Sunday, July 26, 2020

झींसी वाली रंगोली

इन दिनों देश के कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार, असम और उत्तराखंड आदि, में क़ुदरत अपना क़हर बरपा रहा है; जिस के बारे में हम समाचार पत्रों और अन्य संचार माध्यमों से दिन रात अवगत हो रहे हैं। वैसे तो जब से होश सम्भाला है, बरसात के मौसम में उत्तर बिहार, विशेष कर कोसी क्षेत्र, के विनाशकारी बाढ़ के बारे में हम लोग सुनते आ रहे हैं। इसीलिए कोसी नदी को "बिहार का अभिशाप" या "बिहार का शोक" भी कहा जाता है। ऐसा स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया था। यूँ तो कोसी नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है। ये अलग बात है कि उस जमाने के संचार माध्यमों, अख़बार और रेडियो, की अपनी सीमाएँ थी, जिस से हम दिल दहलाने वाले उन चलायमान दुःखद  दृश्यों को आज की तरह देख नहीं पाते थे।
आज बड़ी आसानी से टी वी के पर्दे पर जब ऐसी कई आसपास की कुछ विसंगतियाँ या विषमतायें अंतर्मन को झकझोर जाती है और अपनी कुछ सीमाओं में बंधा इंसान कुछ भी नहीं कर सकने की परिस्थिति में एक घुटन महसूस करता है। तब मन में उठे कुछ सवाल, मन को मथते हैं। मन करता है कि इन विपदाओं के निदान के लिए मनुहार करें, पर किस से ? किसी को ललकारें, पर किसको ? या फिर चित्कार करें, पर किस के समक्ष ? ऐसे ही ऊहापोह की कोख़ से पनपी हैं आज की दोनों रचनाएँ/विचार .. जिनमें पहली में क़ुदरती क़हर पर कुछ सवालात हैं और दूसरी में एक मानवजनित अवहेलना पर ... बस यूँ ही ...


★ (1) झींसी वाली रंगोली

हे इंद्र !!! ...
देवता हैं आप शायद बरसात के,
कहा है ऐसा पुरखों ने,
रचा भी है धर्मग्रंथों में 
और आज भी यहाँ शायद यही सब हैं मानते।
पर .. हर साल आपके आने पर .. 
हम तो यहाँ कॉफ़ी के घूँटों को
बजाय आवाज़ करते हुए सुरकने के,
कप को होंठों से चूमने वाली 
संस्कारी बेआवाज़ चुस्कियों के साथ,
'कोलेस्ट्रॉल'-स्तर को ध्यान में रख कर
'नैपकिन पेपर' से तेल सोखे तले गर्म पकौड़ों को
मुँह के प्रेक्षागार में लारों की गलबहियाँ में लिपटाए
अपनी जीभ के 'रैम्प' पर थिरकाते हुए,
बैठ कर अपनी खिड़की के पास या 'बालकॉनी' पर
महसूसते हैं चेहरे के 'कैनवास' पर बयार की तूलिका से 
रची पानी की झींसी वाली रंगोली अक़्सर।

और पास ही बजते किसी मनपसंद रूमानी ग़ज़ल पर
अनामिका और अँगूठा के संगम से जनी 
चुटकियाँ चटकाते हुए .. जमीं पर थपकते पाँव संग,
किसी 'टेबल फैन' के मानिंद दाएँ-बाएँ झूमती गर्दन पर
झूमता सिर .. और अलसायी-सी 
कभी खुलती .. कभी बंद होती आँखों से निहारते हैं,
सामने वाली छत पर 'एस्बेस्टस' की बनी 
ओलती से चूती पानियों की झालर,
'स्टेनलेस स्टील' वाली छत की 'रेलिंग' 
और छत पर रखे अलने पर भी अनायास
उग आयी मोतियों की लम्बी क़तार,
साथ ही छत पर जमे बरसाती पानी की परत पर 
बनती-मिटती उर्मियों की मचलती मछलियाँ अनगिनत इधर-उधर।

और .. वहाँ पर .. तो प्रभु !! .. तनिक देखिए ना ..
बहता गाँव का गाँव और शहर का शहर,
जान बचा कर भागने के लिए फिर बचता ही नहीं
कोई पुल, कोई पगडंडी या सड़क वाली डगर,
चारों ओर तबाही ही तबाही .. क़हर ही क़हर,
मासूम बच्चे, युवा, वृद्ध, नर-नारी और पशु भी,
सब के सब लाचार बने बेघर।
दूर-दूर तक कोई घर या दर बचता नहीं,
जा कर जहाँ भटक सकें वे दर-ब-दर।
अपनी गृहस्थी की कहानी के गढ़े विन्यास का संक्षेपण 
समेटे फटेहाल गठरियों में भर कर .. बेबस-से बाँस की चचरी पर,
बचने की उम्मीद लिए भटकते हैं भूखे-प्यासे बस इधर-उधर।

मूक-बधिर प्रभु ! ..
अब अगर ब्राह्मणों की मान भी लें जो बकर-बकर,
तो क्या पूर्वजन्म के सारे ही पापी जन्मे थे उधर
और बसे थे सारे उसी गाँव में या उसी शहर ?
या हम सारे सच में हैं कोई पुण्यात्मा जन्मे इधर ?
सोचते हैं हम मूढ़ कि ..
ना तो आप है आकाश में, ना पाताल में,
ना तड़ित में, ना बादल, ना बरसात में,
ना मंदिरों के भीतर, ना ही कहीं बाहर, ना इधर .. ना उधर,
भला जन्मदाता या पालक होता है क्या इतना निष्ठुर ?
लगता है ... ये सब तो हैं केवल क़ुदरती क़हर ,
लाखों वर्षों से .. आदिमानव वाले काल से,
जिसे पुरख़े हमारे सदियों से हैं झेलते आये 
और कर डाली थी डर से तभी काल्पनिक रचना आपकी
और बस .. आप बस गए पहले उनकी बेबस, 
लाचार और डरी हुई सोचों में .. फिर धर्मग्रंथों में .. 
और फिर मंदिरों में बन गया आपका पक्का घर।
ये तो था बस उनका डर .. बस और बस .. उनका डर भर।
है अगर सच में कहीं .. जो आप आकाश या पाताल में .. तो ..
प्रभु! .. कुछ तो उन पर रहम कर .. अब तो कुछ .. शरम कर ...


(2) 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच 

सड़े हुए अंडों से भरे कई 'कैरेट' और
सड़े टमाटरों से भरी कुछ टोकरियाँ,
हो गई पलक झपकते खाली सारी की सारी,
हुई जब उन अंडों और टमाटरों की झमाझम बरसात
और बहुरंगी 'कार्टून' बना दिया मंचासीन साहिब को
भीड़ के कुछ लोगों ने करते हुए आदर-सत्कार।

झट साहिब पूछ बैठे धैर्य को रखते हुए बरकरार -
"भाइयों और बहनों ! भला इसकी क्या थी दरकार ?"
भीड़ से बोला एक दुबला-पतला मरियल-सा इंसान -
"बस यूँ ही ... कुछ ख़ास नहीं सरकार !"
दरअसल जब तक पौधों से थे ये टमाटर लटके ..
जब हमने तोड़े थे ..  एक उम्मीद से थे अटके ..
तब ये सारे के सारे टमाटर थे ताजे और टटके,
हृष्ट-पुष्ट .. 'कैल्शियम', 'फास्फोरस', 'साइट्रिक एसिड',
'मैलिक एसिड' और 'पालायकोपिन' से लबाबलब और
'विटामिन 'सी' व 'विटामिन 'ए' से भी भरपूर पौष्टिक थे बड़े।
और तो और .. अंडे भी जब मुर्गी से निकले थे,
तब ये सारे 'प्रोटीन', 'कोलीन', 'जिंक', 'विटामिन',
'आयरन' और 'कैल्शियम' से भरे पड़े थे हुए बेकरार।

पर आप को तो है अपने 51% वाले अंकगणित की दरकार
तो फिर 15%, 7.5%, 27% और 10% को जोड़ कर
कुल 59.50% का 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच अपना
बना रखा है आप ने बरकरार।
उसी 59.50% के तहत पहले भर-भर कर
कुछ कम 'विटामिन' और 'प्रोटीन' वाले
कुपोषित और कम पौष्टिक टमाटर और अंडे
उपभोक्ताओं के लिए भेजे जाते हैं बाज़ार।
होती है इस कदर उत्तम उत्पादन बेकदर और
उपभोक्ता भी वर्षों से होते आ रहे हैं कुपोषण के शिकार।
बाक़ी बचे 40.50% हिस्से में ही तो
हृष्ट-पुष्ट टमाटरो और अंडों का फिर हो पाता है व्यापार ..
मिलता है बस .. 40.50% ही बचा उन्हें बाजार।

साहिब !!!
वही शेष बचे हृष्ट-पुष्ट टमाटर और अंडे,
जो तब 'विटामिन' और 'प्रोटीन' से थे भरे,
पर अब सड़ गए हैं रखे-रखे .. बस बाज़ार बिना यूँ ही पड़े-पड़े।
ये वही टमाटर और अंडे हैं अब सड़े,
जो इस वक्त आपके थोबड़े पर हैं पड़े।
इन सब को कर दिया है आपके स्वार्थ ने बेकार।
बस इसी का तो है साहिब .. मौन तकरार ..
आप कर नहीं सकते साहिब .. इस से इंकार।
अब या तो आप अपना बिगड़ा, बदहाल चेहरा झेलिए
या फिर एक बार .. तो सुन लीजिए ना .. साहिब ..
इसकी बहुरंगी बदबूओं की मायूस मौन मनुहार
या हमारी ललकार ... जो कर नहीं पा रही चीत्कार ...






















Friday, July 24, 2020

ख्वाहिशों की बूँदें ...

बचपन में हम सभी ने माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत विज्ञान या भूगोल विषय में "वृष्टिछाया" के बारे में पढ़ा था। जिसे अंग्रेजी माध्यम वाले "Rain-Shadow" कहते हैं। शायद उसकी परिभाषा याद भी हो हमें कि "जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है, तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और यह "वृष्टिछाया क्षेत्र"  यानि अंग्रेजी माध्यम वालों का "Rain-Shadow Zone" कहलाता है। इस प्रकार "वृष्टिछाया" के कारण रेगिस्तान यानि मरुस्थल का निर्माण होता है।

इस बाबत दाहिया जी एक बहुत ही सुंदर उपमा देते हैं कि “अगर हवाई अड्डा (जंगल) ही नहीं होगा तो हवाई जहाज (बादल) कैसे उतरेगा।” दाहिया जी .. यानि मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गाँव में जन्में लगभग 76 वर्षीय बघेली उपभाषा के जाने-माने रचनाकार बाबूलाल दाहिया जी, जो कई कविताओं, कहानियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के रचनाकार के साथ-साथ डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी और पूर्णरूपेण जैविक खेती करने वाले किसान भी हैं। उनके पास अब तक देशी धान की लगभग 110 किस्मों का खजाना है, जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार का सम्मान भी मिला है।

खैर! ... वैसे अपनी बकबक को विराम देते हुए, फ़िलहाल बस इतना बता दूँ कि आज की इस रचना/विचार की प्राकृतिक अभिप्रेरणा "वृष्टिछाया" की परिभाषा भर से मिली है .. बस यूँ ही ...

ख्वाहिशों की बूँदें ...
उनकी चाहतों की 
बयार में
मचलते उनके 
जज़्बातों के बादल
देखा है अक़्सर
रुमानियत की 
हरियाली से
सजे ग़ज़लों के 
पर्वतों पर
मतला से लेकर 
मक़्ता तक के 
सफ़र में 
हो मशग़ूल 
करती जाती जो 
प्यार की बरसात
और .. उनकी 
चंद मचलती 
ख्वाहिशों की बूँदें 
होकर चंद 
बंद से रज़ामंद 
बनाती जो ग़ज़ल के 
गुल को गुलकंद

तभी तो शायद .. 
अब ऐसे में .. बस .. 
कुछ ठहर-सा गया है 
मेरे मन के 
मरुस्थल में 
बमुश्किल 
पनपने वाले
मेरे अतुकांतों के 
कैक्टसों का 
पनपना भर भी 
हो गया है बंद ..
बस यूँ ही ...

●◆★◆●




Tuesday, July 21, 2020

नज़र रानी की मुंतज़िर ...

आज हमारे सत्तर के दशक वाले खेलों के आयाम बदल गए हैं या यूँ कहें कि आयामों के खेल बदल गए हैं .. जो भी हो .. अनुभवी कहते हैं कि प्रकृति परिवर्त्तनशील है .. समय भी .. पल-पल, हर पल .. शायद .. तभी तो हम बच्चे से युवा और युवा से न जाने कब वयस्क हो कर  प्रौढ़ भी हो गए और इसीलिए तो हमारे बचपन के सब खेलों के भी मायने बदल गए .. "पर खेल तो हैं वही, बस आयाम है नयी" .. खैर ! अब चलते हैं आज की ताज़ीतरीन (ताज़ातरीन के तर्ज़ पर) परन्तु .. कई दिनों से दिमाग़ की हंड़िया में पक रही ये तीनों रचनाएँ .. बस आपके लिए .. बस यूँ ही ...

नज़र  रानी की  मुंतज़िर 
कभी "व्यापार" के नकली रुपयों भर से भी 
तिजोरी हमारी बस यूँ अमीर हुआ करती थी।

"लूडो" के उन काग़ज़ी बेज़मीं घरों में ही सही
बिना  छत भी हमारी जागीर हुआ करती थी।

थी "कैरम बोर्ड"  की वो महज़ लाल गोटी ही
पर नज़र  रानी की  मुंतज़िर हुआ करती  थी।

कभी राजा,  मंत्री, सिपाही, तो  चोर भी कभी  
हाथ की पुड़िया बहुत अधीर हुआ करती थी।

पतंगों  संग अरमानें भी तो ऊँचाइयाँ थीं छूती
तब कहाँ हक़ीक़त की ज़ंजीर हुआ करती थी।

रेत पर .. रेत के बने घरौंदों पर अपने नामों की  
उँगलियों से  खुदी हुई  तहरीर हुआ करती थी।

न जाति का लफ़ड़ा,  न आरक्षण से रगड़ा कोई
गुड्डे-गुड़ियों की अच्छी  तक़दीर हुआ करती थी।

तब न कोई "एलओसी",न ही थी"एलएसी" कोई
"छू कित्-कित्" की  बस लकीर हुआ करती थी।

आँख-मिचौली, डेंगा-पानी या फिर छुआ-छुईं भी
तब छूने से कोई बात नहीं गंभीर हुआ करती थी।

"स्टेचू" का वो  धप्पा,  चाईं-चूड़ी, या  गाना-गोटी
पर मिटाने की नहीं कोई  तदबीर हुआ करती थी।

चोर के बाद राजा
जब भी मिलते थे बचपन में तब के चार यार,
मैं पप्पू, बबलू, गुड्डू और रामावतार,
राजा, मंत्री, सिपाही, चोर बनाता खेल
पुड़िया वाला, खेला करते थे हम कई बार,
कभी मैं बनता राजा तो कभी चोर,
कभी मंत्री तो कभी सिपाही कई बार
और ऐसा ही कभी होता बबलू के साथ
तो कभी गुड्डू तो कभी रामावतार के साथ कई बार
और इस क्रम में .. कभी-कभी तो यार! ...
ख़ुश होता जो भी बनता चोर के बाद राजा या मंत्री जिस बार,
कुछ-कुछ जैसे आज के लोकतंत्र में कई मंत्रियों की क़तार,
पर उदास होता था जो बनता था चोर- सिपाही, मंत्री या राजा के बाद 
पर ठीक इसके विपरीत है आज कई ऐसे नौकरशाहों की भरमार,
जो है इठलाता कर के भी ग़बन और घोटाले बेशुमार।

लाल रानी
कैरम बोर्ड की 
रानी लाल गोटी की जीत,
बिना किसी पीली या 
काली गोटी के जीत के
हर बार होती है बेमानी।

लाल गोटी .. रानी
पर साथ में है जरुरी
एक गोटी पीली या काली
वर्ना रानी बेमानी .. मानो ...
नर और नारी की कहानी।
           ★◆★



Sunday, July 19, 2020

"ॐ फट स्वाहा" ... समीक्षा - "घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम"/उपन्यास.


★ पुस्तक(उपन्यास)-प्राप्ति प्रतिक्रिया :-
यह एक संयोग है, अब इसे सुसंयोग समझें या दुःसंयोग ..  कह नहीं सकता, क्यों कि इधर 23.03.2020 (सोमवार) से 25.06.2020 (बृहस्पतिवार) तक लगभग 95 दिनों के Work from Home के बाद 26.06.2020 से मेरा Work from Office शुरू हो गया है और Work from Home की समाप्ति के बाद, Work from Office शुरू होने के दिन दोपहर में मेरे वर्त्तमान निवास के पते पर एक डाक मेरी धर्मपत्नी द्वारा receive की गई है। बेशक़ धर्मपत्नी ने डाक receive करने के पहले फ़ोन कर के एहतियातन यह पूछा जरूर था कि एक डाक आयी है "भारती प्रकाशन, वाराणसी" से .. receive कर लें ना ?
प्रकाशक का नाम तो याद नहीं था, पर सौरभ जी से 20.06.2020 को फ़ोन पर हुई बातें याद थी कि वे अपनी (सौरभ दीक्षित "मानस") और कविता जी (कविता सिंह) की लिखी संयुक्त रचना- "घाट 84, रिश्तों का पोस्टमार्टम" मुझे by post या courier के द्वारा प्रकाशक से कह कर मेरे पता पर भिजवाने के लिए मेरा पता माँगे थे। वैसे इसके पहले भी Amazon पर इसके लिए मैं lockdown शुरू होने के पहले 19.03.2020 को ही रु. 345/- भुगतान कर चुका था, पर मेरी तकनीकी जानकारी की कमी के कारण मैंने उपन्यास की Hard copy के लिए order करने के बजाय Kinder version वाले option पर OK कर दिया था; जो सौरभ जी को बतलाया भी था Telephonic बातचीत के दौरान।
अतः आई हुई डाक के ऊपर भेजे जाने वाले के पता में भारती प्रकाशन के साथ-साथ वाराणसी लिखा होने के कारण मैंने receive करने के लिए बेझिझक बोल दिया था।  वैसे भी ये बात दिमाग में तो थी ही कि मुझ जैसे मामूली इंसान के लिए कोई आतंकवादी किसी बम को भेज कर फ़िज़ूलखर्ची तो करेगा नहीं और ना ही किसी के द्वारा दुश्मनी से कोरोना वायरस भेजने का कोई भय है।
अपने office से नियत समय से कुछ पहले निकल कर, इन दिनों अपने Shoulder Pain व Cervical Problem के कारण रोज़ाना शाम में लिए जाने वाले Physiotherapy Center से Therapy लेकर जब रात के लगभग नौ बजे घर पहुँचा तो पहले उस डाक वाले Packet को Sanitize कर के उत्सुकतावश खोला तो खाते-पीते घर की स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट देह की तरह एक मोटे-से उपन्यास ने Packing वाले लिबास के अंदर से झाँका। अब तक जिसकी तस्वीर भर सोशल-मिडिया पर देख कर संतोष करता आ रहा था .. वो लुभावने लाल रंग के Cover में अभी-अभी मेरे हाथ में पड़ा मुस्कुरा रहा था।
मैं इत्मीनान हो गया कि ये वही सौरभ जी (जो वाराणसी के एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठान में सिविल इंजीनियरिंग से जुड़े कार्य में कार्यरत हैं) और कविता जी (जो वाराणसी में ही एक शैक्षणिक संस्थान- "समीक्षा कोचिंग सेंटर" की निदेशिका हैं) वाला "घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम" ही है।
मुझ जैसे बस यूँ ही ... (#basyunhi) बकलोल का बकवास (#baklolkabakwas) करने वाले स्टुपिड (#stupid) बकचोंधर चाचा (#bakchondharchacha), जो बंजारा बस्ती के बाशिंदे (#banjaarabastikevashinde) है, उस से उन दोनों की इतनी मोटी उपन्यास की एक अच्छे समीक्षक के रूप में समीक्षा करने की उम्मीद बस .. एक ज़र्रानवाज़ी भर ही है। मुझ जैसा सपाटबयानी करने वाला इंसान मालूम नहीं उनकी कसौटी पर कितना खड़ा उतरेगा .. उतरेगा भी या नहीं .. या बस यूँ ही ... कुछ भी बकवास कर के छोड़ देगा।
दरअसल 2018 में Social Media के द्वारा मुझे Open Mic की जानकारी हुई और इस से युवाओं के साथ जुड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसी के बहाने लिखने का सिलसिला भी जो फिर से रफ़्तार पकड़ी तो ब्लॉग तक आकर और भी तेज हो गई। उसी दौरान सौरभ जी की टीम द्वारा ही संचालित एक Open Mic - "बनारसिया क्लोज़ माइक-2" जो पटना में गाँधी घाट के पास घाट किनारे के एक कैंटीन के हॉल में हुआ था, जहाँ सौरभ जी से पहली मुलाक़ात हुई थी।
उसके बाद उनके द्वारा संपादित सात रचनाकारों की साझा कविता संग्रह, जिनके सात में से एक मैं भी था और कविता जी भी थीं, के विमोचन के समय 21.06.2019 की शाम को कविता जी से वाराणसी के अस्सी घाट पर बने मंच पर पहली बार मुलाक़ात हुई थी।
                      ख़ैर ! .. अब तक तो बस एक बार कौतूहलवश केवल उल्टा-पलटा भर ही है इस उपन्यास को .. बात की शुरूआत में संयोग को लेकर सुसंयोग या दुःसंयोग की ऊहापोह इसीलिए हो रही थी कि Work from Home में आप अपनी सुविधानुसार बीच-बीच में बिस्तर पर लेट कर अपनी देह को सीधी भी कर लेते हैं या कुछ निजी कार्य भी निपटा लेते हैं और कुछ Hobby को भी समय दे देते हैं। थोड़ी बहुत सोशल-मिडिया पर ताक-झाँक भी कर लेते हैं, परन्तु Work from Office में ये सारी सुविधाओं से आप वंचित रह जाते हैं, अगर आप सच में एक ईमानदार कर्मचारी हैं।
                      ख़ैर ! .. अब जैसे भी हो समय तो निकालना ही पड़ेगा, क्योंकि उस शाम से कान में शोले फ़िल्म की पात्रा टाँगेवाली बसंती का वो संवाद बार-बार बजने लगता है - "चल धन्नु ! तेरी बसंती के इज्ज़त का सवाल है।"
अभी तक तो जो नज़र देख पायी है कि यह 84 भागों में 344 पृष्ठों का भारती प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित कविता सिंह और सौरभ दीक्षित "मानस" की लिखी संयुक्त रचना है। जिसका मूल्य-345/- रु. है और Amazon पर भी उपलब्ध है। इसके प्रकाशित होने के पहले भी इसके सारे 84 भाग फेसबुक पर भी एक-एक कर समयांतराल पर प्रसारित किए जा चुके हैं।
इसके 344 पृष्ठों में से 15 पृष्ठों में "सोशल मीडिया की कुछ प्रतिक्रियाएँ", "अस्वीकरण", "अनुक्रम", "संवाद", "भूमिका", "हमारी बात" और "एक नज़र" .. जैसी जरूरी बातें होने के कारण मूल उपन्यास कुल (344-15=329) 329 पृष्ठों में अपना पाँव पसारे लेटा हुआ है।
"संवाद" के तहत उपन्यास के नायक का संवाद - "थम जा यार! बाहर ही कूद पड़ोगे क्या? मैंने अपने दिल से पूछा।" पढ़ कर अनायास अपने दिल पर बायीं हथेली कुछ टटोलने चली जाती है।
उपन्यास के दोनों Cover के अंदर की ओर मुड़े हिस्से पर एक तरफ "कहानी के कुछ अंश" और दूसरी तरफ "पाठकों की प्रतिक्रियाएँ" भी छपी हैं।
कहानी के कुछ अंश के तहत- "छोड़ मुझे नहीं तो मेरी किक तुझे बहुत मंहगी पड़ेगी वायरस! तेरे माँ-बाप अपनी आगे की पीढ़ियों के लिए तरस जाएंगे।" पढ़ कर एक किक महसूस होने लगता है। शुरूआती कुछ पन्ने को टटोलने भर से लगता है कि इसका पात्र नायक सौरभ पॉलिटिकल साइंस का छात्र और पात्रा नायिका निशा सिविल इंजीनियरिंग की छात्रा है। सौरभ किस कालखंड (लगभग 80-90 के दशक) का छात्र है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है, उसके "बत्ती वाला स्टोव" इस्तेमाल करने से; क्योंकि अनुमानतः आजकल तो हर तबके के छात्र किलो के हिसाब से खुदरा दर पर ब्लैक में ईंधन-गैस खरीद कर गैस-स्टोव व्यवहार में लाते हैं। स्वाभाविक है कि यह वाराणसी (बनारस/काशी) के बीएचयू (Banaras Hindu University/काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), अस्सी घाट जैसे प्रसिद्ध जगहों के पृष्ठभूमि की सुगंध से सराबोर है।
                       इसकी सबसे बड़ी सर्वविदित ख़ासियत यह है कि दोनों रचनाकारों ने अलग-अलग समय पर अपनी सुविधानुसार आपसी सामंजस्य के आधार पर हर भागों के अलग-अलग अंशों को रचा है।
इस रचना में जितने भी सहयोगी हैं, उनमें सर्वोपरि श्रेय जाता है, इस पुरुष प्रधान समाज में कविता जी के धर्मपति योगेश जी की सहमति की और विचारधारा की, जिन्होंने स्वयं से दोनों रचनाकारों को एक साथ रचने के लिए इसका सुझाव दिया। साथ ही सौरभ जी की धर्मपत्नी-अंकिता जी (अगर मैं नाम सही ले रहा होऊं तो, क्योंकि एक दिन सौरभ जी उन्हीं के फ़ोन से मुझे फोन कर दिए थे, तो मेरे Mobile के Truecaller App ने नाम की चुगली कर दी थी और मेरे टोकने पर उन्होंने स्वीकार भी किया था) के मिले नैतिक समर्थन को भी झुठलाया नहीं जा सकता या दरकिनार नहीं किया जा सकता।
                        उपन्यास के 84 भागों में से भाग-1 का एक संवाद - "ऑल मैन्स आर डॉग!" एक बार अपने गिरेबान में झाँकने के लिए मज़बूर कर जाता है। अंतिम यानि भाग-84 के आखिरी पन्ने का तुलसी नामक पात्र द्वारा बोला गया आखिरी संवाद - "ऑपरेशन सक्सेसफुल!!!!!!"- बार-बार बेबस कर रहा है .. कि मैं पूरे उपन्यास को पढ़ कर इसका भी ऑपरेशन करूँ यानि इसकी समीक्षा करूँ .. जल्द से जल्द ... तो जल्द ही मिलते हैं इस उपन्यास की समीक्षा के साथ .. आप सबों से .. बस यूँ ही ...

★ अब समीक्षा :-

◆ पहले अपनी बात (कमजोरी) :-
सर्वविदित है कि ना तो हमने साहित्य की कोई विधिवत शिक्षा ग्रहण की है और ना ही मुझे किसी विधा की जानकारी है। खासकर समीक्षा के बारे में तो .. ना तो कोई जानकारी है और ना ही अनुभव। बस .. पावर वाले चश्मे से आँखों को जो दिखता है और थोड़ा-बहुत जो भी दिमाग की हँड़िया में पकता है, उसको मोबाइल के टच स्क्रीन पर उँगलियाँ दौड़ा कर परोस भर देता हूँ। यहाँ भी मैं ने यही किया है। यह मेरी पहली बार की गई किसी भी रचना की समीक्षा की कोशिश है।अगर कोई भी या कई सारी त्रुटियाँ रह गई हों तो आप सभी का अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ। वैसे तो .. देखा जाए तो .. हर वह पाठक/पाठिका जो किसी भी रचना को मन से पढ़ता/पढ़ती है, वह उस रचना की समीक्षा मन ही मन तो करता/करती ही है .. मैं भी .. जो कई बार प्रतिक्रिया के रूप में दिखता है ; कई लोगों की औपचारिक प्रतिक्रिया को छोड़ कर। पर उस मन ही मन की समीक्षा या संक्षिप्त प्रतिक्रिया की जगह इस को विस्तार से प्रस्तुत करते वक्त मेरी स्थिति अभी वैसी ही हो रही है, जैसी लॉकडाउन के दौरान एक सामान्य गृहिणी माँ को अपनी संतान के ज़िद्द पर ज़बरन कोशिश कर के घर पर ही पिज्ज़ा बनानी पड़ी हो या कसाटा आइसक्रीम जमानी पड़ी हो। खैर! .. आइए .. बढ़ते हैं अब मूल मुद्दा की ओर ...

◆ समीक्षा की कोशिश .. लेखनद्वय :-
"घाट-84 रिश्तों का पोस्टमार्टम" ..हाँ, यही नाम है इस उपन्यास का, जिसकी समीक्षा करने की कोशिश भर कर रहा हूँ। इसके प्रकाशक हैं- भारती प्रकाशन, वाराणसी, जिसका प्रथम संस्करण इसी साल 2020 के आरम्भ में आया है। यह अमेजॉन पर भी सहज उपलब्ध है। जिसका मूल्य मात्र .. न, न .. ये हम नहीं बताने वाले .. मूल्य तो खरीदते वक्त आप स्वयं ही जान जायेंगे। इसके शब्द-संयोजक और मुद्रक हैं- कुमार ग्राफ़िक्स, दिल्ली। इसके आवरण पृष्ठ और अन्य चित्रांकन गूगल से लिए गए हैं। इसकी भूमिका लिखी हैं- डॉ शीतल बाजपेयी जी ने, जो कानपुर से हैं।
इस उपन्यास की सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इस की रचना लेखिका- कविता सिंह और लेखक- सौरभ दीक्षित "मानस" ने मिल कर किया है। चूँकि एक लेखक हैं और दूसरी लेखिका, तो ऐसे में मेरे अनुसार (हो सकता है मैं गलत भी होऊं) इनको "लेखकद्वय" कहना सही नहीं होगा; क्योंकि यहाँ संपादक (हिन्दी व्याकरण में सम्पादिका शब्द व्यवहार में नहीं लाते हैं) शब्द वाली मजबूरी नहीं है। तो ऐसे में "लेखनद्वय" शब्द का प्रयोग करना यथोचित होगा .. शायद ...।
लेखनद्वय के सौरभ दीक्षित "मानस",  जिनकी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, संस्मरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। एक साझा काव्य संकलन- "सप्तसमिधा" के सम्पादन का भी इन्हें अनुभव है। इनकी हिन्दी और अंग्रेजी के अलावा बुंदेलखंडी भाषा पर भी पकड़ है। ये मुक्तछंद, गीत, ग़ज़ल, दोहा, लघुकथा आदि भी लिखते हैं। ये इनका पहला उपन्यास है। मूलरूप से ये कानपुर के रहने वाले हैं।
साथ ही लेखनद्वय की कविता सिंह हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लिखती हैं। इनकी अब तक दो साझा काव्य संकलन आ चुकी है - "सप्तसमिधा" और "हाँ! कायम हूँ मैं"। "लहक" सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में भी कविताएँ, कहानियाँ और भोजपुरी संस्मरण छप चुकी हैं। इनके अलावा ये मुक्तछंद, गीत, ग़ज़ल लिखती हैं। इनका भी यह पहला उपन्यास है। इनको हिन्दी और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (M A) डिग्री प्राप्त है। साथ ही इन्होंने शिक्षा-स्नातक (B Ed) भी किया है। वाराणसी में एक शिक्षण-संस्थान - "समीक्षा कोचिंग) की निदेशिका हैं। लेखन और शिक्षण के अलावा समाज सेवा में भी संलग्न हैं। "बनारसिया" नामक संस्थान की संयोजिका भी हैं।
यह उपन्यास किसी मँहगे रेस्टुरेन्ट के मसालेदार गरिष्ठ व्यंजन के स्वाद और सुगंध के बजाय बासमती चावल के पकते बर्तन से या फिर किसी भड़भूँजे की कड़ाही से आने वाली सुगंध की तरह सुग्राह्य और सुपाच्य लगता है। उपन्यास में अपनापन की सुगंध वाला तारतम्य होने से पाठकों/पाठिकाओं का जुड़ाव होना स्वाभाविक है।
सम्पूर्ण उपन्यास आत्मकथ्यात्मक या संस्मरणात्मक शैली में लिखी गई है। इस उपन्यास का नर्म दुशाला कई मुख्य पात्रों के ताने और कई सह-पात्रों के बाने से बुना गया है। मुख्य पात्रों के जमघट में हैं - सौरभ उर्फ़ बिंदास निशा का सौरभिया, पगली और नटखट नौटंकी भी उर्फ़ अपने माता-पिता का सुग्गा उर्फ़ मानस उर्फ़ सौरभ सांडिल्य उर्फ़ सौरभ सांडिल्य 'मानस',  निशा उर्फ़ पंडित उर्फ़ विविध भारती उर्फ़ गुंडी टाइप उर्फ़ निशा देवधर भारद्वाज, भावना, आदित्य उर्फ़ आदि, देवधर भारद्वाज,  ए. के. खुराना उर्फ़ वकील अंकल, उनका बेटा जॉनी, मैम उर्फ़ कवी सक्सेना, उनकी भतीजी यशवि उर्फ़ यशी, बीरू, छुटकी, नमन और अमन। साथ में "पंडित मंडली" की रश्मि, पिंकी, श्वेता, स्वाति, राकेश, जतिन, टुईं उर्फ़ प्रबल दिवाकर शर्मा, शक्ति शिकारी, निरहुआ उर्फ़ पेटीकोट बाबा उर्फ़ प्रतीक, चिकनी चमेली उर्फ़ मनु, तुलसी टपोरी, बिल्लू वायरस उर्फ़ विमल शंकर तिवारी और उपन्यास में एक उपन्यास- "स्वर्ग की शापित अप्सरा 'कृतिका' " भी हैं।
अब बात करें सह-पात्रों की तो .. इन्द्रबदन शर्मा उर्फ़ अंकल और उनसे उम्र में 13 साल छोटी उनकी धर्मपत्नी स्वीटी उर्फ़ आँटी, रिपोर्टर दीवा, अमन चौरसिया, इच्छा, सागर, अमन आहूजा, छोटू, मुस्की चाचा, गुड्डन आँटी, रजत, रिंकू, श्रीवास्तव जी, शीला कामवाली बाई, हिना और सरिता, एक टीटीई, चौबे जी, अरुण सर, शुक्ला सर, जिया, डॉ शरद, डॉ मेहरा, डॉ जॉनसन .. इन सब के बिना भी तो उपन्यास पूरा नहीं हो सकता था। है कि नहीं ? ...
इस उपन्यास के सारे पात्र-पात्रा बनारस उर्फ़ वाराणसी उर्फ़ काशी के बीएचयू उर्फ़ बनारस यूनिवर्सिटी उर्फ़ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अस्सी घाट उर्फ़ रहस्यमयी घाट चौरासी के साथ-साथ कानपुर, लखनऊ और नई दिल्ली के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र- 26 साल के सौरभ और मुख्य पात्रा- 30 साल की निशा का उपन्यास के आखिरी भाग-84 के आखिरी पन्ने के पहले तक अबोला प्यार एक दिन सौरभ के सपने में कहे गए फ़िल्म "प्रेम गीत" के गाने का मुखड़ा - "न उम्र की सीमा हो, न जन्मों का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन" को चरितार्थ करता है।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र सौरभ एक कवि और लेखक है, तो इस उपन्यास में कई पन्नों में कई सारी पद्यात्मक रचनाओं को भी स्थान मिला है, जो इसका ही अंग-अंश महसूस होता है।
चूँकि उपन्यास हमारे अपने समाज के बीच का ही लगता है तो समाज की चंद बुराइयों की भी चर्चा होनी स्वाभाविक ही है। कई सामाजिक विसंगतियों को कई पात्रों के माध्यम से उकेरने की कोशिश की गई है।इसके सभी पात्र इसी समाज से हैं तो कुछ पात्रों में बुरी लत का होना भी स्वाभाविक ही है। अब ऐसे में उपन्यास के आरम्भ में फ़िल्म या टी वी सीरियल के तर्ज़ पर लिखे गए अस्वीकरण (Disclaimer) के साथ-साथ संवैधानिक चेतावनी भी लिखनी चाहिए थी कि - "मद्यपान और धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।" (वैसे ये बात मजाक में लिख रहा हूँ।)
दरअसल इस उपन्यास के प्रकाशन के पहले इसके सारे 84 भागों को सौरभ जी ने अपने फेसबुक वॉल पर क्रमवार पोस्ट किया था। उस दौरान उनकी व्यस्तता के कारण उनके निवेदन पर बीच-बीच के बहुत सारे अंशों या भागों को कविता जी ने भी लिखा है। पूरे उपन्यास के पढ़ने के बाद भी पाठकों/पाठिकाओं के लिए ये पहचान पाना एक असम्भव चुनौती होगी कि किस अंश को किसने लिखा है। ना तो पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्तियों से और ना ही घटनाक्रम के तारतम्य से .. आरम्भ से अंत तक। लेखनद्वय का कमाल ऐसा है कि शब्द-चित्र मानो चलचित्र की तरह चल रहे हों। एक के बाद एक, हर भाग के अंत में एक रहस्य और उसके अगले भाग से उसका हल। इस तरह का तारतम्य अनवरत भाग-1 से लेकर भाग-84 तक चलता है। भाग-84 के बाद भी आपको लगेगा कि अभी उपन्यास के कुछ और भाग होने चाहिए थे। 

◆ विधिवत विमोचन बनाम घाट चौरासी :-
जहाँ तक मेरी जानकारी है कि इस कोरोनकाल में बचाव के ख़्याल से लागू की गई लॉकडाउन की परेशानी और अवरोध के कारण इसका विधिवत विमोचन नहीं किया जा सका। अगर होता तो .. एक बार और भी धार्मिक नगरी वाराणसी के अस्सी घाट .. ओह ! .. ना, ना .. अब तो घाट-84 को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता। अब ये घाट-84 आप गूगल पर मत ढूँढ़ने लग जाइयेगा, क्योंकि इस घाट चौरासी की जानकारी ना तो आपको सामान्य ज्ञान की किताबों में मिलने वाली है और ना ही गूगल मैप पर इसका पता; बल्कि इस का पता इसी उपन्यास में मिलेगा आपको। तो मैं यही कहूँगा कि कम से कम एक बार तो खरीद कर आप जान ही लीजिए इसे पढ़ कर इस अनोखे घाट का पता, ताकि अगली बार जब आप वाराणसी जाएं तो इसका लुत्फ़ ले सकें।
वैसे तो घाट चौरासी के पता के अलावा और भी कई अनसुलझे रहस्यों का हल छुपा है इस उपन्यास में, जिसके लिए आपको ख़रीद कर तो पढ़ना ही पड़ेगा। मसलन -
बनारस में घाट चौरासी कहाँ पर है ? उपन्यास की मुख्य पात्रा- निशा को सभी पंडित कह कर क्यों पुकारने लगे थे ? निशा अपने जन्मदिन के दिन तोहफा में मिले दोनों कारों - ऑडी और मर्सिडीज - को किस कारण से लेने से इंकार कर दी थी ? स्वीटी आँटी को अपने से तेरह साल बड़े पति के साथ वैवाहिक जीवन में क्या-क्या झेलना पड़ा था ? विमल शंकर तिवारी भला बिल्लू वायरस कैसे बन गया था ? रीना मैडम का सिर शर्म से क्यों झुक गया था ? गुड्डन आँटी एक किन्नर के साथ धोखे से ब्याहने के बाद भी माँ कैसे बन पायी थीं ? सौरभ को बनारस से कानपुर जाते वक्त बड़ी मुश्किल से ट्रेन खुलने के बाद टीटीई से एक बर्थ मिल तो गई थी, पर किस कारण से उसे रात डब्बे के दरवाज़े के पास बितानी पड़ी थी ? तुलसी टपोरी की लाश रवीन्द्र पार्क के पास मिलने के बाद भी उसने बाद में स्वाति से शादी कैसे की थी ? ये चायनीज रस्सी, गप्पक गोला और पिघलता पर्वत भला क्या बला है ?  जब छुटकी घर से प्रेमी के साथ भाग कर जाती है, तो फिर मुहल्ले के बीरू की दुल्हन कैसे बन गई थी ? "भारद्वाज बालिकागृह" के गेस्टरूम की खिड़की पर सौरभ को दिखने वाली लड़की अगले दिन सभी को कहाँ और किस हाल में मिली थी ? निरहुआ के अचानक से पेटीकोट बाबा बनने का क्या कारण था ?

◆ लड़का वही जो सीनियर पटाये :- अब उपन्यास कॉलेज परिसर की परिधि के इर्द-गिर्द पनपा है तो स्वाभाविक-सा लगता है .. पात्रों के मोबाइल के कॉलर ट्यून में फ़िल्मी गानों का होना, बातों-बातों में फ़िल्मी डॉयलॉग और पात्रों का हवाला देना। इसी कारण से आम चुहलबाजियाँ भरी बातें भी हैं। मसलन - निशा का अपने "पगली" से कहना कि  "तू दस मिनट वेट कर हम पन्द्रह मिनट में आते हैं।" यशी का सौरभ से कहना - "छोटा (घर) है तो क्या हुआ ? मुझे कब्ज़ा थोड़े हो करना है।" और एक नमूना ये कथन भी - "मतलब ये कि "दुल्हन वही जो पिया मन भाये और लड़का वही जो सीनियर पटाये" - यही इनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।" चुहलबाजी में कई छिछोरे शब्द चोंचू, लफद्दर, चमाट, लवेरिया या नायक का तकिया कलाम- "ॐ फट स्वाहा" (तथाकथित वशीकरण मंत्र) और "जो सुधर जाये वो सौरभ नहीं ..." भी हैं।
बीच-बीच में पात्र के अनुसार उनके संवाद में जालौन और भोजपुरी उपभाषा की भी इस्तेमाल की गई है। हालांकि एक शब्द "पनौती" और एक मुहावरा "काम पैंतीस हो जाना" मेरे लिए अभी भी अनसुलझा हुआ है।
कुछ संवाद मन को छू कर भींजो जाते हैं। मसलन - सौरभ का  निशा से कहना - "सच बोल कर जान ले लेना पर झूठ बोल कर मुझे जिन्दा मत रखना।" सौरभ का मन ही मन तथाकथित ऊपर वाले से एक गुहार - "गज़ब कर रहे हो प्रभु! आज तो मेरी मुहब्बत की रेलगाड़ी भी पंचर कर दी।" निशा का गुस्से में बड़बड़ाना - "ख़ून खौलता है मेरा, ऑल मेन्स आर डॉग।" निशा का अपनी माँ के मरने की सिल्वर जुबली मनाते वक्त सौरभ से कहना - "हर रोज हजारों ख़्वाहिशों की मौत होती है, पर अगर किसी की आख़िरी ख़्वाहिश अधूरी रह जाये तो उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती।" लेखनद्वय का निशा के लिए ये कहना कि - "शायद अपने दुःख को सीने में दफन कर के मुस्कुराने को ही निशा कहते हैं।"
यशी का ये सवाल सौरभ से पूछना अनायास रुला जाता है - "हर चीज उधार मिलती है तो ज़िन्दगी क्यों नहीं मिलती मानस ?" और ... ये उलाहना भी कि - "पूरा (गाली) कहाँ दिया आधा ही तो बोला। बिल्कुल अपनी ज़िन्दगी की तरह ..." या फिर सौरभ के पूछने पर कि - "कैसी हो यशी ?" के जवाब में यशी का खिलखिलाते हुए कहना - "बिंदास ! बमचक ! लल्लन टॉप ! बिल्कुल भली-चंगी, चाहो तो पंजा लड़ा लो !"
"आ गए ? बड़ा पेट्रोल बाँटा जा रहा है आजकल ? " - ये वाक्य जब निशा तंज कसते हुए सौरभ को कहती है तो, एक नारी-मन या यूँ कहें कि मानव-मन में किसी के प्रति प्यार का अंकुर फूटने पर उसका किसी अन्य के साथ किसी भी तरह का जुड़ाव जलन और चिढ़ पैदा करती है, वाला स्वाभाविक भाव ज़ाहिर होता है।
लेखनद्वय की लेखन में एक तरफ दर्शन के भावों का भी दर्शन होता है। मसलन -
(1) "जब हमें लगता है कि हम ज़िन्दगी को समझ गये हैं, ठीक तभी ज़िन्दगी कोई दूसरा खेल खेलना शुरू कर देती है।" (2) "अगर एक औरत अपनी पर आ जाये तो उससे दुनिया की कोई ताक़त नहीं बचा सकती।" (3) "जब आप गलत होते हो तो आप कितने भी ताक़तवर हो जीत नहीं सकते।" (4) "अगर आप सफल हो तो आपके दोष भी किसी को नज़र नहीं आते और अगर असफल हो तो आपकी भूल भी गुनाह नज़र आने लगती है।" (5) "ख़ास से ख़ाक होने में कितना समय लगता है। दुनिया बहुत प्रैक्टिकल है सौरभ ! - सौरभ की अन्तरात्मा की आवाज़।" (6) "जब काम करने वाली जगह पर कुछ अपनापन रखने वाले लोग होते हैं, कुछ बनता नहीं पर एक ऊर्जा मिलती है जिससे आदमी तकलीफ़ सह सके।" (7) "अपने-अपने सम्बन्ध हैं कोई तो ज़िंदगी भर साथ रहता है पर अपना नहीं हो पाता और कोई एक ही पल में ज़िन्दगी भर के लिए अपना हो जाता है।"
तो कई बार ... मनोविज्ञान पर इन लेखनद्वय की मज़बूती से पकड़ का भी भेद खुलता है। मसलन -
(1) "निशा के हाथ में एक ख़ूबसूरत-सी डायरी थी जो वो बार-बार हाथों में घुमा रही थी। ऐसा तब होता है जब कोई गहरी सोच में डूबा हो, ... " (2) "निशा अपने दोनों हाथों से रेत को बहुत तेजी से मुट्ठी में बाँधने की कोशिश कर रही थी, ऐसा तभी होता है जब कोई अपनी असहनीय पीड़ा से जूझ रहा हो।" (3) "कभी-कभी कुछ ज्यादा सगे लोग सगापन दिखाने के चक्कर में घावों को कुरेद दिया करते हैं।"
(4) "ये मर्द भी ना, चाह कर भी किसी के सामने रो नहीं पाते।"

◆ कुछ भूल-चूक :-
कहते हैं कि भूल-चूक होना मानवीय गुण है। अब ऐसे में 344 पन्नों के उपन्यास में कुछ भूल रह जाना भी संभव है, जिसे सुधारा जा सकता था। मसलन - "अशुद्ध शब्द - शुद्ध शब्द (पृष्ट संख्या)" के क्रम में चंद मुद्रण अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं :-
वर्डबैंक - वर्ल्ड बैंक (21), खुबसूरत - ख़ूबसूरत (19), जिंदगी - ज़िंदगी/ज़िन्दगी (21), रश्मी - रश्मि (24), निकलते - निकालते (25), सर - सिर (63), है था - था (63), ख़्वाइशों - ख़्वाहिशों (66), सिलबर - सिल्वर (66), मेहरून - मैरून (78), नशीला - नशीली (आँख के संदर्भ में) (92), छड़िकाओं - क्षणिकाओं (92), सुमाकर - शूमाकर (97), गृहस्थन - गृहिणी (98), फट्टे - फ़टे (99), टीसी - टीटीई (160), लाड - लाट (168), के - की (ख़ातिर के संदर्भ में) (188), स्कूटर - स्कूटी (202), चाभी - भाभी (266), गएँ - ? (332) और साथ ही 218 के अंत और 219 के आरम्भ के वाक्यों के बीच कुछ लापता-सा लगता है।
और हाँ ... इसमें वैसे तो प्रयोग किए गए नामों - रश्मि, दिवा, कवि और यशवि जैसे शब्दों के हिन्दी भाषा में अर्थ हैं, परन्तु लेखनद्वय ने इन चारों शब्दों को किसी के नाम के लिए यानि संज्ञा के रूप में प्रयोग किया है, तो रश्मी, दीवा, कवी और यशवी को भी सही माना जा सकता है।         
चलते-चलते एक और भूल को इंगित करना चाहता हूँ। शायद इसको बतलाए बिना मैं समीक्षक का धर्म नहीं निभा पाउँगा। जैसे समाज में कई समूह हेड कॉन्स्टेबल, ASI, SI और DSP में ख़ाकी वर्दी के कारण फ़र्क नहीं कर पाते और सब को सिपाही जी या पुलिस बोल कर ही सम्बोधित करते हैं ; वैसे ही रेलवे के संदर्भ में लोगबाग़ कई दफ़ा टीटीई (Travelling Ticket Examiner) और टीसी  (Ticket Collector) में अंतर नहीं कर पाते और एक जैसे काले कोट के कारण दोनों को ही टीसी बाबू से संबोधित कर देते हैं। चूँकि उपन्यास का मुख्य पात्र कानपुर का रहने वाला है, तो हो सकता है इसी कारण से वह टीटीई को टीसी बोलता है या फिर लेखनद्वय से ये भूलवश लिखा गया है। अगर ये भूलवश लिखा गया है तो आगे से इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

◆ गुदगुदी को विराम :-
अंत में शायद यह अतिशयोक्ति लगे, पर बिल्कुल सत्य है कि लॉकडाउन के बाद अपने कार्यालय से अचानक मिले अतिरिक्त कार्यभार वहन करते हुए कई चरणों में पढ़ने के दौरान अनेकों बार संदर्भानुसार हमने अपना पेट का हिलना महसूस किया है; कुछ उपन्यास के विन्यास के कारण और कुछ अपनी अतिसंवेदनशीलता के कारण .. कभी लोर के साथ हिचकियों को रोकने के क्रम में तो कभी हँसी की गुदगुदी को विराम देने के क्रम में।◆











Saturday, July 18, 2020

गुरुत्वाकर्षण बनाम प्यार ...

बहुत पहले बच्चों और युवाओं को लक्ष्य कर के किसी मंचीय कार्यक्रम में एक संदेशात्मक व्याख्यान के लिए इस बकबक का संक्षिप्त रुप लिखा था। बाद में चित्र आधारित रचना की किसी प्रतियोगिता के लिए इसमें थोड़ा परिवर्तन कर के वहाँ प्रस्तुत किया था। आज पुनः इसमें कुछ समसामयिक बातों को जोड़कर यहाँ साझा कर रहा हूँ। वैसे तो आप सभी को ध्यान में रख कर इसको लिखा ही नहीं है। आप सभी तो आईक्यूधारी और बुद्धिजीवी लोग हैं, बच्चों और युवाओं के लिए इस कही हुई बातों के लिए मज़ाक मत बनाइएगा मेरा। और हाँ ... विधा की अल्प जानकारी के कारण ही इसको बकबक कह रहा हूँ, मालूम नहीं इसको कहानी कहनी चाहिए या आलेख। खैर ! .. जो भी हो .. जैसा भी हो .. बस .. आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...

गुरुत्वाकर्षण बनाम प्यार ...
लगभग सारे भारतवासी मुझे बुलाते हैं - "भारत माता"। हाँ, मैं हूँ ही तो .. आप सभी की भारत माँ .. है न ? अगर मैं आप सभी की माँ हूँ तो मेरी भी तो कोई न कोई तो माँ होंगी ही ना ? क्योंकि बिना माँ की कोई भी सजीव सृष्टि नहीं होती .. है न ?
हाँ .. तो .. मैं मेरी माँ की बात कर रही हूँ। मेरी माँ हैं .. पृथ्वी माँ। पृथ्वी माँ की कोख़ से जन्मी .. माँ का अंश .. माँ का अंग .. माँ की लाडली बेटी .. आप सभी की माँ .. मैं .. भारत माँ।
मेरी माँ .. पृथ्वी .. फिर उनकी भी माँ .. उनकी भी जननी .. एक अनवरत सिलसिला .. आप सभी  वंशबेल की तरह .. मेरा परिवार है । ये पूरा ब्रह्माण्ड।  ये सारे ग्रह, उपग्रह, तारे, सूरज, सभी मिलकर या मिलजुल कर एक परिवार ही तो हैं। है न ? हमारा आपसी प्यार ही है जो हमारे साथ-साथ आप सभी सुरक्षित हैं। ह-मा-रा आ-प-सी प्या-र .. अरे हाँ तो ! ... हमारा आपसी प्यार .. जिसे आप विज्ञान की भाषा में गुरुत्वाकर्षण कहते हैं। आप सोचिए ना ज़रा .. अगर एक पल के लिए भी हमारा आपसी प्यार यानि गुरुत्वाकर्षण जरा-सा भी डगमगा जाए तो आपके जीवन में भूचाल आ जाए .. है कि नहीं ?
कितना विराट है ये हम सभी का अपना ब्रह्माण्ड ! .. आप लोगों को बचपन के दिनों में सामान्य विज्ञान की किताबों और शिक्षकों ने केवल नौ ग्रहों के बारे में बतलाया था। .. है न ? .. पर उस दिन से आज तक आए दिन समाचार पत्रों, पत्रिकाओं या अन्य संचार माध्यमों से आप सभी को ज्ञात तो होता ही रहता है कि पूरे विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्ड में कई-कई नए-नए ग्रहों और उपग्रहों की ख़ोज करते रहते है या पहले से ज्ञात ग्रहों-उपग्रहों के नए-नए आयामों से पूरी दुनिया को अवगत कराते रहते हैं। ये सभी हमारी माँ यानि पृथ्वी के ही नाते-रिश्तेदार ही तो हैं जो आपसी प्यार से यानि आपके विज्ञान की भाषा में गुरुत्वाकर्षण से एक-दूसरे से अनवरत जुड़े हुए हैं। आशा है कि शायद ..  भविष्य में भी .. ये सिलसिला जारी रहेगा .. थमेगा नहीं .. जारी है और .. जारी रहेगा भी। हमारे रिश्तेदारों को खोजने का भी और हमारे आपसी गुरुत्वाकर्षणका भी .. शायद ...।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की तुलना में मैं .. आपकी भारत माँ और मेरी माँ .. पृथ्वी एक अदद अदना-सी कितनी छोटी हूँ भला ! ... पृथ्वी की तुलना में भारत, भारत की तुलना में बिहार .. जो ठीक नक़्शे में भारत माँ के हृदयस्थली के पास दिखता है एक राज्य मात्र और उस राज्य बिहार में एक जिला और राज्य की राजधानी भी - पटना। आगे .. पटना का एक मुहल्ला, मुहल्ला में आपका घर .. ओह ! क्षमा करें .. घर नहीं .. आपके एपार्टमेंट में आपका एक फ्लैट, एक, दो या तीन बीएचके वाला, उसमें आपका परिवार और .. उसके एक हिस्से में .. अपने हिस्से की हवा से अपनी साँस में ऑक्सीजन गैस को अपने नथुनों से अपने फेफड़े तक पहुँचाते हुए आप .. बाप रे ! ... मतलब पूरे ब्रह्माण्ड की तुलना में आप शायद रेत के एक कण तुल्य भी अस्तित्व नहीं रखते .. शायद ...। अगर इस तुलनात्मक अपने अस्तित्व पर अब भी गुमान हो रहा हो और इस कोरोनकाल में यदि आपके शहर में लॉकडाउन की घोषणा ना की गयी हो तो अपने नाक-मुँह पर यथोचित मास्क लगा कर और अपनी राज्य या केंद्र सरकार के अन्य निर्देशों का पालन करते हुए एक बारगी अपने शहर या गाँव के श्मशान या कब्रिस्तान तक एक क्षण के लिए ही सही टहल कर वापस आ जाइएगा।
फ़िलहाल आप सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी पृथ्वी की पैदाइश हैं। फिर भी स्वयं को .. देश को .. कई सारी सीमा रेखाओं में, कहीं एलओसी तो कहीं एलएसी के नाम पर क़ैद कर रखा है। एक-दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं। विज्ञान और उसके आविष्कारों का दुरूपयोग कर के उसे ही बदनाम कर रहे हैं। सीमा के भीतर अपने देश के भीतर भी जाति-धर्म के नाम पर एक-दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं। अब देखिए ना जरा .. सब मेरी ही .. अपनी भारत माँ .. एक ही माँ की सन्तान हैं .. पर इंसान, इंसान का दुश्मन बना बैठा है। सभी .. हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैनी .. और ना जाने कितने धर्मों, जातियों, उपजातियों, सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं। कभी सोचा है फ़ुर्सत के लम्हों में .. किया है कभी .. मनन .. चिंतन .. कि आप इंसानो के लिए मेरे परिवार से मिले सूरज, चाँद एक ही हैं और इस के अलावा पानी, हवा, बादल, मौसम सब आपको मुक्त व मुफ़्त में मिले हैं।
पृथ्वी को अगर आप सभी हवा का एक दरिया मान लें .. वैसे मानना क्या है भला ! .. ये तो है भी .. पढ़ा ही होगा आप सभी ने बचपन में अपने भूगोल विषय के अन्तर्गत कि पृथ्वी के चारों ओर ऊपर की ओर कुछ किलोमीटर तक हवा की एक परत लिपटी हुई है .. पढ़ा है ना ? .. या फिर केवल अंक लाने के लिए रट्टा मारा था ? नहीं ना ? .. तो अगर हवा की दरिया है तो .. सोचिए ना जरा .. तथाकथित हिंदुओं के नथुनों से निकली साँस बाद में किसी मुसलमान या किसी ईसाई के नथुनों में जाती है। ठीक इसका विलोम भी होता है। तो फिर .. बाँटिए ना हवा को, बाँटिए ना धूप को, चँदा की चाँदनी को, बादल को .. कि ये हिन्दू की हवा है, ये मुसलमान की हवा है .. ये भारत का बादल है, ये चीन का बादल है .. ये सिक्ख का धूप है, ये बौद्ध की चाँदनी है। है सामर्थ्य ? .. बोलिए ! ...
वैसे तो हमारे मनुवादी पुरखों ने ही नहीं, बल्कि आज के वर्तमान कई समाज में भी जाति-धर्म की आड़ में खाना-पानी की छुआछूत का प्रचलन है। वैसे इन दिनों वर्त्तमान के कोरोनाकाल में छुआछूत का मामला उन मामलों से इतर है।
अब .. जब प्रकृति ने भेदभाव नहीं की है अपनी दी हुई चीज़ों में या हम सभी सपरिवार बंध कर रहते हैं ब्रह्माण्ड में .. गुरुत्वाकर्षण के दायरे में बंध कर तो .. फिर आप सभी मानवों ने, बुद्धिजीवियों ने क्यों कर रखा है भला भेदभाव ? क्यों बने हुए हैं एक-दूसरे के जानी दुश्मन ? बोलिए ना जरा .. इस पृथ्वी के सबसे ज्यादा आईक्यूधारी प्राणियों ! ... बोलिए ...।
आप सभी तो मेरी और मेरी माँ की धमनियों में बहने वाली नदियों में से से एक नदी - गंगा नदी को भी माँ कह कर ही बुलाते हैं। है ना ? गंगा ही क्यों .. गंगा-यमुना जैसी अनेकों नदियाँ, महानदियाँ हैं जिसे आप पूजते भी हैं। पर आज देखी है आपने .. अपनी उन माँओं की दुर्दशा ? किसने की है ये दुर्दशा ? किसने फैलाया है ये प्रदूषण ? आप इंसानों ने ही ना ? आप इंसान इस तरह की दोहरी ज़िन्दगी क्यों जीते हैं भला ?
आप आपस में लड़ते-मरते हैं, पर हैं तो सभी मेरी ही संतान। मैं तो भेदभाव नहीं करती आपके साथ या हम सभी ब्रह्माण्ड में .. आपस में भी। मेरा मन बहुत कुंहकता है, कपसता है .. कभी तो भोंकार पार कर रोने का मन करता है, पर अगर मैं रोने लगी तो मेरी ओर देखेगा कौन ? कौन चुप कराएगा भला ? आयँ ! ..  इसीलिए गंगा की तरह ही शर्मिंदगी के साथ सब कुछ झेल रही हूँ। पर आप सभी की माँ होकर भी आप सभी से .. अपनी संतानों से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूँ कि एक बार तो सोचिए ना .. अगर यही हाल रहा तो आप अपनी भावी पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जायेंगे ? .. दिन पर दिन बदतर होती पृथ्वी .. दिन पर दिन बदतर होती ज़िन्दगी ? बोलिए ?
आज परिवर्तन की आवश्यकता है, वैसे तो हमेशा से ही रही है। एक क्रांति की आवश्यकता है, वैसे तो हमेशा से ही रही है। परन्तु आज शायद .. एक सकारात्मक परिवर्तन, एक सकारात्मक क्रांति की आवश्यकता है। सोच को बदलना है। सोच की दशा और दिशा बदलनी है। दोहरी ज़िन्दगी नहीं, बल्कि दोगली ज़िन्दगी के खोल से .. मुखौटे से बाहर निकलनी है। तथाकथित धर्मों-मज़हबों के खोल से .. या यूँ कहें कि उस के खाल से बाहर निकल के सोचने की ज़रूरत है।
दरअसल बलि और क़ुर्बानी के नाम पर हिंसा परोसने वाले धर्मों-मज़हबों से किसका भला होगा भला ? सोचिए ना जरा ! ...
आप भी हमारे आपसी गुरुत्वाकर्षण वाले बंधन के तरह आपस में प्यार से बंध कर रहिए। अगर आप सभी प्यार से मिलजुल कर रहना सीख लेंगें तो आप के धर्मों और मज़हबों वाले तथाकथित स्वर्ग, ज़न्नत और बहिश्त, जिनकी कपोल कल्पना की गई है धर्मग्रंथों में, सब आपकी माँ या माता यानि इसी भारत में .. मुझ में .. मेरी माँ यानि पृथ्वी पर बस जायेगा।
आप मुझे माँ कहते हैं तो .. अपनी माँ की बातें .. मेरी बातें .. मान लीजिए। अपने लिए नहीं भी मानते हों तो कम-से-कम अपनी भावी पीढ़ियों के लिए ही सही हिन्दू-मुसलमान की जगह इंसान बन जाइए ... प्लीज़ ...  बनेंगे ना ? ... आयँ ! ... बस यूँ ही ...









Wednesday, July 8, 2020

जानती हो सुधा ...

● सुबह का वक्त .. डायनिंग टेबल पर आमने-सामने श्रीवास्तव जी (♂) और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती श्रीवास्तव (♀)  ..  दोनों ही आज के ताज़े अख़बार के पन्नों और कॉफ़ी के कपों के साथ ..

♂ "कितनी बार कहा है कि मेरी कॉफ़ी में शुगर फ्री मत डाला करो।"

♀ "तो क्या, चीनी डाल दूँ? ताकि शुगर हाई हो जाए। ऐसे ही बिना मीठा खाए तो दो-ढ़ाई सौ से ऊपर रहता है शुगर आपका।"

♂ "अरे यार, तुम से सुबह-सुबह बहस कौन करे। कितनी बार कहा है कि मेरी कॉफ़ी में दोनों ही मत डाला करो। ना चीनी, ना शुगर फ्री और दूध भी नहीं .. मुझे ब्लैक कॉफ़ी पसंद है।"

♀ "छोड़ दीजिए उसको। लाइए कप .. दूसरा बना कर लाते हैं आपके लिए .. ब्लैक कॉफ़ी।"

♂ "रहने दो। छोड़ दो। अभी इसे ही पीने दो। आगे फिर कभी बनाना तो ध्यान रखना। अब ये बन गया तो, बर्बाद थोड़े ही न होगा। जाओ, अपना काम करो। "

♀ "आपकी पत्नी हूँ। इस तरह मुझे झिड़कना आपको शोभा देता है क्या ? बोलिए ! .. सुबह-सुबह इतने चिड़चिड़े क्यों हो रहे हैं आप ? रात में नींद पूरी नहीं हुई क्या ? या बी.पी. बढ़ी हुई है। जाकर लैब में चेक करवा लीजिए एक बार। या फिर रात में कोई बुरा सपना देख लिया है आपने, जो अभी तक मूड खराब है आपका।"

♂ "हाँ , ऐसा ही समझ लो।"

♀ "बिना सपना जाने, कैसे समझ लो भला, बोलिए ! .. बोलिए न .. ऐसा क्या सपना देख लिया है आपने। सुबह से आज मेरी दायीं आँख भी निगोड़ी लगातार फड़क रही है। राम जाने .. कोई अपशकुन न हो जाए .. "

♂ "अब सुबह-सुबह तुम भी क्या फिर कोई दकियानूसी बातें ले कर बैठ गई हो।"

♀ "फिर भी .. दकियानूसी ही सही .. पर बतलाइए तो सही कि कल रात क्या सपना देखे आप, जिस से अभी तक आपका मूड इतना खराब है ?"

♂ "कल सपने में देखा कि मैं मर गया हूँ और .. "

♀ "अरे-रे-रे .. मरे आपका दुश्मन .. और ? .."

♂ "और तुम कुछ माह बाद ही किसी और से शादी कर लेती हो। आपस में तुम दोनों इसी डायनिंग टेबल के पास बैठ कर चाय पीते हुए हँस-हँस कर बातें कर रही हो। वो आदमी तुम्हारी हथेली अपनी दोनों हथेली में दबा कर कह रहा था कि चलो, अच्छा हुआ ग्रहण टल गया।"

♀ "हे राम ! क्या अंट शंट देखते रहते हैं आप ? ... आयँ ?"

♂ "तुम भी तो मेरे दुनिया से चले जाने से बहुत खुश दिख रही थी।" -  (व्यंग्यात्मक और चुटीले लहज़े में).

♀ "और .. यही सब देख कर आपका मूड खराब है, है न ? सच-सच बतलाइएगा कि आप अपने मरने के सपने से दुःखी हैं या मेरी ख़ुशी से ?" (माहौल को कुछ हल्का करने के ख़्याल से चुटकी लेते हुए श्रीमती श्रीवास्तव ने श्रीवास्तव जी को छेड़ा।) "अभी कुछ ही दिन पहले तो आपने सोशल मिडिया पर अपनी एक कहानी की नायिका को ऐसे ही तो अपने पति के मरने के बाद अपने किसी पहचान वाले नायक से हाथों में हाथ डाल कर मिलते हुए और उस के मुँह से ग्रहण टलने वाली बात भी कहते हुए लिख कर दिखलाया था। लोगों ने आपकी कहानी के ऐसे सुखान्त को सराहा भी था, प्रतिक्रिया में वाह-वाह लिख कर। है न ?"

♂ "तो ... ?"

♀"तो क्या .. तो फिर आपको तो खुश होना चाहिए न, चिड़चिड़े होने की जगह .. कि .."

♂ "मतलब जो भी मन में आता है .. कुछ भी ऊटपटाँग बक देती हो .. एक बार सोचती भी नहीं कि .. "

♀ "अब इस में सोचना क्या है भला .. बोलिए न जरा .. मुझे लगा कि आपकी जिस कहानी की नायिका के अपने पति के मरने के बाद वाले कृत से सजे जिस सुखान्त (?) की जिसमें .. नायक द्वारा उस नायिका के पति के मरने को 'ग्रहण टलना' (?) बुलवाया गया .. और फिर जिसकी आपके प्रसंशक पाठकगण द्वारा इतनी भूरि भूरि प्रशंसा हो रही हो .. वह तो निश्चित रूप से कोई अच्छी ही बात होगी न ? ..  है कि नहीं ?"

♂ "जानती हो सुधा .. दरअसल हम सभी दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं हमेशा।  समाज में किसी की बेटी-बहू के साथ बलात्कार हो तो हम फ़ौरन सहानुभूति में एक रचना पोस्ट कर देते हैं। अगर हमारी बेटी-बहू के साथ ऐसा होगा तो एक पंक्ति भी लिखने का होश होगा क्या ? नहीं न ? अगर सीमा पर कोई फौजी मरता है, फ़ौरन एक रचना हम चिपका आते हैं जा कर सोशल मिडिया पर, उसकी श्रद्धांजलि या उसके परिवार की सहानुभूति में। वही अगर हमारे घर के कोई नाते-रिश्तेदार वाले किसी फौजी की लाश का ताबूत घर आने वाला हो तो हमारे द्वारा सोशल मिडिया पर एक पंक्ति का लिखा जाना तो दूर .. सोशल मिडिया झाँकने तक का होश नहीं रहेगा। है न ?" (बोलते-बोलते श्रीवास्तव जी लगभग हाँफने लगे थे। वैसे भी वे बी. पी. के रोगी ठहरे।) "हम कई-कई काल्पनिक आदर्श नायकों-नायिकाओं से आदर्श बघरवाते रहते हैं .. पर जब अपनी बारी आती है तो .. कहते हैं न कि .. "

♀ "हाथी के खाने के दाँत और .. और दिखाने के और .."

♂ "हाँ .. और हम ये बोल कर अपनी पीठ भी थपथपाना नहीं भूलते कि .. जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि .."

♀ "हम चले किचेन में .. देर हो रही है। ये रवि .. कवि आप ही समझते रहिए। हमको इन सब से क्या लेना-देना भला।"

♂ "तुम्हारी रसोई किसी रचनाकार के रचना से कमतर है क्या .. बोलो ! .. सोचो न जरा कि .. अगर जो पेट न भरा हो तो कविता से पहले पतीला और प्लेट ही सूझेगा इंसान को .. चाहे वो कितना भी बुद्धिजीवी हो .. है न सुधा ?" ●



Tuesday, July 7, 2020

आप बड़े 'वो' हैं ...

जैसा कि हम ने कुछ दिनों पहले ही 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के दौरान ये सोचा था कि इन ब्लॉग के वेव-पन्नों को ही अपनी डायरी (दैनन्दिनी) बना कर इन्हीं पर अपनी रचना/विचार के साथ-साथ अपनी कुछ-कुछ खट्टी-मीठी .. और कुछ कड़वी-कसैली भी .. आपबीती को भी साझा कर के सहेजते जाते हैं .. परत दर परत .. संदर्भ के अनुसार, जितना सम्भव हो सके .. अंतिम विदाई के पहले ...।
इसी क्रम में आज फिर वर्षों से एक कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में पड़े कुछ पुराने पीले पड़ चुके कागज़ी पन्नों में से अपने वयःसंधि के समय, वर्ष ठीक-ठीक याद नहीं, लिखी गई दो मज़ाहिया तुकबन्दी आज साझा कर रहा हूँ। इनमें उस दौरान व्यवहार किए गए कुछ शब्दों के जरिया या प्रेरणा का ज़िक्र आप से कर लेते हैं, अगर आपके पास समय और धैर्य हो तो .. फिर आगे बढ़ते हुए रचना तक पहुँचते हैं ...

# पप्पू के पापा ! बनाम पप्पू पास हो गया ...
सर्वविदित है कि प्रायः बच्चों के नामकरण पर कालखंड विशेष, सम्प्रदाय या जाति विशेष के साथ-साथ भाषा और प्रदेश विशेष का भी पूरा प्रभाव पड़ता है। वैसे जातिसूचक उपनाम पर प्रभाव पड़ने वाले कारक तो जगज़ाहिर ही है .. है न ? समाज में दो -दो नाम रखने का भी प्रचलन है वैसे .. एक- स्कूल-कॉलेज के लिए निब न्धित और दूसरा- घर के लिए, जिसे प्यार का नाम या पुकारू नाम कहते हैं। वैसे तो एक आदमी के जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग कई नाम या सम्बोधन मिलते रहते हैं। और नहीं कुछ तो .. कम से कम "ऐ जी" (अबे गधे) वाला सम्बोधन तो गले पड़ता ही है, जो प्रायः कहीं-कहीं कई समाज में शादीशुदा जोड़ी एक दूसरे को बुलाते हुए देखे या सुने जाते हैं।
खैर .. इतने बकबक का सारांश ये है कि किसी न किसी प्रभाव से प्रेरित हो कर ही तो मेरे अभिभावक ने मेरा नाम सुबोध (कुमार सिन्हा भी चिपका हुआ है) नाम रखा होगा। साथ ही दो नामों के चलन के तहत सुबोध के साथ-साथ पप्पू नाम से भी बुलाया गया होगा। घर के सभी छोटे भाई-बहन पूरी तरह पप्पू भईया भी नहीं बोलते हैं, बल्कि हड़बड़ी में पुकारते हुए एक अलग उच्चारण हो जाता है- "पप्पिया" और इस तरह सुबोध और पप्पू के अलावा एक तीसरा सम्बोधन भी अन्जाने में होता आया है- पप्पिया।
पर ये अलग बात है कि जब से कैडबरी के चॉकलेट का विज्ञापन इस सदी के महानायक (ऐसा लोग कहते हैं) की आवाज़ में दूरदर्शन पर आया- "पप्पू (फिसड्डी) पास हो गया" और साथ ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए पर्यायवाची संज्ञा के रूप में यह "पप्पू" नाम एक मुहावरे की तरह व्यवहार किया जाने लगा, तब से लोगबाग़ अब अपने बच्चों का यह नाम नहीं रखते और जिनका पुराना नाम है भी तो, वे बतलाने में झेंपते हैं।
वैसे तो लोग अपनी असली उम्र भी नहीं बतलाते जल्दी ... लोगबाग अपनी संतान की उम्र छिपाने या यूँ कहें कि कम उम्र की बतलाने के लिए उसके बचपन में स्कूल में नामांकन कराते वक्त उम्र कम बतला कर लिखवाते हैं और उनका वही बच्चा जब सयाना होता है तो अपने उम्र के अन्तर की सच्चाई जान कर उसे लगता है कि उम्र छुपानी कोई अच्छी बात है। फिर वो बड़ा या बुढ़ा हो जाने पर भी अपनी उम्र झुठलाता फिरता है। अपने से कम उम्र की स्त्री और पुरुष को क्रमशः "दीदी" और "भईया" बुला कर सम्बोधित करता रहता है, ताकि वह सामने वाले/वाली से अपने को कम उम्र की साबित कर सके और एक मेरे जैसा स्टुपिड है कि सीना चौड़ा कर के कहता है कि साहिब! मेरे जन्म के बाद से अब तक घर की दीवार से 54 कैलेंडर बदले जा चुके हैं। ऐसे आप लाख छुपा लें किसी से भी अपनी उम्र .. क़ुदरत को सब पता होता है .. है कि नहीं ?...

# जो प्यार छुपा 'तुम' में. बनाम "गुड्डू" ...
नाम से एक और बात याद आयी कि प्रायः लोग आपके निबंधित नाम और प्यार के या पुकारू नाम के अलावा प्यार-मोहब्बत में एक अलग नाम से भी संबोधित करना चाहते हैं आपको .. हमसफ़र .. हमनफ़स बनाने पर या स्वयं बन जाने पर। कभी वो सम्बोधन व्यक्तिवाचक संज्ञा भी होता है, मसलन- सोनी, सोना, मोना या फिर मूल नाम में आकार, उकार आदि लगा कर, मसलन-रितेशवा, सुनीतिया इत्यादि। जैसे मैं लाड़ से कभी-कभी अपनी धर्मपत्नी को मधु की जगह "मधा" और वो मुझे सुबोध की जगह "सुब्बू" के सम्बोधन से आवाज़ देती है। और कभी जातिवाचक संज्ञा, मसलन-बाबू, दिल, जान इत्यादि या फिर कभी कोई विशेषण भी, मसलन-स्टुपिड, छलिया, फ़रेबी इत्यादि जैसे सम्बोधन या नाम सुनने के लिए भी मिल जाते हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि किसी को "आप" बोलने से इंसान अदबी बना रहता है। पर कुछ लोग इस बात कि भी तरफ़दारी करते मिलते हैं कि "तुम" या "तू" के सम्बोधन से रिश्ते में अपनापन और नज़दीकी का एहसास होता है। मेरे पापा (अब इस दुनिया में हैं नहीं) भी ऐसा ही मानते थे, पर बहुत बार वे स्वयं जब बहुत लाड़ जताते थे हम सभी भाई-बहनों से तो हम सब के लिए "आप" का सम्बोधन ही व्यवहार करते थे। यहाँ तक कि अपने पोते यानि मेरे बेटे के लिए भी। एक अनोखी बात (मेरी नज़र में) मैंने देखी है बचपन से कि अम्मा और पापा दोनों ही एक दूसरे को आपस में प्यार से एक ही समान सम्बोधन से बुलाते थे- "गुड्डू"। जिस नाम का हमारे किसी के नाम से कोई लेना-देना नहीं था और ना है। कभी कारण पूछा भी नहीं हमलोगों ने। बस हम सभी मन ही मन मुस्कुराते थे और हँसी-ख़ुशी वाले माहौल होने पर मज़ाक से पापा की अनुपस्थिति में अम्मा को गुड्डू बोल कर चिढ़ाते थे।

# हम दो, हमारे दो. बनाम "तू तरुवर मैं शाख रे" ...
70 के दशक वालों को जरूर याद होगा .. जगह-जगह दीवारों पर लाल तिकोन के साथ लिखा, चिपका या टंगा हुआ एक नारा- "हम दो, हमारे दो"। तब बचपन में ये नहीं मालूम था कि जनसंख्या पर रोक के लिए परिवार नियोजन के इस नारे को "रेशमा और शेरा" फ़िल्म के "तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे" जैसे रूमानी फ़िल्मी गीत लिखने वाले मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक जिला- मंदसौर  के रचनाकार सुप्रसिद्ध कवि बालकवि बैरागी जी ने रचा था।
साथ ही ये भी उन्हें याद होगा कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा-352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी, जो 25 जून' 1975 से 21 मार्च' 1977 तक यानि लगभग 21 महीने तक लागू रही थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था।
आपातकाल के नाम पर जनता के अधिकार छीने जाने के साथ ही परिवार नियोजन के नाम पर नसंबदी ने घर-घर में दहशत फैलाने का काम किया था। उस दौरान गली-मुहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही सबसे दमनकारी अभियान वाले फैसले- "नसबंदी" की चर्चा सबसे ज्यादा थी।
इस से जुड़ी कई हास्यास्पद और दुःखद घटनाएँ ज़ेहन में हैं, जो फिर कभी विस्तार से साझा करूँगा .. मौका मिला तो ...।
फिलहाल आते हैं अपनी दोनों तुकबन्दी वाली रचनाओं पर ... पर उस से पहले बस एक और पहलू की चर्चा लाज़िमी है।

# गज्जी सिल्क बनाम गज्जी सिल्क साड़ी ...
गज्जी सिल्क एक शाकाहार आधारित कपड़ा है। यह रेयान ताना और कपास के बाने के साथ साटन बुनता है, जो एक उच्च चमकदार सतह बनाता है। गज्जी रेशम साटन है जो रेशम के कपड़े पर किया जाता है। गुजरात में टाई-डाई साड़ियों का निर्माण करते समय इसका खूब उपयोग किया जाता है क्योंकि इन कपड़ों पर शानदार रूप में प्रिंट होते हैं। 70 के दशक में इसका कुछ ज्यादा ही प्रचलन था।
अब आते हैं दो पुरानी मज़ाहिया रचनाओं (?) बनाम दो तुकबन्दियों पर ...

(१) आप बड़े वो हैं ...
एक बार पति ने कहा अपनी पत्नी से खीझ कर,
अपनी प्यारी पर खीझ कर , थोड़ा पसीज कर।
ओ श्रीमती जी ! अब ना कहना मीठी बातें प्लीज़
सुन-सुन कर तेरी बातें , हो ना जाए डायबिटीज।

वैसे अगर डॉक्टर कहेगा, कड़ैला खाने को मुझसे,
"सुना दो दो-चार कड़वी बातें"-तब कहूँगा मैं तुझसे।
चल जाएगा जब इसी से कड़वे कड़ैले का काम,
खरीद कर तब कड़ैला भला क्यों होऊँगा परेशान।

बढ़ गया है वैसे भी आजकल चीनी का बहुत दाम,
चीनी के बदले तेरी मीठी बोली से ही चलेगा काम।
तब पत्नी ने कहा-"ए.जी. (अबे गधे) आप बड़े 'वो' हैं,
देखते नहीं घर में अभी मौजूद "हम दो, हमारे दो" हैं।

फिर पति ने कहा-"देखो! मुझे फिर तूने आप है कहा,
जो प्यार छुपा 'तुम' में, 'डार्लिंग'! वो 'आप' में कहाँ?
अच्छा, छोडो ये 'आप' और 'तुम' का रगड़ा-झगड़ा,
होगा बेहतर, "ऐ पप्पू के पापा!" अब से मुझे कहना।"
                             ◆●◆

(२) गज्जी सिल्क साड़ी
किसी प्रेमिका ने कहा एक बार अपने प्यारे प्रेमी से-
-"चश्मा तुम्हारा आ जाता है बीच में बन के सौतन,
चाह कर भी, हो नहीं पाता चार आँखों का मिलन।"

चुप्पी तोड़, कहा झट हाजिरजवाब उसके प्रेमी ने-
-"लिपस्टिक भी है तेरा, मेरा जन्म-जन्म का दुश्मन,
ले भी नहीं पाता हूँ तुम्हारे नर्म-नर्म होठों का चुम्बन।"

प्रेमिका- "लेते भी हो तो गड़ती है तेरी 'फ्रेंचकट' दाढ़ी"।
प्रेमी- "बाहों में लूँ तो फिसलती है गज्जी सिल्क साड़ी"।
                              ◆●◆

अब आप जाते-जाते .. मेरी बेतुकी बातों और तुकबंदियों से अपने ख़राब हुए मूड को बैरागी जी के कलमबद्ध किए गए गीत- "तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे" जो 1971 में "रेशमा और शेरा" फ़िल्म के लिए लता मंगेश्कर जी ने जयदेव जी के संगीत के साथ गाया था, को सुन कर अपने मन को रूमानियत के साथ बहलाते हुए जाइए न .. प्लीज...  और पहचानिए न जरा .. कि ये रूमानी गाना  भला फ़िल्माया गया है किन दो प्रसिद्ध फ़िल्मी कलाकारों के साथ ...🤔🤔🤔 .. बस यूँ ही ...