Saturday, August 1, 2020

मन ही मन में ...

साहिब !!! ...
हवाई सर्वेक्षण के नाम पर
उड़नखटोले में आपका आना
और मंडराना मीलों ऊपर आसमान में
हमारी बेबसी और लाचारगी के।

करना सर्वेक्षण .. अवलोकन ..
आकाश में बैठे किसी 
तथाकथित भगवान की तरह
क़ुदरती विनाश लीला वाले
रौद्र रूप धरे तांडव नृत्य के।

हमारे हाल बेहाल .. बदहाल .. फटेहाल
और आपके सर्वेक्षण रिपोर्ट के 
आधार पर मिले राहत कोष की 
बन्दरबाँट चलती है साल दर साल,
हालात हर बार होते हैं बेहतर आपके।

पर साहिब !! .. आइए .. निहारिये ना एक बार .. 
हमारी बेबस बर्बादी के अवशेष,
वीरान हुए .. बहे खेत-खलिहान, 
बची-खुची .. टूटी-फूटी मड़ई के शेष,
और रौंदने के बाद के कई-कई भयावह मंज़र
गुजरे उफनते सैलाबों के पद-चिन्हों के।

जीना मुहाल, खाने के लाले,
लाले की उधारी के भरोसे जीवन को हम पालें,
पर गुजरे सैलाब के पद चिन्ह पर आई कई बीमारियाँ, 
महामारियाँ भला हम कैसे टालें ?
ऐसे में बेबस, लाचार हम मन को बहलाने के लिए
बस मन ही मन में बुदबुदा कर दोहरा लेते हैं कि -
"सीता राम, सीता राम, सीताराम कहिये,
  जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।"
साहिब !!!!! ... आप भी तो कुछ कहिए ! ...









Friday, July 31, 2020

ख़्यालों की देहरी से ...

नववधू-सी पर .. 
बिन वधू प्रवेश मुहूर्त के 
वक्त-बेवक्त .. आठों पहर
तुम्हारी यादों की दुल्हन 
मेरे ज़ेहन की चौखट वाली
ख़्यालों की देहरी से, 

पल-पल से सजे 
वर्तमान समय सरीखे
चावल के कण-कण से भरे 
नेगचार वाले कलश को
अपने नर्म-नाज़ुक पाँव से
धकेल कर हौले से परे,

संग-संग गुज़ारे लम्हों की
टहपोर लाल आलते में
सिक्त पाँवों से
मेरी सोचों के 
गलियारे से होते हुए
मन के आँगन तक

एहसासों के पद चिन्ह
सजाती रहती है,
आहिस्ता-आहिस्ता,
अनगिनत ..
अनवरत ..
बस यूँ ही ...




Wednesday, July 29, 2020

मुहावरे में परिवर्तन

अक़्सर जीते हैं 
आए दिन 
हम कुछ 
मुहावरों का सच,
मसलन ....
'गिरगिट का रंग',
'रंगा सियार'
'हाथी के दाँत',
'दो मुँहा साँप'
'आस्तीन और साँप',
'आँत की माप'
वग़ैरह-वग़ैरह ..
वैसे ये सारे 
जानवर तो 
हैं बस बदनाम,
बस यूँ ही  ...

जानवरों की 
हर फ़ितरत ने
इंसानों से 
आज मात
है खायी
और फिर ..
बढ़ भी गई है
अब शायद
बावन हाथ वाले 
आँत की लम्बाई।
ऐसे में लगता नहीं 
अब क्या कि ...
करना होगा हर
मुहावरे में परिवर्तन,
हमारे संविधान-सा 
यथोचित संशोधन ? ...

Tuesday, July 28, 2020

मन के गलीचे ...

आज की रचना/विचार को किसी ख़ास विधा, मसलन-ग़ज़ल या और भी कोई, या फिर किसी बहर, काफ़िया, मक़्ता, मतला के अंकगणित या ज्यामिति वाले तराजू में तौल कर आपकी नज़र नहीं सरके, बल्कि बस यूँ ही ...
सर्वविदित है कि ना साहित्य की किसी विधि की, ना ही किसी विधा की विधिवत जानकारी हासिल की है हमने और ना ही हासिल करने की कोई कोशिश या कोई शौक़ भी .. बस मन ही मन में कुछ अनायास उग आए एहसासों के पपड़ाए होंठों पर इस बार चंद तुकबंदियों ( वैसे तो प्रायः अतुकान्त ही ) की लाली (Lipstick) लगाने की एक कोशिश भर की है पहली रचना/विचार में .. और फिर दूसरी रचना/विचार अपनी आदतानुसार एक अतुकान्त भी है .. 
बस यूँ ही ...

(१) मन के गलीचे
थे कभी फड़कती नब्ज़ की पाबंद नज़्म के बहर,
है उन्हीं का असर, हैं बेअसर हरेक बरसते सितम।

दिल का दौरा भी एक दौर है, यूँ  ही जाएगा गुजर,
बुरे वक्त-सी टलेगी मौत और मिटेंगे सहमते वहम।

वो हों ना हों,  हैं उनकी यादों का  संग आठों पहर,
ऐसे में  भर ही जायेगें जीवन के हर उभरते जख़्म।

मन के गलीचे को तो यूँ फैलाया मैं ने बहुत मगर,
जमीन चूमने को रहे बेताब उनके बहकते क़दम।

माना मेरे हालात से नाता नहीं, पूछें भर भी वो गर,
तो शायद क़ायम रहें अपना होने के दरकते भरम।


(२) इल्म की इल्लियाँ
उनकी
भावनाओं की 
नर्म पत्तियों 
से मिले
पोषण के 
बिना बन 
कहाँ पाती
भला
कभी मेरी 
रचनाओं की
बहुरंगी तितलियाँ, 

बस 
ताउम्र 
बस यूँ ही ...
सरकती 
फिरती मेरे 
इल्म की इल्लियाँ* ...

★ - { इल्लियाँ (बहुवचन) = इल्ली - लार्वा - Larva - Caterpillar.}
(अगर तितली-जीवन-चक्र ( Butterfly Life Cycle ) को एक बार अपने मन ही मन दोहरा लें तो नज़र के साथ-साथ मन तक भी रचना/विचार पहुँच पाए .. शायद ...)








Sunday, July 26, 2020

झींसी वाली रंगोली

इन दिनों देश के कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार, असम और उत्तराखंड आदि, में क़ुदरत अपना क़हर बरपा रहा है; जिस के बारे में हम समाचार पत्रों और अन्य संचार माध्यमों से दिन रात अवगत हो रहे हैं। वैसे तो जब से होश सम्भाला है, बरसात के मौसम में उत्तर बिहार, विशेष कर कोसी क्षेत्र, के विनाशकारी बाढ़ के बारे में हम लोग सुनते आ रहे हैं। इसीलिए कोसी नदी को "बिहार का अभिशाप" या "बिहार का शोक" भी कहा जाता है। ऐसा स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया था। यूँ तो कोसी नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है। ये अलग बात है कि उस जमाने के संचार माध्यमों, अख़बार और रेडियो, की अपनी सीमाएँ थी, जिस से हम दिल दहलाने वाले उन चलायमान दुःखद  दृश्यों को आज की तरह देख नहीं पाते थे।
आज बड़ी आसानी से टी वी के पर्दे पर जब ऐसी कई आसपास की कुछ विसंगतियाँ या विषमतायें अंतर्मन को झकझोर जाती है और अपनी कुछ सीमाओं में बंधा इंसान कुछ भी नहीं कर सकने की परिस्थिति में एक घुटन महसूस करता है। तब मन में उठे कुछ सवाल, मन को मथते हैं। मन करता है कि इन विपदाओं के निदान के लिए मनुहार करें, पर किस से ? किसी को ललकारें, पर किसको ? या फिर चित्कार करें, पर किस के समक्ष ? ऐसे ही ऊहापोह की कोख़ से पनपी हैं आज की दोनों रचनाएँ/विचार .. जिनमें पहली में क़ुदरती क़हर पर कुछ सवालात हैं और दूसरी में एक मानवजनित अवहेलना पर ... बस यूँ ही ...


★ (1) झींसी वाली रंगोली

हे इंद्र !!! ...
देवता हैं आप शायद बरसात के,
कहा है ऐसा पुरखों ने,
रचा भी है धर्मग्रंथों में 
और आज भी यहाँ शायद यही सब हैं मानते।
पर .. हर साल आपके आने पर .. 
हम तो यहाँ कॉफ़ी के घूँटों को
बजाय आवाज़ करते हुए सुरकने के,
कप को होंठों से चूमने वाली 
संस्कारी बेआवाज़ चुस्कियों के साथ,
'कोलेस्ट्रॉल'-स्तर को ध्यान में रख कर
'नैपकिन पेपर' से तेल सोखे तले गर्म पकौड़ों को
मुँह के प्रेक्षागार में लारों की गलबहियाँ में लिपटाए
अपनी जीभ के 'रैम्प' पर थिरकाते हुए,
बैठ कर अपनी खिड़की के पास या 'बालकॉनी' पर
महसूसते हैं चेहरे के 'कैनवास' पर बयार की तूलिका से 
रची पानी की झींसी वाली रंगोली अक़्सर।

और पास ही बजते किसी मनपसंद रूमानी ग़ज़ल पर
अनामिका और अँगूठा के संगम से जनी 
चुटकियाँ चटकाते हुए .. जमीं पर थपकते पाँव संग,
किसी 'टेबल फैन' के मानिंद दाएँ-बाएँ झूमती गर्दन पर
झूमता सिर .. और अलसायी-सी 
कभी खुलती .. कभी बंद होती आँखों से निहारते हैं,
सामने वाली छत पर 'एस्बेस्टस' की बनी 
ओलती से चूती पानियों की झालर,
'स्टेनलेस स्टील' वाली छत की 'रेलिंग' 
और छत पर रखे अलने पर भी अनायास
उग आयी मोतियों की लम्बी क़तार,
साथ ही छत पर जमे बरसाती पानी की परत पर 
बनती-मिटती उर्मियों की मचलती मछलियाँ अनगिनत इधर-उधर।

और .. वहाँ पर .. तो प्रभु !! .. तनिक देखिए ना ..
बहता गाँव का गाँव और शहर का शहर,
जान बचा कर भागने के लिए फिर बचता ही नहीं
कोई पुल, कोई पगडंडी या सड़क वाली डगर,
चारों ओर तबाही ही तबाही .. क़हर ही क़हर,
मासूम बच्चे, युवा, वृद्ध, नर-नारी और पशु भी,
सब के सब लाचार बने बेघर।
दूर-दूर तक कोई घर या दर बचता नहीं,
जा कर जहाँ भटक सकें वे दर-ब-दर।
अपनी गृहस्थी की कहानी के गढ़े विन्यास का संक्षेपण 
समेटे फटेहाल गठरियों में भर कर .. बेबस-से बाँस की चचरी पर,
बचने की उम्मीद लिए भटकते हैं भूखे-प्यासे बस इधर-उधर।

मूक-बधिर प्रभु ! ..
अब अगर ब्राह्मणों की मान भी लें जो बकर-बकर,
तो क्या पूर्वजन्म के सारे ही पापी जन्मे थे उधर
और बसे थे सारे उसी गाँव में या उसी शहर ?
या हम सारे सच में हैं कोई पुण्यात्मा जन्मे इधर ?
सोचते हैं हम मूढ़ कि ..
ना तो आप है आकाश में, ना पाताल में,
ना तड़ित में, ना बादल, ना बरसात में,
ना मंदिरों के भीतर, ना ही कहीं बाहर, ना इधर .. ना उधर,
भला जन्मदाता या पालक होता है क्या इतना निष्ठुर ?
लगता है ... ये सब तो हैं केवल क़ुदरती क़हर ,
लाखों वर्षों से .. आदिमानव वाले काल से,
जिसे पुरख़े हमारे सदियों से हैं झेलते आये 
और कर डाली थी डर से तभी काल्पनिक रचना आपकी
और बस .. आप बस गए पहले उनकी बेबस, 
लाचार और डरी हुई सोचों में .. फिर धर्मग्रंथों में .. 
और फिर मंदिरों में बन गया आपका पक्का घर।
ये तो था बस उनका डर .. बस और बस .. उनका डर भर।
है अगर सच में कहीं .. जो आप आकाश या पाताल में .. तो ..
प्रभु! .. कुछ तो उन पर रहम कर .. अब तो कुछ .. शरम कर ...


(2) 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच 

सड़े हुए अंडों से भरे कई 'कैरेट' और
सड़े टमाटरों से भरी कुछ टोकरियाँ,
हो गई पलक झपकते खाली सारी की सारी,
हुई जब उन अंडों और टमाटरों की झमाझम बरसात
और बहुरंगी 'कार्टून' बना दिया मंचासीन साहिब को
भीड़ के कुछ लोगों ने करते हुए आदर-सत्कार।

झट साहिब पूछ बैठे धैर्य को रखते हुए बरकरार -
"भाइयों और बहनों ! भला इसकी क्या थी दरकार ?"
भीड़ से बोला एक दुबला-पतला मरियल-सा इंसान -
"बस यूँ ही ... कुछ ख़ास नहीं सरकार !"
दरअसल जब तक पौधों से थे ये टमाटर लटके ..
जब हमने तोड़े थे ..  एक उम्मीद से थे अटके ..
तब ये सारे के सारे टमाटर थे ताजे और टटके,
हृष्ट-पुष्ट .. 'कैल्शियम', 'फास्फोरस', 'साइट्रिक एसिड',
'मैलिक एसिड' और 'पालायकोपिन' से लबाबलब और
'विटामिन 'सी' व 'विटामिन 'ए' से भी भरपूर पौष्टिक थे बड़े।
और तो और .. अंडे भी जब मुर्गी से निकले थे,
तब ये सारे 'प्रोटीन', 'कोलीन', 'जिंक', 'विटामिन',
'आयरन' और 'कैल्शियम' से भरे पड़े थे हुए बेकरार।

पर आप को तो है अपने 51% वाले अंकगणित की दरकार
तो फिर 15%, 7.5%, 27% और 10% को जोड़ कर
कुल 59.50% का 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच अपना
बना रखा है आप ने बरकरार।
उसी 59.50% के तहत पहले भर-भर कर
कुछ कम 'विटामिन' और 'प्रोटीन' वाले
कुपोषित और कम पौष्टिक टमाटर और अंडे
उपभोक्ताओं के लिए भेजे जाते हैं बाज़ार।
होती है इस कदर उत्तम उत्पादन बेकदर और
उपभोक्ता भी वर्षों से होते आ रहे हैं कुपोषण के शिकार।
बाक़ी बचे 40.50% हिस्से में ही तो
हृष्ट-पुष्ट टमाटरो और अंडों का फिर हो पाता है व्यापार ..
मिलता है बस .. 40.50% ही बचा उन्हें बाजार।

साहिब !!!
वही शेष बचे हृष्ट-पुष्ट टमाटर और अंडे,
जो तब 'विटामिन' और 'प्रोटीन' से थे भरे,
पर अब सड़ गए हैं रखे-रखे .. बस बाज़ार बिना यूँ ही पड़े-पड़े।
ये वही टमाटर और अंडे हैं अब सड़े,
जो इस वक्त आपके थोबड़े पर हैं पड़े।
इन सब को कर दिया है आपके स्वार्थ ने बेकार।
बस इसी का तो है साहिब .. मौन तकरार ..
आप कर नहीं सकते साहिब .. इस से इंकार।
अब या तो आप अपना बिगड़ा, बदहाल चेहरा झेलिए
या फिर एक बार .. तो सुन लीजिए ना .. साहिब ..
इसकी बहुरंगी बदबूओं की मायूस मौन मनुहार
या हमारी ललकार ... जो कर नहीं पा रही चीत्कार ...






















Friday, July 24, 2020

ख्वाहिशों की बूँदें ...

बचपन में हम सभी ने माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत विज्ञान या भूगोल विषय में "वृष्टिछाया" के बारे में पढ़ा था। जिसे अंग्रेजी माध्यम वाले "Rain-Shadow" कहते हैं। शायद उसकी परिभाषा याद भी हो हमें कि "जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है, तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और यह "वृष्टिछाया क्षेत्र"  यानि अंग्रेजी माध्यम वालों का "Rain-Shadow Zone" कहलाता है। इस प्रकार "वृष्टिछाया" के कारण रेगिस्तान यानि मरुस्थल का निर्माण होता है।

इस बाबत दाहिया जी एक बहुत ही सुंदर उपमा देते हैं कि “अगर हवाई अड्डा (जंगल) ही नहीं होगा तो हवाई जहाज (बादल) कैसे उतरेगा।” दाहिया जी .. यानि मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गाँव में जन्में लगभग 76 वर्षीय बघेली उपभाषा के जाने-माने रचनाकार बाबूलाल दाहिया जी, जो कई कविताओं, कहानियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के रचनाकार के साथ-साथ डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी और पूर्णरूपेण जैविक खेती करने वाले किसान भी हैं। उनके पास अब तक देशी धान की लगभग 110 किस्मों का खजाना है, जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार का सम्मान भी मिला है।

खैर! ... वैसे अपनी बकबक को विराम देते हुए, फ़िलहाल बस इतना बता दूँ कि आज की इस रचना/विचार की प्राकृतिक अभिप्रेरणा "वृष्टिछाया" की परिभाषा भर से मिली है .. बस यूँ ही ...

ख्वाहिशों की बूँदें ...
उनकी चाहतों की 
बयार में
मचलते उनके 
जज़्बातों के बादल
देखा है अक़्सर
रुमानियत की 
हरियाली से
सजे ग़ज़लों के 
पर्वतों पर
मतला से लेकर 
मक़्ता तक के 
सफ़र में 
हो मशग़ूल 
करती जाती जो 
प्यार की बरसात
और .. उनकी 
चंद मचलती 
ख्वाहिशों की बूँदें 
होकर चंद 
बंद से रज़ामंद 
बनाती जो ग़ज़ल के 
गुल को गुलकंद

तभी तो शायद .. 
अब ऐसे में .. बस .. 
कुछ ठहर-सा गया है 
मेरे मन के 
मरुस्थल में 
बमुश्किल 
पनपने वाले
मेरे अतुकांतों के 
कैक्टसों का 
पनपना भर भी 
हो गया है बंद ..
बस यूँ ही ...

●◆★◆●




Tuesday, July 21, 2020

नज़र रानी की मुंतज़िर ...

आज हमारे सत्तर के दशक वाले खेलों के आयाम बदल गए हैं या यूँ कहें कि आयामों के खेल बदल गए हैं .. जो भी हो .. अनुभवी कहते हैं कि प्रकृति परिवर्त्तनशील है .. समय भी .. पल-पल, हर पल .. शायद .. तभी तो हम बच्चे से युवा और युवा से न जाने कब वयस्क हो कर  प्रौढ़ भी हो गए और इसीलिए तो हमारे बचपन के सब खेलों के भी मायने बदल गए .. "पर खेल तो हैं वही, बस आयाम है नयी" .. खैर ! अब चलते हैं आज की ताज़ीतरीन (ताज़ातरीन के तर्ज़ पर) परन्तु .. कई दिनों से दिमाग़ की हंड़िया में पक रही ये तीनों रचनाएँ .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...

नज़र  रानी की  मुंतज़िर 
कभी "व्यापार" के नकली रुपयों भर से भी 
तिजोरी हमारी बस यूँ अमीर हुआ करती थी।

"लूडो" के उन काग़ज़ी बेज़मीं घरों में ही सही
बिना  छत भी हमारी जागीर हुआ करती थी।

थी "कैरम बोर्ड"  की वो महज़ लाल गोटी ही
पर नज़र  रानी की  मुंतज़िर हुआ करती  थी।

कभी राजा,  मंत्री, सिपाही, तो  चोर भी कभी  
हाथ की पुड़िया बहुत अधीर हुआ करती थी।

पतंगों  संग अरमानें भी तो ऊँचाइयाँ थीं छूती
तब कहाँ हक़ीक़त की ज़ंजीर हुआ करती थी।

रेत पर .. रेत के बने घरौंदों पर अपने नामों की  
उँगलियों से  खुदी हुई  तहरीर हुआ करती थी।

न जाति का लफ़ड़ा,  न आरक्षण से रगड़ा कोई
गुड्डे-गुड़ियों की अच्छी  तक़दीर हुआ करती थी।

तब न कोई "एलओसी",न ही थी"एलएसी" कोई
"छू कित्-कित्" की  बस लकीर हुआ करती थी।

आँख-मिचौली, डेंगा-पानी या फिर छुआ-छुईं भी
तब छूने से कोई बात नहीं गंभीर हुआ करती थी।

"स्टेचू" का वो  धप्पा,  चाईं-चूड़ी, या  गाना-गोटी
पर मिटाने की नहीं कोई  तदबीर हुआ करती थी।

चोर के बाद राजा
जब भी मिलते थे बचपन में तब के चार यार,
मैं पप्पू, बबलू, गुड्डू और रामावतार,
राजा, मंत्री, सिपाही, चोर बनाता खेल
पुड़िया वाला, खेला करते थे हम कई बार,
कभी मैं बनता राजा तो कभी चोर,
कभी मंत्री तो कभी सिपाही कई बार
और ऐसा ही कभी होता बबलू के साथ
तो कभी गुड्डू तो कभी रामावतार के साथ कई बार
और इस क्रम में .. कभी-कभी तो यार! ...
ख़ुश होता जो भी बनता चोर के बाद राजा या मंत्री जिस बार,
कुछ-कुछ जैसे आज के लोकतंत्र में कई मंत्रियों की क़तार,
पर उदास होता था जो बनता था चोर- सिपाही, मंत्री या राजा के बाद 
पर ठीक इसके विपरीत है आज कई ऐसे नौकरशाहों की भरमार,
जो है इठलाता कर के भी ग़बन और घोटाले बेशुमार।

लाल रानी
कैरम बोर्ड की 
रानी लाल गोटी की जीत,
बिना किसी पीली या 
काली गोटी के जीत के
हर बार होती है बेमानी।

लाल गोटी .. रानी
पर साथ में है जरुरी
एक गोटी पीली या काली
वर्ना रानी बेमानी .. मानो ...
नर और नारी की कहानी।
           ★◆★