक कर,

किसी को "कठजीव" ' (कठकरेज) होने का, 

तो किसी के बदचलन होने का प्रमाण पत्र -

" पूर्णिमा 'आँटी' की छोटकी बेटी तो पूरे 'कठजीव' है जी !

तनिक भी ना रोयी थी अपनी विदाई के समय और 

"उ" (वह) .. रामचरण 'अंकल' की बड़की (बड़ी) बहू भी तो 

"आउरो" (और भी) 'कठजीव' है जी ! है कि ना 'आँटी जी' ? "

" पति की लाश आयी जब "सोपोर" आतंकी हमले के बाद, 

तब .. माँ-बेटी , दोनों की आँखों  से एक बूँद आँसू नहीं टपका जी !

बस .. भारत माता की जय ! .. भारत माता की जय !!, 

वंदे मातरम् ! ,जय हिन्द !!! .. ही केवल चिल्लाती रहीं थीं मगर। "

" और "उ" (वह) .. कौशल्या फुआ की नइकी (नयी) बहू तो ..

बहुते (बहुत) बदचलन है जी !, जो चलती है घर से बाहर तो ..

'लो कट स्लीवलेस' ब्लाउज पहन कर अक़्सर

और मर्दों सब से बतियाती है, जब देखो हँस-हँस कर " 

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ३ :-

अब 'रिटायर्ड' मर्दों का थोड़े ही ना कोई मौन व्रत है जी आज ?

उनकी भी कथाओं का अध्याय गति पकड़े हुए है निरंतर,

सत्यनारायण स्वामी जी की कथा के ही समानांतर -

" बिर्जूआ का बेटवा (बेटा) बड़ा कंजूस निकला जी ! ..

तीन दिनों में ही निपटा दिया आर्य समाजी बन कर

और गोतिया-नाता, मुहल्ला-दोस्त, "कंटहवा" (महापात्र ब्राह्मण), 

सब का भोज-भात भी कर गया गोल, 

पर नहीं बनाया पीसा अरवा चावल, मखाना, तिल का  

पिंडदान वाला पिंड मुआ .. नासपिटा .. गोल-गोल,

अपने मरे बाप की आत्मा की शांति की ख़ातिर। "

आगे गिनाते रहे वो सत्तारूढ़ सरकार की नाकामियां सब मिल कर।

तभी मनोहर 'चच्चा' (चाचा) सिन्हा जी की मंझली बेटी का

देकर हवाला, बोले सभी से फ़ुसफ़ुसा कर,

" 'लव मैरिज' सारे .. जरा भी टिकाऊ नहीं होते हैं जी .. 

और तो और, 'इंटरकास्ट मैरिज' की भी तो ख़ामियाँ तमाम हैं पर ..

 आजकल के छोकरे-छोकरियों को कौन समझाये भला मगर !?

 कम उम्र में ही तभी तो करवा कर 'इंटर',

 अपनी बेटी को भेज दिया उसके ससुराल, उसे ब्याह कर। "

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ४ :-

अब कथा के चौथे अध्याय में भले ही,

सत्यनारायण स्वामी जी प्रभु के प्रकोप से,

बेचारी लीलावती की बेटी कलावती के पति की

नाव डूब गई हो धारा में किसी नदी की,

पर .. मजाल है कि डूब जाए आवाज़ किसी की,

बोलते वक्त चिल्ला कर समवेत स्वर में - "जय" ;

हर अध्याय के बाद जोर-जोर से शंख बजा-बजा कर 

हर बार जब-जब बोलें 'पंडी' जी कि -

" जोर से बोलिए सत्यनारायण स्वामी की जै (जय) !! "

और हाँ .. कथा के बीच-बीच में 'पंडी' जी

गोबर गणेश जी और ठाकुर (शालिग्राम) जी पर भूलते नहीं 

"द्रब" (द्रव्य) के नाम पर सिक्का चढ़वाना कभी भी .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा पंचम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ५ :-

शोर मची अब तो पाँचवे अध्याय के बाद "स्वाहा, स्वाहा" की,

फिर बारी आयी  -" ओम जय जगदीश हरे " की,

कपूर की बट्टियों और "गणेश मार्का" पूजा वाले घी की आरती की,

युगलबंदी करती है जिससे खाँसी, भूखे-प्यासे 'अंकल' जी की,

गले में लगती धुआं से .. हवन वाले हुमाद-नारियल की।

कभी सीधी, कभी टेढ़ी करते, 'अंकल' जी अपनी कमर अकड़ी।

भक्त ख़ुश बँधवा कर कलावा और पा कर प्रसाद,

उधर 'पंडी' जी भी खुश पाकर यजमान से दक्षिणा तगड़ी।

" एगो (एक) अँगूर की ही कमी है दीदी, प्रसाद में "- जाते-जाते 

बोलीं रामरती चाची-"बांकी तअ (तो) सब अच्छे से हो गया दीदी ।"

उधर घर के लिए आये पाव भर शुद्ध घी के अलग मँहगे लड्डू में से,

'आँटी' जी का बेटा- चिंटू, प्रसाद के दोने वाले पंजीरी में,

एक लड्डू छुपा कर देने से खुश है, कि खुश होगी पड़ोस की चिंकी,

हाँ .. उसकी चिंकी और .. और भी प्रगाढ़ होगा प्रेमपाश .. शायद ...

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा संपूर्ण।।


उपसंहार :-

तुम भी ना यार ... हद करते हो,

जो भी मन में आये ..  अंट-संट बकते हो, 

यार .. कुछ तो भगवान से डरा करो .. बस यूँ ही ...







Friday, July 9, 2021

अंगना तो हैं ...

(१) मकोय :-

तुम्हारी 
छोटी-छोटी 
बातें,
खट्टी-मिटटी 
यादें,
हैं ढकी,
छुपी-सी,
समय की
सख़्त
परत में .. शायद ...

मानो ..
लटके हों
गुच्छ में,
अपने
क्षुप से,
काले-रसीले,
खट्टे-मीठे
मकोय
शुष्क
कवच में .. बस यूँ ही ...



(२) शब्दकोश से चुराए कुछ शब्द :- 

(i)

अलि को देख कर अली ने अपनी अली से ये पूछा -
"बोलो अली ! हर बार मुझे छेड़ता है क्यों ये बावरा ?"

(ii)

कहीं बंदिशों की रीत, सज़ा हैं,
कहीं बंदिशों से, गीत सजा है।
 
【१. बंदिश = प्रतिबंध / पाबंदी / रोक।
       सज़ा = दंड।
  २. बंदिश = किसी राग विशेष में सजा एक निश्चित सुरसहित रचना।
       सजा = सुसज्जित।】

(iii)

साहिब ! ये दौर भी भला कैसा गुजर रहा है ?
अंगना तो हैं घर में हमारे, वो अँगना कहाँ है ?




Wednesday, July 7, 2021

बेदी के बहाने बकैती ...

50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही :-

यूँ तो हमारे सभ्य समाज में फ़िल्म जगत से संबंधित कई सारी अच्छी-बुरी मान्यताएं हैं और शायद वो कुछ हद तक सच भी हैं। वैसे तो सभ्य समाज के परिपेक्ष्य में आम मान्यताओं के अनुसार फ़िल्म जगत में बुराइयाँ ही ज्यादा मौजूद हैं। पर अभी हम ना तो उस जगत की अच्छाइयों की और ना ही बुराइयों की कोई भी बकैती करते हैं। बल्कि फ़िल्म जगत से जुड़ी एक अभिनेत्री विशेष के निजी जीवन के पहलूओं में बिना झाँके हुए, केवल उसके द्वारा गत बुधवार, 30 जून को इसी समाज की कुछ लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने वाले क़दमों की धमक सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि गत बुधवार, 30 जून को घटी एक दुःखद घटना वाले समाचार के साथ-साथ, कुछेक नकारात्मक या सकारात्मक, इस से जुड़ी हुई अन्य चर्चाओं से भी, उस दिन से आज तक सोशल मीडिया अटा पड़ा है। दरअसल उस दिन 'बॉलीवुड' फ़िल्म जगत के मशहूर निर्माता-निर्देशक, 'स्टंट निर्देशक' (Stunt Director) के साथ-साथ एक विज्ञापन उत्पादन कंपनी (Advertising Production Company) के मालिक राज कौशल के एक दिन पहले तक शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ्य होने के बावजूद अचानक तड़के ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।

24 जुलाई'1971 को जन्में राज कौशल के द्वारा इसी 24 जुलाई को अपना 50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही उनके अपने नश्वर शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया। वह अपने पीछे, अपनी शादी के लगभग 12 सालों बाद तथाकथित कई मन्नतों के प्रभाव से उत्पन्न हुए, 10 वर्षीय पुत्र- वीर और भारतीय रूढ़िवादी सोच के अनुसार कि एक बेटा और एक बेटी हो जाने से उस भाग्यशाली जोड़ी का परिवार पूर्ण हो जाता है; के ध्येय से पिछले साल सन् 2020 ईस्वी में अपने ही जन्मदिन के दिन गोद ली गई 5 वर्षीय पुत्री- तारा बेदी कौशल के साथ-साथ अपनी धर्मपत्नी- मंदिरा बेदी, जो पेशे से टीवी और फिल्‍मों की मशहूर अभिनेत्री के साथ ही मशहूर 'फ़ैशन डिज़ाइनर' (Fashion Designer) भी हैं, को छोड़ गए हैं। मंदिरा बेदी 20वीं सदी के आख़िरी दशक के दर्शकों को दूरदर्शन की शान्ति के रूप में अवश्य याद होगी। 15 अप्रैल'1972 को जन्मी, उम्र में राज से लगभग नौ महीने छोटी मंदिरा ने उनसे 14 फरवरी'1999 को प्रेम विवाह किया था, जिस दिन सारे देश में विदेशी 'वैलेंटाइन्स डे' (Valentine's Day) के साथ-साथ हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि जैसा पर्व भी मनाया जा रहा था।

'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में :-

हालांकि गत एक सप्ताह में समाचार या सोशल मीडिया में स्वर्गीय राज कौशल के नाम से ज्यादा उनकी पत्नी मंदिरा बेदी का नाम कुछ ज्यादा ही छाया रहा। छाता भी क्यों नहीं भला !!! .. उसने एक महिला होने के बावजूद भी अपने मृत पति की अर्थी के साथ-साथ इस सभ्य समाज की कई रूढ़धारणाओं की अर्थी को भी अपना कंधा देकर, दाह संस्कार भी जो कर दिया था। जिनकी कुछ लोग तारीफ़ कर रहे हैं, तो कुछ थोथी मानसिकता वाले लोग उसे 'ट्रोल' (Troll) भी कर रहे हैं। थोथी मानसिकता वालों की कुछ घिनौनी प्रतिक्रियाओं ने तो मानो उल्टे उनकी घिनौनी सोचों की बखिया ही उधेड़ कर रख दी है .. शायद ...

प्रसंगवश ये बता दें कि हमारी पढ़ाई सरकारी स्कूल में होने के कारणवश हमारी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से, ये 'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में, दो वर्ष पहले इस से जुड़ने के कुछ माह बाद ही, कुछ सज्जन पुरुषों ने परिचित करवाया था। दरअसल मामला मेरी किसी एक रचना/विचार से किन्हीं के मन खट्टा होने का था। फिर क्या था ! .. धमाल की ढेर सारी डकारें निकल के बाहर आयीं। अब भला मन खट्टा हो या पेट में 'एसिड' (Acid/अम्ल) हो तो डकारें आनी स्वाभाविक ही हैं। और तो और ये अंग्रेजी के 'ट्रोल' शब्द से परिचय करवाने की कोशिश करने वाला भी वही वर्ग था, जिन्हें गाहेबगाहे अंग्रेजी भाषा का प्रयोग हिंदी के क्षेत्र में घुसपैठ नजर आती है या हिंदी की जान खतरे में जान पड़ती है।

लैंगिक रूढ़िवादिता की अर्थी :-

ख़ैर ! बात हो रही थी/है - रूढ़धारणा या मान्यतावाद .. और ख़ासकर लैंगिक रूढ़िवादिता के तोड़ने की। रूढ़िवादी सोच वालों को मंदिरा का अपने पति के निधन के बाद उनकी शव यात्रा में अपने पति की अर्थी को अपने कंधे पर उठाया जाना और अंतिम/दाह संस्कार की बाकी रस्मों में हिस्सा लेना, वो भी जींस और टी-शर्ट जैसे पोशाकों में तो, बुरी तरह खल गया ; क्योंकि हमारे भारत देश के सभ्य पुरुषप्रधान समाज में इन रस्मों को पुरुष ही निभाते आये हैं या निभा रहे हैं और आगे भी सम्भवतः निभाते रहेंगे। लकीर का फ़कीर वाले मुहावरे को हम चरितार्थ करने में विश्वास जो रखते हैं।

अब जो पत्नी या औरत शादी के बाद जीवन भर पति या पुरुष और उसके परिवार की जिम्मेवारी, भले ही गृहिणी (House wife) के रूप में ही क्यों ना हो, अपने कंधे पर उठा सकती है; पुरुष के तथाकथित वंश बेल को गर्भ व प्रसव पीड़ा को सहन कर सींच सकती है, सात फेरे और चुटकी भर सिंदूर के बाद अर्द्धांगिनी बन कर परिवार के सारे सुख-दुःख में शरीक हो सकती है ; तो फिर मानव नस्ल की रचना के लिए प्रकृति प्रदत कुछ शारीरिक संरचनाओं में अंतर होने के कारण मात्र से, वह अपने पति की अंतिम यात्रा या अंतिम संस्कार में शामिल क्यों नहीं हो सकती भला ? उसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों ? सती प्रथा वाले कालखण्ड में भी भुक्तभोगी औरत ही थी। वाह रे पुरुष प्रधान समाज ! .. अपनी मर्दानगी पर अपनी गर्दन अकड़ाने वाले सभ्य समाज !! .. पति मरता था तो पत्नी को भी चिता पर जिन्दा ही जला देते थे, तो फिर पत्नी के मरने के बाद पति को क्यों नहीं जलाया जाता था भला ???

तब का बुद्धिजीवी सभ्य समाज भी तो तब के इसी सती प्रथा को सही मान कर अपने घर की बहन, बेटी, भाभी, माँ के विधवा हो जाने पर तदनुसार उनके मृत पति की चिता पर उन्हें जिन्दा जला देते होंगे; परन्तु बदलते वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। आज का सभ्य समाज इसे गलत माने या ना माने, तो भी ऐसा करना क़ानूनन अपराध तो है ही। एक वक्त था, जब तथाकथित अछूतों को सनातनी धर्मग्रंथों को स्पर्श करना, पढ़ना, सब वर्जित था। तब के भी बुद्धिजीवी सभ्य समाज उस पर रोक लगा कर, उसे ही सही मानते हुए अपनी गर्दन अकड़ाते होंगे। पर फिर वक्त बदला और सब कुछ बदल गया, पर बदली नहीं तो इनकी अकड़ने वाली गर्दनें। ऐसे में आज वो सारी लुप्त हो चुकी प्रथाएँ ना हो सही, पर इनको अपनी गर्दन अकड़ाने के लिए कुछ और बहाना तो चाहिए ही ना .. तो आज भी श्मशान या कब्रिस्तान में नारियों का प्रवेश निषेध कर के, पुरुष प्रधान सभ्य समाज अपनी महत्ता पर अपनी गर्दन अकड़ा कर अपना तुष्टिकरण स्वयं कर रहा है .. शायद ...

सीता नाम सत्य है :-

अब .. ऐसे में .. थोथी मानसिकता वाले अपनी इन रूढ़धारणाओं के पक्ष में ढेर सारे धर्मग्रंथों का हवाला देंगे, जैसा वो सती प्रथा के समय देते होंगे। पर यही समाज दो नावों पर सवार किसी सवार की तरह, कभी तो विशुद्ध सनातनी बातें करता है और कभी विज्ञान के सारे जायज-नाज़ायज भौतिक उपकरणों का उपभोग करके आधुनिक बनने की कोशिश भी करता है। यह अटल सत्य है और पुरख़े भी कहते हैं कि समय परिवर्त्तनशील है और समय के साथ ही हर तरफ परिवर्त्तन होता दिखता है, पर कई बातों में दोहरी मानसिकता वाले सभ्य सज्जन पुरुष .. वही आडम्बरयुक्त पाखण्ड के पक्षधर बने लकीर के फ़क़ीर ही जान पड़ते हैं  .. शायद ...

हमारे समाज में आज भी हम अंधानुकरण में मानें बैठे हैं, कि 13 की संख्या बहुत ही अशुभ होती है, पर एक साल के 12 महीनों के कुल बारह 13 तारीख को छोड़ दें तो क्या बाकी दिनों में लोग नहीं मरते ? क्या दुर्घटनाएं नहीं होती ?? 13 'नम्बर' वाले 'बेड' से इतर बीमार लोग नहीं मरते ??? मरते हो तो हैं .. बिलकुल मरते हैं। फिर ये 13 'नम्बर' का मन में ख़ौफ़ क्यों भला ? उसी तरह बेख़ौफ़ होकर अगर पुरुष श्मशान या क़ब्रिस्तान जा सकते हैं, तो औरतें भला क्यों नहीं ?? उन्हें भी तो जाने देना चाहिए, शामिल होने देना चाहिए .. किसी अपने की अंतिम यात्रा में। माना कि सभ्य समाज में पुरुषों ने "राम नाम सत्य है" जैसे जुमलों पर "सर्वाधिकार सुरक्षित" का 'टैग' लगा रखा हो, तो फिर  महिलायें "सीता नाम सत्य है" तो बोल कर अपना काम कर ही सकती हैं ना ? .. शायद ...

युगों से उनका वहाँ जाना हमने वर्जित कर रखा है, तो हो सकता है शुरू - शुरू में उन्हें बुरा लगे, मानसिक आघात भी लगे, पर फिर एक-दो पीढ़ी के बाद हम पुरुषों के जैसा ही उनका जाना भी सामान्य हो जाएगा। याद कीजिए, हम भी जब कभी भी, किसी भी उम्र में जब पहली बार किसी अपने या मुहल्ले के किसी के शव के साथ श्मशान या क़ब्रिस्तान गए होंगे तो हमें भी पहली बार अज़ीब-सा लगा होगा। कई दिनों तक वही सारा दृश्य आँखों के सामने से गुजरता होगा। फिर उम्र के साथ-साथ हम अभ्यस्त हो जाते हैं .. शायद ...

जब औरतें पुरुषों वाले , कुछ प्रकृति प्रदत अंतरों को छोड़ कर, सारे काम कर सकती हैं, अंतरिक्ष यान से लेकर 'ऑटो' तक का, घर की सीमारेखा के भीतर से लेकर देश की सीमा तक का सफ़र तय कर सकती है, तो फिर ये क्यों नहीं ? अपने बचपन या उस से पहले की बात याद करें, तो प्रायः वर पक्ष की महिलाएं शादी-बारात में शामिल नहीं होती थीं। पर धीरे-धीरे समय के साथ सब कुछ बदल गया। अब तो औरतें भी पुरुषों के साथ बारात में बजते बैंड बाजे और 'ऑर्केस्ट्रा' (Orchestra) के गानों संग सार्वजनिक स्थलों पर मजे से नाचती हुई वधू पक्ष के तय किए गए विवाह स्थल तक जाती हैं। जब इस ख़ुशी के पलों के लिए चलन बदल सकता है, तो दुःख की घड़ियों के लिए क्यों नहीं बदला जा सकता भला ? आख़िर हम कुछ मामलों में इतने ज्यादा लकीर के फ़कीर क्यों नज़र आते हैं ???

मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में :-

अब रही बात मंदिरा के उस दिन के पहने हुए पोशाक के, तो सही है कि वह सलवार सूट या साड़ी की बजाय जींस और टी-शर्ट में थी। पर नंगी तो नहीं थी ना !!! थोथी मानसिकता वालों को उसमें क्या बुराई या दोष नज़र आयी भला ? दरअसल दोष तो समाज की कलुषित मानसिकता में ही है, खोट तो इनकी विभत्स नज़रिया में है, इनकी कामुक नज़रों में हैं; जो अगर ... मवाली हुए तो लोकलाज को दरकिनार कर के राह चलती लड़कियों या महिलाओं को सामने से छेड़ते हैं या अगर सभ्यता का मुखौटा ओढ़े दोहरी मानसिकता वाले  सभ्य पुरुष हुए तो चक्षु-छेड़छाड़ करने से जरा भी नहीं चूकते कभी भी .. कहीं भी .. शायद ...

प्रसंगवश यहाँ अगर सन् 1985 ईस्वी के जुलाई महीने में ही आयी हुई फ़िल्म- राम तेरी गंगा मैली की बात करूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि उस फ़िल्म में फिल्माये गए एक दृश्य विशेष को लेकर सभ्य समाज द्वारा उस समय काफ़ी आलोचना यानी 'क्रिटिसाइज'
(Criticize) की गई थी। दरअसल उस जमाने में 'ट्रोल' शब्द ज्यादा चलन में नहीं था, इसीलिए लोग 'क्रिटिसाइज' ही किया करते थे। 'ट्रोल' तो अब करते हैं। फ़िल्म के उस दृश्य में फ़िल्म की नायिका- गंगा (मंदाकिनी) अपने जीवन की बुरी परिस्थिति जनित संकट से परेशान हाल में भटकते हुए, एक सार्वजनिक स्थल पर बदहवास-सी, भूख से बिलखते अपने दुधमुँहे को स्तनपान कराती हुई दिखलायी जाती है ; जिस दौरान उसकी बदहवासी के कारण उसका दुपट्टा यथोचित स्थान से ढलका दिखता है। ऐसे में दोहरी मानसिकता वाले मनचलों को उत्तेजना और कामुकता नज़र आती है। तब के समय में इसके निर्माताद्वय- राजकपूर साहब और रणधीर कपूर या सही कहें तो सीधे-सीधे निर्देशक- राजकपूर साहब को दोषी ठहरा कर बहुत कोसा गया था, विरोध प्रकट किया गया था।

पर सच बतलाऊँ तो हमने स्वयं अपने शुरूआती दौर की अपनी 'सेल्स व मार्केटिंग' (Sales & Marketing) की घुमन्तु नौकरी (Touring Job) के दौरान पुराने बिहार (वर्तमान के बिहार और झाड़खंड का सयुंक्त रूप) के हर जिलों के लगभग चप्पे-चप्पे की यात्रा के क्रम में ऐसे दृश्य आमतौर पर नज़रों से गुजरे हैं। चाहे वह पाकुड़ जिला के काले पत्थरों (Black Stone Chips) के चट्टानों को तोड़ती, थकी-हारी रेजाएं (मजदूरिनें) दुग्धपान कराती हुई हों या फिर पटना या उत्तर बिहार के अधिकांश हिस्सों में वैध या अवैध ईंट-भट्ठे में काम कर रही मजदूरिनें हों। खेतों में काम करती महिलाएं हों या फिर चाइबासा या चक्रधरपुर जैसे आदिवासी क्षेत्रों की मेहनतकश महिलाएं, जो बस, ट्रक या 'लोकल पैसेंजर ट्रेनों' में अपने घर से अपने कार्यस्थल पर मेहनत-मजदूरी के लिए आने-जाने के क्रम में अपने दुधमुँहों को भूख से बिलबिलाने पर उनको चुप कराने के लिए दुग्धपान कराती हुईं प्रायः दिख ही जाती हैं। इन परिस्थितियों में भी अगर उनके थके-हारे, चिंताग्रस्त, उदास, मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में किसी इंसान के मन में उनके प्रति करुणा, संवेदना या समानुभूति ना भी तो कम से कम सहानुभूति पनपने की जगह, शरीर के अंग विशेष की झलक मात्र से, किसी पुरुष की कामुकता जागती हो या इनमें बुराई या फिर नंगापन नज़र आती हो, तो ऐसे पुरुष प्रधान समाज के ऐसे पुरुषों को बारम्बार साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने का मन करता है .. बस यूँ ही ...