Thursday, March 7, 2024

पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३४)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

माखन चच्चा - " कैसे मुँह में कुछ जाएगा बेटा, जब मुँह का निवाला आँखों के सामने ही गलत दोष मढ़ कर छीना जा रहा हो .. "

अब रेशमा और मन्टू के साथ-साथ माखन पासवान भी बेवकूफ़ होटल की ओर जा रहे हैं। इनके यहाँ से जाने के साथ-साथ यहाँ की उपस्थित भीड़ भी छंटने लगी है।

गतांक के आगे :-

रेशमा होटल में प्रवेश करते हुए अपनी टोली को प्रतिक्षारत देख रही है। एक नज़र अपनी टोली पर डालने के बाद अब 'वाश बेसिन' की ओर इशारा करते हुए माखन चच्चा को हाथ धोने के लिए बोल रही है। साथ में स्वयं और मन्टू भी, दोनों उसी ओर क़दम बढ़ा चले हैं। तीनों अपने-अपने हाथ धोकर रेशमा की टोली की ओर जा रहे हैं, जहाँ पहले से ही उसकी टोली अपने-अपने हाथों की साफ़-सफ़ाई करके रेशमा की बाट जोह रही थी।

रेशमा - " तुम लोगों को खा लेना चाहिए था ना .. "

हेमा - " ऐसे कैसे खा लेते आपके बिना .. गुरु के बिना भी भला .. "

रेशमा - " अच्छा-अच्छा ! .. अब तो आ गयी ना मैं .. अभी जल्दी-जल्दी खा लो .. जिसको भी जो कुछ खाना है। "

रमा - " ये भी कोई बात हुई .. साथ खाने आये हैं तो सब मिलकर एक साथ एक-सा खाना खायेंगे हमलोग .."

रेशमा - " ये भी सही है, पर .. अब आज आगे अगला 'नर्सिंग होम' जाने का 'प्रोग्राम' 'कैंसिल' .."

सुषमा - " वो क्यों भला ? "

हेमा - " गुरु हैं हमारी .. कुछ भी फ़रमान जारी कर सकती हैं। हमको मानना ही होगा। है कि नहीं ? .."

रमा - " फ़रमान तक तो ठीक है .. बस्स ! .. कोई फ़तवा ना जारी करें .. " 

हेमा और रमा की चुटकी भरी बात पर रेशमा की पूरी टोली हँस पड़ी है। सिवाय रेशमा के .. मन्टू के और स्वाभाविक तौर पर माखन पासवान के।

सुषमा - " और .. आप वापस आकर बतायीं भी नहीं कि .. उधर चिल्ल-पों किस बात की मची हुई थी। कोई दुर्घटना घटी है क्या ? .. और ये सुबह-सुबह माखन चच्चा आपको कहाँ मिल गए ? "

रेशमा - " वही तो बतलाने वाली थी तुमलोगों को .. पर अभी तुमलोगो को तो हँसी सूझ रही है ? देखो ! .. माखन चच्चा को .. तुम लोगों को उनका दुःख नहीं दिख रहा क्या ? .. "

सुषमा - " वो तो हम पूछे ही अभी आपसे इनके बारे में .. "

रेशमा - " इनके एकलौते बेटे का जो 'केस' चल रहा था ना .. "

हेमा - " हाँ- हाँ .. तो क्या हुआ ? "

रेशमा - " आज उसी का फ़ैसला आने वाला है और .. हो सकता है, कि .. "

माखन पासवान - " हम वहीं पर जा रहे हैं बेटा .. अब हम्मर (हमारा) मंगड़ा जेल की गाड़ी में आने ही वाला होगा .."

मन्टू - " आप सुबह से हलकान हो रहे हैं बिना खाए-पिए .. बिना मुँह जुठाए हुए आप को नहीं जाने देंगे अभी .. "

माखन - " पर अभी कुछ भी मुँह में डालने का मन नहीं कर रहा है बेटा .. "

रेशमा - " अच्छा .. पहले बैठिए तो सही .. अभी वहाँ समय लगेगा .. तब तक आप हम लोगों के साथ खा लीजिए .. अगर खायेंगे नहीं तो अपने मंगड़ा के लिए कैसे लड़िएगा आप ? .."

रेशमा और मन्टू मिलकर किसी तरह अपने माखन चच्चा को अब खाने के लिए तैयार कर लिए हैं। रेशमा से बात करके अब सुषमा 'काउंटर' पर जाकर सबके लिए सादी (शाकाहारी) थाली का 'ऑर्डर' दे रही है।

अब सबके सामने थाली आ भी गयी है। थोड़ी देर में सभी के खा लेने के बाद रेशमा स्वयं भुगतान करके सभी को लेकर कचहरी की तरफ जा रही है। 

रेशमा - " ये बलात्कार के लिए अपने देश में आज भी .. जो भी कानून और सजा है .. कम है। "

माखन पासवान - " ना बेटा .. हम्मर मंगड़ा कोई बलात्कार नहीं किया है .. "

रेशमा - " ना- ना .. ना चच्चा .. हम मंगड़ा की बात नहीं कर रहे। हमको तो पता ही है, कि वह निर्दोष है। हम तो देश-समाज की बात कर रहे है चच्चा .."

मन्टू - " किस तरह कानून और सजा कम है आज भी अपने देश में ? .. अब तो हमारे देश में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद संविधान संशोधन करके इस ज़ुर्म के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान लाया गया है। "

रेशमा " हमारा मतलब है, कि .. आये दिन केवल महिलाओं का ही बलात्कार नहीं होता, पुरुष और किन्नर भी तो इस के शिकार होते हैं .. और तो और .. कई मानसिक विक्षिप्त लोग तो मौका मिलते ही .. मुर्दे तक का बलात्कार कर लेते हैं। "

हेमा - " छिः .. छि-छि .. दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं ? "

रेशमा - " और .. मजे की बात ये है कि इनके लिए अपने देश में आज भी कोई भी कानून नहीं हैं। "

रमा - " अच्छा ! "

रेशमा - " पति-पत्नी के बीच भी कभी-कभी ज़बरन बनाए गए यौन संबंध को बलात्कार माना जाना चाहिए, परन्तु इसे भी कानूनन बलात्कार नहीं माना जाता .. "

रमा - " सबसे तो आश्चर्यजनक तो लगता है, ये सोच कर कि एक शव से भला लोग किस प्रकार बलात्कार करने की सोचते भी होंगे या करने की हिम्मत करते हैं .."

रेशमा - " दरअसल ये एक गंभीर मानसिक बीमारी है, जिसको 'नेक्रोफिलिया' कहा जाता है। इसके लिए भारत में तो नहीं पर .. ब्रिटेन, कनाडा, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में तो सजा वाले कानून हैं .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, March 4, 2024

पत्ते वाली मिठाई .. किसने है खाई ?

सर्वविदित है, कि .. किसी भी क्षेत्र विशेष में उसके संस्कार या उसकी संस्कृति पर उसके भौगोलिक परिवेश के साथ-साथ वैश्विक वैज्ञानिक अनुसंधानों व आविष्कारों का भी गहरा प्रभाव पड़ता आया है। 

मसलन- मरणोपरांत जिस दाह संस्कार और दफ़नाने की अलग-अलग प्रक्रियाओं को धर्म विशेष से जोड़ कर लकीर के फ़कीर बने आज भी हम अकड़ रहे हैं या यूँ कहें कि उस से जकड़े हुए हैं, तो .. एक बार अगर हम इतिहास की खिड़की से झाँक कर इन धर्म-मज़हब के उद्‌गम स्थलों का मन से अवलोकन करें, तो प्रमाणिक निष्कर्ष यही निकलेगा कि .. दफ़नाये जाने वाले संस्कार का प्रचलन उन जगहों में पनपा होगा, जहाँ ना तो दाह संस्कार के लिए लकड़ियों को प्रदान करने वाली वन संपदाएँ थीं और ना ही अवशेष स्वरूप राख़ को बहा ले जाने वाली एक भी नदी थी .. वहाँ थे तो केवल रेत ही रेत .. शायद ...

दूसरी तरफ .. दाह संस्कार के चलनसार का प्रादुर्भाव वहीं सम्भव हो पाया होगा, जहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप .. वृक्षों से मिली लकड़ियों और नदियों के जल की उपलब्धता रही होंगी। परन्तु पुरखों के कालखण्ड में तत्कालीन परिस्थितिवश पनपे प्रचलनों को हम लोगों ने आज भी अलग-अलग धर्म-मज़हब से जोड़ कर मृत शरीर के निष्पादन के लिए जलाने और दफ़नाने जैसी दो भिन्न प्रक्रियाओं को क्रमशः श्मशान और क़ब्रिस्तान जैसे दो खेमों में बाँट कर रखा है .. शायद ...

प्रसंगवश .. वैसे तो आज हमारे बीच मृत शरीर के निष्पादन का देहदान नामक एक बेहतर और बहुउपयोगी विकल्प उपलब्ध तो है ही, पर हम अगर लकीर के फ़कीर वाली ज़ंजीर की जकड़न से बाहर निकल सकेंगे, तभी तो .. इस देहदान का औचित्य समझ पायेंगे और इसे अपनाने की हिम्मत जुटा पायेंगे, वर्ना .. तथाकथित मोक्ष की अपभ्रंश धारणा से प्रेरित हो कर, उन तमाम अंधपरम्पराओं को चिपकाए हुए .. हम स्वयं भी उनसे चिपके रहेंगे और भावी पीढ़ियों को भी उनसे चिपके रहने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी दबाव बनाते रहेंगे .. शायद ...

हालांकि हमारे संस्कार-संस्कृति की तरह हमारे खानपान के मामले में भी यही भौगोलिक प्रभाव ही प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। जैसे- पँजाबियों को रोटी-पराठे एवं बंगालियों को भात या फिर मूढ़ी या फरही जैसे चावल के अन्य उत्पाद अत्यधिक प्रिय होने की वज़ह दरसअल उनके राज्यों में खेती से क्रमशः गेहूँ और चावल के प्रचुर उत्पादन ही हैं .. शायद ...

अब बात बंगालियों की हो रही हो तो .. उनके कुछ विशेष व्यंजनों का नाम लिए बिना नहीं रहा जा रहा अभी तो, तो ..  उनके कुछेक विशेष व्यंजनों के नाम लेने भर से ही मुँह में पानी आ जाता है। मसलन- शुक्तो (एक विशेष सुस्वादु शाकाहारी सब्जी), कच्चा गोला संदेश (छेने से बना मिठाई विशेष), मिष्टी दोई (विशेष स्वाद वाला मीठा दही), भापा दोई (भाप पर पका दही का विशेष मीठा व्यंजन) व भापा माछ (भाप से पकी मछली) और .. उनमें से एक भापा माछ .. एक ऐसा मांसाहारी व्यंजन है, जो मछली को सरसों के मसाले में 'मैरीनेट' करने के बाद केले के पत्ते में लपेट कर भाप पर पकाया जाता है। यूँ तो केले के पत्ते पर खाने का भी प्रचलन बंगाल में भी है और दक्षिण भारत में भी और .. कारण वही है .. उन क्षेत्रों में केले की अत्यधिक उपज का होना, जो वहाँ के भौगोलिक परिवेश पर ही निर्भर करता है .. शायद ...

यहाँ मुख्य रूप से गौर करने वाली बात ये है, कि इस "भापा माछ" के अनोखे स्वाद में मछली व मसाले के साथ-साथ केले के पत्ते का भी विशेष योगदान रहता है, जिनमें लपेट कर इसे भाप पर पकाया जाता है। बातों-बातों में पत्ते की बात निकली ही है तो .. अब "पत्ते वाली मिठाई" की बातें करते हुए आज की मूल बतकही की शुरुआत करते हैं .. बस यूँ ही ...

आज कमोबेश समस्त धरती के वैश्वीकरण / भूमंडलीकरण हो जाने के बावज़ूद भी कई स्थान विशेष के कुछेक व्यंजनों का वैश्वीकरण नहीं हो पाया है। मसलन- केवल अरवा चावल के आटे और गुड़ से विशेषतः जाड़े के मौसम में बनाया जाने वाला "भक्का या भक्खा" गर्म पानी के भाप से तैयार होता है; जो पौष्टिक और स्वादिष्ट होने के बावज़ूद भी बिहार के कुछ पूर्वोत्तर जिले- अररिया, किशनगंज, पूर्णिया व कटिहार के साथ-साथ झारखण्ड के पाकुड़ जिला, जो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जैसे एतिहासिक जिला से सटा हुआ है, पश्चिमोत्तर पश्चिम बंगाल और दक्षिण-पूर्वी नेपाल के कुछ सीमांचल क्षेत्रों तक ही सीमित है .. शायद ...

अब मूल बतकही के रुख़ को उत्तराखंड के दो मुख्य भागों में बँटे हुए- गढ़वाल और कुमायूँ में से एक .. कुमायूँ की ओर मोड़ते हैं। वैसे तो तीसरा भाग भी है- जौनसार। ख़ैर ! .. फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं .. कुमायूँ की और और उस के अल्मोड़ा जिला से जुड़ी ख़ास बातों में से एक "पत्ते वाली मिठाई" की। वैसे तो उपलब्ध आंकड़े की बात करें तो .. अल्मोड़ा इस राज्य का सबसे ग़रीब जिला है, पर दूसरी तरफ इसकी तमाम प्राकृतिक संपदाएँ इसे सम्पन्न और समृद्ध भी बनाती हैं।

यहाँ उपलब्ध उन्हीं प्राकृतिक संपदाओं में से एक है- मालू की बेलें, जिसे स्थानीय लोग लता कचनार भी कहते हैं .. क्योंकि इसके पत्तों का आकार भी कचनार के पत्तों की तरह ही दोमुँहा होता है और इसका स्पर्श भी खुरदुरा होता है, पर इसका माप उससे बड़ा होता है। वर्षों से स्थानीय क्षेत्रों में इन पत्तों से बने पत्तल और दोने का इस्तेमाल होता आ रहा है। यहाँ इस की फ़ली को "टांटी" कहते हैं। जहाँ ये बेलें प्राकृतिक रूप से सहज उपलब्ध है, वहाँ इस टांटी के पकने पर आग में भून कर उसके बीजों को, जिसे "मेले" कहते हैं, खाया जाता है। इस के पत्तों का काढ़ा बुखार या 'डायरिया' के बीमारों को दिया जाता है, क्योंकि इसमें 'एन्टीबैक्टीरियल' गुण होता है। यूँ तो यह कुमायूँ के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, सिक्किम आदि राज्यों में भी उगता तो है, पर ..  अल्मोड़ा जिला की तरह "पत्ते वाली मिठाई" नहीं मिलती है।

वैसे तो कुमाऊँ क्षेत्र में एक अन्य मिठाई .. "बाल मिठाई" भी लोकप्रिय है, जिसे भुने हुए खोवे (मावा) से बनाई जाती है और इसके हर टुकड़े की ऊपरी परत पर 'होम्योपैथिक' दवा वाली छोटी-छोटी गोलियों जैसी चीनी की गोलियों की परत चढ़ाई जाती है। सर्वविदित है, कि कुमाऊँ में गोरखों ने सन् 1790 ई से लेकर सन् 1815 ई तक लगभग 25 वर्षों तक शासन किया था और किवदंतियों के मुताबिक़ उन्हीं गोरखों द्वारा "बाल मिठाई" का पदार्पण कुमाऊँ में हुआ था। वैसे तो आज यह उत्तराखंड की राजकीय मिठाई भी हैI परन्तु "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात .. मतलब स्वाद ही अलग है। 

यूँ तो उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में 'स्ट्रीट फ़ूड' के तौर पर युवाओं में विशेष लोकप्रिय और प्रसिद्ध नमकीन व्यंजनों में बन टिक्की और कतलम्बे का नाम आता है। यहाँ की 'बेकरी' के उत्पाद भी प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। इनके अलावा वयस्कों-वृद्धों में उत्तराखंड देवभूमि वाले अपने चार धामों के लिए, तो .. युवाओं के बीच 'एडवेंचर्स गेम' के अलावा प्राकृतिक पहाड़ी सौन्दर्य के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पर .. इन सबसे परे .. "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात ही निराली है।

अब इस मिठाई के लिए भी किवदंतियों की बात छेड़ें तो .. उत्तराखंड के कई सारे लोकप्रिय और प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थलों की ख़ोज के साथ-साथ वहाँ बसने व उसे बसाने का श्रेय अंग्रेज़ों को देने की तरह ही .. स्थानीय वृद्धजनों के अनुसार इस "पत्ते वाली मिठाई" का श्रेय भी एक अंग्रेज को दिया जाता है।

दरअसल अल्मोड़ा जाने के लिए वर्तमान में तो 127 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर में है और 90 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है। परन्तु दशकों पहले अंग्रेजों की अवधि में ये दोनों ही यतायात के साधनों के नहीं होने पर एकमात्र साधन- सड़कमार्ग द्वारा देहरादून से अल्मोड़ा जाने के दरम्यान अल्मोड़ा से कुछ पहले ही नैनीताल ज़िले में कोसी नदी और खैरना नदी के संगम पर बने खैरना पुल के पास ही खैरना नाम की एक छोटी-सी बस्ती थी और आज भी है। वहीं पर एक चट्टी-बाज़ार भी है, जहाँ लम्बी दुर्गम पहाड़ी यात्रा करके आने वाले सैलानियों को ढाबेनुमा दुकानों से चाय-अल्पाहार करके तरोताज़ा होने का अवसर तो मिलता ही है .. साथ ही अपनों के लिए सौग़ात के रूप में यहाँ की बाल मिठाई और "पत्ते वाली मिठाई" ले जाने का भी मौका मिलता है।

स्थानीय वृद्धजनों का कहना है, कि अंग्रेजों के शासनकाल में एक अंग्रेज के पर्यटन के ख़्याल से अल्मोड़ा जाने के दौरान जब खैरना में उसकी गाड़ी रुकी तो वह एक ढाबे में कुछ जलपान करने के बाद .. उसके बगल की ही मिठाई की एक छोटी-सी दुकान से एक मिठाई ख़रीद लिया, जिसे गाढ़े दूध में खोवा, कम मात्रा में चीनी, नारियल-चूर्ण के अलावा छोटी इलायची के बीजों के चूर्ण, काजू, बादाम, केसर और किशमिश डालकर तैयार की जा रही थी। उस दुकानदार ने बन रहे ताज़ा-ताज़ा मिठाई को ग़ुलाब की पंखुड़ियों से सजाकर वहाँ उस वक्त सहज उपलब्ध मालू के हरे पत्ते में लपेट कर उस अंग्रेज पर्यटक ग्राहक को सौंप दिया था। 

अब दिलचस्प बात ये हुई, कि उस अंग्रेज सज्जन को वह मिठाई इतनी अच्छी लगी, कि वे दूसरे दिन पुनः उसी दुकानदार से एक ही बार में एक किलो मिठाई खरीद कर ले गए। स्वाभाविक था कि .. मिठाई की मात्रा ज्यादा होने की वजह से दुकानदार ने उसे मालू के पत्ते की जगह गत्ते के डिब्बे में भर कर दे दिया था। उसको खाने के बाद अंग्रेज महोदय को स्वाद में अंतर महसूस हुआ। वे इसके बाद वापस उस दुकानदार के पास गए और स्वाद में कमी की शिकायत की। फिर कुछ क्षण बाद स्वयं ही उन्होंने दुकानदार से मिठाई को उसी मालू के पत्ते में लपेटकर देने की बात कही। कुछ ही देर बाद उस मालू के पत्ते में लिपटी मिठाई को खाने पर पूर्ववत स्वाद आने लगा। 

फिर क्या था .. उसी अंग्रेज पर्यटक की नेक सलाह पर वह दुकानदार उस दिन से अपनी उस मिठाई को शंक्वाकार मालू के पत्ते में लपेट कर ही बेचने लगा और उसी पत्ते वाली मिठाई को सिंगोड़ी या सिंगौड़ी कहते हैं। कहते हैं कि .. वही सिलसिला आज भी प्रचलन में तो है ही, साथ ही .. इसी शंक्वाकार मालू के पत्ते में लिपटा होना .. इसके स्वाद की वज़ह भी है व पहचान भी है। मानो किसी प्रेमी के सानिध्य में आने पर उसकी प्रेमिका का तन आलिंगनबद्ध होकर महक उठता है, वैसे ही मालू के पत्ते की बाहों में सिमट कर सिंगोड़ी के स्वाद में भी चार चाँद लग जाता है .. शायद ...

इसके बारे में सुनने-जानने के पश्चात गत पौने दो वर्षों से देहरादून में मिठाई की कई प्रसिद्ध दुकानों में तलाशने के बाद कल यहाँ के एक मिष्ठान प्रतिष्ठान में यह दृष्टीगोचर होने के बाद मुझ-सा मधुमेह पीड़ित, पर किसी स्थान विशेष के व्यंजन विशेष को चखने के लिए बरबस लालायित प्राणी, भी कैसे मन संवरण कर पाता भला ? इस मिठाई विशेष के लिए अगर .. अब तक आपके मुँह में भी लार भर आयी है, तो आप सभी सपरिवार आमंत्रित है यहाँ आने के लिए और फिर तो .. आप सभी को मालू के पत्ते वाली विशेष मिठाई की दावत हमारी ओर से .. बस यूँ ही ...





Thursday, February 29, 2024

पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)"  से  "पुंश्चली .. (३३)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :- 

बाकी लोग खाली जगह देखकर सुविधानुसार स्थान ग्रहण कर रहे हैं। अभी रेशमा और मन्टू 'वाश बेसिन' में हाथ धो ही रहे हैं, तब तक होटल से बाहर .. कचहरी प्रांगण में किसी के कुहंक-कुहंक कर रोने की आवाज़ के साथ-साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनायी देने लग गयी है। रेशमा सब को बैठने का इशारा कर के शोर की ओर बढ़ चली है। पीछे से मन्टू भी, कि .. आख़िर हो क्या गया है अचानक से ...

गतांक के आगे :-

कुहंक-कुहंक के रोने वाली आवाज़ और उसको संगत करती आसपास इकट्ठी भीड़ से ऊपजी शोर भरी आवाज़ की ओर रेशमा और मन्टू के बढ़ते तेज क़दम शीघ्र ही वहाँ तक पहुँच गए हैं। वहाँ रोने वाला इंसान चारों तरफ से भीड़ से घिरा हुआ है। फिर भी उत्सुकतावश दोनों ही कुछ क्षण में ही भीड़ को लगभग चीरते हुए उस रोते-कलपते इंसान तक पहुँच गए हैं, जो अपनी कृशकाय ठठरी मात्र काया के सीने को पीट-पीट कर किसी लाचार की तरह कभी आसमान की तरफ कातर डबडबायी निग़ाहों से देख कर तो .. कभी भीड़ की तरफ देख-देख कर विलाप कर रहा है। उसका सारा कमजोर शरीर काँप रहा है, मानो इस बुद्धिजीवी समाज में आज भी किसी प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर अवस्थित तथाकथित माता की मूर्ति के समक्ष बनी हुई .. किसी बलिवेदी पर .. नहलाए गए और सिन्दूर-रोली, मृत फूलों की माला व अक्षत् से सजा कर किसी निरीह बकरे की गर्दन ज़बरन जकड़े जाने से उसका सम्पूर्ण शरीर काँपता है और उसके हाड़ के अंदर की धुकधुकी बढ़-सी जाती है ।

रेशमा अपनी संवेदनशीलता के कारण पनपी समानुभूति के वशीभूत होकर उस इंसान के और भी क़रीब चली गयी है .. उसके रोने की वज़ह जानने के लिए तो .. अचानक ही चिहुंक कर बोल पड़ी है ..

रेशमा - " अरे !! .. अरे मन्टू भईया ! .. ये तो माखन चच्चा ("पुंश्चली .. (७)") हैं .. "

मन्टू - " हाँ .. हाँ .. ये तो .. " 

माखन चच्चा के एक कँधे पर आहिस्ता से अपनी एक हथेली रखते हुए, उनसे दयाभाव के साथ मन्टू पूछ रहा है - 

मन्टू - " क्या हुआ माखन चच्चा ? .. आपके मंगड़ा का कोई फैसला आया है क्या ? .."

रेशमा माखन चच्चा के उत्तर के लिए उन्हीं की ओर अपनी नज़रें टिकायी हुई है। रेशमा और मन्टू .. दोनों ही पहचान चुके हैं, कि ये वही माखन चच्चा ही हैं, जो .. रसिक चाय दुकान पर अक़्सर असगर के साथ सुबह-सुबह मुहल्ले के वक़ील साहब और उनके पेशकार से आकर मिला करते थे .. विशेषकर .. कचहरी में उनके गूँगे बेटे- मंगड़ा पर चल रहे 'केस' की सुनवाई होने वाले दिन। 

'केस' तो .. आपको याद ही होगा .. शायद ... कि .. माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर .. गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के साथ-साथ उसकी हत्या के आरोप में कुछ महीने से ये 'केस' चल रहा है। जिसके मकड़जाल में माखन की झोपड़ी और झोपड़ी भर ज़मीन तक बंधक है सरपंच के पास। अगर ये जमीन बंधक नहीं होती तो .. उसको बेचकर कुछ और रुपया हासिल किया जा सकता था, जिसे वह इस 'केस' के अलाव में झोंक सकता .. जिसकी आग से वक़ील साहब के साथ-साथ इस 'केस' से जुड़े सारे लोगों को और भी सुखद ताप मिल पाता और माखन को अपने एकलौते बेटे के बचने की और भी उम्मीद बढ़ जाती।

मंगड़ा भले ही गूँगा है, पर जेल जाने से पहले तक सरपंच के खेतों या घर में खट कर अपने बाबू जी (माखन) और माय (माँ) के साथ-साथ अपने लिए कुछ-कुछ उपार्जन कर ही लेता था। कभी बासी खाना, कभी मालिक लोगों के घर के सदस्यों के उतरन कपड़े, चप्पल और कभी-कभी तो बिल्ली द्वारा मुँह लगाए हुए दूध या दूध से बने व्यंजन भी मिल जाया करता था। कभी कोई तीज-त्योहार या पारिवारिक काज-परोजन होने पर और ऐसे मौकों पर आये मेहमानों से नेग के नाम पर कुछ नक़दी की भी प्राप्ति हो जाया करती थी .. जो ज़रूरत पड़ने पर मंगड़ा की माय की बीमारी में लग जाता था। 

मन्टू के पूछने पर .. माखन पासवान कुछ दूरी पर खड़े वक़ील साहब और उनके पेशकार की ओर इशारा करते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं।

माखन चच्चा - " सब हाकिम लोग कह रहे हैं .. कि आज .. हमरे (हमारे) मंगड़ा के 'केस' की आख़िरी सुनवाई है बेटा .." - और भी ज्यादा रुआँसा होते हुए - " पर उसके बचने की उम्मीद नहीं है .. हम अपना बेटा खो देंगे आज .. एकलौता सहारा हमसे छीन जाएगा .. "

मन्टू उसके दोनों कंधों पर अपनी दोनों हथेलियों से दबाव बनाते हुए अपनी ओर से ढाढ़स बंधाने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में माखन और भी जोर से हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा है। मानो रेत की भीत को सहारे के वास्ते जितनी ही टेक लगायी जाए, तो वह और भी उतनी ही ज्यादा तेजी से सरक कर जमींदोज़ हो जाती है।

माखन नाउम्मीदी में कहने के लिए तो हाकिम लोगों की कही बातों को दुहराते हुए विलाप कर तो रहा है, पर उसके मन एक कोने में अभी भी उम्मीद का एक कतरा बचा हुआ है। उसे लग रहा है, कि जिस दिन वो सब कांड हुआ था, उस दिन तो मंगड़ा अपनी झोपड़ी में ही अपनी टुटही खाट पर लगभग हफ़्ता भर से मलेरिया बुखार से बेसुध होकर पड़ा हुआ था। उसको उसी हालत में 'पुलिस' अगले दिन उठा कर ले गयी थी। कराहते हुए वह उनके पँजों के चंगुल में घिसटाता हुआ झोपड़ी से जीप तक और जीप से हाजत तक गया था। माखन को अपने गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे वाले शिलाखंड, जिसे गाँव वाले "पीपरहवा बाबा" कहते हैं, पर भरोसा है। उसने और उसकी मेहरारू ने "पीर साहेब" के मज़ार पर भी जाकर मनता (मन्नत) मान रखी है। साथ में श्मशान वाली "मसान माई" के पैर के आगे उसके स्वयं के और साथ में अपनी घरवाली के गिड़गिड़ाये जाने पर भी भरोसा है, कि "मसान माई" अवश्य ही उसकी सहायता करेंगी। वैसे भी तो .. वह इस बात से आश्वस्त है, कि मंगड़ा निर्दोष है, तो "ऊपर वाले" की कृपा तो उसके और उसके बेटे के ही तो पक्ष में होगी ना ...

परन्तु .. उस अनपढ़ ग़रीब को कहाँ मालूम है भला कि .. तारीख़ों की आँच पर दलीलों की देगची में फ़ैसले की पकी हुई जो खीर आज परोसी जानी है, वो किसी के लिए मीठी तो .. किसी के लिए कड़वी व ज़हरीली भी हो सकती है और ये सब भुगतान किए गए वक़ील के अलावा जज, कचहरी, क़ानून, बनावटी सबूत, खरीदे गए गवाहों के मकड़जाल के सहयोग से तैयार होती हैं, जिनका वास्तविकता से कोई सारोकार नहीं होता .. शायद ...

रेशमा की तो मानो भूख ही छूमंतर हो गयी है इस समय इस कारुणिक दृश्य से। अब वह मन्टू से आज आगे ना जाने के लिए विचार कर रही है। 

रेशमा - " कमाना-खाना तो रोज ही लगा रहता है मन्टू भईया .. पर किसी भी कमजोर-असहाय को बुरे वक्त में अपना क़ीमती समय जरूर देना चाहिए। ऐसा करके हम सामने वाले को नैतिक आलम्बन देने का एक अच्छा काम करते हैं .. है कि नहीं ? .. "

मन्टू - " चलो .. ऐसा ही करते है, पर अभी तो सुनवाई में काफ़ी समय है। तब तक कुछ खा लेते हैं और अगर इतनी ही समानुभूति भाव है माखन चच्चा के प्रति तो .. "

रेशमा - " तो क्या ? .. तो .. इनको भी ले चलते हैं। इनको भी कुछ खिला-पीला देते हैं। .. विपत्ति कैसी भी हो, पर पेट की आग को तो बुझानी ही होती है। " - माखन चच्चा को सम्बोधित करते हुए - " चलिए चच्चा .. अभी सुनवाई होने में काफ़ी समय है। तब तक हमलोगों के साथ कुछ खा लीजिए। "

मन्टू - " चिन्ता मत कीजिए .. ऊपर वाले पर भरोसा रखिए .. आप तो लग रहा है, कि . कई दिनों से कुछ भी खाए-पीये नहीं है .."

माखन चच्चा - " कैसे मुँह में कुछ जाएगा बेटा, जब मुँह का निवाला आँखों के सामने ही गलत दोष मढ़ कर छीना जा रहा हो .. "

अब रेशमा और मन्टू के साथ-साथ माखन पासवान भी बेवकूफ़ होटल की ओर जा रहे हैं। इनके यहाँ से जाने के साथ-साथ यहाँ की उपस्थित भीड़ भी छंटने लगी है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, February 22, 2024

पुंश्चली .. (३३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

सार्वजनिक स्थलों पर इनके निषेध के अधिनियम बने होने के बावज़ूद भी ख़ाकी-खादी वाले या काले कोट वाले लोग भी कचहरी जैसे सार्वजनिक स्थलों पर इस अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाते दिख ही जाते हैं .. इसके कारण .. हमारे और आपके जैसे कुशल नागरिक की जागरूकता ही है .. शायद ...  

गतांक के आगे :-

ख़ैर ! .. इन उपरोक्त चर्चा का कोई महत्व नहीं रह जाता, जब इन बातों का रंग .. किसी भी बुद्धिजीवी वयस्क नागरिक की मानसिक पटल पर मानो .. किसी मोमजामा पर पड़ कर भी उस रंग से असरहीन ही रहने जैसा हो तो .. शायद ... 

परन्तु .. कुछेक नन्हीं-सी पर .. तीव्र .. आशा की किरणें .. मन-मस्तिष्क के एक कोने में कुलबुलाती-सी या फिर .. यूँ कहें कि .. छटपटाती-सी बेंधती रहती हैं अक़्सर .. ठीक किसी उत्तल लेंस से होकर गुजरने वाली सूर्य की सामान्य किरणों की तरह, जिसमें .. किसी कागज के टुकड़े को जलाने की क्षमता होती है या फिर बिहार के उस दशरथ माँझी की सकारात्मक सोच की तरह .. जिसकी बदौलत .. वह बिहार के गया जिला में अपने गहलौर गाँव वाले दुर्गम पहाड़ के दर्रे में अपनी धर्मपत्नी- फाल्गुनी देवी के गिर कर दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद .. इलाज के अभाव में असामयिक मृत्यु हो जाने पर .. उन्हीं दिवंगत धर्मपत्नी को ध्यान में धरते हुए उस दुर्गम पहाड़ को केवल एक हथौड़ा और छेनी से काट कर अपने गाँव के लोगों को सुगम रास्ते से होकर शहरी सुविधाओं के नज़दीक ला दिए थे।

मन्टू और रेशमा की "बेवकूफ़ होटल" के लिए की गयी विनोदपूर्ण तुकबंदी- "जहाँ है क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम, हम 'मिडल क्लास' वालों के लिए 'फाइव स्टार' से जो है नहीं कम" के मध्य ही अचानक चुलबुली हेमा और रमा आपस में फुसफुसा कर बात कर रही हैं।

हेमा - " अगर आज वृहष्पतिवार नहीं होता तो .. मैं तो आज इस शाकाहारी होटल में ना खाकर रहमान चच्चा के होटल का मुर्गा बिरयानी खाती .."

रमा - " एकदम मेरे मन का बात बोली तुम तो .. "

इन दोनों के फुसफुसा कर आपस में बातें करने पर भी रेशमा सुन ली है।

रेशमा - " ये वृहष्पतिवार और मंगलवार को 'नॉन वेज' नहीं खाने के आडम्बर क्यों करती हो आप दोनों ? .. खाना है तो सालों भर खाओ वर्ना .. किसी भी दिन मत खाओ .. "

मन्टू - " सही मायने में तो .. ये सब इंसानों की चोंचलेबाजी भर हैं। "

रेशमा - " इंसानों की फ़ितरत तो बस पूछिए ही नहीं आप .. जो इंसान .. अपने किसी नजदीकी से नजदीकी रिश्तेदार की साँसें थमते ही .. उनके मृत शरीर को घर से बाहर का रास्ता दिखाते हुए .. या तो श्मशान में दाह संस्कार कर देते हैं या फिर क़ब्रिस्तान में दफ़ना देते हैं, वो .. वही लोग बाज़ारों से अपने ग्रास के लिए बड़े ही चाव से किसी पक्षी या पशु के मृत शरीर के टुकड़ों को अपने घर के रसोईघर तक ले आते हैं और .."

मन्टू - " और क्या ? .. पशु-पक्षी के उस मुर्दे शरीर के टुकड़ों में तेल-मसालों के लेप लगाकर पकाते भी हैं और उदरग्रस्त भी करते हैं। "

रेशमा - " इंसानों ने अपनी सेहत से परे अपने निरर्थक स्वाद के लिए किसी भी निरीह प्राणी की हत्या करने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करते हैं। " 

मन्टू - " यहाँ तक कि तथाकथित भगवान-अल्लाह के नाम पर भी बलि-क़ुर्बानी करने की मनगढ़ंत ढोंग करते हैं ये लोग .. "

रेशमा - " उस पर भी .. हलाल और झटके जैसी नफ़ासत के क़सीदे पढ़ते नज़र आते हैं .. ये बेमुरव्वत लोग .. "

मन्टू - " ये अंग्रेजी डॉक्टर लोग भी ताक़त के लिए 'नॉन वेज' खाने की सलाह देते रहते हैं .. "

रेशमा - " मतलब .. जितने भी शाकाहारी लोग हैं इस धरती के  .. वो सभी कमजोर और बीमार होते होंगे .. है ना ?

मन्टू - " सब बेकार की बातें हैं .. "

रेशमा - " छोड़िए भी .. बेकार की बातों को .. बेकार लोगों के लिए और .. चलिए अपने पसंदीदा "बेवकूफ़ होटल" में शुद्ध शाकाहारी भोजन करने .. "

मन्टू - " इस होटल की एक और ख़ास बात पर गौर की हो कभी ? "

रेशमा - " क्या ? "

मन्टू - " इस होटल में ना तो कहीं पर किसी भगवान की तस्वीर या मूर्ति रखी हुई और ना ऊर्दू में लिखे कोई हदीस या ईसा मसीह के कोई निशान और ना ही गुरुनानक जी की कोई तस्वीर .."

रेशमा - " अच्छा .. हाँ .. केवल प्राकृतिक दृश्यों वाली तस्वीरों से होटल सजा हुआ है .. है ना ? "

मन्टू - " हाँ .. मतलब इसको हम धर्मनिरपेक्ष होटल कह सकते हैं .."

मन्टू की इस चुटीली बात से सभी हँसने लगे हैं। इस तरह बातों-बातों में सभी होटल तक आ गए हैं। रेशमा 'काउंटर' के पास जाकर सभी के खाने का 'आर्डर' दे रही है।

रेशमा - " भईया  सभी के लिए एक-एक थाली खाना लगवा दीजिए जल्दी से .."

बाकी लोग खाली जगह देखकर सुविधानुसार स्थान ग्रहण कर रहे हैं। अभी रेशमा और मन्टू 'वाश बेसिन' में हाथ धो ही रहे हैं, तब तक होटल से बाहर .. कचहरी प्रांगण में किसी के कुहंक-कुहंक कर रोने की आवाज़ के साथ-साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनायी देने लग गयी है। रेशमा सब को बैठने का इशारा कर के शोर की ओर बढ़ चली है। पीछे से मन्टू भी, कि .. आख़िर हो क्या गया है अचानक से ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Monday, February 19, 2024

रति-निष्पत्ति के पड़ाव पर ...

ऐ कवि ! ..

कवि हृदय प्रेमी ! ..

यूँ रचते तो हो जब-तब,

जब कभी भी, कुछ भी,

श्रृंगार के नाम पर .. तो ..

यूँ रचते तो हो तुम

कभी मेरे नैनों को, 

काजल को, भवों को,

होंठों को, अधरों को, 

हँसी को, गालों को, 

अलकों को, गजरों को अक़्सर .. शायद ...


आते ही पास खो जाते हो 

पर इन सब से परे, 

फिसलते हुए 

मेरी ग्रीवा से हो कर ..

मेरी नलकिनी में, प्रलम्बों में 

रतिमंदिर में, नितम्बों में,

और होती है ... 

कामातिरेक में सम्पन्न 

श्वसन-स्पंदन की हमारी

आरोह से अवरोह तक की यात्रा

आकर रति-निष्पत्ति के पड़ाव पर .. शायद ...


रति, रति-निष्पत्ति ही तो हैं 

वज़ह हमारे पुरखों की,

भावी पीढ़ी की और

हमारी भी उत्पत्ति की।

फिर भला क्यों इस तरह ? ...

झूठे छलावे में जीते हो तुम,

हे प्रिये ! .. पारदर्शी बनो, 

स्वच्छ पानी की तरह।

पढ़ ली है बहुत तुमने अब तक 

तुलसी, कबीर, सूर, रहीम, रसखान, 

तनिक कर भी दो ना नज़र वात्स्यायन पर .. बस यूँ ही ...


Thursday, February 15, 2024

पुंश्चली .. (३२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३१)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मन्टू - " इतना ही नहीं .. वैसे शहरों की तो ...संस्कृति में भी प्रवासित लोगों के कारण बहुत हद तक सकारात्मक रूप से इंद्रधनुषी बदलाव देखने के लिए मिलते है .. है कि नहीं ? "

गतांक के आगे :-

रेशमा - " हाँ .. जिन शहरों के कल-कारखानों में काम करने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों से लोग आते हैं, तो उनके सामानों और साँसों के साथ-साथ उनकी सभ्यता-संस्कृति भी चिपकी-घुली चली आती हैं, जैसे मधुमक्खियों के साथ फूलों से उनके छत्तों तक मधु के साथ-साथ उनसे चिपके मधुमक्खी पराग (Bee Pollen) भी चले आते हैं .."

मन्टू - " ऐसे शहरों में सुबह के नाश्ते के लिए कहीं इडली-डोसा, कहीं पूड़ी-जलेबी, तो कहीं पोहा-जलेबी .."

रेशमा - " तो कहीं छोले-भटूरे, कहीं समोसा-चटनी, कहीं-कहीं तो लिट्टी-चोखा भी .. मतलब .. देश के किसी भी क्षेत्र से आया हुआ आदमी अपने राज्य के व्यंजनों की कमी महसूस नहीं कर सकता है .."

मन्टू - " ऐसे में .. वहाँ के मूल निवासियों को भी इतने सारे व्यंजनों को चखने के विकल्प मिल जाते हैं .."

रेशमा - " इसी तरह अलग-अलग परिधानों के भी विकल्प देखने-जानने और पहनने के लिए भी मिलते हैं। जिनको कई भाषाओं को सीखने-जानने की अभिरुचि होती है .. उनके लिए तो जैसे सुनहरा मौका ही उपलब्ध हो जाता है .."

मन्टू - " कल-कारखाने वाले ही क्यों .. जिन शहरों में देश या विदेश के कोने-कोने से सालों भर पर्यटक लोग आते हैं, उन शहरों में भी कुछ ऐसे ही परिदृश्य देखने के लिए मिलते हैं .. "

रेशमा - " पर .. एक और बात गौर किए हैं मन्टू भईया कि .. विविध फूलों की पंखुड़ियों के रंग और उनकी गंध भले ही अनेकों प्रकार के होते हैं , पर उनके परागों के रंग प्रायः .. पीले ही होते हैं .. "

मन्टू - " अच्छा ! .. वैसे तो हमने गौर नहीं किया है .. पर क्यों ? .."

रेशमा - " दरअसल .. ठीक वैसे ही .. हमारे खान-पान, पहनावे, भाषा, रीति रिवाज भले ही अलग-अलग हों, पर हम सभी के सीने में दिल एक-सा ही धड़कता है .. है ना ? " 

मन्टू - " हाँ .. चाहे हमारी चमड़ी के रंग गोरे हों या काले या फिर अन्य किसी रंग के .." 

रेशमा - " फिर .. विदेशों की बात को अगर छोड़ भी दें, तो .. अपने ही देश में कई राज्यों के लोग मूल निवासी भू कानून की आवाज़ क्यों उठाते हैं भला ? .."

मन्टू - " इससे .. ऐसा नहीं लगता कि .. हम आज भी पहले की तरह कई छोटे-छोटे रियासतों में बँटे हुए हैं ? .."

रेशमा - " ले लोट्टा !! .. हमारे साथ गप्पें मारते-मारते .. आप कचहरी से आगे निकल आए मन्टू भईया .. "

मन्टू - " ज्जा !! .. हमको तो कचहरी प्रांगण में जाने के लिए और पहले ही 'लेफ्ट टर्न' ले लेना था .. अब तो आगे से 'यू टर्न' लेने के लिए दो किलोमीटर आगे जाकर वापस आना पड़ेगा  हमलोगों को .. "

रेशमा - " अब सोचना क्या है .. भूल हुई है तो .. सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी ना .. आगे तक के बने 'डिवाइडर' को तो पार करना ही पड़ेगा जी .. "

मन्टू - " कोई ना जी .. पर आज खाना तो है कचहरी के प्रांगण वाले "बेवकूफ़ होटल" में ही .. "

रेशमा - " हाँ ! .. क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम .."

मन्टू और रेशमा के साथ उसकी पूरी टोली हाँ में हाँ मिला कर ठहाके लगा के हँसते हुए रेशमा के बोले आख़िरी शब्द "दम" में सुर मिलाते हुए समवेत स्वर में गाने लगी है - " दमादम मस्त कलंदर ~ अली दा पैला नम्बर ~ हो लाल मेरी ~  हो लाल मेरी ~~.. "

यूँ ही चुटकी लेते हुए सभी को चुप कराने के उद्देश्य से ..

मन्टू - " बस-बस ! .. अब रुक भी जाओ आप सब, वर्ना .. 'ट्रैफिक पुलिस' चालान काट देगी .."

अब तक मन्टू की टोटो गाड़ी उस चौक तक पहुँच चुकी है, जहाँ से उसे कचहरी प्रांगण में जाने हेतु 'यू टर्न' लेना है। उसके बाद फिर से लगभग दो किलोमीटर और भी गाड़ी चला कर मन्टू अपने अगले गंतव्य पर पहुँचने वाला है।

रेशमा - " जब जितनी उन्नति होती है, उतनी ही कठिनाईयाँ भी बढ़ जाती हैं .."

मन्टू - " तुम्हारा मतलब .. शायद इन बने नए 'डिवाइडरों' से है .. है ना ? .. पर ये भी तो सोचो कि .. कुछ कठिनाईयों को झेलने से अगर हमारी सुरक्षा बढ़ जाती है, तो फिर .. ऐसी कठिनाईयों को झेल कर तो .. हमलोगों को खुश ही होना चाहिए .. नहीं क्या ? .."

रेशमा - " वो तो है .. पर यहाँ तो लोगों को शहर में चौड़ी सड़कों वाली तरक्क़ी भी चाहिए और .. दूसरी ओर सड़क चौड़ीकरण के लिए पेड़ों के कटने पर कार्यरत सरकार के विरुद्ध नारे लगाने के अवसर से कभी भी .. तनिक भी नहीं चूकते हैं .."

अब वापस से कचहरी के मुख्य द्वार के सामने वाले चौक से कचहरी प्रांगण में मन्टू अपनी टोटो गाड़ी को प्रवेश करा रहा है।

मन्टू - " लो जी आ गया .. अब कुछ ही देर में आप सभी का पसंदीदा "बेवकूफ़ होटल" .. जहाँ है .. क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम .. "

मन्टू की बात पर चुटकी लेते हुए रेशमा की तुकबंदी ..

रेशमा - " हम 'मिडल क्लास' वालों के लिए 'फाइव स्टार' से जो है नहीं कम .. "

सर्वविदित है, कि कोर्ट-कचहरी को अगर विशुद्ध हिंदी में बोलें तो .. न्यायालय ही कहते हैं .. जहाँ कथित तौर पर तो .. आम व ख़ास .. दोनों के लिए समान न्याय मिलते हैं .. पर .. सत्यता .. जिसे हर वयस्क इंसान जाने या ना भी जाने तो ..  कम से कम भुक्तभोगी तो इसकी कड़वी सच्चाई से पूर्णतः अवगत होता है। 

सुबह .. मतलब .. लगभग ग्यारह बजने वाला ही है। अभी कचहरी का पूरा प्रांगण एक बाज़ार में तब्दील है। प्रत्यक्ष रूप से भी .. परोक्ष रूप से भी .. शायद ...

कहीं झाल्मूढ़ी वाले तार सप्तक में अपना सुर अलाप रहें हैं, कहीं चना जोर गरम वाले अपनी सतही तुकबंदी की धुन से अपने ग्राहक लोगों को लुभाने में लगे हैं .. तो कहीं खोमचे पर मूँगफली की ढेर सजाए .. ताजा-ताजा मसालेदार नमक की पुड़िया बनाता हुआ विक्रेता अलग ही मंद्र सप्तक वाले सुर में "चिनिया बदाम ले लो, टैम पास ले लो" बोल-बोल कर ध्यान आकर्षित कर रहा है। 

एक तरफ कटे हुए मौसमी फलों से सजे ठेले के पीछे खड़ा फेरीवाला सभी को सेहत की राज बतलाते हुए 'फ्रूट सलाद' बेच रहा है। एक तरफ ठंडा फल, तो .. दूसरी तरफ गर्मा-गर्म 'ब्रेड' पकौड़ा, 'भेज' पकौड़ी, कचड़ी आदि से सजे ठेले पर एक तरफ जलते चूल्हे पर लोहे की कढ़ाही में छनती ताज़ी गर्म पकौड़ियाँ .. इसे बेचने वाले को आवाज़ नहीं लगानी पड़ रही, क्योंकि गर्म तेल में छनती पकौड़ियों की सोंधी-सोंधी सुगंध ही पर्याप्त है .. चटोरे ग्राहकों को ठेले तक खींच लाने के लिए .. जो कुछ तो अपनी पत्नी के मायके जाने के कारण या कुछ कुँवारे होने के कारण या फिर कुछ अपनी धर्मपत्नी से झगड़ा होने के कारण .. घर से खाली पेट आने की वजह से भी अपनी भूख और चटोरापन .. दोनों ही को इन पकौड़े-पकौड़ियों से शान्त करते हैं। 

ठीक इसके बगल में ही चाय की दुकान है .. जैसे कहते हैं ना कि .. सोने पे सुहागा। अगर मशहूर नमकीन के दुकान के बगल में अच्छी 'क्वालिटी' की चाय की दुकान हो, तब तो उसे भी ग्राहकों के लिए आवाज़ नहीं लगानी पड़ती है। ठीक वैसे ही .. जैसे .. अमूमन देशी शराब के ठेके के या फिर तथाकथित अंग्रेजी शराब की दुकानों के आसपास चखने की दुकान वालों को अपनी-अपनी दुकानों के लिए एक 'बैनर' या 'बोर्ड' तक लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती .. शराब के दुकान से ही इनकी दुकानें चलती रहती हैं, बल्कि यूँ कहें कि दिन-रात दौड़ती रहती हैं।

अभी यहाँ किसी मांसाहारी होटल में मरी मछलियों के टुकड़े "छन्-छन्" की आवाज़ के साथ तले जा रहे हैं या कहीं लोहे की कढ़ाही में बकरे (या बकरी) के गोश्त खदक रहे हैं, तो .. कहीं शाकाहारी होटल में पापड़ के टुकड़े तले जा रहे हैं या प्याज-मूली के सलाद काटे जा रहे हैं .. लकड़ी की चौकी पर .. "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ .. 

साथ ही इस "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ-साथ जुगलबंदी करती एक और "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ आ रही है .. 'टाइप राइटर मशीन' की .. जो अब आधुनिक वैज्ञानिक युग में एक लुप्तप्राय वस्तु बन गया है .. नहीं क्या ?

वैसे भी .. ना जाने कब कौन लुप्तप्राय हो जाए या ना जाने अगले पल कौन लुप्त हो जाए .. कहना कठिन है, क्योंकि कई सालों पहले तक बचपन-युवावस्था तक दिखने वाले श्मशानों के आसपास बैठे-मंडराते गिद्ध .. मालूम नहीं कब लुप्तप्राय हो गए .. वो तो पक्का पता तब चला, जब एक बार सपरिवार चिड़ियाघर घूमने जाने के दौरान .. वहाँ इसके एक जोड़े को बाड़ों के पीछे देखा। तब तो इस बात पर पक्की मुहर लग गयी, कि गिद्ध लुप्तप्राय प्राणी हो गए हैं। ठीक इस 'टाइप राइटर मशीन' की तरह जो अब केवल कचहरी में "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ दिख जाते हैं या फिर कभी कभार पारंपरिक सामानों वाली दुकानों में या चोर बाज़ारों में भी बिकने के लिए मौन पड़े दिख पाते हैं।

अभी रोज की तरह कचहरी प्रांगण में तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी स्वतन्त्र भारत में अंग्रेजियत से सराबोर काले 'कोट' और ख़ाकी वर्दी धारण किये वक़ील साहब और सिपाही जी नामक जीवित प्राणी भी इधर से उधर, उधर से इधर आते-जाते दिख रहे हैं। पेशकार, वादी-प्रतिवादी भी दिख रहे हैं। कुछ क्षीणकाय ग़रीब प्रतिवादी, तो कुछ चपर-चपर गुटखे चबाते तोंदिले धनी वादी भी दिख रहे हैं। 

गुटखे का क्या है साहिब .. गुटखे हों या धूम्रपान .. सार्वजनिक स्थलों पर इनके निषेध के अधिनियम बने होने के बावज़ूद भी ख़ाकी-खादी वाले या काले कोट वाले लोग भी कचहरी जैसे सार्वजनिक स्थलों पर इस अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाते दिख ही जाते हैं .. इसके कारण .. हमारे और आपके जैसे कुशल नागरिक की जागरूकता ही है .. शायद ...  

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, February 8, 2024

पुंश्चली .. (३१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- 
"पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३०)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा और उसकी टोली की सभी किन्नरों के मन्टू की टोटो गाड़ी में बैठते ही, मन्टू दूसरे 'नर्सिंग होम' की ओर तेजी से बढ़ चला है ...

गतांक के आगे :-

जैसा कि गतांक में हमलोगों ने देखा था, कि मन्टू को अपनी विपत्ति या दुःख-परेशानी को ज्यादा विस्तारित कर के .. मने .. बढ़ा-चढ़ा के किसी भी अपने या पराए के समक्ष परोस कर, उसके बदले में सहानुभूति पाकर आत्मसुख पाने की आदत नहीं है या यूँ कहें कि अपने दुःख से किसी को भी परेशान करने की या उस दुःख में शामिल करने की भी आदत नहीं रही है उसकी।

इसीलिए अभी के चिंताजनक माहौल से सभी का ध्यान भटकाने के लिए ही अभी-अभी .. उसने अपनी टोटो गाड़ी में 'एफ़ एम्' चालू कर दिया है। इस पर अभी कार्यक्रम - "आपकी फ़रमाइश" का प्रसारण चल रहा है और कुछ संगीत-गीत प्रेमियों की फ़रमाइश पर फ़िल्म- "आशिक़ी-२" का गाना .. अरिजीत सिंह द्वारा गाया हुआ .. उनका पहला लोकप्रिय फ़िल्मी गाना बज रहा है - "हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते ~ तेरे बिना क्या वजूद मेरा ~ तुझसे जुदा गर हो जाएंगे तो ~ ख़ुद से ही हो जाएंगे जुदा ~ क्यूँकि तुम ही हो ~ अब तुम ही हो ~ ज़िन्दगी अब तुम ही हो ~ चैन भी ~ मेरा दर्द भी ~ मेरी आशिक़ी अब तुम ही हो ~"

'एफ़ एम्' के चालू होते ही टोटो का बोझिल-सा माहौल अब परिवर्तित हो चुका है। चल रहे गाने की लय-धुन और 'लिरिक्स' पर मन्टू और रेशमा को छोड़ कर .. उसकी टोली की लगभग सारी सदस्याओं की प्रतिक्रियाएँ परिलक्षित हो रही है .. रेशमा को भी और कुछ-कुछ मन्टू को भी .. 'रियर मिरर' से .. रमा और सुषमा मद्धिम-मद्धिम गुनगुना रही हैं .. रेखा व जया अपनी-अपनी बायीं हथेली को अर्द्धमुट्ठी-सी मोड़कर कर .. उसकी मुड़ी हुई तर्जनी व मध्यमा के मध्य वाले रिक्त स्थान पर अपनी दायीं तर्जनी की थपकी दे-देकर .. बजते हुए गाने की धुन का साथ दे रही हैं .. जिससे आवाज़ तो यूँ कम निकल पा रही है, मानो .. प्रायः जब कभी प्रसिद्ध लोग किसी समारोह में शालिनता के साथ अपने अंदाज़ में कुछ इस तरह ताली बजाते हैं, कि .. आवाज़ तो नहीं निकलती, पर .. उनकी भाव भंगिमा से ही लोगबाग़ को सब समझना पड़ता है। हेमा बिना आवाज़ निकाले .. किसी 'लिप्सिंग' करते कलाकार की तरह केवल अपने होठों को हिलाने के साथ-साथ चेहरे पर 'लिरिक्स' के अनुसार भाव भी लाने का प्रयास कर रही है। साथ ही गर्दन की लचक के सहारे गाने की धुन पर अपनी मुंडी भी हिला रही है। फलस्वरूप .. मन्टू 'ड्राइविंग' करते हुए .. बीच-बीच में .. अपनी टोटो के 'रियर मिरर' से हेमा के दोनों कानों में लटके झुमकों का लयबद्ध हिलना स्पष्ट रूप से देख पा रहा है।  

उसे इस बात का संतोष हो रहा है, कि उसके 'एफ़ एम्' चालू करने भर से .. कुछ देर पहले तक के उसके निजी ऊहापोह से ऊपजी सभी की उदासी व मायूसी .. यूँ ही चुटकी में तिरोहित हो गयी है। ये सोच कर उसके चेहरे पर एक संतोष भरी मुस्कान अचानक मानो ..  किसी बाग़ में घुस आयी किसी तितली की तरह तारी हो गयी है।

सच में .. गीत-संगीत और उसके बोल-शब्दों में एक अदृश्य चुम्बकीय सम्मोहन होता है, जो मन को अपनी तरावट से सींचने का काम करता है, मानो .. किसी तेलहन के सूखे बीजों में छुपे हुए अदृश्य तेल .. जो स्निग्‍धकारी स्नेहक बन कर तरावट प्रदान करते हैं। यूँ तो वैज्ञानिक शोधों से यह भी सिद्ध हो चुका है, कि संगीत के प्रभाव से गाय के दूध देने की क्षमता के साथ-साथ खेतों में खड़ी हरी-भरी फ़सलों की पैदावार भी बढ़ जाती हैं। स्वाभाविक है कि ..पशुओं-पादपों पर असरकारी संगीत, उन सभी से भी कहीं ज्यादा ही .. बुद्धिजीवी और संवेदनशील प्राणी- इंसानों पर असर क्यों नहीं दिखलाएगा भला !? .. बल्कि इसी संगीत पर लगी पाबंदी से ही, संगीत की कमी के कारणवश आतंकी मनःस्थिति के साथ-साथ .. आतंकी सोच, आतंकी समूह, आतंकी संगठन, आतंकी राजतंत्र, आतंकी विनाश की उत्पत्ति होती होगी .. शायद ...

इसी बीच गाने की आवाज़ के शोर के कारण .. रेशमा लगभग चिल्लाते हुए मन्टू से मनुहार कर रही है।

रेशमा - " काम-धंधे की तरह तनिक पेट-पूजा का भी ख़्याल रखिएगा मन्टू भईया .."

मन्टू - " हाँ, हाँ .. जरूर .. पर कहाँ करना है नाश्ता .. बतलाओ भी तो .."

रेशमा - " अभी तो हमलोग "मातृ सदन नर्सिंग होम" की ही ओर चल रहे हैं ना ? "

मन्टू - " हाँ .. तो ? "

रेशमा - " तो क्या ? .. रास्ते में कचहरी होते हुए ही तो गुजरना होगा ना ? .. वहीं पर कुछ खा लेंगे .."

मन्टू - " हाँ .. हाँ .. सही कह रही हो तुम .. वहाँ अच्छा ही मिलेगा .. ताजा और किफ़ायती भी .. "

रेशमा - " हर बार तो हमलोग वहीं खाते हैं सुबह में .. फिर आप भूल क्यों जाते हैं ? "

मन्टू - " तुम ही तो कभी 'चाइनीज' तो .. कभी 'साऊथ इंडियन' .. तो कभी 'रॉल' खाने के लिए इधर-उधर ले जाती हो तो .. पूछना पड़ता है हमको। "

रेशमा - " अच्छा !! .."

मन्टू - " और नहीं तो क्या ? .. हम अपने मन से कहीं भी टोटो रोक कर .. तुम्हारे मन को तोड़ना नहीं चाहते .. तुम मेरी ग्राहक हो ना ! .. तो ख़्याल रखना पड़ता है .. तुम्हारी ख़ुशी में ही तो हम सभी की ख़ुशी है रेशमा .."

रेशमा - " सो तो है .. पर हम कचहरी के पास खाने के लिए रुक कर गलत तो नहीं कर रहे ना मन्टू भईया ? "

मन्टू - " अरे ना, ना .. हम जैसे 'मिडिल क्लास' लोगों के लिए तो किसी भी शहर की कचहरी के प्राँगण में या उसके आसपास के होटलों में ही अच्छा नाश्ता, अच्छा दोपहर का भोजन, अच्छी मिठाईयाँ और अच्छी चाय भी मिलती है और सभी कुछ ताज़ी व किफ़ायती भी .. "

रेशमा - " सही बोल रहे हैं आप, आप ही से तो ये सब सीखे हैं हम .."

मन्टू - " और जब कभी भी शहर से बाहर जाना पड़े तो  .. किसी 'हाईवे' पर 'रोड' के किनारे स्थित उस ढाबे का खाना पक्का बढ़िया होगा, जिसके आगे 'ट्रक' और 'ट्रक ड्राइवरों' की हुजूम खड़ी हो और हाँ .. वहाँ पर भी .. काफ़ी किफ़ायती भी होते उनके खाने। "

रेशमा - " बिलकुल सही .. हमने भी इसे आजमाया है.."

मन्टू - " और कहीं भी .. मतलब शहर में हो या शहर से बाहर भी .. अगर होटल या 'रेस्टोरेंट' किसी पगड़ी वाले का हो .. मने .. किसी सरदार जी का हो तो उनके खाने भी स्वादिष्ट और लाजवाब होते हैं। " 

रेशमा - " सही .. सोलह आने सच .. और .. एक बात और भी गौर किया ही होगा आपने कि .. किसी भी शहर में .. उसके कल-कारखानों में .. वहाँ अनेक राज्यों से आये हुए काम काम करने वाले प्रवासित लोगों के कारण ही शायद देश के लगभग सभी राज्यों के विभीन्न प्रकार के व्यंजनों की उपलब्धता रहती है। " 

मन्टू - " इतना ही नहीं .. वैसे शहरों की तो ...संस्कृति में भी प्रवासित लोगों के कारण बहुत हद तक सकारात्मक रूप से इंद्रधनुषी बदलाव देखने के लिए मिलते हैं .. है कि नहीं ? "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】