Wednesday, February 17, 2021

तसलवा तोर कि मोर - (भाग-१) ... {दो भागों में}.

वैसे तो सर्वविदित है कि बीसवीं सदी की शुरुआती दौर में ही आमजन के लिए रेडियो-प्रसारण की शुरुआत न्यूयार्क के बाद हमारे परतंत्र भारत में भी हो गई थी। हालांकि विश्व स्तर पर इसके आविष्कार का श्रेय वैसे तो अपने नाम से पेटेंट करवा लेने के कारण इटली के वैज्ञानिक मार्कोनी को दिया जाता है , पर तत्कालीन समय गवाह रहा है कि उस रेडियो का विकास हमारे देश के वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के आविष्कार किए गए बेतार रेडियो के आधार पर ही हुआ था।

रेडियो के आने के कई दशकों के बीत जाने के बाद 2011 के 3 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र  ( UN - United Nations ) की एक विशेष एजेंसी - "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" ( UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization ) , जिस का मुख्यालय पेरिस में अवस्थित है, ने 13 फ़रवरी के दिन को " विश्व रेडियो दिवस " के रूप में मनाने की घोषणा की थी। तब से हम सभी इसको बख़ूबी कम-से-कम सोशल मिडिया पर तो मनाते ही आ रहे हैं। पर .. डर लगता है , उन लोगों से जो इसे कोई विदेशी चलन मानते हुए इसका अपने यहाँ अतिक्रमण या घुसपैठ समझ कर इसको मनाना या मानना छोड़ ना दें कहीं .. शायद ...

इस के उपलक्ष्य में चार दिन पहले लोगबाग द्वारा अपनी-अपनी तरह से सोशल मिडिया पर इस से सम्बंधित प्रकाशित उपलब्ध कुछ पोस्टों पर नज़र पड़ी तो जरूर , पर लगा कि कहीं कुछ छूट रहा है या रेडियो से संबंधित ऐसे एक-दो कोई प्रसिद्ध व्यक्तिविशेष हैं , जिनकी चर्चा नहीं होने के कारण वे सामने से मायूस हो कर मानो अपनी चर्चा के लिए हम सभी से गुहार लगा रहे हैं। वैसे तो "सुनीता नारायणन" को कम या नहीं जानने वाली और "सपना चौधरी" को बख़ूबी जानने और पहचानने वाली हमारी मौजूदा आबादी तो मानो उन तत्कालीन ख़ास नामों को या तो पूरी तरह बिसरा चुकी है या फिर तनिक भी जानती ही नहीं। तभी तो ऐसे लोगों के बारे में वेबसाइटों पर नगण्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं। हो सकता है .. ऐसे मौकों पर उन की कमोबेश चर्चा करनी भी उनके प्रति एक श्रद्धांजलि का ही रूप हो जाए .. शायद ...
जब कभी भी हम रेडियो या उसके विभिन्न कार्यक्रमों की बातें कर रहे हों , तो फ़िल्मी गीतों पर आधारित अपने समय के मशहूर कार्यक्रम - बिनाका गीतमाला, जो बाद में इस कार्यक्रम की प्रायोजक कम्पनी के उत्पाद का नाम बिनाका टूथपेस्ट से बदल कर सिबाका हो जाने पर सिबाका गीतमाला के नाम से प्रसारित होने लगा था, के उद्घोषक अमीन सयानी जी के ज़िक्र के बिना ये बातें शायद अधूरी ही रह जाए। जिनकी भौंरे की गुनगुनाहट-सी लयात्मक आवाज़ युक्त सम्बोधन - " बहनों और भाईयों " मानो हर तबक़े के जनसमुदाय के कानों में सरगम की फ़ुहार से भींजा जाता था। उन्हें उद्घोषकों का भीष्म पितामह भी अगर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ..शायद ...
पचास से अस्सी तक के दशक में बिनाका गीतमाला कार्यक्रम सुनने के लिए मानो प्रत्येक बुधवार के रात आठ बजे से नौ बजे तक लोगों की दिनचर्या थम-सी जाती थी। तब लोगों के पास मनोरंजन के साधन भी तो सीमित ही हुआ करते थे। ना तो आज की तरह टेलीविज़न था, ना ही मोबाइल और सोशल मिडिया जैसे मंच की कल्पना भर भी। मनोरंजन के नाम पर ले-दे कर सिनेमा हॉल था , मुद्रित साहित्यिक सामग्रियाँ थीं और रेडियो व ट्रांजिस्टर थे।
तब घर या दुकान में रेडियो रखने वालों को उसका लाइसेंस लेना पड़ता था और हर साल यथोचित देय शुल्क देकर उसका नवीकरण भी कराना पड़ता था ; क्योंकि पहले रेडियो सुनने के लिए "डाक विभाग- भारतीय तार अधिनियम-1885" के अंतर्गत लाइसेन्स उसी तरह का बनवाना पड़ता था , जिस प्रकार से आज वाहन या हथियार रखने या अन्य किसी काम के लिए लाइसेंस बनवाना पड़ता है। उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो सुनना अपराध माना जाता था। वैसे 1987 में इसको बंद कर दिया गया।
तब तो सब के पास रेडियो होता भी नहीं था। नतीज़न - लोगबाग अपने मुहल्ले के किसी के भी घर जहाँ रेडियो उपलब्ध हुआ करता था , वहाँ अपने-अपने सम्बन्ध की प्रगाढ़ता के अनुसार घर के भीतर जाकर या बाहर से ही, या फिर किसी पान ( तब गुटखा नहीं हुआ करता था ) की गुमटी के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो कर सम्पूर्ण कार्यक्रम सुना करते थे। उन में से कई गुमटी वाले तो रेडियो को लाउडस्पीकर से जोड़ देते थे , तो उसके आसपास का पूरा मुहल्ला ही अपने-अपने घरों में बैठे ही सुन लिया करता था। साल के अंत में बिनाका गीतमाला के अंतर्गत उस साल के पहले पायदान पर आने वाले उस एक नायाब फ़िल्मी गीत को लेकर लोग किसी चुनाव के परिणाम आने के पहले लगायी जाने वाली अटकलों की तरह आपस में अपनी-अपनी अटकलें साझा करते थे। इस के लिए लोगों द्वारा आपस में कई तरह की बाजियाँ तक भी लगायी जाती थीं।
उस समय ग़ैरकानूनी सट्टेबाजी जैसे किसी चलन का प्रचलन नहीं हुआ करता था , वैसे अगर होगी भी तो भी इसका अंदाज़ा तो नहीं है हमें।  ख़ैर ! ... अगर होगी भी तो हमें क्या करना भला ? आज भी तो कई विसंगतियाँ हैं अपने समाज में तो .. हम कर ही क्या लेते हैं भला उसे दूर करने के लिए .. है ना ? अगर टपोरी भाषा का प्रयोग करने के लिए दो पल की छूट मिले तो कह सकते हैं कि ऐसे में हम क्या ही उखाड़ लेते हैं भला , सिवाय तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के लिए पंडित जी के आदेशानुसार पास के किसी मैदान से दूब उखाड़ने के ? .. शायद ...
वैसे तो अमीन सयानी जी की आवाज़ आज भी सुनने के लिए या यूँ कहें कि कानों में रस घोलने की ख़ातिर कई वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। इसीलिए आज अमीन सयानी जी की चर्चा करने जा भी नहीं रहे हैं  हम ; बल्कि एक ऐसे व्यक्तिविशेष की बात आज करते हैं जो कई दशकों तक भारतीय रेडियो-कार्यक्रम पर ही नहीं , बल्कि भारत के बाहर भी अपना सिक्का जमाए रखे। हमारे समाज के लोगों को प्रायः बहुराष्ट्रीय शब्द से जुड़ा किसी भी तरह का जुड़ाव शान महसूस करवाता है। खासकर विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ या उसके उत्पाद। पर अब कई भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और उनके उत्पाद भी हैं हमारे बाज़ार में जो हमें गर्व महसूस करवाते हैं। तो .. अपनी कला की पहचान विदेशों में भी बनाने वाले ये शख़्स एक भारतीय बहुराष्ट्रीय उत्पाद की तरह हम देशवासियों को गर्व महसूस करवाने वाले बहु-प्रतिभाशाली कलाकार थे।
दुर्भाग्यवश वह आज हमारे बीच नहीं हैं , पर उनके लिखे गए और स्वयं के गढ़े गए पात्र के अभिनय में बोले गए संवाद आज भी कई कानों में घर बनाए हुए हैं। समसामयिक विषयों पर उस अपने गढ़े हुए पात्रों के मुँह से गलत-सलत अँग्रेजी, हिन्दी और भोजपुरी की मिलीजुली नयी भाषा में समसामयिक विषयों पर चुटीला प्रहार भी कर जाते थे , तो लगता था कि किसी ने ठिठोली करते हुए बस .. चिकोटियाँ भर काटी हैं। तब लोग टाँग-खिंचाई करते हुए उनके व्याकरण या वर्तनी को सुधारने में अपना वक्त बर्बाद कर अपनी गर्दन नहीं अकड़ाते थे , बल्कि उनकी कही गई बातों के भावों को समझने की कोशिश करते थे। उनकी बातों में आज के विरोधीजीवियों की मानिंद घायल करती मदान्ध कड़वी चोट करती-सी बातें नहीं हुआ करती थी .. शायद ...
दरअसल आजकल की इन व्यस्तता भरी ज़िन्दगानी के लिए तो यह रचना लम्बी होती जा रही है ; तो .. आज यहीं पर अर्द्धविराम लेते हैं और अगले "तसलवा तोर कि मोर - (भाग-२) ..." में उन व्यक्तिविशेष के बारे में यथासंभव विस्तार से बातें करते हैं। साथ ही उस में यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि इस बतकही { आलेख/संस्मरण (?) } का शीर्षक किसी कहावत से क्यों चुराया गया है  .. बस यूँ ही ...



Saturday, February 13, 2021

वो बचकानी बातें ...

दस पैसे का 

एक सिक्का

जेबख़र्च में 

मिलने वाला

रोजाना कभी,

किसी रोज

रोप आते थे

बचपन में

चुपके से 

आँगन के

तुलसी चौरे में 

सिक्कों के 

पेड़ उग 

आने की

अपनी 

बचकानी-सी

एक आस लिए .. बस यूँ ही ...


धरते थे 

मोरपंख भी 

कभी-कभी

अपनी कॉपी

या किताबों में 

चूर्ण के साथ

खल्ली के ,

एक और 

नए मोरपंख 

पैदा होने के 

कौतूहल भरे

एक विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...


हैं आज भी कहीं

मन के कोने में

दुबकी-सी यादें ,

बचपन की सारी

वो बचकानी बातें ,

किसी संदूक में

एक सुहागन के

सहेजे किसी 

सिंधोरे की तरह।

पर .. लगता है मानो ..

गई नहीं है आज भी

बचपना हमारी , 

जब कभी भी

खड़ा होता हूँ

किसी मन्दिर के 

आगे लगी लम्बी 

क़तार में

तथाकथित आस्था भरी

आस और विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...




{ चित्र साभार = छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र में प्रदर्शित भित्ति शिल्प वाली कोलाज़ ( Kolaj as Wall Crafts ) से। }.

 

Wednesday, February 10, 2021

रिश्ते यहाँ अक़्सर ...

वैसे तो हमारे जीवन में पढ़ाई के समय तो Course ( अध्ययन/ पाठ्यक्रम ) शब्द हुआ ही करता है और अब तो .. खाने में भी Course शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है .. प्रायः शहरी या नगरीय भोजों या होटलों व रेस्टुरेन्टों में .. शायद ...

मसलन - खाने से पहले परोसे जाने वाले हल्के  भोजन को स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ) कहते हैं। कहीं-कहीं इसे First Course भी कहते हैं। फिर आता है मुख्य भोजन यानि मेन कोर्स (Main Course ) और अंत में आती है बारी .. मिठाईयों या कुछ भी मीठे की , जिसे रेगिस्तान (Desert) में एक और एस (S) जोड़ कर हम सभी डेज़र्ट (Dessert) बोलते हैं। कभी न कभी आप भी बावस्ता हुए ही होंगे जरूर इन सब से .. शायद ...

पर .. गाँव या घर में भी तो ये सब होता ही है न ? नहीं क्या ? न, न, होता है .. हमारे घर का स्टार्टर होता है - गर्मागर्म दाल की कटोरी में ऊपर-ऊपर तैरता घी या सलाद और गाँव के पंगत वाले भोज के अंत में परोसी जाने वाली बुँदिया और दही होते हैं - डेज़र्ट .. शायद ...

अब आप भी सोच रहे होंगे कि आज हमने अपनी बतकही की नकारात्मक सारी हदें पार कर के ये क्या बुँदिया , दही की फ़ालतू बकवास किये जा रहा हूँ। तो ख़ैर !... चलिए .. सीधे अब आज की अपनी दो रचनाओं (?) में से पहली "स्टार्टर" के तौर पर पेश करते हैं .. और फिर दूसरी "मेन कोर्स" .. और फिर "डेज़र्ट" .. न, न, "डेज़र्ट" आज नहीं ..  वो फिर कभी .. बस यूँ ही ... :)

(१) तुलसीदल-सा

प्रातः 

किसी

कथा-पूजन*

हेतु

कटे 

फलों-सा

था जीवन

मेरा ,


जानाँ जब से 

हुई तुम

शामिल 

तुलसीदल-सा

तो ये ...

पावन

प्रसाद**

बन गया।

【 * -   तथाकथित 】

【 ** - तथाकथित 】.


(२) रिश्ते यहाँ अक़्सर ...

लड़कियों की 

नुमाईश

और

लड़कों* की 

फ़रमाईश के

प्रतिच्छेदन बिन्दु** पर

ही तो होती हैं 

तय यहाँ

शादियाँ तयशुदा अक़्सर ...


फिर धर्म , 

जाति, उपजाति का

होना समान और

गोत्र का असमान तो

हैं ही शर्तें भी कई ,

होता है 

जिन सब की

छानबीन पर ही

निर्वाह इनका अक़्सर ...


बनते हैं रिश्ते

ऐसे में या ..

होता है फिर

कुलीन-शालीन

व्यापार कोई ?

है ये उधेड़बुन ही ..

ताउम्र ढूँढ़ते हैं 

फिर इनमें ही 

हम रिश्ते यहाँ अक़्सर .. शायद ...

【 *   - लड़के वालों. 】

【 ** - गणितीय ग्राफ में दो रेखाएँ या तलें जहाँ एक दूसरे से मिलती हैं या एक दूसरे को काटते हुए गुजरती हैं उसे प्रतिच्छेदन बिन्दु कहते हैं। मसलन - अर्थशास्त्र में माँग और आपूर्ति की प्रतिनिधित्व करती दो रेखाएँ गणितीय ग्राफ में जहाँ एक दूसरे से मिलती हैं या एक दूसरे को काटते हुए गुजरती हैं ; उस बिन्दु की सहायता से बाज़ार में किसी वस्तु की कीमत प्रायः तय होती है। 】



{ चित्र साभार = छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र में प्रदर्शित सार-चित्रकारी (Abstract Drawing) से। }.




Saturday, February 6, 2021

बासंती हलचल में ...

 यूँ तो किसी 

चुनावी मौसम के 

रंगबिरंगे पोस्टरों की 

मानिंद मुझे 

अपनी उम्र की

बासंती हलचल में

अपने दिल की

दीवार पर 

है सजाया 

बहुत ख़ूब 

तुमने जानाँ ...


पर .. कहीं 

कर ना देना

मौसम के 

बीतते ही ,

बीतते ही 

किसी चुनाव के

लावारिस-से 

पोस्टरों के 

पीले पड़े

क्षत-विक्षत 

हो जाने जैसा ...




Saturday, January 30, 2021

रामः रामौ रामा: ...

आजकल मुहल्ले या शहर-गाँव में कई-कई लाउडस्पीकरों की श्रृंखला में बजने (?) वाले कानफोड़ू तथाकथित जगराता, जागरण या सत्यनारायण स्वामी की कथा या फिर किसी भी धर्म के किसी भी धार्मिक जलसा में या शादी-विवाह और जन्मदिन के अवसर के अलावा कई दफ़ा तो शवयात्रा में भी बजने वाले निर्गुण के सन्दर्भ में .. बस यूँ ही ...

(१) कबीरा बेचारा ...

दिखा आज सुबह मुहल्ले में 

कबीरा बेचारा बहुत ही हैरान -

कल तक तो बहरे थे यहाँ ख़ुदा, 

हो गया है अब शायद भगवान ...

अब दूसरी रचना ( ? ) बिना बतकही या भूमिका के ही .. बस यूँ ही ...

(२) रामः रामौ रामा: ...

यूँ तो खींच ही लाते हैं एक दिन बाहर

रावण को हर साल पन्नों से रामायण के

और .. मिलकर मौजूदगी में हुजूम की 

जलाते हैं आपादमस्तक पुतले उसके ।


पर अपने शहर का राम तो है खो गया

युगों से किसी मंदिर की किसी मूर्त्ति में 

या शायद मोटे-मोटे रामायण के पन्नों में

या फिर "रामः रामौ रामा:" शब्दरूप में .. शायद ...



Friday, January 29, 2021

चँदोवा ...

किसी का रूढ़िवादी होना भी कई बार हमें गुदगुदा जाता है । ठीक उस 'डिटर्जेंट पाउडर' विशेष के विज्ञापन - " कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं " - की तरह .. शायद ...

यूँ तो ये बात बेकार की बतकही लग रही होगी , पर फ़र्ज़ कीजिये अगर .. हमारी पत्नी या प्रेमिका या फिर हमारा पति या प्रेमी रूढ़िवादी हो और .. हम कभी अपने रूमानी मनोवेग में अपनी तर्जनी भर की तूलिका से प्यार भरी एक मासूम-सी थपकी का रूमानी रंग उनके एक गाल के कैनवास पर आहिस्ता से स्पर्श भर करा दें ; मतलब - उनके एक तरफ के गाल, दायाँ या बायाँ में से अपनी सुविधानुसार कोई भी एक , को छू भर दें और चिढ़ाते हुए दौड़ कर उन से दूर भाग जायें ; फिर ... वो ठुनक-ठुनक कर हमारे पीछे-पीछे पीछा करते हुए बचपन के "छुआ-छुईं" वाले खेल की तरह तब तक दौड़ लगाती/लगाते रहें , जब तक कि हमारी हथेली को ज़बरन पकड़ कर हमारी उँगलियों भर से ही सही अपने दूसरे तरफ वाले गाल को स्पर्श न करवा लें ; ताकि वे अपनी रूढ़िवादी तथाकथित मान्यता/सोच के कारण दुबली/दुबले न हो जाएं कहीं .. तो .. इस तरह इस प्रकार की रूमानी हँसी-ठिठोली में हमारा मन भला गुदगुदायेगा या नहीं ? अगर " नहीं " तब तो उपर्युक्त बतकही आपके लिए वैसे भी बेमानी है और अगर " हाँ " तो बतकही आगे बढ़ाते हैं ...

अब अगर आप इस तरह की रूढ़िवादी मान्यता पर यक़ीन नहीं करते/करती हैं , तब तो कोई बात ही नहीं, पर .. अगर करते/करती हैं तो .. आपके इस यक़ीन के फलस्वरूप यक़ीनन आपके पति/प्रेमी/पत्नी/प्रेमिका को ऐसे किसी अवसर पर कभी-न-कभी ऐसी गुदगुदाहट की अनुभूति अवश्य हुई होगी या फिर ऐसी गुदगुदाहट का मौका बचपन में भी भाई-बहन की आपसी चुहलबाजियों के दरम्यान आया हुआ हो सकता है .. शायद ...

बहुत हो गई बेकार की बतकही .. अब कुछ वर्त्तमान के यथार्थ की बात कर लेते हैं। ये तो सर्वविदित है कि इन दिनों उत्तर भारत ठंड , शीतलहर , बर्फ़ और कोहरे के श्रृंगार से सुसज्जित है। यहाँ गंगा के दक्षिणी तट पर बसे बिहार की राजधानी पटना में बर्फ़बारी के आनन्द का सौभाग्य तो नहीं है, पर .. बर्फ़ीली शीतलहर और कोहरे की परतें जरूर चढ़ी हुई है। यही कोहरे आज की निम्नांकित चंद पंक्तियों वाले इस " चँदोवा ... " को मन के रास्ते वेब-पृष्ठ पर पसरने की वज़ह भी बने हैं .. शायद ... जिस वज़ह को भी आप सभी से साझा करना मुनासिब लगा मुझे .. बस यूँ ही ...

चँदोवा ...

पौष की

बर्फ़ीली

चाँदनी 

रात में

आलिंगनबद्ध 

होने के लिए

जानाँ ...


भला 

आज 

क्यों 

किसी

झुरमुट की 

ओट को 

तलाशना ,


है जब 

सब 

ओर

यहाँ

क़ुदरती

कोहरे का 

चँदोवा तना ...


तो फिर ..

देर किस

बात की

भला , 

बस .. आओ ना ,

आ भी जाओ ना ..

जानाँ ...






Thursday, January 28, 2021

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

एक शाम किसी लार्वा की तरह कुछ बिम्बों में लिपटी चंद पंक्तियाँ मन के एक कोने में कुलबुलाती-सी, सरकती-सी महसूस हुई .. बस यूँ ही ... :-

" मन 'फ्लैट'-सा और रुमानियत आँगन-सी

  सोचें रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरे-सी

  और है हो गई रूहानियत किसी गौरैये-सी ... "

पर उन लार्वा सरीखे उपर्युक्त पंक्तियों को जब अपने मन के डाल पर अपनी सोचों की चंद कोमल पत्तियों का पोषण दे कर, उन्हें उनके रंगीन पँखों को पनपाने और पसारने का मौका दिया तो उनका रूप कुछ इस क़दर विकसित हो पाया ...  :-

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

डायनासोर ही तो नहीं केवल हो चुके हैं विलुप्त इस ज़माने भर से,

जीवन की बहुमंजिली इमारतों में सुकून का आँगन भी अब कहाँ ?


सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!

अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?


रूहानियत बेपता, रुमानियत लापता, मिलते हैं अब मतलब से सब,

प्यार से सराबोर जीता था मुहल्ला कभी, वो जीवन भी अब कहाँ ?


लाख कर लें गंगा-आरती हम, कह लें सब नदी को जय गंगा माता,

शहर के नालों को गले से लगाकर भला गंगा पावन भी अब कहाँ ?


बढ़ गई है मसरूफ़ियत हमारे रोज़मर्रे में जानाँ कुछ इस क़दर कि ..

रुमानियत भरी तो दूर .. मुँहपुरावन वाली चुमावन भी अब कहाँ ?