Saturday, June 20, 2020

ताबूत आने की ...


◆(1)◆ 
          लहानिया भीखू
ज्यों करती है प्रतीक्षा उगते सूरज की
छठ के भोर में अर्ध्य देने को भिनसारे,
हाथ जोड़े कभी,तो कभी अचरा पसारे,
छठव्रती कोई मुँह-अँधेरे, सुबह-सकारे।
प्रतीक्षा बस कुछ पलों की आस्था भरी,
फिर तो उग ही आते हैं सूरज मुस्कुराते।

करती है प्रतीक्षा ये एक सवाल नायाब,
आख़िर होंगे कब हम सभी क़ामयाब ?
यूँ तो गाते आए हैं "हम होंगे कामयाब",
बचपन से ही मिलजुल कर हम सारे।
शेष हो कब प्रतीक्षा उस छठव्रती-सी,
जो गाएँ "हम हो गए कामयाब" सारे।

लहानिया भीखू* है आज भी अंदर और
बाहर नागी लहानिया* के बलात्कारी-हत्यारे।
टंगी है देखो "सत्यमेव जयते" की तख़्ती
बेजान-सी हर न्यायालय की दीवारों के सहारे,
कर रही प्रतीक्षा वर्षों से बस टुकुर-टुकुर,
शत्-प्रतिशत न्याय की राह मौन निहारे।

देख मार-काट आज भी बेधड़क,
जाति-धर्म और मज़हब के नाम पर,
पूछती आत्मा - कब थकेंगे हत्यारे?
जमीन-इंसानों के कब थमेंगे बँटवारे?
प्रतीक्षा तो सीखी निर्भया की माँ से,
पर भला कब तक ? कोई तो हो, जो बतलाए !!! ...

[ * = "लहानिया भीखू" (ओमपुरी) एक आदिवासी मजदूर  "आक्रोश" (1980) फ़िल्म, जो सच्ची घटना पर आधारित है,  का नायक है ; जिसे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता और अन्याय पर उसका खून उबलता है।
परन्तु लहानिया को सबक सिखाने के लिए उस इलाके के फारेस्ट-कॉन्ट्रैक्टर, डॉक्टर, सभापति और उनका एक पुलिस दोस्त मिलकर उसकी पत्नी "नागी लहानिया" (स्मिता पाटिल) का बलात्कार कर उसकी हत्या कर देते हैं और इल्ज़ाम उसी के पति लहानिया भीखू पर डाल देते हैं।]
                                          ★◆★

◆(2)◆ 
ताबूत आने की
न्याय मिलने की
प्रतीक्षा की घड़ी,
निर्भया की माँ की
आँखों में है .. अक़्सर हमने देखी।

पर कितनी लम्बी
प्रतीक्षा भला होती होगी
सीमा से ताबूत आने की,
शहीद हुए .. अपने फ़ौजी पति की ?
                ★◆★




Friday, June 19, 2020

बाइफोकल* सोच ...

                    ■ खंडन/अस्वीकरण (Disclaimer) ■ :-
●इस कहानी के किसी भी पात्र या घटना का किसी भी सच्ची घटना या किसी भी व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह काल्पनिक है। अगर सच में ऐसा होता भी है, तो यह एक संयोगमात्र होगा। इसके लिए इसे लिखने वाला जिम्मेवार नहीं होगा या है।
और हाँ ... यहाँ किसी भी पुरुष या नारी पात्र/पात्रा की चर्चा की जा रही है, वह ना तो किसी व्यष्टि विशेष को इंगित कर रहा है और ना ही किसी समष्टि को, बल्कि कुछ ख़ास तरह के इंसान की कल्पना कर उसकी विवेचना कर रही है।●
                                   ★●●●★●●●★

                                ◆ बाइफोकल* सोच ◆
आज की इस कहानी की एक पात्रा हैं- डॉ रेवा घोष, जो अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक पर अक़्सर प्रकृति के अपने सूक्ष्म अवलोकन वाले शब्दचित्र से सुसज्जित अपनी रचनाओं को प्रकाशित करती रहती हैं। बल्कि यह कहना यथोचित होगा कि उनको या उनकी रचना को चाहने वाले उनकी अनमोल रचना की बेसब्री से प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके अलावा स्वयं की नज़रों में स्वघोषित या फिर सचमुच की विरहिणी, चाहे कारण जो भी रहा हो, और अपने घर-समाज में अपने मन ही मन में या सच में उपेक्षित महसूस करने वाली महिलाओं के मन की कसक भरी शिकायतों को तुष्ट करती उनकी कई रचनाएँ- गज़लें, अतुकान्त कविताएँ, कहानियाँ,  उनकी पहचान बन चुकी हैं। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली कई सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं पर भी आशु-कवयित्री का दायित्व निभाना उन्हें बखूबी आता है या यूँ कह सकते हैं कि ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं की मानो उनको सुबह-शाम प्रतीक्षा रहती हो। इधर किसी भी शाम घटना घटी, अगले दिन सुबह उन्होंने रचना रच दी या इधर किसी सुबह घटना घटी और उसी दिन शाम में रचना बन कर तैयार। अब अपनी-अपनी प्रतिभा है। कहते हैं ना कि -
"कशीदाकारी वालों को तो बस होड़ है, कशीदाकारी करने की।
अब कफ़न हो या कि कुर्ता कोई,बस जरूरत है एक कपड़े की।"
कई प्रतियोगिताओं की प्रतिभागी बनना भी उनकी प्रतिभा का एक अंग है।

अनेक बार तो अपनी रचना के पोस्ट करने के साथ-साथ, कई बार तो दो या चार पँक्तियों के साथ भी, एक बड़ी-सी अदा भरी मुस्कान में सराबोर अपनी तस्वीर या सेल्फ़ी भी चिपका देती हैं। ऐसे में उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियायों या उछले स्माइलीयों के लिए ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वो सारी प्रतिक्रियाएँ और स्माइलियाँ उनकी उन चंद पँक्तियों के लिए आई हैं या उनकी मनमोहक तस्वीर के लिए। वैसे इनके अनगिनत प्रशंसक हर आयु वर्ग के लोग हैं, पुरुष भी और नारी भी। उनकी पोस्ट की गई रचना के विषय के अनुसार ही प्रतिक्रिया देने वाले प्रशंसक भी आते हैं- सामाजिक या राजनीतिक प्रसंगों वाली रचना पर इने-गिने, पर रूमानी पर तो मानो खुले में रखे गुड़ के ढेले के इर्द-गिर्द भिनभिनाती अनगिनत मक्खियाँ।

अमूमन यूँ तो इंसान लिखता तो वही होगा, जो या तो वो स्वयं जीता है या आस-पास किसी पात्र या घटना को देख-सुन कर महसूस करता है या फिर इतिहास, पाठ्यक्रम या अन्य किताबों में या समाज से पढ़ा, सुना, या देखा होता है। पर प्रायः पाठकगण, विशेष कर पुरुष पाठक, महिला रचनाकार की रचनाओं के आधार पर तदनुसार समाजसेविका, क्रांतिकारिणी, विरहिणी या रूमानी जैसी उस रचनाकार की छवि बना लेते हैं अपने मन-मस्तिष्क में। मसलन- विरहिणी वाली रचनाओं से उन्हें ये अनुमान लगाने में तनिक भी देरी नहीं लगती कि - लगता है कि रचनाकार का वैवाहिक जीवन असंतुलित है। उसकी महादेवी वर्मा या मीराबाई से तुलना करना शुरू कर दिया जाता है और रूमानी रचना लिखती हो तो अमृता प्रीतम से। ये सारी बातें पुरुष रचनाकार के साथ भी लागू होती हैं, परन्तु चूँकि आज इस कहानी की पात्रा महिला रचनाकार हैं ; इसीलिए महिला रचनाकार की ही चर्चा कर रहा हूँ।

कई दफ़ा विरहिणी, वेबा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं, जिसकी बस किसी भावनात्मक डोर का एक छोर भर अपनी किसी एक ऊँगली के पकड़ में आ जाने की प्रतीक्षा में रहते हैं और ..  फिर तो पूरी पतंग और उस की पूरी बागडोर उनके हाथ में होती है।

वैसे भी किशोरावस्था में समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के अंतर्गत यह पढ़ाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। ये भी सुना था कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। अब दोनों को ही चरितार्थ करती हुई बातें .. कई बार मन को भटका जाती हैं। नतीज़न .. जो पास में होता है और पूरे परिवार को संभाल रहा होता है ; मसलन- किसान, सैनिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पदाधिकारी, टीचर, ठीकेदार, व्यापारी, इत्यादि ब्रांड वाले इंसानों में से कोई एक .. वो संवेदनशील रचनाकार को ख़ुद का शोषक और ख़ुद के प्रति रूखा व्यवहार करने वाला लगने लग जाता है और उन से परे सोशल मिडिया का कोई गज़लकार, कवि, कहानीकार, लेखक, विचारक या गायक मार्का इंसान मन को खींचने, लुभाने और भाने लग जाता है। एक आदर्श-पुरुष नज़र आने लग जाता है। अपना शुभचिंतक, सहयोगी के साथ-साथ वह संवेदी और मित्रवत् नज़र आने लगता है।

वैसे तो मीराबाई या आधुनिक मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा या अमृता प्रीतम के लगभग सर्वविदित निजी जीवन के अनुसार विरह या रूमानियत से सराबोर उनकी रचनाएँ उतनी हैरान नहीं करतीं, जितनी वर्तमान आधुनिक मीराओं और अमृता प्रीतमाओं की। अपनी एक विशुद्ध खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के बावज़ूद भी अगर कोई रूमानी रचना लिखता/लिखती हों तो, वो तो सम्भव और स्वाभाविक हो ही सकता है ; परन्तु किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से भी विरह उपजना एक प्रतिभा या कलाकौशल ही हो सकता है।

                          खैर ! ... चूँकि आज की इस कहानी की पात्रा- डॉ रेवा घोष जी मुख्य हैं ही नहीं, बल्कि मुख्य हैं एक पात्र- प्रो. धनेश वर्णवाल ; इसीलिए अब रेवा जी की ज्यादा चर्चा करना उचित नहीं है।
तो अब बातें करते हैं इस कहानी के मुख्य पात्र की .. प्रो. धनेश वर्णवाल जी एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी से हिन्दी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। एक अच्छे रचनाकार, समीक्षक, विचारक और समाज सुधारक भी हैं। ऐसा सब उनके अपने ब्लॉग में खुद से उल्लेख की गईं बातों से पता चलता है।

एक शाम वे अपनी साहित्यकार मित्र-मंडली के साथ शहर के एक नामी क्लब में बीता कर अपने आदतानुसार मुँह में पान चबाते हुए और कुछ अस्पष्ट गुनगुनाते हुए घर लौटते हैं। उन्हें घर में धर्मपत्नी और इकलौती बेटी, जो मेडिकल की सेकंड इयर की छात्रा है और इन दिनों कोरोना के कारण घोषित लॉकडाउन होने की वजह से कॉलेज व हॉस्टल बन्द होने के कारण घर पर ही है, दोनों रोज की तरह उनके साथ ही यानि तीनों के एक साथ डिनर करने के लिए उनकी प्रतीक्षा करती मिलती हैं।
थोड़ी ही देर में वे रोज की तरह फ़्रेश होकर डाइनिंग टेबल के पास आ गए हैं। रसोईघर से धर्मपत्नी और बेटी भी गर्मागर्म खाने से भरे कैस्सरॉल और खाने के लिए अन्य बर्त्तनों को लेकर हाज़िर हो गईं हैं। आज प्रोफेसर साहब का मनपसंद व्यंजन- अँकुरित गोटा मूँग का मसालेदार पराठा और बैंगन का रायता डाइनिंग टेबल पर सबके लिए परोसा गया है।
प्रायः किसी भी शाम का खाना या नाश्ता उन से पूछ कर और उनकी पसंद का ही बनाया जाता है। शायद यह भी पुरूष-प्रधान समाज की ही देन हो। आज शाम भी क्लब जाते वक्त वे अभी रात वाले मेनू के बारे में अपनी धर्मपत्नी के पूछने पर बतला कर गए थे।

सभी यानि तीनों हँसी-ख़ुशी चटखारे ले-ले कर खा रहे हैं। बीच-बीच में वे आज शाम की अपनी मित्र-मण्डली के बीच हुई कुछ चुटीली बातें, बेटी अपने हॉस्टल की कुछ खुशनुमा पुरानी बीती बातें व यादें और धर्मपत्नी दोपहर में अपने मायके से भाभी और बहनों से मोबाइल फोन पर हुई आपसी बातचीत का ब्यौरा आपस में एक-दूसरे को साझा कर हँस-मुस्कुरा रहे हैं। तभी उनकी बेटी उनसे चहकते हुए कहती है - "पापा! आज तो मिरेकल** हो गया।"
मुस्कुराते हुए प्रोफेसर साहब बेटी और धर्मपत्नी की ओर अचरज से ताकते हुए बोले - "ऐसा क्या हो गया बेटा!"। वे जब भी खुश होते हैं या ज्यादा लाड़ जताना होता है तो वे अपनी बेटी को बचपन से ही बेटा ही बुलाते आए हैं।
"जानते हैं? .. आज मम्मी ने पहली बार एक कविता लिखी है।"
"अच्छा! .. क्या लिखा है, जरा हम भी तो सुनें।"
"एक मिनट .. सुनाती हूँ।" फौरन अपना खाना रोक कर पास ही सेंटर टेबल पर पड़ी एक रफ कॉपी लाकर कविता सुनाने लगती है। -
"ताउम्र भटकती रही
तेरी तलाश में कि
कभी तो आ जाओ तुम प्रिय 
बन कर अवलंबन मेरा।
प्रतीक्षा करती रही
एक प्यास लिए कि
तुम आओगे ही 
बन कर आलम्बन मेरा।"
प्रोफेसर साहब का मुखमुद्रा अचानक गम्भीर हो जाता है। आवाज़ में अचानक से तल्ख़ी समा जाती है। -"रखो अभी। खाना खाओ शांति से।" सभी ख़ामोशी से खाने लगते हैं।
भोजनोपरांत सोने के लिए अपने बेडरूम में जाने के पहले भी बेटी पापा-मम्मी के बेडरूम में ही जाकर पूछती है - "पापा! अब पूरी कविता सुनाऊँ ?"
"नहीं सुननी ऐसी फ़ालतू और घटिया कविता।"
"क्यों? ऐसा क्या लिख दिया मम्मी ने भला?"
"क्या लिख दिया मतलब? कुछ भी लिख देगी? मैं मर गया हूँ क्या ? या खाना-खर्चा ठीक से नहीं चलाता? आयँ ? बोलो। जो इस बुढ़ापा में अब वो कोई अवलंबन-आलम्बन ढूँढ़ती फिरे और मैं ..."
"पापा, ये तो बस यूँ ही .. वो .. इधर-उधर पढ़ कर बस लिखने की कोशिश भर कर रही थी कि .. शायद आप उनकी सराहना करेंगे। पर आप हैं कि ..."
"इसका क्या मतलब है, कुछ भी लिखते फिरेगी। लोग क्या सोचेंगे। बोलो ...?"
"पापा! वो रेवा आँटी .. डॉ रेवा घोष .. आपकी और मेरी फेसबुक के कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। आपके और भी कई मित्र लोग हैं जो मेरे उस कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। उन सब की रचनाओं पर आपकी टिप्पणियाँ मेरी नज़रों से गुजरती रहती हैं। उस दिन तो आप उन शादीशुदा रेवा आँटी की विरहिणी-रूप वाली रचना पर तो प्यार लुटा रहे थे। आशीष और सांत्वना दे रहे थे। उनकी उस रचना के बारे में कोई कह रहा था- "विकल नारी मन के भावों का सुंदर शब्दांकन", तो कोई-  "मन के भाव ... दिल को छूते" ... प्रतिक्रिया दे रहा था, वग़ैरह-वग़ैरह। आप भी ऐसा ही कुछ लिख आए थे। जब रेवा आँटी शादीशुदा होकर ऐसा लिखने पर वाहवाही पा सकती है, विरहिणी बन सकती है, रूमानी लिख सकती है और आपकी नज़र में एक उम्दा रचनाकार हो सकती है तो मम्मी क्यों नहीं? बोलिए ना पापा .. मम्मी क्यों नहीं?"
प्रोफेसर साहब अपने वातानुकूलित शयन कक्ष में भी अपने माथे पर अनायास पसीने की बूँदें महसूस करने लगे हैं।
"और हाँ .. उस दिन मम्मी रसोईघर में वो पुराने फ़िल्म का एक गाना गुनगुना रही थी कि - "लो आ गई उनकी याद, वो नहीं आए" , तो आपका मूड ऑफ हो गया था कि इस बुढ़ापे में मम्मी को किसकी याद आ रही है भला। है ना ? .. बोले तो थे आप मज़ाक के लहज़े में मुस्कुराते हुए पर आपके चेहरे की तल्ख़ी छुप नहीं पाई थी। दरअसल आपका चेहरा भी मेरी तरह पारदर्शी है। .. और एक दिन रात में रेवा आँटी ने फेसबुक पर "आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुजरने वाली है" .. वाले गाने का वीडियो साझा किया तो आप फ़ौरन उसी वक्त देर रात में ही प्रतिक्रिया दे आए - "वाह! रेवा जी!, बेहद दर्द भरा नग़मा, पुरानी यादें ताज़ा हो गई " .. वाह! .. पापा वाह! ... "
" खैर! ... मैं चली सोने अपने कमरे में, रात काफी हो गई है .. गुड नाईट !"  ... उसी वक्त मम्मी की ओर भी मुख़ातिब होकर- "गुड नाईट मम्मी!" कहती हुई उनकी लाडली बेटी अपने कमरे में सोने चली जाती है।
प्रोफेसर साहब और उनकी धर्मपत्नी एक ही किंग साइज़ दीवान के दोनों छोर पर एक दूसरे के विपरीत दिशा में करवट लेकर गहरी नींद की प्रतीक्षा में सोने का उपक्रम करने लगते हैं।

                                  ★●●●★●●●★

◆【 * = (1) बाइफोकल (Bifocal) = जरादूरदृष्टि (Presbyopia), यानि जिस दृष्टि दोष में निकट दृष्टि दोष और दूर दृष्टि दोष दोनों दोष होता है ; जिसमें मनुष्य क्रमशः दूर की वस्तु तथा नजदीक की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है, को दूर करने के लिए बाइफोकल (Bifocal) लेंस का व्यवहार किया जाता है। जिसमें दो तरह के लेंस- अवतल और उत्तल, एक ही चश्मे में ऊपर-नीचे लगे रहते है।
एक ही चश्मे में बाइफोकल लेंस के दो तरह के लेंस होने के कारण, एक ही आदमी के अलग-अलग सामने वाले के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाने के संदर्भ में "बाइफोकल सोच" शब्द एक बिम्ब के रूप में प्रयोग करने का प्रयास भर किया गया है।
(2) ** = मिरेकल (Miracle) = चमत्कार। 】◆




Monday, June 15, 2020

तुम्हारी आखिरी सौतन ...

प्रकृति की दो अनुपम कृति- नर और नारी। जन्म से ही आपसी शारीरिक बनावट में कुछ क़ुदरती अंतर के बावजूद अपने बालपन में .. दोनों में कोई भी भेदभाव नहीं होता .. साथ-साथ खेलना-कूदना बिंदास, मिलना-जुलना बिंदास होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, जीव विज्ञान के अनुसार हार्मोन्स में बदलाव के साथ-साथ ही शारीरिक बनावट के अंतरों की गिनती भी बढ़ती जाती हैं .. साथ ही, आपसी मिलने-जुलने में संकोच भी, पर मन में समानुपातिक आकर्षण बढ़ता जाता है।
उम्र की उस किशोरावस्था के शुरूआती दौर में हम अपने प्रिय- प्रेमी या प्रेमिका, को ये विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि तुम ही मेरा पहला प्यार हो। हमारी चाह भी होती है कि हम दोनों ही एक दूसरे के लिए पहला ही चाहत या प्यार हों, ताकि गर्व के साथ गा कर सुना सकें कि .. "कोरा कागज़ था ये मन मेरा, लिख दिया नाम उस पे तेरा" ... ( पुरानी फ़िल्म "आराधना" के एक गीत का मुखड़ा )।
                                        पर ठीक इसके विपरीत, यही जब उम्र के आखिरी पड़ाव में आते-आते, हम अपने प्रौढ़ावस्था में जीवन-साथी को ये विश्वास दिलाते नहीं थकते कि तुम ही मेरा आखिरी प्यार हो। चाहते भी हैं कि मेरा जो हमसफ़र है, उसी के दामन में दम निकले ताकि हम रुमानियत के साथ गा सकें कि .. "आखरी हिचकी तेरे ज़ानों पर आये, मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ" ...  ( क़तील शिफ़ाई जी की लिखी और जगजीत सिंह जी की गायी गज़ल "अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ" का एक अंश)।
इस तरह हर इंसान के मन में पहला और आखिरी का ये ऊहापोह चलता रहता है ताउम्र .. शायद ... । बड़े ख़ुशनसीब होते हैं वो इंसान, जो किसी का पहला और आखिरी यानि दोनों ही प्यार बन पाते है या फिर जिसे पहला और आखिरी प्यार के रूप में एक ही शख़्स मिलता है।
अब आज का बकबक बस इतना ही ... और इन से भी इतर एक सोच/विचार के साथ आज की रचना/विचार पर आपकी एक नज़र की तमन्ना लिए .. बस यूँ ही ...

तुम्हारी आखिरी सौतन ...
ऊहापोह .. उधेड़बुन .. तुम्हारे .. सारे के सारे
कि "तुम मेरा पहला प्यार, मेरी पहली प्रीत हो की नहीं?"
आओ .. दूर कर दूँ आज मैं, तुम से दूर .. बहुत दूर जाने के पहले,
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...
माना .. है लाख शराबबंदी बिहार में, तो भला क्यों होना निराश ?
आओ ना .. मिलकर 'कॉकटेल' बनाते हैं आज की शाम एक ख़ास,
जिनमें होंगी मिली, बस मेरी साँस और .. तुम्हारी साँस ...
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...

मेरा पहला प्यार, पहली प्रेमिका तो तुम हो ही नहीं,
ये बतलायी थी तुम्हें मैं ने पहली ही रात .. है ना याद ?
पर पहली प्रेमिका मेरी .. जिसका ज़िक्र किया था तुम्हें उस रात
वो भी तो दरअसल है ही नहीं पहली .. समझी ना पगली ! ...
ना .. अरे ना, ना .. पड़ोस वाली वो शबनम भी नहीं
और ना ही कॉलेज वाली वो मारिया।
तो फिर जानती हो ? .. थी कौन वो ? .. मेरी पहली प्रेमिका ? ..
सोचा .. सुलझा ही दूँ आज तुम्हारे मन की पहेलियाँ ..
वो थी .. मेरी माँ .. मेरी अम्मा ...
कोख़ में जिनकी सींझी थी, नौ माह तक ये मेरी काया।

अब सोचो ना जरा .. प्यार करते हैं जब भी हम दोनों
या गले मिलते हैं हम दोनों जब भी,
पल के लिए भी तो .. हैं पलकें हमारी मूँद जाती।
वैसे भी, कभी भी, किसी भी गहराई में उतरो तो ..
बारहा आँखें हैं मूँद जाती, पलकें हैं मूँद जाती ..
चाहे हो वो गहराई किसी नदी की, आध्यात्म की
या फिर रूहानी या जिस्मानी प्यार की।
है ना ?.. मानती हो ना ? .. तुम्हारी भी तो हैं अक़्सर मूँद ही जाती।
अब .. जब कोख़ में जिनके, मैं नौ माह तक आँखें मूँदें अपनी,
खोया रहा, सोया रहा बिंदास .. करते हुए उनके स्पन्दन का एहसास।
स्पर्श किया पहली बार जिनके तन को, मन को, स्तन को,
वही तो थी माँ मेरी, अम्मा मेरी, पहली प्रेमिका मेरी।

सोचा था .. बनोगी तुम मेरे जीवन की आखिरी प्रेमिका,
पर शायद .. लगता है .. ऐसा भी नहीं हो सकेगा।
देखो ना ! .. देखो जरा .. वो दूर खड़ी मुस्कुरा रही है,
पास बुला रही है .. मुझे भी तो अब भा रही है।
उसकी मदहोश अदाओं में, निगाहों में, मैं भी मदहोश हुआ जा रहा हूँ।
हद हो गई .. वो लगाने को गले, है बेताब हुई .. है क़रीब आई जा रही,
देखो ! वो आ ही गई .. है अब तो अपनी बाँहों में भरने ही वाली,
अरे-रे .. संभलना मुश्किल हो रहा अब तो ...
मदहोशी में है आँखें मेरी मूँदी जा रही।

जानकर अपनी आखिरी सौतन का नाम, अब जल तो ना जाओगी ?
सौतनडाह से मत जलो अब, अब तो है जलने की मेरी बारी।
है मौत ही मेरी .. तुम्हारी आखिरी सौतन .. मेरी आखिरी प्रेयसी,
देखो, देखो .. वो पास आ गई .. मुझको है तुमसे छीनकर ले जा रही,
बस देखती रह जाओगी तुम खड़ी .. बेबस .. लाचार,
बन सकी ना जो कभी मेरा पहला प्यार .. ना ही आखिरी प्यार ..
पर बहरहाल .. एक बार .. बस एक बार,
दूर .. मेरे बहुत दूर चले जाने के पहले .. तुम आओ ना पास ...
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...







Sunday, June 14, 2020

दायरे की त्रिज्या ...

सर्वविदित है कि आज, 14 जून को,  विश्व रक्तदान दिवस  या विश्व रक्तदाता दिवस है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 2004 में 14 जून को इस रूप में मनाने का उद्देश्य पूरे विश्व में रक्त, रक्त उत्पादों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सुरक्षित जीवन रक्षक रक्त के दान करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें आभार व्यक्त करना था। वैसे 1970 से प्रतिवर्ष जनवरी महीने को राष्ट्रीय रक्तदाता माह के रूप में भी मनाया जाता है।
इसको दिनचर्या में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार कोई भी स्वस्थ इंसान लगभग तीन महीने में एक ही बार अपना रक्त दे सकता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर में 10 यूनिट यानि 5-6 लीटर रक्त होता है और रक्तदान में केवल 1 यूनिट रक्त यानि 1 पिंट या 450 मिली या कभी-कभी 400-525 मिली लीटर तक ही लिया जाता है। जिसकी भरपाई शरीर लगभग 24 घन्टे में कर लेता है। अलग-अलग इंसान की क्षमता भी उनके स्वास्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।

आज की रचना के पहले इतनी सर्वविदित बात के लिए भी बकबक करने और इसको पढ़ने में आपका समय नष्ट करवाने का बस एक ही मक़सद है कि अगर हो सके तो हमारे द्वारा, जैसा कि निजी तौर पर मेरा सोचना भी है, रक्तदान को "रक्तसाझाकहा जाए तो बेहतर अनुभव होता .. शायद ...। कारण, ये दान जुड़ा हुआ शब्द हमारे सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के कन्यादान शब्द जैसा कान को चुभता है। आपको नहीं क्या ???...नाराज़ मत होइएगा, आपसे पूछ भर लिया .. बस यूँ ही ...
खैर ... सोचने के लिए तो बुद्धिजीवी लोगों की भीड़ हैं ही यहाँ पर, हमें क्या करना .. चलिए .. आज की रचना/विचार की ओर ...


दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!"

"हाँ, उस्ताद!"

"जमूरे ! चल बतला जरा, स्वतंत्र हुए हमें हो गए कितने साल ?"

"भला मुझे क्या पता उस्ताद, मेरा तो तूने कर रखा है बुरा हाल,
माना, मेरी दाल-रोटी है चलाता, साथ चलाता तो है तू अपनी दुकान,
स्वतंत्र भारत में, कर परतंत्र मुझे, कर रखा है जीना मेरा मुहाल"

"जमूरे! कमोबेश .. सबकी है यहाँ यही हाल, बात दाल-रोटी की
कर-कर के दूसरे की,  सब चलाते हैं बस अपनी ही दुकान"

"उस्ताद!, स्वतंत्र तो हैं इधर-उधर टहलने वाले यहाँ के कुत्ते सारे,
गली के लावारिस हों वो या फिर पालतू विदेशी भिन्न-भिन्न नस्ल वाले,
सुबह-शाम सड़कों पर, कचरों पर, सार्वजनिक पार्कों में हगने वाले"

"जमूरे! चुप .. ठहर, अनर्गल बातें मत कर, दिखता नहीं तुझे बदकार
तमाशबीन जुटे हैं यहाँ सारे सभ्य, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, साहित्यकार,
कुत्ते के हगने जैसी बात करने पर, कर देंगे विद्वजन तेरा बहिष्कार,
बोलने के लिए तू स्वतंत्र है, पर संविधान का इतना भी नहीं अधिकार,
हो कर उकड़ू श्वान और श्वानी करते हैं जो विष्ठा का त्याग इधर-उधर, 
हैं सच में स्वतंत्र वही यहाँ, ऐसी सभ्य भाषा बोलनी होती है ना यार?"

"क्या जाने ये भाषा-वाषा, ना हम बुद्धिजीवी और ना ही साहित्यकार"

"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जिसे जन्म से पहले, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"

"उस्ताद! मुझे बस दाल-रोटी चाहिए, जाति-धर्म का क्या करना ?"

"हाँ.. वैसे तो कहीं भी थूकने के लिए, मूतने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ,
जिन्दाबाद, मुर्दाबाद के लिए कहीं भी, कभी भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
उपवास, रोज़ा, भूख हड़ताल या अनशन के लिए तू स्वतंत्र हैं यहाँ,
धर्मों और त्योहारों के नाम पर शोर करने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ
और शादी के नाम पर दहेज देने-लेने के लिए भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
पर स्वतंत्र हो कर भी ऑनर किलिंग को कभी मत जमूरे तू भूलना।
चाहे लड़की हो या लड़का कोई, कितना भी हो स्वतंत्र वो यहाँ,
पर शादी के लिए स्वदेश में, अपनी जाति-धर्म में ही पड़ता है ढूँढ़ना।"


"अच्छा!!! .. पर मैंने तो सुना है कि ..."

"अब बातें मत करने लगना तुम, बड़े नेता या किसी सिने-स्टार की,
देवताओं या ऋषियों को भी आती थी कभी तिकड़म बलात्कार की।"

"छिः, छिः, उस्ताद! देवी, देवताओं के लिए ऐसी बातें नहीं करते,
नहीं तो, लाख उपकार कर के भी नर्क जाओगे, जब तुम मरोगे।"

"जमूरे! तू निरा मूर्ख ही रह जाएगा .. अगर ऐसी ही बात है तो हम
कल ही सत्यनारायण स्वामी की कथा हैं करवाते, शंख हैं बजवाते,
या चलो किसी देवी का नाम लेकर किसी पहाड़ पर हैं चढ़ जाते,
या फिर किसी पादरी के सामने चल कर 'कन्फ़ेस' हैं कर आते,
या रियायती 'हज़-सब्सिडी' पर मिलकर हम हज़ हैं कर आते"

"चलो, चलते हैं उस्ताद, खाने और घूमने में बड़ा ही मजा आएगा,
  .. है ना ?"

"पर नहीं, इतने भी स्वतंत्र नहीं जमूरे, जो हम सारे जगहों पर जाएँ।
किसी एक ही जगह जाना होगा, धर्म-मज़हब के अनुसार ही अपने,
फिर किए गए अपने पापों से हो जाएंगे हम स्वतंत्र, तय है ये जमूरे!"

"तो, उस्ताद! ..."

"बोल, जमूरे! ..."

"आज मदारी यहीं खत्म करते हैं, पाप मिटाने हम तीर्थ पर चलते हैं।"

"हाँ जमूरे!, .. तो बच्चे लोग बजाओ ताली, बोलो सब हाली-हाली,
जय काली, कलकत्ते वाली, तेरा वचन जाए ना खाली।
जो देगा उसका भला, जो ना देगा उसका भी भला।
फ़िलहाल .. करने स्वतंत्र देश को कोरोना से .. टालने बला ..
जमूरा और .. मैं मन्दिर चला।"





Wednesday, June 10, 2020

जलती-बुझती लाल बत्ती ...


एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ ..  मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।

अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद )  के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?

इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं। 

ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ  हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।

बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण  ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
                                                 
                                    परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ...  रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके  मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।

खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ...  :-

जय  जवान  और जय  किसान
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।
जय   जवान  करे   दुश्मन   दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।

हम  सब  का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई  रत्न।
हम    नहीं   डरेंगे   तूफ़ान   से,
हम   सदा   लड़ेंगे   शान    से।

सदा   ही  दुश्मन  दूर  भगायेंगे,
सदा  आगे   ही   बढ़ते  जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम  सब  भारत नया  बसाएंगे।

आओ!    याद   करें    क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या   शान  उन्होंने   थी  पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।

आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें  बचा  कर वतन  की  शान।
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।





Tuesday, June 9, 2020

तनिक चीखो ना ! ...

ऐ आम औरतों ! .. एक अलग वर्ग-विशेष की ..
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?

भारत है ये ..  और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की ..  मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।

भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।

जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।

सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी  ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?

( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)


Saturday, June 6, 2020

नासपीटा कहीं का ...


यूँ तो अच्छी नस्लों को कब और कहाँ ..
अपने समाज के लिए सहेजा हमने ?
सुकरात को ज़हर दे कर मारा हमने,
ईसा को भी सूली पर चढ़ाया हमने,
दारा शिकोह को मार डाला उसके ही अपनों ने
ऐसे कई अच्छे डी एन ए को तो
सदा वहीं नष्ट कर डाला हमने।
और कई दार्शनिक, वैज्ञानिक और
बुद्धिजीवी भी तो रह गए कुँवारे ताउम्र।
ना इनकी भी कोई संतति मिल पायी
बहुधा समाज को हमारे।

फिर ईसा पूर्व में हखामनी साम्राज्य के
दारा प्रथम का पहला सफल हमला
और फिर यूनान, शक़, हूण से लेकर
अंग्रेजों तक का निरन्तर आना
हुए यहाँ कई-कई समर ..
हुए यहाँ कई-कई ग़दर,
हुए कई-कई देखे-अनदेखे जुल्मोंसितम ..
कई कहे-अनकहे क़हर,
लूटे गए कई बसे गाँव-घर ..
कई-कई बसे-बसाए शहर।

आक्रमण कर के कुछ का लूटपाट करना, 
कुछ का शोषण करना,
कुछ का तो वर्षों तक शोषण
और शासन भी करना।
कुछ का औपनिवेशिक जमीन से
अपने वतन लौट जाना,
कुछ का अपनी आबादी का
तादाद बढ़ाते हुए यहीं बस जाना।
जाने वालों का कुछ-कुछ यहाँ से ले जाना
और साथ ही कुछ-कुछ हमें दे जाना।

कुछ-कुछ नहीं .. शायद ... बहुत-बहुत कुछ ..
ले जाना भी और दे जाना भी।
बड़ी से बड़ी भी ..  मसलन- कई इमारतें
और छोटी से छोटी भी .. मसलन- अपने डी एन ए को
शुक्राणुओं की शक़्ल में .. शायद ...
हाँ , सूक्ष्म शुक्राणुओं की बौछार ..
ज़बरन, ज़ोर-ज़बर्दस्ती लूटी औरतों की
चीखों से बेख़बर हर बार..
उनकी कोखों में .. हर बार .. बारम्बार
बस बलात्कार ही बलात्कार।
अब भला उनकी वो संकर
औलादें कहाँ हैं ? .. कौन हैं ?
हम में से ही कोई ना कोई तो है ? .. है ना ? ..

अब जीव-विज्ञान तो है महज़ एक विज्ञान ..
क़ुदरत का एक है वरदान।
अब इन शुक्राणुओं को और
अंडाणुओं को भी भला कहाँ है मालूम कि ..
सम्भोग करने वाला .. पति है या प्रेमी
या फिर लूटेरा या बलात्कारी कोई।
वो तो मिलते ही बस .. बनाने लग जाते हैं
युग्मनज गर्भों में बस यूँ ही ...।
ये विज्ञान या क़ुदरत भी न अज़ीब है ..
मतलब .. नीरा बेवकूफ भी।
पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है।
जाति निरपेक्ष और देश निरपेक्ष भी।
जरा भी .. भेद करना जानता ही नहीं
नासपीटा कहीं का ... हमारी तरह कभी।

फिर जब राजतंत्र और शासन थे तो ..
शासक का होना था लाज़िमी
और इन राजाओं और बादशाहों की
रानियां, पटरानियाँ और बेग़में भी तो थीं ही
साथ ही हरम में रखैलें, दासियाँ भी
अनगिनत थीं हुआ करतीं।
अनगिनत रखैलों की नस्लों की तादाद भी तो
वाजिब है अनगिनत ही होगी .. है कि नहीं ?
हमारे बीच ही तो हैं ना वो हरम में
जन्मीं औलादों की नस्लें आज भी ?

सोचता हूँ कभी-कभी कि ..
लगभग हजार साल पहले
महमूद गजनवी के सोलहवें
आक्रमण के समय 1025 ईस्वी में
कोई ना कोई तो हमारा भी
एक अदना-सा पूर्वज रहा होगा ?
पर भला कौन रहा होगा ?
जिसके डी एन ए का अंश आज हमारा होगा
मुझे तो पता ही नहीं .. तनिक भी नहीं।

शायद आपको पता होगा ..
शायद नहीं .. पक्का ही ..
हाँ .. हाँ .. आपको तो पता होगा ही ..
हजार क्या, हजारों-हजार साल पुराने भी
वंश बेल की अपनी हर पुरानी
शाखाओं-उपशाखाओं की जानकारी।
शान से कहते हैं तभी तो
अकड़ा कर गर्दन आप अपनी कि ..
आप हैं किसी ना किसी देवता
या ऋषि के कुल की विशुद्ध संतति।


पर हमने जो अपने गिरेबान में झाँका ..
जब कभी भी .. जहाँँ कहीं भी .. बार-बार झाँका,
हजार साल पहले के मेरे पुरख़े का
फिर भी मालूम कुछ भी मुझे चला नहीं।
तभी तो हम अपनी जाति-धर्म के लिए
अपनी गर्दन कभी भी अकड़ाते  नहीं।