Friday, December 13, 2024

'प्रीपेड' मंच से बतकही - अर्धनारीश्वर

 

अगली बतकही के पूर्व .. किसी फ़िल्म के मध्यांतर स्वरुप हमारे एक Openmic में participation का Vedio .. ज्यों का त्यों .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...🙂

Thursday, December 12, 2024

कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)


आज की बतकही से परे :- 

आज की बतकही शुरू करने से पहले .. अगर सम्भव हो, तो .. दो मिनट का औपचारिक ही सही .. श्रद्धांजलि स्वरुप स्वाभाविक नम आँखों के साथ खड़े होकर मौन धारण कर लें हम सभी .. "अतुल सुभाष" के लिए ; क्योंकि हम और हमारे तथाकथित समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों को समाज की ऐसी विसंगतियों के विरोध में अपने आक्रोश के साथ चीखने की फ़ुर्सत तो है ही नहीं ना .. शायद ...

आज की बतकही :-

गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के अंतर्गत बाल कवि बैरागी जी के रूमानी शब्दों को कमायचा जैसे राजस्थानी लोक वाद्य यंत्र की आवाज़ के साथ फ़िल्मी गीत के रूप में सुन कर रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित होने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" में एक अन्य विलक्षण प्रतिभा वाले अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...

प्रसंगवश .. एक तरफ़ .. हम प्रायः देखते हैं , कि हर वर्ष साप्ताहिक या पाक्षिक मनाए जाने वाले हिंदी दिवस के पक्षधर और पुरोधा बने फिरने वाले बहुसंख्यक हिंदी भाषी बुद्धिजीवी गण भी .. अपनी दिनचर्या वाली बोलचाल की भाषा- बोली में अन्य भाषाओं के शब्दों का धड़ल्ले से किए गए घालमेल के बिना तो वार्तालाप कर ही नहीं पाते हैं और .. सर्वविदित भी है, कि अन्य भाषाओं के घालमेल किए गए वो सारे के सारे शब्द प्रायः यहाँ बलपूर्वक आए आक्रांताओं या उनमें से कई छल-बलपूर्वक बन बैठे आक्रांता शासकों की भाषाओं से ही प्रभावित होते रहे हैं .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. कुछेक भजनों एवं दोहे-चौपाइयों को छोड़ कर हिंदी फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश गीतों के सृजन की कल्पना बिना उर्दू शब्दों के करना .. किसी शहरी 'मॉल' के प्रांगण में जुगनुओं की चमक दिख जाने की कल्पना करने जैसी ही है .. शायद ...

परन्तु .. उपरोक्त विषम परिस्थितियों में भी अगर कोई विलक्षण प्रतिभा विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से एक कालजयी फ़िल्मी गीत रच जाए और वो भी .. पंजाबी व उर्दू भाषी होने के साथ- साथ पंजाबी फ़िल्मों का एक सफल गीतकार होने के बावजूद। जिनको तब हिंदी लिखने तक नहीं आती थी, तो उन्होंने हिंदी भाषा को बहुत ही तन्मयता के साथ सीख कर आत्मसात किया था। उनकी उस तन्मयता के बारे में उनके उस विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाले फ़िल्मी गीत को सुनने से पता चलता है। तब तो .. ऐसे में उन्हें मन से नमन करने में कोताही बरतनी उस रचनाधर्मिता का अनादर ही होगा .. शायद ...

विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से सजे उस कालजयी फ़िल्मी गीत को हम इस बतकही के अंत में सुनेंगे भी। उससे पहले उनकी और भी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों का अवलोकन कर लेते हैं। वैसे भी तो प्रायः .. साहित्यिक क्षेत्र के कई पुरोधा गण फ़िल्मी गीतकार को एक साहित्यकार मानते ही नहीं हैं , जबकि किसी भी गीत या भजन का सृजन भी किसी रचनाकार के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी एक कविता से ही होता है .. शायद ...

अंग्रेज़ों के शासनकाल में जन्में .. बहुत कम उम्र में ही स्कूल की पढ़ाई के दौरान तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी गीत लिखकर .. वह कांग्रेस के जलसों और सभाओं में उन्हें सुनाते- सुनाते कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए थे। नतीजतन अंग्रेज़ी सिपाहियों द्वारा गिरफ़्तार कर के उन्हें कारावास में रखा तो गया था , परन्तु उनकी कम उम्र होने के कारण उन्हें जल्द ही रिहाई भी मिल गयी थी।

उन दिनों स्वतंत्रता दिवस वाले विभत्स विभाजन ने उन्हें अत्यंत मर्माहत किया था। परन्तु कुछ ही दिनों बाद अपने जीविकोपार्जन के लिए मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) आने के बाद उनके क्रांतिकारी विचारों वाले तेवर ने सामाजिक सरोकार वाली विचारधाराओं से सिक्त होकर एक ऐसे गीत का सृजन किया, कि उनके उस गीत को इंदिरा गाँधी वाली कांग्रेस सरकार की ओर से .. तत्कालीन तथाकथित स्वतन्त्र भारत में भी कुछ दिनों की पाबंदी झेलनी पड़ी थी। 

जबकि कांग्रेस सरकार ने ही पहले "गरीबी हटाओ" और "रोटी, कपड़ा और मकान" का नारा दिया था। परन्तु .. कुछ ही माह बाद देश में कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल लागू करने और फ़िल्म "किस्सा कुर्सी का" की 'रील' जलाने जैसे दुःसाहस भरे कृत्यों वाले कलंक का टीका उस सरकार के माथे पर सुशोभित हुआ था। फ़िल्म "रोटी, कपड़ा और मकान" का सामाजिक सरोकार वाला वह गीत आपको भी याद होगा ही .. शायद ... 

जिसका एक अंतरा कुछ यूँ था, कि ...

" एक हमें आँख की लड़ाई मार गई 

  दूसरी तो यार की जुदाई मार गई 

  तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई 

  चौथी ये ख़ुदा की ख़ुदाई मार गई 

  बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई .. " 

इस गीत के मुखड़े के साथ-साथ इसके हर अंतरे में तत्कालीन महंगाई की पीड़ा सिसकती नज़र आती है .. शायद ...

भले ही कभी .. या आज भी समाज शास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान है, परन्तु .. इसके बावजूद परोक्ष रूप से आज की मूलभूत आवश्यकताएँ 'मोबाइल' , 'नेट' और 'सोशल मीडिया' हो गयीं हैं .. शायद ...

किसी भी अमीर या ग़रीब के बेटे- बेटियों की पारम्परिक शादी- विवाह के दरम्यान उनकी बारात व विदाई के अवसर पर इनकी लिखी रचनाओं पर आधारित गीतों का बजना .. आज भी वहाँ उपस्थित लोगों को क्रमशः झुमा और रुला देता है .. बस यूँ ही ...

पारम्परिक बारात के समय झुमाने वाला गीत -

" आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है

   अमीर से होती है , गरीब से होती है

   दूर से होती है , क़रीब से होती है

   मगर जहाँ भी होती है, ऐ मेरे दोस्त !

   शादियाँ तो नसीब से होती है ...

  आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है "

और विदाई के वक्त शिद्दत से रुलाने वाले उस गीत का एक अंतरा -

" सूनी पड़ी भैया की हवेली

  व्याकुल बहना रह गई अकेली

  जिन संग नाची, जिन संग खेली

  छूट गई वो सखी सहेली

  अब न देरी लगाओ कहार

  पिया मिलन की रुत आई

  चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई ..."

प्रत्येक वर्ष "फ़िल्मफ़ेयर" अंग्रेज़ी पत्रिका की ओर से भारतीय सिनेमा को सम्मानित करने वाले प्रायोजित "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह" के तहत गत सत्तर वर्षों से दिए जाने वाले कई श्रेणियों के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में से एक - "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" उन्हें दो- दो बार अलग- अलग वर्षों में मिला था।

एक "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" तो 1971 में "पहचान" फ़िल्म के एक गीत के लिए , जिसका एक अंतरा निम्न है -

" धर्म- कर्म, सभ्यता- मर्यादा, नज़र ना आई मुझे कहीं

  गीता ज्ञान की बातें देखो, आज किसी को याद नहीं

  माफ़ मुझे कर देना भाइयों, झूठ नहीं मैं बोलूंगा

  वही कहूँगा आपसे, जो गीता से मिला है ज्ञान मुझे

  कौन- कौन कितने पानी में, सबकी है पहचान मुझे

  सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे ..."

और दूसरा "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" 1973 में "बेईमान" फ़िल्म के एक गीत के लिए मिला था , जिसका एक अंतरा है -

" बेईमान के बिना मात्रा होते अक्षर चार

  ब से बदकारी, ई से ईर्ष्या, म से बने मक्कार

  न से नमक हराम समझो हो गए पूरे चार

  चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार

  अरे उससे आँख मिलाए, क्या हिम्मत है शैतान की

  जय बोलो बेईमान की , जय बोलो , ओ बोलो !

  जय बोलो बेईमान की, जय बोलो ..."

हालांकि काका हाथरसी जी की एक कालजयी रचना के शीर्षक - "जय बोलो बेईमान की" से इस गीत के मुखड़ा का प्रेरित होने का भान तो होता है , परन्तु इन दोनों रचनाओं के अंतराओं में बहुत ही अंतर है। 

अंग्रेज़ शासित भारतवर्ष में तत्कालीन पंजाब जिले के फ़िरोज़पुर में 13 अप्रैल 1925 को उन महान रचनाकार - "बरकत राय मलिक" का जन्म हुआ था , जो बाद में हिंदी फ़िल्मी दुनिया में अग्रसर होने के पश्चात अपने स्वजनों की राय पर अपना नाम "वर्मा मलिक" रख लिए थे। वह एक क्रांतिकारी विचारों वाले रचनाकार थे। वैसे भी फ़िरोज़पुर को "शहीदों की धरती" भी कहते हैं , जो तथाकथित स्वतंत्रता दिवस के दिन हुए विभत्स विभाजन के दौरान पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय, बच कर .. नेहरू जी के प्रयास से भारत में ही रह गया था। 

उनके लिखे तमाम फ़िल्मी गीतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में से कुछ मनमोहक गीतें निम्नलिखित हैं -

(१)

" बस्ती बस्ती नगरी नगरी, कह दो गाँव-गाँव में,

  कल तक थे जो सिर पर चढ़े, वो आज पड़े हैं पाँव में …"

(२)

" अरे हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी,

  मुझे पल-पल है तड़पाए, तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, 

  वे ~ मेरा लाखों का सावन जाए …"

(३)

" तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना,

  चाहे तेरे पीछे जग पड़े छोड़ना …"

(४)

" पंडितजी मेरे मरने के बाद, बस इतना कष्ट उठा लेना,

  मेरे मुँह में गंगाजल की जगह, थोड़ी मदिरा टपका देना…"

(५)

" एक तारा बोले तुन तुन, क्या कहे ये तुमसे सुन सुन,

  बात है लम्बी मतलब गोल, खोल न दे ये सबकी पोल,

  तो फिर उसके बाद, एक तारा बोले, तुन तुन … "

(६)

" ओ, मेरे प्यार की उमर हो इतनी सनम,

  तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़त्म… "

(७)

" मैंने होठों से लगाई तो, हंगामा हो गया,

  मुझे यार ने पिलायी तो हंगामा हो गया ..."

(८)

" आय .. हाय ...

  कान में झुमका, चाल में ठुमका, कमर पे चोटी लटके,

  हो गया दिल का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा, लगे पचासी झटके,

  हो~~ तेरा रंग है नशीला, अंग-अंग है नशीला ... "

सबसे क़माल की बात तो ये है, कि सम्भवतः ये पहले ही गीतकार / रचनाकार रहे होंगे, जिन्होंने "कान में झुमका, चाल में ठुमका... " वाले अपने रूमानी मनचले-से फ़िल्मी गीत में "दिल के टुकड़े- टुकड़े" कहने के लिए .. "दिल का पुर्ज़ा- पुर्ज़ा " शब्द को पहली दफ़ा व्यवहार में लाया होगा .. शायद ...

पर .. एक सबसे दुःखद बात तो ये है , कि उनकी इतनी सारी विलक्षण प्रतिभाओं के बाद भी .. जब चौरासी वर्ष की आयु में 2009 में उनका निधन हुआ था , तो उन्हें कहीं भी 'मीडिया' में स्थान नहीं मिला था। मगर वहीं किसी 'वायरल' "...(?)... चौधरी" जैसी फुहड़ नृत्यांगना की मृत्यु हो जाए, तो वही 'मीडिया' अपनी तथाकथित 'टीआरपी' के लिए सारा दिन उसे दिखलाती रहेगी। यही है हमारे तथाकथित समाज और तथाकथित 'मीडिया' का मानसिक स्तर .. शायद ... 

ख़ैर ! .. जो अपने वश में नहीं, उनका कैसा शोक मनाना भला .. आइए उन महान हस्ती के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाली उस कविता को एक कालजयी फ़िल्मी गीत के तौर पर .. लगभग तिरपन साल पुराने इस गीत के मुखड़े एवं इसके एक- एक अंतरा को मिलकर ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उनमें अन्य भाषाओं के कोई भी एक शब्द तलाशने का प्रयास करते हैं .. जो शायद है ही नहीं इसमें .. तो .. तन्मयता के साथ सुनिए .. वर्मा मलिक जी के शब्दों को .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे .. बस यूँ ही ...


Sunday, December 1, 2024

कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)


हमारी बतकही का मक़सद स्वज्ञान या शेख़ी बघारते हुए लोगों को कुछ बतलाना या जतलाना नहीं होता, वरन् स्वयं ही को जब पहली बार किसी नयी जानकारी का संज्ञान होता है और वह हमें विस्मित व पुलकित कर जाता है, तो उसे इस पन्ने पर उकेर कर सहेजते हुए संकलन करने का एक तुच्छ प्रयास भर करते हैं हम .. बस यूँ ही ... 

साथ ही .. आशा भी है, कि जो भी इसे पढ़ पाते हैं, उन्हें भी अल्प ही सही पर .. रोमांच की अनुभूति होती होगी ; अगरचे वो पहले से ही सर्वज्ञानी ना हों तो.. शायद ...

उपरोक्त श्रेणी की ही है .. आज की भी बतकही, कि .. इस समाज में तथाकथित जाति-सम्प्रदाय की तमाम श्रेणियों की तरह ही अक्सर लोगबाग ने रचनाकारों को भी वीर रस के कवि-कवयित्री, श्रृंगार रस के कवि-कवयित्री इत्यादि जैसी कई श्रेणियों में बाँट रखा है। जबकि ऐसे कई सारे उदाहरण मिल जाते हैं, जिनसे किसी भी साहित्यकार या रचनाकार की रचनाधर्मिता को किसी श्रेणी विशेष से बाँध पाना उचित नहीं लगता है।

इस बतकही के तहत हमें सबसे पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मंदसौर जिले से विभक्त होकर बने वर्त्तमान नीमच जिले में अवस्थित मनासा नामक शहर जाना होगा, भले ही कल्पनाओं के पंखों के सहारे अभी जाना पड़े, जिसने बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न नन्द रामदास जैसे रचनाकार को अपनी मिट्टी से रचा था। जिन्हें हम आज बाल कवि बैरागी के नाम से ज़्यादा जानते हैं। 

वह कवि और राजनीतिज्ञ के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के गीतकार भी थे। राजनीतिज्ञ के रूप में तो उनका राज्य सभा के सांसद से लोकसभा के सांसद तक का पड़ाव तय करते हुए कैबिनेट मंत्री तक का सफ़र रहा था। 

इस तरह की चर्चा करते हुए, अभी अटल जी अनायास परिलक्षित हो रहे हैं। हालांकि वह जनसामान्य के बीच कवि के रूप में थोड़ा कम और राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा ज़्यादा विख्यात हैं। दूसरी तरफ़ .. बैरागी जी कवि के रूप में थोड़ा ज़्यादा प्रख्यात हैं, तो राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा कम .. शायद ...

एक तरफ़ तो वह लिखते हैं, कि -

" मुझको मेरा अंत पता है, पंखुरी-पंखुरी झर जाऊँगा

  लेकिन पहिले पवन-परी संग, एक-एक के घर जाऊँगा

  भूल-चूक की माफ़ी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी

  उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी

  बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊँ

  मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा

  अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ। "

वहीं दूसरी तरफ़ बच्चों के लिए बच्चा बन कर भी लिखते हैं , कि - 

" पेड़ हमें देते हैं फल,

  पौधे देते हमको फूल ।

  मम्मी हमको बस्ता देकर

  कहती है जाओ स्कूल। "

वही बाल कवि बैरागी जी देशभक्ति और बाल गीत वाली तमाम प्रतिनिधि रचनाओं से परे एक विशेष फ़िल्मी रूमानी गीत रच जाते हैं, जिसे आज भी सुनने पर वह मन को रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित कर जाता है .. शायद ...

वैसे तो इसकी विस्तारपूर्वक सारी जानकारी 'यूट्यूब' या 'गूगल' पर भी उपलब्ध है ही। पर प्रसंगवश केवल ये बतलाते चलें, कि राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म होने के कारण वहाँ के प्रचलित "राग मांड" पर इस गीत का संगीत आधारित है और इसमें अन्य कई भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ-साथ वहाँ के मांगणियार समुदाय के लोगों द्वारा बजाए जाने वाले एक तार से सजे "कमायचा" नामक लोक वाद्ययंत्र का भी इस्तेमाल किया गया है ; ताकि इस गीत को जीने (केवल सुनने वाले को नहीं) वाले श्रोताओं को अपने आसपास रूमानी राजस्थानी परिदृश्य परिलक्षित हो पाए। 

अब .. प्रसंगवश यह भी चर्चा हम करते ही चलें, कि उपलब्ध इतिहास के अनुसार उस "नीमच" (NEEMUCH = NIMACH)) जिला के नाम की उत्पत्ति अंग्रेजों के शासनकाल में वहाँ स्थित तत्कालीन "उत्तर भारत घुड़सवार तोपखाना और घुड़सवार सेना मुख्यालय" (North India Mounted Artillery and Cavalry Headquarters - NIMACH) के संक्षेपण (Abbreviation) से हुई है। जहाँ आज स्वतन्त्र भारत में "केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल" (CRPF) के आठ रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्रों में से एक रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्र है। ये "रंगरूट" शब्द भी अंग्रेजी के रिक्रूट (Recruit) शब्द का ही अपभ्रंश है।

अब तो .. इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे। तब तक .. फ़िलहाल तो .. हम सभी मिलकर बाल कवि बैरागी जी के शब्दों और मधुर संगीत में पगे उस गीत के बोलों को और "कमायचा" की आवाज़ को सुनकर कुछ देर के लिए ही सही .. पर भाव- विभोर हो ही जाते हैं ... बस यूँ ही ...




Saturday, November 23, 2024

दो टके का दो टूक ... (३)


अब आज इस बतकही के आख़िरी और तीसरे भाग "दो टके का दो टूक ... (३)" में .. यहाँ .. जो कोई भी पधारे हैं, उनके धैर्य को मन से नमन .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है, कि "दुम दबाकर भागना" एक मुहावरा है, परन्तु गत वर्ष दिवाली के दिन सुबह- सुबह मुझे इसे अक्षरशः सत्य होते हुए भी देखने का अवसर मिला था ; जब हम उस दिन प्रतिदिन की तरह सुबह, बल्कि दिवाली (12 नवम्बर 2023, रविवार) सह रविवारीय अवकाश के साथ-साथ आसपास में फ़ैली तथाकथित त्योहार की उमंग की तरंग में डूबे .. विशेषतौर से उस अवकाश के दिन आदतन एक बड़े बर्त्तन में सुसुम और सामान्य दिनों से भी ज़्यादा दूध लेकर घर से निकल कर मुहल्ले के नुक्कड़ तक गए थे ; जहाँ ठंड के कारण सड़क के किनारे मुहल्ले भर की गली के कुत्तों का (Street Dogs) (और कुत्तियों का भी) जमावड़ा लगा रहता है और वे वहाँ नर्म- नर्म पहाड़ी धूप की गर्माहट का आनन्द लेते हुए , प्रायः वहीं सड़क पर पसरे मिलते हैं। 

हमारे वहाँ तक जाने के क्रम में अभी उनकी और हमारी दूरी लगभग बीस-पच्चीस मीटर ही शेष रही होगी, तभी आसपास किसी अदृश्य स्थल पर किसी अतितरंगित प्राणी ने दिन के उजास में ही दिवाली की तथाकथित परम्परा को निभाते हुए .. अतितीव्र ध्वनि वाले पटाख़े को आग दिखा दिया होगा, तो .. .. .. .. . ले लोट्टा !!! .. हम हक्का- बक्का देखते ही रह गए और .. श्वानों की टोली हमारे हाथ में दूध से भरे बर्त्तन को देखने के बाद भी वहाँ से अचानक पल भर में लुप्त हो गई और ... और तो और .. प्रायः भूख लगने पर सुबह- शाम हमारे घर के दरवाज़े पर आकर मुख्य द्वार के लोहे के फ़ाटक को अपने पँजों से ज़ोर-ज़ोर से हिला कर अपने आगमन का संकेत देने वाला "जैकी" और मुहल्ले के कुछेक परिवारों का चहेता "जैकी" .. अपने सभी प्रेमियों के समक्ष प्रेम- प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुम हिलाने वाला "जैकी" भी उन सभी के साथ ही अपनी दुम दबा कर बहुत ही तेज़ी से भाग रहा था। उसे बार-बार बुलाने पर भी वह हमारे पास नहीं आया और ना ही रुका। 

ख़ैर ! .. बाक़ियों का तो कोई अपना बसेरा- ठिकाना नहीं है, तो आसपास उचक-उचक कर तलाशने पर भी उन लोगों का तो कुछ भी पता नहीं चल पाया .. ना जाने सारे अपनी जान बचा (?) कर कहाँ छुप गए थे। पर बड़ी मुश्किल से कुछ ही दूरी पर उसी टोली का एक चितकबरा कुत्ता मिला, जो हिम्मत कर के कुछ ही दूरी पर जा कर दूध की उम्मीद में ठिठक गया था ; तो उसको दूध पिलाने के बाद "जैकी" के स्थायी ठिकाने की ओर जाना हमको उचित लगा , जहाँ वह एक निम्न मध्यम परिवार के घर में रहता है .. जो हमारे घर (किराए के मकान) से कुछ ही दूरी पर है। बाज़ाब्ता उसके लिए उन लोगों ने अपने घर के बरामदे में एक स्थायी खाट लगा रखी है। वहाँ पहुँच कर, बाहर से ही "जैकी~ जैकी~" की आवाज़ लगाते ही वह खाट से उतर कर हमारे सामने आ गया और सामने ही आदतन एक-दो बार साष्टांग दण्डवत् करने के बाद वह पेट भर दूध पी लिया। कुछ शेष छोड़ भी दिया।

हर बार इनमें एक ख़ास गुण दृष्टिगोचर होता है, कि ये लोग केवल अपना पेट भरने तक ही खाते- पीते हैं, पर हम इंसानों की तरह पेट की जगह अपना मन भरने तक अपने पेट में कोंचते नहीं हैं .. शायद ...

उस वक्त आदतन उसको सहलाते- थपथपाते समय हमको उसकी धुकधुकी काफ़ी तीव्र महसूस हो रही थी। इतने दहशत में उसे महसूस करके तत्काल हमारा मन द्रवित हो गया था। मन विचलित भी अवश्य हुआ था, कि अभी-अभी तो ये अपने स्थान से ही लुप्त हुए हैं, पर .. अगर .. आतिशबाज़ी की यूँ ही अति होती रही तो .. हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज- शहर भर से ये लुप्त और फिर .. विलुप्त भी तो हो सकते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में आज की बतकही के तथ्य को धैर्यपूर्वक समझना ही होगा .. शायद ... 

सर्वप्रथम तो आतिशबाज़ी कभी भी पर्यावरण के लिए न्यायसंगत रही ही नहीं है , क्योंकि सामान्यतः सामान्य पटाख़ों में बारूद और अन्य ज्वलनशील रसायन ही तो होते हैं, जो जलाए जाने पर फट कर शोर और रोशनी पैदा करते हैं। साथ ही भारी मात्रा में वायु और ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं। और पर्यावरण की सुरक्षा के बिना हम सुरक्षित रह भी नही सकते हैं .. शायद ... हालांकि तथाकथित "ग्रीन पटाख़ों" में हानिकारक रसायन ना के बराबर होते हैं, जिससे वायु प्रदूषण कम होता है।

अधिकांश लोगों का प्रायः मुद्दा होता है, कि अन्य त्योहारों के लिए आपत्ति नहीं जतायी जाती, फिर दिवाली के लिए ही दोहरी मानसिकता क्यों ? यूँ तो "दोहरी मानसिकता" कहीं भी गलत है .. घर- परिवार में, समाज में, देश में, हर जगह .. परन्तु मालूम नहीं हम दिवाली के अलावा अन्य वायु प्रदूषण फ़ैलाने वाले किस त्योहार की बातें करते हैं भला .. पर यूँ तो .. केवल त्योहार ही क्यों भला .. लोग तो शादी- विवाह के मौक़ों पर, अपने मनपसन्द क्रिकेट टीम के जीतने पर, किसी मनपसन्द राजनीतिक दल के जीतने पर, कोई बड़ा केस-मुक़दमा (उचित या अनुचित तरीके से भी) जीतने पर, तथाकथित नववर्ष के अवसर पर भी पर्यावरण के लिए सर्वदा हानिकारक पटाख़े यहाँ जलाए ही जाते हैं .. शायद ...

यूँ तो धूम्रपान से , मिलावट वाले पेट्रोल को प्रयोग करने वाले वाहनों से निकले धुएँ से भी वायु प्रदूषण होता ही रहता है। कुछ वर्षों से तो कुछ राज्यों में पराली (पुआल) जलाने से भी वायु प्रदूषण फ़ैलने की चर्चाएँ आम हैं .. शायद ...

दूसरी तरफ़ हमने ये भी ग़ौर किया है , कि दशहरे के दौरान तथाकथित रावण दहन के दरम्यान भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से आतिशबाज़ी की जाती है, पर उसका भी अमूमन विरोध नहीं होता .. कोई आपत्ति नहीं जतायी जाती क्योंकि .. दिवाली के मौके पर घर-घर में जलाए जाने वाले पटाख़ों की तरह उस तथाकथित रावण के पुतले घर-घर में नहीं जलाए जाते, बल्कि वह तो पूरे शहर भर में या फिर गाँव-मुहल्ले में केवल एक ही जलाया जाता है, पर .. यूँ तो एक नहीं .. तीन-तीन होते हैं पुतले- तथाकथित रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले भी .. प्रदूषण की सम्भावनाएँ तो तब भी बनती हैं, परन्तु तुलनात्मक रूप से कम ही बन पाती हैं, क्योंकि दिवाली के दौरान तो कुछेक पर्यावरण समर्थक जागरुक घर- परिवारों को छोड़ कर आतिशबाज़ी प्रायः धड़ल्ले से घर-घर में जलायी जाती है .. शायद ... 

आपको शायद ये कुतर्क लगे, पर .. अब तर्क हो या कुतर्क .. हमारी समझ में जो आ रहा है, वह साझा कर रहे हैं, कि इसके पीछे के इस गणित को समझना होगा , कि अगर एक मुहल्ले में किसी एक 'साउंड बॉक्स' पर भजन, ग़ज़ल या रूमानी गाना भी बज रहा हो तो .. कानों में मिठास घोलता महसूस होता है और 'साउंड बॉक्स' की जगह दस- बीस या पचास- सौ बड़े वाले 'डी जे बॉक्स' या 'लाउडस्पीकर' बजने लग जाएँ, तो वही भजन- ग़ज़ल कान को कर्कश लगने लगेगा, जिसे हम ध्वनि प्रदूषण की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं। आप मानते हैं इस बात को, तो हम अपनी बात आगे बढ़ाएँ .. बढ़ाएँ ना ?  ...

अब तनिक अपने देश भारत की जनसंख्या के गणित को समझ लेते हैं। उपलब्ध वर्तमान आँकड़ों के मुताबिक शायद भारत की जनसंख्या के लगभग 70-80% लोग हिन्दू धर्म, 16-20% इस्लाम, 2% ईसाई, 2% सिक्ख और 1% बौद्ध धर्म के अनुयायी बसते हैं। मतलब 70-80% हिन्दू जो दिवाली का त्योहार मनाते हैं और 20% अपने मनाने वाले अन्य त्योहार में पटाखे जलाते होंगे .. शायद ...

अब हम तनिक ग़ौर करें, कि 70-80% आबादी द्वारा की गयी आतिशबाज़ी से फैले प्रदूषण और 20% द्वारा फैलाए गए प्रदूषण समान होंगे क्या ? (आज के संदर्भ में उपरोक्त आँकड़े उन्नीस- बीस भी हो सकते हैं .. शायद ... 🙏)

हालांकि आतिशबाज़ी जिस किसी भी मौके पर होती हो, एक बुद्धिजीवी और जिम्मेवार नागरिक ना सही, एक अच्छे और नेक इंसान होने के नाते हम सभी को इसका विरोध करना ही चाहिए .. शायद ... वैसे हम तो किसी भी मौक़े पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली आतिशबाज़ी को उचित नहीं मानते हैं .. बस यूँ ही ...

वैसे भी बारूदों और आतिशबाज़ी का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है .. शायद ... तो .. धर्मानुसार भी इसका सम्बन्ध हमारे पुरखों की परम्पराओं से भी जोड़ना उचित नहीं है। साथ ही इनसे परेशान होने वाले गली के लावारिस कुत्तों, गायों, बन्दरों या अन्य चौपायों के साथ-साथ पेड़ों पर विश्राम कर रहे पक्षियों को ना जाने .. जाने-अंजाने कितनी ही नाना प्रकार की मानसिक और शारीरिक यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ... 

पर इन सबसे अन्तर किसको पड़ता है भला .. जिस सभ्य समाज में धर्म के नाम पर पशुओं की बलि-क़ुर्बानी जायज़ हो, जिस सभ्य मानव-समाज में स्वादिष्ट व्यंजन के लिए जीव-हत्या गर्वोक्ति होती हो .. तो ऐसे में .. ऐसे लोगों के लिए उपरोक्त हमारी दो टके का दो टूक वाली बतकही बेमानी है .. शायद ...

अगर इस बेकार की बतकही से आज के बाद आतिशबाज़ी ना जलाने के लिए कुछेक सम्वेदनशील मानव का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. एक नेक मन का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. तो .. दिवाली तो .. सदियों से हर वर्ष आने की तरह अगले साल भी आएगी .. हम रहें ना रहें .. आगे भी आती ही रहेगी तो .. इस वर्ष ना सही .. हम अपनी भावी पौध- पीढ़ी को कुछ इस तरह मानसिक- हार्दिक रूप से सींचे की भावी दिवाली सालों-दर-साल प्रकाशोत्सव ही बन कर रहे .. प्रदूषणोत्सव में तब्दील होने से बच जाए .. ताकि हम सहर्ष अपनों को प्रदूषणोत्सव के स्थान पर सदैव  प्रकाशोत्सव की शुभकामनाएँ प्रेषित कर सकें .. बस यूँ ही ...

नहीं तो .. ..  हम तो फ़िलहाल .. कबीर जी के निम्न दोहे को दोहरा कर ही अपने मन को कम-से-कम ढाढ़स दे देंगे, कि ...

" कबीरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास, 

  जैसी करनी-वैसी भरनी, तू क्यों भये उदास। "

अब आज इतना ही .. फिर मिलते हैं .. अपनी अगली बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के साथ .. बस यूँ ही ...

  

Thursday, November 21, 2024

दो टके का दो टूक ... (२)


अब आज इस बतकही के शेष-अवशेष को "दो टके का दो टूक ... (२)" में हम जानते-समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाला तथाकथित हिंदूओं का एक समुदाय दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाता है भला ! .. बस यूँ ही ...

दरअसल पूरे वर्ष भर किसी भी धर्म-सम्प्रदाय द्वारा अपनी-अपनी आस्था के अनुसार मनाया जाने वाला कोई भी त्योहार या धार्मिक अनुष्ठान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समस्त समष्टि को जोड़ने का ही कार्य करता है .. शायद ... 

अब यदि ऐसे अवसर पर समष्टि को तोड़ने का या फिर निज पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का कोई भी कृत्य होता हो, तो ऐसे कृत्य कम से कम हमारे पुरखों द्वारा तो हमें विरासत -स्वरूप कतई नहीं सौंपे गए होंगे। निश्चित रूप से पुरखों की थाती के अपभ्रंश रूप ही ये सारे के सारे नहीं भी, तो .. अधिकांश अपभ्रंश प्रचलन हमारे वर्तमान समाज में प्रचलित हैं .. शायद ...

ऐसे विषयों पर हमारे बुद्धिजीवी समाज के प्रबल प्रबुद्ध गण भी सकारात्मक विश्लेषण करने की जगह प्रायः अंधानुकरण करने में ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते देखे जाते हैं। नतीजतन हाल ही में बीती दिवाली के मौके पर इस वर्ष ही नहीं, वरन् हर वर्ष दो खेमों में बँटे लोग आतिशबाज़ी के पक्ष और विपक्ष में टीका-टिपण्णी करते हुए दिखते तो हैं, परन्तु हल के नाम पर .. वही ढाक के तीन पात .. शायद ...

जबकि हमारे पड़ोस के कट्टर हिंदूवादी देश - नेपाल में पूरी तरह से आतिशबाज़ी प्रतिबंधित है। इस से सम्बन्धित किसी भी सामग्री-उत्पाद के उत्पादन और विपणन पर भी रोक है। वैसे तो तस्करी या अन्य किसी जुगाड़ से चोरी-छिपे वहाँ पटाख़ों का उपलब्ध होना, बिकना और जलाना एक अलग ही बात है , जो है तो वहाँ के कानून के अनुसार एक दंडनीय अपराध ही।

ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता  .. हमारे देश-समाज में धर्म-परम्परा की आड़ में अगर कुछ विनाशकारी या हानिकारक परम्पराएँ हैं भी तो .. उन्हें प्रतिस्थापित करना भी हमारा ही धर्म है। इनमें बलि प्रथा , जल्लीकट्टू , दिवाली के दिन पिंजड़े में बंद उल्लू का दर्शन , दशहरे में पिंजड़े में बंद नीलकंठ पक्षी का दर्शन , मृत्युभोज , बकरीद के दिन तथाकथित क़ुर्बानी जैसी अंधपरम्पराएँ भी शामिल हैं। वैसे भी कोई भी धर्म व्यष्टि संगत के साथ-साथ समष्टि संगत भी होनी ही चाहिए .. शायद ... 

यूँ तो हम लोगों ने अपनी दिनचर्या में जाने-अंजाने नाना प्रकार के अनगिनत प्रतिस्थापन कर रखे हैं .. न जाने हमने कब पजामे से धोती को और पतलून से पजामे को प्रतिस्थापित किया है। भाषा-बोली के मामले में भी संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत, अवहट्ट, पुरानी हिन्दी, अपभ्रंश हिन्दी तक में कई प्रतिस्थापन किए हैं। अब हम भाषा- बोलियों में, परिधानों में, खान-पानों में, पकवानों में निरन्तर अनेकों प्रतिस्थापन किए हैं , तो धार्मिक परम्पराओं में भी एक- दो सकारात्मक परिवर्तन- प्रतिस्थापन करके कोई गुनाह तो नहीं ही करेंगे ना हम ? .. शायद ...

हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी दिवाली मनाई तो जाती है, पर भिन्न तरीके से और भिन्न मान्यताओं के साथ। वहाँ तथाकथित राम आगमन वाली कोई मान्यता है ही नहीं , बल्कि वहाँ तथाकथित लक्ष्मी व विष्णु के पूजन वाली मान्यता है और .. सबसे विशेष बात तो ये है, कि दीपावली के दिन पालतू ही नहीं, बल्कि गली के सभी कुत्तों की भी पूजा की जाती है। बाज़ाब्ता उन्हें साफ़-सुथरा कर के गुलाल, दही व अक्षत् के मिश्रण का टीका उनके माथे पर लगा कर और फूलों की माला पहना कर लोग उनकी आरती उतारते हैं। फिर उन्हें उनके मनपसन्द व्यंजनों को भरपेट खिलाया जाता है। 

जबकि हमारे यहाँ तो कुत्तों के दसियों मुहावरे दोहरा- दोहरा कर उन्हें ताउम्र हेय दृष्टि से देखकर हम कोसते रहते हैं। मसलन - धोबी का कुत्ता, ना घर का, ना घाट का / सराय का कुत्ता / दहलीज़ का कुत्ता / अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है / कुत्तों को घी हज़म नहीं होता / अँधी पीसे, कुत्ता खाए / कुत्ते की दुम, टेढ़ी की टेढ़ी / कुत्ते की तरह पेट पालना / कुत्ते की ज़िंदगी जीना / कुत्ते की मौत मरना / कुत्ते की तरह दुम दबा कर भागना / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / ऊँट चढ़े पर कुत्ता काटे / पुचकारा कुत्ता सिर चढ़े / सीधे का मुँह कुत्ता चाटे / कुत्ते डोलना / हाथी चले बाज़ार, कुत्ता भौंके हजार / बासी बचे न कुत्ता खाय / घर जवांई कुत्ते बराबर / भौंकने वाले कुत्ते कभी काटते नहीं / कुत्ते को हड्डी प्यारी / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / खौरही कुतिया, मखमली झूल / अपने कुत्तों को बुलाओ इत्यादि -इत्यादि।

उपरोक्त सारे मुहावरे तो सर्वविदित हैं, पर प्रसंगवश दोहरा कर हम में से ज़्यादातर लोगों की अपनी दोहरी मानसिकता को दोहराने की कोशिश भर कर रहे हैं, कि एक तरफ़ तो हमारे यहाँ क्रमशः कुत्ते और चूहों को तथाकथित भैरव एवं गणेश की सवारी मानने की मान्यताएँ हैं ; तो दूसरी तरफ़ हम चूहों को जान से मारने व अपने-अपने घरों से भगाने के विभिन्न तरीके अपनाते हैं तथा कुत्तों के लिए हमारी मानसिक कलुषिता को दर्शाने के लिए हमारे व्याकरण में उपलब्ध उपरोक्त कहावतें ही पर्याप्त हैं .. शायद ...

ख़ैर ! .. बतकही हो रही है नेपाल की दिवाली की, जिसे वहाँ "तिहार" कहा जाता है , जो पाँच दिनों तक मनाई जाती है। हमारे देश में जिस दिन छोटी दीपावली मनाते हैं, वहाँ कौओं की पूजा की जाती है, जिसे "काग तिहार" कहते हैं तथा हमारे यहाँ जिस दिन दिवाली मनाते हैं, वहाँ "कुकुर तिहार" मनाते हुए कुत्तों की पूजा की जाती है। जिसके पीछे हमारी तरह उनकी भी कई तथाकथित धार्मिक लोक मान्यताएँ हैं। इसी दिन "नरक चतुर्दशी" नामक त्योहार भी मनाया जाता है।

फिर तीसरे दिन "गाय तिहार" व लक्ष्मी पूजा की जाती है , जो हमारे देश के गोवर्धन पूजा व लक्ष्मी पूजा से मेल खाती है। इसी क्रम में चौथे दिन "गोरू तिहार" व "महा पूजा" होता है, जिसके तहत बैलों और परिवार के वृद्धों की पूजा की जाती है तथा अगले दिन यानि पाँचवे दिन "भाई टीका" नामक त्योहार मनाते हैं , जो हमारे देश में मनाए जाने वाले भैया दूज ता भाई पोटा की तरह ही है।

इस प्रकार "तिहार" केवल रोशनी का ही त्योहार नहीं है, बल्कि यह जीवन, प्रकृति, जानवरों और पारिवारिक बंधनों का उत्सव है। यह कौवे, कुत्ते, गाय और बैलों की पूजा द्वारा मनुष्यों और जानवरों के बीच के रिश्ते के मजबूत बंधन को दर्शा कर उनका सम्मान करता है। यह प्रकृति और आध्यात्मिकता के बीच एक गहरा संबंध विकसित करता है और लोगों को अपने पर्यावरण के साथ भी सद्भाव की महत्ता की याद दिलाता है।

'सोशल मीडिया' से पता चला है, कि इस वर्ष हमारे देश में भी छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में पुराने बस स्टैंड स्थित एक कुत्ता केंद्र में बड़ी संख्या में कुत्तों की पूजा करके "कुकुर तिहार" मनाया गया है। यह छोटा ही सही, पर यह सकारात्मक प्रयास हमारे मानव समाज के लिए अनुकरणीय है .. शायद ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (३)" में साझा करते हैं और अगर .. आप हमारी तरह बेवकूफ़ हैं व हमारी बतकही को झेलने का धैर्य रखते हैं, तो .. गत वर्ष की दीपावली की एक संवेदनशील घटना- दुर्घटना की अनुभूति पढ़ने आ सकते हैं या फिर ... 🙏


Thursday, November 14, 2024

दो टके का दो टूक ... (१)

 


आज हम उपलब्ध इतिहास की मानें, तो कभी कंदराओं में रहने वाले नग्न आदिमानव भले ही क़बीलों में बँटे हुए, तब अपनी उत्तरजीविता के लिए आपस में युद्धरत रहा करते थे। परन्तु उन क़बीलों से वर्तमान क़ाबिल हो जाने तक का एक लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी आज तो और भी ज़्यादा ही अन्य कई सारे आपसी दृष्टिकोणों वाले मतभेद जनित वर्चस्व की प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आपसी लड़ाई में वो निरन्तर तल्लीन दिखाई देते हैं .. शायद ...

चाहे वो मामलात धर्म-सम्प्रदाय के हों, पर्व-त्योहार के हों, जाति-क्षेत्र के हों, जीवनशैली के हों .. हर क्षेत्र में, हर पल .. जनसमुदाय खेमों में बँटा हुआ दिखता है। इस वर्ष दीपावली जैसे त्योहार में भी हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी एवं तथाकथित सनातनी समाज दो-तीन अलग-अलग हास्यास्पद मामलों में .. विवादास्पद रूप से दो गुटों में बँटा हुआ दिखा है .. शायद ...
पहले मामले में .. एक गुट, जो अपने तर्क की बुनियाद पर 31 अक्टूबर को दीपावली मनाने की बातें कह रहा था, तो दूसरा गुट 1 नवम्बर को मनाने की पैरवी कर रहा था। दूसरे मामले में एक तरफ़ आज भी तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह मानता है, कि धनतेरस-दीपावली के दौरान उल्लू दिख जाने से सालों भर घर में लक्ष्मी आतीं हैं और दूसरा वर्ग वह .. जो तथाकथित रूप से नास्तिक या फिर अल्पज्ञानी कहलाता है, वह इस मान्यता को एक सिरे से नकार देता है। उसी प्रकार तथाकथित धनतेरस के दिन अपनी हैसियत के अनुसार एक वर्ग कुछ धातु , सोना-चाँदी व उससे बने गहनों से लेकर एल्युमीनियम-स्टील तक के बर्त्तन या साईकिल से लेकर कार तक , की खरीदारी करने से अपने-अपने घर में सालों भर तथाकथित लक्ष्मी आगमन की बात मानता है ; तो वहीं दूसरा वर्ग धनतेरस के अवसर पर तथाकथित भगवान धन्वंतरि को स्वास्थ्य व औषधि- अमृत का देवता मान कर उनकी पूजा करता है।

फिर .. तीसरे मामले में .. एक गुट धर्म-त्योहार एवं सभ्यता- संस्कृति की आड़ में आतिशबाज़ी के प्रयोग का पक्षधर बना हुआ था, तो दूसरा गुट आतिशबाज़ी से फ़ैलने वाले वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण के परिणामस्वरूप पर्यावरण की क्षति की बात करते हुए इसके विरोध में कई तरह के तर्क दे रहा था। अमूमन ऐसा हर वर्ष ही होता है। एक तरफ़ कई राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल वाले अपनी तथाकथित टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के लालच में बहुसंख्यक जनसैलाब की अपभ्रंश व रूढ़िवादी सोचों वाली मान्यताओं की हाँ में हाँ मिलाते हुए, आतिशबाज़ी से पर्यावरण को कम हानि होंने की बात बतला कर आतिशबाज़ी को सही ठहरा रहे थे।
ये वही संचार के साधन हैं, जो अपने माध्यम से हमारे घरों में, हमारी हैसियत के मुताबिक उपलब्ध सस्ते से सस्ते और महँगे से महँगे टी वी पर .. नर-नारी को पहनने के लिए हमारे बाज़ारों में  उपलब्ध एक 'ब्रांडेड' चड्ढी-बनियान की बिकवाली वाले विज्ञापन में एक युवा द्वारा एक पिता से उसकी बेटी को भगा कर ले जाने की बात मोबाइल फ़ोन पर .. बड़े ही आराम से .. करते हुए दिखलाते हैं .. वो भी हमारी युवा संतानों के मस्तिष्क में .. बड़े ही आराम से .. भागने-भगाने जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दिखलाते हुए .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. बिना किसी लाग-लपेट के .. इसी चार नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका ने प्रतिबंध आदेशों के बावजूद दिल्ली में दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोगों द्वारा आतिशबाज़ी किए जाने पर दिल्ली सरकार और पुलिस आयुक्त को भी जवाब तलब किया है। साथ ही उन्हें 2025 में पटाख़ों की बिक्री और उपयोग को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए उनकी अपनी योजनाओं के साथ एक सप्ताह में हलफ़नामा दायर करने का भी आदेश दिया है।
इस मामले की गंभीरता न्यायमूर्ति के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो रही है, कि "अगर उन प्रतिबंध आदेशों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्थिति अराजक हो सकती है।" उनका ये भी कहना था, कि "भारत सरकार द्वारा "वायु प्रदूषण अधिनियम" में 1 अप्रैल, 2024 से संशोधन करते हुए, इसके दंडात्मक प्रावधान को हटा कर, केवल जुर्माना भरने तक का ही प्रावधान कर देने से उल्लंघनकर्ताओं का भय और भी ज़्यादा कम हो गया है।

सर्वोच्च न्यायालय का मानना ​​है, कि कोई भी धर्म ऐसी किसी भी गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं करता है, जिससे प्रदूषण पैदा होता है। अगर इस तरह से पटाख़े जलाए जाते हैं, तो इससे नागरिकों के स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार पर भी असर पड़ेगा।"

कई समाचार पत्रों में तो ये भी टिप्पणी आयी, कि "दिल्ली में पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाने वाले कई आदेश दीपावली के दौरान धुएँ में समा गए हैं।" दिवाली से पहले भी दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए एक हलफ़नामे के अनुसार केवल दिवाली के दौरान पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाए जाने और शादी व चुनाव समारोहों के दौरान प्रतिबंध नहीं लगाए जाने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। स्वाभाविक है, कि दिवाली के साथ-साथ बारातों, जन्मदिन समारोहों, चुनाव या क्रिकेट मैच की जीत वाले समारोहों में भी आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करनी चाहिए और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है, कि सरकार जो भी प्रतिबंध आदेश लगाती है, उसे कड़ाई से लागू भी होनी चाहिए।

अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका देश की राजधानी - दिल्ली के लिए आतिशबाज़ी के कारण भावी अराजक स्थिति की बात कर रहे हैं ; तो ये बात कमोबेश समस्त देश ही नहीं , वरन् .. समस्त विश्व या .. यूँ कहें , कि .. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भी उतनी ही घातक होने वाली कड़वी सच्चाई है .. शायद ...

आज (12.11.2024) .. अभी (रात के 9.12 बजे) .. इस बतकही के कुछ अंश को लिखते वक्त भी उत्तराखंड का एक विशेष त्योहार - इगास बग्वाल के अपभ्रंश स्वरुप के तहत आस-पड़ोस से जलते हुए तेज़ पटाख़ों की आवाज़ें आ रहीं हैं। इस त्योहार के बारे में हमने गत वर्ष "उज्यालू आलो, अँधेरो भगलू" ... के अन्तर्गत आदतन विस्तारपूर्वक बतकही की थी .. बस यूँ ही ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (२)" में साझा करते हैं और समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाले एक तथाकथित हिंदू समुदाय ही दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाते हैं भला ! ..



Saturday, November 2, 2024

कुछ सौग़ात अख़बार में ...


यूँ बुलाया तो था उसने .. फोन कर, बड़े ही प्यार से,

व्यंजन भी तो फिर .. परोसे उसने अनेक प्रकार के। 

पर पास बैठे, करे बातें कुछ देर, हम रहे इंतज़ार में,

चलते वक्त मिले खाने के सौग़ात भी तो अख़बार में।

आज की उपरोक्त चार पंक्तियों वाली बतकही .. मन के पन्ने पर क्यों पनपी, कब पनपी, कहाँ पनपी, कैसे पनपी .. इन सब से परे .. हम अभी तो .. हमारी मूल बतकही की ओर अग्रसर होते हैं .. बस यूँ ही ...

एक उपलब्ध अनुमानित आँकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन अख़बारों की लगभग करोड़ों प्रतियाँ मुद्रित होती हैं और इनमें से लाखों प्रतियाँ आज भी प्रायः समोसे, जलेबियों, कचौड़ियों, कचड़ी-पकौड़े, रोटी, पराठे, नान, कुलचे, भटूरे, कतलम्बे, बन टिक्की, झालमुड़ी, घुघनी, वड़ा पाव, 'टोस्ट-आमलेट' जैसे व्यंजनों को 'पैक' करने में या परोसने में, ख़ास कर सड़क के किनारे ठेले पर बिकने वाले भोजन के लिए, 'स्ट्रीट फूड वेंडर्स' (Street Food Vendors) द्वारा धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं। 

जबकि "भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India = FSSAI)" तो "खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम, 2018" के तहत समस्त देश के हम उपभोक्ताओं और खाद्य विक्रेताओं को आगाह करते हुए आग्रह कर चुका है, कि पके खाद्य पदार्थों की 'पैकिंग', भंडारण या परोसने के लिए या फिर उपरोक्त तले हुए खाद्य पदार्थों से अतिरिक्त तेल को सोखने के लिए भी अख़बारों यानि समाचार- पत्रों के पन्नों का उपयोग हमें नहीं करनी चाहिए। 

क्योंकि .. इस संस्थान के अनुसार समाचार-पत्रों में व्यवहार की जाने वाली स्याही में सीसा और भारी धातुओं जैसे कुछ ऐसे विषैले रसायन होते हैं ; जो समाचार-पत्रों में परोसे गए या लपेटे गए खाद्य पदार्थों के जरिए मानव शरीर में प्रवेश कर के विभिन्न प्रकार की घातक बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।

साथ ही .. समाचार-पत्रों के वितरण के दौरान उसको प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनके कारण वे बैक्टीरिया, वायरस या अन्य रोगजनकों द्वारा संदूषित हो सकते हैं। जिनमें परोसा या लपेटा गया भोजन संभवतः खाद्य जनित गंभीर बीमारियों का वाहक बन सकता है।

वैसे भी हमारे जैसे आम लोग तो आम दिनों में या त्योहार विशेष के मौकों पर भी .. अपने मुहल्ले में नित्य आने वाले नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों तक को भी .. कुछ भी खाने के सौग़ात समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर नहीं देते ; पर आज भी कई घरों के लोग या तो अपनी नासमझी के कारण या त्योहारों के दिन दिनभर उनके घर आए मेहमानों के जूठन को निपटाने के ख़्याल से भी या फिर सामने वाले को कमतर आँकते हुए भी .. खाने के सामान को जैसे-तैसे समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर दे देते हैं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है, कि हमें इस प्रकार से किसी को भी कमतर नहीं आँकना चाहिए और भूले से भी .. किसी को भी अख़बार के पन्नों में खाने के सामान नहीं देने चाहिए और किसी का जूठन तो कतई नहीं .. बस यूँ ही ...

क्योंकि अगर .. सामने वाला कोई भी आपको स्नेह, प्रेम या श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता है, तो फिर .. आप से एक करबद्ध निवेदन है, कि आप उसके विश्वास को मत तोड़िए, ताकि उसे ये महसूस ना हो कि वह आपके घर गलत समय पर आकर उसने कोई गलती कर दी है .. शायद ...

क्योंकि .. अगर सामने वाला आपसे .. आपका विषैला सौग़ात (?) बिना कुछ बोले .. हँस कर स्वीकार कर लेता है, तो .. वो कोई बुड़बक, बकलोल, बकचोंधर या बकलण्ड यानि मूर्ख इंसान थोड़े ही ना है !!! .. शायद ...