Wednesday, April 22, 2020

झूठे वादे अक़्सर ...


लॉकडाउन की इस अवधि में खंगाले गए धूल फांकते कुछ पुराने पीले पन्नों से :-


(1) :-

सदी को पल में रौंदने वालों ! .. है सवेरा एक .. शाम एक
प्यार का पैगाम एक .. फाल्गुन तो कभी रमज़ान कहते हैं।

ख़ुशी आज़ादी का फहरा कर तिरंगा मनाता है सारा शहर
पर ख़ून से तराबोर सन्नाटे सारे, सारे सच बयान करते हैं।

लुट कर भी ना कोई विरोध , ना लुटेरों से बचने की होड़
शायद मुर्दों की है बस्ती , क्यों नहीं इसे श्मशान कहते हैं।

मुख़बिर है बेचारा तबाह यहाँ , मुज़रिम ही है बना रहनुमा
गर्व से मगर हम सब सदा " मेरा भारत महान " कहते हैं।


(2) :-

है जो पत्थर उसे तो सब यूँ ही यहाँ भगवान कहते हैं
पर पत्थर-दिल इस शहर में अब कहाँ इंसान रहते हैं।

यूँ तो रिश्तों की कतार है गिनाने के लिए लम्बी मगर
बुरे वक्त में ही अक़्सर हम इनकी पहचान करते हैं।

पाठ दुनियादारी का पढ़ाते हैं लोग कुछ इस तरह कि
बेईमानी को चलन में सयाने सब अब ईमान कहते हैं।

सच बोलना सिखाया था यूँ तो बड़ों ने बचपन में मगर
झूठे वादे अक़्सर अपनों के अब यहाँ परेशान करते हैं।

"चँदा मामा दूर के" लोरी गा गाकर माँ थी सुलाती कभी
उतर कर चाँद पर चंद्रयान बच्चों को अब हैरान करते हैं।


( चित्र - गत वर्ष सपरिवार वाराणसी-यात्रा के दौरान गंगा किनारे मणिकर्णिका घाट के समीप ही मोबाइल के कैमरे से ली हुई है। )


Tuesday, April 21, 2020

मन की मीन ... - चन्द पंक्तियाँ - (२६) - बस यूँ ही ...


(1) बस यूँ ही ...

अक़्सर हम आँसूओं की लड़ियों से
हथेलियों पर कुछ लकीर बनाते हैं
आहों की कतरनों से भर कर रंग
जिनमें उनकी ही तस्वीर सजाते हैं ..

बस यूँ ही गज़लों में तो बयां करता है
दर्द यहाँ  तो सारा का सारा ज़माना
सागर किनारे रेत पर हम तो अपनी
कसमसाहट की तहरीर उगाते हैं ...

(2) मन की मीन

ऐ ! मेरे मन की मीन
मत दूर आसमां के
चमकते तारे तू गिन ..

हक़ीकत की दरिया का
पानी ही दुनिया तेरी
बाक़ी सब तमाशबीन ...

(3) काश ! जान जाते ...

कब का गला घोंट देते
तेरा हम .. ऐ! ईमान-ओ-धर्म
काश ! जान जाते कि हमारा ही
घर ज़माने में सबसे गरीब होगा ..

हो जाते हम भी जमाने के
इस दौर में बस यूँ ही शामिल
काश ! जान पाते कि यहाँ हर
मसीहे के लिए टँगा सलीब होगा ..

तेरे ठुकराने से पहले ही
छोड़ देते हम शायद तुमको
काश ! जान जाते कि मुझसे भी
हसीन-बेहतर मेरा वो रक़ीब होगा ..

तरसता रहा मैं तो जीवन भर
ऐ दोस्त ! महज़ एक कंधे के लिए
काश ! जान पाते कि मर कर
बस यूँ ही चार कंधा नसीब होगा ...



Saturday, April 18, 2020

मरूस्थल की कोख़ में ...

तय करता हुआ, डग भरता हुआ जब अपने जीवन का सफ़र
बचपन के चौखट से निकल चला मैं किशोरावस्था की डगर
तुम्हारे प्यार की गंग-धार कुछ लम्हें ही सही .. ना कि उम्र भर
जाने या अन्जाने पता नहीं .. पर हाँ .. मिली ही तो थी मगर
अनायास मन मेरा बन बैठा था बनारसिया चौरासी घाट मचल ...

बीच हमारे-तुम्हारे ना जाने कब .. कैसे जाति-धर्म आई उभर
संग ख़्याल लिए कि कम ना हो सामाजिक प्रतिष्ठा का असर
फिर तो हो कर अपने ही किए कई कसमें-वादों से तुम बेख़बर
बनी पल भर में परायी भरवा कर अपनी मांग में सिंदूर चुटकी भर
रह गया जलता-सुलगता मन मेरा मानो जलता हुआ थार मरुस्थल ...

जन्माया उस मरूस्थल की कोख़ में एक मरूद्यान हमने भी पर
फैलायी जहाँ कई रचनाओं की सोन चिरैयों ने अपने-अपने पर
होने लगे मुदित अभिनय के कई कृष्ण-मृग कुलाँचे भर-भर कर
हस्तशिल्प के कैक्टसों ने की उदासियाँ सारी की सारी तितर-बितर
जल मत जाना देख कर अब तुम मेरी खुशियों की झीलों के जल ...


Thursday, April 16, 2020

कभी सलमा की साँसों में ...

बस यूँ ही ...  हवा  के लिए मन में उठे कुछ अनसुलझे सवाल .. मन को मंथित करते कुछ सवाल .. जिनके उत्तर की तलाश के उपकर्म को आगे बढ़ाते हुुए .. हवा के ही कुछ मुहावरों में पिरो कर ... बस .. एक प्रयोग .. बस यूँ ही ...

" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हम मानवों को भला
किस की हवा लग गई ?
बस .. सब की हवा पलट गई
कोई अवतारों की ख़ातिर
तो कोई पैगम्बरों के नाम पर
हवा से लड़ने लगे हैं सभी
समानुभूति की तो सोचो ही मत
सहानुभूति भी तो अब हवा हो गई ...

वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
अनसुलझी पहेली तू सुलझा ना जरा
है क्या बला भला ये रेखा हाथ की,
ललाट पर अंकित किस्मत अनदेखी,
पिछले जन्म की कर्म-कमाई
या फिर इसी जन्म के अपने-अपने
पाप-पुण्य की खाता-बही
जो .. कोई हवा में उड़ रहा यहाँ
और हवा पी कर रह रहा कोई ...

वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हवा निकाल दे कोई बुद्धिजीवी किसी की
अतः उनके हवा से बातें करने से पहले
सोचा क्यों ना आज तुम्हीं से
बात कर लें हम रूबरू .. आमने-सामने
ऐ री हवा ! .. बतला ना जरा ..
अपनी दास्तान .. अपनी पहचान भला
जाति-धर्म बतला और .. अपना ठौर-ठिकाना
या है तू नास्तिक-अधर्मी या .. कोई बंजारा ? ... "

" हा-हा-हा-हा
वाह्ह्ह्ह्ह् रे मानव ! वाह ..
माना मेरी दिशाएँ हैं बदलती
पर बदली है तूने तो धरती की दशा
मैं तो फक्कड़, घुमक्कड़ .. मेरा क्या
निकलूँ जो कभी फेफड़े से पीटर के
समा जाता हूँ कभी सलमा की साँसों में
तो कभी गुजरूँ नथुनों में नीलेश के 
राष्ट्रीय ध्वज हो या झंडा ताज़िया संग मुहर्रम का
या फिर रामनवमी का कोई महावीरी झंडा
एक जैसा ही तो मैं सब को हूँ फहराता
कब किसी सीमा पर रुकता भला मैं मतवाला
अब मेरी जाति-धर्म .. तू ही बतला ना जरा " ...

" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ... "



Tuesday, April 14, 2020

तट-सा मन मेरा ... - चन्द पंक्तियाँ - (२५) - बस यूँ ही ...

बस यूँ ही ...

इन उदासी भरे पलों में आओ कुछ रुमानियत जीते हैं ..
मायूसी भरे लम्हों में यूँ कुछ सकारात्मक ऊर्जा पीते हैं ..
आओ ना !...  ( कोरोना की दहशत और लॉकडाउन की मार्मिक अवधि में ... ).

#(१) हर पल तुम :-

गूँथे आटे में ज़ब्त
पानी की तरह
मेरे ज़ेहन में
हर पल तुम
रहते हो यहीं
चाहे रहूँ मैं जहाँ ...

लोइयाँ काटूँ जब
याद दिलाती हैं
अक़्सर तुम्हारी
शोख़ी भरी
गालों पर मेरे
काटी गई चिकोटियाँ ...

पलकें मूँदी हों
या कि खुली मेरी
घूमती रहती है
छवि तुम्हारी
मानो गर्म तेल में
तैरती इतराती पूड़ियाँ ...

#(२) तट-सा मन मेरा :-

निर्झर से सागर तक
किसी और की होकर
शहर-शहर गुजरती
बहती नदी-सी तुम
बहती धार-सा
प्यार तुम्हारा ...

छूकर गुजरती धार
उस अजनबी शहर के
तट-सा मन मेरा
बहुत है ना .. जानाँ !
भींग जाने के लिए
आपादमस्तक हमारा ...

Tuesday, April 7, 2020

चाय वाले चच्चा उर्फ़ लिट्टी वाला लव ( वेब-सीरीज ).

" हेलो .. सर ! एक वेब सीरीज बनने वाली है .. आप इसमें ... चाय वाले चाचा का रोल किजिएगा .. !? " - लगभग एक साल पहले एक दिन शाम के लगभग 8.15 बजे आम दिनचर्या के अनुसार ऑफिस से आकर फ्रेश हो कर अगले रविवार को होने वाले एक ओपेनमिक (Openmic) के पूर्वाभ्यास करने के दौरान ही बहुत दिनों बाद ओपेनमिक के ही युवा परिचित 18 वर्षीय आदित्य द्वारा फोन पर यह सवाल सुन रहा था।
उसके सवाल में एक हिचक की बू आ रही थी। उसके अनुसार शायद एक मामूली चाय वाले के अभिनय के लिए मैं तैयार ना होऊं। पर मेरा मानना है कि अभिनय तो बस अभिनय है, चाहे वह किसी मुर्दा का ही क्यों ना करना हो।
" हाँ ! ... क्यों नहीं ... कब और कहाँ आना है शूटिंग के लिए ... और स्क्रिप्ट ? " - मन ही मन सोच रहा था .. अंधे को और क्या चाहिए .. बस दो आँख ही तो।
" वो सब आपको बतला देंगे , अभी पूरे 5 एपिसोड में से 3 और 5 वाले का स्क्रिप्ट आपको व्हाट्सएप्प पर भेज दे रहे हैं .. जिनमें आपका रोल है। आप देख लीजिएगा। "
" देख लीजिएगा " का मतलब था - खुद से उस चाय वाले पात्र का चरित्र को समझना, उसका परिधान और रूप सज्जा सब कुछ खुद को ही तय करना था।
फिर एक दिन शाम में ही आदित्य का फिर से फ़ोन आया - " सर ! परसों सन्डे है और आप सुबह 5.00 बजे आ जाइएगा NIT, Patna वाले गाँधी घाट पर गंगा किनारे ही शूटिंग करेंगे। "
मैं सुबह 4.15 बजे ही घर से नहा-धोकर लगभग 10 किमी की दूरी तय कर के गंतव्य पर नियत समय पर 5.00 बजे तक पँहुचने के लिए निकल पड़ा। इस विधा के जानकार बतलाते हैं कि धूप निकलने के पहले सॉफ्ट लाइट में फोटोग्राफी अच्छी आती है। 5.30 तक भी जब किसी का अता-पता नहीं चला घाट किनारे तो आदित्य को फ़ोन मिलाया। तब पता चला कि फ़िल्म के मेन हीरो साहब अभी जस्ट सो कर उठे हैं। आधे-एक घन्टे में तशरीफ़ ला रहे हैं। ये हम भारतीयों की एक आदत-सी है, समय पर मतलब एक-आध घन्टे विलम्ब से ... मानो अपना भारतीय रेल।
 खैर ! सुबह का समय, गंगा का किनारा, पौ फटती सुबह, मोर्निंग वॉक करते लोग, कुछ स्वर्ग की मनोकामना में गंगा-स्नान करते लोग ... कुछ NIT, Patna के युवा छात्र-छात्राओं की चहलकदमियाँ ... पड़ों पर पक्षियों का कलरव ... मतलब कुल मिला कर उन लोगों का देर करना खल नहीं रहा था। इन सब के अवलोकन के साथ-साथ बीच-बीच में अपना डॉयलॉग कभी स्क्रिप्ट का प्रिंट देख कर तो कभी मन ही मन मुँहजुबानी दुहरा रहा था।
सभी आए .. सब से परिचय हुआ .. एक फोटोग्राफर सह निर्माता, दूसरा नायक, तीसरा सह-कलाकार .. इन तीनों से पहली बार मिल रहा था। चौथा इन सब से मिलाने वाला आदित्य। शूटिंग चालू हुई .. एक ही दिन में 3रे और 5वें - दोनों एपिसोड जिनमें मेरा अभिनय था ..दो कलाकारों के साथ .. वह आज ही हो जाना था, क्योंकि रविवार के अलावा मुश्किल होता है मेरे लिए समय साझा करना।
सब ठीक-ठाक हो गया। फिर दो-तीन दिन ऑफिस से आने के बाद देर रात खा-पी कर निर्माता के घर में बने स्टूडियो के लिए जाना पड़ा -डबिंग करने के लिए। मंचन और अभिनय का अनुभव तो था पर डबिंग का जीवन का यह पहला अनुभव था। बहुत रोमांचक लग रहा था फ़िल्म रिकॉर्डिंग में चल रहे होठों के अनुसार डॉयलॉग बोलना .. बार-बार रिटेक के बाद फाइनल होना। इस तरह पाँचों एपिसोड अगले हर शनिवार के पहले डबिंग के बाद अंततः पूरा किया जाता क्योंकि पाँच शनिवार तक लगातार  उसका प्रसारण किया गया।
पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। एक दिन आदित्य का फिर फ़ोन आया  - " सर ! अशेष सर ( इस नाटक के रचनाकार ) को समय नहीं है, आप स्क्रिप्ट लिखिएगा ? अंकित सर( निर्माता ) इसका एक और एपिसोड बना कर विस्तार देना चाहते हैं और इसका हैप्पी एंडिंग (सुखान्त ) करना चाहते हैं। उस में आपका भी रॉल रहेगा। फिर आना होगा NIT घाट आपको सुबह-सुबह अगले रविवार। "
" ठीक है भाई .. कोशिश करता हूँ ... "
फिर क्या था 6ठे एपिसोड के स्क्रिप्ट का 60% लिखा, कम से कम अपने सीन वाले संवाद के लिए। फिर सब कॉन-कॉल एक रात जुड़े , सब ने script  (सम्वाद) का लेखन सुना। सब ने हामी भरी और फिर वही सिलसिला 6ठे एपिसोड के लिए एक रविवार के सुबह गंगा के गाँधी-घाट किनारे ही रिहर्सल और शूटिंग एक साथ ..  फिर रात में  डबिंग और फाइनली प्रसारण ...
मतलब 3- 5 मिनट के चाय वाले चच्चा वाले पात्र के अभिनय के लिए इतना पापड़ बेलना पड़ता है ... बिना मेहनत मिलता भी क्या है ... है ना !?
फिलहाल लॉकडाउन के लम्हों में इस छः एपिसोडों में बने इस वेब-सीरीज का मजा लीजिए ...
हाँ ... याद है ना !? ...  3रे, 5वें और 6ठे एपिसोड में मैं भी हूँ ... कड़क चाय वाले चच्चा (चाचा) के रूप में ...
( सारे के सारे  6 एपिसोड आपके सामने है .. बस आप अपनी सुविधानुसार या समयानुसार एक ही साथ या अलग-अलग समय पर देख लीजिएगा .. पर देखिएगा जरूर .... ).


सारे 6 Episodes आपके लिए क्रमवार नीचे :--
1st Episode

2nd Episode

3rd Episode

4th Episode

5th Episode
6th Episode.

Sunday, April 5, 2020

मन के मलाल ...


अपनी 22-23 वर्षों की घुमन्तु नौकरी के दौरान हर साल-दर-साल फाल्गुन-चैत्र के महीने में सुबह-सुबह कभी रेलगाड़ी में धनबाद से
बोकारो होते हुए राँची जाने के दरम्यान दौड़ती-भागती रेलगाड़ी के दोनों ओर तो कभी बस में बैठ कर राँची से टाटा या कभी बस से ही कभी टाटा से चाईबासा तो कभी देवघर से दुमका जाते हुए रेलगाड़ी या बस की खिड़की पर अपनी कोहनी टिकाए हुए मन में सप्ताह-पन्द्रह दिनों तक के लिए परिवार वालों से .. अपनों से दूर रहने का दर्द लिए हुए और अजनबी शहरों में अजनबियों के साथ मिल कर काम के लक्ष्य हासिल करने की कई नई योजनाएँ लिए हुए अनेकों बार  पलाश के अनगिनत पत्तियाँविहीन वृक्ष-समूहों पर पलाश, जिसे टेसू भी कहते हैं, के लाल-नारंगी फूलों को निहारने का और इन पर मुग्ध होने का मौका मिला है।

किसी रात राँची से धनबाद लौटते हुए रेलगाड़ी के धनबाद की सीमा रेखा में प्रवेश करते ही वर्षों से झरिया के सुलगते कोयले खदानों से
उठती लपटें नज़र आती और दहकते अंगारों के वृन्द नज़र आते। फिर सुबह के पलाश के फ़ूलों का रंग और रात के दहकते कोयलों का रंग का एक तुलमात्मक बिम्ब बनता था तब मन में। उन 23 सालों का सफ़र और बाद का लगभग 5 साल यानी 28 सालों बाद आज उसे शब्द रूप दे पा रहा हूँ ...तो वे सारे पल चलचित्र की तरह जीवंत हो उठे हैं ...

( वैसे आपको ज्ञात ही होगा कि यह पलाश अपने झारखण्ड का राजकीय फूल है। )

मन के मलाल 
भीतर ही भीतर वर्षों से 
झरिया के सुलगते कोयला खदानों से
उठती लपटें .. दहकते अंगारे
लगता मानो दहक रहे हैं 
पलाश के फूल ढेर सारे
ऊर्ध्वाधर लपटें टह टह लाल हैं उठती 
मानो ऊर्ध्वाधर पंखुड़ियाँ हों पलाश की 
दूर से .. सच में कर पाना 
मुश्किल है अंतर इन दोनों में
ऊर्ध्वाधर लपटों और ऊर्ध्वाधर पंखुड़ियों में
दहकते हैं अनगिनत मन के मलाल 
बन के मशाल इन पलाश के फूलों में ...

मसलन ... कई अनाम प्रेमी-प्रेमिकाओं के
जाति-धर्म या वर्गों के भेद के कारण
घर बसाने के अधूरे रह गए सपने के मलाल
या फिर कई अनाम के बेहतर अंक लाने पर 
अपने कई सहपाठीयों से भी
आरक्षण के हक़दार ना होने के कारण
अच्छे कॉलेज में नामांकन के सपने के मलाल
दिन-रात बहते शहर के नाले जिस नदी में
करते सुबह-शाम तट पर सब गंगा-आरती
उन नदियों की दुर्दशा के मलाल
दहकते हैं अनगिनत मन के मलाल 
बन के मशाल पलाश के फूलों में ...