Saturday, May 15, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ).

 ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों - "श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।  ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥" की तुलना में लगभग 14वीं सदी के अंत ( सन् 1398 ई ० ) से 15वीं सदी के अंत ( सन् 1494 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले कबीर जी की निम्नलिखित पंक्तियाँ -"आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर । इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर।" कुछ ज़्यादा ही और उतनी ही प्रासंगिक लगती हैं, जितनी वे तत्कालीन परिस्थितियों में रहीं होंगीं। साथ ही आशा है कि आने वाले कालखण्डों में भी रहेंगीं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है कि हम कह सकते हैं कि आज इतने अरसे बाद आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिकता की कसौटी पर कबीर जी .. तुलसीदास जी, सूरदास जी, कालिदास जी या फिर वाल्मिकी जी से ज़्यादा खरे उतरते हैं .. यानि ज़्यादा प्रासंगिक हैं। कबीर जी की इन विशेषताओं से सहमति के लिए हमारा नास्तिक या आस्तिक होना कोई आवश्यक शर्त वाली बात तो नहीं ही होनी चाहिए .. बस यूँ ही ...

कबीर जी द्वारा किए गए तत्कालीन मानवीय समाज के तीन वर्गों - राजा , रंक और फ़कीर - के वर्गीकरण तो आज भी उतने ही सत्य और सार्थक लगते हैं। आज के अफ़रातफ़री वाले माहौल में जिन्हें स्वयं या उनके बीमार रिश्तेदारों को आवश्यकतानुसार चिकित्सा संबंधी मूलभूत सुविधाएँ , मसलन - अस्पतालों में बिस्तर , ऑक्सीजन सिलिंडर , आई सी यू ( ICU) की सुविधा या वेंटिलेटर समय रहते मिल जा रहे हैं ; उन सभी को राजा और जो सुविधा ना मिलने पर भटक रहे हैं , वे सभी रंक .. और जिन्हें इन सब की जानकारी तक भी नहीं कि भटकना कहाँ है , गुहार कहाँ लगाना है , वे सारे के सारे बेचारे हैं कबीर जी के फ़कीर। इस प्रकार ऐसी कारुणिक परिस्थितियों में भी कबीर जी के तीन प्रकार वाले सामाजिक वर्गीकरण आज प्रासंगिक जान पड़ते हैं और दूसरी तरफ हमारा (?) वर्तमान संविधान का अनुच्छेद चौदह वाला समानता का अधिकार मानो मुँह चिढ़ाता-सा जान पड़ता है .. शायद ...
इन्हीं जद्दोजहद के बीच कुछ लोग "आये है तो जायेंगे" के तर्ज़ पर जब चले जाते हैं तो टेलीविजन के पर्दे पर विभिन्न समाचार चैनलों के द्वारा किसी के नाम , पद और तस्वीर के साथ-साथ किसी-किसी की जीवनी और जीवन भर की उपलब्धियों की भी चर्चा की जाती है। वे सब लोग भी हुए कबीर जी के मतानुसार आज के राजा और जिनकी मौत के बाद लाशों की गिनती सैकड़ों या हजारों वाले आंकड़ों में सिमट कर रह जाती है , वे सब हुए कबीर जी के रंक और कुछ बेबस-लाचार जिनकी मौत को सरकारी आंकड़ों के मार्फ़त समाचार चैनलों में जगह भी नहीं मिल पाती , वे सब बेचारे सारे के सारे हैं कबीर जी के फ़कीर .. शायद ...
वहीं तुलसीदास जी अपनी पँक्तियों - "श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।" के साथ तनिक भी वर्तमान की परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं लग रहे हैं। वैसे तो तत्कालीन सिंधु में तैरने वाले पत्थर का तो पता नहीं , पर आज के हालातों में दूर-दूर तक कोई तथाकथित श्रीयुक्त वीर किसी का तारणहार नहीं दिखता है। वैसे तो आज भी जो तैरते पत्थर दिखते हैं , वे सारे विशुद्ध पर सरल विज्ञान हैं , ना कि कोई चमत्कार। दूसरी तरफ़ ना ही कुम्भ मेला में तथाकथित मोक्षदायिनी स्नान की भीड़ की तरह समूह में भजन करने वाला या समूह में जुमा की नमाज़ पढ़ने वाला आज बुद्धिमान कहला रहा है और ना ही इन सब से इतर डॉक्टर, दवाई , परहेज़ या वैज्ञानिक चिकित्सिकिय उपकरण को भजने वाला यानि इस्तेमाल करने वाला मतिमंद कहला रहा है।
हुआ कुछ यूँ कि लगभग एक माह पहले मेरे कार्यालय में एक दिन एक सहकर्मी अपनी सर्दी-बुखार के लक्षण के कारण स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में स्वतः जाँच ( Antigen Covid Test ) करवाने पर कोरोना पॉजिटिव ( Corona Positive ) पाया गया। ( उन सभी बुद्धिजीवियों के हम अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं , जिन्हें इस तरह इस बतकही में पीछे भी और आगे भी धड़ल्ले से अंग्रेज़ी का प्रयोग किया जाना .. किसी तरह का घुसपैठ लगता हो या इस से उनकी संस्कृति हताहत होती हो या फिर मातृभाषा की तौहीन होती हो। कारण- अभी अपने दुर्बल-निर्बल शरीर में अवस्थित अवसादग्रस्त दिमाग़ पर जोर देकर हम ना तो इनका हिन्दी अनुवाद करने की स्थिति में हैं और ना ही गूगल पर खोजने के ) अगले ही दिन कार्यालय की तरफ से पटना के अच्छे जाँच केन्द्रों में से एक निजी जाँच केन्द्र से उपयुक्त कर्मचारियों को बुलवा कर कार्यालय-परिसर में ही हम सभी कार्यरत लोगों की जाँच ( RT-PCR Test = Real Time - Polymer Chain Reaction Test ) करवायी गयी , जिनकी रिपोर्ट नियमतः न्यूनतम चौबीस घन्टे बाद आनी थी। वैसे भी अपना मन आशंकित और भयभीत भी था , क्योंकि स्वयं को भी एक-दो दिनों से हल्का बुखार जैसा लग रहा था और सर्दी भी थी। इसके लिए Dolo 650 की गोली और Karvolplus का भाप ले रहे थे। इस जाँच ( RT-PCR Test ) के अगले दिन रविवार को या सोमवार तक रिपोर्ट आनी थी।
चूँकि इस जाँच के अगले दिन रविवार का दिन था , अतः सुबह की दिनचर्या निपटाते हुए नाश्ता कर के स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में टीका का पहला डोज़ लेने सुबह-सुबह सपत्नीक लगभग नौ-सवा नौ बजे पहुँच गए। वहाँ टीकाकरण के लिए आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी जमा कराने में कतार नदारद और धक्कामुक्की देख कर जमा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। एक घन्टे बाद कुछ भीड़ छंटने के बाद कुछ लोगों के साथ-साथ हम दोनों के आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी जमा की भी गईं तो ..  कुछ ही देर बाद ही बहुत ही गैरजिम्मेदाराना तरीक़े से बाद में जमा किए गए हमारे आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी , जिस पर हमारा मोबाइल नम्बर भी लिखा हुआ था , जैसी महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को उठा कर केन्द्र के बाहर एक तरफ लावारिस की तरह उछाल दिया गया ; यह बोल कर कि अब वैक्सीन ( Vaccine ) का डोज़ ( Dose ) समाप्त हो गया है। बहुत ही कठिनाई से उस लावारिस ढेर से हमने अपने आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी चुन कर निकाल ली। डर लगता है कि किसी ग़लत इंसान के हाथों लगने पर वह इसका दुरुपयोग ना कर ले कहीं। ऐसे में दिखा कि उसी स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर जाँच करवाने वालों की संख्या कम थी और स्वयं में एक-दो दिनों से सर्दी-बुखार के लक्षण के अलावा एक दिन पहले कराए गए जाँच ( RT-PCR Test ) की रिपोर्ट आने में नियमानुसार विलम्ब भी था। तो .. फ़ौरन वहाँ के नियमानुसार दो-दो रुपए में हम दोनों ने एक खिड़की पर अपना-अपना रजिस्ट्रेशन करवा कर अपने-अपने मिले हुए क्रमानुसार दूसरी अन्य खिड़की पर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे , जहाँ हमारी जाँच ( Antigen Covid Test ) होनी थी।
इस जाँच की रिपोर्ट त्वरित मिल जाती है , ठीक गर्भावस्था-जाँच वाले उपकरण ( Pregnancy Test Kit ) की तरह। हालांकि इसके भी कुछ परिसीमन हैं और नकारात्मक पक्ष भी। ख़ैर ! .. अपनी बारी आने पर जाँच के उपरांत सामने से जाँचकर्ता का ये कहना कि " आप कोरोना पॉजिटिव हैं .. बगल में खड़ा हो जाइए , अभी आपको इसके लिए कुछ दवा दे कर छोड़ दिया जाएगा। " एक बारगी तो यह वाक्य कि - " आप कोरोना पॉजिटिव हैं। " ... पूरे शरीर को झकझोर जाता है। एक बार तो दोनों पैर काँप जाते हैं। आसपास वालों के व्यवहार फ़ौरन बदल जाते हैं। उनके अपनी हिफ़ाजत के लिए बदलना भी चाहिए .. स्वाभाविक है .. पत्नी के भी .. शायद ...
थोड़ी देर में उस केंद्र का एक कर्मचारी बाहर आकर मेरा नाम पुकारता है और उसके समीप जाने पर
1) Paracetamol 500 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन।
2) Azithromycin 250 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन।
3) Ascorbic Acid 500 mg - 1 गोली × 1 बार × 10 दिन।
के हिसाब से उपर्युक्त दवाईयों की दस-दस गोलियों का एक-एक पत्ता के साथ कोरोना पॉजिटिव लिखा हुआ एक पर्चा ( Prescription ) मेरी फ़ैली हथेलियों पर टपका कर नसीहत देते हुए कहता है कि " दवा लेते हुए चौदह दिन होम क्वारंटाइन हो कर रहिए। " इस समय दवाईयाँ ग्रहण करते हुए किसी गुरूद्वारे में लंगर छकते समय किसी कारसेवक के हाथों से अपनी फ़ैली हथेलियों पर टपकी चपातियों की याद सहसा आ जाती है। बस .. एक अंतर लगा दोनों के टपकाने में .. वह थी श्रद्धा .. शायद ...
सरकारी कुछ भी हो , चीनी सामान की तरह एक आम अनुभूति बनी हुई है कि - " पता नहीं कैसा होगा !? "  .. मतलब सही या टिकाऊ नहीं होगा। ऐसा ही कुछ सोच कर स्थानीय उपलब्ध डॉक्टर से फ़ोन पर बात कर के उनके परामर्श के अनुसार निम्नलिखित दवाईयाँ दो दिनों के बाद बाज़ार से मँगवाने के बाद उपलब्ध हो पाने पर ( तब तक स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से दी गई दवाईयाँ ही लेता रहा ) निर्धारित समय पर खाना शुरू कर दिया :-
1) Zincovit - 1गोली × 2 बार × 30-40 दिन।
2) Limcee (Vitamin C) - 1 गोली × 2 बार × 30-40 दिन ( चूसना है ).
3) Calciquick- D3 (60K) (Vitamin D) - 1 कैप्सूल × 1 बार × 3 दिन।
4) Vermact 12 mg (Ivermectin-12 mg) - 1 गोली × 1 बार × 3 दिन।
5) Azithral 500 mg - 1 गोली × 1बार × 5 दिन।
6) Montek LC - 1 गोली × 1 बार (रात में) ×10 दिन।
7) Dolo 650 mg - 1 गोली × 2 बार (बुख़ार रहने पर)।
8) Bro-Zedex SF (Cough Syrup) - 1 बड़ा चम्मच × 3 बार × 10 दिन ( या खाँसी ठीक होने तक)।
गाँव -घर में बुज़ुर्ग लोग अक़्सर किसी विशेष बीमारी में सलाह देते हुए सुने जा सकते हैं कि " दवा-दारू के साथ-साथ झाड़-फूँक , ओझा-गुनी या गंडा-ताबीज़ करवाने में हर्ज़ ही क्या है भला ! " .. यानि ये सब भी करवाना चाहिए। इस से बीमार के ठीक होने की कोई भी वज़ह अधूरी नहीं रहती। ख़ैर ! ... हम इन सब की तरफ़दारी नहीं कर रहे या हमने ऐसा कुछ किया भी नहीं या फिर इन सब के बारे में सोचते तक भी नहीं हैं , बल्कि यह बतलाना चाह रहे हैं कि उपर्युक्त अंग्रेज़ी दवाओं  ( Allopathic Medicine ) के साथ-साथ होम्योपैथिक दवा ( Homeopathic Medicine ) :-
1) Arsenic 200 = एक दिन बीच कर के सुबह में 3 बूँद लेने का भी परामर्श मिला। जिसे ली भी और आज तक ले भी रहे हैं।
साथ ही कुछ आयुर्वेदिक दवाएँ  भी ली -
1) कोरोनिल किट - (अ) दिव्य श्वासारि वटी - 2 गोली × 3 बार (नाश्ता-खाना से आधा घण्टा पहले)।
                        (ब) दिव्य कोरोनिल गोली - 2 गोली × 3 बार (नाश्ता-खाना से आधा घण्टा बाद)।
                         (स) दिव्य अणु तैल - 4-4 बूँद दोनों नासिकाओं में × एक बार (नाश्ता के एक घण्टा पहले)।
साथ ही अपनी मधुमेह से सम्बंधित दवाईयाँ पहले की तरह ही लेता रहा। चूँकि इस हाल में मधुमेह बढ़ जाता है , जिनको यह बीमारी नहीं है उनका भी ; तो अतिरिक्त में इन्सुलिन का डोज़ भी ले रहा हूँ , ताकि मधुमेह ( Diabetes ) नियंत्रण में रहे।                       
इन सब के बावज़ूद 20-25 दिनों में भी श्लेष्मा ( बलग़म ) की समस्या नहीं हल हो पायी तो डॉक्टर की दूरभाषी सलाह के आधार पर अंग्रेज़ी दवा -
1) Doxycycline 100 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन तक खाया। साथ ही आयुर्वेदिक दवाइयाँ -
1) कंठामृत - 2 गोली × 2 बार (चूसना है) × 15 दिन।
2) त्रिकुटा चूर्ण - 3 बार (मधु के साथ) × 10 दिन।
3) श्वासारि गोल्ड - 2 गोली × 2 बार × 10 दिन तक लिया। वैसे तो मधुमेह के कारण हम मधु की जगह शुगर फ्री कफ़ सिरप के साथ ही त्रिकुटा चूर्ण लेते रहे। हाँ .. एक बात और .. इन दवाओं के बाद मधुमेह अचानक ज़्यादा बढ़ गया तो कंठामृत की गोलियाँ बन्द करनी पड़ी , क्योंकि पता चला कि इसकी 545 मिलीग्राम की एक गोली में 380 मिलीग्राम तक गन्ने का रस यानि मिठास होता है।
अपने घर पर पहले से ही ब्लड प्रेशर मॉनिटर ( Blood Pressure Monitor ) ,  डिजिटल तोलनयंत्र  ( Digital Weighing Machine ) , डिजिटल थर्मामीटर ( Digital Thermometer ) और शुगर टेस्टिंग मशीन ( Sugar Testing Machine ) जैसे उपकरण उपलब्ध होने के बावज़ूद डॉक्टर की सलाह पर तीन नए उपकरण वेपोराइज़र ( Vaporizer ) , डिजिटल इन्फ्रारेड थर्मामीटर ( Digital Infrared Thermometer ) और पल्स ऑक्सीमीटर ( Pulse Oximeter) खरीदवा कर बाज़ार से मँगवाना पड़ा। सबसे ज़्यादा राहत वाली बात ये रही कि 4- 5 दिनों के बाद पल्स ऑक्सीमीटर उपलब्ध होने पर उस की रीडिंग शुरू दिन से ही 98-99 आती रही। मतलब शरीर में ऑक्सीजन का स्तर ठीक-ठाक रहा। हालांकि कोरोनाकाल से बहुत पहले से ही सामान्य सर्दी-जुक़ाम होने पर किसी पतीले में पानी गर्म कर के उसमें Karvolplus का कैप्सूल डाल चादर ओढ़ कर भाप लिया करता था। पर अभी बार-बार पतीले में पानी गर्म करने और मेरे पास में लाने और पास से ले जाने के क्रम में संक्रमण रसोई घर तक या अन्य में फैलने का भय था , इसीलिए बिजली से चलने वाला वेपोराइज़र अलग से मंगवाना पड़ा। गत माह अप्रैल के पहले सप्ताह तक इनकी कीमत उतनी मँहगी नहीं हुई थी , जितनी बाद के दिनों में हुई। फिर भी आम दिनों के बाज़ारों में रु. 500 -700 में उपलब्ध पल्स ऑक्सीमीटर , जो अब तक इलाज के दौरान डॉक्टरों के मेज़ों पर नज़र आती थी , उस दिन रु. 1200 में मिल पायी थी। बाद में तो रु. 4000 तक में भी बाज़ार में उपलब्ध नहीं हो पा रहा था या है।
यहाँ भी अर्थशास्त्र के माँग और पूर्ति पर आधारित मूल्य निर्धारण वाले सिद्धांत का असर दिख रहा है। इन दिनों से एक और सबक़ मिला कि अगर हम सक्षम हैं और सम्भव हो तो उपर्युक्त सारे उपकरणों का दो सेट घर में रखना चाहिए , ताकि अगर घर-परिवार का कोई एक सदस्य कोरोनाग्रस्त ( वैसे तो क़ुदरत ना करे कि किसी के साथ ऐसा हो ) होता है तो एक सेट वह बीमार इस्तेमाल करेगा और दूसरे को परिवार के अन्य सदस्य। इस से संक्रमण फ़ैलने का ख़तरा ना के बराबर रहेगा। वैसे तो जानकारों का कहना है कि घर में अगर एक सदस्य भी कोरोनाग्रस्त है और गृह-अलगाव ( Home Isolation ) में है , तो घर के अन्य सदस्यों को भी स्वयं को कोरोनाग्रस्त मान लेना चाहिए। सारा दिन बीमार की तरह मास्क लगा कर ही घर में भी रहना चाहिए। दो मीटर की दूरी भी बना कर रखनी चाहिए। सारे एहतियात के बावजूद भी हमारे बीमार होने के सप्ताह दिन में ही पत्नी और बेटे में भी खाँसी-बुखार के लक्षण दिखायी देने लगे। फिर डॉक्टर की सलाह पर स्वयं द्वारा आरम्भ में खायी गई उपर्युक्त सारी अंग्रेज़ी दवाईयाँ उन दोनों को भी खिलाया। दवा खाने के बाद में वैसे वो दोनों जाँच में कोरोना निगेटिव पाए गए।
इन दिनों प्रतिदिन की अपनी दिनचर्या बन जाती है .. सारे चिकित्सीय उपकरणों से नियत समय पर जाँच कर-कर के उनके मापों को एक पुरानी डायरी में नोट करना , नियत समय पर भाप लेना , काढ़ा पीना और सारी दवाईयाँ लेना। भाप लेने के लिए वेपोराइज़र में -
1) Karvolplus - वेपोराइज़र का पानी बदलने पर हर बार एक कैप्सूल डाल कर भाप लेने के लिए कहा गया था।
गरारे के लिए गर्म पानी में कभी हल्दी- नमक डालकर तो कभी
1) Betadine - कुछ बूँदें मिला कर प्रतिदिन कम से कम दो बार गरारे करने की राय दी गई थी।
इन सब के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण सलाह यह थी कि जब भी पीना है , तो गुनगुना पानी ही पीना है। कोई ठण्डा पेय पदार्थ या खाद्य पदार्थ तो सोचना भी गुनाह है। और हाँ .. रात में हल्दी डाला हुआ सुसुम-सुसुम ( गुनगुना ) दूध फूँक-फूँक कर पीना भी दिनचर्या में शामिल हो गया है। साथ ही प्रतिदिन सुबह में ओंकारा , कपालभाति , अनुलोम-विलोम , भस्त्रिका , उज्जायी , भ्रामरी जैसे साँस और फेफड़े से सम्बंधित योगाभ्यास की राय पर जहाँ तक अमल करने की बात है , तो वह तो पहले से ही दिनचर्या में शामिल है।
आज इस " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में दुखड़ा वाली बकैती कुछ ज्यादा ही हो गयी है। अब इससे आगे " ( भाग-३ ) " में कुछ और बतकही और .. उस के बाद " ( भाग-४ ) "  में लगभग एक महीने से ज्यादा समयान्तराल में अपने अवसादग्रस्त मन में पनपी अपनी एक मात्र रचना (?) ( शायद कविता )- " प्रिया संग मानसिक संवाद ... " के साथ मिलते हैं। इसके शीर्षक से जो भी अनुमान हो रहा हो परन्तु अब ऐसे माहौल और ऐसी मानसिक-शारीरिक परिस्थितियों में कोई रूमानी रचना तो दिमाग़ में खदबदाने से रही .. शायद ...  फ़िलहाल तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के तहत थोड़ा आराम कर के अपने कमजोर-थके शरीर को थोड़ी ऊर्जा प्रदान कर लूँ .. बस यूँ ही ...




Wednesday, May 12, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-१ ).

बचपन में प्रायः या आज भी कभी-कभार चूहे-बिल्लियों या चूज़े-बाज़ों के बीच अलग-अलग तरह के झपट्टों पर संयोगवश हमारी निगाहें पड़ ही जाती हैं। ऐसे में कई बार तो शिकारी बिल्लियाँ या बाज़ें बाज़ी मार जाते हैं , पर .. कई बार तो चूहे या चूज़े विशुद्ध प्राकृतिक संयोगवश या फिर अपनी फुर्ती या स्फूर्ति के कारण शिकार होने से बच भी जाते हैं। उन के बच जाने को अक़्सर हम उस बच पाने वाले प्राणी की क़िस्मत कह देते हैं या फिर अपने-अपने धर्मों के अनुसार तयशुदा इष्ट देवी-देवता की कृपा का नाम देने में भी तनिक हिचक नहीं महसूस करते हैं .. शायद ...

इन्हीं तरह के झपट्टों से उन बच गए चूहों या चूज़ों जैसे ही कुछ-कुछ इन दिनों स्वयं में लगने लगता है , जब हम इस कोरोनकाल की दूसरी लहर वाले कालखंड में कोरोनाग्रस्त होने के बाद भी या तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही घर-परिवार वालों के साथ रह कर भी दूर रहते हुए किसी यथोचित डॉक्टर की दूरभाषी परामर्श पर यथोचित दवा लेकर और आवश्यक निर्देशों का पालन करते हुए या फिर आवश्यकतानुसार किसी अस्पताल में उचित इलाज करवाने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं।

स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही, अपने परिवार के साथ भी और दूर भी, एकांतवास में लगभग 15 से लेकर 40 दिनों तक रहने पर कई-कई तरह के चरित्रों का वास अपने मन में घर करने लगता है। इन दिनों में हर बार अपने खाए-पीए नाश्ता-चाय ( वैसे चाय कम, काढ़े ज़्यादा ) या भोजन खाने के बाद वाले स्वयं के जूठे बर्त्तनों को मल-धो कर अलग नियत स्थान पर रखते हुए .. प्रतिदिन अपने अन्तर्वस्त्र जैसे कपड़े या तीन-चार दिनों पर अपने अलग वाले बिस्तर के चादर और तकिया खोल धोते हुए ( प्रायः जिसकी आदत शादी के , वो भी पच्चीस-छ्ब्बीस साल बाद , जो पूरी तरह छूट चुकी होती है ) .. चाय-नाश्ता या खाने के समय पर निर्धारित दूरी पर थाली-कटोरे रख कर वहाँ से दूर हटने के बाद एक खास दूरी से परोसे गए नहीं, बल्कि यूँ कहिए साहिब कि .. ऊपर से टपकाए गए भोजन को थाली-कटोरे में लेकर लक्ष्मण-रेखा के तर्ज़ पर बनी अपनी सीता-रेखा के भीतर जाकर दुर्बल व कमजोर कौर को मुँह डालते हुए कभी लगता है कि हम किसी छात्रावास के विद्यार्थी हैं तो .. कभी लगता है कि किसी कारागार के कैदी हैं। और तो और कभी-कभी तो वह दर्द भी महसूस होता है , जिसे समाज में हमारे पुरखों द्वारा पहले या कहीं-कहीं तो आज भी तथाकथित अस्पृश्य जातियों के साथ व्यवहार किया जाता है। कभी-कभी तो यदाकदा पढ़ी गई मोहनदास करमचंद गाँधी जी की ख़ुद से अपने शौचालय की सफ़ाई करने वाली दिनचर्या का प्रायोगिक ज्ञान मिलने का भी भान होता है। सच कहूँ तो कभी-कभी किसी कोढ़ग्रस्त आबादी वाले बसे किसी अम्बेदकर नगर के निवासी होने जैसा एहसास कराने से भी नहीं चूकते ये हालात .. बस यूँ ही ...
आरम्भ के लगभग सप्ताह भर तो इंसान स्वयं के वश में ही नहीं रह पाता। कमजोरी और नींद के आग़ोश में पता ही नहीं चलता कि एक-एक कर दिन कैसे निकलता जा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि नींद ऐसे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक भी है। इन्हीं दिनों में कई खोखले रिश्तों की तरह गंध और स्वाद के एहसास भी चुपके से साथ छोड़ जाते हैं। दुनिया ही बेरंग नज़र आने लगती है। ना गंध, ना स्वाद, ना रंग - ऐसे में अपनी कई भूल चुके दिनचर्या को स्वयं से निपटाना , मानो नीम-कड़ैले वाली बात को चरितार्थ करता जान पड़ता है। काढ़ा, भाप, गरारा, जाँच, दवा, मास्क, परहेज़ और बिस्तर में सिमटा-सा लगने लगता है सारा जीवन .. शायद ...
इसी दौरान अगर किसी अपने या जान-पहचान वालों को फ़ोन पर ( उनके फ़ोन आने पर या स्वयं की ओर से उनको करने पर ) इस कोरोनकाल में स्वयं के कोरोनाग्रस्त होने की बात बतलाने और उनका हालचाल पूछे जाने पर जब उधर से उत्तर मिलता है कि " हम लोग तो अल्लाह ताला ( अल्लाह त आला ) के रहम-ओ-करम से ठीक हैं। ", " हम सभी सपरिवार साईं की कृपा से सुरक्षित हैं। ", " हम सब पर माता रानी की कृपा है। " , " महाकाल की मेहरबानी।" .. इत्यादि-इत्यादि ; तो अपने-आप में ग्लानि महसूस होने लगती है कि हम कितने बड़े पापी हैं , जो हम या हमारा परिवार इन सब कृपा, रहम-ओ-करम, मेहरबानी से वंचित रह गया और हम नासपीटे लोग कोरोनाग्रस्त हो गए। मजे की बात तो ये है कि इन सारे दूरभाषी वार्तालापों में यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि इन भद्रजनों में से कौन-कौन से लोग औपचारिक वार्तालाप कर रहे हैं या फिर कौन लोग सहानुभूतिवश बात कर रहे हैं या फिर कोई एक भी समानुभूति से लबरेज़ है भी या नहीं .. बस यूँ ही ...
आज ऐसी परिस्थितियों में कोरोनाग्रस्त हो कर बिस्तर पर पड़े-पड़े अनायास जो मन में चलने लगता है कि अगर मेरे साथ भी कुछ अनिष्ट घट गया तो ... यह काम अधूरा रह जाएगा , वह काम अधूरा रह जाएगा, फलां-फलां कविता अधूरी रह गईं है , एक-दो कहानी के कथानक अपरिष्कृत ही रह गए है , एक फलां उपन्यास भी तो लिखना था। क्या पता .. अभी वाली रचना ही आख़िरी रचना हो .. शायद ...  मालूम नहीं ये भी पूर्ण होकर सोशल मीडिया पर पोस्ट हो भी पाएगी या नहीं .. रिश्ते या जान-पहचान वालों में से काश ! .. फलां की शादी देख भर लेते या फलां के एक संतान आ जाने पर देख भर लेने की लालसा .. पर ऐसी सारी ही परिस्थितियां आज से पाँच-दस-बीस साल बाद भी तो .. जब कभी भी मरने के समय मन में चलने वाली है .. शायद ... वास्तव में सोचा-समझा जाए तो आज ना कल, कभी ना कभी तो इस नश्वर शरीर से खोखले नातों की तरह पृथक् होना ही है हमको। मेरा तो यह मानना है कि हमारे ऊपर अगर कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित नहीं है तो .. हमें हमारे जीवन से बहुत ज्यादा मोह नहीं होना चाहिए। पर .. ऐसे समय में अगर एक मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा का एक लोकप्रिय संवाद - " थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। " के तर्ज़ पर कुछ बोलने की हिमाक़त करूँ तो यह कह सकता हूँ कि - " मरने से डर नहीं लगता साहब, कोरोना से मरने पर हमारी आख़िरी इच्छानुसार हमारा अंगदान या देहदान नहीं हो पाएगा .. इस कारण से लगता है। " .. बस यूँ ही ...
बचपन से ही जो-जो काम आलस और उलझन भरा लगता हो , मसलन - सर्दी-खाँसी होने पर गरारा करना और रात में सोते वक्त बिस्तर पर आवश्यकतानुसार मच्छरदानी लगाना , वो सारा काम भी करना पड़ता है। वह भी तब .. जब कि शरीर में ऊर्जा लेशमात्र भी ना हो। चूँकि बीमार को फेफड़े से सम्बन्धित संक्रमण होता है तो ऐसे में मच्छर भगाने की कोई तरल या ठोस रासायनिक पदार्थों को जलाना या सुलगाना नुकसानदेह हो सकता है , तो मन मार कर रोज रात में अपने अलग वाले बिस्तर पर मच्छरदानी टाँगनी ही पड़ती है। आम दिनों में शौचालय-सह-स्नानागार की छत की तरफ ध्यान कम ही जाता है। कारण- जल्दबाज़ी रहती है .. जो भी काम है उसे निपटा कर जल्दी बाहर निकल आने की। कभी-कभार दिमाग में कोई रचना पक रही हो तो अलग बात होती है। भीतर समय का पता ही नहीं चलता कि कब समय तेजी से निकल गया। पर समय तो हमेशा अपनी गति से ही चलता है .. बाहर आ कर घड़ी देखने पर पता चलता है कि छः बजे अंदर गए थे और निकलते-निकलते सात बज गए। ख़ैर ! ये तो आम दिनों की दिनचर्या होती है। पर इन दिनों में दो से तीन बार प्रतिदिन गरारा करने के कारण अपने लिए तयशुदा पृथक शौचालय-सह-स्नानागार में जाकर गरारा करते वक्त जितनी देर मुँह ऊपर की ओर और आँखें छत पर जाती हैं , तो कमरे के छत की अमूमन समतल बनावट के बदले दो परतों वाली बनावट ( छत का कुछ अंश नीचे की ओर और कुछ अंश ऊपर की ओर ) देख कर एहसास होता है कि इसके ठीक ऊपर में , मेरे सिर के ऊपर , ऊपर वाले तल्ले वालों का शौचालय-सह-स्नानागार होगा और "होगा" वाला अनुमान भर ही नहीं होता , बल्कि सच में होता भी है सारी की सारी बहुमंजिली इमारतों में। ऐसे में लगता है कि हमारे सिर पर ही कोई ... .. धत् ! .. ऐसी विपदा की घड़ी में भी ना जाने क्या-क्या विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहते हैं बावलों की तरह ...
ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों -
"श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
  ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥"

की तुलना में .....  अब आगे की बातें " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में करते हैं। आज बहुत हो गई बतकही। उँगलियों संग तन-मन दोनों थक चुके हैं। अब स्वतः संगरोध में तनिक बिस्तर पर विश्राम कर लें .. बस यूँ ही ....



Monday, April 12, 2021

मन भी दिगम्बर किया जाए ...

यूँ तो 10 फ़रवरी' 2021 को अपने इसी ब्लॉग पर "रिश्ते यहाँ अक़्सर ..." शीर्षक के अन्तर्गत अपनी बतकही/रचनाओं से पहले आज अभी अपने कर रहे इस बकबक की तरह ही ठीक उस दिन के भी बकबक के तहत .. पढ़ाई के कोर्स/पाठ्यक्रम (Course) को भोजन की भी तीन कोर्सों - स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ), मेन कोर्स (Main Course ) और डेज़र्ट (Dessert) से जोड़ने की कोशिश भर की थी .. बस यूँ ही ...

वो मेरी बकबक अभी भी कहीं याद हो आपको .. शायद ... ना भी हो तो कोई बात नहीं। फ़ुर्सत मिले कभी तो याद कीजियेगा या फिर एक बार झाँक ही आइएगा उस पोस्ट को। फ़िलहाल आज के मुद्दे पर आते हैं और आज की अपनी तीनों रचनाओं (?) में से पहली (१) "स्टार्टर" के तौर पर, दूसरी (२) "मेन कोर्स" और फिर तीसरी को (३) "डेज़र्ट" के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ... :)

(१)
सर्द-अँधेरी रात से तुम्हारा
हो जाए कभी जो सामना,
आना मेरी जलती चिता तक
तपिश भी मिलेगी और ..
रोशनी भी यहाँ .. बस यूँ ही ...


(२) मन भी दिगम्बर किया जाए ...

लाख हैं मुखौटे मुखड़ों पर, तन पर तंतु के ताने-बाने,
मिलो जो एक शाम तो, मन को दिगम्बर किया जाए।

हवा ही तान चुकी है खंज़र, बंजर हो गई हों जब सोचें,
बतलाओ तुम ही जरा, कैसे जीवन बसर किया जाए।

मर के स्वर्ग मिलने के तो दिखाए अक़्सर सपने सबने,
सब्र नहीं इतनी, धरती को ही आज अंबर किया जाए।

पद, पैसे, पत्थरों को तो यूँ आए हैं हम सदियों पूजते,
कभी तो मज़दूरों, किसानों को भी आदर दिया जाए।

यूँ कोख़ के क़ैदी, कभी धरती के उम्रक़ैदी हैं हम सारे,
अमन हो जमाने में, मसीहे को रिहा अगर किया जाए।

कहते हैं लोग, पर जाने कब-कैसी ज़हर पी होगी "उसने",
आता तो जानता, कैसे पी के मौजूदा ज़हर जिया जाए।

गाए हैं यूँ कई बार-"हम होंगें कामयाब, एक दिन" हमने,
उम्र बीती .. रीती नहीं, कामयाबी का सबर किया जाए।

पाए गए हैं आज हम जो "कोरोना पॉजिटिव" जाँच में,
कमरे में अपने, अपनों को भी कैसे अंदर लिया जाए।

तन दिगम्बर होते हैं अक़्सर खजुराहो सरीखे बस यूँ ही ...
रूमानी रातों में, कभी तो मन भी दिगम्बर किया जाए।

(३)
'हुआँ-हुआँ' की नगरी,
ऊहापोह की गठरी है।
सब की अपनी-अपनी,
संग साँसों की गगरी है .. शायद ...

और आज चलते-चलते अपने मन के काफी क़रीब, स्वयं के बारे में बयान करती हुई बहुत अरसे पहले लिखी गई चंद पंक्तियाँ, जिसे मैं अक़्सर दोहराता हूँ .. उन्हें आज एक बार फिर दोहराने का मन कर रहा है .. बस यूँ ही ...

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा ...







 


Wednesday, April 7, 2021

बस्ती में बच्चों को ...

यूँ पंछियों को निहारता घंटों, है सहलाता लावारिस पशुओं को भी,
पर सिर झुकाता नहीं 'मूक' के आगे,समझते हैं सब उसे सिरफिरा।

करता रहता है अक़्सर वह बातें अपने मरने पर देहदान करने की,
कहते हैं सब कि मर कर भी करेगा ब्रह्मभोज का मजा किरकिरा।

जाता है कबाड़ी ले के मुहल्ले से अक़्सर खाली बोतलें शराब की,
कहते हैं पर लोग कि.. प्रदेश में अपने क़ानूनन अपराध है मदिरा।

सन् 1947 ईस्वी हो या फिर ए. के. 47, ये जो 47 है ना साहिब!
अक़्सर ही सजाता रहा है मौत और मातम का बेहिसाब ज़खीरा।

यूँ तो मुखौटों में रसूखदार हैं कई, कोई पारदर्शी शक्ल में अकेला,
किसी कव्वाली में बजाता ही कौन है भला कभी भी यहाँ मंजीरा।

नवाज़े जाते हैं नाजायज़ रिश्ते के नाम से हरेक वो रिश्ते आज यहाँ,
पाती हैं जिनके लिए दुनिया में मान अक़्सर, राधा हो या फिर मीरा।

समझ पाते नेक इंसानों को तो खोजते नहीं मूक मूर्तियों में मसीहा,
मानो 'पैलेडियम' को जाने बिन,बेशकीमती लगा हमें सदा ही हीरा।

हर दिन वेश्याओं की बस्ती में बच्चों को पढ़ाने जाना भूलता नहीं,
समझते रहें लाख उसे शहर वाले भले ही आदमी निहायत गिरा।


{ 'पैलेडियम' (Palladium) = सर्वविदित है कि अब तक आवर्त सारणी (Periodic Table) में 118 तत्वों (Elements) को स्थान मिल चुका है ; जिनमें 'पैलेडियम' दुनिया में अब तक की वैज्ञानिक खोज या जानकारी के अनुसार - विश्व की सबसे क़ीमती धातु है। जिसकी ख़ोज अंग्रेज रसायनज्ञ विलियम हैड वल्लस्टन (William Hyde Wollaston) ने सन् 1803 ईस्वी में की थी। }




Saturday, April 3, 2021

रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी ...

लौट रहीं थीं इसी साल आठ मार्च को 

तीन षोडशी सहेलियाँ देर रात,

अपने-अपने घर करती हुई हँसी-ठिठोली 

और करती हुई आपस में कुछ-कुछ बात,

मनाए गए उस रोज अपने ही कॉलेज में 

देर रात तक "महिला दिवस" के 

उत्सव की सारी बातें कर-कर के याद।

रामलीला पर आधारित हुई थी 

एक नृत्य-नाटिका भी जिसमें,

जिसमें इन तीनों में से एक सहेली 

लौटी थी कर अभिनय माता सीता की

और थी बनी दूसरी कार्यक्रम के आरम्भ में 

हुई सरस्वती-वंदना की माँ सरस्वती।

फिर बाद जिस के हुए राष्ट्रीय गान के दौरान

मंच पर तिरंगा लिए भारत माता बनी थी तीसरी ...


तीनों षोडशी सहेलियाँ एक ही मुहल्ले की, 

मुहल्ले के पास अपने-अपने घर की ओर 

थीं जा रही सार्वजनिक परिवहन से 

उतर कर पैदल एक साथ ही।

बहती फगुनाहट वाली हवा में बासंती मौसम की 

एक पंडाल के नीचे हो रहे जगराते के कानफाड़ू

शोर के सिवा सारी गलियाँ मुहल्ले की वीरान थीं।

सिवा उस पंडाल के चहल-पहल के निर्जन थी 

कृष्ण-पक्ष की वह काली रात भी .. तभी ..

तथाकथित मर्दानगी का दंभ भरने वाले 

चंद लोग पोटली ढोए साथ अपने शुक्राणुओं की,

ढूंढते हुए बहाने के बहाने अनगिनत घिनौने

शुक्राणुओं के परनाले अपने जैसे ही,

बस .. टूट पड़े पा कर मौका उन तीनों पर 

दिए बिना मौका उन्हें वो सारे दरिन्दे अज्ञात ...


कर दिए मुँह तीनों के बन्द लगा कर अपने मज़बूत हाथ,

धर दबोचा तीनों को सबने मिल कर अकस्मात .. 

अब भला ... जज़्बात की 

ऐसे में क्या होती भला औक़ात ...

उन लफ़ंगों से चिरौरी करती उन तीनों की 

घुंट गई चीखें भी लाउडस्पीकर की बनी श्रृंखलाओं से 

गूँजती कानफाड़ू शोर में जगराते की।

क्षत-विक्षत कर दिए गए कपड़ों में क्षत-विक्षत

शीलहरण हो चुकी रक्तरंजीत देह थी पड़ी तीनों की।

तुलसीदास की उस किताबी सीता से इतर थी

शैतानों के चंगुल में कसमसाती माता सीता।

पास ही दर्द से थी तड़पती अभी भी बनी हुई

सरस्वती-वंदना वाले लिबास में ही सरस्वती माता,

जो रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी उस दिन सुबह से ही 

थी झेल रही अपने माहवारी की और ...


और भी अब नहा गयी थी रक्त में अपने ही मानो ..

अपने ही रक्त में रक्तरंजित बलि या क़ुर्बानी के 

छटपटाते किसी बकरे की जैसी।

दर्द से कराहती, बेहोशी में कुछ बुदबुदाती,

मुट्ठी में अपनी अभी भी थी जकड़ी तह लगा  

तिरंगा राष्ट्रीय गान वाली वह भारत माता।

ज़बरन छीन कर फिर उसी तिरंगे से 

पोंछा था पापों को बारी-बारी अपने-अपने 

हैवानियत की हर हदों की भी हदें पार करते दरिंदों ने।

पर उन षोडशियों को बचाने ना आए अंत तक

कोई सतयुग के राम, ना त्रेतायुग, ना द्वापरयुग और ... 

ना ही कोई कलियुग के राम।

होता रहा, हो गया, बेदाम ही नीलाम उनका एहतराम,

ना आना था और ना ही आए बचाने 

उस दिन के रामलीला वाले भी राम .. शायद ...




Saturday, March 27, 2021

सुलग रही है विधवा ...

गहनों से सजानी थी उसे जो अगर अपनी दुकानें,

तो खरा सोना पास अपने यूँ भला रखता क्योंकर?


सकारे ही तोड़े गए सारे फूल, चंद पत्थरों के लिए,

बाग़ीचा सारा, सारा दिन यूँ भला महकता क्योंकर?


रक़ीब को लगी है इसी महीने जो सरकारी नौकरी,

तो सनम, संग बेरोज़गार के यूँ भला रहता क्योंकर?


गया था सुलझाने जो जाति-धर्म के मसले नासमझ,

तो शहर के मज़हबी दंगे में यूँ भला बचता क्योंकर?


रोका है नदियों को तो बाँध ने बिजली की ख़ातिर पर,

है ये जो सैलाब आँखों का, यूँ भला ठहरता क्योंकर?


बिचड़ा बन ना पाया, जब जिस धान को उबाला गया,

आरक्षण न था, ज्ञानवान आगे यूँ भला बढ़ता क्योंकर?


अब पहुँचने ही वाला है गाँव ताबूत तिरंगे में लिपटा,

सुलग रही है विधवा, चूल्हा यूँ भला जलता क्योंकर?


नाम था पूरे शहर में, वो कामयाब कलाबाज़ जो था,

रस्सियाँ कुतरते रहे चूहे, यूँ भला संभलता क्योंकर?


व्यापारी तो था नामचीन, पर दुकान खोली रोली की

पास गिरजाघर के, व्यापार यूँ भला चलता क्योंकर?


रंग-ओ-सूरत से जानते हैं लोग इंसानों को जहां में, 

मन फिर किसी का कोई यूँ भला परखता क्योंकर?



Wednesday, March 24, 2021

दास्तानें आपके दस्ताने की ...

पापा ! ...

वर्षों पहले तर्ज़ पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के 

आपके सुपुर्द-ए-राख होने पर भी,

आज भी वर्षों बाद जब कभी भी

फिनाईल की गोलियों के या फिर कभी 

सराबोर सुगंध में 'ओडोनिल' के,

निकाले गए दीवान या ट्रंक से साल दर साल

कुछ दिनों के लिए ही सही पर हर साल 

कनकनी वाली शीतलहरी के दिनों में,

दिन में आपके ऊनी पुराने दस्ताने और

सोते वक्त रात में पुरानी ऊनी जुराबें

पहनता हूँ जब कभी भी तो मुझे

इनकी गरमाहट यादों-सी आपकी आज भी

मानो सौगात लगती हैं ठिठुरती सर्दियों में।


पर पापा अक़्सर ..

होती है ऊहापोह-सी भी हर बार कि 

मेरे रगों तक पहुँचने वाली 

ये मखमली गरमाहट उन ऊनी पुरानी 

जुराबों या दस्ताने के हैं या फिर 

है उष्णता संचित उनमें आपके बदन की।

मानो कभी छुटपन में दस्ताने में दुबकी

आपकी जिस उष्ण तर्जनी को लपेट कर 

अपनी नन्हीं उँगलियों से लांघे थे हमने

अपने नन्हें-नन्हें नर्म पगों वाले छोटे-छोटे

डगमगाते डगों से क्षेत्रफल अपने घर के

कमरे , आँगन और बरामदे के, जहाँ कहती हैं ..

स्नेह-उष्णता की आपकी कई सारी दास्तानें, 

आज भी आपकी पुरानी जुराबें और दस्ताने .. बस यूँ ही ...