Sunday, August 7, 2022

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ...



देखता हूँ .. अक़्सर ...

कम वक्त के लिए

पहाड़ों पर आने वाले

सैलानियों की मानिंद ही

कम्बख़्त फलों का भी

पहाड़ों के बाज़ारों में 

लगा रहता है सालों भर

आना-जाना अक़्सर।

आने के कुछ ही दिनों बाद 

जो हो जाते हैं बस यूँ ही छूमंतर।

चाहे बाज़ारें हों गढ़वाली देहरादून के 

या कुमांऊँ वाले पिथौरागढ़ या 

फिर हो बाज़ारें अल्मोड़ा के।

कभी काफल, कभी पोलम,

कभी खुबानी, कभी आड़ू,

कभी बाबूगोशा, कभी घिंगोरा,

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ये सारे।

मानो पहाड़ी पेड़-पौधों पर

और .. स्वाभाविक है तभी तो

पहाड़ी बाज़ारों में भी

टिकना जानते ही नहीं फल,

ख़ास कर काफल,

किसी बंजारे की तरह .. शायद ...  


और तो और ..

पहाड़ी आसमानों में

टिकते हैं कब भला

बला के बादल यहाँ।

फट पड़ते हैं अक़्सर

मासूम पहाड़ियों पर 

ढाने के लिए क़हर।

स्वयं पहाड़ों को भी तो 

है आता ही नहीं टिकना,

ख़ास कर बरसातों में

सरकते हैं परत-दर-परत,

होते रहते हैं बारहा यहाँ

भूस्खलन बेमुरौवत। 

और हाँ .. मौसम भी तो यहाँ

होते नहीं टिकाऊ प्रायः।

यूँ तो सीखने चाहिए रफ़्तार

गिरगिटों को भी रंग बदलने के,

एक ही दिन में

पल-पल में बदलने वाले

इन पहाड़ी मौसमों से,

जो करा देते हैं एहसास कई बार

गर्मी, बरसात और जाड़े के भी

एक ही दिन में क्रमवार .. शायद ... 


क्या मजाल जो ..

थम जाएँ, 

टिक पाएँ,

यहाँ बरसाती पानी भी

कहीं भी, 

कभी भी सड़कों पर।

तरस जाती हैं आँखें यहाँ

बरसाती झीलों वाले नज़ारों को

देखने के लिए नज़र भर।

पर .. साहिब ! ...

सुना है कि ..

अक़्सर  'टी वी ' पर

दिखने वाले किसी भी

टिकाऊ सीमेंट के

मनोरंजक विज्ञापनों की मानिंद ही

पहाड़ों के निवासियों के आपसी

या प्रायः प्रवासियों के साथ भी

या फिर यदाकदा

सैलानियों के संग भी

बनने वाले ..

रिश्ते ...

होते हैं टिकाऊ बहुत ही .. शायद ...

जिसे निभाते हैं ये जीवन भर .. बस यूँ ही ...














Wednesday, August 3, 2022

बस मन का ...


 (१)

बतियाने वाला स्वयं से अकेले में, कभी अकेला नहीं होता,

खिलौने हों अगर कायनात, तो खोने का झमेला नहीं होता 

 .. शायद ...



(२)

साहिब ! यहाँ संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण नहीं होता,

कुछ रिश्तों के लिए कभी कोई व्याकरण नहीं होता 

.. शायद ...




(३)

साहिब ! ..जगह दिल में वो भला क्या ख़ाक देगा,

जो किराए में ग़ैर-मज़हबी को कभी घर नहीं देता

.. शायद ...










(४)

आबादी भी भला शहर भर की थी कब सुधरी,

ना थी, ना है और ना रहेगी कभी साफ़-सुथरी।

साहिब ! है सच तो ये कि सफाईकर्मियों से ही,

हैं चकाचक चौराहे, मुहल्ले, सड़क-गली सारी

.. शायद ...




(५)

परिभाषा कामयाबी की है सब की अलग-अलग,

है किसी को पद या दौलत का मद, कोई है मलंग 

.. शायद ...








(६)

चाहे लाखों हों यहाँ पहरे ज़माने भर के, अनेकों बागडोर,

पर खींचे इन से इतर सनम, बस मन का एक कच्चा डोर 

.. बस यूँ ही ...

Sunday, July 31, 2022

भींजे ख़्वाबों में .. बस यूँ ही ...


 

यूँ तो कहते हैं सब कि

"समुन्दर में 

नहा कर तुम 

और भी 

नमकीन हो गई हो ~~~",

पर पता है कहाँ उन्हें, 

कि ..

समुन्दर में कम ..

सनम ...

तुम तो 

मेरे नयनों के

खारे पानी वाले 

भींजे ख़्वाबों में

भींज-भींज कर ही

तनिक ज्यादा

या तनिक कम 

नमकीन हुई हो .. बस यूँ ही ...

Monday, July 18, 2022

 बस यूँ ही ...

 

(1)

तुम ना सही, 

तेरी यादें ही सही, 

मन के आले पर संभाले, 

रखा हूँ आज भी तुम्हें सहेज करके .. बस यूँ ही ...


वर्ना यूँ तो 

पूजते हैं जिसे सभी,

अक़्सर उन्हें भी ताखे से 

फ़ुटपाथों पे छोड़ने में नहीं गुरेज़ करते .. बस यूँ ही ...



(2)

गाते हैं सभी 

यूँ तो यहाँ पर

"ये हसीं वादियाँ ..

 ये खुला आसमां"~~~,

पर जानम बिन तेरे

है मेरे लिए तो ये

जैसे कोई मसान .. बस यूँ ही ...


सुलगते

भीमसेनी कपूर-सी

तुम्हारी

सोंधी साँसों के

बिन है जानम 

सब ये यहाँ

सुनसान, वीरान ..बस यूँ ही ...

Saturday, April 30, 2022

आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले ... ( भाग - २ ).[अन्तिम].

'बिस्कुट' .. हाँ, हाँ, .. साहिबान ...

याद आयी अभी-अभी और भी एक बात ये,

होते ही ज़िक्र अभी 'बिस्कुट' के,

महज दशमलव पाँच-पाँच प्रतिशत यानी 

मात्र पाँच-पाँच ग्राम हर एक किलो में,

गोया कि .. आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले,

'बिस्कुट' को पहना कर किसी मुखौटे की तरह 

लुभावने रंगीन 'रैपर' 'फाइव ग्रेन बिस्कुट' वाले

किसी 'मल्टीनेशनल कम्पनी' के दावे 

या फिर वादे की मानिंद भी आप हैं लगते,

'कैमरे' की ओर जब-जब मुँह उठाए, अपने दाँतें निपोड़े,

अदाओं भरी अपनी-अपनी 'सेल्फ़ियों' में

या सामने किसी के हाथ में मुँह फाड़े कैमरे के आगे,

रोपते हुए किसी पौधे को या बस .. केवल थामे हुए,

अकेले या फिर किसी जनसमूह की भीड़ में 

पौधे पकड़े हुए किसी हाथ की कोहनी भर पकड़े हुए,

दावा या दिखावा करते हुए एक पर्यावरण प्रेमी होने के

बस यूँ तो हर एक पर्यावरण दिवस पे .. बस यूँ ही ...


या फिर यूँ कहें कि कभी-कभी तो नज़र हैं आते 

आप मानिंद एक मशहूर पुराने 'फ़िल्मी' गीत के,

इकबाल हुसैन उर्फ़ इकबाल अहमद मसऊदी 

उर्फ़ "हसरत जयपुरी" साहब के लिखे

"बदन पे सितारे लपेटे हुए" के तर्ज़ पे

स्वास्थ्यवर्द्धक व क़ीमती 'ग्रेन्स' चंद चिपके हुए,

आम मैदे या गेहूँ के आटे से बने 

किसी 'मल्टीग्रेन ब्रांडेड ब्रेड' के 

केवल ऊपर-ऊपर ही बदन पे .. शायद ...


साहिबान !!! ...

यूँ तो .. कोई नित्य है बन रहा हम में से 

और बना भी रहा नित्य ही कोई हम में से 

एक-दूसरे को वैशाखनंदन समय-समय पे।

वैसे भी भला .. अब बनाना है क्या ..

हम तो जन्मजात ही हैं 

वैशाखनंदन पैदा हुए .. शायद ...

अक़्सर .. तभी तो .. विज्ञापनों में

तमाम 'कम्पनियाँ' पुरुष 'अंडरगारमेंट्स' के,

'फिट' पहन कर 'हिट' होने के नुस्ख़े 

दिन-रात बतला-बतला के

बेचते हैं हमें नित्य उत्पाद अपने।

वैसे भी तो .. होता है शायद ..

पहनना कम ही जिन्हें,

उनके 'लोगो' उकेरे हुए 'अंडरगारमेंट्स' के, 

सीने और कमर के पास के,

आपकी 'सेल्फ़ियों' की तरह ही तो 

बस .. लोगों को दर्शन होते हैं कराने .. शायद ...



Thursday, April 28, 2022

आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले ... ( भाग - १).

करने वाली 'कम्पनी' विशेष कोई 

स्वयं के स्वदेशी होने के दावे,

और एक स्वास्थ्यवर्द्धक उत्पाद

सोया 'चिप्स' देने के वादे,

यूँ होते तो हैं जिनमें पर ...

छः प्रतिशत ही मात्र

स्वास्थ्यवर्द्धक सोयाबीन के आटे।

ऐसी ही किसी 'कम्पनी' विशेष के 

फूल कर कुप्पा हुए,

आधे से ज्यादा 'नाइट्रोजन गैस' से भरे,

रंगीन विज्ञापनों से सजे-धजे,

उन 'पिल्लो पाउचों' की मानिंद

बारहा नज़र आप भी तो हैं आते,

तमाम 'सोशल मीडिया' पर जब-जब 

तमाम बहुरंगी 'सेल्फियाँ' हैं अपनी बिखेरते,

कई सारे 'टैग्स' और 'कैप्शन्स' भरे,

करते हुए भव्य स्वघोषणा स्वयं के 

एक सभ्य समाजसेवी होने के,

चंद बच्चों को किसी 'स्लम एरिया' के 

चंद 'पैकेट्स' 'बिस्कुट' के बाँटते हुए 

या फिर कुछ उन्हीं में से 

या फिर सभी मैले-कुचैले 

गरीब बच्चों को पास बैठा के पुचकारते हुए 

बस ... 'ऑन' रहने तक सामने किसी 'कैमरे' के .. शायद ...









Sunday, April 24, 2022

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे ...


पाता होगा समझ जितना

विशुद्ध बांग्ला भाषी कोई,

ज्ञानपीठ मिले किसी भी 

कन्नड़ साहित्यकार की 

कोई कन्नड़ रचना

या विशुद्ध कन्नड़ भाषी भी

कोई बांग्ला रचना ;

साहिब ! .. शायद ...

पाते हैं समझ बस उतना ही

मूढ़ साक्षर या भोले निरक्षर सारे,

हों आपके आदेश या निर्देश 

या कोई ख़ास संदेश,

या फिर हों नारों वाले विज्ञापन सारे, 

गाँव-गाँव, शहर-शहर, 

हर तरफ, इधर-उधर ...

मसलन ... "स्वच्छ भारत अभियान" के .. शायद ...


ईंट की दीवारों की जगह

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे,

काश ! .. कुछ इस तरह 

हो पाते अंकित ये नारे

"स्वच्छ भारत अभियान" के।

पर .. इसकी ख़ातिर तो

होगा जगाना जन-जन को पहले,

और फिर शायद ... शाब्दिक 

"स्वच्छ भारत अभियान" से भी पहले,

अक्षर-ज्ञान हम जन-जन को दे लें।

काश ! ...

सफल हम मिलकर कर पाते पहले,

"साक्षर भारत अभियान" यहाँ पे।

सभी तभी तो समझ पाते,

आपकी संदेशों की बातें,

"स्वच्छ भारत अभियान" वाले .. शायद ...






.