Monday, November 25, 2019

एक विधवा पनपती है ... (आलेख).

एक ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान के बहाने ...

जीत का ज़श्न हो कहीं या
हार का मातम कहीं .. कभी भी
अपनों की हो या दुश्मनों की
लाश तो लाश होती है
है ना !? ...

इस लाश की शाख़ पर
देखा है आपने भी अक़्सर
या तो कई अनाथ बिलखते हैं
या एक विधवा पनपती है
है ना !? ...

(निम्नलिखित एक ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान-पटना सिटी क़ब्रिस्तान को निहारने के क्रम में उपर्युक्त चंद पंक्तियाँ मन में कुलबुलायी थीं। अब उसका ऐतिहासिक विवरण ...)

" पटना सिटी क़ब्रिस्तान "
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पूर्व की ओर लगातार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से हारने और पीछे हटते जाने पर मज़बूर नवाब मीर कासिम ने September' 1763 में मुंगेर ( बिहार ) में नरसंहार किया। बदले की आग तब भी न बुझने पर  उसने 5 तथा 11 October'1763 को 198 अंग्रेज कैदियों को मौत के घाट उतार दिया।
वाल्टर रीनहार्ट या सोमरू (क्योंकि उनका चेहरा सदा गंभीर या 'Somber' बना रहता था) जो मीर क़ासिम के लिए कार्य करने वाले जर्मन काइयां कर्मचारी था, इस नरसंहार को अंजाम देने वाला मुख्य व्यक्ति था। पटना फैक्ट्री का एक सर्जन डॉ. फुलरटन इससे बच पाने वाला एकमात्र व्यक्ति था।

पुरातन पटना कब्रिस्तान के एक कोने पर बंगाल सरकार द्वारा 1880 में एक शिला लगवाई गई जिसमें नरसंहार में मारे गए ईस्ट इण्डिया कम्पनी  के केवल 28 व्यक्तियों के नाम हैं। यह शिला 70 फीट ऊँची है, जिसके शिखर पर एक अवशेष-पात्र ( Urn ) है। यह मृतकों की यादगारी और ब्रिटिश साम्राज्य की नई स्थापित शक्ति की उद्घोषणा दोनों का प्रतीक था। स्मारक की वास्तुकला विभिन्न प्रकार की है जो पुराने संगमरमर से बने हैं।
कहते हैं कि यह उसी कुएँ के ऊपर बना है, जिसमें अंग्रेजों के मृत शरीर डाल दिए गए थे। यह हत्याकांड अली वर्दी खां के एक भाई हाफ़िज़ अहमद के घर पर ( जो शायद आज की चैरिटेबल डिस्पेंसरी के स्थान पर था ) और एक 40 खम्भों वाले हॉल "चहल सातून" ( मदरसा- मस्जिद की बगल में चिमनी घाट पर ) में हुआ। इस इलाके को ' गुरहट्टा' नाम से जाना जाता है। शायद यह क़ब्रिस्तान ( गोरस्थान ) के बगल में लगने वाले बाज़ार ( हाट ) का मिश्रण है। कुछ लोगों का मानना है कि इस जगह का नाम 1763 में गोरों की हत्या ( गोरा-हत्या ) से पड़ा। .

(N. B. - लेख शिला-लेख के आधार पर).



















Saturday, November 23, 2019

पूछ रही है बिटिया ...

क ख ग घ ... ए बी सी डी ..
सब तो आपने मुझ बिटिया को
बहुत पढ़वाया ना पापा ?
अब "एक्स-वाई" भी तो
समझा दो ना पापा !
अगर भईया बना "वाई" से
वंश-बेल माना आपका
पर मुझ बिटिया में भी तो
है ही ना "एक्स" आपका
फिर मुझ से तथाकथित
मोक्ष क्यों नहीं पापा !???
पूछ रही है बिटिया ...

गुड्डा-गुड़िया .. कुल्हिया-चुकिया ..
सब खेल चुके ..
अब तो हवाई-जहाज भी
उड़ाने दो ना पापा !
मुझ बिटिया को समझते क्यों
"बोझ" और "कमजोर" भला
हम जबकि सृष्टि रचयिता
नौ माह तक बोझ उठाती
नौ माह क्या .. नौ दिन भी नहीं ..
बस नौ मिनट तक ही
सम्भाल सके कोई भी नर
कोख़ और प्रसव-पीड़ा
है क्या आपकी नज़र में
कोई ऐसा .. बोलो ना पापा !...
पूछ रही है बिटिया ...

"लक्ष्मी आई - लक्ष्मी आई"
उदास मन से कहते हैं सब ना !?
बिटिया सुख देती तो है पर 
दुःखी करता दहेज़ सहेजना
अगर बिटिया की क़िस्मत जो फूटी
सरेराह उसकी इज्ज़त जो लुटी
शुरू कर देते क्यों सगे सारे
उस बिटिया से कतराना
दहेज़ के लोभी .. तन के भोगी
सब तो हैं नर ही सारे
तो फिर भला किसी बिटिया की
माँ के कोख़ में ही कर देते
भ्रूण-हत्या क्यों पापा !???...
पूछ रही है बिटिया ...

Friday, November 22, 2019

और 'बाइनाक्युलर' भी ...

मुहल्ले की गलियों में या फिर
शहर के चौक-चौराहों पर
मंदिरों में .. पूजा-पंडालों में
मेलों में .. मॉलों में भी तो अक़्सर
टपोरियों .. लुच्चों ..
लिच्चड़ों की घूरती नज़र
वैसे तो कभी-कभी
तथाकथित कुछ-कुछ
सज्जनों की भी
अकेले या समूह में
दिख जाती हैं घूरती

पड़ता नहीं फ़र्क उम्र से
बारह की हो या फिर
हो कोई बहत्तर की
हो उनकी छोटी बहन-सी
या युवा पत्नी की जैसी
या फिर उनकी अम्मा की उम्र की
प्राथमिक स्कूल जाती हुई
नाबालिग लड़कियाँ हों या
नगर-निगम वाली औरतें
सुबह-सवेरे सड़क बुहारती
या काम पर जाती कोई
बाई काम वाली
या कोई शिक्षिका पढ़ाने वाली
या सिर पर टोकरी उठाए
कोई फेरी वाली .. या फिर ...
रोज मोर्निंग वॉक में
साथ-साथ चलती साथ मेरे
सुबह-सवेरे धर्मपत्नी मेरी

यूँ तो होते हैं ये फक्कड़
पर लिए फ़िरते हैं एक साथ
मानो बहसी आँखों में अपनी
'सेक्सटेंट' .. 'फेदोमीटर' ..
'एक्सरे मशीन' और 'बाइनाक्युलर' भी
हाँ ... सब यंत्र एक साथ ही
बस होता नहीं है शायद
पास इनके एक 'स्टेथिस्कोप' ही ...


Thursday, November 21, 2019

"फ़िरोज़ खान" के बहाने ...

आज के ग्लोबल दुनिया में किसी भाषा या किसी पहनावा या फिर किसी व्यंजन विशेष पर किसी विशेष जाति, उपजाति या धर्म विशेष वाले का आधिपत्य जैसी सोच जो शत्-प्रतिशत गलत है और इस पर एक ही साथ गुस्सा एवं हँसी दोनों आता और आती है।
ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ़ वाली मनोदशा होने लगती है। फलतः मन का विष आज के विज्ञान के योगदान वाले सोशल मिडिया ( सनद रहे कि इसमें भगवान नाम के तथाकथित मिथक का कोई भी योगदान नहीं है) के पन्ने पर उल्टी कर देना सबसे आसान लगता है। इसके अलावा हम कुछ कर भी तो नहीं पाते। बहुत हुआ तो एक-आध दाँत निपोरते अपनी सेल्फी चमका या चिपका देते हैं।
वो भी विज्ञान की बदौलत, इसमें भी भगवान का कोई योगदान नहीं रहता। हम भारतीयों का भी नहीं .. क्योकि मोबाइल फोन और फेसबुक जैसे सारे सोशल मिडिया का आविष्कार भी भारत के बाहर ही हुआ है। हम केवल ब्लॉग जगत का नारा लगाना जानते हैं।
बस ...
दरअसल इसके बीज भी हमने ही रोपे हैं। समाज को जाति, उपजाति और धर्म के बाड़े में बाँट कर। हमने कभी सोचा ही नहीं कि जब तक इस जाति, उपजाति और धर्म के परजीवी अमरबेल पनपते रहेंगे, तब तक हमारे ख़ुशहाली के वृक्ष 'पीयराते' (पीला पड़ते) रहेंगे।
वैसे भी हमारे पुरखों के रिवाज़ या (अन्ध)-परम्परा या (कु)-संस्कृति को त्यागने में मेरी सभ्यता-संस्कृति नष्ट होने लगती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों के मन खट्टे होने लगते हैं। हमारे पुरखों ने वर्षो पहले ही .. वर्षों तक तत्कालीन काम के आधार पर बाँटे गए समाज के कुछ जाति विशेष के कान में श्लोक के शब्द की ध्वनितरंग जाने भर से उनके कान में शीशा पिघला कर डालने की बात करते रहे थे और डालते भी रहे थे। ऐसा इतिहास बतलाता है। हम एक तरफ परम्परा(अन्ध) ढोने की बात करते हैं तो ये सब उसी कुत्सित मानसिकता का प्रतिफल है शायद।
अब जब किसी जाति, उपजाति या धर्म विशेष का आधिपत्य किसी भाषा, पहनावा या व्यंजन विशेष पर नहीं हो सकता तो ... फिर आज तथाकथित आज़ादी के बहत्तर साल बाद भी हम जाति, उपजाति और धर्म के नाम पर "आरक्षण" जैसा मुफ़्त का लंगर, भंडारा या भीख का आनन्द क्यों ले रहे हैं ???? ये या तो सभी आर्थिक रूप से जरूरतमंद को मिले या फिर ना मिले। आश्चर्य या तकलीफ तो तब होती है जब इन बहत्तर सालों के दरम्यान हमारी दो या तीन पीढ़ी भी इसका लाभ लेकर आज कल्फ़दार पोशाकों में चमकते हैं। अरे शर्म आनी चाहिए हम लोगों को। हमें स्वयं इसके विरूद्ध आवाज़ उठानी चाहिए कि हमको ये भीख नहीं चाहिए। हम सामर्थ्यवान हो चुके हैं। हमारे पिता जी, दादा जी सब इसका लाभ ले कर समकक्ष खड़े हैं समाज में।
अब जब तक एक तरफ हम मिथक पाले अपने आप को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चित्रगुप्त, विश्वकर्मा की तथाकथित औलाद यानि सुपर डीएनएधारी घोषित कर के स्टार्चयुक्त अकड़ में गर्दन अकड़ाते रहेंगें तो समाज आगे भविष्य में भी बँटा ही रहना है।
हमें मिलकर सोचना होगा कि - एक तो धर्म और जाति के नाम पर "भाषा" किसी की विरासत नहीं तो "आरक्षण" भी नहीं होनी चाहिए।
दूसरी ये कि जब तक ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे के आड़ में जाति, उपजाति और धर्म की आनुवंशिक परजीवी अमरबेल हम पनपाते रहेंगे, समाज में ख़ुशी के वृक्ष को नहीं पनपा सकते।

 भगवान, अल्लाह, ईसा, मंदिर, माजिद, गिरजा के नाम पर एक मिथक पाल कर क्या कर रहे हैं हम ????
अपनी भावी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं हम ???

भगवान है कि नहीं --- इसका सही उत्तर जानना हो तो पूछिए उस एक अबला लड़की से ... या उसके परिवार से जिसके साथ हाल में बलात्कार हुआ हो ।

सब मिल कर पूछिए ना उस से .... जाइए ....

Saturday, November 16, 2019

मैल हमारे मन के ...

ऐ हो धोबी चच्चा !
देखता हूँ आपको सुबह-सवेरे
नित इसी घाट पर
कई गन्दे कपड़ों के ढेर फ़िंचते
जोर से पटक-पटक कर
लकड़ी या पत्थर के पाट पर
डालते हैं फिर सूखने की ख़ातिर
एक ही अलगनी पर बार- बार
कर देते हैं आप हर बार
हर मैले-कुचैले कपड़े भी
बिल्कुल चकमक झकास
किसी डिटर्जेंट पाउडर के
चकमक विज्ञापन-से
है ना .. धोबी चच्चा !

मैं आऊँ ना आऊँ रोजाना
जाड़ा , गर्मी हो या बरसात
मिलते हैं सालों भर पर आप
होता हूँ हैरान पर
हर बार ये देख कर .. कि ...
मिट जाते है किस तरह भला
धर्म और जाति के भेद
उच्च और नीच के भेद
लिंग और वर्ण के भेद
अस्पताल के चादर और
शादी के शामियाने के भेद
"छुतका" के कपड़े और
शादी के हल्दी वाले कपडे के भेद
जब एक ही नाद में आप अपने
डुबोते हैं कपड़े सभी तरह के
पटकते भी तो हैं आप
बस एक ही पाट पर
और डालते भी हैं सूखने
गीले कपड़े झटक-झटक कर
जब एक ही अलगनी पर
है ना .. धोबी चच्चा !

काश ! .. ऐसा कोई नाद होता
काश ! .. ऐसा कोई पाट होता
जहाँ मिट जाते सारे
मैल हमारे मन के
हमारे इस समाज से
किसी भी तरह के भेद-भाव के
ना जाति .. ना धर्म ..
ना अमीर .. ना ग़रीब ..
ना उच्च .. ना नीच ..
ना नर .. ना नारी ..
सब होते एक समान
ना होता कोई दबा-सकुचाया
ना करता कोई भी इंसान
"मिथ्या" या "मिथक" अभिमान
फिर होकर निर्मल मन हमारे
सब एक ही वर्ग के हो जाते
है ना .. धोबी चच्चा !


Wednesday, November 6, 2019

अपनी 'पोनी-टेल' में ...

सुनो ना !! ...
बस एक बार ...
आना कभी तुम
मौका मिले तो घर मेरे 
बेशक़ .. हो सके तो
साथ "उन्हें" भी लाना
दिखलाना है तुम्हें ...
चंद दस्तावेज़ों वाले
दराज़ में मेरे
आज भी पड़े .. मुस्कुराते
दो-दो टूक हुए मूंगफलियों के
वक्त के साथ नरम पड़ चुके
कुछ मासूम-से छिलके
थे तो यूँ तत्कालीन कुरमुरे
जो कभी हौले से थे दरके
तर्जनी और अँगूठे से बनी
तुम्हारी चुटकियों की
डोली पर हो सवार
पहुँच कर तुम्हारे
दांतों और होठों के
नम-नाज़ुक गिरफ़्त में ...

और ... चंद ..
इमलियों के
कत्थई बीज भी
जो निकले थे कभी
अपनी खट्टी-मीठी
मखमली परत से
उस इमली के
जिसे जी भर कर
जीभ और तालू के अपने
मखमली आग़ोश में
चूसने के बाद ...
स्वाद चखने के बाद
दोनों होठों के फ्रेम से
"फू" ... कर के उछाला था
टिकी हुई अपनी ठुड्डी पर
नावनुमा मेरी हथेली पर
जैसे फुदक कर कोई
गौरैया उतरती है
चुगने के लिए दाना
मुंडेर से आँगन में ...

और हाँ .. कॉलेज और कोचिंग से
बंक मार कर अक़्सर पटना के
संजय गांधी जैविक उद्यान में
डेटिंग की दोपहरियों के
साथ बिताए रूमानी पलों में
तुम्हारी मनपसंद चूसी गई
कुछ ऑरेंज कैंडियों के रैपर्स ..
कुछ चखे डेरी मिल्क के भी
रैपर्स और .. एल्युमीनियम-फॉयल भी हैं
साथ-साथ उसी दराज़ में  ...
बस .. एक कॉल या मिसकॉल भर
या फिर व्हाट्सएप्प ही
कर देना ना .. प्लीज !! ..
आने के कुछ घंटे पहले
ताकि सज-सवंर लुंगा
'फुसफुसा' लुंगा थोड़े डिओ भी
अपने झुर्रियाए बदन पर
और तुम भी तो आओगी ही ना ..
हर बार की तरह मेरी पसंद की
अपनी 'पोनी-टेल' में ... .. आँ ..!?

( N.B. - इस रचना का रचनाकार के अतीत से कोई लेना-देना नहीं है। यह रचना केवल कल्पना मात्र है। )

Sunday, November 3, 2019

मन की कलाई पर ... ( दो रचनाएँ ).

१)*

जानिब ! ..
तुम मानो ..
ना मानो पर .. मेरी
मन की कलाई पर
अनवरत .. शाश्वत ..
लिपटी हुई हो तुम
मानो .. मणिबंध रेखा ...

तुम .. जानो ..
ना जानो पर ..
लिपटा रहता है
पल-पल .. हर पल ..
इर्द-गिर्द उस रेखा के
मेरी फ़िक्रमंदी का
विश्वस्त मौली सूता ...

२)*

मेरी जानाँ !
अब तो अक़्सर ...
Sphygmomanometer का
Cuff याद कराता है
मदहोशी में कस कर
मुझसे चिपटना तुम्हारा ...

और ...
Stethoscope का
Chestpiece तुम्हारी
बढ़ी हुई रूमानी
'धुकधुकी' को क़रीब से
हर बार मेरा सुन पाना ...