Sunday, February 16, 2020

स्लीवलेस से झाँकती ...

बिग एफ़ एम् 92.7 पर सोम से शुक्र तक
बस यूँ ही देर रात सोते वक्त आँखें मूंदें 
9 से 11 जब तुम पास ही बिस्तर पर लेटे
खोई रहती हो कानों में ब्लू-टूथ लगाए हुए
"यादों का इडियट बॉक्स विद नीलेश मिश्रा" में
उसकी रुमानियत भरी कहानियों में कम और ...
कुछ थोड़ा ज्यादा ही उसकी खनकती आवाज़ों में
उस वक्त तुम्हारे इस स्टुपिड की उंगलियाँ रहती हैं
खोई-खोई खुले-बिखरे पर घने बालों में तुम्हारे
साथ में सोंधाती रहती है शैम्पू मिले सुगंध से मेरी साँसें...

अक़्सर फ़ुर्सत के पलों में अपने मोबाइल से
यू-ट्यूब में ढूंढ-ढूंढ कर निकालती हो
जब कभी कुमार विश्वास की कविताओं वाली
कई सारी वीडियो एक के बाद एक
पर उसकी कविताओं से थोड़ी कम
और मनमोहक अदाओं से ज्यादा जब-जब
चमक उठती हैं तुम्हारी शोख़ी भरी निगाहें
उस वक्त तलाशता रहता है तुम्हारा यह स्टुपिड
ख़ुद को उन चमक भरी तुम्हारी निगाहों में
टटोलते हुए तुम्हारे बचपन में तुमको लगाए गए
चेचक के टीके की दाग़ वाली स्लीवलेस से झाँकती तुम्हारी बाँहें...

निहारती हो सोशल मिडिया में जब-जब चिपके हुए
कई मनमोहक स्टेटस वाले चन्द चॉकलेटी चेहरे  
उन्हीं की दो-चार पंक्तियों पर जबरन चिपकायी हुई 
या कुछ उम्रदराज़ पर ... मनचले शायरों की रूमानी शायरी
कुछ अपने मनपसन्द ग़ज़लकारों की ग़ज़लें
या फिर ठहरती हो पढ़ने कुछ पोस्ट भी अतुकान्त रचनाओं वाले
मिले फ़ुर्सत के पलों में मानो गुम हो उनमेंं डूब-सी जाती हो ..
मन ही मन मुदित हो मंद-मंद मुस्कुराती हो
अपनी गुदगुदाती प्रतिक्रियाएं और लाल दिल वाली स्माइली
उछालने की ख़ातिर मोबाइल की स्क्रीन पर उंगलियाँ दौड़ाती हो
उस वक्त बस डूब-सा जाता है ये तुम्हारा स्टुपिड
तुम्हारे चेहरे की रुमानियत भरी झील की गहराइयों में ...




Friday, February 14, 2020

तलाशो ना जरा वसंत को ...

रंग चुके हैं अब तक मिलकर हम ने सभी
कई-कई कागजी पन्ने नाम पर वसंत के
'वेब-पेजों' को भी सजाए हैं कई-कई
आभासी दुनिया के 'सोशल मिडिया' वाले
गए भी खेतों में अगर कभी सरसों के
कोई भी हम में से .. मिली फ़ुर्सत जब जिसे
रही तब भी ध्यान कम फूलों पर सरसों के
रही ज्यादा अपनी 'सेल्फ़ियों' पर ही हम सब के
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...

कविताओं, कहानियों और गीतों में हम
शब्दकोश के चुराए शब्दों से अक़्सर
शब्दचित्र भर वसंत के हम इधर गढ़ते रहे
होते गए अनभिज्ञ उधर युवा भी सारे
मनमोहक, मादक, महुआ के सुगंध से
खोती भी गई कोयल की मीठी तरंगों वाली कूकें
कानफाड़ू 'डी. जे'. में 'कैफेटेरिया' .. 'रेस्तराओं' के
और .. बसन्ती बयार वातानुकूलित बहुमंजिली 'मॉलों' में
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...

माघ, फाल्गुन, चैत्र .. तीन माह वाली अपनी वसंत
खा रही है शायद अब तो साल-दर-साल मात 
सात दिनों वाले 'वैलेंटाइन डे' के बाज़ारीकरण से
मिठास मधु जैसी मधुमास की तो खो रही 'चॉकलेट डे' में
सरसों, सूरजमुखी, शिरीष, आम की मंजरियाँ, टेसू प्यारे
गुलदाउदी, गेंदा, डहेलिया, कमल, साल्विया ... सारे के सारे
सब खो रहे हो कर बोझिल 'रोज़ डे' के बाज़ारवाद में
मनुहार रूमानी मशग़ूल हो .. खो गई 'प्रोपोज़ डे' में
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...


Thursday, February 13, 2020

फीका चाँद ...- चन्द पंक्तियाँ - (२४) - बस यूँ ही ...

कल बीते तथाकथित "HUG DAY" के बहाने ...

(१)💝

फीका चाँद ...

सार्वजनिक उद्यान
ढलती दुपहरी
गुनगुनी धूप
बसंती बयार
नर्म घास पर
चित लेटा मैं
निहारता
नीला आकाश
आधा चाँद
फीका चाँद ...

आधा-अधूरा
फीका भी
पर आँखों को
भाता .. सुहाता
सुहाना-सा
अधखिले फूल या
आधे-अधूरे
बिन गले मिले
कशिश भरे
प्यार की तरह ...


(२)💝

शीशी में चाँदनी ...

               सनम ! ...
शक़ करने से पहले चाहत पर मेरी
                सुनो ..
हो सके तो लेकर आना कभी भी
                 एक ..
छोटी-सी डिबिया में हवा वसंत की
                और ..
छोटी-सी शीशी में भर कर चाँदनी ...







Tuesday, February 11, 2020

मन वसंत ...- चन्द पंक्तियाँ - (२३) - बस यूँ ही ...

आज के बीते और परसों के आने वाले क्रमशः तथाकथित "प्रॉमिस डे" और "किश डे" के बहाने ...

【1】💝

वादों को ...

बस केवल
खादी का ही
ताना बाना
रहने दो ना ..
वादों को
सनम ...

तुम तो
धड़कती हो
धड़कती रहो
मेरे दिल में
बस यूँ ही
हरदम ...


【2】💝

वादे की ...

भला कब
ज़रूरत
पड़ती है
अपनों को
वादे की ..
बतलाओ ना जरा ...

कोयल की
कूक-सी
फबती हो
हर पल तुम ..
सजा रखा है
जो मन वसंत मेरा ...


【3】💝

चाह चूमने की ...

होठों को
सिकोड़ कर ..
चाय की
प्याली से
बार-बार
लगाना ...

है चाह
चूमने की
तुमको ..
चाय तो है
बस एक
बहाना ...


Friday, January 31, 2020

कुछ नमी-सी ...

बयार आज अचानक कुछ-कुछ..
चिरायंध गंध से है क्यों बोझिल
शायद गाँव के हरिजन टोले में फिर
लाए गए किसी श्मशान से अधजले बाँस में
बाँध कर पैर चारों किसी जिन्दा सूअर के
लटका कर उल्टा उसे है पकाया जा रहा
पर .. साहिब !... आवाज़ तो रिरियाने की
किसी जलते सूअर की .. किसी पकते सूअर की
अभी तक तो कोई आई नहीं है
लगता है .. फिर .. कोई निरीह बलात्कृत बाला
गला घोंट कर आसपास सुलगाई गई है ...

बयार में क्यों दम अब हमारा आजकल
खुली जगहों पर भी घुटने लगा है
लगता है भोपाल गैस काण्ड जैसी
कोई जहरीली गैस है रिस रही
शायद हौले-हौले अब इस शहर में
पर ..साहिब ! ... बेतहाशा तो कहीं भी
कोई भी इंसान भागता दिखता नहीं है
सभी तो हैं इत्मीनान-से बस ठहरे
गोया मन्दिर-मस्जिद अपनी-अपनी जगह पर
लगता है .. अब इन बयार से ही
हिन्दू-मुस्लमान ज़बरन कराई गई है ...

बयार पछुआ जब भी है बहती
सुना है बुजुर्गों से अक़्सर कि ..
मुँह-नाक सुखाने वाली है होती
सूखते हैं गीले कपड़े पसारे हुए अलगनी पर
या थापे गए दीवारों पर गोबर के कंडे
या गर्मी में किसी बदन से पसीने भी जल्दी
और .. हलाल या झटका जिस भी विधि से
मारे गए भेड़-बकरे या गाय की चमड़ी
सूखती हैं टनाटन मानो नाल, ढोल-ढोलक और नगाड़े
शुष्क रहने वाली ये बारहा , ना जाने क्यों आज अचानक
इनमें कुछ नमी-सी लग रही है
लगता है .. यहीं कहीं इर्द-गिर्द ..
लहू से.. किसी अंजान राहगीर के ..
किसी सड़क को फिर से भींजाई गई है ...


Sunday, January 26, 2020

गणतंत्र दिवस के बहाने - चन्द पंक्तियाँ - (२२) - बस यूँ ही ...

*(१)* -
अपनी अभिव्यक्ति की छटपटाहट को
शब्दों में बाँधने के लिए आज
26 जनवरी के ब्रम्हमुहूर्त में
उनींदापन में एक लम्बी जम्हाई लेता
कागज़ .. कलम उठाया और ..
विषय-विशेष की उधेड़बुन में
अपना अबोध दिमाग खपाया ...
दरवाजे पर मेरे तभी दस्तक हुई
पूछा मैंने –
कौन!?..... कौन है भाई?”
मिला उत्तर –
मैं .. मैं राजतंत्र
चौंका मैं –
राजतंत्र !? ... कभी भी नहीं ... आज हीं तो 
अपने गणतंत्र दिवस की सालगिरह है भाई
दरवाजे के पार कुछ खुसुर-फुसुर तभी पड़ी सुनाई
हो हैरान पूछा पुनः मैंने –
दूसरा कौन है यार !?”
उत्तर आया –
मैं .. मैं भी हूँ साथ में ... भ्रष्टाचार ..."

*(२)* -
कभी लुटेरों ने दिया ज़ख़्म
तो कभी मिली ग़ुलामी की चोट
कभी बँटवारे का छाया मातम
तो कभी जनरक्षकों की लूट खसोट
गणतंत्र है फिर भी अपने भारत में आज
हम भी तो हैं स्वतंत्र आज मेरे भाई
फहराते हैं तिरंगा .. गाते हैं राष्ट्रगान
मनाते हैं 26 जनवरी .. बाँटते हैं मिठाई ...

*(३)* -
कुछ तिरंगे
कुछ जलेबियाँ
कुछ परेड
कुछ झाकियाँ
मन गया गणतंत्र दिवस
और भला क्या चाहिए
बस .. बस ..बस ...


                                       

Saturday, January 25, 2020

कर ली अग्नि चुटकी में ...

यार माचिस ! ..
"कर लो दुनिया मुट्ठी में "
अम्बानी जी के जोश भरे नारे से
एक कदम तुमने तो बढ़ कर आगे
कर ली अग्नि चुटकी में
पूजते आए हम सनातनी सदियों से
अग्नि देवता जिस को कह-कह के
यार! बता ना जरा .. मुझे भी
भेद अपने छोटे से कद के
करता है भला ये सब कैसे यहाँ
यार! बता ना जरा ...


यार माचिस ! ..
"ज़िन्दगी के साथ भी, ज़िन्दगी के बाद भी"
जीवन बीमा निगम के नारा को
करते हो चरितार्थ शत्-प्रतिशत तुम तो
मसलन ...
छट्ठी में काज़ल पराई के रस्म का जलाना दिया हो
या शादी में अग्नि के सात फेरे वाले हवन-कुण्ड
या फिर जीवन भर भोगे तन को लील जाने वाली
लपलपाती लौ की लपटों से भरी धधकती चिता
तुम तो बन ही जाते हो मेरे यार !.. इन सब के ही गवाह
ख़त कई गम भरा भी .. और संग कई ख़ुशी भरा
जैसे हो घर-घर बाँटता कोई डाकिया...

यार माचिस ! ..
अब देखो ना जरा !
तुम्हें भी तो होगा ही पता
कि .. काशी विश्वनाथ के मंदिर में
है जाना अंग्रेजों का निषेध
पर एक अंग्रेज के वैज्ञानिक खोज तुम
बिना बने ही घुसपैठिया
बिंदास कर जाते हो प्रवेश
जलाने के लिए आरती का दिया
हवन-कुण्ड और कई-कई अगरबत्तियां...

यार माचिस ! ..
याद आती है क्यों भला तुम्हें देख कर
एक खचाखच भीड़ भरी अदालत सदा
जहाँ आते हैं करने प्रेम-विवाह प्रेमी-युगल
और आते हैं लेने भी कई कानूनी तलाक़ .. होने जुदा
कई बलात्कारी और कई-कई मुज़रिम यहाँ
जैसे जलाते हो तुम जिस शिद्दत से
किसी मज़ार की अगरबत्तीयां .. गिरजे की मोमबत्तीयाँ
या किसी भगवान के किसी मंदिर का दिया
और .. उसी शिद्दत से तुम यार ! ...
साहब के या फिर किसी टपोरी के
सिगरेट को सुलगाते हो बनाने के लिए धुआं ...

यार माचिस ! ..
देखा है .. एक ही ब्राह्मण है लगवाता
शादी के मंडप में जिस किसी से सात फेरे
करानी पड़ती है कई दफ़ा परिस्थितिवश
श्राद्ध भी उसे ही .. उसी की
उस ब्राह्मण के तरह ही रहता है मौजूद
ख़ुशी की घड़ी हो या दुःख की हर घड़ी .. हर जगह तेरा वजूद
यूँ तो ... बचाई है कितनी .. ये तो हमें मालूम नहीं
ढपोरशंखों ने सदैव परिवर्तनशील प्रकृति-सी सभ्यता-संस्कृति
परन्तु आकर विदेश से उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में
तुमने है बचाई तुम्हारी अनुपस्थिति में सदियों से
आग की चाह में अनवरत जलने वाले अकूत ईंधन
है ना !? ... यार माचिस ! .. बता ना जरा ...