Sunday, January 17, 2021

हम हो रहे ग़ाफ़िल ...


अब तथाकथित खरमास खत्म हो चुका है। पुरखों के कथनानुसार ही सही, आज भी बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि खरमास में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। अब पुरखों की बात तो माननी ही होगी, नहीं तो पाप लगेगा। ख़ैर ! ... बुद्धिजीवियों के हुजूम के रहते पाप-पुण्य तय करने वाले हम होते कौन हैं भला ? उनकी और पुरखों की बातें आँख मूँद कर मान लेने में ही अपनी भलाई है। नहीं तो अपना अनिष्ट हो जाएगा। तो इसीलिए हमने भी खरमास में लिखना बंद कर दिया था। अब लिखने से भी ज्यादा शुभ कार्य कोई हो सकता है क्या भला ? नहीं न ? पर .. अब सोच रहा हूँ कि खरमास ख़त्म, तो लिखने में कोई हर्ज़ नहीं होनी चाहिए  .. शायद ...

हम भले ही तथाकथित बड़ा आदमी बनने की फ़िराक़ में अपने-अपने स्कूल-कॉलेजों या कोचिंगों में अंक प्राप्ति का लक्ष्य लिए हुए अध्ययन किए गए विज्ञान-भूगोल की सारी बातें ... मसलन- सूरज आग का गोला है और सूरज के साथ-साथ धनु रेखा, मकर रेखा, कर्क रेखा, उत्तरायण, दक्षिणायन जैसे विषय को भूल कर तथाकथित स्वर्ग में स्थान-आरक्षण कराने वाले तोंदिले तिलकधारी यात्रा-अभिकर्ता (Travel Agent) द्वारा किये गए मार्गदर्शन से प्रेरित हो कर हम आस्थावान लोग तथाकथित स्वर्ग की कामना करते हुए सुसभ्य-सुसंस्कृत सनातनी बन कर मकर-संक्रांति के दिन चूड़ा, दही, गुड़, तिल, तिलकुट, खिचड़ी खाने से पहले अपनी-अपनी सुविधानुसार अपने-अपने शहर या गाँव से हो कर गुजरने वाली गंगा जैसी या उस से कमतर किसी बरसाती या पहाड़ी नदी में भी या फिर दो या तीन नदियों के संगम या फिर .. सीधे कुंभ वाले संगम में डुबकी लगाने में तल्लीन हो जाते हों ; परन्तु ... अपनी हर पाठ्यपुस्तक के आरम्भ में छपी हुई भूमिका / Preface वाली परम्परा को नहीं भूल पाते हैं। वो भी हर साल, हर वर्ग की हर पाठ्यपुस्तक के प्रारम्भ में छपी हुई भूमिका दिमाग में कुछ इस तरह पैठ गई है कि अपनी हर रचना के शुरू में भूमिका के नाम पर कुछ-कुछ बतकही करने के लिए हमारी उंगलियाँ अनायास मचल ही जाती हैं .. बस यूँ ही ...

हाँ, इसी संदर्भ में एक और बात बकबका ही दूँ कि ... तथाकथित स्वर्ग के लिए मन मचले भी क्यों नहीं भला ? ... दरअसल तथाकथित सुरा (सोमरस) और सुन्दरी (मेनका) से सुसज्जित स्वर्ग के शब्द-चित्रों को हमारे पुरखों में से उपलब्ध कुछ बुद्धिजीवियों ने बनाया ही इतना मनमोहक, लुभावना और सौंदर्यपूर्ण है .. है कि नहीं ? तो ऐसे में हम भी भला कहाँ चूकने वाले थे, हम भी अपने शहर से हो कर बहने वाली नालायुक्त गंगा के कंगन-घाट पर जाकर डुबकी लगा आये सपरिवार। अब मेनका के कारण अकेले स्वर्ग जाने का तो सोच भी नहीं सकते हैं न ? तो .. सपरिवार जाना पड़ा नहाने। बाक़ी .. उस क्रम में मंत्र-जाप, आरती-पूजन, स्वर्ग के तोंदिले यात्रा-अभिकर्ता और निराला जी के पेट पिचके हुए भिक्षुक यानि राजा राधिकारमण सिंह जी के दरिद्रनारायण को दान-पुण्य करने का निर्वाहन धर्मपत्नी द्वारा किया गया, क्योंकि इस मामले में मैं थोड़ा अनाड़ी या .. यूँ कह सकते हैं कि थोड़ा ज्यादा ही बेवकूफ़ हूँ .. शायद ...

अब अपनी बतकही (भूमिका) को विराम की चहारदीवारी में क़ैद करते हुए , आज की रचना का आरम्भ करने से पहले यह भी तो साझा करना स्वाभाविक ही है कि चूँकि प्रेम से ज्यादा शुभ कुछ हो ही नहीं सकता है .. शायद ... तो इसीलिए .. आज तथाकथित खरमास के बाद वाली शुभ शुरुआत की रचना प्रेम के ओत प्रोत ही होनी चाहिए और इसीलिए है भी आज की दोनों रचनाएँ रूमानी .. शायद ... तो क्यों न मिल कर तनिक रूमानी हुआ जाए .. बस यूँ ही ...

(१) हम हो रहे ग़ाफ़िल ...

मेरे रोजमर्रे के 

हर ढर्रे में 

क़िस्त-क़िस्त कर के,

हो गई हो 

कुछ इस 

क़दर तुम शामिल।


मैं तुझ में हूँ

या तुम 

मुझ में हो,

अब तो ये

समझ पाना

है शायद मुश्किल।


यूँ तो हैं

होशमंद 

हम दोनों ही,

फिर भी भला 

क्यों लग रहा कि

हम हो रहे ग़ाफ़िल।


(२) अक़्सर कविताएं ...

हर बार

वेब-पृष्ठों पर 

चहकने से 

पहले ,

मन की 

जिन तहों में

पनपती हैं 

अक़्सर कविताएं ...


हर पल, हर हाल में,

जानाँ .. 

मचलती रहती हो 

तुम भी वहीं,

चाहे दिन-दोपहरी हो 

या रात अँधेरी ,

या मौसम कोई भी, 

कभी भी आएं या जाएं ...


Thursday, November 26, 2020

कागभगोड़े

सदियों से हो मौन खड़े और कहीं बैठे ,

कँगूरे वाले ऊँचे-ऊँचे भवनों के भीतर ,

पर देखो नीले आसमान के नीचे खड़े 

कागभगोड़े भी हैं तुझ से कहीं बेहतर।

मौन हो भी कमोबेश करते  हैं जो रक्षा,

फटकते पास नहीं फ़सलों के नभचर।


आते जो खुले आसमान तले तुम भी ,

करने कुछ चमत्कार बस यूँ ही ... ताकि ..

होती मानव नस्लों की फसलों की रक्षा ,

होता हरेक दुराचारी का दुष्कर्म दुष्कर।

प्रभु ! तभी तो कहला पाते तुम .. शायद ...

मौन कागभगोड़े से भी बेहतर मौन ईश्वर ...


【 कागभगोड़ा - बिजूका / Scarecrow. 】








Thursday, November 12, 2020

'जिगोलो'-बाज़ार में ...

दहेजयुक्त 'अरेंज्ड मैरिज' वाले
मड़वे में बैठे एक सजे-धजे वर
और किसी 'जिगोलो'-बाज़ार में 
प्रतीक्षारत खड़े .. पुरुष-वेश्य में,
माना कि होंगे अनगिनत अन्तर,
पर है ना एक समानता भी मगर ?
.. शायद ...

【अरेंज्ड मैरिज = Arranged Marriage】
【जिगोलो        = Gigolo】


Wednesday, November 11, 2020

गिरमिटिया के राम - चंद पंक्तियाँ-(29)-बस यूँ ही ...

 (1) निरीह "कलावती"

"कलावती" के पति के 

जहाज़ को डुबोने वाले,

चाय लदी जहाज़ भी

कलुषित फ़िरंगियों के 

एक-दो भी तो डुबोते,

भला क्यों नहीं डुबाए तुमने ?

【कलावती = सत्यनारायण व्रतकथा की एक पात्रा】


(2) "गिरमिटिया" के राम

अपनी भार्या के 

अपहरण-जनित वियोग में,

हे अवतार ! तुम रोते-बिलखते

उसकी ख़ोज में तो फ़ौरन भागे,


पर कितनी ही सधवाएँ

ताउम्र विधवा-सी तड़पती रही

और मीलों दूर वो "गिरमिटिया" भी,

फिर भी भला तुम क्यों नहीं जागे ?

【गिरमिटिया = अंग्रेज़ों ने हमारे पुरखों को गुलामी की शर्त पर वर्षों तक जहाज में भर-भर कर धोखे से विदेश भेजे, जिनमें हमारे लोग ही "आरकटिया" बन कर हमारे लोगों को ही ग़ुलाम/बंधुआ मज़दूर बनाते रहे। इन मज़दूरों को ही "गिरमिटिया" की संज्ञा मिली। गिरमिट शब्द अंग्रेज़ी के `एग्रीमेंट/Agreement' शब्द का अपभ्रंश बताया जाता है।】




Tuesday, November 10, 2020

क़तारबद्ध हल्ला बोल

 (1) क़तारबद्ध

हर मंगल और शनिचर को प्रायः

हम शहर के प्रसिद्ध हनुमान मन्दिरों में

तब भी कतारबद्ध खड़े रहे थे और

वो तब भी कतारों में खड़े कभी कोड़े,

तो कभी गोलियाँ खाते रहे थे।

हम माथे पर लाल-सिन्दूरी टीका लगाए

गेंदे के मृत फूलों की माला पहने, 

हाथों में लड्डूओं के डब्बे लिए हुए

"लाल देह लाली लसे" वाली 

सिन्दूरी मूर्ति को पूज-पूज कर इधर

अपने कर्मो की इतिश्री तब भी करते रहे थे

और ..वो ख़ून से सने ख़ुद के पूरे 

तन को ही लाल रंगों में रंगते रहे

और मरणोपरान्त अपनी मूर्तियों पर

हमारे हाथों से माला पहनते रहे और

कई सारे तो गुमनाम भी रह गए .. शायद ...


हम आज भी खड़े मिल ही जाते है अक़्सर

किसी-न-किसी मंदिर के भीतर या बाहर कतारबद्ध,

आज भी हाथों में हमारे लड्डूओं का डब्बा होता है,

गले में गेंदे के मृत फूलों की माला

और मस्तक पर सिन्दूरी तिलक और ... 

वो सारे सचेतन प्राणी हमारी कतारों के सामने से ही,

हमारे हुजूम के बीच में से ही कभी-कभी तो ..

तन अपना अपने ही ख़ून से रंगते हैं अक़्सर, 

कभी "हल्ला-बोल" वाले "सफ़दर-हाशमी" के रूप में 

तो कभी ... और भी कई सारे नाम हैं साहिब ! ...

इनके नामों की भी एक लम्बी क़तार है .. साहिब ...

पर .. हमारी गूँगी, बहरी, अंधी और सोयी चेतना

बस .. और बस .. अनदेखी, अनसुनी और मौन-सी

बस अपने व अपनों के लिए और .. मंदिरों की क़तार में 

मौन मूर्तियों के सामने एक मौन मूर्ति बन कर 

जीना जानती है .. शायद ...

सफ़दर-हाशमी = तत्कालीन शासक के घिनौने गुर्गों/हाथों द्वारा तत्कालीन भ्रष्टाचारों के विरूद्ध आवाज़ उठाने या यूँ कहें चिल्लाने के लिए इनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या को हम हर भारतीय नागरिकों को ज़रूर जानना चाहिए .. शायद ...】.🤔

चलते -चलते :- इन दिनों एक राष्ट्रीय स्तरीय पत्रकार और उनके चैनल पर उन लोगों के चिल्लाने से कई लोगबाग असहज महसूस करते हैं अपने आप को और ऊलजलूल प्रतिक्रिया सोशल मिडिया पर करते नज़र आते हैं। मगर .. बेसुरा ही सही, पर सच चिल्लाने से तो कई गुणा बुरा है .. झूठ और मक्कारी को मीठी और मृदुल आवाज़ में कहीं भी, किसी को भी कहना .. शायद ...

(2) हल्ला बोल

"इंक़लाब ज़िन्दाबाद" के नारे को

ना तो कभी भी बुदबुदाए गए हैं

और ना ही कभी गुनगुनाए गए ,

ऊँचे स्वर में ही तो चिल्लाए गए हैं।

तब चिल्लाहट बुरी क्यों लगती है भला ?

जब कि ... हर हल्ला बोल सोतों को जगाने के लिए है .. शायद ...





Tuesday, November 3, 2020

रिश्तों का ज़ायक़ा - चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ...

 "रिश्तों का ज़ायक़ा" शीर्षक के अंतर्गत मन में पनपी अपनी रचनाओं की श्रृंखलाओं में से एक - "चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ..." के तहत आम-जीवन के रंग में रंगी आज की तीन छोटी-छोटी रचनाओं के पहले हम क्यों ना एक बार अपने मन में आज सुबह से उबाल मार रही एक बतकही को आप से कह ही डालें .. भले ही आप इसे "हँसुआ के बिआह आउर (और) खुरपी के गीत" का नाम दे डालें .. क्या फ़र्क पड़ता है भला !

दरअसल सर्वविदित है कि आज बिहार के विधानसभा-चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के लिए पटना में चुनाव है। जिस के कारण यहाँ लगभग सभी सरकारी-निजी कार्यालयों के बन्द होने के कारण छुट्टी वाले दिन की अनुभूति हो रही है। सुबह डी डी भारती चैनल पर प्रेमचन्द की कहानियों में से एक "हिंसा परमो धर्म" पर आधारित नाटक देखने के क्रम में नेपथ्य से आने वाले गीत के बोल - "केहि समुझावौ सब जग अंधा" - कबीर जी की लेखनी के बहाने उन को बरबस याद करा गया। अगर मैं कहूँ कि नाटक/कहानी का अंत बरबस आँखें गीली कर गया, तो आपको अतिशयोक्ति लगे , पर .. ये सच है।

क्या आपको महसूस नहीं होता कि बुद्धिजीवियों द्वारा तय तथाकथित कलियुग नामक कालखण्ड में अब धर्मग्रन्थों वाले चमत्कार होने भले ही बन्द हो गए हों, मसलन - पुरुष की नाभि से किसी प्राणी का जन्म, किसी साँप के फ़न पर खड़ा होकर किसी का नाचना, किसी का सपत्नीक सोना या उस से समुन्द्र का तथाकथित मंथन करना, सूरज को किसी बन्दर के बच्चे द्वारा निगल जाना, सूरज की रोशनी से किसी का गर्भवती हो जाना, इत्यादि ; परन्तु 15वीं शताब्दी में कही/लिखी गयी कबीर जी की वाणी आज भी अक्षरशः शत्-प्रतिशत सत्य है और भविष्य में भी सत्य रहें भी .. शायद ...

"केहि समुझावौ सब जग अंधा

इक दु होय उन्हें समुझावौं

सबहि भुलाने पेट के धंधा।

पानी घोड़ पवन असवरवा

ढरकि परै जस ओसक बुंदा

गहिरी नदी अगम बहै धरवा

खेवनहार के पड़िगा फंदा।

घर की वस्तु नजर नहि आवत

दियना बारि के ढूॅंढ़त अंधा

लागी आगि सबै बन जरिगा

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बंदा।

कहै कबीर सुनो भाई साधो

जाय लंगोटी झारि के बंदा"

ख़ैर ! अपना माथा क्यों खपाना भला इन सब बातों में ? है कि नहीं ? अपनी ज़िन्दगी तो बस कट ही रही .. बस यूँ ही ...

"सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"

और .. अब आज की तीनों रचनाओं में भी अपना बेशकीमती वक्त तनिक जाया कीजिए ...


(१) बहकते काजल

है मालूम

यूँ तो सबब 

आसमानी 

बरसात के ,

हैं भटकते बादल ..


पर पता नहीं

सबब उन 

बरसातों का क्या , 

जिस से 

हैं बहकते काजल ...


(२) रिश्तों का ज़ायक़ा 

हत्या की गयी

'झटका' या 'हलाल'

विधि से मिली

लाशों के

नोंचे गए 

खालों के बाद मिले 

बकरों या मुर्गों के

नर्म गोश्तों के

कटे हुए कई

छोटे-छोटे टुकड़ों को ही 

केवल हम अक़्सर

"मैरीनेट" नहीं करते ..


अक़्सर हमें

अपने कई सारे

रिश्तों की

ठंडी लाशों को

समय-समय पर

"मैरीनेट" करने की

ज़रूरत पड़ती है

ताकि .. बना रहे

रिश्तों का

ज़ायक़ा अनवरत 

बस यूँ ही ...

.. शायद ...

( मैरीनेट - Marinate ).


(३) बरवक़्त .. कम्बख़्त ...

सिलवटों का 

क्या है भला !

उग ही आती हैं

अनचाही-सी

बिस्तरों पर

अक़्सर बरवक़्त ..

कम्बख़्त ...


या होती हो 

जब कभी भी 

तुम साथ हमारे

या फिर ..

रहती हो कभी 

हमसे दूर भी अगर 

वक्त-बेवक्त ...




Friday, October 30, 2020

होठों की तूलिका - चंद पंक्तियाँ - (27)- बस यूँ ही ...

आज शरद पूर्णिमा के पावन अवसर पर ....

(१) होठों की तूलिका

आज सारी रात

शरद पूर्णिमा की चाँदनी

मेरी बाहों का चित्रफलक 

तुम्हारे तन का कैनवास

मेरे होठों की तूलिका


आओ ना ! ..

आओ तो ...

रचें दोनों मिलकर

एक मौन रचना 

'खजुराहो' सरीखा ...

( चित्रफलक - Easel,

   कैनवास - Canvas,

   तूलिका - Painting Brush ).


(२) चाहतों की मीनार 

मैं 

तुम्हारे 

सुकून की 

नींव बन जाऊँ


तुम 

मेरी 

चाहतों की 

मीनार बन जाना ...


(३) मन की कंदरा ...

माना कि ..

है रौशन

चाँद से

बेशक़ 

ये सारा जहाँ ...


पर एक अदद 

जुगनू है बहुत

करने को 

रौशन

मन की कंदरा ...