Friday, October 11, 2019

बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!

एक शाम अर्धांगनी की उलाहना -
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!
आपको शर्म नहीं आती क्या !?"

मैं घायल मन से -
"शर्म ही आती, तो ये बच्चे नहीं आते,
और बच्चे बड़े हो भी गए तो बतलाओ भला !!
उनके बढ़ने और अपनी रुमानियत घटने का
कौन सा अनुपातिक सम्बन्ध है ..... बोलो भला !?

पप्पू के admission के वक्त दिखा ना था पिछले साल
अपने college के दिनों का गुलमोहर टहपोर लाल
आज भी मौसम में खिला करता है वैसा ही
जैसा खिला करता था उन दिनों .. हमारे ज़माने में
हमारे college के campus में

हाँ .. टहपोर चाँदनी भी तो आज भी उतनी ही खिलती है
जितनी खिला करती थी वर्षों पहले .. हर पूर्णिमा के रात
हम दोनों दूर अपने-अपने आँगन या छत से मिनटों
तयशुदा एक ही समय पर निहारते थे चाँद को अपलक
ये सोच कर कि हमारी नजरें टकरा रही है साथ-साथ

फिर हमारी रुमानियत क्यों कम होने लगी भला !?
और फिर हमारी रुमानियत को
किसी की नज़र भी तो नहीं लगी होगी
लगी भी है तो ... मिरचा, लहसुन,सरसों लेकर 'न्योछ' दो
नज़र उतर जायेगी

पर ये कह कर दिल मत तोड़ा करो यार ..
कि ...
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं ।"

Thursday, October 10, 2019

बोगनवेलिया-सा ...

बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद
कतरी गईं हैं
हर बार .. बारम्बार ..
हमारी उम्मीदें .. आशाएं ..
संवेदनाएं .. ना जाने
कई-कई बार
पर हम भी ठहरे
ज़िद्दी इतने कि ..
हर बार .. बारम्बार
तुम्हारी यादों के बसंत
आते ही फिर से
पनपा ही लेते हैं
उम्मीदों की शाखाएं
फैला ही लेते हैं
अपनी बाँहें तुम्हारे लिए
ठीक बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद

माना कि ...
नहीं हैं पास हमारे
मनलुभावन दौलत .. रुतबे
या ओहदे के सुगन्ध प्यारे
पर मनमोहक .. मनभावन ..
प्यार का रंग तो है
जो तपती जेठ की
दुपहरी में भी
खिली-खिली रंगीन
बोगनवेलिया के फूलों की
पंखुड़ियों-सा दमकता है ...


कभी किया था जो
तुमसे प्यार और
हुआ था तुम्हारा मन से
हो ही नहीं पाते आज भी
किसी और के
ना मालों में गूंथा जाता हूँ
ना सजता हूँ
पूजा की थालियों में
ठीक बोगनवेलिया के
फूलों की तरह ... उपेक्षित-सा ...
और बोगनवेलिया की
शाखाओं की तरह
सिर को झुकाए
करता हूँ अनवरत
बस तुम्हारा इंतज़ार ...
केवल और केवल तुम्हारा इंतज़ार ...




Wednesday, October 9, 2019

अंतरंग रिश्ते के दो रंग ... ( दो रचनाएँ ).

(1)@

 बनकर गुलमोहर
 -------------------
सुगन्ध लुटाते
मुस्कुराते .. लुभाते
बलखाते .. बहुरंग बिखेरे
खिलते हैं यहाँ सुमन बहुतेरे
नर्म-नर्म गुनगुने धूप में
यौवन वाले खिले-खिले
जीवन-वसंत के
पर ... तन जलाती
चिलचिलाती धूप लिए
मुश्किल पलों से भरे
जीवन के जेठ-आषाढ़ में
शीतल छाँव किए
बनकर गुलमोहर
खिलूँगा मैं अनवरत
हो तत्पर तुम्हारे लिए ...

गेंदा .. गुलदाउदी ..
गुलाब होंगे ढेर सारे
संग तुम्हारे
आसान-से
दिन के उजियारे में
होंगीं बेली .. चमेली
मोगरा भी मस्ती भरे
चाँदनी रात वाले
चुंधियाते उजियारे में पर ...
मायूस .. सुनी ..
तन्हा रातों में
रहूँगा संग तुम्हारे
अनवरत हर बार
हरसिंगार की तरह
पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए ...

(2)@

कंदराओं में बुढ़ापे की
------------------------
आँगन में बचपन के
गलियारों में यौवन के
चहकते हैं सभी
चहकना .. महकना ..
मचलना .. मटकना ..
रूठना .. मनाना ..
चाहना .. चाहा जाना ..
ये सब तो करते हैं सभी
है ना सखी !?

पर आओ ना !!!
कंदराओं में बुढ़ापे की
तुम-हम चहकेंगे .. महकेंगे ..
मटकेंगे .. मचलेंगे ..
रुठेंगे .. मनाएंगे ..
चाहेंगे .. चाहे जाएंगे ..
टटोलेंगे अपनी कंपकंपाती
वृद्ध हथेलियों से
उग आई चेहरे पर
अनचाही झुर्रियों को
एक-दूसरे की
है ना सखी !?

और अपनी बुढ़ाई हुई
मोतियाबिंद वाली
धुंधलायी आँखों से
तलाशेंगे उनमें लांघी गई
कुछ सीधी-सीधी गलियां
रौंदी हुई कुछ
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां
हमारे-तुम्हारे जीवन की
है ना सखी !?

बैठ फ़ुर्सत में आमने-सामने
कभी एक-दूसरे की बाँहों में
बतिआया करेंगे हम-दोनों
पोपले मुँह से तोतली बोली
अपने बचपन-सी
और ढूँढ़ा करेंगे अक़्सर
चाँदी-से सफ़ेद बालों में
बर्फ़ीले पहाड़ों के
बर्फ़ की सफ़ेदी तो कभी ..
चमक पूर्णमासी की रात वाली
टहपोर चाँदनी की
आओ ना सखी !?

Monday, October 7, 2019

बेआवाज़ चीखें

दिखती हैं अक़्सर
फूलों की अर्थियां
दुकानों .. फुटपाथों
चौक-चौराहों पर
चीख़ते .. सुबकते
पड़े बेहाल ..
बेजान फूल ही
चढ़ते यहाँ
बेजान 'पत्थरों' पर ...

हम लोग तो हैं
श्रद्धा-सुमन से ही
अंजान .. बेख़बर
सिसकते हैं फूल भी
डाली से टूटकर
बेआवाज़ चीखें
मछलियों-सी इनकी
बलिवेदीयों पर कटती
गर्दनों से नहीं हैं इतर ...


Sunday, October 6, 2019

चलो ... बुत बन जाएं - चन्द पंक्तियाँ - (१९) - बस यूँ ही ...

(१)
पत्थर-दिल
हो गए हैं

मेरे शहर
के लोग ...

'पत्थरों' को
पूजते-पूजते

(२)
सुना है ...
अयोध्या में
'राम-मंदिर' बनवाने में
हैं अनगिनत अवरोध ...

'अयोध्या' बन जाएगा
हर गाँव-शहर
अगर ...
तू 'राम' बनने की सोच ...

(३)
शहर में इन दिनों
'पैरोडी' का शोर
है क्यों कर ...

शायद 'श्रद्धा'
जताने का हो
कोई नया चलन

यूँ 'प्यार' तो ये शहर 
ख़ामोशी से ही
जताता हैं अक़्सर ...

(४)
अपने शहर में ....
इन्सानों की भला
है अब क़द्र कहाँ !?

चलो... बुत बन जाएं
बुतों की हीं
है क़द्र अब यहाँ ...

(५)
त्योहारों के
मौसम में
विज्ञापनों के
होड़ ने
ग़रीब-सा
कर दिया

इतने भी तो
हम ना थे
कभी ग़रीब ......

(6)
हे तथाकथित
जग के पालनहार!
अख़बारों की
सिसकती
सुर्खियाँ


आए दिन
सुबह-सवेरे तेरी '
मौज़ूदगी' पर ही
एक सवाल-सी
उठाती है ...








Saturday, October 5, 2019

हाय री ! "गुड़हल" की चटनी ... बस यूँ ही ...

" दीदी ! आज पचास रुपया उधार चाहिए आप से। मिलेगा दीदी !? " - यह कामवाली बाई सुगिया की आवाज़ थी , जो मालकिन नुपूर जी को कही गई थी।
" मिल तो जायेगा , पर ... तुम्हारा पहले से ही सवा सौ उधार है। ऊपर से ये पचास। .....
आज फूल की बिक्री नहीं हुई क्या तुम्हारी !? " - नुपूर जी जवाब में सुगिया को बोलीं। वह भली-भांति जानती हैं कि अपने पति के गुजरने के बाद सुगिया उनके यहाँ और अन्य दो घर में चौका-बर्त्तन कर के जो कुछ भी कमाती है उस से अपना और अपने दोनों बच्चों का पेट भर पाल पाती है। कपड़ा जो उसको या कभी उसके बच्चों को भी साल भर में त्योहारी के नाम पर दो या कहीं तीन बार भी मिल जाता है , उसी से काम चल जाता है। पर ऊपरी खर्चे मसलन - रोज की सब्जी या कभी-कभार अंडा और मछली-मुरगा या बीमार पड़ने पर दवा  के लिए उसके दोनों बच्चे पास के मंदिर के पास फूल-माला का दुकान लगाते हैं। कभी दुर्गा-पूजा के नाम पर ज्यादा कमाई हो गई तो अपनी मालकिन के बच्चों के देखा-देखी अपने बच्चों को भी बर्गर-पिज्जा और आइसक्रीम खिला कर ख़ुशी या त्योहार मना लेती है।
" नहीं दीदी ! आज का दिन खराब गया दीदी। कल मेरी मुनिया है ना .. उसने ... उ का ... कहते हैं दीदी !? ...गुग्गल (गूगल) .. हाँ ... हाँ गुग्गल पर उड़ुल (उड़हुल या गुड़हल) के फूल की चटनी बनाने का तरीका और उसका ढेर सारा फायदा गिनाई ना दीदी ... बोली - ' पथरी और अनीमिया (एनीमिया) की बीमारी में फायदेमंद है ' ... तो मेरा मन कर गया कि क्यों नहीं गुड़हल के फूल को सब्जी मंडी में बेच कर सब को लाभ पहुँचाया जाए। दीदी ! मंदिर में तो मुनिया बतलाती है कि रोज सुबह-सुबह कल के चढ़े फूल उस मंदिर का पंडित बुहार कर नगर निगम की गाड़ी में फेंकता है, जो सुबह आती है ना गाना गाते हुए ... - 'गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल' ... उसी में।
दीदी ! मेरी मति मारी गई थी जो मैं आज सोची कि सब को इसका लाभ बतला कर पुदीना की तरह सब्जी मंडी में बेचुँगी।
पर हाय री किस्मत ! एक भी फूल ना बिका आज दीदी। उल्टे लोगों ने मुनिया का मज़ाक उड़ाया दीदी ।" - बोलते-बोलते अफ़सोस करते हुए अपना माथा अपनी दायीं हथेली पर टिका दी।
" तू कितनी भोली है रे सुगिया ... जो वर्षों से फूलों की अर्थी मंदिर में सजाते आएं हैं , उनको तुम्हारी बात कैसे पचेगी भला ... बोलो !???
आज नवरात्रि की सप्तमी है .. तेरे बच्चे आज मंदिर के सामने गुड़हल के फूल और माला बेचते तो तेरी दो-चार पैसे की कमाई हो जाती ना !??
ये समाज सियार के झुण्ड की तरह हुआँ-हुआँ करने वाले को ज्यादा पसंद करती है। अगर तुम एक अलग अपनी भाषा में बोलेगी, भले ही वह सही हो ... लाभकारी हो .. पर उसको लोग पचा नहीं पाते हैं पगली !! ...
तू निरा मूर्ख है ... बात समझती क्यों नहीं कि समाज अपने पुरखों के नियम नहीं बदल सकता। इस से उसकी संस्कृति का हनन होता है।
वे मंदिर में गुड़हल के फूलों की अर्थी सदियों से चढ़ाते आये हैं .. चढ़ाएंगे .. पर फायदेमंद होने के बाद भी उसकी चटनी नहीं खायेंगे ...
ले ये पचास रुपया ... कुल एक सौ पचहत्तर रूपये हो गए उधार ... जब हो सुविधा से लौटा देना । अब जाओ शाम काफी हो गई है ... बच्चे घर पर तुम्हारा और तुम्हारी ले गई सब्जी का इंतज़ार कर रहे होंगे "
"हाँ दीदी ! जा रही। .. हाय री ! ... उड़ुल की चटनी ..."
-दोनों एक साथ ठहाके लगा कर हंस पड़ती हैं।

Friday, October 4, 2019

रामलीला है शुरू होने वाली ...

दशहरे में इस साल भी हो रही होगी वहाँ रामलीला की तैयारी
सोचा घूम आऊँ गाँव का मेला भी साथ-साथ अबकी बारी
सबसे मिलना-जुलना भी हो जाएगा ..
थोड़ा हवा-पानी भी बदल जाएगा
जब चढ़ने गया रेल ... देखा जान-सैलाब का रेलमपेल
रेलगाड़ी की श्रेणियों - सामान्य से लेकर प्रथम श्रेणी तक - जैसी ही
है .. मानो समाज में जनसमुदाय के वर्गीकरण का खेल
साथ ही देखा कि स्टेशन के बाहर और प्लेटफार्म की दीवारें
राज्य की प्रतिनिधित्व करती लोक कलाकृत्ति से थी सुसज्जित
पर अंदर डब्बे के टॉयलेट की दीवारों पर उकेरी चित्रकारी
कर रही थी कभी उत्तेजित .. तो कभी लज्जित

अब मुख्य मुद्दे पर आ जाए बात .. तो है अच्छी
संक्षेप में कहूँ तो बस .. रामलीला है शुरू होने वाली
मैं उन दर्शकों के भीड़ का हूँ एक हिस्सा .. जहाँ हुई है ये इक्कट्ठी
मंच के पीछे नेपथ्य में चल रही है कलाकारों की तैयारी
हनुमान बना है बमबम हलवाई हथेली पर है खैनी मल रहा
राम बने रामखेलावन भईया का होंठ है बीड़ी का सुट्टा मार रहा
सीता बनी ... नहीं - नहीं बना ..
गाँव का ही गोरा-चिट्टा चिकना-सा लौंडा
रमेश ... जो है चबा रहा पुड़िया पर पुड़िया गुटखा
लक्ष्मण बना समसुद्दीन दर्जी किसी से मोबाइल पर है कह रहा -
 " शब्बो ! अब शुरू होने वाली है रामलीला .. तुम आ गई हो ना !? तुम देखोगी तो मैं अपना अभिनय अच्छा से कर पाउँगा अदा
वर्ना हो सकता है कोई डायलॉग ही भूल जाऊँगा "
रामदीन बना दशरथ अपनी घनी मूंछों पर सफ़ेद चढ़वा कर चूना
है अपने चेहरे पर बुढ़ापा का रंग दे रहा
क्योंकि क़ुदरत ने नहीं चढ़ाई है अभी उसके मूंछों या बालों पर
अपनी सच्ची और पक्की सफ़ेदी
सब के सब व्यस्त हैं .. सब के सब मस्त हैं ...
रामलीला के कलाकार भी .. जमा हुए सारे दर्शक भी ...
दर्शकों में भी कई सेवन करते हुए सिगरेट , बीड़ी या खैनी
हैसियत और लत के मुताबिक हैं दिख रहे अपनी-अपनी

मंच का पर्दा उठता है थोड़ी देर बाद ही
आगमन होता है राम का .. साथ में सीता और लक्ष्मण भी
सभी श्रद्धा से नमन करते हैं अपने-अपने सिर को झुका
उस राम के आगे .. हाँ .. हाँ .. उस राम के आगे ...
जो अभी-अभी मंच के पीछे बीड़ी का सुट्टा था मार रहा
मेरा अबोध मन तभी कुलबुलाया
और मुझे से ही तड़ से जड़ दिया एक सवाल बच्चों-सा
ना .. ना .. कौन बनेगा करोड़पति वाला नहीं
बस .. कर दिया एक सवाल बच्चों-सा
मचलता-सा पूछा - ......
" हम सभी क्या प्रत्यक्षतः -- भारतीय रेल के प्लेटफार्म की तरह
या फिर रामलीला के मंच की तरह और ...
अप्रत्यक्षतः -- मन में रेल के डब्बे के टॉयलेट पर उकेरी चित्रकारी
और रामलीला वाले मंच के नेपथ्य की तरह
अक़्सर दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीते हैं क्या !?
एक नहीं ... कई-कई दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीते हैं क्या !???