Saturday, December 21, 2019

मूर्ति न्याय की ...

हम सुसभ्य .. सुसंस्कृत .. बुद्धिजीवी ..
बारहा दुहाई देने वाले सभी
अपनी सभ्यता और संस्कृति की
अक़्सर होड़ में लगे हम उसे बचाने की
बात-बात में अपनी मौलिकता पर
अपनी गर्दन अकड़ाने वाले
क्या सोचा भी है हमने फ़ुर्सत में कभी .. कि ...

हमारे न्यायालयों में आज भी
मिस्र की "मात" से "इसिस" बनी
तो कभी न्याय की मूर्त्ति -"थेमिस्" ग्रीक की
कभी यूनानी "ज्यूस" की बेटी .. "डिकी" बनी
तो कभी तय कर सफ़र प्राचीन रोम की
परिवर्तित रूप में "जस्टिसिया" तक की
जाने-अन्जाने .. ना जाने .. कब ..
आकर औपनिवेशिक भारत में
आँखों पर बाँधे काली पट्टी
और कभी पकड़े तो .. कभी त्यागे तलवार ...
हाथ में तराजू लिए आ खड़ी हो गई
हमारे तथाकथित मंदिरों में न्याय की
बन कर न्याय की देवी .. तथाकथित मूर्ति न्याय की ...

और .. न्यायलयों में न्यायाधीश आज भी
वहाँ के वक़ील और चपरासी तक भी
अंग्रेजों के दिए उधार पोशाकों में अपनी
अपनी बजाए जा रहे हैं ड्यूटी
और मुजरिमों को बुलाने के ज़ुमले -
"मुज़रिम हाज़िर हो....." भी
मुग़लों से है हमने वर्षों पहले उधार ली हुई ...


Thursday, December 19, 2019

हम कब होंगें कामयाब ...?

" हम होंगे कामयाब एक दिन "... जैसा मधुर , कर्णप्रिय और उत्साहवर्द्धक समूहगान जिसे हम में से शायद ही कोई होगा, जिसने जन्म लेने और बोलना शुरू करने के बाद विद्यालय जाने वाले बचपन से लेकर अब तक ..चाहे वह जिस किसी भी आयुवर्ग का हो, वह लयबद्ध गाया ना हो या फिर सुना या गुनगुनाया ना हो। जब कभी भी हम निजी जीवन में भी नकारात्मक भाव से ग्रसित होते हैं तो यह समूहगान हमें तत्क्षण ऊर्जावान कर देता है। कई बार तो इस गाने को हम गुनगुनाते हुए स्वयं को और कभी कभार अपनों या अन्य को भी आशावान बना देते हैं। उम्मीद के पौधों को कुम्हलाने से बचाने का प्रयास करते हैं।
इसके विषय में कुछ अन्य बातों की चर्चा आगे बढ़ाने के पहले , उस गाने को हम गा या गुनगुना या सुन नहीं सकते तो कम से कम आइए एक बार हम सब मिल कर पढ़ ही लेते हैं -

"होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन ... "

दरअसल यह समूहगान अंग्रेजी भाषा की रचना (जिसकी चर्चा आगे करते हैं) से हिन्दी में अनुवाद भर है, जिसका अंग्रेजी रूप इस प्रकार है -

"We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand, some day.
We'll walk hand in hand, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace, some day.
We shall live in peace, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free, some day.
We shall all be free, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid, TODAY
We are not afraid, TODAY
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day."

हम में से कई लोगों को इसके अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण वाली बात  की सच्चाई का शायद पता भी हो ।
परन्तु शायद अधिकांश लोगों को ये ज्ञात हो कि ... इसे गिरिजा कुमार माथुर जी ने पहले हिन्दी में लिखा है और बाद में हिन्दी से अंग्रेजी में रूपांतरण हुआ है।
परन्तु ... इतिहास पर गौर करें तो इस विश्व-प्रसिद्ध समूहगान के अंग्रेजी भाषा से  हिन्दी भाषा में रूपांतरण होने की बात की पुष्टि होती है। दरअसल .. इसे सर्वप्रथम अमेरिकी मेथोडिस्ट मंत्री ( American Methodist ( प्रोटेस्टेंट चर्च के एक सदस्य )  Minister ) - Charles Albert Tindley द्वारा अंग्रेजी में ईसामसीह के सुसमाचार भजन (Hymn) के रूप में लिखा गया था, वे संगीतकार भी थे। यह लगभग 1900 में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे 1954 से 1968 तक चलने वाले नागरिक अधिकारों के आंदोलन ( Civil Rights Movement ) में विरोध-गान (Protest-Anthem) के रूप में गाया गया था।

भारत में भी इसका भावान्तर रूप सहर्ष बिना भेद भाव किए अपनाया गया। मध्यप्रदेश के रहने वाले गिरिजा कुमार माथुर जी , जो स्वयं स्कूल-अध्यापक थे,  ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। इस तरह यह भावान्तर-गीत एक समूह-गान के रूप में प्रचलित हो गया। हमारे रगों में रच-बस गया। तब से अब तक बंगला भाषा ( "आमरा कोरबो जॉय..." के मुखड़े के साथ) के साथ-साथ कई सारी भाषाओं में रूपांतरित किया जा चुका है। कहते हैं कि गिरिजा कुमार माथुर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ व्यास सम्मान, शलाका सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। उन्हें साहित्य और संगीत से काफी लगाव था। उन्होंने कई कविताएँ भी रची थी। कहते हैं कि वे एक लोकप्रिय रेडियो चैनल - विविध भारती - के जन्मदाता थे।
इस तरह अमेरिकी Charles Albert Tindley की लेखनी और सोचों से जन्म लेकर यह उत्साहवर्द्धक समूहगान गिरजाघर में शैशवास्था बीता  कर और फिर भारतीय गिरिजा कुमार माथुर की लेखनी से रूपान्तरित हो कर विरोध-गीत और उत्साह-गान तक का यौवनावस्था का सफर तय कर .. आज भी हमारे देश-समाज का चिरयुवा समूहगान बन कर हमारा तन-मन अनवरत तरंगित करता आ रहा है।
दरअसल आज इसका उल्लेख उन बुद्धिजीवियों तक पहुँचाना जरूरी महसूस हुआ, जो लोग अक़्सर अपनी भाषा, बोली, जाति-धर्म, सभ्यता-संस्कृति की अक्षुण्णता बनाये रखने के नाम पर एक दायरे में बाँध कर उन्हें जकड़े रहने की कोशिश करते हैं या सपाट भाषा में कहें तो एक बाड़े में उन्हें घेरने की बात करते हैं। अपने से इतर इन्हें अन्य सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, जाति-धर्म सभी हेय लगते हैं।
ऐसे सोंचों पर तरस तो तब आती है, जब कुछ बुद्धिजीवी वर्ग विश्व में हजारों की संख्या में बोली जाने वाली किसी एक बोली या भाषा को लेकर मिथ्या भरी अपनी गर्दन अकड़ाते हैं। अपनी भाषा या बोली पर गर्व करना एक अच्छी बात है। करनी भी चाहिए और स्वभाविक भी है। पर समानान्तर में अपनी भाषा को बोलने वाली जनसंख्या को ज्यादा या कम की तुलनात्मक अध्ययन के होड़ में अन्य भाषा या बोली का तिरस्कार करना या उसे लघुतर व कमतर मानना, कहना या किसी मंच से बार-बार ऊँची आवाज़ में इसकी घोषणा करना .. शायद मेरी समझ से उस व्यक्ति विशेष की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है।
खैर ! अब आते हैं - इस समूहगान ..  जिसे गाते-गाते, सुनते-सुनते हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हो कर इस धरती से अनन्त, अंतहीन यात्रा पर गमन कर जाते हैं, पर  ... सच में हम सभी जीवनकाल में पूर्णरूपेण कभी कामयाब हो भी पाते हैं क्या !?
हमें अगर कामयाबी का सही अर्थ जानना हो तो पूछना चाहिए उस आम युवा से या उसके आम गरीब अभिभावक से जो उच्च ब्याज़-दर पर कर्ज़ लेकर, अपने कुछ सपनों का गला घोंट कर, अपने बुढ़ाते भविष्य को असहाय कर के अपनी भावी पीढ़ी को उच्च शिक्षा दिलवाने का प्रबन्ध करता हो और ... ऐन मौके पर उसे एक मानसिक आघात तब लगता हो, जब उसे मालूम होता है कि उनकी संतान से बहुत कम प्राप्तांक के बावजूद .. एक औसत प्राप्तांक के आधार पर ही पड़ोस के या मुहल्ले या शहर के एक उच्च-अधिकारी दम्पति या फिर कोई धनाढ्य दम्पति की संतान का नामांकन देश के किसी उच्च शैक्षिक-संस्थान में हो गया या कोई यथोचित नौकरी मिल गई ... परन्तु उनकी संतान को नहीं ... कारण ... केवल और केवल जाति के आधार पर मिलने वाले आरक्षण के कारण। उस पल यह उत्साहवर्द्धक समूहगान उस युवा और उसके अभिभावक के कान में पिघले शीशे की तरह जलाता है। लगता है कि आखिर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कामयाबी का क्या यही मतलब है - आरक्षण ?

आज़ादी की रात विभाजन के आड़ में या फिर जाति-धर्म के नाम पर समाज, शहर, देश में होने वाले तमाम दंगों से हताहत परिवार .. चाहे दंगे की वजह जो भी रही हो .. को भी ये समूहगान मुँह चिढ़ाता लगता होगा।
सोचते होंगे कि आखिर इस गाने की पंक्तियाँ कब चरितार्थ होगी भला !!! है ना? यही हमारी कामयाबी है क्या ???
आज हमारी सामाजिक मानसिकता की मनःस्थिति बद-से-बदतर होने की वजह से अगर उस तेज़ाब-ग्रस्त लड़की से या फिर बलात्कृत लड़की या मासूम बच्ची से या फिर बलात्कार के बाद जलाई या मारी गई युवती के परिवार से पूछा जाए तो इस गाने का अर्थ उनके लिए बेमानी होगा शायद ...

बचपन में स्कूल के सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के सुअवसरों पर सजे मंचों से लेकर युवाकाल में कॉलेजों और सरकारी या राजनीतिक कार्यक्रमों में सजे मंचों से भी गाया और सुना जा रहा यह गाना जब व्यवहारिक जीवन में , समाज में ... समझ से परे और निर्रथक लगने लगता है, तो मन में बस एक ही सवाल कौंधता है ... कि ..
आखिर हम कब होंगें कामयाब ? कब होगी शांति चारों ओर ?
कब चलेंगें हम साथ-साथ ? भला कब हम किसी से डरेंगें नहीं ?
कब नहीं होगा किसी का भी भय ?
आखिर कब तक ..आखिर कब तक रखें .. मन में विश्वास ?
आखिर इन सारे सवालों का जवाब कब तलाश पायेंगें हम सब ?
आइए मिल कर पूछते हैं .. पहले स्वयं से ही .... कि ...
हम कब होंगें कामयाब ...???


Tuesday, December 17, 2019

एक ऊहापोह ...

था सुनता आया बचपन से
अक़्सर .. बस यूँ ही ...
गाने कई और कविताएँ भी
जिनमें ज़िक्र की गई थी कि
गाती है कोयलिया
और नाचती है मोरनी भी
पर सच में था ऐसा नहीं ...

गाता है नर-कोयल .. है यही सही
नाचता है सावन में नर-मोर भी
यत्न करते हैं हो प्रेम-मदसिक्त दोनों ही
रिझाने की ख़ातिर अपनी ओर
बस मादाएँ अपनी-अपनी
रचा सके मिलकर ताकि
सृष्टि की एक नई कड़ी ...

जान कर ये बातें बारहा
एक ऊहापोह है तड़पाता
छा जाती मुझ पर उदासी और ..
अनायास आता है एक ख़्याल
पूछता हूँ खुद से खुद सवाल ..
अरे ! ... नहीं आता गाना मुझे
और ना ही मुझे नाचना भी
अब .. रिझाउँगा उन्हें मैं कैसे
कैसे उन्हें मैं भला भाऊँगा भी

चाहता हूँ मन से केवल उनको ही
इतना ही पर्याप्त भला नहीं क्या !? ..
एक बार तनिक .. वे बतलातीं भी ...

Sunday, December 15, 2019

अलाव ...

अलाव पहला जलाया होगा आदिमानव ने
हिंसक जंगली पशुओं से रक्षा की ख़ातिर
जब चिंगारी चमकी होगी अचानक पत्थरों से
अब भी यूँ तो जलते आए हैं अलाव हर साल
कड़ाके की ठंड से बचने की ख़ातिर
हर बार गाँव के खेतों-खलिहानों में
घर-आँगन और चौपालों में
होते हैं सरकारी इंतजाम इस के
कभी-कभी शहरी चौक-चौराहों पर
सार्वजनिक बाग़-बगीचे .. मुहल्लों में
तापते हैं जिसे वृद्ध-युवा, अमीर-गरीब
हिन्दू-मुसलमान सभी बिना भेद-भाव किए ...

पर जलते हैं अलाव और भी तो कई यहाँ
होते हैं मौके भिन्न-भिन्न .. तरीके भी कई-कई
मसलन ... दुःख से सिक्त किसी अपने की
लपलपाती लौ लिए चटकती चिता
या फिर ख़ुशी बटोरे आई होली के पहले
फ़ाल्गुनी पूर्णिमा की जलती होलिका
फिर कभी लोहड़ी के मचलते लौ संग नाच बल्ले-बल्ले
और साथ मिठास घोलती लाई और लावा
या फिर गाँव-शहर का हो रावणदहन
संग पहने आतिशबाज़ी का जामा
सेनाओं की उत्सवाग्नि हो या फिर ..
बलात्कार के बाद गला घोंटी हुई
या कराहती .. छटपटाती .. अधमरी-सी ज़िन्दा
सरे राह जलाई गई निरीह कोई बाला
कहीं यतायात बाधित करती उन्मादित भीड़
जलाए गए टायर .. उड़ता काला धुआँ
और सुना है ... विरहनी हो या बेवा कोई
तपता है मन-तन दोनों सुलगते अलाव-सा ...

जल चुके अब तक बहुत सारे अलाव यहाँ
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
अपनी सोयी सोचों को सुलगाते हैं
नए विचारों की लौ धधकाते हैं
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
एक परिवर्त्तन का अलाव जलाते हैं
जलाते हैं उनमें बाँटते इन्सानों वाले
हर किताबों को .. इमारतों को ..
जबरन चन्दा वाले पंडालों को
बड़े-बड़े कँगूरों को .. ऊँची मीनारों को
अन्धपरम्पराओं को .. कुरीतियों को
जाति-धर्म के बँटवारे वाली सोचों को
हर पल .. हर घड़ी .. बाँटती है जो
एक ही क़ुदरत से बने हम इंसानों को ...



Thursday, December 12, 2019

जींसधारी से लेकर जनेऊधारी तक...

"सत्यमेव जयते" की तिलक अपने माथे पर लगाए अन्य भारतीय सरकारी संस्थानों या अदालतों की तरह बिहार की राजधानी पटना में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय  का क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय (Government of India, Ministry of External Affairrs, Regional Passport Office, Patna) यानि पासपोर्ट सेवा केन्द्र (Passport Seva , Service  Excellence) एक बड़े से signboard के साथ Vaus Springs, Block-ll, Lower & Upper Ground Floor,Ashiana-Digha Road,Patna के पता पर स्थित है।
हमारा वहाँ जाने के कारण की चर्चा फिर कभी। फ़िलहाल वहाँ की झेली गई कुछ परेशानियों के बहाने कई बातें दिमाग में कौंध आती हैं।
अगर आप पटना में पासपोर्ट बनवाने कभी गए हैं तो इन परेशानियों से अवश्य रूबरू होना पड़ा होगा या भविष्य में पड़ सकता है। इसकी सभी परेशानीयाँ लगती तो केवल इसकी अपनी हैं, पर हैं सार्वभौमिक।
मसलन -  यहाँ मुख्य गेट के अन्दर तो आप अपने वाहन ले ही नहीं जा सकते हैं और बाहर सड़क पर कहीं पार्किंग की सुविधा है ही नहीं। जैसा कि अमूमन कई शहरों में यह असुविधा आम है। नतीज़न - बस ... फुटपाथ पर किनारे आप अपनी वाहन चाहे वह दुपहिया हो या चारपहिये वाली - खड़ी कर सकते हैं। विशेषतौर से यहाँ कार्यालय के भवन के सामने की सड़क पूरी तरह खस्ताहाल में है, जहाँ बेमौसम भी जलजमाव आम दृश्य है।
खैर ! अब आते हैं .. एक और सार्वभौमिक मूलभूत समस्या पर। पटना के इस कार्यलय के पास ही नहीं, पूरे शहर में ही और कई अन्य शहरों में भी सार्वजनिक मूत्रालय का अभाव देखा जा सकता है। नतीज़न - पुरुष तो जैसे-तैसे पढ़ाई के दिनों वाले एक श्लोक के "श्वान निद्रा" को ध्यान में रखते हुए "श्वान मूत्रा" यानि मूत्र-त्यागने के लिए कुत्ते की तरह कहीं भी सड़क किनारे शुरू हो जाते हैं। पर सार्वजनिक स्थल पर तलब लगने पर महिलाओं के लिए तो जैसे आफ़त वाली ही बात होती है। यहाँ भी उनकी धैर्य-क्षमता नमनीय ही है। हाँ .. गाँव की बात अलग है।
शहर में तो कई जगह दीवारों पर इधर-उधर मूत्र नहीं त्यागने की हिदायत लिखी होती है। कई जगह तो मूत्र त्यागने वाले के लिए गालियाँ या गधा का सम्बोधन तक लिखा होता है।
इस केंद्र सरकार के कार्यालय के बाहर भी यही समस्या व्याप्त है। नियमानुसार यहाँ पूर्व में ही दिए गए निर्धारित समय-सीमा के अंदर ही भीतर जाने दिया जाता है। एक तरफ आप उस शहर के हैं, तब भी बुलाए गए समय से कुछ समय पहले तो आपको जाना ही होता है। दूसरी तरफ बाहर अन्य शहर से आए लोग तो अंजान शहर में नए पता के लिए भटकने के डर से समय से पहले पहुँच ही जाते हैं।
समस्या यहीं शुरू होती है। अगर आपको मूत्र त्यागने की तलब लगी है तो पास ही फोटो-कॉपी, चाय-नाश्ता, पान-सिगरेट के दुकानों में से एक दुकान वाले ने अंदर में अस्थायी व्यवस्था कर रखी है, जहाँ आप दस रूपये की सेवा-शुल्क देकर हल्का हो सकते हैं। कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। कारण कि यह स्थान एक पॉश कॉलोनी है और आप वहाँ फूटपाथ पर खड़ा हो कर कहीं भी शुरू नहीं हो सकते हैं। सच-सच कहूँ तो इसकी कीमत सुनकर ही मेरी तो तलब गायब हो गई। और ... मैं अपना ध्यान बँटा कर अन्दर जाने वाले समय का इंतज़ार करने लगा।
ये अलग बात है कि अंदर की व्यवस्था तो काफी चुस्त-दुरुस्त और साफ़-सुथरी किसी पांचसितारा होटल या हवाई-अड्डे के वाशरूम की एहसास कराती है आपको।
कई जगह तो दीवारों पर ज्ञान लिखा होता है कि "यहाँ पेशाब नहीं करें। मूत्रालय में करें।" पर नगर-निगम का मूत्रालय नदारद रहता है। फलस्वरूप लोग वही शुरू हुए दिख जाते हैं, जहाँ इसकी मनाही लिखी होती है। अब आदमी करे भी तो क्या करे। कई दफ़ा तो दुर्लभ परिस्थिति में आपातकालीन विकट समय में सभ्य लोगों को भी अपनी सभ्यता त्याग कर सार्वजनिक मूत्रालय के अभाव में ऐसा करना पड़ता है। परन्तु आमरूप से प्रायः लोग लोकलज्जा त्याग कर ऐसा करते हुए दिख जाते हैं।  कामकाजी या कभी-कभार घरेलु कामों से बाहर निकल कर रास्ते में चलने वाली सभ्य महिलाओं को शर्म से या सभ्यतावश ऐसे दृश्यों से रोज दो-चार होना पड़ता है और आँखें चुरानी पड़ती है।
इस बेशर्मी भरे कृत्य में जींसधारी से लेकर जनेऊधारी तक शामिल हैं। सवाल है - दोषी कौन ?  नगर निगम या आमजन ?
फ़िलहाल ऐसे सभ्यजनों के साथ-साथ नगर निगम को भी नमन !!!













Tuesday, December 10, 2019

सूरज से संवाद ...

( चूंकि सर्वविदित है कि मैं आम इंसान हूँ .. कोई साहित्यकार नहीं .. अतः इसकी "विधा" आप से जानना है मुझे। प्रतीक्षारत ...)

हे सूरज भगवान (पृथ्वी पर कुछ लोग ऐसा मानते हैं आपको) ! नमन आपको .. साष्टांग दण्डवत् भी आपको प्रभु !
हालांकि विज्ञान के दिन-प्रतिदिन होने वाले नवीनतम खोजों के अनुसार ब्रह्मांड में आपके सदृश्य और भी अन्य .. आप से कुछ छोटे और कुछ आप से बड़े सूरज हैं। ये अलग बात है कि हमारी पृथ्वी से अत्यधिक दूरी होने के कारण उनका प्रभाव या उनसे मिलने वाली धूप हम पृथ्वीवासियों के पास नहीं आ पाती।
अब ऐसे में तो आप ही हमारे जीवनदाता और अन्नदाता भी हैं। आपके बिना तो सृष्टि के समस्त प्राणी यानि जीव-जंतु, पेड़-पौधे जीवित रह ही नहीं सकते, पनप ही नहीं सकते।पृथ्वी की सारी दिनचर्या लगभग ठप पड़ जाएगी और हाँ .. बिजली की बिल भी दुगुनी हो जाएगी। है ना प्रभु !?
हाँ .. वैसे तो आप पूरे साल यानि 365 या 366 यानि सब दिन आते ही हैं सुबह-सुबह .. आकाश में बादल वाले बरसात के मौसम को छोड़ कर।  पर विशेष कर उन चार दिनों के लिए तो विशेष नमन आपको। जिस दौरान हमारे बिहार क्या .. अब तो सुना है अन्य कई स्थानों में भी लोग आपके लिए छठ नाम का त्योहार मनाते हैं और आपके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। वैसे तो आप अन्तर्यामी हैं, फिर भी आपको बतला देते हैं कि उन चार दिनों में हमारे राज्य की राजधानी पटना में तो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी की "स्वच्छ भारत अभियान" चीख-चीख कर अपने अस्तित्व का एहसास कराती है।इन दिनों मुहल्ले के युवा और कुछ नालायक बुजुर्ग भी शरीफ़ बन जाते हैं। ना बीड़ी, ना सिगरेट, ना खैनी और दारू पर तो वैसे भी तीन साल से "कागज़ पर" क़ानूनन पाबन्दी है। सालों भर मांसाहारी रहने वाला भी पूरा का पूरा परिवार कुछ दिनों के लिए पूर्णरूपेण शाकाहारी बन जाता है। पूर्णरूपेण मतलब पता भी है आपको ? आयँ !?हम बतलाते हैं - मतलब .. लहसुन-प्याज भी खाना बंद कर देते हैं। आपको तो पता ही होगा कि हमारे तरफ लहसुन-प्याज खाने से भी पाप लगता है। छठ में अगर कोई भी ये सब किया तो मर कर नर्क का निवासी बनता है। अरे .. अरे ... ये हम नहीं कह रहे, हमारे समाज के बुद्धिजीवी लोग कहते हैं। जानते हैं - हमको बड़ा मजा आता है , जब चौथे दिन ठेकुआ खाने के लिए मिलता है। वैसे तो 'डायबीटिक' हूँ, पर आपके प्रसाद के नाम पर थोड़ा-बहुत खाने के लिए मिल ही जाता है। और अगर 'शुगर' बढ़ भी गया तो आप हैं ना प्रभु !? आयँ !?
ये सारी बातें जो मैं कह रहा हूँ, आपको तो पता ही होगा। पर मुख्य रूप से आज मैं आपसे कुछ शिकायत करने के लिए आपसे संवाद कर रहा हूँ।
जब हमलोग इतनी श्रद्धा से करते हैं आपकी पूजा और आपके लिए व्रत रखती हैं हमारी महिलायें .. कुछ पुरुष भी , तब " सोलर पैनल्स " का आविष्कार अपने बिहार या भारत में क्यों नहीं करवाए आप!? बोलिए !! विदेशियों द्वारा करवाए आप । आपका बिना पूजा किए ही आप तो हमलोगों को छोड़ कर उनलोगों को रोज यहाँ रात कर के धूप बाँटने भी चले जाते हैं। यहाँ पर भी दूसरे सम्प्रदाय वाले को भी बिना आपका पूजा किए ही उन्हें आप सबको धूप बाँट देते हैं।ये गलत बात है। पूजा-व्रत करें हमलोग और धूप बाँटे आप पूरे विश्व को। मतलब कर्म करें हमलोग और फल बाँटें आप सब लोग को। है ना !? जब हमारा देश, धर्म, जाति, सम्प्रदाय .. सब अलग है तो सब का अलग-अलग सूरज भी होना चाहिए कि नहीं ? सुना है कि आपकी दो-दो पत्नियाँ हैं। तब तो आपकी तरह यानि आपके डी एन ए वाली आपकी संतान भी तो होगी ना ? पता है .. हमलोग तो सब भिन्न-भिन्न भगवान (?) के डी एन ए से ही उत्पन्न हुए हैं। उदाहरणस्वरूप - कहते हैं कि चित्रगुप्त नामक भगवान के डी एन ए से कायस्थ नामक प्राणी का जन्म हुआ है। वो प्राणी आज भी पृथ्वी पर पाया जाता है। वैसे उनको कोई पुत्री नहीं थी। अब मालूम नहीं उन प्राणियों में महिलाओं का आगमन कहाँ से हुआ होगा!.. खैर ! उस विषय से दूर भागते हैं।
दरअसल मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि अगर आपकी शादी हुई थी और संतान भी होगी ही .. तो फिर उन्हें अन्य सम्प्रदाय या देश के लिए क्यों नहीं भेज देते धूप बाँटने। ताकि हम छठ-पूजा करने वाले को विशुद्ध रूप से आपकी किरणें मिला करे। और आप हमलोगों के बुद्धिजीवियों से भी कुछ आविष्कार करवा सकिए।

जैसे आप सोलर पैनल्स का आविष्कार करवा आये जाकर फ़्रांस में एक फ़्रांसिसी वैज्ञानिक - एलेक्जेंडर एडमंड बैकेलल से 1839 में।

" कांच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय
होई ना बलम जी कहरिया, बहंगी घाटे पहुंचाय-२ "

जबकि हमलोग आपके लिए प्रसाद से भरा भारी-भारी दउरा (टोकरी) अपने सिर पर ढो-ढो कर तालाब-नदी किनारे घाट तक लेकर गए। हमारे बुद्धिजीवी लोग जो घर-गाँव छोड़ कर बाहर कमाने-खाने जाते हैं, ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर भी ट्रेन में भीड़ का धक्का खा-खा कर, टॉयलेट के दरवाजे के पास रात भर बैठ-सो कर अपने-अपने गाँव-शहर छठ-पूजा करने आते हैं और अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। करें भी क्यों नहीं भला !! .. आप ही की कृपा से उनका "मनता-दन्ता" (मन्नत) वाला जन्म हुआ होता है, आप ही की कृपा से वे 'पास' करते हैं, आप ही की कृपा से उनको छोटी या बड़ी नौकरी मिलती है। अब हमारे बुद्धिजीवी लोग अपने सिर पर आपका दउरा ढोते हैं और .. आप हैं कि विदेशियों को ज्ञान और धूप बाँट आए। गलत है ये सब तो ... चिंटू की भाषा में बोले तो .. सरासर चीटिंग है।

" बाट जे पूछेला बटोहिया, बहंगी केकरा के जाय
तू तो आन्हर होवे रे बटोहिया, बहंगी छठ मैया के जाय "

हम रास्ते में मिलने वाले और आपके दउरा के बारे में टोकने वाले को अँधा हो जाने तक का श्राप (?) दे दिए गुस्सा में। पर आप हमीं लोगों को धत्ता बता कर बेवकूफ़ बना दिए।
आप की गलती नहीं शायद .. है ना प्रभु !? हमलोग आप से मांगते भी तो यही सब है ना ? बेटा, पोता, .. जो हमारा तथाकथित वंश-बेल बढ़ाए और तथाकथित मोक्ष प्राप्ति का कारण बने, फिर उसका साल-दर-साल "पास" होना .. उ (वो) भी अच्छे 'नंबर' से ताकि अच्छी नौकरी मिल सके .. आई ए एस, आई पी एस, डॉक्टर, इंजिनियर बन सके, ना तो कौनो ( कोई भी ) सरकारी नौकरी मिल जाए, ऊपरी कमाई और मन लायक जगह में "पोस्टिंग" हो तो सोना में सुहागा .. और किस्मत फूट जाए तो कोई 'प्राइवेट' नौकरी ही सही ताकि कमा-खा सके ताकि दहेज़ विरोधी अधिनियम होने के बावजूद भी दहेज़ ले-दे के शादी-विवाह हो सके। उसके बाद नौकरी की कमाई के मुताबिक़ मोटरसाइकिल, कार, फ्लैट, इत्यादि खरीद सके। कोई केस-मुकदमा चल रहा हो तो हम गलत हो कर भी जीत जाएँ। जितना बड़ा "डील" , उतना बड़ा "दउरा" और उतनी ही ज्यादा "सूप" की गिनती। अब डील बड़ा हो तो कभी-कभी चाँदी-सोना के सूप में भी अरग (अर्ध्य) देते हैं ना हम लोग आपको। है ना!?

" रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल-पण्डितवा दमाद, हे दीनानाथ ! दर्शन दिहिं ना अपन हे दीनानाथ "

एक तरफ हम लोग गा-गाकर बेटी-दामाद मांगते रह गए आपसे और आप रूस, अरूबा, हांगकांग जैसे देश और पुर्तगाल, यूक्रेन, एस्टोनिया जैसे शहर में नर-नारी में नारी यानि बेटी का अनुपात ज्यादा दे दिए। और तो और .. कम-से-कम धर्म वाले यूरोपी देश - बेलारूस में भी।
और .. इतना ज्यादा आपका पूजा-पाठ करने पर भी भारत में आप दिन पर दिन अनुपात घटाते जा रहे हैं। 2011 में जो 1000 में 940 नारी/लड़की का अनुपात था , वह 2017 में घटता हुआ 1000/896 हो गया है। हरियाण में तो 1000/833 है। वैसे हम इतने ज्ञानी नहीं हैं , ये सब सरकारी आंकड़े बोलते हैं। और हाँ .. आजकल 'गूगल' नाम के ज्ञानी के पास ये सब सारी जानकारी उपलब्ध है।

" ऊ जे केरवा जे फरेला घबद से,
 ओह पर सुगा मेड़राए
  मरबो रे सुगवा धनुख से,
  सुगा गिरे मुरझाए
  ऊ जे सुगनी जे रोएली वियोग से
  आदित होइहें ना सहाय "

इतना मेहनत करते हैं हमलोग कि धनुष से तोते को मार-मार के गिराते रहते हैं ताकि वो आपका प्रसाद वाला केला, नारियल ( इसमें थोड़ा शक है कि तोता नारियल में चोंच मार पाता भी होगा कि नहीं ) , अमरुद, शरीफा, सेब .. सब जूठा ना हो। इस चक्कर में उसकी मादा - बेचारी तोती जुदाई में रोती रहती है। वैसे भी .. हमारे समाज में विधवा की क्या दुर्दशा है, आपको तो पता ही होगा। है ना !?
आपका तो हम लोगों ने मानवीकरण .. ओह! .. सॉरी .. भगवानिकरण कर रखा है। सुना है कि आप का एक रथ है, जिसको सात घोड़े मिलकर दौड़ाते है आपको। है ना !?
आप एक फर्स्ट क्लास मँहगी 'ए सी कार' क्यों नहीं खरीद लेते ? दिन भर गर्मी में खुद बेहाल होते ही हैं और हमलोगों को भी करते रहते हैं।
एक बात तो है कि अगर आप नहीं पूजे जाएंगे तो फिर बुद्धिजीवी लोग सब सिर पर दउरा लिए ,अर्ध्य देते हुए तरह-तरह की भाव-भंगिमाओं में  अपनी सेल्फियां सोशल मिडिया पर कैसे चमकायेंगे भला! है ना !?
फिर मीडिया वाले सप्ताह भर या उस से ज्यादा अपना 'टी आर पी' कैसे बढ़ाएंगे भला !? है ना !?
जाने दीजिए .. दुनिया जैसे चल रही है, चलने दीजिए। हमको और आपको क्या करना भला !?
है ना !?
जय राम जी की प्रभु !!!

Saturday, December 7, 2019

हालात ठीक हैं ...

1947 की आज़ादी वाली कपसती रात हों
या हो फिर 1984 के उन्मादी दहकते दंगे
मरते तो हैं लोग .. जलती हैं कई ज़िन्दगियाँ
क़ुर्बानी और बलि के चौपायों से भी देखो ना
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...

पुस्तकालयों के फर्नीचर हैं कुछ जर्जर
सरकारी अस्पतालों की स्थिति है बद से बदतर
सरकारी स्कूलों के "डे-मील" खा रहे हैं "बन्दर"
बस शहर के मंदिरों-मस्जिदों के फर्श चकाचक
और इनके कँगूरे-मीनारों के हालात ठीक हैं ...

उतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...

कुछ लड़कियों के लिए कोख़ बना है दोजख़
कुछ दहेज़ के लिए सताई या फिर जलाई गई है
टूटती हैं कानूनें .. उड़ती हैं इनकी धज्जियाँ
'नेफ्थलीन' वाली अलमारियों में कानूनों की
मोटी-मोटी किताबों के हालात ठीक हैं ...

बलात्कार सरेराह है हो रहा .. दिन हो या रात
हो गई है दिनचर्या .. जैसे हो कोई आम बात
बच्ची हो या युवती .. फटेहाल या फिटफाट
या फिर बुढ़िया कोई मोसमात
बलात्कार रुके ना रुके पर लग रहा
यहाँ सोशल मीडिया और मीडिया की
'टी.आर.पी.यों' के हालात ठीक हैं ...

दरअसल .. सजती हो जब अक़्सर यहाँ
पांचसितारा होटलों की मेजों पर प्लेटें
या 'डायनिंग टेबल' पर घर की थालियाँ
ज़िबह या झटका से मरे मुर्गों के टाँगों से
तो भला "मुर्गों" से पूछता कौन है कि -
" क्या हालात ठीक है ??? "...