Sunday, July 11, 2021

अंट-संट ...


भूमिका :- 

आती हैं पूर्णिमा के दिन .. हर महीने के,

नियमित रूप से घर .. शकुंतला 'आँटी' के,

नौ-साढ़े नौ बजे सुबह खाली पेट मुहल्ले भर की,

स्कूल नहीं जाने वाले कुछ छोटे बच्चों, 

कॉलेज की पढ़ाई के बाद घर पर 'कम्पटीशन' की 

तैयारी कर रहे कुछ युवाओं, कुछ 'रिटायर्ड' बुजुर्ग मर्दों और

'लंच' की 'टिफिन' के साथ अपने पतियों को काम पर 

भेज कर कुछ कुशल गृहिणी औरतों की झुंड मिलकर,

थोड़ा पुण्य कमाने यहाँ सत्यनारायण स्वामी की कथा सुनकर,

सिक्के के बदले आरती लेकर, कलाई पर कलावा बँधवा कर

और अंत में "चरनामरित" (चरणामृत) पीकर और .. 

पावन "परसाद" (प्रसाद) खा कर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - १ :-

अब आज भी आये हुए बच्चे .. बच्चों का क्या है भला !

उनका तो होता नहीं कथा से या पुण्य कमाने से कोई वास्ता,

कोई पाप अब तक किये ही नहीं होते हैं जो वो सारे .. है ना !?

"काकचेष्टा" वाली चेष्टा बस टिकी होती हैं उनकी तो,

थालों में सजे फलों के फ़ाँकों पर .. 

लड्डूओं और पंजीरी पर भी थोड़ी-थोड़ी .. शायद ...

और औरतें तो .. बिताती हैं समय, छुपाती हुई ज्यादा आधे से,  

अक़्सर अपनी फटी एड़ियाँ अपनी साड़ी के 

फॉल वाले निचले हिस्से से या फिर कभी दुपट्टे

या ढीले ढाले 'प्लाजो' के आख़िरी छोर से,  

छुपा पाती हैं भला कब और कहाँ फिर भी .. 

वो अपने मन की उदासियाँ पर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - २ :-

"पंडी" (पंडित) जी चढ़ावे पर "वकोध्यानम" वाला ध्यान लगा कर

उधर शुरू करते हैं कथा का अध्याय पहला और इधर ..

मुहल्ले भर की कथाओं को वांचने लगती है कुछ औरतें मिलकर।

"जाति प्रमाण पत्र" की तरह बाँटने लगती हैं एक-एक कर,

किसी को "कठजीव" ' (कठकरेज) होने का, 

तो किसी के बदचलन होने का प्रमाण पत्र -

" पूर्णिमा 'आँटी' की छोटकी बेटी तो पूरे 'कठजीव' है जी !

तनिक भी ना रोयी थी अपनी विदाई के समय और 

"उ" (वह) .. रामचरण 'अंकल' की बड़की (बड़ी) बहू भी तो 

"आउरो" (और भी) 'कठजीव' है जी ! है कि ना 'आँटी जी' ? "

" पति की लाश आयी जब "सोपोर" आतंकी हमले के बाद, 

तब .. माँ-बेटी , दोनों की आँखों  से एक बूँद आँसू नहीं टपका जी !

बस .. भारत माता की जय ! .. भारत माता की जय !!, 

वंदे मातरम् ! ,जय हिन्द !!! .. ही केवल चिल्लाती रहीं थीं मगर। "

" और "उ" (वह) .. कौशल्या फुआ की नइकी (नयी) बहू तो ..

बहुते (बहुत) बदचलन है जी !, जो चलती है घर से बाहर तो ..

'लो कट स्लीवलेस' ब्लाउज पहन कर अक़्सर

और मर्दों सब से बतियाती है, जब देखो हँस-हँस कर " 

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ३ :-

अब 'रिटायर्ड' मर्दों का थोड़े ही ना कोई मौन व्रत है जी आज ?

उनकी भी कथाओं का अध्याय गति पकड़े हुए है निरंतर,

सत्यनारायण स्वामी जी की कथा के ही समानांतर -

" बिर्जूआ का बेटवा (बेटा) बड़ा कंजूस निकला जी ! ..

तीन दिनों में ही निपटा दिया आर्य समाजी बन कर

और गोतिया-नाता, मुहल्ला-दोस्त, "कंटहवा" (महापात्र ब्राह्मण), 

सब का भोज-भात भी कर गया गोल, 

पर नहीं बनाया पीसा अरवा चावल, मखाना, तिल का  

पिंडदान वाला पिंड मुआ .. नासपिटा .. गोल-गोल,

अपने मरे बाप की आत्मा की शांति की ख़ातिर। "

आगे गिनाते रहे वो सत्तारूढ़ सरकार की नाकामियां सब मिल कर।

तभी मनोहर 'चच्चा' (चाचा) सिन्हा जी की मंझली बेटी का

देकर हवाला, बोले सभी से फ़ुसफ़ुसा कर,

" 'लव मैरिज' सारे .. जरा भी टिकाऊ नहीं होते हैं जी .. 

और तो और, 'इंटरकास्ट मैरिज' की भी तो ख़ामियाँ तमाम हैं पर ..

 आजकल के छोकरे-छोकरियों को कौन समझाये भला मगर !?

 कम उम्र में ही तभी तो करवा कर 'इंटर',

 अपनी बेटी को भेज दिया उसके ससुराल, उसे ब्याह कर। "

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ४ :-

अब कथा के चौथे अध्याय में भले ही,

सत्यनारायण स्वामी जी प्रभु के प्रकोप से,

बेचारी लीलावती की बेटी कलावती के पति की

नाव डूब गई हो धारा में किसी नदी की,

पर .. मजाल है कि डूब जाए आवाज़ किसी की,

बोलते वक्त चिल्ला कर समवेत स्वर में - "जय" ;

हर अध्याय के बाद जोर-जोर से शंख बजा-बजा कर 

हर बार जब-जब बोलें 'पंडी' जी कि -

" जोर से बोलिए सत्यनारायण स्वामी की जै (जय) !! "

और हाँ .. कथा के बीच-बीच में 'पंडी' जी

गोबर गणेश जी और ठाकुर (शालिग्राम) जी पर भूलते नहीं 

"द्रब" (द्रव्य) के नाम पर सिक्का चढ़वाना कभी भी .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा पंचम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ५ :-

शोर मची अब तो पाँचवे अध्याय के बाद "स्वाहा, स्वाहा" की,

फिर बारी आयी  -" ओम जय जगदीश हरे " की,

कपूर की बट्टियों और "गणेश मार्का" पूजा वाले घी की आरती की,

युगलबंदी करती है जिससे खाँसी, भूखे-प्यासे 'अंकल' जी की,

गले में लगती धुआं से .. हवन वाले हुमाद-नारियल की।

कभी सीधी, कभी टेढ़ी करते, 'अंकल' जी अपनी कमर अकड़ी।

भक्त ख़ुश बँधवा कर कलावा और पा कर प्रसाद,

उधर 'पंडी' जी भी खुश पाकर यजमान से दक्षिणा तगड़ी।

" एगो (एक) अँगूर की ही कमी है दीदी, प्रसाद में "- जाते-जाते 

बोलीं रामरती चाची-"बांकी तअ (तो) सब अच्छे से हो गया दीदी ।"

उधर घर के लिए आये पाव भर शुद्ध घी के अलग मँहगे लड्डू में से,

'आँटी' जी का बेटा- चिंटू, प्रसाद के दोने वाले पंजीरी में,

एक लड्डू छुपा कर देने से खुश है, कि खुश होगी पड़ोस की चिंकी,

हाँ .. उसकी चिंकी और .. और भी प्रगाढ़ होगा प्रेमपाश .. शायद ...

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा संपूर्ण।।


उपसंहार :-

तुम भी ना यार ... हद करते हो,

जो भी मन में आये ..  अंट-संट बकते हो, 

यार .. कुछ तो भगवान से डरा करो .. बस यूँ ही ...







Friday, July 9, 2021

अंगना तो हैं ...

(१) मकोय :-

तुम्हारी 
छोटी-छोटी 
बातें,
खट्टी-मिटटी 
यादें,
हैं ढकी,
छुपी-सी,
समय की
सख़्त
परत में .. शायद ...

मानो ..
लटके हों
गुच्छ में,
अपने
क्षुप से,
काले-रसीले,
खट्टे-मीठे
मकोय
शुष्क
कवच में .. बस यूँ ही ...



(२) शब्दकोश से चुराए कुछ शब्द :- 

(i)

अलि को देख कर अली ने अपनी अली से ये पूछा -
"बोलो अली ! हर बार मुझे छेड़ता है क्यों ये बावरा ?"

(ii)

कहीं बंदिशों की रीत, सज़ा हैं,
कहीं बंदिशों से, गीत सजा है।
 
【१. बंदिश = प्रतिबंध / पाबंदी / रोक।
       सज़ा = दंड।
  २. बंदिश = किसी राग विशेष में सजा एक निश्चित सुरसहित रचना।
       सजा = सुसज्जित।】

(iii)

साहिब ! ये दौर भी भला कैसा गुजर रहा है ?
अंगना तो हैं घर में हमारे, वो अँगना कहाँ है ?




Wednesday, July 7, 2021

बेदी के बहाने बकैती ...

50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही :-

यूँ तो हमारे सभ्य समाज में फ़िल्म जगत से संबंधित कई सारी अच्छी-बुरी मान्यताएं हैं और शायद वो कुछ हद तक सच भी हैं। वैसे तो सभ्य समाज के परिपेक्ष्य में आम मान्यताओं के अनुसार फ़िल्म जगत में बुराइयाँ ही ज्यादा मौजूद हैं। पर अभी हम ना तो उस जगत की अच्छाइयों की और ना ही बुराइयों की कोई भी बकैती करते हैं। बल्कि फ़िल्म जगत से जुड़ी एक अभिनेत्री विशेष के निजी जीवन के पहलूओं में बिना झाँके हुए, केवल उसके द्वारा गत बुधवार, 30 जून को इसी समाज की कुछ लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने वाले क़दमों की धमक सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि गत बुधवार, 30 जून को घटी एक दुःखद घटना वाले समाचार के साथ-साथ, कुछेक नकारात्मक या सकारात्मक, इस से जुड़ी हुई अन्य चर्चाओं से भी, उस दिन से आज तक सोशल मीडिया अटा पड़ा है। दरअसल उस दिन 'बॉलीवुड' फ़िल्म जगत के मशहूर निर्माता-निर्देशक, 'स्टंट निर्देशक' (Stunt Director) के साथ-साथ एक विज्ञापन उत्पादन कंपनी (Advertising Production Company) के मालिक राज कौशल के एक दिन पहले तक शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ्य होने के बावजूद अचानक तड़के ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।

24 जुलाई'1971 को जन्में राज कौशल के द्वारा इसी 24 जुलाई को अपना 50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही उनके अपने नश्वर शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया। वह अपने पीछे, अपनी शादी के लगभग 12 सालों बाद तथाकथित कई मन्नतों के प्रभाव से उत्पन्न हुए, 10 वर्षीय पुत्र- वीर और भारतीय रूढ़िवादी सोच के अनुसार कि एक बेटा और एक बेटी हो जाने से उस भाग्यशाली जोड़ी का परिवार पूर्ण हो जाता है; के ध्येय से पिछले साल सन् 2020 ईस्वी में अपने ही जन्मदिन के दिन गोद ली गई 5 वर्षीय पुत्री- तारा बेदी कौशल के साथ-साथ अपनी धर्मपत्नी- मंदिरा बेदी, जो पेशे से टीवी और फिल्‍मों की मशहूर अभिनेत्री के साथ ही मशहूर 'फ़ैशन डिज़ाइनर' (Fashion Designer) भी हैं, को छोड़ गए हैं। मंदिरा बेदी 20वीं सदी के आख़िरी दशक के दर्शकों को दूरदर्शन की शान्ति के रूप में अवश्य याद होगी। 15 अप्रैल'1972 को जन्मी, उम्र में राज से लगभग नौ महीने छोटी मंदिरा ने उनसे 14 फरवरी'1999 को प्रेम विवाह किया था, जिस दिन सारे देश में विदेशी 'वैलेंटाइन्स डे' (Valentine's Day) के साथ-साथ हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि जैसा पर्व भी मनाया जा रहा था।

'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में :-

हालांकि गत एक सप्ताह में समाचार या सोशल मीडिया में स्वर्गीय राज कौशल के नाम से ज्यादा उनकी पत्नी मंदिरा बेदी का नाम कुछ ज्यादा ही छाया रहा। छाता भी क्यों नहीं भला !!! .. उसने एक महिला होने के बावजूद भी अपने मृत पति की अर्थी के साथ-साथ इस सभ्य समाज की कई रूढ़धारणाओं की अर्थी को भी अपना कंधा देकर, दाह संस्कार भी जो कर दिया था। जिनकी कुछ लोग तारीफ़ कर रहे हैं, तो कुछ थोथी मानसिकता वाले लोग उसे 'ट्रोल' (Troll) भी कर रहे हैं। थोथी मानसिकता वालों की कुछ घिनौनी प्रतिक्रियाओं ने तो मानो उल्टे उनकी घिनौनी सोचों की बखिया ही उधेड़ कर रख दी है .. शायद ...

प्रसंगवश ये बता दें कि हमारी पढ़ाई सरकारी स्कूल में होने के कारणवश हमारी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से, ये 'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में, दो वर्ष पहले इस से जुड़ने के कुछ माह बाद ही, कुछ सज्जन पुरुषों ने परिचित करवाया था। दरअसल मामला मेरी किसी एक रचना/विचार से किन्हीं के मन खट्टा होने का था। फिर क्या था ! .. धमाल की ढेर सारी डकारें निकल के बाहर आयीं। अब भला मन खट्टा हो या पेट में 'एसिड' (Acid/अम्ल) हो तो डकारें आनी स्वाभाविक ही हैं। और तो और ये अंग्रेजी के 'ट्रोल' शब्द से परिचय करवाने की कोशिश करने वाला भी वही वर्ग था, जिन्हें गाहेबगाहे अंग्रेजी भाषा का प्रयोग हिंदी के क्षेत्र में घुसपैठ नजर आती है या हिंदी की जान खतरे में जान पड़ती है।

लैंगिक रूढ़िवादिता की अर्थी :-

ख़ैर ! बात हो रही थी/है - रूढ़धारणा या मान्यतावाद .. और ख़ासकर लैंगिक रूढ़िवादिता के तोड़ने की। रूढ़िवादी सोच वालों को मंदिरा का अपने पति के निधन के बाद उनकी शव यात्रा में अपने पति की अर्थी को अपने कंधे पर उठाया जाना और अंतिम/दाह संस्कार की बाकी रस्मों में हिस्सा लेना, वो भी जींस और टी-शर्ट जैसे पोशाकों में तो, बुरी तरह खल गया ; क्योंकि हमारे भारत देश के सभ्य पुरुषप्रधान समाज में इन रस्मों को पुरुष ही निभाते आये हैं या निभा रहे हैं और आगे भी सम्भवतः निभाते रहेंगे। लकीर का फ़कीर वाले मुहावरे को हम चरितार्थ करने में विश्वास जो रखते हैं।

अब जो पत्नी या औरत शादी के बाद जीवन भर पति या पुरुष और उसके परिवार की जिम्मेवारी, भले ही गृहिणी (House wife) के रूप में ही क्यों ना हो, अपने कंधे पर उठा सकती है; पुरुष के तथाकथित वंश बेल को गर्भ व प्रसव पीड़ा को सहन कर सींच सकती है, सात फेरे और चुटकी भर सिंदूर के बाद अर्द्धांगिनी बन कर परिवार के सारे सुख-दुःख में शरीक हो सकती है ; तो फिर मानव नस्ल की रचना के लिए प्रकृति प्रदत कुछ शारीरिक संरचनाओं में अंतर होने के कारण मात्र से, वह अपने पति की अंतिम यात्रा या अंतिम संस्कार में शामिल क्यों नहीं हो सकती भला ? उसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों ? सती प्रथा वाले कालखण्ड में भी भुक्तभोगी औरत ही थी। वाह रे पुरुष प्रधान समाज ! .. अपनी मर्दानगी पर अपनी गर्दन अकड़ाने वाले सभ्य समाज !! .. पति मरता था तो पत्नी को भी चिता पर जिन्दा ही जला देते थे, तो फिर पत्नी के मरने के बाद पति को क्यों नहीं जलाया जाता था भला ???

तब का बुद्धिजीवी सभ्य समाज भी तो तब के इसी सती प्रथा को सही मान कर अपने घर की बहन, बेटी, भाभी, माँ के विधवा हो जाने पर तदनुसार उनके मृत पति की चिता पर उन्हें जिन्दा जला देते होंगे; परन्तु बदलते वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। आज का सभ्य समाज इसे गलत माने या ना माने, तो भी ऐसा करना क़ानूनन अपराध तो है ही। एक वक्त था, जब तथाकथित अछूतों को सनातनी धर्मग्रंथों को स्पर्श करना, पढ़ना, सब वर्जित था। तब के भी बुद्धिजीवी सभ्य समाज उस पर रोक लगा कर, उसे ही सही मानते हुए अपनी गर्दन अकड़ाते होंगे। पर फिर वक्त बदला और सब कुछ बदल गया, पर बदली नहीं तो इनकी अकड़ने वाली गर्दनें। ऐसे में आज वो सारी लुप्त हो चुकी प्रथाएँ ना हो सही, पर इनको अपनी गर्दन अकड़ाने के लिए कुछ और बहाना तो चाहिए ही ना .. तो आज भी श्मशान या कब्रिस्तान में नारियों का प्रवेश निषेध कर के, पुरुष प्रधान सभ्य समाज अपनी महत्ता पर अपनी गर्दन अकड़ा कर अपना तुष्टिकरण स्वयं कर रहा है .. शायद ...

सीता नाम सत्य है :-

अब .. ऐसे में .. थोथी मानसिकता वाले अपनी इन रूढ़धारणाओं के पक्ष में ढेर सारे धर्मग्रंथों का हवाला देंगे, जैसा वो सती प्रथा के समय देते होंगे। पर यही समाज दो नावों पर सवार किसी सवार की तरह, कभी तो विशुद्ध सनातनी बातें करता है और कभी विज्ञान के सारे जायज-नाज़ायज भौतिक उपकरणों का उपभोग करके आधुनिक बनने की कोशिश भी करता है। यह अटल सत्य है और पुरख़े भी कहते हैं कि समय परिवर्त्तनशील है और समय के साथ ही हर तरफ परिवर्त्तन होता दिखता है, पर कई बातों में दोहरी मानसिकता वाले सभ्य सज्जन पुरुष .. वही आडम्बरयुक्त पाखण्ड के पक्षधर बने लकीर के फ़क़ीर ही जान पड़ते हैं  .. शायद ...

हमारे समाज में आज भी हम अंधानुकरण में मानें बैठे हैं, कि 13 की संख्या बहुत ही अशुभ होती है, पर एक साल के 12 महीनों के कुल बारह 13 तारीख को छोड़ दें तो क्या बाकी दिनों में लोग नहीं मरते ? क्या दुर्घटनाएं नहीं होती ?? 13 'नम्बर' वाले 'बेड' से इतर बीमार लोग नहीं मरते ??? मरते हो तो हैं .. बिलकुल मरते हैं। फिर ये 13 'नम्बर' का मन में ख़ौफ़ क्यों भला ? उसी तरह बेख़ौफ़ होकर अगर पुरुष श्मशान या क़ब्रिस्तान जा सकते हैं, तो औरतें भला क्यों नहीं ?? उन्हें भी तो जाने देना चाहिए, शामिल होने देना चाहिए .. किसी अपने की अंतिम यात्रा में। माना कि सभ्य समाज में पुरुषों ने "राम नाम सत्य है" जैसे जुमलों पर "सर्वाधिकार सुरक्षित" का 'टैग' लगा रखा हो, तो फिर  महिलायें "सीता नाम सत्य है" तो बोल कर अपना काम कर ही सकती हैं ना ? .. शायद ...

युगों से उनका वहाँ जाना हमने वर्जित कर रखा है, तो हो सकता है शुरू - शुरू में उन्हें बुरा लगे, मानसिक आघात भी लगे, पर फिर एक-दो पीढ़ी के बाद हम पुरुषों के जैसा ही उनका जाना भी सामान्य हो जाएगा। याद कीजिए, हम भी जब कभी भी, किसी भी उम्र में जब पहली बार किसी अपने या मुहल्ले के किसी के शव के साथ श्मशान या क़ब्रिस्तान गए होंगे तो हमें भी पहली बार अज़ीब-सा लगा होगा। कई दिनों तक वही सारा दृश्य आँखों के सामने से गुजरता होगा। फिर उम्र के साथ-साथ हम अभ्यस्त हो जाते हैं .. शायद ...

जब औरतें पुरुषों वाले , कुछ प्रकृति प्रदत अंतरों को छोड़ कर, सारे काम कर सकती हैं, अंतरिक्ष यान से लेकर 'ऑटो' तक का, घर की सीमारेखा के भीतर से लेकर देश की सीमा तक का सफ़र तय कर सकती है, तो फिर ये क्यों नहीं ? अपने बचपन या उस से पहले की बात याद करें, तो प्रायः वर पक्ष की महिलाएं शादी-बारात में शामिल नहीं होती थीं। पर धीरे-धीरे समय के साथ सब कुछ बदल गया। अब तो औरतें भी पुरुषों के साथ बारात में बजते बैंड बाजे और 'ऑर्केस्ट्रा' (Orchestra) के गानों संग सार्वजनिक स्थलों पर मजे से नाचती हुई वधू पक्ष के तय किए गए विवाह स्थल तक जाती हैं। जब इस ख़ुशी के पलों के लिए चलन बदल सकता है, तो दुःख की घड़ियों के लिए क्यों नहीं बदला जा सकता भला ? आख़िर हम कुछ मामलों में इतने ज्यादा लकीर के फ़कीर क्यों नज़र आते हैं ???

मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में :-

अब रही बात मंदिरा के उस दिन के पहने हुए पोशाक के, तो सही है कि वह सलवार सूट या साड़ी की बजाय जींस और टी-शर्ट में थी। पर नंगी तो नहीं थी ना !!! थोथी मानसिकता वालों को उसमें क्या बुराई या दोष नज़र आयी भला ? दरअसल दोष तो समाज की कलुषित मानसिकता में ही है, खोट तो इनकी विभत्स नज़रिया में है, इनकी कामुक नज़रों में हैं; जो अगर ... मवाली हुए तो लोकलाज को दरकिनार कर के राह चलती लड़कियों या महिलाओं को सामने से छेड़ते हैं या अगर सभ्यता का मुखौटा ओढ़े दोहरी मानसिकता वाले  सभ्य पुरुष हुए तो चक्षु-छेड़छाड़ करने से जरा भी नहीं चूकते कभी भी .. कहीं भी .. शायद ...

प्रसंगवश यहाँ अगर सन् 1985 ईस्वी के जुलाई महीने में ही आयी हुई फ़िल्म- राम तेरी गंगा मैली की बात करूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि उस फ़िल्म में फिल्माये गए एक दृश्य विशेष को लेकर सभ्य समाज द्वारा उस समय काफ़ी आलोचना यानी 'क्रिटिसाइज'
(Criticize) की गई थी। दरअसल उस जमाने में 'ट्रोल' शब्द ज्यादा चलन में नहीं था, इसीलिए लोग 'क्रिटिसाइज' ही किया करते थे। 'ट्रोल' तो अब करते हैं। फ़िल्म के उस दृश्य में फ़िल्म की नायिका- गंगा (मंदाकिनी) अपने जीवन की बुरी परिस्थिति जनित संकट से परेशान हाल में भटकते हुए, एक सार्वजनिक स्थल पर बदहवास-सी, भूख से बिलखते अपने दुधमुँहे को स्तनपान कराती हुई दिखलायी जाती है ; जिस दौरान उसकी बदहवासी के कारण उसका दुपट्टा यथोचित स्थान से ढलका दिखता है। ऐसे में दोहरी मानसिकता वाले मनचलों को उत्तेजना और कामुकता नज़र आती है। तब के समय में इसके निर्माताद्वय- राजकपूर साहब और रणधीर कपूर या सही कहें तो सीधे-सीधे निर्देशक- राजकपूर साहब को दोषी ठहरा कर बहुत कोसा गया था, विरोध प्रकट किया गया था।

पर सच बतलाऊँ तो हमने स्वयं अपने शुरूआती दौर की अपनी 'सेल्स व मार्केटिंग' (Sales & Marketing) की घुमन्तु नौकरी (Touring Job) के दौरान पुराने बिहार (वर्तमान के बिहार और झाड़खंड का सयुंक्त रूप) के हर जिलों के लगभग चप्पे-चप्पे की यात्रा के क्रम में ऐसे दृश्य आमतौर पर नज़रों से गुजरे हैं। चाहे वह पाकुड़ जिला के काले पत्थरों (Black Stone Chips) के चट्टानों को तोड़ती, थकी-हारी रेजाएं (मजदूरिनें) दुग्धपान कराती हुई हों या फिर पटना या उत्तर बिहार के अधिकांश हिस्सों में वैध या अवैध ईंट-भट्ठे में काम कर रही मजदूरिनें हों। खेतों में काम करती महिलाएं हों या फिर चाइबासा या चक्रधरपुर जैसे आदिवासी क्षेत्रों की मेहनतकश महिलाएं, जो बस, ट्रक या 'लोकल पैसेंजर ट्रेनों' में अपने घर से अपने कार्यस्थल पर मेहनत-मजदूरी के लिए आने-जाने के क्रम में अपने दुधमुँहों को भूख से बिलबिलाने पर उनको चुप कराने के लिए दुग्धपान कराती हुईं प्रायः दिख ही जाती हैं। इन परिस्थितियों में भी अगर उनके थके-हारे, चिंताग्रस्त, उदास, मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में किसी इंसान के मन में उनके प्रति करुणा, संवेदना या समानुभूति ना भी तो कम से कम सहानुभूति पनपने की जगह, शरीर के अंग विशेष की झलक मात्र से, किसी पुरुष की कामुकता जागती हो या इनमें बुराई या फिर नंगापन नज़र आती हो, तो ऐसे पुरुष प्रधान समाज के ऐसे पुरुषों को बारम्बार साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने का मन करता है .. बस यूँ ही ...






Saturday, July 3, 2021

नयी जोड़ी से 'रिप्लेसमेंट' ...

'रिप्लेसमेंट' ...
तो है यूँ
अंग्रेजी का 
एक शब्द मात्र,
हिंदी में 
कहें जो
अगर तो ..
प्रतिस्थापन,
जिनसे यूँ तो
होता है 
बेहतर ही 
कभी भी 
हमारा जीवन .. शायद ...

'रिप्लेसमेंट' हो
चाहे घर के
पुराने 'फ़र्नीचरों' का
या हो मामला 
पूरे किसी पुराने 
घर का भी
या फिर हो
भले ही ख़र्चीले
शल्य चिकित्सा से
गुर्दे या दिलों के
या फिर घुटनों के
'रिप्लेसमेंट' का,
मिलता है जिनसे 
उन बीमारों को
नया जीवन .. शायद ...

कई बार
साथ समय के 
बदलते समाज में
किसी विधवा के
भूतपूर्व पति का
'रिप्लेसमेंट' 
या फिर 
किसी विधुर की
मृत पत्नी का
'रिप्लेसमेंट',
अक़्सर ही ..
बसा देता है
इनका सूना
घर-आँगन,
उजड़ा जीवन .. शायद ...

पतझड़ में
पियराए पत्तों के
'रिप्लेसमेंट' के बाद
किसी बसंत 
या हेमंत के मोहक
बदलते रंगत हों,
या पुरानी बिछिया
या किसी पायल के
बदले में मनपसंद
नयी जोड़ी से 'रिप्लेसमेंट',
या फिर कलाइयों में
पुरानी चूड़ियों से
हरी-हरी, नयी-नयी
चूड़ियों के 'रिप्लेसमेंट' से
हो सजता सावन .. शायद ...

पर कुछ रिश्ते
होते हैं 
ऐसे भी दुर्लभ,
जो अक़्सर
'रिप्लेसमेंट' या
प्रतिस्थापन वाले
दिल से भी
होते नहीं हैं
प्रतिस्थापित 
यानी अंग्रेजी में
कहें तो
'रिप्लेसड' ...
सारा जीवन .. बस यूँ ही ...


Thursday, July 1, 2021

मचलते तापमानों में ...

(1) मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।
(2) अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
(3) वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है।
(4) ये शरीफ़ों का शहर है,
      यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
      हर तरफ शराफ़त बरसती है
      पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

     
(निम्नलिखित "मचलते तापमानों में ... " नामक बतकही/रचना/विचार के चारों खण्डों से हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ ...)

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-१) :-

मुहल्ले से बचने के लिए :-
कभी .. कहीं .. विवेकानंद जी के एक आत्मसंस्मरण में पढ़ा था, कि वह जब युवावस्था में पहली-पहली बार धर्म की ओर अग्रसर हुए थे, तो उनके घर का रास्ता वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरने के कारण, स्वयं को संन्यासी और त्यागी मानते हुए उस मुहल्ले से बचने के लिए मील-दो मील अतिरिक्त घूम कर इतर रास्ते से कलकत्ता (कोलकाता) के गौरमोहन मुख़र्जी 'लेन/स्ट्रीट' में अवस्थित अपने घर आया जाया करते थे।

प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो :-
इतिहास की मानें तो राजपूताना वंश की एक शाखा- शेखावत (क्षत्रिय) वंश के राजा अजीत सिंह ने झुंझुनूं (राजस्थान) के अपने खेतड़ी कस्बे में एक बार विविदिशानंद जी को स्वामी के रूप में आमन्त्रित किया था। स्वामी जी के जीवन में राजा साहब की एक अहम भूमिका रही थी। इनको विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्रदान करने वाले शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके जाने के लिए उन्होंने ही अपने दीवान- जगमोहन लाल के मार्फ़त आर्थिक सहायता देकर सारी व्यवस्था करवायी थी। वहाँ जाने से पहले उन्होंने ही इनको विविदिशानंद की जगह विवेकानंद नाम दिया था। शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके पहने गए पोशाक- चोगा, कमरबंद (फेंटा), साफ़ा (पगड़ी) आदि तक राजा साहब की ही सप्रेम भेंट थी। बाद में स्वामी जी के रामकृष्ण मिशन की शुरुआत करने वाले सपने के सच हो पाने में भी आर्थिक सहयोग का उनका योगदान रहा था।
उन्हीं राजा साहब ने एक बार अपने राजा-रजवाड़े की परम्परा के अनुसार विवेकानंद जी के स्वागत-समारोह के लिए राज नर्तकी- मैना बाई को बुलवा लिया था। सन्‍यासी विवेकानंद जी उस वक्त अपनी युवावस्‍था में अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करना नहीं सीख पाए थे। अतः ब्रह्मचर्य टूटने के भय से स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिए थे। तब इस घटना को मैना बाई ने अपनी कला और अपने आप को तिरस्कृत समझ कर, स्वामी जी को लक्ष्य करते हुए, सूरदास जी के भजन को बहुत ही तन्मयता से गाया :-
"प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||"

बंद कमरे में भी स्वामी जी तक उसकी दर्द भरी, पर सुरीली आवाज़ पहुँच पा रही थी। वह उसकी भावना को समझ पा रहे थे। वह भजन के माध्यम से बतलाना चाह रही थी, कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है और कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर देवता के मंदिर में पड़े लोहे के टुकड़े को ही सोना कर दे और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को नहीं कर सके, तो वह पारस के नकली होने में कतई संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है, कि स्वामी जी ने राज नर्तकी के इस भजन से प्रभावित होकर मैना बाई को नमन कर के कहा कि - "माता मुझसे भूल हुई है। मुझे माफ कर दो। मुझे आज ज्ञान की प्राप्ति हुई है।" तत्पश्चात उस दिन उन्होंने माना था, कि उस राज नर्तकी को देखकर पहली बार उनके भीतर ना तो आकर्षण हुआ था और न ही विकर्षण। उसके लिए ना प्रेम जागा और न ही नफरत। उन्होंने माना कि - "अब मैं पूरी तरह से संन्यासी बन चुका हूँ। क्योंकि यदि विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है, बस दिशा विपरीत है। नर्तकी या वेश्या से बचना भी पड़े तो कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ यह वेश्या का आकर्षण ही है; जिसका हमें डर रहता है। दरअसल वेश्याओं से कोई नहीं डरता, वरन् अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के प्रति आकर्षण से डरता है।"

जिन्हें तुम सज्जन कहते हो :-
एक बार एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की इस शिकायत पर कि कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के वार्षिकोत्सव में बहुत सारी वेश्याओं के आने के कारण बहुत से सभ्य लोग वहाँ आने से कतराते हैं; उन्होंने अपनी इतर राय देते हुए कहा था, कि "जो लोग मन्दिर में भी यह सोचते हैं, कि यह औरत एक वेश्या है, यह मनुष्य किसी नीच जाति (तथाकथित) का है, दरिद्र है या फिर यह एक मामूली आदमी है; ऐसे लोगों की संख्या, जिन्हें तुम सज्जन कहते हो, यहाँ जितनी कम हो उतना ही अच्छा होगा। क्या वे लोग, जो भक्तों की जाति, लिंग या व्यवसाय देखते हैं, हमारे प्रभु को समझ सकते हैं? मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, कि सैकड़ों वेश्याएँ यहाँ आयें और ईश्वर के चरणों में अपना सिर नवायें और यदि एक भी सज्जन (?) न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याओं, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है।"

स्वामी विवेकानंद जी के जीवन से जुड़े उपर्युक्त तीनों बिन्दुओं का लब्बोलुआब ये है, कि जो स्वामी जी अपने शुरूआती दौर में वेश्यालयों से कतरा कर गुजरते थे, वही मैना बाई के गाए भजन से प्रेरित हो कर बाद में उन लोगों के लिए धर्मालयों में भी प्रवेश की वक़ालत करने लगे थे। पर .. हमारा संस्कारी बुद्धिजीवी समाज आज भी इन के विषय में खुल कर बातें करने से भी कतराता है। दूसरों को भी बातें करने की अनुमति नहीं देता है। पर प्रायः लोगबाग किसी यौन रोगों की चर्चा की तरह दबी जुबान में बातें करते मिलते हैं। मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-२) :-

लाल छतरी :-
तभी तो वर्तमान दौर में मनाए जाने वाले तमाम "विश्वस्तरीय दिवसों" की होड़ में हमारे संस्कारी बुद्धिजीवी समाज ने लगभग एक माह पहले, 2 जून को मनाए जाने वाले "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस" की अनदेखी की है। जबकि सर्वविदित है, कि सन् 1975 ईस्वी में फ्रांस के ल्योन शहर में 2 जून को, वहाँ की पुलिस द्वारा वहाँ के यौनकर्मियों के साथ क़ानून की आड़ में ग़ैरक़ानूनी तरीके से अत्यधिक ज़ुल्म किए जाने के विरुद्ध में, जुलूस और धरना-प्रदर्शन के माध्यम से लगभग सौ यौनकर्मियों ने एकत्रित होकर विरोध प्रकट करने का साहस किया था। उसके अगले वर्ष, सन् 1976 ईस्वी से इसी दिन यानी 2 जून को "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस"  (International Whores’ Day या International Sex Worker's Day) के रूप में हर साल मनाया जाता है। यह दिन उन को सम्मानित करने और उनके द्वारा हमारे समाज में झेली जाने वाली तमाम कठिनाइयों को पहचान कर दूर करने के लिए मनाया जाता है।
यूँ तो संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन में सन् 2003 ईस्वी के 17 दिसम्बर को "अंतरराष्ट्रीय यौनकर्मियों के हिंसा का अन्त दिवस" (International Day to End Violence Against Sex Workers) मनाए जाने के बाद से इस दिवस को भी हर साल मनाया जाता है। सर्वप्रथम सन् 2001 ईस्वी में इटली के वेनिस में यौनकर्मियों ने अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
इन दो दिवसों के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका के ही कैलिफोर्निया में 5 अक्टूबर, सन् 2002 ईस्वी को "अंतरराष्ट्रीय वेश्यावृति उन्मूलन दिवस" (International Day of No Prostitution / IDNP) मनाए जाने के बाद से इसे भी हर वर्ष मनाया जाता है।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-३) :-

वैसे तो सच्चाई यही है, कि समाज का कोई भी अंग या इतिहास का कोई भी कालखंड, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, इनसे विहीन नहीं था और ना ही है और ना शायद रहेगा भी। समाज के विकास का इतिहास और इनके विकास का इतिहास समानांतर चलता रहा है। जो हमारे वैदिक काल में अप्सराएँ और गणिकाएँ कहलाती थीं, वही मध्ययुग में देवदासियाँ और नगरवधुएँ .. कहीं-कहीं गोलियाँ और लौंडियाँ ग़ुलामें भी पुकारी जाती रहीं तथा मुग़ल काल में तवायफ़, वारांगनाएँ या वेश्याएँ बन गर्इं, जो नाम आज भी उपस्थित हैं। और हाँ .. यौनकर्मियों जैसी संज्ञा या सम्बोधन भी जोड़ा है हमारे आधुनिक वर्तमान समाज ने।
प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौसठों कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्ययुगीन काल में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता चला गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गईं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित अनैतिक यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका के लिए तथाकथित समाज की तय की गई सीमारेखा वाली लज्जा तथा संकोच को छोड़ कर अश्लीलता की हद को भी पार कर के अपना जीविकोपार्जन चलाना पड़ा।
समाज में बहु विवाह, रखैल प्रथा और दासी प्रथा ने भी वैश्यावृति को प्रोत्साहित किया। पहले अनेक वेश्याएँ छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं, ताकि अपने बुढ़ापे में उनके युवा होने पर उनसे अनैतिक पेशा करवा कर अपनी जीविका चला सकें। पहले संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को तो राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोष से नियमित कई तरह के भत्ते भी दिए जाते थे। अनेक वेश्याओं द्वारा कई मंदिरों में भी नृत्य-गान की प्रथा थी, जिस के बदले में उन्हें धन आदि मिलता था। सामान्य वेश्याएँ नृत्य-संगीत तथा यौन व्यापार के मिलेजुले कार्य द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं। आज हमारे तथाकथित आधुनिक समाज में उसी के बदले हुए रूप में 'रेड लाइट एरिया' (Red Light Area) और 'डांस बार' (Dance Bar) जैसे ठिकाने मौजूद हैं।
तमाम तथाकथित रोकथाम संशोधन अधिनियम या उन्मूलन विधेयक के होते हुए भी समाज के अपेक्षित नैतिक योगदान के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है। वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करने वाली मान्यताओं और रूढ़ियों का बहिष्कार करना होगा। परन्तु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की तरह नहीं, जिन्होंने इस कुप्रथा का विरोध करते हुए, जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह को इन सब से विमुख करने की कोशिश की थी, तो इतिहासकारों के मुताबिक़ महाराज के दरबार की ही नन्हीं जान नाम की एक वेश्या ने रसोइए से स्वामी जी के खाने में जहर डलवा कर उनकी हत्या करवा दी थी। अतः हमें तो ईमानदारी और मनोयोग से उनके और उनके आश्रितों के जीविकोपार्जन के लिए यथोचित प्रतिस्थापन को भी तलाशना ही होगा .. शायद ...

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-४) :-

ऐसी बहुत ही कम लड़कियाँ या महिलाएं होती हैं, जो अपनी मर्जी से देह व्यापार के धंधे में आती हैं। ज़्यादातर महिलाएं ऐसी ही होती हैं जिनके सामने या तो कोई मज़बूरी होती है या अनजाने में ही इन्हें इन बदनाम बाज़ारों में बेच दिया जाता है। ऐसी ही मज़बूर यौनकर्मियों की अनकही पीड़ा और पीड़ा की कोख़ से जन्मे चीत्कारों को समर्पित हैं, शब्दकोश से उधार लिए निम्नलिखित कुछ शब्दों की तहरीर .. बस यूँ ही ...

(१)
मुश्किल भरे चार दिन :-

यूँ मुश्किल भरे जो लगते हैं
हर महीने के चार दिन तुम्हें,
मिलती है निजात ग्राहकों से,
मिलते हैं उन्हीं दिनों चैन हमें।

(२)
सजी .. सुलगती ..

चंद रुपयों में
क़ीमत अदा
करने वाले शरीफ़ों !
सौन्दर्य प्रसाधनों से
सजी .. सुलगती ..
गोश्त लगी बोटियों की,
हमारे गर्म-नर्म लोथड़ों की ...

पर दर्द से
कटकटाती
हड्डियों की,
मन में दबे
अरमानों की,
सपनों की उड़ानों की
क़ीमत भी दे दो ना ! ...

(३)
सौभग्य बनाम सौ भाग्य :-

पाकर जीवन में बस.. एक सुहाग,
सौभाग्यवती तुम तो कहलाती हो।
भाग्य पर घर वाले खूब इतराते हैं।

भाग्य तनिक तुम मेरे भी तो देखो,
सौ भाग्य चल द्वार हर रात हमारे,
रोटी की यूँ तक़दीर बनाने आते है।

(४)
मचलते तापमान में :-

ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
आदम की औलाद,
बने फ़िरते हैं मर्द, फ़ौलाद,
मौका मिले तो भला कब,
छोड़ते ये मस्ती हैं ?
फिर भी भईया !!! ...
ये मस्ती की बातें,
कोठे की रातें,
रंगीन रातों की बातें,
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

अरी सलमा !
ओ री नग़मा !
तू बता ना जरा
फिर हर शाम भला
किसकी जाम छलकती है ?
किसके लिए तू मटकती है,
तू इतनी सजती-संवरती है,
लिपस्टिक-पाउडर चुपड़ती है।
सारी रात जाग-जाग कर,
सारा दिन तू कहँरती है।
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

पेट की आग बुझाने और
चूल्हा जलाने की ख़ातिर,
लंपटों की तू लपटें बुझाती है,
जो नसों में उनके लपलपाती है।
ना जाने कितनों के बदन की
तू गर्मियाँ सोखती है ?
अलग-अलग मनचलों के
मचलते तापमानों में
अपने बदन के तापमान,
थर्मामीटर-सा तू बदलती है ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

यूँ हैं तो इस शहर के मर्द सारे,
स्कूल-कॉलेजों से मिले
"चरित्र प्रमाण पत्र" वाले,
शरीफ़ हैं सारे, जो आ नहीं सकते।
तो ऐसे में अहिल्या वाले इंद्र या
क्या कुंती वाले सूरज देव की
छली नज़रें तुम्हें रोज़ छलती हैं ?
उघाड़ने वाले तमाशबीनों में
लगाता है क्या कोई पैबंद भी वहाँ,
जहाँ से तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं
अक़्सर आशाएं रिसती हैं ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।








Wednesday, June 30, 2021

रूमानी पलों में भी ...

पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती।

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।


सताते तो हैं लकड़ी के चूल्हे मगर,

आधुनिक चौके भी कब छोड़ते हैं?

बहने का बस इन्हें बहाना चाहिए,

कसरतों से भी यों बह निकलते हैं।


सूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,

मजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।

चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,

जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।


भेदभाव ना जाति-धर्म में और ये

ना करते हैं अच्छे-बुरे में कभी भी।

पसीने पसीने होते हैं  बलात्कारी,

बलात्कृत के भी पसीने छूटते हैं।


यूँ तो कई तरह के होते हैं पसीने,

आँसू-से खारे मजदूरों के पसीने,

प्रेमी-प्रेमिकाओं के गुलाब जल के

बोतलों-से यों ये शायद गमकते हैं।


अचानक सामना हो कभी मौत से,

या जो चोरी से प्रेमी बाँहों में भर ले;

झरोखों से झाँकती पटरानियों-से, 

उत्सुक ये रोम छिद्रों से हुलकते हैं।


पसीना बहाता कभी कोई आदमी,

तो कोई ख़ून पसीना है एक करता,

पसीना पसीना हो जाता है आदमी,

एक अदद घर तभी चला करते हैं।


धर्मालयों में विराजमान विधाता से

माँग के सुखी जीवन की भीख भी;

यूँ तो ज़लज़लों, जिहादी धमाकों, 

सुनामियों से हमारे पसीने छूटते हैं।


बच्चों की जननी माँ के भी तो ..

बहते हैं यूँ प्रसव पीड़ा में पसीने।

उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,

क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।


पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती,

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।






Friday, June 25, 2021

क्यों हैं ये फ़ासले ? ...

अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

मिल कर कभी उर्दू में भी,

हम हनुमान चालीसा पढ़ें।

एक बार कभी अंग्रेजी में,

वज्रासन लगा कुरान पढ़ें।


तो क्यों ना ...

चर्च में मिलकर ईसा की,

संस्कृत में गुणगान करें।

मंदिर में कभी टोपी पहन,

तो धोती में मस्जिद चढ़ें।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

सत्यनारायण स्वामी की 

कथा हो कभी फ़ारसी में,

और क्यों ना आरती हम,

मिलकर अंग्रेजी में गाएं।


तो क्यों ना ...

पगड़ी और पटके पहन के,

मजलिस में सारे ही पधारें।

शाम-ए-ग़रीबाँ के दर्द को,

हिंदी ही में दोहराए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी भगवान के लिए हम,

मंदिर में सूफी कव्वाली गाएं।

कभी अल्लाह को भी मिल,

एक भक्ति के भजन सुनाएं।


तो क्यों ना ...

उतार कर सलीब से कभी,

ईसा को पीताम्बर पहनाएं।

कान्हा हों सलीब पर कभी,

गिरजे में भी शंख बजाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी शिवरात्रि की रात,

ज़र्दा पुलाव प्रसाद चढ़ाएं। 

या शब-ए-बारात में कभी,

सोंधी मीठी पँजीरी बनाएं।


तो क्यों ना ...

मुरीद बन, कभी बक़रीद में 

भतुए की क़ुर्बानी दी जाए।

मंदिरों में टूटे फूलों के बजाय,

गमले समेत ही चढ़ाए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


अगर जो ...

सभी भाषा का ही है ज्ञाता,

वो ऊपर वाला, हैं ऐसा सुने। 

फिर हमारे बीच ही क्यों भला

भेदभाव, क्यों हैं ये फ़ासले ?


अगर जो ...

ऊपर में हमारे ही पालनहार,

हैं भगवान रचयिता बने बैठे।

फिर रूस, पाकिस्तान हो या

यहाँ कौन लाता है जलजले ?


मजलिस = इमाम हुसैन की याद में आयोजित होने वाला कार्यक्रम।】

शाम-ए-ग़रीबाँ = दस मुहर्रम को कर्बला के वाक़िया पर होने वाली एक शोक सभा विशेष।】