Friday, August 9, 2019

किसी दरवेश के दरगाह से

मेरी अतुकान्त कविताओं की
बेतरतीब पंक्तियों में
हर बार तुम
आ ही जाती हो
अपने बिखरे बेतरतीब
महमहाते बालों की तरह

और तुम्हारी
अतुकान्त कविताओं में
अक़्सर मैं
बेतुका बिम्ब गढ़ता-सा
अपनी बेतुकी
सोचों की तरह

मानो ... कहीं पास से ही
किसी दरवेश के
दरगाह से अक़्सर
सुलगती अगरबत्तियों के
सुगन्धित धुएँ के साथ
मन्नतों के पूरी होने के बाद
चढ़ाई गई बेली-चमेली की बुनी
चादरों की लिपटी ख़ुश्बूएँ  ...

बस आ ही जाती हों
बंद कमरों में भी
खुले रोशनदानों से
हवा के झोंको के साथ
मज़हबी बेमतलब की
बातों में बिना भेद किये

ऐसे में ... बोलो ना भला..
जरुरी तो नहीं कि ...
इन सुगन्धों के लिए
क़रीब जाकर उस
दरगाह की सीढ़ियों पर
बैठा ही जाए ...

Tuesday, August 6, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (७) - बस यूँ ही ....

(1)#
माना कि ... पता नहीं मुझे
पता तुम्हारा,
पर सुगन्धों को भला
कब चाहिए साँसों का पता
बोलो ना जरा ...

चलो बन्द कर भी दो
अपनी दो आँखों की
दोनों खिड़कियाँ
दोनों बाँहों के
दो पल्ले दरवाजे के ...

हम तो ठहरे
आवारा सुगन्ध
आ ही जायेंगे
तुम्हारी साँसों तक
तुम्हारे मन के
रोशनदान के रास्ते .. है ना !?

(2)#
एक सूनी-पुरानी
इमारत की
किसी बदरंग दीवार पर
अनायास उग आये
पुष्पविहीन फर्न की तरह
पनप जाते हैं अनायास
कुछ रिश्ते ..जो ...
बेशक़ बागों में पनाह
पायें ना पायें पर ...
मन की आँखों में
प्रेम की हरियाली
सजाते हैं अनवरत
ठीक सावन की
हरियाली की तरह ...
है ना !?...

(3)#
प्रकृत्ति प्रदत्त
सृष्टि स्रोत
शुक्राणुओं के
महासमर-सी
कई सोचें ... कई कल्पनाएँ ...
उद्देश्यहीन रह जाती हैं
अक़्सर बस यूँ ही ...

बस एक सोच ही
जिनमें तुम रहती ... पलती...
बन विजेता इकलौती ही
बारहा प्रकृत्ति-नियम सी
है रचने बढ़ पाती
मन के कोख़ में
भावना की एक नई सृष्टि  .....








काश ! "अंधविश्वास" भी हो पाता "धारा-370" - दो संस्मरण.

दैनिक हिन्दी समाचार-पत्र 'हिन्दुस्तान' के आज के साप्ताहिक संलग्न 'हिन्दुस्तान पटना लाइव' के मुख्य-पृष्ठ पर नीचे छपे स्तम्भ 'वे दिन' में वरिष्ठ चित्रकार - आनन्दी प्रसाद बादल जी का संस्मरण (जो नियमित पढ़ता हूँ) "जमींदारी उन्मूलन पर भी लोगों ने मनायी थीं खुशियां" शीर्षक के साथ पढ़ा।

उन्होंने आज के संस्मरण में समसामयिक विषय 'कश्मीर और धारा 370' के साथ-साथ अतीत के 'जमींदारी उन्मूलन' से मिलने वाली आमजन की खुशियों की तुलना और चर्चा की है।

अंत में उन्होंने समाज के वास्तविक कोढ़ यानि 'अंधविश्वास' जैसी कुरीति से (उपर्युक्त दो मुक्तियों जैसी) मुक्ति की चर्चा करते हुए अपने बचपन के एक 'बचपना से भरी, पर सयानों को मात देती' घटना की चर्चा की है।

उनकी इसी घटना ने मुझे भी तत्क्षण अपने बचपन की घटी "दो" घटनाओं को आपलोगों से साझा करने के लिए प्रेरित कर दिया। आज का मोर्निंग वॉक भी भूल गया मैं। वैसे अपने कई करीबियों को जो इस भावना को समझ सकें, उन्हें मैंने साझा किया है।अब तक इसे साधारण समझ आप लोगों से साझा करने की हिम्मत नहीं हुई कभी। पर एक "श्रेष्ठ और स्थापित जन" के मुँह से सुनकर आज यहाँ लिखने की हिम्मत कर पा रहा हूँ। (आपसबों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।)

(१)#
हमलोगों की एक बुआ-दादी यानि दादा जी की बहन किसी पारिवारिक उत्सव में खगड़िया से पटना के लोदीपुर के पूर्वजों वाले घर पर सपरिवार आईं थीं। पहले शादी समारोह का आयोजन सप्ताह-पंद्रह दिन चलता था। उनके उसी प्रवास के दौरान फूफा-दादा का अचानक किसी खतरनाक बीमारी से निधन हो गया और बुआ-दादी के साथ 'विधवा' शब्द चिपक गया। सहानुभूतिवश वे कुछ माह तक यहीं रह गईं। उनके तथाकथित " जोग-टोटमा" वाली सोच से सारा घर परेशान था।
एक दिन मेरे , तब मैं 10-11 साल का रहा होऊँगा, दिमाग में खुराफ़ात सूझी और मैं अपने घर के रसोईघर से चुटकी भर सरसों, मुट्ठी भर खीर वाला अरवा चावल, चार-पांच लौंग और एक टूटी हुई सिलाई करने वाली सुई चुरा कर इकट्ठा किया।
एक शाम बिजली जाते हीं , यही जुलाई-अगस्त का महीना रहा होगा, सब 'गोतिया' लोग मोटा-मोटी खुली छत्त पर राहत की साँस लेने चले गए। अँधेरे का फायदा उठाते हुए मैंने वो सारा चोरी कर इकट्ठा किया हुआ सामान बुआ-दादी के कमरे में चुपके से खिड़की के रास्ते-बिखेर आया।
थोड़ी देर बाद बिजली आनी थी ही ... आ गई.. फिर तो सारे घर में कोहराम मच गया, मानो बिजली अपने साथ-साथ आफत भी लेकर आई हो। फिर क्या ... सबके के चेहरे पर तड़ातड़ पसीना चलने लगा। आनन-फानन में मुहल्ले के ही एक तथाकथित ओझा 'गुलाब महतो जी' , जो उन दिनों मगध महिला कॉलेज, पटना में माली थे, को बुलाया गया। ओझा जी के आने के पहले तक किसी की हिम्मत नहीं हुई उस कमरे में जाने की। वे आये, लोटे में पानी माँगा, कुछ मंत्रोच्चार किया और बोले ...किसी दुष्ट आत्मा का प्रवेश कराने की कोशिश आपलोगों के किसी पड़ोसी का है। हम अभी "बाँध दिए" हैं घर को। अब आपलोगों को कोई भय नहीं है।
मैं अपनी "कारिस्तानी" पर मन ही मन मुस्कुरा रहा था। पिटाई के डर से किसी को भी नहीं बतलाया। हाँ ..पूरे घर-परिवार को तो नहीं, सप्ताह भर बाद अपने अभिभावक को बतलाया। सच ज्यादा समय तक मैं पचा नहीं पाता, चाहे वह सही हो या गलत। जिसके कारण कई बार पिटाया हूँ और कई बार डाँट से नाश्ता किया हूँ। उस दिन भी बहुत डाँट पड़ी थी।

(२)#
मेरे पापा सीवान (बिहार) जिला के हुसैनगंज ब्लॉक में उन दिनों बी.एस. एस. ( Block Statistical Supervisor ) के पद पर थे। उस समय मैं कोई 19-20 साल का रहा होऊँगा। पढ़ता-रहता तो पटना के उसी लोदीपुर वाले मकान में, पर छुट्टियों में भाग जाता था ब्लॉक के इर्दगिर्द ग्रामीण प्राकृतिक परिवेश का अवलोकन करने। उस समय भी गर्मी का ही मौसम था। लोग सब अपने-अपने ब्लॉक के क्वार्टर के बाहर खुले में बैठे थे। औरतें- बच्चे, बड़े ..सभी अपने-अपने समूह में बैठे या टहल रहे थे। वहीं क्वार्टर के सामने एक किरानी - "मज़हर चच्चा" का परिवार रहता था। मेरे दिमाग में अचानक एक खुराफ़ात सूझी ..."मज़हर चच्ची" से निहोरा कर के उनका बुर्क़ा थोड़ी देर के लिए माँगा। बोला "एक नाटक का रिहर्सल करना है चाची, फिर लौटा देंगे।" सब मेरी इस आदत से वाकिफ थे, कभी किसी की लुंगी, तो कभी किसी का गोटेदार दुपट्टा नाटक के लिए माँगता रहता था अपने जरुरत के अनुसार। इसी लिए ज्यादा सवाल नहीं उठा। फिर वही बिजली जाने का इंतज़ार और जाते ही चुपचाप ... मैं ने हाफ पैंट और टी-शर्ट के ऊपर से ही बुर्क़ा लगभग ओढ़ लिया और ... बी डी ओ साहब के क्वार्टर के सामने खुले में बैठे बी डी ओ साहब, सी ओ साहब, बी ई ओ साहब और अन्य लोग बैठे दिन- दुनिया की बातें कर ठहाका लगा रहे थे। पापा उस दिन सुबह से ही "फील्ड" में गए हुए थे, जो अब तक नहीं लौटे थे। अगर लौटे होते तो , वहाँ बैठे होते और मैं ये हिमाकत नहीं कर पाता।
ख़ैर बहरहाल मैं थोड़ा लंगड़ाने का अभिनय करते हुए गूंगी औरत की "आऊँ ... आऊँ .." जैसी कुछ भी निरर्थक शब्द बोलते उनके सामने जाकर हाथ फैलाए मज़बूर औरत के रूप में खड़ा (खड़ी) हो गया। प्रायः ब्लॉक में सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए आसपास के गरीब-मजबूर आते ही रहते हैं, अपनी पैरवी लेकर। अँधेरी रात ... सूनसान में एक अकेली औरत ... पुरुष मन मचल ही जाता है ना ... सब एक दूसरे का मुँह देख कुछ-कुछ फिकरे कसने लगे.. जो सच में याद नहीं ...  मैंने अपना हाथ वहीं समूह में बैठे ब्लॉक के बड़ा बाबू 'शंकर चच्चा' की ओर बढ़ाया... धीरे- धीरे बढ़ाते ही ... ले लोटा .... उ तो कुर्सी से उलट गए। उनका हाथ-पैर कांपने लगा। मौके की नज़ाकत देखते हुए मैं तो बस बुर्का ऊपर उठा कर दौड़ चला .. और साँस लिया अपने क्वार्टर में घुस कर। शुक्र था.. पापा अभी तक नहीं आये थे।
पूरे ब्लॉक में लोग बाद में दौड़े इधर- उधर , थाने से एक दो सिपाही भी आये ..सब ने कहा ..." "चुड़ैल" आई थी और शंकर बाबू पर 'अटैक' कर रही थी। उ तो हम लोग थे तो डर से भाग गई , नहीं तो .... आज तअ ..."
सुबह तक  क्या कई दिनों तक उस चुड़ैल की चर्चा ब्लॉक और आस पास के गाँव में होती रही।
ये बात भी पापा को एक सप्ताह बाद पता चल ही गई, मैंने ही बतलाया था अपनी आदतानुसार और ...मन भर या उस से भी ज्यादा डाँट सुनने को मिली।
तो ....ये थी अन्धविश्वास (?) से जुड़ी मेरे बचपन की जी हुई खुराफ़ाती दो घटनाएँ ....
काश !!! धारा-370 की तरह ये "अंधविश्वास" का भी अंत हो पाता अपने समाज से तो हमारी खुशियाँ सौ गुणी हो जाती। फिलहाल ... आइये मिलकर गाते हैं ... एक पुरानी फ़िल्म का पुराना नग़मा ...." वो सुबह कभी तो आएगी ... वो सुबह कभी तो आएगी ..."..
अब चला ...

Saturday, August 3, 2019

मेरे मन की मेंहदी

माना मेरे मन की मेंहदी के रोम-रोम ...
पोर-पोर ...रेशा-रेशा ... हर ओर-छोर
मिटा दूँ तुम्हारी .... च्...च् ..धत् ...
शब्द "मिटा दूँ" जँच नहीं रहा ... है ना !?
अरे हाँ ...याद आई ...समर्पण ...
ना .. ना ...आत्मसमर्पण कर दूँ
तुम्हारी मन की हथेलियों के लिए
और तुम सहेजो भी ... संभालो भी उसे
कुछ लम्हों तक बड़ी सजगता के साथ
अपनी मन की हथेलियों पर
बस मन की नर्म हथेलियों पर अपने
अनुराग की लाली की लताओं के
पनप जाने तक ... ठीक जैसे.. बारहा
प्रकृत्ति की तूलिका उकेरती है सुबह-सवेरे
सूरज की लालिमा क्षितिज के पटल पर

पर ये क्या !!! बस ...
कुछ दिनों ...चंद हफ्ते ...महीने बाद
या फिर एक मौसम के बीत जाने पर
हर तीज-त्योहार पर या सावन की फुहार तक ही
और ... फिर से वही रंगहीन हथेलियाँ मन की
सूनी-सूनी-सी रंग उतर जाने के बाद

सोचता हूँ ... चाहता हूँ .. अक़्सर
ऐसे उतर जाने वाले रंग से बेहतर
तुम्हारी मन की बाहों पर
अपनी चाहत का गोदना उकेर देना
अपनी प्रीत के पक्के रंग से ...
जो रहे अमिट ...शाश्वत ... ताउम्र
जैसे हिटलरी फ़रमान के तहत कभी
क़ैदी यहूदियों की कतार में 'लुडविग लेल' ने
गोदा होगा 'गीता फुर्मानोवा' की बाँह पर
अमिट गोदना ताउम्र के लिए और ...
उसी '34902' संख्या वाली गोदना की
वजह से ही तो मिलते रहे ताउम्र वे दोनों
एक-दूसरे से जीवन के हर मोड़ पर ...
मिलते रहेंगें हम दोनों भी वैसे ही ताउम्र ....
अगले जन्म का अनुबन्ध लिए
इस जीवन के हर मोड़ पर ...

Friday, August 2, 2019

छितराया- बिखरा निवाला

अक्षत् ...
हाँ ... पता है .. ये परिचय का मोहताज़ नहीं
जो होता तो है आम अरवा चावल
पर तथाकथित श्रद्धा-संस्कृति का ओढ़े घूँघट
बना दिया जाता है साथ हल्दी व दूब के
तथाकथित पवित्र अक्षत् ...
जो अक़्सर इस्तेमाल किये जाने के
कुछ लम्हे बाद हो जाते है स्वयं क्षत-विक्षत ...

चाहे ...तथाकथित सत्यनारायण स्वामी का हो कथा
या घर के पूजाघर का कोना या फिर ....
शादी के मड़वे में वर-वधू के ऊपर आशीर्वादस्वरूप छींटे जाने वाले तथाकथित अक्षत् या हो फिर
वर-वधु के चुमावन के रस्म में छींटा गया अक्षत्
अक़्सर जो हो जाते हैं क्षण भर में क्षत-विक्षत
कभी-कभी तो चूमते हैं कई-कई तलवे इनको

हाँ .. वैसे कुछ ख़ुशनसीब दाने ही बन पाते हैं
कभी-कभार कुछ पशु-पक्षियों  के निवाले
कचरे के ढेर पर या कभी-कभी मछलियों के भी
जब प्रवाह किये जाते हैं नदी या तालाब में
"पाप ना लग जाए कहीं" का बहुमूल्य सोच लिए

शादियों में तथाकथित 'लावा छिंटाई' का हो रस्म या
परिजनों की शवयात्रा में अर्थी के पद-चिन्हों पर
लावे एवं सिक्के का मुहर लगाते हुए हम
गुजर तो जाते हैं और जिसके सिक्के तो
लपक लिए जाते हैं राह चलते आमजन
या फिर सम्बन्धियों या साथ गए जान-पहचान वालों द्वारा
जो कभी-कभी ख़र्च कर दिए जाते हैं या फिर प्रायः
तथाकथित आशीर्वाद का एक रूप मान कर
रख लिया जाता है घर में कहीं संभाल कर
किसी संग्रहालय की धरोहर की तरह

पर लावे बेचारे जो धान से बने मानो
गर्व से सीना चौड़ा किए पल भर में
पैरों तले रौंदे ही तो जाते हैं बारहा ...हाँ ...
कुछ-कुछ , कभी-कभी बेशक़ किसी पशु-पक्षी या
मछलियों के भी बन पाते हैं निवाले
ठीक-ठीक अक्षत् की तरह

साहिब !!!
करते तो हैं आप आस्तिकता की बात
पर साथ ये अन्नपूर्णा देवी का निरादर ऐसा
दिखता नहीं आपको क्या.. इन दानों में
किसी भूखे-गरीब का छितराया- बिखरा निवाला
कह नहीं रहा वैसे मैं इसे अंधपरम्परा .. ना.. ना !
पर साथ समय के समय-समय पर चाहती हैं
संशोधन ठीक हमारे संविधान-सा
चाहे वे संस्कृति हों या परम्पराएँ अक़्सर

कल तक अगर नहीं तो कम से कम अब से
एक बार तो साहिब सोचना जरा ..
हाँ साहिब ! ... सोचना जरा .....
किसी भूखे-गरीब का छितराने से पहले
उनका निवाला ......




Sunday, July 28, 2019

काले घोड़े की नाल

" जमूरे ! तू आज कौन सी पते की बात है बतलाने वाला ...
  जिसे नहीं जानता ये मदारीवाला "

" हाँ .. उस्ताद !" ... एक हवेली के मुख्य दरवाज़े के
 चौखट पर देख टाँके एक काले घोड़े की नाल
 मुझे भी आया है आज एक नायाब ख्याल "

" जमूरे ! वो क्या भला !?
  बतलाओ ना जरा ! "

" उस्ताद ! क्यों ना हम भी अपनी झोपड़ी के बाहर
 टाँक दें काले घोड़े की एक नाल
 शायद सुधर जाये हमारा भी हाल "

" जमूरे ! बड़े लोगों की बातें जाने बड़े लोग सब
 पता नहीं मुझे घोड़े की नाल ठोंकने का सबब "

" उस्ताद ! सोच लो ... लोग हैं पढ़े-लिखे
 गलत कुछ थोड़े ही ना करते होंगे .. "

" जमूरे ! "

" हाँ .. उस्ताद ! "

" जिस घोड़े के चारों पैरों में एक-एक कर
  चार नाल ठुंके होते है ... वो घोड़ा सफ़ेद हो या काला
 वो घोड़ा तो ताउम्र बोझ ढोता है ... चाबुक भी खाता है ...
 फिर उसके एक नाल से क्या कल्याण होगा भला !?
 अपने छोटे दिमाग से सोचो ना जरा ...और ...
उसके एक टुकड़े को ठोंक-पीट कर बनाई अँगूठी
 कितना कल्याणकारी होती होगी भला !? "

" उस्ताद ! धीरे बोलो ना जरा ...
सुन लिया किसी ने तुम्हारा ये 'थेथरलॉजी'
तो फिर कौन देखेगा भला अपना मदारी !?
सोचो ! सोचो ! ... गौर से जरा ...
इसलिए अगर चलाना है धंधा अपना ...
तो आँखे मूँदे अपनी
'पब्लिक' की सारी की सारी बातें माने जा
सवा करोड़ की आबादी हमारी तरह
है मूर्ख थोड़े ही ना !? " ...







मज़दूर

गर्मी में तपती दुपहरी के
चिलचिलाते तीखे धूप से
कारिआए हुए तन के बर्त्तन में
कभी औंटते हो अपना खून
और बनाते हो समृद्धि की
गाढ़ी-गाढ़ी राबड़ी
किसी और के लिए
पर झुलस जाती है
तुम्हारी तो छोटी-छोटी ईच्छाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे कितने भी पसीने बहाएं।

सर्दी में ठिठुरती रातों की
हाड़ बेंधती ठंडक से
ठिठुरे हुए हृदय के आयतन में
कभी जमाते हो अपना ख़ून
बनाते हो चैन की
ठंडी-ठंडी कुल्फ़ी
किसी और के लिए
पर जम-सी जाती है
तुम्हारी छोटी-छोटी आशाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे क्यों ना ठिठुर जाए।

कितने मजबूर हो तुम
जीवन के 'मजे' से 'दूर' हो तुम
हाँ, हाँ, शायद एक 'मजदूर' हो तुम
हाँ ... एक मज़दूर हो तुम !!!

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.