Friday, July 31, 2020

ख़्यालों की देहरी से ...

नववधू-सी पर .. 
बिन वधू प्रवेश मुहूर्त के 
वक्त-बेवक्त .. आठों पहर
तुम्हारी यादों की दुल्हन 
मेरे ज़ेहन की चौखट वाली
ख़्यालों की देहरी से, 

पल-पल से सजे 
वर्तमान समय सरीखे
चावल के कण-कण से भरे 
नेगचार वाले कलश को
अपने नर्म-नाज़ुक पाँव से
धकेल कर हौले से परे,

संग-संग गुज़ारे लम्हों की
टहपोर लाल आलते में
सिक्त पाँवों से
मेरी सोचों के 
गलियारे से होते हुए
मन के आँगन तक

एहसासों के पद चिन्ह
सजाती रहती है,
आहिस्ता-आहिस्ता,
अनगिनत ..
अनवरत ..
बस यूँ ही ...




Wednesday, July 29, 2020

मुहावरे में परिवर्तन

अक़्सर जीते हैं 
आए दिन 
हम कुछ 
मुहावरों का सच,
मसलन ....
'गिरगिट का रंग',
'रंगा सियार'
'हाथी के दाँत',
'दो मुँहा साँप'
'आस्तीन और साँप',
'आँत की माप'
वग़ैरह-वग़ैरह ..
वैसे ये सारे 
जानवर तो 
हैं बस बदनाम,
बस यूँ ही  ...

जानवरों की 
हर फ़ितरत ने
इंसानों से 
आज मात
है खायी
और फिर ..
बढ़ भी गई है
अब शायद
बावन हाथ वाले 
आँत की लम्बाई।
ऐसे में लगता नहीं 
अब क्या कि ...
करना होगा हर
मुहावरे में परिवर्तन,
हमारे संविधान-सा 
यथोचित संशोधन ? ...

Tuesday, July 28, 2020

मन के गलीचे ...

आज की रचना/विचार को किसी ख़ास विधा, मसलन-ग़ज़ल या और भी कोई, या फिर किसी बहर, काफ़िया, मक़्ता, मतला के अंकगणित या ज्यामिति वाले तराजू में तौल कर आपकी नज़र नहीं सरके, बल्कि बस यूँ ही ...
सर्वविदित है कि ना साहित्य की किसी विधि की, ना ही किसी विधा की विधिवत जानकारी हासिल की है हमने और ना ही हासिल करने की कोई कोशिश या कोई शौक़ भी .. बस मन ही मन में कुछ अनायास उग आए एहसासों के पपड़ाए होंठों पर इस बार चंद तुकबंदियों ( वैसे तो प्रायः अतुकान्त ही ) की लाली (Lipstick) लगाने की एक कोशिश भर की है पहली रचना/विचार में .. और फिर दूसरी रचना/विचार अपनी आदतानुसार एक अतुकान्त भी है .. 
बस यूँ ही ...

(१) मन के गलीचे
थे कभी फड़कती नब्ज़ की पाबंद नज़्म के बहर,
है उन्हीं का असर, हैं बेअसर हरेक बरसते सितम।

दिल का दौरा भी एक दौर है, यूँ  ही जाएगा गुजर,
बुरे वक्त-सी टलेगी मौत और मिटेंगे सहमते वहम।

वो हों ना हों,  हैं उनकी यादों का  संग आठों पहर,
ऐसे में  भर ही जायेगें जीवन के हर उभरते जख़्म।

मन के गलीचे को तो यूँ फैलाया मैं ने बहुत मगर,
जमीन चूमने को रहे बेताब उनके बहकते क़दम।

माना मेरे हालात से नाता नहीं, पूछें भर भी वो गर,
तो शायद क़ायम रहें अपना होने के दरकते भरम।


(२) इल्म की इल्लियाँ
उनकी
भावनाओं की 
नर्म पत्तियों 
से मिले
पोषण के 
बिना बन 
कहाँ पाती
भला
कभी मेरी 
रचनाओं की
बहुरंगी तितलियाँ, 

बस 
ताउम्र 
बस यूँ ही ...
सरकती 
फिरती मेरे 
इल्म की इल्लियाँ* ...

★ - { इल्लियाँ (बहुवचन) = इल्ली - लार्वा - Larva - Caterpillar.}
(अगर तितली-जीवन-चक्र ( Butterfly Life Cycle ) को एक बार अपने मन ही मन दोहरा लें तो नज़र के साथ-साथ मन तक भी रचना/विचार पहुँच पाए .. शायद ...)








Sunday, July 26, 2020

झींसी वाली रंगोली

इन दिनों देश के कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार, असम और उत्तराखंड आदि, में क़ुदरत अपना क़हर बरपा रहा है; जिस के बारे में हम समाचार पत्रों और अन्य संचार माध्यमों से दिन रात अवगत हो रहे हैं। वैसे तो जब से होश सम्भाला है, बरसात के मौसम में उत्तर बिहार, विशेष कर कोसी क्षेत्र, के विनाशकारी बाढ़ के बारे में हम लोग सुनते आ रहे हैं। इसीलिए कोसी नदी को "बिहार का अभिशाप" या "बिहार का शोक" भी कहा जाता है। ऐसा स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया था। यूँ तो कोसी नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है। ये अलग बात है कि उस जमाने के संचार माध्यमों, अख़बार और रेडियो, की अपनी सीमाएँ थी, जिस से हम दिल दहलाने वाले उन चलायमान दुःखद  दृश्यों को आज की तरह देख नहीं पाते थे।
आज बड़ी आसानी से टी वी के पर्दे पर जब ऐसी कई आसपास की कुछ विसंगतियाँ या विषमतायें अंतर्मन को झकझोर जाती है और अपनी कुछ सीमाओं में बंधा इंसान कुछ भी नहीं कर सकने की परिस्थिति में एक घुटन महसूस करता है। तब मन में उठे कुछ सवाल, मन को मथते हैं। मन करता है कि इन विपदाओं के निदान के लिए मनुहार करें, पर किस से ? किसी को ललकारें, पर किसको ? या फिर चित्कार करें, पर किस के समक्ष ? ऐसे ही ऊहापोह की कोख़ से पनपी हैं आज की दोनों रचनाएँ/विचार .. जिनमें पहली में क़ुदरती क़हर पर कुछ सवालात हैं और दूसरी में एक मानवजनित अवहेलना पर ... बस यूँ ही ...


★ (1) झींसी वाली रंगोली

हे इंद्र !!! ...
देवता हैं आप शायद बरसात के,
कहा है ऐसा पुरखों ने,
रचा भी है धर्मग्रंथों में 
और आज भी यहाँ शायद यही सब हैं मानते।
पर .. हर साल आपके आने पर .. 
हम तो यहाँ कॉफ़ी के घूँटों को
बजाय आवाज़ करते हुए सुरकने के,
कप को होंठों से चूमने वाली 
संस्कारी बेआवाज़ चुस्कियों के साथ,
'कोलेस्ट्रॉल'-स्तर को ध्यान में रख कर
'नैपकिन पेपर' से तेल सोखे तले गर्म पकौड़ों को
मुँह के प्रेक्षागार में लारों की गलबहियाँ में लिपटाए
अपनी जीभ के 'रैम्प' पर थिरकाते हुए,
बैठ कर अपनी खिड़की के पास या 'बालकॉनी' पर
महसूसते हैं चेहरे के 'कैनवास' पर बयार की तूलिका से 
रची पानी की झींसी वाली रंगोली अक़्सर।

और पास ही बजते किसी मनपसंद रूमानी ग़ज़ल पर
अनामिका और अँगूठा के संगम से जनी 
चुटकियाँ चटकाते हुए .. जमीं पर थपकते पाँव संग,
किसी 'टेबल फैन' के मानिंद दाएँ-बाएँ झूमती गर्दन पर
झूमता सिर .. और अलसायी-सी 
कभी खुलती .. कभी बंद होती आँखों से निहारते हैं,
सामने वाली छत पर 'एस्बेस्टस' की बनी 
ओलती से चूती पानियों की झालर,
'स्टेनलेस स्टील' वाली छत की 'रेलिंग' 
और छत पर रखे अलने पर भी अनायास
उग आयी मोतियों की लम्बी क़तार,
साथ ही छत पर जमे बरसाती पानी की परत पर 
बनती-मिटती उर्मियों की मचलती मछलियाँ अनगिनत इधर-उधर।

और .. वहाँ पर .. तो प्रभु !! .. तनिक देखिए ना ..
बहता गाँव का गाँव और शहर का शहर,
जान बचा कर भागने के लिए फिर बचता ही नहीं
कोई पुल, कोई पगडंडी या सड़क वाली डगर,
चारों ओर तबाही ही तबाही .. क़हर ही क़हर,
मासूम बच्चे, युवा, वृद्ध, नर-नारी और पशु भी,
सब के सब लाचार बने बेघर।
दूर-दूर तक कोई घर या दर बचता नहीं,
जा कर जहाँ भटक सकें वे दर-ब-दर।
अपनी गृहस्थी की कहानी के गढ़े विन्यास का संक्षेपण 
समेटे फटेहाल गठरियों में भर कर .. बेबस-से बाँस की चचरी पर,
बचने की उम्मीद लिए भटकते हैं भूखे-प्यासे बस इधर-उधर।

मूक-बधिर प्रभु ! ..
अब अगर ब्राह्मणों की मान भी लें जो बकर-बकर,
तो क्या पूर्वजन्म के सारे ही पापी जन्मे थे उधर
और बसे थे सारे उसी गाँव में या उसी शहर ?
या हम सारे सच में हैं कोई पुण्यात्मा जन्मे इधर ?
सोचते हैं हम मूढ़ कि ..
ना तो आप है आकाश में, ना पाताल में,
ना तड़ित में, ना बादल, ना बरसात में,
ना मंदिरों के भीतर, ना ही कहीं बाहर, ना इधर .. ना उधर,
भला जन्मदाता या पालक होता है क्या इतना निष्ठुर ?
लगता है ... ये सब तो हैं केवल क़ुदरती क़हर ,
लाखों वर्षों से .. आदिमानव वाले काल से,
जिसे पुरख़े हमारे सदियों से हैं झेलते आये 
और कर डाली थी डर से तभी काल्पनिक रचना आपकी
और बस .. आप बस गए पहले उनकी बेबस, 
लाचार और डरी हुई सोचों में .. फिर धर्मग्रंथों में .. 
और फिर मंदिरों में बन गया आपका पक्का घर।
ये तो था बस उनका डर .. बस और बस .. उनका डर भर।
है अगर सच में कहीं .. जो आप आकाश या पाताल में .. तो ..
प्रभु! .. कुछ तो उन पर रहम कर .. अब तो कुछ .. शरम कर ...


(2) 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच 

सड़े हुए अंडों से भरे कई 'कैरेट' और
सड़े टमाटरों से भरी कुछ टोकरियाँ,
हो गई पलक झपकते खाली सारी की सारी,
हुई जब उन अंडों और टमाटरों की झमाझम बरसात
और बहुरंगी 'कार्टून' बना दिया मंचासीन साहिब को
भीड़ के कुछ लोगों ने करते हुए आदर-सत्कार।

झट साहिब पूछ बैठे धैर्य को रखते हुए बरकरार -
"भाइयों और बहनों ! भला इसकी क्या थी दरकार ?"
भीड़ से बोला एक दुबला-पतला मरियल-सा इंसान -
"बस यूँ ही ... कुछ ख़ास नहीं सरकार !"
दरअसल जब तक पौधों से थे ये टमाटर लटके ..
जब हमने तोड़े थे ..  एक उम्मीद से थे अटके ..
तब ये सारे के सारे टमाटर थे ताजे और टटके,
हृष्ट-पुष्ट .. 'कैल्शियम', 'फास्फोरस', 'साइट्रिक एसिड',
'मैलिक एसिड' और 'पालायकोपिन' से लबाबलब और
'विटामिन 'सी' व 'विटामिन 'ए' से भी भरपूर पौष्टिक थे बड़े।
और तो और .. अंडे भी जब मुर्गी से निकले थे,
तब ये सारे 'प्रोटीन', 'कोलीन', 'जिंक', 'विटामिन',
'आयरन' और 'कैल्शियम' से भरे पड़े थे हुए बेकरार।

पर आप को तो है अपने 51% वाले अंकगणित की दरकार
तो फिर 15%, 7.5%, 27% और 10% को जोड़ कर
कुल 59.50% का 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच अपना
बना रखा है आप ने बरकरार।
उसी 59.50% के तहत पहले भर-भर कर
कुछ कम 'विटामिन' और 'प्रोटीन' वाले
कुपोषित और कम पौष्टिक टमाटर और अंडे
उपभोक्ताओं के लिए भेजे जाते हैं बाज़ार।
होती है इस कदर उत्तम उत्पादन बेकदर और
उपभोक्ता भी वर्षों से होते आ रहे हैं कुपोषण के शिकार।
बाक़ी बचे 40.50% हिस्से में ही तो
हृष्ट-पुष्ट टमाटरो और अंडों का फिर हो पाता है व्यापार ..
मिलता है बस .. 40.50% ही बचा उन्हें बाजार।

साहिब !!!
वही शेष बचे हृष्ट-पुष्ट टमाटर और अंडे,
जो तब 'विटामिन' और 'प्रोटीन' से थे भरे,
पर अब सड़ गए हैं रखे-रखे .. बस बाज़ार बिना यूँ ही पड़े-पड़े।
ये वही टमाटर और अंडे हैं अब सड़े,
जो इस वक्त आपके थोबड़े पर हैं पड़े।
इन सब को कर दिया है आपके स्वार्थ ने बेकार।
बस इसी का तो है साहिब .. मौन तकरार ..
आप कर नहीं सकते साहिब .. इस से इंकार।
अब या तो आप अपना बिगड़ा, बदहाल चेहरा झेलिए
या फिर एक बार .. तो सुन लीजिए ना .. साहिब ..
इसकी बहुरंगी बदबूओं की मायूस मौन मनुहार
या हमारी ललकार ... जो कर नहीं पा रही चीत्कार ...






















Friday, July 24, 2020

ख्वाहिशों की बूँदें ...

बचपन में हम सभी ने माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत विज्ञान या भूगोल विषय में "वृष्टिछाया" के बारे में पढ़ा था। जिसे अंग्रेजी माध्यम वाले "Rain-Shadow" कहते हैं। शायद उसकी परिभाषा याद भी हो हमें कि "जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है, तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और यह "वृष्टिछाया क्षेत्र"  यानि अंग्रेजी माध्यम वालों का "Rain-Shadow Zone" कहलाता है। इस प्रकार "वृष्टिछाया" के कारण रेगिस्तान यानि मरुस्थल का निर्माण होता है।

इस बाबत दाहिया जी एक बहुत ही सुंदर उपमा देते हैं कि “अगर हवाई अड्डा (जंगल) ही नहीं होगा तो हवाई जहाज (बादल) कैसे उतरेगा।” दाहिया जी .. यानि मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गाँव में जन्में लगभग 76 वर्षीय बघेली उपभाषा के जाने-माने रचनाकार बाबूलाल दाहिया जी, जो कई कविताओं, कहानियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के रचनाकार के साथ-साथ डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी और पूर्णरूपेण जैविक खेती करने वाले किसान भी हैं। उनके पास अब तक देशी धान की लगभग 110 किस्मों का खजाना है, जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार का सम्मान भी मिला है।

खैर! ... वैसे अपनी बकबक को विराम देते हुए, फ़िलहाल बस इतना बता दूँ कि आज की इस रचना/विचार की प्राकृतिक अभिप्रेरणा "वृष्टिछाया" की परिभाषा भर से मिली है .. बस यूँ ही ...

ख्वाहिशों की बूँदें ...
उनकी चाहतों की 
बयार में
मचलते उनके 
जज़्बातों के बादल
देखा है अक़्सर
रुमानियत की 
हरियाली से
सजे ग़ज़लों के 
पर्वतों पर
मतला से लेकर 
मक़्ता तक के 
सफ़र में 
हो मशग़ूल 
करती जाती जो 
प्यार की बरसात
और .. उनकी 
चंद मचलती 
ख्वाहिशों की बूँदें 
होकर चंद 
बंद से रज़ामंद 
बनाती जो ग़ज़ल के 
गुल को गुलकंद

तभी तो शायद .. 
अब ऐसे में .. बस .. 
कुछ ठहर-सा गया है 
मेरे मन के 
मरुस्थल में 
बमुश्किल 
पनपने वाले
मेरे अतुकांतों के 
कैक्टसों का 
पनपना भर भी 
हो गया है बंद ..
बस यूँ ही ...

●◆★◆●




Tuesday, July 21, 2020

नज़र रानी की मुंतज़िर ...

आज हमारे सत्तर के दशक वाले खेलों के आयाम बदल गए हैं या यूँ कहें कि आयामों के खेल बदल गए हैं .. जो भी हो .. अनुभवी कहते हैं कि प्रकृति परिवर्त्तनशील है .. समय भी .. पल-पल, हर पल .. शायद .. तभी तो हम बच्चे से युवा और युवा से न जाने कब वयस्क हो कर  प्रौढ़ भी हो गए और इसीलिए तो हमारे बचपन के सब खेलों के भी मायने बदल गए .. "पर खेल तो हैं वही, बस आयाम है नयी" .. खैर ! अब चलते हैं आज की ताज़ीतरीन (ताज़ातरीन के तर्ज़ पर) परन्तु .. कई दिनों से दिमाग़ की हंड़िया में पक रही ये तीनों रचनाएँ .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...

नज़र  रानी की  मुंतज़िर 
कभी "व्यापार" के नकली रुपयों भर से भी 
तिजोरी हमारी बस यूँ अमीर हुआ करती थी।

"लूडो" के उन काग़ज़ी बेज़मीं घरों में ही सही
बिना  छत भी हमारी जागीर हुआ करती थी।

थी "कैरम बोर्ड"  की वो महज़ लाल गोटी ही
पर नज़र  रानी की  मुंतज़िर हुआ करती  थी।

कभी राजा,  मंत्री, सिपाही, तो  चोर भी कभी  
हाथ की पुड़िया बहुत अधीर हुआ करती थी।

पतंगों  संग अरमानें भी तो ऊँचाइयाँ थीं छूती
तब कहाँ हक़ीक़त की ज़ंजीर हुआ करती थी।

रेत पर .. रेत के बने घरौंदों पर अपने नामों की  
उँगलियों से  खुदी हुई  तहरीर हुआ करती थी।

न जाति का लफ़ड़ा,  न आरक्षण से रगड़ा कोई
गुड्डे-गुड़ियों की अच्छी  तक़दीर हुआ करती थी।

तब न कोई "एलओसी",न ही थी"एलएसी" कोई
"छू कित्-कित्" की  बस लकीर हुआ करती थी।

आँख-मिचौली, डेंगा-पानी या फिर छुआ-छुईं भी
तब छूने से कोई बात नहीं गंभीर हुआ करती थी।

"स्टेचू" का वो  धप्पा,  चाईं-चूड़ी, या  गाना-गोटी
पर मिटाने की नहीं कोई  तदबीर हुआ करती थी।

चोर के बाद राजा
जब भी मिलते थे बचपन में तब के चार यार,
मैं पप्पू, बबलू, गुड्डू और रामावतार,
राजा, मंत्री, सिपाही, चोर बनाता खेल
पुड़िया वाला, खेला करते थे हम कई बार,
कभी मैं बनता राजा तो कभी चोर,
कभी मंत्री तो कभी सिपाही कई बार
और ऐसा ही कभी होता बबलू के साथ
तो कभी गुड्डू तो कभी रामावतार के साथ कई बार
और इस क्रम में .. कभी-कभी तो यार! ...
ख़ुश होता जो भी बनता चोर के बाद राजा या मंत्री जिस बार,
कुछ-कुछ जैसे आज के लोकतंत्र में कई मंत्रियों की क़तार,
पर उदास होता था जो बनता था चोर- सिपाही, मंत्री या राजा के बाद 
पर ठीक इसके विपरीत है आज कई ऐसे नौकरशाहों की भरमार,
जो है इठलाता कर के भी ग़बन और घोटाले बेशुमार।

लाल रानी
कैरम बोर्ड की 
रानी लाल गोटी की जीत,
बिना किसी पीली या 
काली गोटी के जीत के
हर बार होती है बेमानी।

लाल गोटी .. रानी
पर साथ में है जरुरी
एक गोटी पीली या काली
वर्ना रानी बेमानी .. मानो ...
नर और नारी की कहानी।
           ★◆★



Sunday, July 19, 2020

"ॐ फट स्वाहा" ... समीक्षा - "घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम"/उपन्यास.


★ पुस्तक(उपन्यास)-प्राप्ति प्रतिक्रिया :-
यह एक संयोग है, अब इसे सुसंयोग समझें या दुःसंयोग ..  कह नहीं सकता, क्यों कि इधर 23.03.2020 (सोमवार) से 25.06.2020 (बृहस्पतिवार) तक लगभग 95 दिनों के Work from Home के बाद 26.06.2020 से मेरा Work from Office शुरू हो गया है और Work from Home की समाप्ति के बाद, Work from Office शुरू होने के दिन दोपहर में मेरे वर्त्तमान निवास के पते पर एक डाक मेरी धर्मपत्नी द्वारा receive की गई है। बेशक़ धर्मपत्नी ने डाक receive करने के पहले फ़ोन कर के एहतियातन यह पूछा जरूर था कि एक डाक आयी है "भारती प्रकाशन, वाराणसी" से .. receive कर लें ना ?
प्रकाशक का नाम तो याद नहीं था, पर सौरभ जी से 20.06.2020 को फ़ोन पर हुई बातें याद थी कि वे अपनी (सौरभ दीक्षित "मानस") और कविता जी (कविता सिंह) की लिखी संयुक्त रचना- "घाट 84, रिश्तों का पोस्टमार्टम" मुझे by post या courier के द्वारा प्रकाशक से कह कर मेरे पता पर भिजवाने के लिए मेरा पता माँगे थे। वैसे इसके पहले भी Amazon पर इसके लिए मैं lockdown शुरू होने के पहले 19.03.2020 को ही रु. 345/- भुगतान कर चुका था, पर मेरी तकनीकी जानकारी की कमी के कारण मैंने उपन्यास की Hard copy के लिए order करने के बजाय Kinder version वाले option पर OK कर दिया था; जो सौरभ जी को बतलाया भी था Telephonic बातचीत के दौरान।
अतः आई हुई डाक के ऊपर भेजे जाने वाले के पता में भारती प्रकाशन के साथ-साथ वाराणसी लिखा होने के कारण मैंने receive करने के लिए बेझिझक बोल दिया था।  वैसे भी ये बात दिमाग में तो थी ही कि मुझ जैसे मामूली इंसान के लिए कोई आतंकवादी किसी बम को भेज कर फ़िज़ूलखर्ची तो करेगा नहीं और ना ही किसी के द्वारा दुश्मनी से कोरोना वायरस भेजने का कोई भय है।
अपने office से नियत समय से कुछ पहले निकल कर, इन दिनों अपने Shoulder Pain व Cervical Problem के कारण रोज़ाना शाम में लिए जाने वाले Physiotherapy Center से Therapy लेकर जब रात के लगभग नौ बजे घर पहुँचा तो पहले उस डाक वाले Packet को Sanitize कर के उत्सुकतावश खोला तो खाते-पीते घर की स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट देह की तरह एक मोटे-से उपन्यास ने Packing वाले लिबास के अंदर से झाँका। अब तक जिसकी तस्वीर भर सोशल-मिडिया पर देख कर संतोष करता आ रहा था .. वो लुभावने लाल रंग के Cover में अभी-अभी मेरे हाथ में पड़ा मुस्कुरा रहा था।
मैं इत्मीनान हो गया कि ये वही सौरभ जी (जो वाराणसी के एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठान में सिविल इंजीनियरिंग से जुड़े कार्य में कार्यरत हैं) और कविता जी (जो वाराणसी में ही एक शैक्षणिक संस्थान- "समीक्षा कोचिंग सेंटर" की निदेशिका हैं) वाला "घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम" ही है।
मुझ जैसे बस यूँ ही ... (#basyunhi) बकलोल का बकवास (#baklolkabakwas) करने वाले स्टुपिड (#stupid) बकचोंधर चाचा (#bakchondharchacha), जो बंजारा बस्ती के बाशिंदे (#banjaarabastikevashinde) है, उस से उन दोनों की इतनी मोटी उपन्यास की एक अच्छे समीक्षक के रूप में समीक्षा करने की उम्मीद बस .. एक ज़र्रानवाज़ी भर ही है। मुझ जैसा सपाटबयानी करने वाला इंसान मालूम नहीं उनकी कसौटी पर कितना खड़ा उतरेगा .. उतरेगा भी या नहीं .. या बस यूँ ही ... कुछ भी बकवास कर के छोड़ देगा।
दरअसल 2018 में Social Media के द्वारा मुझे Open Mic की जानकारी हुई और इस से युवाओं के साथ जुड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसी के बहाने लिखने का सिलसिला भी जो फिर से रफ़्तार पकड़ी तो ब्लॉग तक आकर और भी तेज हो गई। उसी दौरान सौरभ जी की टीम द्वारा ही संचालित एक Open Mic - "बनारसिया क्लोज़ माइक-2" जो पटना में गाँधी घाट के पास घाट किनारे के एक कैंटीन के हॉल में हुआ था, जहाँ सौरभ जी से पहली मुलाक़ात हुई थी।
उसके बाद उनके द्वारा संपादित सात रचनाकारों की साझा कविता संग्रह, जिनके सात में से एक मैं भी था और कविता जी भी थीं, के विमोचन के समय 21.06.2019 की शाम को कविता जी से वाराणसी के अस्सी घाट पर बने मंच पर पहली बार मुलाक़ात हुई थी।
                      ख़ैर ! .. अब तक तो बस एक बार कौतूहलवश केवल उल्टा-पलटा भर ही है इस उपन्यास को .. बात की शुरूआत में संयोग को लेकर सुसंयोग या दुःसंयोग की ऊहापोह इसीलिए हो रही थी कि Work from Home में आप अपनी सुविधानुसार बीच-बीच में बिस्तर पर लेट कर अपनी देह को सीधी भी कर लेते हैं या कुछ निजी कार्य भी निपटा लेते हैं और कुछ Hobby को भी समय दे देते हैं। थोड़ी बहुत सोशल-मिडिया पर ताक-झाँक भी कर लेते हैं, परन्तु Work from Office में ये सारी सुविधाओं से आप वंचित रह जाते हैं, अगर आप सच में एक ईमानदार कर्मचारी हैं।
                      ख़ैर ! .. अब जैसे भी हो समय तो निकालना ही पड़ेगा, क्योंकि उस शाम से कान में शोले फ़िल्म की पात्रा टाँगेवाली बसंती का वो संवाद बार-बार बजने लगता है - "चल धन्नु ! तेरी बसंती के इज्ज़त का सवाल है।"
अभी तक तो जो नज़र देख पायी है कि यह 84 भागों में 344 पृष्ठों का भारती प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित कविता सिंह और सौरभ दीक्षित "मानस" की लिखी संयुक्त रचना है। जिसका मूल्य-345/- रु. है और Amazon पर भी उपलब्ध है। इसके प्रकाशित होने के पहले भी इसके सारे 84 भाग फेसबुक पर भी एक-एक कर समयांतराल पर प्रसारित किए जा चुके हैं।
इसके 344 पृष्ठों में से 15 पृष्ठों में "सोशल मीडिया की कुछ प्रतिक्रियाएँ", "अस्वीकरण", "अनुक्रम", "संवाद", "भूमिका", "हमारी बात" और "एक नज़र" .. जैसी जरूरी बातें होने के कारण मूल उपन्यास कुल (344-15=329) 329 पृष्ठों में अपना पाँव पसारे लेटा हुआ है।
"संवाद" के तहत उपन्यास के नायक का संवाद - "थम जा यार! बाहर ही कूद पड़ोगे क्या? मैंने अपने दिल से पूछा।" पढ़ कर अनायास अपने दिल पर बायीं हथेली कुछ टटोलने चली जाती है।
उपन्यास के दोनों Cover के अंदर की ओर मुड़े हिस्से पर एक तरफ "कहानी के कुछ अंश" और दूसरी तरफ "पाठकों की प्रतिक्रियाएँ" भी छपी हैं।
कहानी के कुछ अंश के तहत- "छोड़ मुझे नहीं तो मेरी किक तुझे बहुत मंहगी पड़ेगी वायरस! तेरे माँ-बाप अपनी आगे की पीढ़ियों के लिए तरस जाएंगे।" पढ़ कर एक किक महसूस होने लगता है। शुरूआती कुछ पन्ने को टटोलने भर से लगता है कि इसका पात्र नायक सौरभ पॉलिटिकल साइंस का छात्र और पात्रा नायिका निशा सिविल इंजीनियरिंग की छात्रा है। सौरभ किस कालखंड (लगभग 80-90 के दशक) का छात्र है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है, उसके "बत्ती वाला स्टोव" इस्तेमाल करने से; क्योंकि अनुमानतः आजकल तो हर तबके के छात्र किलो के हिसाब से खुदरा दर पर ब्लैक में ईंधन-गैस खरीद कर गैस-स्टोव व्यवहार में लाते हैं। स्वाभाविक है कि यह वाराणसी (बनारस/काशी) के बीएचयू (Banaras Hindu University/काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), अस्सी घाट जैसे प्रसिद्ध जगहों के पृष्ठभूमि की सुगंध से सराबोर है।
                       इसकी सबसे बड़ी सर्वविदित ख़ासियत यह है कि दोनों रचनाकारों ने अलग-अलग समय पर अपनी सुविधानुसार आपसी सामंजस्य के आधार पर हर भागों के अलग-अलग अंशों को रचा है।
इस रचना में जितने भी सहयोगी हैं, उनमें सर्वोपरि श्रेय जाता है, इस पुरुष प्रधान समाज में कविता जी के धर्मपति योगेश जी की सहमति की और विचारधारा की, जिन्होंने स्वयं से दोनों रचनाकारों को एक साथ रचने के लिए इसका सुझाव दिया। साथ ही सौरभ जी की धर्मपत्नी-अंकिता जी (अगर मैं नाम सही ले रहा होऊं तो, क्योंकि एक दिन सौरभ जी उन्हीं के फ़ोन से मुझे फोन कर दिए थे, तो मेरे Mobile के Truecaller App ने नाम की चुगली कर दी थी और मेरे टोकने पर उन्होंने स्वीकार भी किया था) के मिले नैतिक समर्थन को भी झुठलाया नहीं जा सकता या दरकिनार नहीं किया जा सकता।
                        उपन्यास के 84 भागों में से भाग-1 का एक संवाद - "ऑल मैन्स आर डॉग!" एक बार अपने गिरेबान में झाँकने के लिए मज़बूर कर जाता है। अंतिम यानि भाग-84 के आखिरी पन्ने का तुलसी नामक पात्र द्वारा बोला गया आखिरी संवाद - "ऑपरेशन सक्सेसफुल!!!!!!"- बार-बार बेबस कर रहा है .. कि मैं पूरे उपन्यास को पढ़ कर इसका भी ऑपरेशन करूँ यानि इसकी समीक्षा करूँ .. जल्द से जल्द ... तो जल्द ही मिलते हैं इस उपन्यास की समीक्षा के साथ .. आप सबों से .. बस यूँ ही ...

★ अब समीक्षा :-

◆ पहले अपनी बात (कमजोरी) :-
सर्वविदित है कि ना तो हमने साहित्य की कोई विधिवत शिक्षा ग्रहण की है और ना ही मुझे किसी विधा की जानकारी है। खासकर समीक्षा के बारे में तो .. ना तो कोई जानकारी है और ना ही अनुभव। बस .. पावर वाले चश्मे से आँखों को जो दिखता है और थोड़ा-बहुत जो भी दिमाग की हँड़िया में पकता है, उसको मोबाइल के टच स्क्रीन पर उँगलियाँ दौड़ा कर परोस भर देता हूँ। यहाँ भी मैं ने यही किया है। यह मेरी पहली बार की गई किसी भी रचना की समीक्षा की कोशिश है।अगर कोई भी या कई सारी त्रुटियाँ रह गई हों तो आप सभी का अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ। वैसे तो .. देखा जाए तो .. हर वह पाठक/पाठिका जो किसी भी रचना को मन से पढ़ता/पढ़ती है, वह उस रचना की समीक्षा मन ही मन तो करता/करती ही है .. मैं भी .. जो कई बार प्रतिक्रिया के रूप में दिखता है ; कई लोगों की औपचारिक प्रतिक्रिया को छोड़ कर। पर उस मन ही मन की समीक्षा या संक्षिप्त प्रतिक्रिया की जगह इस को विस्तार से प्रस्तुत करते वक्त मेरी स्थिति अभी वैसी ही हो रही है, जैसी लॉकडाउन के दौरान एक सामान्य गृहिणी माँ को अपनी संतान के ज़िद्द पर ज़बरन कोशिश कर के घर पर ही पिज्ज़ा बनानी पड़ी हो या कसाटा आइसक्रीम जमानी पड़ी हो। खैर! .. आइए .. बढ़ते हैं अब मूल मुद्दा की ओर ...

◆ समीक्षा की कोशिश .. लेखनद्वय :-
"घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम" ..हाँ, यही नाम है इस उपन्यास का, जिसकी समीक्षा करने की कोशिश भर कर रहा हूँ। इसके प्रकाशक हैं- भारती प्रकाशन, वाराणसी, जिसका प्रथम संस्करण इसी साल 2020 के आरम्भ में आया है। यह अमेजॉन पर भी सहज उपलब्ध है। जिसका मूल्य मात्र .. न, न .. ये हम नहीं बताने वाले .. मूल्य तो खरीदते वक्त आप स्वयं ही जान जायेंगे। इसके शब्द-संयोजक और मुद्रक हैं- कुमार ग्राफ़िक्स, दिल्ली। इसके आवरण पृष्ठ और अन्य चित्रांकन गूगल से लिए गए हैं। इसकी भूमिका लिखी हैं- डॉ शीतल बाजपेयी जी ने, जो कानपुर से हैं।
इस उपन्यास की सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इस की रचना लेखिका- कविता सिंह और लेखक- सौरभ दीक्षित "मानस" ने मिल कर किया है। चूँकि एक लेखक हैं और दूसरी लेखिका, तो ऐसे में मेरे अनुसार (हो सकता है मैं गलत भी होऊं) इनको "लेखकद्वय" कहना सही नहीं होगा; क्योंकि यहाँ संपादक (हिन्दी व्याकरण में सम्पादिका शब्द व्यवहार में नहीं लाते हैं) शब्द वाली मजबूरी नहीं है। तो ऐसे में "लेखनद्वय" शब्द का प्रयोग करना यथोचित होगा .. शायद ...।
लेखनद्वय के सौरभ दीक्षित "मानस",  जिनकी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, संस्मरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। एक साझा काव्य संकलन- "सप्तसमिधा" के सम्पादन का भी इन्हें अनुभव है। इनकी हिन्दी और अंग्रेजी के अलावा बुंदेलखंडी भाषा पर भी पकड़ है। ये मुक्तछंद, गीत, ग़ज़ल, दोहा, लघुकथा आदि भी लिखते हैं। ये इनका पहला उपन्यास है। मूलरूप से ये कानपुर के रहने वाले हैं।
साथ ही लेखनद्वय की कविता सिंह हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लिखती हैं। इनकी अब तक दो साझा काव्य संकलन आ चुकी है - "सप्तसमिधा" और "हाँ! कायम हूँ मैं"। "लहक" सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में भी कविताएँ, कहानियाँ और भोजपुरी संस्मरण छप चुकी हैं। इनके अलावा ये मुक्तछंद, गीत, ग़ज़ल लिखती हैं। इनका भी यह पहला उपन्यास है। इनको हिन्दी और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (M A) डिग्री प्राप्त है। साथ ही इन्होंने शिक्षा-स्नातक (B Ed) भी किया है। वाराणसी में एक शिक्षण-संस्थान - "समीक्षा कोचिंग) की निदेशिका हैं। लेखन और शिक्षण के अलावा समाज सेवा में भी संलग्न हैं। "बनारसिया" नामक संस्थान की संयोजिका भी हैं।
यह उपन्यास किसी मँहगे रेस्टुरेन्ट के मसालेदार गरिष्ठ व्यंजन के स्वाद और सुगंध के बजाय बासमती चावल के पकते बर्तन से या फिर किसी भड़भूँजे की कड़ाही से आने वाली सुगंध की तरह सुग्राह्य और सुपाच्य लगता है। उपन्यास में अपनापन की सुगंध वाला तारतम्य होने से पाठकों/पाठिकाओं का जुड़ाव होना स्वाभाविक है।
सम्पूर्ण उपन्यास आत्मकथ्यात्मक या संस्मरणात्मक शैली में लिखी गई है। इस उपन्यास का नर्म दुशाला कई मुख्य पात्रों के ताने और कई सह-पात्रों के बाने से बुना गया है। मुख्य पात्रों के जमघट में हैं - सौरभ उर्फ़ बिंदास निशा का सौरभिया, पगली और नटखट नौटंकी भी उर्फ़ अपने माता-पिता का सुग्गा उर्फ़ मानस उर्फ़ सौरभ सांडिल्य उर्फ़ सौरभ सांडिल्य 'मानस',  निशा उर्फ़ पंडित उर्फ़ विविध भारती उर्फ़ गुंडी टाइप उर्फ़ निशा देवधर भारद्वाज, भावना, आदित्य उर्फ़ आदि, देवधर भारद्वाज,  ए. के. खुराना उर्फ़ वकील अंकल, उनका बेटा जॉनी, मैम उर्फ़ कवी सक्सेना, उनकी भतीजी यशवि उर्फ़ यशी, बीरू, छुटकी, नमन और अमन। साथ में "पंडित मंडली" की रश्मि, पिंकी, श्वेता, स्वाति, राकेश, जतिन, टुईं उर्फ़ प्रबल दिवाकर शर्मा, शक्ति शिकारी, निरहुआ उर्फ़ पेटीकोट बाबा उर्फ़ प्रतीक, चिकनी चमेली उर्फ़ मनु, तुलसी टपोरी, बिल्लू वायरस उर्फ़ विमल शंकर तिवारी और उपन्यास में एक उपन्यास- "स्वर्ग की शापित अप्सरा 'कृतिका' " भी हैं।
अब बात करें सह-पात्रों की तो .. इन्द्रबदन शर्मा उर्फ़ अंकल और उनसे उम्र में 13 साल छोटी उनकी धर्मपत्नी स्वीटी उर्फ़ आँटी, रिपोर्टर दीवा, अमन चौरसिया, इच्छा, सागर, अमन आहूजा, छोटू, मुस्की चाचा, गुड्डन आँटी, रजत, रिंकू, श्रीवास्तव जी, शीला कामवाली बाई, हिना और सरिता, एक टीटीई, चौबे जी, अरुण सर, शुक्ला सर, जिया, डॉ शरद, डॉ मेहरा, डॉ जॉनसन .. इन सब के बिना भी तो उपन्यास पूरा नहीं हो सकता था। है कि नहीं ? ...
इस उपन्यास के सारे पात्र-पात्रा बनारस उर्फ़ वाराणसी उर्फ़ काशी के बीएचयू उर्फ़ बनारस यूनिवर्सिटी उर्फ़ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अस्सी घाट उर्फ़ रहस्यमयी घाट चौरासी के साथ-साथ कानपुर, लखनऊ और नई दिल्ली के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र- 26 साल के सौरभ और मुख्य पात्रा- 30 साल की निशा का उपन्यास के आखिरी भाग-84 के आखिरी पन्ने के पहले तक अबोला प्यार एक दिन सौरभ के सपने में कहे गए फ़िल्म "प्रेम गीत" के गाने का मुखड़ा - "न उम्र की सीमा हो, न जन्मों का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन" को चरितार्थ करता है।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र सौरभ एक कवि और लेखक है, तो इस उपन्यास में कई पन्नों में कई सारी पद्यात्मक रचनाओं को भी स्थान मिला है, जो इसका ही अंग-अंश महसूस होता है।
चूँकि उपन्यास हमारे अपने समाज के बीच का ही लगता है तो समाज की चंद बुराइयों की भी चर्चा होनी स्वाभाविक ही है। कई सामाजिक विसंगतियों को कई पात्रों के माध्यम से उकेरने की कोशिश की गई है।इसके सभी पात्र इसी समाज से हैं तो कुछ पात्रों में बुरी लत का होना भी स्वाभाविक ही है। अब ऐसे में उपन्यास के आरम्भ में फ़िल्म या टी वी सीरियल के तर्ज़ पर लिखे गए अस्वीकरण (Disclaimer) के साथ-साथ संवैधानिक चेतावनी भी लिखनी चाहिए थी कि - "मद्यपान और धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।" (वैसे ये बात मजाक में लिख रहा हूँ।)
दरअसल इस उपन्यास के प्रकाशन के पहले इसके सारे 84 भागों को सौरभ जी ने अपने फेसबुक वॉल पर क्रमवार पोस्ट किया था। उस दौरान उनकी व्यस्तता के कारण उनके निवेदन पर बीच-बीच के बहुत सारे अंशों या भागों को कविता जी ने भी लिखा है। पूरे उपन्यास के पढ़ने के बाद भी पाठकों/पाठिकाओं के लिए ये पहचान पाना एक असम्भव चुनौती होगी कि किस अंश को किसने लिखा है। ना तो पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्तियों से और ना ही घटनाक्रम के तारतम्य से .. आरम्भ से अंत तक। लेखनद्वय का कमाल ऐसा है कि शब्द-चित्र मानो चलचित्र की तरह चल रहे हों। एक के बाद एक, हर भाग के अंत में एक रहस्य और उसके अगले भाग से उसका हल। इस तरह का तारतम्य अनवरत भाग-1 से लेकर भाग-84 तक चलता है। भाग-84 के बाद भी आपको लगेगा कि अभी उपन्यास के कुछ और भाग होने चाहिए थे। 

◆ विधिवत विमोचन बनाम घाट चौरासी :-
जहाँ तक मेरी जानकारी है कि इस कोरोनकाल में बचाव के ख़्याल से लागू की गई लॉकडाउन की परेशानी और अवरोध के कारण इसका विधिवत विमोचन नहीं किया जा सका। अगर होता तो .. एक बार और भी धार्मिक नगरी वाराणसी के अस्सी घाट .. ओह ! .. ना, ना .. अब तो घाट-84 को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता। अब ये घाट-84 आप गूगल पर मत ढूँढ़ने लग जाइयेगा, क्योंकि इस घाट चौरासी की जानकारी ना तो आपको सामान्य ज्ञान की किताबों में मिलने वाली है और ना ही गूगल मैप पर इसका पता; बल्कि इस का पता इसी उपन्यास में मिलेगा आपको। तो मैं यही कहूँगा कि कम से कम एक बार तो खरीद कर आप जान ही लीजिए इसे पढ़ कर इस अनोखे घाट का पता, ताकि अगली बार जब आप वाराणसी जाएं तो इसका लुत्फ़ ले सकें।
वैसे तो घाट चौरासी के पता के अलावा और भी कई अनसुलझे रहस्यों का हल छुपा है इस उपन्यास में, जिसके लिए आपको ख़रीद कर तो पढ़ना ही पड़ेगा। मसलन -
बनारस में घाट चौरासी कहाँ पर है ? उपन्यास की मुख्य पात्रा- निशा को सभी पंडित कह कर क्यों पुकारने लगे थे ? निशा अपने जन्मदिन के दिन तोहफा में मिले दोनों कारों - ऑडी और मर्सिडीज - को किस कारण से लेने से इंकार कर दी थी ? स्वीटी आँटी को अपने से तेरह साल बड़े पति के साथ वैवाहिक जीवन में क्या-क्या झेलना पड़ा था ? विमल शंकर तिवारी भला बिल्लू वायरस कैसे बन गया था ? रीना मैडम का सिर शर्म से क्यों झुक गया था ? गुड्डन आँटी एक किन्नर के साथ धोखे से ब्याहने के बाद भी माँ कैसे बन पायी थीं ? सौरभ को बनारस से कानपुर जाते वक्त बड़ी मुश्किल से ट्रेन खुलने के बाद टीटीई से एक बर्थ मिल तो गई थी, पर किस कारण से उसे रात डब्बे के दरवाज़े के पास बितानी पड़ी थी ? तुलसी टपोरी की लाश रवीन्द्र पार्क के पास मिलने के बाद भी उसने बाद में स्वाति से शादी कैसे की थी ? ये चायनीज रस्सी, गप्पक गोला और पिघलता पर्वत भला क्या बला है ?  जब छुटकी घर से प्रेमी के साथ भाग कर जाती है, तो फिर मुहल्ले के बीरू की दुल्हन कैसे बन गई थी ? "भारद्वाज बालिकागृह" के गेस्टरूम की खिड़की पर सौरभ को दिखने वाली लड़की अगले दिन सभी को कहाँ और किस हाल में मिली थी ? निरहुआ के अचानक से पेटीकोट बाबा बनने का क्या कारण था ?

◆ लड़का वही जो सीनियर पटाये :- अब उपन्यास कॉलेज परिसर की परिधि के इर्द-गिर्द पनपा है तो स्वाभाविक-सा लगता है .. पात्रों के मोबाइल के कॉलर ट्यून में फ़िल्मी गानों का होना, बातों-बातों में फ़िल्मी डॉयलॉग और पात्रों का हवाला देना। इसी कारण से आम चुहलबाजियाँ भरी बातें भी हैं। मसलन - निशा का अपने "पगली" से कहना कि  "तू दस मिनट वेट कर हम पन्द्रह मिनट में आते हैं।" यशी का सौरभ से कहना - "छोटा (घर) है तो क्या हुआ ? मुझे कब्ज़ा थोड़े हो करना है।" और एक नमूना ये कथन भी - "मतलब ये कि "दुल्हन वही जो पिया मन भाये और लड़का वही जो सीनियर पटाये" - यही इनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।" चुहलबाजी में कई छिछोरे शब्द चोंचू, लफद्दर, चमाट, लवेरिया या नायक का तकिया कलाम- "ॐ फट स्वाहा" (तथाकथित वशीकरण मंत्र) और "जो सुधर जाये वो सौरभ नहीं ..." भी हैं।
बीच-बीच में पात्र के अनुसार उनके संवाद में जालौन और भोजपुरी उपभाषा की भी इस्तेमाल की गई है। हालांकि एक शब्द "पनौती" और एक मुहावरा "काम पैंतीस हो जाना" मेरे लिए अभी भी अनसुलझा हुआ है।
कुछ संवाद मन को छू कर भींजो जाते हैं। मसलन - सौरभ का  निशा से कहना - "सच बोल कर जान ले लेना पर झूठ बोल कर मुझे जिन्दा मत रखना।" सौरभ का मन ही मन तथाकथित ऊपर वाले से एक गुहार - "गज़ब कर रहे हो प्रभु! आज तो मेरी मुहब्बत की रेलगाड़ी भी पंचर कर दी।" निशा का गुस्से में बड़बड़ाना - "ख़ून खौलता है मेरा, ऑल मेन्स आर डॉग।" निशा का अपनी माँ के मरने की सिल्वर जुबली मनाते वक्त सौरभ से कहना - "हर रोज हजारों ख़्वाहिशों की मौत होती है, पर अगर किसी की आख़िरी ख़्वाहिश अधूरी रह जाये तो उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती।" लेखनद्वय का निशा के लिए ये कहना कि - "शायद अपने दुःख को सीने में दफन कर के मुस्कुराने को ही निशा कहते हैं।"
यशी का ये सवाल सौरभ से पूछना अनायास रुला जाता है - "हर चीज उधार मिलती है तो ज़िन्दगी क्यों नहीं मिलती मानस ?" और ... ये उलाहना भी कि - "पूरा (गाली) कहाँ दिया आधा ही तो बोला। बिल्कुल अपनी ज़िन्दगी की तरह ..." या फिर सौरभ के पूछने पर कि - "कैसी हो यशी ?" के जवाब में यशी का खिलखिलाते हुए कहना - "बिंदास ! बमचक ! लल्लन टॉप ! बिल्कुल भली-चंगी, चाहो तो पंजा लड़ा लो !"
"आ गए ? बड़ा पेट्रोल बाँटा जा रहा है आजकल ? " - ये वाक्य जब निशा तंज कसते हुए सौरभ को कहती है तो, एक नारी-मन या यूँ कहें कि मानव-मन में किसी के प्रति प्यार का अंकुर फूटने पर उसका किसी अन्य के साथ किसी भी तरह का जुड़ाव जलन और चिढ़ पैदा करती है, वाला स्वाभाविक भाव ज़ाहिर होता है।
लेखनद्वय की लेखन में एक तरफ दर्शन के भावों का भी दर्शन होता है। मसलन -
(1) "जब हमें लगता है कि हम ज़िन्दगी को समझ गये हैं, ठीक तभी ज़िन्दगी कोई दूसरा खेल खेलना शुरू कर देती है।" (2) "अगर एक औरत अपनी पर आ जाये तो उससे दुनिया की कोई ताक़त नहीं बचा सकती।" (3) "जब आप गलत होते हो तो आप कितने भी ताक़तवर हो जीत नहीं सकते।" (4) "अगर आप सफल हो तो आपके दोष भी किसी को नज़र नहीं आते और अगर असफल हो तो आपकी भूल भी गुनाह नज़र आने लगती है।" (5) "ख़ास से ख़ाक होने में कितना समय लगता है। दुनिया बहुत प्रैक्टिकल है सौरभ ! - सौरभ की अन्तरात्मा की आवाज़।" (6) "जब काम करने वाली जगह पर कुछ अपनापन रखने वाले लोग होते हैं, कुछ बनता नहीं पर एक ऊर्जा मिलती है जिससे आदमी तकलीफ़ सह सके।" (7) "अपने-अपने सम्बन्ध हैं कोई तो ज़िंदगी भर साथ रहता है पर अपना नहीं हो पाता और कोई एक ही पल में ज़िन्दगी भर के लिए अपना हो जाता है।"
तो कई बार ... मनोविज्ञान पर इन लेखनद्वय की मज़बूती से पकड़ का भी भेद खुलता है। मसलन -
(1) "निशा के हाथ में एक ख़ूबसूरत-सी डायरी थी जो वो बार-बार हाथों में घुमा रही थी। ऐसा तब होता है जब कोई गहरी सोच में डूबा हो, ... " (2) "निशा अपने दोनों हाथों से रेत को बहुत तेजी से मुट्ठी में बाँधने की कोशिश कर रही थी, ऐसा तभी होता है जब कोई अपनी असहनीय पीड़ा से जूझ रहा हो।" (3) "कभी-कभी कुछ ज्यादा सगे लोग सगापन दिखाने के चक्कर में घावों को कुरेद दिया करते हैं।"
(4) "ये मर्द भी ना, चाह कर भी किसी के सामने रो नहीं पाते।"

◆ कुछ भूल-चूक :-
कहते हैं कि भूल-चूक होना मानवीय गुण है। अब ऐसे में 344 पन्नों के उपन्यास में कुछ भूल रह जाना भी संभव है, जिसे सुधारा जा सकता था। मसलन - "अशुद्ध शब्द - शुद्ध शब्द (पृष्ट संख्या)" के क्रम में चंद मुद्रण अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं :-
वर्डबैंक - वर्ल्ड बैंक (21), खुबसूरत - ख़ूबसूरत (19), जिंदगी - ज़िंदगी/ज़िन्दगी (21), रश्मी - रश्मि (24), निकलते - निकालते (25), सर - सिर (63), है था - था (63), ख़्वाइशों - ख़्वाहिशों (66), सिलबर - सिल्वर (66), मेहरून - मैरून (78), नशीला - नशीली (आँख के संदर्भ में) (92), छड़िकाओं - क्षणिकाओं (92), सुमाकर - शूमाकर (97), गृहस्थन - गृहिणी (98), फट्टे - फ़टे (99), टीसी - टीटीई (160), लाड - लाट (168), के - की (ख़ातिर के संदर्भ में) (188), स्कूटर - स्कूटी (202), चाभी - भाभी (266), गएँ - ? (332) और साथ ही 218 के अंत और 219 के आरम्भ के वाक्यों के बीच कुछ लापता-सा लगता है।
और हाँ ... इसमें वैसे तो प्रयोग किए गए नामों - रश्मि, दिवा, कवि और यशवि जैसे शब्दों के हिन्दी भाषा में अर्थ हैं, परन्तु लेखनद्वय ने इन चारों शब्दों को किसी के नाम के लिए यानि संज्ञा के रूप में प्रयोग किया है, तो रश्मी, दीवा, कवी और यशवी को भी सही माना जा सकता है।         
चलते-चलते एक और भूल को इंगित करना चाहता हूँ। शायद इसको बतलाए बिना मैं समीक्षक का धर्म नहीं निभा पाउँगा। जैसे समाज में कई समूह हेड कॉन्स्टेबल, ASI, SI और DSP में ख़ाकी वर्दी के कारण फ़र्क नहीं कर पाते और सब को सिपाही जी या पुलिस बोल कर ही सम्बोधित करते हैं ; वैसे ही रेलवे के संदर्भ में लोगबाग़ कई दफ़ा टीटीई (Travelling Ticket Examiner) और टीसी  (Ticket Collector) में अंतर नहीं कर पाते और एक जैसे काले कोट के कारण दोनों को ही टीसी बाबू से संबोधित कर देते हैं। चूँकि उपन्यास का मुख्य पात्र कानपुर का रहने वाला है, तो हो सकता है इसी कारण से वह टीटीई को टीसी बोलता है या फिर लेखनद्वय से ये भूलवश लिखा गया है। अगर ये भूलवश लिखा गया है तो आगे से इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

◆ गुदगुदी को विराम :-
अंत में शायद यह अतिशयोक्ति लगे, पर बिल्कुल सत्य है कि लॉकडाउन के बाद अपने कार्यालय से अचानक मिले अतिरिक्त कार्यभार वहन करते हुए कई चरणों में पढ़ने के दौरान अनेकों बार संदर्भानुसार हमने अपना पेट का हिलना महसूस किया है; कुछ उपन्यास के विन्यास के कारण और कुछ अपनी अतिसंवेदनशीलता के कारण .. कभी लोर के साथ हिचकियों को रोकने के क्रम में तो कभी हँसी की गुदगुदी को विराम देने के क्रम में।◆