Saturday, October 5, 2019

हाय री ! "गुड़हल" की चटनी ... बस यूँ ही ...

" दीदी ! आज पचास रुपया उधार चाहिए आप से। मिलेगा दीदी !? " - यह कामवाली बाई सुगिया की आवाज़ थी , जो मालकिन नुपूर जी को कही गई थी।
" मिल तो जायेगा , पर ... तुम्हारा पहले से ही सवा सौ उधार है। ऊपर से ये पचास। .....
आज फूल की बिक्री नहीं हुई क्या तुम्हारी !? " - नुपूर जी जवाब में सुगिया को बोलीं। वह भली-भांति जानती हैं कि अपने पति के गुजरने के बाद सुगिया उनके यहाँ और अन्य दो घर में चौका-बर्त्तन कर के जो कुछ भी कमाती है उस से अपना और अपने दोनों बच्चों का पेट भर पाल पाती है। कपड़ा जो उसको या कभी उसके बच्चों को भी साल भर में त्योहारी के नाम पर दो या कहीं तीन बार भी मिल जाता है , उसी से काम चल जाता है। पर ऊपरी खर्चे मसलन - रोज की सब्जी या कभी-कभार अंडा और मछली-मुरगा या बीमार पड़ने पर दवा  के लिए उसके दोनों बच्चे पास के मंदिर के पास फूल-माला का दुकान लगाते हैं। कभी दुर्गा-पूजा के नाम पर ज्यादा कमाई हो गई तो अपनी मालकिन के बच्चों के देखा-देखी अपने बच्चों को भी बर्गर-पिज्जा और आइसक्रीम खिला कर ख़ुशी या त्योहार मना लेती है।
" नहीं दीदी ! आज का दिन खराब गया दीदी। कल मेरी मुनिया है ना .. उसने ... उ का ... कहते हैं दीदी !? ...गुग्गल (गूगल) .. हाँ ... हाँ गुग्गल पर उड़ुल (उड़हुल या गुड़हल) के फूल की चटनी बनाने का तरीका और उसका ढेर सारा फायदा गिनाई ना दीदी ... बोली - ' पथरी और अनीमिया (एनीमिया) की बीमारी में फायदेमंद है ' ... तो मेरा मन कर गया कि क्यों नहीं गुड़हल के फूल को सब्जी मंडी में बेच कर सब को लाभ पहुँचाया जाए। दीदी ! मंदिर में तो मुनिया बतलाती है कि रोज सुबह-सुबह कल के चढ़े फूल उस मंदिर का पंडित बुहार कर नगर निगम की गाड़ी में फेंकता है, जो सुबह आती है ना गाना गाते हुए ... - 'गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल' ... उसी में।
दीदी ! मेरी मति मारी गई थी जो मैं आज सोची कि सब को इसका लाभ बतला कर पुदीना की तरह सब्जी मंडी में बेचुँगी।
पर हाय री किस्मत ! एक भी फूल ना बिका आज दीदी। उल्टे लोगों ने मुनिया का मज़ाक उड़ाया दीदी ।" - बोलते-बोलते अफ़सोस करते हुए अपना माथा अपनी दायीं हथेली पर टिका दी।
" तू कितनी भोली है रे सुगिया ... जो वर्षों से फूलों की अर्थी मंदिर में सजाते आएं हैं , उनको तुम्हारी बात कैसे पचेगी भला ... बोलो !???
आज नवरात्रि की सप्तमी है .. तेरे बच्चे आज मंदिर के सामने गुड़हल के फूल और माला बेचते तो तेरी दो-चार पैसे की कमाई हो जाती ना !??
ये समाज सियार के झुण्ड की तरह हुआँ-हुआँ करने वाले को ज्यादा पसंद करती है। अगर तुम एक अलग अपनी भाषा में बोलेगी, भले ही वह सही हो ... लाभकारी हो .. पर उसको लोग पचा नहीं पाते हैं पगली !! ...
तू निरा मूर्ख है ... बात समझती क्यों नहीं कि समाज अपने पुरखों के नियम नहीं बदल सकता। इस से उसकी संस्कृति का हनन होता है।
वे मंदिर में गुड़हल के फूलों की अर्थी सदियों से चढ़ाते आये हैं .. चढ़ाएंगे .. पर फायदेमंद होने के बाद भी उसकी चटनी नहीं खायेंगे ...
ले ये पचास रुपया ... कुल एक सौ पचहत्तर रूपये हो गए उधार ... जब हो सुविधा से लौटा देना । अब जाओ शाम काफी हो गई है ... बच्चे घर पर तुम्हारा और तुम्हारी ले गई सब्जी का इंतज़ार कर रहे होंगे "
"हाँ दीदी ! जा रही। .. हाय री ! ... उड़ुल की चटनी ..."
-दोनों एक साथ ठहाके लगा कर हंस पड़ती हैं।

Friday, October 4, 2019

रामलीला है शुरू होने वाली ...

दशहरे में इस साल भी हो रही होगी वहाँ रामलीला की तैयारी
सोचा घूम आऊँ गाँव का मेला भी साथ-साथ अबकी बारी
सबसे मिलना-जुलना भी हो जाएगा ..
थोड़ा हवा-पानी भी बदल जाएगा
जब चढ़ने गया रेल ... देखा जान-सैलाब का रेलमपेल
रेलगाड़ी की श्रेणियों - सामान्य से लेकर प्रथम श्रेणी तक - जैसी ही
है .. मानो समाज में जनसमुदाय के वर्गीकरण का खेल
साथ ही देखा कि स्टेशन के बाहर और प्लेटफार्म की दीवारें
राज्य की प्रतिनिधित्व करती लोक कलाकृत्ति से थी सुसज्जित
पर अंदर डब्बे के टॉयलेट की दीवारों पर उकेरी चित्रकारी
कर रही थी कभी उत्तेजित .. तो कभी लज्जित

अब मुख्य मुद्दे पर आ जाए बात .. तो है अच्छी
संक्षेप में कहूँ तो बस .. रामलीला है शुरू होने वाली
मैं उन दर्शकों के भीड़ का हूँ एक हिस्सा .. जहाँ हुई है ये इक्कट्ठी
मंच के पीछे नेपथ्य में चल रही है कलाकारों की तैयारी
हनुमान बना है बमबम हलवाई हथेली पर है खैनी मल रहा
राम बने रामखेलावन भईया का होंठ है बीड़ी का सुट्टा मार रहा
सीता बनी ... नहीं - नहीं बना ..
गाँव का ही गोरा-चिट्टा चिकना-सा लौंडा
रमेश ... जो है चबा रहा पुड़िया पर पुड़िया गुटखा
लक्ष्मण बना समसुद्दीन दर्जी किसी से मोबाइल पर है कह रहा -
 " शब्बो ! अब शुरू होने वाली है रामलीला .. तुम आ गई हो ना !? तुम देखोगी तो मैं अपना अभिनय अच्छा से कर पाउँगा अदा
वर्ना हो सकता है कोई डायलॉग ही भूल जाऊँगा "
रामदीन बना दशरथ अपनी घनी मूंछों पर सफ़ेद चढ़वा कर चूना
है अपने चेहरे पर बुढ़ापा का रंग दे रहा
क्योंकि क़ुदरत ने नहीं चढ़ाई है अभी उसके मूंछों या बालों पर
अपनी सच्ची और पक्की सफ़ेदी
सब के सब व्यस्त हैं .. सब के सब मस्त हैं ...
रामलीला के कलाकार भी .. जमा हुए सारे दर्शक भी ...
दर्शकों में भी कई सेवन करते हुए सिगरेट , बीड़ी या खैनी
हैसियत और लत के मुताबिक हैं दिख रहे अपनी-अपनी

मंच का पर्दा उठता है थोड़ी देर बाद ही
आगमन होता है राम का .. साथ में सीता और लक्ष्मण भी
सभी श्रद्धा से नमन करते हैं अपने-अपने सिर को झुका
उस राम के आगे .. हाँ .. हाँ .. उस राम के आगे ...
जो अभी-अभी मंच के पीछे बीड़ी का सुट्टा था मार रहा
मेरा अबोध मन तभी कुलबुलाया
और मुझे से ही तड़ से जड़ दिया एक सवाल बच्चों-सा
ना .. ना .. कौन बनेगा करोड़पति वाला नहीं
बस .. कर दिया एक सवाल बच्चों-सा
मचलता-सा पूछा - ......
" हम सभी क्या प्रत्यक्षतः -- भारतीय रेल के प्लेटफार्म की तरह
या फिर रामलीला के मंच की तरह और ...
अप्रत्यक्षतः -- मन में रेल के डब्बे के टॉयलेट पर उकेरी चित्रकारी
और रामलीला वाले मंच के नेपथ्य की तरह
अक़्सर दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीते हैं क्या !?
एक नहीं ... कई-कई दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीते हैं क्या !???


Thursday, October 3, 2019

नवरातरा (नवरात्रि) चल रहा है ... (लघुकथा).

" गुडगाँव वाला 'नयका' (नया) फ्लैट मुबारक़ हो पाण्डे जी ! उहाँ (वहाँ) तो गृहप्रवेश करवा दिए ... भोज-भात भी हो गया। हिआँ (यहाँ) गाँव में पार्टी कब दे रहे हैं !? "

" जब बोलिए तब ... पीछे कौन हटता है भला श्रीवास्तव जी ... बोलिए ! " -
- मुँह में भरे गुठखे के पीक की पिचकारी चलाते हुए पाण्डे जी बोले।

" पर पाण्डे जी आप तो जानते ही हैं कि हमको 'उ' घास-फूस .. मने (मतलब) 'उ' .. 'वेजीटेरियन' आउर (और) नाबालिग वाला नहीं ... 'एडल्ट' वाला पार्टी चाहिए अलग से। समझ रहे हैं ना !? " -
- अर्थपूर्ण नजरों से फूहड़-सा ठहाका लगा कर श्रीवास्तव जी पाण्डे जी को देख रहे थे। पाण्डे जी का ठहाका भी श्रीवास्तव जी के ठहाके के साथ युगलबंदी करता हुआ प्रतीत हो रहा था। दोनों के तोंद जोर-जोर से हिल-हिल कर एक-दूसरे के खाते-पीते घर के होने का सबूत दे रहे थे।
इसी बीच पाण्डे जी के मुँह का चबाया हुआ लारयुक्त गुठखे का पीक हल्का-सा उनके कुर्ते पर टपक पड़ा था। रुमाल से पोंछते हुए वे कुछ ... मादर.... भैण.... जैसा कुछ बड़बड़ाए थे।

" श्रीवास्तव जी ! अभी तो नवरातरा (नवरात्रि) चल रहा है ...
आउर (और) आपको तो पते ही है कि आजकल तो लहसुन-प्याज भी बंद है भाई ! सुध (शुद्ध) भोजन-भजन चल रहा है माता रानी के नाम पर। माईये (माता रानी- दुर्गा जी) के किरपा (कृपा) से ही ना "कमाई" वाला थाना में 'पोस्टिंग' हुई है। चार-पाँच दिन और रुक जाइए ... फिर जईसा (जैसा) और जहाँ कहिएगा, हमसे एक जोरदार पार्टी ले लीजिएगा। आपको 'एडल्ट' वाली पार्टी ही चाहिए ना !? जहाँ चलियेगा, ले चलेंगें। चाहे 'सोनागाछी' .. आ (या) चाहे मन करे तो 'कमाठीपुरा' चलेंगें। बस ई (ये) नवरातरा ख़तम (ख़त्म) हो जाए (जाने) दीजिए। आप भी क्या याद किजिएगा ... अइसे (ऐसे) भी बिहार में तअ (तो) सुरा मिलेगा नहीं .. तअ सुरा और '.......' ... आयँ .. समझ रहे हैं ना !? ...  हम का (क्या) कहना चाह रहे हैं !? ... दुन्नो (दोनों) का लुत्फ़ उधरे लिया जाएगा। "

आगे बढ़ते हुए फिर पाण्डे जी बोले - "अब चलें शहर जा रहे हैं , बड़का 'मॉल' से बाक़ी रह गया  पूजन-सामग्री आउर नवमी के दिन कुंवारी-कन्या के खिलावे-पिलावे (खाना-पानी) ला (के लिए) जरुरी सामान ले कर आते हैं। मलकिनी (पत्नी) एगो (एक) पुर्जा पकड़ा दी हैं। "

दोनों के फूहड़ और टपोरी ठहाके की अलयबद्धता और कहीं दूर किसी पंडाल के ध्वनिविस्तारक यन्त्र से कान तक आते लयबद्ध मंत्रोच्चार गडमड होते प्रतीत हो रहे थे - ...  " या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ... नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ... हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा ..... ".

Monday, September 30, 2019

बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती - (तीन बन्दर बनाम तीन रचनाएँ)

(1)#
बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती
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कुछ भूल हुई तुम से भी ना बापू !?
उसी से तो है दुनिया आज बेक़ाबू
पाठ पढ़ाया तीनों को पर ...
तीनों के तीनों ही बन्दर
भला भूल गया क्यों तुमसा ज्ञानी
हर सृजन के लिए है "मादा" जरुरी
बापू ! एक भी तो बन्दरिया ली होती

अब देखो ना ...ना ना .. सुनो ना !
वैसे भी पुरखों से है अक़्सर सुना
सुना भर है पर ... कभी नहीं गुना
कहते हैं सब "तीन टिकट महा विकट"
पर तुमसा ज्ञानी भी तो रखा सदा
तीन ही बन्दर अपने निकट
खैर ! बहरहाल ... सब की तरह
है ये मुझे भी पता कि तुमने तीनों को
है अलग-अलग सिखलाया
"बुरा मत देखो"
"बुरा मत सुनो"
"बुरा मत बोलो"

एक अदद और चौथा रख लेते
सिखलाते उसको बस एक और सबक़
कि ... "बुरा मत करो"
तो तुम्हारा क्या जाता !? बोलो ना जरा !!
तुम्हारा ये "चौथा बन्दर" ही ना ...
आज तक मचा रहा कोहराम
बुराई के विरुद्ध यहाँ तो चुप हैं सभी
इनकी आँख भी हैं मूंदी
कान भी तो बन्द पड़े हैं इनके
पर बुरा कर्म कर तो सभी रहे हैं
बोलो ना तनिक तुम भी कि ...
इस बुरे पर लगेगा भला कैसे विराम !?
बोलो ना बापू ... भला कैसे विराम !???

(2)#
बापू ! तेरे आशिक़ आज
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बापू ! तेरे 'आशिक़' आज
तेरा जन्मदिन 2 अक्टूबर
Celebrate करेंगे
सुबह Colgate से
brush कर के
कुछ नर Gillette से
shave करेंगे और
कुछ नारी Revlon की
lipstick लगाएगी और
कुछ नर-नारी मंच पर
भाषण देने जायेंगे
कुछ भाषण सुनने जाएंगे
और सभा का इतिश्री कर
कुछ घर वापस लौट जायेंगें

और कुछ Multiplex में जाकर
अपना दिल बहलायेंगे
फिर ...आज छुट्टी जो है
तेरे जन्मदिन के नाम पर तो
Lee या Levis के
Jeans पहन कर
KFC या Broaster में भी कुछ
शाम entertain करेंगे
आज के "dry day" का
बीते कल ही करके तगड़ा तोड़
कुछ इन्तजाम करेंगे ताबड़तोड़
bigbasket.com से online
Danish Premium Mutton Chops का चखना मंगवा कर "cheers" के साथ
इस मुफ़्त मिली छुट्टी का लुत्फ़ उठाएंगे ...

(3)#
बापू ! आपका बंदर
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बापू !
डाक-टिकटों पर अंकित आपका चेहरा
रोज़ाना मुहर की काली-काली स्याही
चौराहों- बागों में खड़ी प्रस्तर प्रतिमा
प्रायः बीट करते नभचर मुक्त प्राणी
फिर भी आँखें बंद ? मानो आपका पहला बंदर !!

बापू !
अदालतों में टंगी मुस्कुराती आपकी छवि
गीता की कसम, फिर भी झूठी गवाही
सांप्रदायिक दंगे और  क्रूर आतंकवादी
सब तरफ धमाके, चारों ओर तबाही
फिर भी कान बंद ? मानो आपका दूसरा बंदर !!

बापू !
मुद्राओं पर मुद्रित आपका हँसता मुखड़ा
विनिमय साधन - मजबूरों का काया दोहन
आम जनता का अनसुना, अनदेखा दुखड़ा
खादी, ख़ाकी, सफेदपोशों का मुद्रा-मोचन
फिर भी आप चुप ? मानो आपका तीसरा बंदर !!


Sunday, September 29, 2019

कपसता है सुर ...

अनवरत निरपेक्ष ...
किए बिना भेद ... किसी धर्म-जाति का
या फिर किसी भी देश-नस्ल का
षड्ज से निषाद तक के
सात स्वरों के सुर से सजता है सरगम
मानो ... इन्द्रधनुष सजाता हो जैसे
बैंगनी से लाल तक के
सात रंगों से सजा वर्णक्रम

पर बारहा बाँट देते हैं हम नादान
इन सुरों को जाति-धर्म में अक़्सर
मंदिरों में भजन हो जाता हिन्दूओं का सुर ...
गिरजा में प्रार्थना ईसाई का सुर तो
गुरूद्वारे में शबद-वाणी सिक्खों का सुर
मज़ारों के कव्वाली मुसलमानों का सुर
पर एक "सुर" ...  सुर यानि देवता
ढूँढ़ते हैं अक़्सर जिन्हें हम
मंदिरों की पथरीली मूर्तियों में
लगता तो है कि वे भी बसते हैं
इन्हीं सात सुरों के सरगम में ही जैसे

पर हर कहीं नहीं !? ... हर बार कहाँ !?...
जरुरी नहीं कि हर बार सुर
सुहाने होते ही हो यहाँ
कभी - कभी या कई बार तो
किसी के मन की मज़बूर कसक
ढल के मुजरे में कपसता है सुर
बलिवेदी पर निरीह की अनसुनी कराह
हर बार कुचल देता है मन्त्रों का सुर
कई बार बनता है निवालों का साधन
ये सुर सजता है जब अक़्सर गलियों में
चौराहों पर ... फुटपाथों पर या ट्रेनों में

सुर हो और ताल ना हो
तो सुर की बातें बेमानी होती हैं ...
पर ताल भी अक़्सर भरमाते हैं
बचपन से बजता एक गीत सुना  -
" बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं "
सच में ऐसा है क्या !? सोचो ना जरा !!!
बैलों के ही क्यों हर मवेशियों के
गले के घुंघरूओं के सुर-ताल से ही
ग़ुलामी करते रहने का उनके हम हरदम
अनुमान लगाते हैं या गुम हो जाने पर
बीहड़ से इन्हीं आवाज़ों से ढूँढ़ लाते हैं
सच कहूँ तो ... ना जाने क्यों अक़्सर
गहने का गुमां देने वाले पायल
मवेशियों के उन्ही घुंघरुओं सा
अहसास कराते हैं ...

सुर हो या ताल हर बार सुहाने होते नहीं
कई बार हमें ये रुलाते हैं ... कपसाते हैं ...

Friday, September 27, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१८ ) - "मन के दूरबीन से" - बस यूँ ही ...

(१)*

माना ...
इन दिनों
छीन लिया है
तुम्हारे सिरहाने से
मेरी बाँहों का तकिया
मेरे 'फ्रोजेन शोल्डर' ने ...

बहरहाल आओ
मन बहला लो
सुन्दर रंगोली से
जो है सजी
तन पर मेरे
'इन्सुलिन की सुइयों' से ...

(२)*

माना ...
मासूम बच्चों को
अब तक
बहुत बार
दो बूँद पिलाया
पोलियो का

अब क्यों ना ...
सनके सयानों के लिए
प्रयोगशालाओं में
बनाया जाए
"डोपामाइन-
हार्मोन्स" का टीका !?...

(३)*

लाख दूर
रहने पर भी
पल-पल
पास-पास
तुम्हारा ...
रूमानी अहसास
मेरे मन के
दूरबीन से ...

देखो ना जरा ! ...
मैं कहीं
"गैलीलियो" तो नहीं
बन गया !? ...



Sunday, September 22, 2019

एक काफ़िर का सजदा ...

मौला भी तू, रब भी तू
अल्लाह भी तू ही, तू ही है ख़ुदा
करना जो चाहूँ सजदा तुम्हें
तो ज़माने भर से है सुना
हम काफ़िरों को है सजदा मना
अब बता जरा है हमारी क्या खता

करते है सब सजदे तुम्हें
रुख़ करके पश्चिम सदा
कहते हैं कि तू काबा में है बसा
अब समझा जरा इस काफ़िर को तू कि ...
काबा के उस काले पत्थर में ढूँढू तुम्हें
या फिर दफ़न वक़्त के कब्र में
बेजान तीन सौ साठ बुतों में है तू सोया

अक़्सर मैं ये सोचता हूँ कि ...
आब-ए-ज़मज़म से क्या मिट सकेंगे
लगे हैं जो दाग़ अस्मतदरी के बारहा
यूँ तो सिर उनके भी झुके हैं अक़्सर
तेरे सजदे में मेरे मौला
थी जिनकी धिंड में भागीदारी
और जो थे अस्मतदरी की वज़ह
और उनके भी तो सिर झुके हीं होंगे
सजदे में तुम्हारे ही आगे
जिनकी इज्ज़त की उड़ी थी धज्जियाँ

चाहे म्यांमार की काफ़िर बौद्ध भिक्षुणियाँ हों
या कश्मीरी समुदाय विशेष की लड़कियाँ
और बँटवारे के वक्त तू सोया था कहाँ
जब फिसल रहे थे नंगे स्तनों पर
काटने को प्यासे दरिंदों के ख़ूनी खंजर
तब उनकी अनसुनी चीखों पर
क्यों नहीं तू फ़फ़क-फ़फ़क कर था रोया

होकर काफ़िर भी मैं
सजदा करूँ आगे तुम्हारे
बस शर्त्त है ये कि ...
अगर जो तू ले ले रोकने की हर
अस्मतदरी की जिम्मेदारी यहाँ ...
तभी नसीब होगा तुझे मेरे मौला
इस एक काफ़िर का सजदा ...
हाँ ... एक काफ़िर का सजदा ...