Thursday, April 4, 2024

पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- " पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३६)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

कोई भी इंसान जब कभी भी किसी अन्य दुःखी इंसान के लिए पनपी सहानुभूति के दायरे को फाँद कर समानुभूति के दामन में समाता है, तो .. उसकी भी मनोदशा .. कुछ-कुछ रेशमा जैसी ही हो जाती है। कहते हैं कि .. बहुत ही उत्तम प्रारब्ध होता है उनलोगों का .. जिनके लिए हर परिस्थिति में हर पल किसी अपने या पराए की समानुभूति की प्रतीति होती हैं .. शायद ...

गतांक के आगे :- 

गत सप्ताह भी नियत दिन (गत वृहष्पतिवार) को "पुंश्चली .. (३७)" परोसने के बजाय .. हम आज परोस रहे हैं और इस अपराध के लिए क्षमायाचना भी नहीं कर रहे हैं। कारण .. अगर नियत दिन को परोसता भी तो उसमें वही .. मंगड़ा पर चल रहे केस के आख़िरी दिन कचहरी में चलने वाली दलीलें .. वही ‘माई लॉर्ड’, 'मिलॉर्ड', ‘ऑनरेबल कोर्ट’ या 'ऑर्डर-ऑर्डर' जैसे कुछेक शब्दों वाले गुलेलों के चलने के साथ-साथ .. वादी-प्रतिवादी के वक़ीलों और जज साहब के जिरह चल रहे होते, कटघरे में खड़े गवाहों के कुछ सही या फिर कुछ फ़र्जी बयानात दर्ज़ हो रहे होते .. जो ना तो माखन पासवान या मंगड़ा जैसे लोगों के पल्ले पड़ने वाला था या है भी और .. ना ही .. रेशमा या मन्टू जैसे आम इंसानों को भी .. शायद ...

ये सब समझना तो बुद्धिजीवियों के बूते की ही बात है। अब ऐसे घटनाक्रम को लिखने के लिए .. उसकी समझ भी तो हम जैसे ओछी बतकही करने वाले लोगों को भी होनी चाहिए ना ? जोकि .. तनिक भी नहीं है। वैसे भी अगर जानकारी होती भी तो .. हम क्या उखाड़ लेते भला कचहरी में। वहाँ तो न्याय करने के लिए विशिष्ट लिबासों वाले पढ़े-लिखे लोगों की जमात भरी पड़ी ही है, जो हमारे देश के संविधान-कानून के दायरे वाले साँचे में गढ़ते हुए .. गवाहों के बयानात वाले कच्चे-पक्के रंग-रोगनों से सजा कर .. गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी चढ़ी न्याय की देवी  को जन्म देते हैं .. शायद ...

इस घटनाक्रम से जुड़े .. मंगड़ा, माखन, मन्टू और रेशमा जैसे सारे लाचार-मज़बूर और ग़रीब पात्रों को हर बार अन्ततः कचहरी के आख़िरी फ़ैसले को ही मानना होता है .. वर्ना उसकी अवमानना हो जाएगी। पर अभी .. इस माहौल में ऊहापोह का झंझानिल अगर सबसे ज्यादा वेग के साथ किसी के मन में है, तो .. वह माखन पासवान ही है। बाकी लोग तो उस वेग से आंशिक रूप से ही प्रभावित हैं और अधिकांश लोग तो बस्स .. मूक दर्शक भर ही हैं .. जो या तो .. बलात्कार एवं हत्या के लिए उस बलात्कृत व मृत नाबालिग सुगिया में ही मीनमेख निकालने का प्रयास करने वाले लोग हैं या फिर कुछ तथाकथित दोषी गूँगा मंगड़ा को कोस रहे हैं। कुछ लोग तो .. राज्य और केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार को भी इस जघन्य अपराध के लिए बारी-बारी से दोषी ठहरा रहे हैं। लब्बोलुआब ये है कि .. जितने मुँह .. उतनी ही बातें .. शायद ...

ऐसे मौके पर माखन के मनोबल का संबल बनी रेशमा ही केवल उसकी मानसिक या आर्थिक पीड़ा को महसूस कर पा रही है, तो माखन कपस- कपस कर रोता हुआ उससे अपने मन की बात कह रहा है ...

माखन - " मंगड़ा भले ही गूँगा है .. पर अगर उससे इशारे में गीता की क़सम खिलायी जाए कि .. गीता की क़सम खा कर कहते हैं, कि हम जो भी कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ भी नहीं कहेंगे .. या हम से भी क़सम खिलवा लिया जाए तो .. तब तो हम बाप-बेटा झूठ नहीं बोलेंगे ना बेटा ? ये लोग आज तक क़सम क्यों नहीं खिलवा रहे हैं ? " 

रेशमा - " चच्चा .. ये सब पुरानी बातें हैं .. अंग्रेज़ों के ज़माने की .. आज के दिनों में अपने देश के कानून में गीता, कुरान या किसी भी धार्मिक किताब का कोई भी चर्चा नहीं है। दरअसल अपने देश की फिल्मों में आज भी उस प्राचीन ज़माने की प्रथा को ही दिखालाया जाता है, जिनमें गवाह को उनके धर्म-सम्प्रदाय के अनुसार गीता या कुरान पर हाथ रखकर कसम खानी होती है और हमलोगों को लगता है कि अदालत में ऐसा ही होता है। "

माखन - " अच्छा ! .. हमलोग जैसा जाहिल लोग क्या जाने ये सब .. नया-नया चलन-परिवर्तन भला .."

रेशमा - " हाँ चच्चा ! .. आज अपने देश की अदालतों में यह प्रथा प्रचलन में नहीं है। "

माखन - " हाँ .. अब समझ गए .. "

रेशमा - " चच्चा ! .. सिनेमा और टी वी सीरियल सब में बहुत सारा चीज झूठ-मुठ के परोसा जाता है और हम सब अपनी गाढ़ी कमाई और क़ीमती समय ख़र्च करके उसे देखने जाते हैं। और तो और .. सिनेमा-सीरियल में बस्स .. केवल एक गुहार भरे गीत गाने के बाद किसी मरणासन्न के उठ बैठने पर हमलोग ताली भी बजाते हैं। "

मन्टू - " दोषी कौन है ? .. हम ही लोग ना .. "

रेशमा - " हाँ .. उधर चर्च का घंटा बजता है और इधर हीरो-हीरोइन के घर में कोई खुशखबरी आ जाती है। धातु के एक मामूली-से टुकड़े पर सात सौ छियासी उकेरा हुआ हो तो .. वह धातु का टुकड़ा हीरो विशेष को गोली लगने से बचा लेता है .. सारी की सारी .. निरी कोरी  बकवास .. "

पर इनकी बकवासों के बीच अभी समय तेजी से सरकता जा रहा है और अन्ततः अभी माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने और हत्या करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई के बाद फ़ैसला आने ही वाला है और लीजिए .. आ ही गया ...

वैसे तो मंगड़ा को 'आईपीसी' की धारा यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत सुगिया के बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा हो सकती थी, परन्तु .. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अनुसार उसी सुगिया की हत्या के अपराध के लिए उसे मृत्युदंड से दंडित किया गया है। अब ऐसे में माखन का अगला क़दम क्या होगा या हो सकता है .. उसे अगले भाग में देखते हैं .. बस यूँ ही ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Saturday, March 23, 2024

खुसुर-फुसुर ...


ऐ जानम ! ..

आओ ना आज ..

आज की रात ..

मिलकर साथ-साथ ..

छत पर चाँदनी में

डुबकी लगायी जाए

और डाले हुए गलबहियाँ

खुसुर-फुसुर की जाए ..

सारी-सारी रात 

बातें आपसी प्रेम भरी .. बस यूँ ही ...


पास आयेंगे भी जो

हम दोनों तो ..

इतने पास कि ..

बस्स .. गूँथ ही जाएँ 

एक-दूजे में

पपनियाँ हमारी,

ताने-बाने की तरह 

और बुन ही डालें

इक चटाई 

हमारे सतरंगी सपनों की .. बस यूँ ही ...

वस्तु (चित्र ) सौजन्य - "निफ्ट " हैदराबाद )

Thursday, March 21, 2024

पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३५)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

( वैसे गत सप्ताह कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण "पुंश्चली .. (३६)" की बतकही को नहीं बकबका पाने लिए क्षमाप्रार्थी हैं हम .. 🙏 ).

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " दरअसल ये एक गंभीर मानसिक बीमारी है, जिसको 'नेक्रोफिलिया' कहा जाता है। इसके लिए भारत में तो नहीं पर .. ब्रिटेन, कनाडा, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में तो सजा वाले कानून हैं .. "

गतांक के आगे :-

बेवकूफ़ होटल से खाकर चलते वक्त रेशमा सभी के खाने का भुगतान करने के समय 'काउंटर' पर रखी सौंफ़ और 'कटिंग' मिश्री की कटोरियों में से बेमन से ही सही, पर .. एक-एक चम्मच अपनी बायीं हथेली पर लेकर अपने मुँह के सुपुर्द कर दी थी, अभी भी उसी को चबाते-चूसते हुए .. किसी गुटखे खाने वाले व्यक्ति की तरह सभी के साथ बतियाते हुए एक झुंड की शक़्ल में उस स्थान की ओर बढ़ रही है, जहाँ वक़ील साहब के अनुसार मंगड़ा के 'केस' की आज आख़िरी सुनवाई होनी है और सम्भवतः फ़ैसला भी आने वाला हैं। 

वहाँ पर काफ़ी लोगों की भीड़ में 'मीडिया' वालों के 'कैमरे' और 'माइक' भी नज़र आ रहे हैं। भीड़ के पास आने पर रेशमा और मन्टू को यहाँ के माहौल की गहमागहमी का बरबस ही एहसास हो रहा है। भीड़ के पास आते ही अचानक रेशमा की नज़र शहर के एक नामचीन दैनिक समाचार पत्र के 'रिपोर्टर'- अभिषेक वर्मा पर पड़ी है और उस 'रिपोर्टर' ने भी ठसम-ठस भीड़ के बीच रेशमा को देख लिया है।

अभिषेक - " नमस्कार .. रेशमा जी .. आप यहाँ ?.."

रेशमा - " नमस्कार ! .. दरअसल हमलोग तो यहाँ के बेवकूफ़ होटल में खाने आये थे, तो .. "

अभिषेक - " तो ? .. तो क्या हो गया ? "

रेशमा - " ना .. ना .. हुआ तो कुछ भी नहीं .. पर आपलोगों की भीड़ .. यहाँ ? "

अभिषेक - " हाँ .. एक गूँगे के द्वारा एक नाबालिग लड़की के बलात्कार और उसकी हत्या के ज़ुर्म का आज फ़ैसला आने वाला है। उसी का 'कवरेज' करना है अभी .. "

रेशमा - " पर .. एक बात बोलूँ ? .. "

अभिषेक - " क्या ? "

रेशमा - " इस 'केस' में तो .. ना तो बलात्कारी कोई बड़ा आदमी है और ना ही वो अभागिन बलात्कृत व मृत नाबालिग लड़की .. फिर इस तरह 'कवरेज' करने का मतलब ? .."

अभिषेक - " पता चला है कि उस गूँगे को आज फ़ाँसी की सजा मिलने वाली है। प्रशासन की ओर से इशारा है कि इस ख़बर को अख़बारों और 'न्यूज़ चैनलों' में जगह देनी चाहिए, ताकि बाकी मुज़रिम भविष्य में कभी बलात्कार या हत्या जैसे नृशंस कृत्य करने की हिम्मत नहीं कर पाएँ .."

रेशमा - " आप जिसे दोषी जान या मान रहे हैं .. सच में तो वो निर्दोष है बेचारा .. ( माखन की ओर इशारा करते हुए ) ... यही हैं उस गूँगा के पिता जी .. माखन पासवान .. लाचार और मज़बूर .. "

अभिषेक - " अब सही या गलत का फ़ैसला तो आज अदालत करेगी .. हम सभी तो मूक दर्शक भर हैं .. ख़ैर ! .. छोड़िए भी इन सब बातों को जाने दीजिए .. पहले आप बतलाएं कि .. आजकल आप कवि गोष्टियों में नहीं नज़र आती हैं .. क्यों ? .. "

यूँ तो वर्तमान परिस्थितिवश रेशमा की मानसिक स्थिति या इच्छा भी ऐसी नहीं है, जो अभिषेक के इस प्रश्न का उत्तर दे सके। पर .. अधिकांश भारतीय विवाहिता नारी की तरह ना चाहते हुए भी औपचारिकतावश कई कृत्यों के करने की तरह ही उसे उत्तर देना पड़ रहा है।

रेशमा - " जिन माहौल में पारदर्शिता नहीं हो, वहाँ तो अपना दम घुटता है। उन गोष्टियों में पक्षपात और चाटुकारिता की पराकाष्ठा होती हैं। .. "

अभिषेक - " ओह ! .. अच्छा ? .."

रेशमा - " और नहीं तो क्या .. आप तो बस कुछ मिनटों के लिए आते हैं और एक या दो रचनाकरों के सामने अपने कैमरे की 'फ़्लैश लाइट' चमका कर निकल लेते हैं। 

अभिषेक - " वो तो है .. और भी तो कई जगह 'कवरेज' करनी होती है ना .."

रेशमा - " वैसे भी मैं दावा तो नहीं कर रही, पर .. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है, कि वहाँ जिनके नाम के आगे 'डॉक्टर' चिपका होता है .. वो अगर अर्थहीन व बेतुकी तुकबंदी भी कर देते हैं, तो ... उनकी वाहवाही में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती .. "

अभिषेक - " अच्छा ! .."

रेशमा - " जब ऊँचे ओहदे वाले कार्यरत या सेवानिवृत्त सरकारी पदाधिकारियों द्वारा अगर कोई फूहड़ 'पैरोडी' भी सुनायी जाती है, तो तारीफ़ करते हुए लोग थकते तक नहीं हैं। .. मुझे तो वैसे भी किन्नर होने के नाते कुछ-कुछ तवज्जो मिल भी जाती है वहाँ .. मुझे एक 'शो पीस' की तरह प्रस्तुत करके .. पर .. उन सब से कहीं बेहतर ही नहीं, बल्कि उम्दा लिखने वाले आम जन की वहाँ कोई क़द्र नहीं होती .."

अभिषेक - " ओह ! .. इतनी राजनीति ! .."

रेशमा - " राजनीति शब्द का अपभ्रंश मत कीजिए .. इसे राजनीति तो नहीं, पर हाँ ..कूटनीति अवश्य कहनी चाहिए "

अभी कचहरी के 'मेन गेट' से जेल की गाड़ी के प्रवेश करने के कारण सभी का ध्यान उस ओर चला गया है। पर मन्टू का ध्यान तो रेशमा और 'प्रेस रिपोर्टर' की बातों पर अटका हुआ है। इतनी अफ़रातफ़री में भी उस से रहा नहीं गया और रेशमा से आश्चर्य के साथ पूछ रहा है।

मन्टू - " ये गोष्टी-मुशायरे में कब से जाने लगी हो ? .. हम तो आज पहली बार जान पा रहे हैं .. "

रेशमा - " (मुस्कुराते हुए) अरे भई .. इसमें जानने जैसी कोई बात ही नही है .. वैसे मयंक और शशांक भईया को इसकी जानकारी है, क्योंकि कभी कभार हम अपनी लिखी हुई बक़वास उन्हीं लोगों से 'चेक' करवाते हैं .. "

मन्टू - " अच्छा ! .."

रेशमा - " जब कभी उन लोगों को फ़ुर्सत रहती है, तो वे लोग आते भी हैं उन कार्यक्रमों में .. वैसे आपको इस बात पर इतनी हैरानी क्यों हो रही है ? .. जो मन की बातें हम जैसे संवेदनशील लोग किसी भी सजीव प्राणी को साझा कर पाने में स्वयं को अक्षम मानते हैं, तो .. उन्हीं बातों को बेजान पन्नों से साझा कर देते हैं .. उसी को लोग कविता, कहानी, गीत, दोहा-चौपाई, शायरी, ग़ज़ल इत्यादि का नाम दे देते हैं .."

अब तक जेल वाली गाड़ी वहाँ उपस्थित उतावली भीड़ के पास आकर रुक गयी है। माखन का ठठरीनुमा कमजोर शरीर भीड़ को चीर कर उस गाड़ी से बाहर निकल रहे अपने मंगड़ा के पास तो नहीं जा पा रहा है, पर उसकी कोटर में धँसी हुई डबडबायी कमजोर व निस्तेज आँखें टकटकी लगाए मंगड़ा को ही देखना चाह रहीं हैं।

रेशमा की नज़र अचानक पास ही खड़े माखन के कंपकंपाते शरीर पर पड़ी है, जो स्वयं की रुलाई को रोकने के कारण काँप रहा है। रेशमा उनके दोनों कंधे पर अपनी दोनों हथेलियों का दबाव महसूस करवाते हुए उन्हें सांत्वना देने की कोशिश कर रही है। ऐसा करते हुए उनकी आवाज़ भी भर्रा गयी है। 

कोई भी इंसान जब कभी भी किसी अन्य दुःखी इंसान के लिए पनपी सहानुभूति के दायरे को फाँद कर समानुभूति के दामन में समाता है, तो .. उसकी भी मनोदशा .. कुछ-कुछ रेशमा जैसी ही हो जाती है। कहते हैं कि .. बहुत ही उत्तम प्रारब्ध होता है उनलोगों का .. जिनके लिए हर परिस्थिति में हर पल किसी अपने या पराए की समानुभूति की प्रतीति होती हैं .. शायद ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, March 18, 2024

तीन तार की चाशनी ...


परतों के पल्लू में

सिमटी-सी,

सिकुड़ी-सी,

मैं थी ..

पके धान-सी।

मद्धिम .. मद्धिम 

आँच जो पायी,

प्रियतम 

तेरे प्यार की;

खिलती गयी,

निखरती गयी, 

मंद-मंद ..

मदमाती-सी,

खिली-खिली-सी

खील-सी खिल कर .. बस यूँ ही ...


था मन मेरा 

चाशनी ..

एक तार की, 

जो बन गयी

ना जाने कब ..

ताप में तेरे प्रेम के,

एक से दो .. 

दो से तीन ..

हाँ .. हाँ .. तीन ..

तीन तार की चाशनी

और ..

जम-सी गयी,

थम-सी गयी ..

मैं बताशे-सी 

बाँहों में तेरे प्रियवर .. बस यूँ ही ...


अमावस की रात-सी

थी ज़िन्दगी मेरी,

हुई रौशन 

दीपावली-सी,

दीपों की आवली से

तुम्हारे प्रेम की।

यूँ तो त्योहार और पूजन

हैं चोली-दामन जैसे।

फिर .. पूजन हो और ..

ना हों इष्ट देवता या देवी,

ऐसा भला होगा भी कैसे ?

अब .. तुम्हीं तो हो

इष्ट मेरे और .. तेरे लिए नैवेद्य ..

खील-बताशे जैसा मेरा तन-मन,

समर्पित तुझको जीवन भर .. बस यूँ ही ...

Thursday, March 7, 2024

पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३४)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

माखन चच्चा - " कैसे मुँह में कुछ जाएगा बेटा, जब मुँह का निवाला आँखों के सामने ही गलत दोष मढ़ कर छीना जा रहा हो .. "

अब रेशमा और मन्टू के साथ-साथ माखन पासवान भी बेवकूफ़ होटल की ओर जा रहे हैं। इनके यहाँ से जाने के साथ-साथ यहाँ की उपस्थित भीड़ भी छंटने लगी है।

गतांक के आगे :-

रेशमा होटल में प्रवेश करते हुए अपनी टोली को प्रतिक्षारत देख रही है। एक नज़र अपनी टोली पर डालने के बाद अब 'वाश बेसिन' की ओर इशारा करते हुए माखन चच्चा को हाथ धोने के लिए बोल रही है। साथ में स्वयं और मन्टू भी, दोनों उसी ओर क़दम बढ़ा चले हैं। तीनों अपने-अपने हाथ धोकर रेशमा की टोली की ओर जा रहे हैं, जहाँ पहले से ही उसकी टोली अपने-अपने हाथों की साफ़-सफ़ाई करके रेशमा की बाट जोह रही थी।

रेशमा - " तुम लोगों को खा लेना चाहिए था ना .. "

हेमा - " ऐसे कैसे खा लेते आपके बिना .. गुरु के बिना भी भला .. "

रेशमा - " अच्छा-अच्छा ! .. अब तो आ गयी ना मैं .. अभी जल्दी-जल्दी खा लो .. जिसको भी जो कुछ खाना है। "

रमा - " ये भी कोई बात हुई .. साथ खाने आये हैं तो सब मिलकर एक साथ एक-सा खाना खायेंगे हमलोग .."

रेशमा - " ये भी सही है, पर .. अब आज आगे अगला 'नर्सिंग होम' जाने का 'प्रोग्राम' 'कैंसिल' .."

सुषमा - " वो क्यों भला ? "

हेमा - " गुरु हैं हमारी .. कुछ भी फ़रमान जारी कर सकती हैं। हमको मानना ही होगा। है कि नहीं ? .."

रमा - " फ़रमान तक तो ठीक है .. बस्स ! .. कोई फ़तवा ना जारी करें .. " 

हेमा और रमा की चुटकी भरी बात पर रेशमा की पूरी टोली हँस पड़ी है। सिवाय रेशमा के .. मन्टू के और स्वाभाविक तौर पर माखन पासवान के।

सुषमा - " और .. आप वापस आकर बतायीं भी नहीं कि .. उधर चिल्ल-पों किस बात की मची हुई थी। कोई दुर्घटना घटी है क्या ? .. और ये सुबह-सुबह माखन चच्चा आपको कहाँ मिल गए ? "

रेशमा - " वही तो बतलाने वाली थी तुमलोगों को .. पर अभी तुमलोगो को तो हँसी सूझ रही है ? देखो ! .. माखन चच्चा को .. तुम लोगों को उनका दुःख नहीं दिख रहा क्या ? .. "

सुषमा - " वो तो हम पूछे ही अभी आपसे इनके बारे में .. "

रेशमा - " इनके एकलौते बेटे का जो 'केस' चल रहा था ना .. "

हेमा - " हाँ- हाँ .. तो क्या हुआ ? "

रेशमा - " आज उसी का फ़ैसला आने वाला है और .. हो सकता है, कि .. "

माखन पासवान - " हम वहीं पर जा रहे हैं बेटा .. अब हम्मर (हमारा) मंगड़ा जेल की गाड़ी में आने ही वाला होगा .."

मन्टू - " आप सुबह से हलकान हो रहे हैं बिना खाए-पिए .. बिना मुँह जुठाए हुए आप को नहीं जाने देंगे अभी .. "

माखन - " पर अभी कुछ भी मुँह में डालने का मन नहीं कर रहा है बेटा .. "

रेशमा - " अच्छा .. पहले बैठिए तो सही .. अभी वहाँ समय लगेगा .. तब तक आप हम लोगों के साथ खा लीजिए .. अगर खायेंगे नहीं तो अपने मंगड़ा के लिए कैसे लड़िएगा आप ? .."

रेशमा और मन्टू मिलकर किसी तरह अपने माखन चच्चा को अब खाने के लिए तैयार कर लिए हैं। रेशमा से बात करके अब सुषमा 'काउंटर' पर जाकर सबके लिए सादी (शाकाहारी) थाली का 'ऑर्डर' दे रही है।

अब सबके सामने थाली आ भी गयी है। थोड़ी देर में सभी के खा लेने के बाद रेशमा स्वयं भुगतान करके सभी को लेकर कचहरी की तरफ जा रही है। 

रेशमा - " ये बलात्कार के लिए अपने देश में आज भी .. जो भी कानून और सजा है .. कम है। "

माखन पासवान - " ना बेटा .. हम्मर मंगड़ा कोई बलात्कार नहीं किया है .. "

रेशमा - " ना- ना .. ना चच्चा .. हम मंगड़ा की बात नहीं कर रहे। हमको तो पता ही है, कि वह निर्दोष है। हम तो देश-समाज की बात कर रहे है चच्चा .."

मन्टू - " किस तरह कानून और सजा कम है आज भी अपने देश में ? .. अब तो हमारे देश में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद संविधान संशोधन करके इस ज़ुर्म के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान लाया गया है। "

रेशमा " हमारा मतलब है, कि .. आये दिन केवल महिलाओं का ही बलात्कार नहीं होता, पुरुष और किन्नर भी तो इस के शिकार होते हैं .. और तो और .. कई मानसिक विक्षिप्त लोग तो मौका मिलते ही .. मुर्दे तक का बलात्कार कर लेते हैं। "

हेमा - " छिः .. छि-छि .. दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं ? "

रेशमा - " और .. मजे की बात ये है कि इनके लिए अपने देश में आज भी कोई भी कानून नहीं हैं। "

रमा - " अच्छा ! "

रेशमा - " पति-पत्नी के बीच भी कभी-कभी ज़बरन बनाए गए यौन संबंध को बलात्कार माना जाना चाहिए, परन्तु इसे भी कानूनन बलात्कार नहीं माना जाता .. "

रमा - " सबसे तो आश्चर्यजनक तो लगता है, ये सोच कर कि एक शव से भला लोग किस प्रकार बलात्कार करने की सोचते भी होंगे या करने की हिम्मत करते हैं .."

रेशमा - " दरअसल ये एक गंभीर मानसिक बीमारी है, जिसको 'नेक्रोफिलिया' कहा जाता है। इसके लिए भारत में तो नहीं पर .. ब्रिटेन, कनाडा, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में तो सजा वाले कानून हैं .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, March 4, 2024

पत्ते वाली मिठाई .. किसने है खाई ?

सर्वविदित है, कि .. किसी भी क्षेत्र विशेष में उसके संस्कार या उसकी संस्कृति पर उसके भौगोलिक परिवेश के साथ-साथ वैश्विक वैज्ञानिक अनुसंधानों व आविष्कारों का भी गहरा प्रभाव पड़ता आया है। 

मसलन- मरणोपरांत जिस दाह संस्कार और दफ़नाने की अलग-अलग प्रक्रियाओं को धर्म विशेष से जोड़ कर लकीर के फ़कीर बने आज भी हम अकड़ रहे हैं या यूँ कहें कि उस से जकड़े हुए हैं, तो .. एक बार अगर हम इतिहास की खिड़की से झाँक कर इन धर्म-मज़हब के उद्‌गम स्थलों का मन से अवलोकन करें, तो प्रमाणिक निष्कर्ष यही निकलेगा कि .. दफ़नाये जाने वाले संस्कार का प्रचलन उन जगहों में पनपा होगा, जहाँ ना तो दाह संस्कार के लिए लकड़ियों को प्रदान करने वाली वन संपदाएँ थीं और ना ही अवशेष स्वरूप राख़ को बहा ले जाने वाली एक भी नदी थी .. वहाँ थे तो केवल रेत ही रेत .. शायद ...

दूसरी तरफ .. दाह संस्कार के चलनसार का प्रादुर्भाव वहीं सम्भव हो पाया होगा, जहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप .. वृक्षों से मिली लकड़ियों और नदियों के जल की उपलब्धता रही होंगी। परन्तु पुरखों के कालखण्ड में तत्कालीन परिस्थितिवश पनपे प्रचलनों को हम लोगों ने आज भी अलग-अलग धर्म-मज़हब से जोड़ कर मृत शरीर के निष्पादन के लिए जलाने और दफ़नाने जैसी दो भिन्न प्रक्रियाओं को क्रमशः श्मशान और क़ब्रिस्तान जैसे दो खेमों में बाँट कर रखा है .. शायद ...

प्रसंगवश .. वैसे तो आज हमारे बीच मृत शरीर के निष्पादन का देहदान नामक एक बेहतर और बहुउपयोगी विकल्प उपलब्ध तो है ही, पर हम अगर लकीर के फ़कीर वाली ज़ंजीर की जकड़न से बाहर निकल सकेंगे, तभी तो .. इस देहदान का औचित्य समझ पायेंगे और इसे अपनाने की हिम्मत जुटा पायेंगे, वर्ना .. तथाकथित मोक्ष की अपभ्रंश धारणा से प्रेरित हो कर, उन तमाम अंधपरम्पराओं को चिपकाए हुए .. हम स्वयं भी उनसे चिपके रहेंगे और भावी पीढ़ियों को भी उनसे चिपके रहने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी दबाव बनाते रहेंगे .. शायद ...

हालांकि हमारे संस्कार-संस्कृति की तरह हमारे खानपान के मामले में भी यही भौगोलिक प्रभाव ही प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। जैसे- पँजाबियों को रोटी-पराठे एवं बंगालियों को भात या फिर मूढ़ी या फरही जैसे चावल के अन्य उत्पाद अत्यधिक प्रिय होने की वज़ह दरसअल उनके राज्यों में खेती से क्रमशः गेहूँ और चावल के प्रचुर उत्पादन ही हैं .. शायद ...

अब बात बंगालियों की हो रही हो तो .. उनके कुछ विशेष व्यंजनों का नाम लिए बिना नहीं रहा जा रहा अभी तो, तो ..  उनके कुछेक विशेष व्यंजनों के नाम लेने भर से ही मुँह में पानी आ जाता है। मसलन- शुक्तो (एक विशेष सुस्वादु शाकाहारी सब्जी), कच्चा गोला संदेश (छेने से बना मिठाई विशेष), मिष्टी दोई (विशेष स्वाद वाला मीठा दही), भापा दोई (भाप पर पका दही का विशेष मीठा व्यंजन) व भापा माछ (भाप से पकी मछली) और .. उनमें से एक भापा माछ .. एक ऐसा मांसाहारी व्यंजन है, जो मछली को सरसों के मसाले में 'मैरीनेट' करने के बाद केले के पत्ते में लपेट कर भाप पर पकाया जाता है। यूँ तो केले के पत्ते पर खाने का भी प्रचलन बंगाल में भी है और दक्षिण भारत में भी और .. कारण वही है .. उन क्षेत्रों में केले की अत्यधिक उपज का होना, जो वहाँ के भौगोलिक परिवेश पर ही निर्भर करता है .. शायद ...

यहाँ मुख्य रूप से गौर करने वाली बात ये है, कि इस "भापा माछ" के अनोखे स्वाद में मछली व मसाले के साथ-साथ केले के पत्ते का भी विशेष योगदान रहता है, जिनमें लपेट कर इसे भाप पर पकाया जाता है। बातों-बातों में पत्ते की बात निकली ही है तो .. अब "पत्ते वाली मिठाई" की बातें करते हुए आज की मूल बतकही की शुरुआत करते हैं .. बस यूँ ही ...

आज कमोबेश समस्त धरती के वैश्वीकरण / भूमंडलीकरण हो जाने के बावज़ूद भी कई स्थान विशेष के कुछेक व्यंजनों का वैश्वीकरण नहीं हो पाया है। मसलन- केवल अरवा चावल के आटे और गुड़ से विशेषतः जाड़े के मौसम में बनाया जाने वाला "भक्का या भक्खा" गर्म पानी के भाप से तैयार होता है; जो पौष्टिक और स्वादिष्ट होने के बावज़ूद भी बिहार के कुछ पूर्वोत्तर जिले- अररिया, किशनगंज, पूर्णिया व कटिहार के साथ-साथ झारखण्ड के पाकुड़ जिला, जो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जैसे एतिहासिक जिला से सटा हुआ है, पश्चिमोत्तर पश्चिम बंगाल और दक्षिण-पूर्वी नेपाल के कुछ सीमांचल क्षेत्रों तक ही सीमित है .. शायद ...

अब मूल बतकही के रुख़ को उत्तराखंड के दो मुख्य भागों में बँटे हुए- गढ़वाल और कुमायूँ में से एक .. कुमायूँ की ओर मोड़ते हैं। वैसे तो तीसरा भाग भी है- जौनसार। ख़ैर ! .. फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं .. कुमायूँ की और और उस के अल्मोड़ा जिला से जुड़ी ख़ास बातों में से एक "पत्ते वाली मिठाई" की। वैसे तो उपलब्ध आंकड़े की बात करें तो .. अल्मोड़ा इस राज्य का सबसे ग़रीब जिला है, पर दूसरी तरफ इसकी तमाम प्राकृतिक संपदाएँ इसे सम्पन्न और समृद्ध भी बनाती हैं।

यहाँ उपलब्ध उन्हीं प्राकृतिक संपदाओं में से एक है- मालू की बेलें, जिसे स्थानीय लोग लता कचनार भी कहते हैं .. क्योंकि इसके पत्तों का आकार भी कचनार के पत्तों की तरह ही दोमुँहा होता है और इसका स्पर्श भी खुरदुरा होता है, पर इसका माप उससे बड़ा होता है। वर्षों से स्थानीय क्षेत्रों में इन पत्तों से बने पत्तल और दोने का इस्तेमाल होता आ रहा है। यहाँ इस की फ़ली को "टांटी" कहते हैं। जहाँ ये बेलें प्राकृतिक रूप से सहज उपलब्ध है, वहाँ इस टांटी के पकने पर आग में भून कर उसके बीजों को, जिसे "मेले" कहते हैं, खाया जाता है। इस के पत्तों का काढ़ा बुखार या 'डायरिया' के बीमारों को दिया जाता है, क्योंकि इसमें 'एन्टीबैक्टीरियल' गुण होता है। यूँ तो यह कुमायूँ के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, सिक्किम आदि राज्यों में भी उगता तो है, पर ..  अल्मोड़ा जिला की तरह "पत्ते वाली मिठाई" नहीं मिलती है।

वैसे तो कुमाऊँ क्षेत्र में एक अन्य मिठाई .. "बाल मिठाई" भी लोकप्रिय है, जिसे भुने हुए खोवे (मावा) से बनाई जाती है और इसके हर टुकड़े की ऊपरी परत पर 'होम्योपैथिक' दवा वाली छोटी-छोटी गोलियों जैसी चीनी की गोलियों की परत चढ़ाई जाती है। सर्वविदित है, कि कुमाऊँ में गोरखों ने सन् 1790 ई से लेकर सन् 1815 ई तक लगभग 25 वर्षों तक शासन किया था और किवदंतियों के मुताबिक़ उन्हीं गोरखों द्वारा "बाल मिठाई" का पदार्पण कुमाऊँ में हुआ था। वैसे तो आज यह उत्तराखंड की राजकीय मिठाई भी हैI परन्तु "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात .. मतलब स्वाद ही अलग है। 

यूँ तो उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में 'स्ट्रीट फ़ूड' के तौर पर युवाओं में विशेष लोकप्रिय और प्रसिद्ध नमकीन व्यंजनों में बन टिक्की और कतलम्बे का नाम आता है। यहाँ की 'बेकरी' के उत्पाद भी प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। इनके अलावा वयस्कों-वृद्धों में उत्तराखंड देवभूमि वाले अपने चार धामों के लिए, तो .. युवाओं के बीच 'एडवेंचर्स गेम' के अलावा प्राकृतिक पहाड़ी सौन्दर्य के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पर .. इन सबसे परे .. "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात ही निराली है।

अब इस मिठाई के लिए भी किवदंतियों की बात छेड़ें तो .. उत्तराखंड के कई सारे लोकप्रिय और प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थलों की ख़ोज के साथ-साथ वहाँ बसने व उसे बसाने का श्रेय अंग्रेज़ों को देने की तरह ही .. स्थानीय वृद्धजनों के अनुसार इस "पत्ते वाली मिठाई" का श्रेय भी एक अंग्रेज को दिया जाता है।

दरअसल अल्मोड़ा जाने के लिए वर्तमान में तो 127 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर में है और 90 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है। परन्तु दशकों पहले अंग्रेजों की अवधि में ये दोनों ही यतायात के साधनों के नहीं होने पर एकमात्र साधन- सड़कमार्ग द्वारा देहरादून से अल्मोड़ा जाने के दरम्यान अल्मोड़ा से कुछ पहले ही नैनीताल ज़िले में कोसी नदी और खैरना नदी के संगम पर बने खैरना पुल के पास ही खैरना नाम की एक छोटी-सी बस्ती थी और आज भी है। वहीं पर एक चट्टी-बाज़ार भी है, जहाँ लम्बी दुर्गम पहाड़ी यात्रा करके आने वाले सैलानियों को ढाबेनुमा दुकानों से चाय-अल्पाहार करके तरोताज़ा होने का अवसर तो मिलता ही है .. साथ ही अपनों के लिए सौग़ात के रूप में यहाँ की बाल मिठाई और "पत्ते वाली मिठाई" ले जाने का भी मौका मिलता है।

स्थानीय वृद्धजनों का कहना है, कि अंग्रेजों के शासनकाल में एक अंग्रेज के पर्यटन के ख़्याल से अल्मोड़ा जाने के दौरान जब खैरना में उसकी गाड़ी रुकी तो वह एक ढाबे में कुछ जलपान करने के बाद .. उसके बगल की ही मिठाई की एक छोटी-सी दुकान से एक मिठाई ख़रीद लिया, जिसे गाढ़े दूध में खोवा, कम मात्रा में चीनी, नारियल-चूर्ण के अलावा छोटी इलायची के बीजों के चूर्ण, काजू, बादाम, केसर और किशमिश डालकर तैयार की जा रही थी। उस दुकानदार ने बन रहे ताज़ा-ताज़ा मिठाई को ग़ुलाब की पंखुड़ियों से सजाकर वहाँ उस वक्त सहज उपलब्ध मालू के हरे पत्ते में लपेट कर उस अंग्रेज पर्यटक ग्राहक को सौंप दिया था। 

अब दिलचस्प बात ये हुई, कि उस अंग्रेज सज्जन को वह मिठाई इतनी अच्छी लगी, कि वे दूसरे दिन पुनः उसी दुकानदार से एक ही बार में एक किलो मिठाई खरीद कर ले गए। स्वाभाविक था कि .. मिठाई की मात्रा ज्यादा होने की वजह से दुकानदार ने उसे मालू के पत्ते की जगह गत्ते के डिब्बे में भर कर दे दिया था। उसको खाने के बाद अंग्रेज महोदय को स्वाद में अंतर महसूस हुआ। वे इसके बाद वापस उस दुकानदार के पास गए और स्वाद में कमी की शिकायत की। फिर कुछ क्षण बाद स्वयं ही उन्होंने दुकानदार से मिठाई को उसी मालू के पत्ते में लपेटकर देने की बात कही। कुछ ही देर बाद उस मालू के पत्ते में लिपटी मिठाई को खाने पर पूर्ववत स्वाद आने लगा। 

फिर क्या था .. उसी अंग्रेज पर्यटक की नेक सलाह पर वह दुकानदार उस दिन से अपनी उस मिठाई को शंक्वाकार मालू के पत्ते में लपेट कर ही बेचने लगा और उसी पत्ते वाली मिठाई को सिंगोड़ी या सिंगौड़ी कहते हैं। कहते हैं कि .. वही सिलसिला आज भी प्रचलन में तो है ही, साथ ही .. इसी शंक्वाकार मालू के पत्ते में लिपटा होना .. इसके स्वाद की वज़ह भी है व पहचान भी है। मानो किसी प्रेमी के सानिध्य में आने पर उसकी प्रेमिका का तन आलिंगनबद्ध होकर महक उठता है, वैसे ही मालू के पत्ते की बाहों में सिमट कर सिंगोड़ी के स्वाद में भी चार चाँद लग जाता है .. शायद ...

इसके बारे में सुनने-जानने के पश्चात गत पौने दो वर्षों से देहरादून में मिठाई की कई प्रसिद्ध दुकानों में तलाशने के बाद कल यहाँ के एक मिष्ठान प्रतिष्ठान में यह दृष्टीगोचर होने के बाद मुझ-सा मधुमेह पीड़ित, पर किसी स्थान विशेष के व्यंजन विशेष को चखने के लिए बरबस लालायित प्राणी, भी कैसे मन संवरण कर पाता भला ? इस मिठाई विशेष के लिए अगर .. अब तक आपके मुँह में भी लार भर आयी है, तो आप सभी सपरिवार आमंत्रित है यहाँ आने के लिए और फिर तो .. आप सभी को मालू के पत्ते वाली विशेष मिठाई की दावत हमारी ओर से .. बस यूँ ही ...





Thursday, February 29, 2024

पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)"  से  "पुंश्चली .. (३३)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :- 

बाकी लोग खाली जगह देखकर सुविधानुसार स्थान ग्रहण कर रहे हैं। अभी रेशमा और मन्टू 'वाश बेसिन' में हाथ धो ही रहे हैं, तब तक होटल से बाहर .. कचहरी प्रांगण में किसी के कुहंक-कुहंक कर रोने की आवाज़ के साथ-साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनायी देने लग गयी है। रेशमा सब को बैठने का इशारा कर के शोर की ओर बढ़ चली है। पीछे से मन्टू भी, कि .. आख़िर हो क्या गया है अचानक से ...

गतांक के आगे :-

कुहंक-कुहंक के रोने वाली आवाज़ और उसको संगत करती आसपास इकट्ठी भीड़ से ऊपजी शोर भरी आवाज़ की ओर रेशमा और मन्टू के बढ़ते तेज क़दम शीघ्र ही वहाँ तक पहुँच गए हैं। वहाँ रोने वाला इंसान चारों तरफ से भीड़ से घिरा हुआ है। फिर भी उत्सुकतावश दोनों ही कुछ क्षण में ही भीड़ को लगभग चीरते हुए उस रोते-कलपते इंसान तक पहुँच गए हैं, जो अपनी कृशकाय ठठरी मात्र काया के सीने को पीट-पीट कर किसी लाचार की तरह कभी आसमान की तरफ कातर डबडबायी निग़ाहों से देख कर तो .. कभी भीड़ की तरफ देख-देख कर विलाप कर रहा है। उसका सारा कमजोर शरीर काँप रहा है, मानो इस बुद्धिजीवी समाज में आज भी किसी प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर अवस्थित तथाकथित माता की मूर्ति के समक्ष बनी हुई .. किसी बलिवेदी पर .. नहलाए गए और सिन्दूर-रोली, मृत फूलों की माला व अक्षत् से सजा कर किसी निरीह बकरे की गर्दन ज़बरन जकड़े जाने से उसका सम्पूर्ण शरीर काँपता है और उसके हाड़ के अंदर की धुकधुकी बढ़-सी जाती है ।

रेशमा अपनी संवेदनशीलता के कारण पनपी समानुभूति के वशीभूत होकर उस इंसान के और भी क़रीब चली गयी है .. उसके रोने की वज़ह जानने के लिए तो .. अचानक ही चिहुंक कर बोल पड़ी है ..

रेशमा - " अरे !! .. अरे मन्टू भईया ! .. ये तो माखन चच्चा ("पुंश्चली .. (७)") हैं .. "

मन्टू - " हाँ .. हाँ .. ये तो .. " 

माखन चच्चा के एक कँधे पर आहिस्ता से अपनी एक हथेली रखते हुए, उनसे दयाभाव के साथ मन्टू पूछ रहा है - 

मन्टू - " क्या हुआ माखन चच्चा ? .. आपके मंगड़ा का कोई फैसला आया है क्या ? .."

रेशमा माखन चच्चा के उत्तर के लिए उन्हीं की ओर अपनी नज़रें टिकायी हुई है। रेशमा और मन्टू .. दोनों ही पहचान चुके हैं, कि ये वही माखन चच्चा ही हैं, जो .. रसिक चाय दुकान पर अक़्सर असगर के साथ सुबह-सुबह मुहल्ले के वक़ील साहब और उनके पेशकार से आकर मिला करते थे .. विशेषकर .. कचहरी में उनके गूँगे बेटे- मंगड़ा पर चल रहे 'केस' की सुनवाई होने वाले दिन। 

'केस' तो .. आपको याद ही होगा .. शायद ... कि .. माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर .. गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के साथ-साथ उसकी हत्या के आरोप में कुछ महीने से ये 'केस' चल रहा है। जिसके मकड़जाल में माखन की झोपड़ी और झोपड़ी भर ज़मीन तक बंधक है सरपंच के पास। अगर ये जमीन बंधक नहीं होती तो .. उसको बेचकर कुछ और रुपया हासिल किया जा सकता था, जिसे वह इस 'केस' के अलाव में झोंक सकता .. जिसकी आग से वक़ील साहब के साथ-साथ इस 'केस' से जुड़े सारे लोगों को और भी सुखद ताप मिल पाता और माखन को अपने एकलौते बेटे के बचने की और भी उम्मीद बढ़ जाती।

मंगड़ा भले ही गूँगा है, पर जेल जाने से पहले तक सरपंच के खेतों या घर में खट कर अपने बाबू जी (माखन) और माय (माँ) के साथ-साथ अपने लिए कुछ-कुछ उपार्जन कर ही लेता था। कभी बासी खाना, कभी मालिक लोगों के घर के सदस्यों के उतरन कपड़े, चप्पल और कभी-कभी तो बिल्ली द्वारा मुँह लगाए हुए दूध या दूध से बने व्यंजन भी मिल जाया करता था। कभी कोई तीज-त्योहार या पारिवारिक काज-परोजन होने पर और ऐसे मौकों पर आये मेहमानों से नेग के नाम पर कुछ नक़दी की भी प्राप्ति हो जाया करती थी .. जो ज़रूरत पड़ने पर मंगड़ा की माय की बीमारी में लग जाता था। 

मन्टू के पूछने पर .. माखन पासवान कुछ दूरी पर खड़े वक़ील साहब और उनके पेशकार की ओर इशारा करते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं।

माखन चच्चा - " सब हाकिम लोग कह रहे हैं .. कि आज .. हमरे (हमारे) मंगड़ा के 'केस' की आख़िरी सुनवाई है बेटा .." - और भी ज्यादा रुआँसा होते हुए - " पर उसके बचने की उम्मीद नहीं है .. हम अपना बेटा खो देंगे आज .. एकलौता सहारा हमसे छीन जाएगा .. "

मन्टू उसके दोनों कंधों पर अपनी दोनों हथेलियों से दबाव बनाते हुए अपनी ओर से ढाढ़स बंधाने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में माखन और भी जोर से हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा है। मानो रेत की भीत को सहारे के वास्ते जितनी ही टेक लगायी जाए, तो वह और भी उतनी ही ज्यादा तेजी से सरक कर जमींदोज़ हो जाती है।

माखन नाउम्मीदी में कहने के लिए तो हाकिम लोगों की कही बातों को दुहराते हुए विलाप कर तो रहा है, पर उसके मन एक कोने में अभी भी उम्मीद का एक कतरा बचा हुआ है। उसे लग रहा है, कि जिस दिन वो सब कांड हुआ था, उस दिन तो मंगड़ा अपनी झोपड़ी में ही अपनी टुटही खाट पर लगभग हफ़्ता भर से मलेरिया बुखार से बेसुध होकर पड़ा हुआ था। उसको उसी हालत में 'पुलिस' अगले दिन उठा कर ले गयी थी। कराहते हुए वह उनके पँजों के चंगुल में घिसटाता हुआ झोपड़ी से जीप तक और जीप से हाजत तक गया था। माखन को अपने गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे वाले शिलाखंड, जिसे गाँव वाले "पीपरहवा बाबा" कहते हैं, पर भरोसा है। उसने और उसकी मेहरारू ने "पीर साहेब" के मज़ार पर भी जाकर मनता (मन्नत) मान रखी है। साथ में श्मशान वाली "मसान माई" के पैर के आगे उसके स्वयं के और साथ में अपनी घरवाली के गिड़गिड़ाये जाने पर भी भरोसा है, कि "मसान माई" अवश्य ही उसकी सहायता करेंगी। वैसे भी तो .. वह इस बात से आश्वस्त है, कि मंगड़ा निर्दोष है, तो "ऊपर वाले" की कृपा तो उसके और उसके बेटे के ही तो पक्ष में होगी ना ...

परन्तु .. उस अनपढ़ ग़रीब को कहाँ मालूम है भला कि .. तारीख़ों की आँच पर दलीलों की देगची में फ़ैसले की पकी हुई जो खीर आज परोसी जानी है, वो किसी के लिए मीठी तो .. किसी के लिए कड़वी व ज़हरीली भी हो सकती है और ये सब भुगतान किए गए वक़ील के अलावा जज, कचहरी, क़ानून, बनावटी सबूत, खरीदे गए गवाहों के मकड़जाल के सहयोग से तैयार होती हैं, जिनका वास्तविकता से कोई सारोकार नहीं होता .. शायद ...

रेशमा की तो मानो भूख ही छूमंतर हो गयी है इस समय इस कारुणिक दृश्य से। अब वह मन्टू से आज आगे ना जाने के लिए विचार कर रही है। 

रेशमा - " कमाना-खाना तो रोज ही लगा रहता है मन्टू भईया .. पर किसी भी कमजोर-असहाय को बुरे वक्त में अपना क़ीमती समय जरूर देना चाहिए। ऐसा करके हम सामने वाले को नैतिक आलम्बन देने का एक अच्छा काम करते हैं .. है कि नहीं ? .. "

मन्टू - " चलो .. ऐसा ही करते है, पर अभी तो सुनवाई में काफ़ी समय है। तब तक कुछ खा लेते हैं और अगर इतनी ही समानुभूति भाव है माखन चच्चा के प्रति तो .. "

रेशमा - " तो क्या ? .. तो .. इनको भी ले चलते हैं। इनको भी कुछ खिला-पीला देते हैं। .. विपत्ति कैसी भी हो, पर पेट की आग को तो बुझानी ही होती है। " - माखन चच्चा को सम्बोधित करते हुए - " चलिए चच्चा .. अभी सुनवाई होने में काफ़ी समय है। तब तक हमलोगों के साथ कुछ खा लीजिए। "

मन्टू - " चिन्ता मत कीजिए .. ऊपर वाले पर भरोसा रखिए .. आप तो लग रहा है, कि . कई दिनों से कुछ भी खाए-पीये नहीं है .."

माखन चच्चा - " कैसे मुँह में कुछ जाएगा बेटा, जब मुँह का निवाला आँखों के सामने ही गलत दोष मढ़ कर छीना जा रहा हो .. "

अब रेशमा और मन्टू के साथ-साथ माखन पासवान भी बेवकूफ़ होटल की ओर जा रहे हैं। इनके यहाँ से जाने के साथ-साथ यहाँ की उपस्थित भीड़ भी छंटने लगी है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】