Sunday, January 21, 2024

राम के बहाने .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित अनूप जलोटा जी के एक लोकप्रिय भजन का प्रसंगवश सुमिरन करते हुए हम आज की अपनी बतकही की शुरुआत कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

"तेरे मन में राम, तन में राम,
तेरे मन में राम, तन में राम, रोम रोम में राम रे
राम सुमीर ले, ध्यान लगा ले, छोड़ जगत के काम रे
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम .. "

इन दिनों राम और राम मन्दिर के समर्थन व विरोध में या यूँ कहें कि पक्ष एवं विपक्ष (राजनीतिक दल वाले नहीं) के संदर्भ में चहुँओर चिल्लपों मची हुई है। जिसके फलस्वरूप उपरोक्त भजन को बारम्बार गौर से सुनने के बाद .. विशेषकर इसके मुखड़े को सुनकर, इससे जुड़ी जो पैरोडीनुमा बतकही हमारे दिमाग़ में एकबारगी कौंधी .. उसे यहाँ ज्यों का त्यों परोस रहे हैं -

तेरे मन में राम .. तन में राम .. रोम रोम में राम रे,

फिर शोर क्यों इत्ता, आएगा कौन अयोध्या धाम रे ?

बन तो जाए हर नर राम, जो हो जाए निष्काम रे,

फिर शोर क्यों इत्ता, आएगा कौन अयोध्या धाम रे ?

ख़ैर ! .. यूँ तो आज की मूल बतकही के लिए हमें इन राम और राम मन्दिर के समर्थन-विरोध वाले पचड़े में तनिक भी नहीं उलझना है .. बस यूँ ही ...
दरअसल जिन प्रतिमाओं के समक्ष आस्तिकों के सिर श्रद्धाभाव से झुकते हैं तथा उन्हें उनमें तदनुसार उनके भगवान के दर्शन होते हैं ; उन्हीं प्रतिमाओं को देखकर नास्तिकों (?) के मन में उन प्रतिमाओं को गढ़ने वाले रचनाकार के प्रति आदरभाव उपजते हैं .. शायद ...
ठीक उसी तरह जब कभी भी उपरोक्त भजन या अन्य भजन भी हम सभी आमजन भक्तिभाव से सुनते हैं, तो प्रायः ज्यादा से ज्यादा उसके गायक-गायिका के नाम को ही जानते हैं या उनकी भूरी भूरी प्रशंसा कर पाते हैं ; परन्तु उस भजन के रचनाकार को जानने का प्रयास तक नहीं करते हैं .. शायद ...
जिस तरह हम अक़्सर चमड़ी के रंग, नाक-नयन-नक़्श, पहनावा, पद, दौलत, चेहरे पर पुते सौन्दर्य प्रसाधनों की परतों, 'डिओ' की महक, केश-सज्जा की ऊपरी कसौटी पर ही किसी भी इंसान का मूल्यांकन करते हैं ; नाकि उसकी सोच, उसके विचार के आधार पर उसके मन में झाँक कर उसे आँकते हैं ; ठीक उसी प्रकार हम प्रायः किसी भी फ़िल्म का अवलोकन करते हैं या फ़िल्म के गीतों को देखते-सुनते हैं, तो केवल पर्दे के सामने वाले कलाकार को ही देख-जान पाते हैं।
परन्तु .. पर्दे के पीछे के सैकड़ों लोगों के श्रम से पूर्णतः या अंशतः अनभिज्ञ रह जाते हैं। मसलन - किसी भी फ़िल्म में नायक-नायिका के अलावा उनके सैकड़ों सह-कलाकार, लेखक, पटकथा लेखक, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार और उनके ढेर सारे साज़िंदे, गायक-गायिका, नृत्य परिकल्पक (Dance Choreographer), कलाकारों के चुनाव करने वाले निर्देशक (कास्ट डायरेक्टर / Cast Director) और उनकी 'टीम' में काम करने वाले दसों लोग, रूपकार (Make up Man), केश सज्जाकार (Hair Dresser), पोशाक रूपांकक (Dress Designer), छायाकार (Cameraman), प्रकाश संयोजक (Light man) व उनका दल और उनके भी दसों सहयोगी, निर्देशक, सह-निर्देशक, निर्माता, 'शूटिंग' के वक्त सहयोग करने वाले सैकड़ों 'स्पॉट बॉय', फ़िल्म संपादक (Film Editor), पार्श्व स्वर अंतरण करने वाले कलाकार (वॉयस ओवर आर्टिस्ट / Voice over artist) इत्यादि जैसे हजारों लोगों के मानसिक एवं शारीरिक श्रमसाध्य परिश्रम के परिणामस्वरुप ही तो हम पर्दे के सामने वाले नायक-नायिका की भूरी भूरी प्रशंसा कर पाते हैं .. शायद ...
लब्बोलुआब ये है कि जिस उपरोक्त राममय भजन के लिए हम केवल अनूप जलोटा जी को ही जानते हैं, वास्तव में उपरोक्त राममय भजन के रचनाकार हैं .. दिवंगत राजेश जौहरी जी (1952-2017), जो अपने समय के एक जानेमाने कवि, गीतकार, पटकथा लेखक, संगीतकार के साथ-साथ एक सफ़ल विज्ञापन फ़िल्म निर्माता, उद्घोषक (एंकर / Anchor) और पार्श्व स्वर अंतरण करने वाले कलाकार (वॉयस ओवर आर्टिस्ट / Voice over artist) भी थे। दरअसल अनुप्राणन (एनिमेशन / Animation) फिल्मों और हास्य-व्यंग्य (कार्टून / Cartoon) फिल्मों में या फिर एक भाषा से अन्य भाषा में पूरी फ़िल्म को 'डब' करने के लिए 'वॉयस ओवर आर्टिस्ट' ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मन से जो कलाकार होते हैं वे अमूमन जाति-धर्म और क्षेत्रवादिता के बाड़ों से मुक्त होते हैं, तभी तो ..

सुख के सब साथी, दुःख में न कोई,
सुख के सब साथी, दुःख में न कोई,
मेरे राम, मेरे राम,
तेरा नाम इक सांचा, दूजा न कोई

जैसे फ़िल्मी भजन को मोहम्मद रफ़ी साहब बेहिचक गा जाते हैं और दिलीप कुमार उर्फ़ युनूस खान "गोपी" फ़िल्म के लिए कैमरे के सामने बिना भेदभाव के लिप्यांतरण कर जाते हैं। जबकि जाति-धर्म और क्षेत्रवादिता के बाड़े में क़ैद कई लोग तो भारत माता की जय या वंदे मातरम् बोलने तक में गुरेज़ करते हैं .. शायद ...
राजेश जौहरी के पुरख़े भी यूँ तो उत्तरप्रदेश के रहने वाले थे, पर उनका जन्म राजस्थान के पिलानी में हुआ था । उनके पिता जी- डॉ ए एन जौहरी जी अंग्रेजी साहित्य के 'प्रोफेसर' और एक लेखक भी थे। उनकी माँ- चंद्रा जौहरी जी भी शिक्षित महिला थीं। कहते हैं कि उन्होंने दस साल की उम्र में ही अपनी पहली कविता लिखी थी। संगीत और साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। उनके पिता जी की दादी जी- हीरा कुँवर जी भगवान कृष्ण की स्तुति में भजन लिखती थीं और उन्हीं से उन्हें भजन लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
बतलाते हैं, कि चूँकि उनके माता-पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उन्हें भौतिकी में स्नातकोत्तर करवाया था। पर एक दिन उनके लेखन की रचनात्मकता उन्हें उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से बम्बई खींच कर (मुम्बई) ले गयी ; जहाँ तत्कालीन संगीत उद्योग से उनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होने के कारण आरंभिक दौर में उन्हें संघर्ष करना पड़ा था।
पर उन बाधाओं को अपने बूते पर पार कर बहुमुखी प्रतिभा के धनी राजेश जौहरी जी ने एक तरफ तो मोहम्मद रफ़ी साहब से लेकर अनूप जलोटा जी तक के लिए अनगिनत भजन लिखे थे ; तो दुसरी तरफ हरिहरन जी के गाए हुए ग़ज़लों के लोकप्रिय "हलका नशा" नामक 'एल्बम' के लिए ग़ज़लें भी लिखी थीं। इसके अलावा एक अन्य बहुत ही लोकप्रिय 'एल्बम'- अलीशा चिनॉय के "बेबी डॉल" ने भारतीय पॉप की दुनिया में उनकी एक अलग ही पहचान बनायी है। अमीन सयानी जी, जिन्हें वे उद्घोषक के रूप में अपना गुरु मानते थे, के साथ भी काम करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ था।
अपने समय के कई विज्ञापन-गीतों (Advertising Jingles) को भी अपनी आवाज़ देकर उन्होंने लोकप्रिय बनाया था। मसलन- अजंता घड़ियाँ, नेस्कैफे कॉफ़ी, वर्धमान निटिंग यार्न को 'वॉयस ओवर आर्टिस्ट' व 'एंकर' होने के नाते अपनी आवाज़ दी थी। एशियन स्काई शॉप, सीमा सुरक्षा बल और दिल्ली पुलिस के लिए कथानक गीत (Theme Song) उनके उल्लेखनीय कार्यों में शामिल हैं।
2023 में आयी फ़िल्म- "थैंक यू फॉर कमिंग" के एक गीत "परी हूं मैं" के गीतकार के रूप में भी उनकी एक अन्य उप्लब्धि है ; क्योंकि ये गीत उन्हीं के लिखे और 1991 में सुनीता राव के 'एल्बम'- "धुआं" के गाने "परी हूं मैं" का 'रीमेक' है।
उनकी धर्मपत्नी- अर्चना जौहरी भी बहुमुखी प्रतिभाशाली पटकथा लेखिका, उद्घोषिका और कवयित्री भी हैं। उनकी दो बेटियों में .. बड़ी बेटी रतिका जौहरी भी कई 'एल्बम', धारावाहिकों और फिल्मों के लिए एक गायिका के रूप में अपनी आवाज दे रही हैं तथा छोटी बेटी- राशी जौहरी भी एक उद्घोषिका, 'कोरियोग्राफर' और निर्देशक के साथ-साथ एक 'इवेंट कंपनी'- 'ज़ोडियाक इवेंट्स' की संस्थापिका भी हैं।
लब्बोलुआब ये है कि हमें और हमारी बाल व युवा पीढ़ी को भी, जो "ठंडा मतलब कोकाकोला" जैसे विज्ञापन-गीत (Advertising Jingle) को गा-गाकर लोकप्रिय बना तो देती है, पर उसके रचनाकार "प्रसून जोशी" को कम जानती है, परन्तु हमें इन महान विभूतियों के बारे में भी जानना चाहिए। हो सकता है, कि इनकी प्रेरणा से हम में से कोई राजेश जौहरी-सा बहुमुखी प्रतिभाशाली बन जाए और .. कुछ और राममय भजन रच दे .. शायद ...

फ़िलहाल तो .. आइए ! .. हम भी तथाकथित राम के रंग में रंग जाते हैं .. निम्न दोनों भजनों के साथ .. बस यूँ ही ...

बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम





Thursday, January 18, 2024

पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२७)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा भी प्रत्युत्तर में किसी उद्घोषिका के अंदाज़ में चाँद की ओर अपना रुख़ करके ...

रेशमा - " हाँ - हाँ .. ठीक है .. अब कल मिलते हैं .. एक छोटे से 'ब्रेक' के बाद .. " और फिर मन्टू की ओर मुख़ातिब होकर - " मन्टू भईया चलिए .. अब तो हमलोग भी चलें .. काफ़ी देर हो गयी है आज तो .. आपकी आज की बोहनी करवानी है .. "

गतांक के आगे :-

गतांक के आगे अपनी बतकही की अगली श्रृंखला परोसने के पहले यह स्पष्ट कर दें कि .. हालाँकि पहले भी हमारी स्वीकारोक्ति रही है कि हम एक अकुशल पाठक हैं या हम यूँ कहें कि हम पाठक हैं ही नहीं और .. ना ही अच्छा रचनाकार .. बस यूँ ही .. स्थिति-परिस्थितिवश मन में जो भी भावनाएँ .. अच्छी या बुरी भी .. पनपती हैं उसे यथास्थिति परोस भर देते हैं .. बस यूँ ही ...

परन्तु हमारे उपरोक्त अवगुणों से इतर .. यदि आप सुधीजन पाठकों / पाठिकाओं द्वारा हमारी इस बतकही वाले साप्ताहिक धारावाहिक की श्रृंखलाओं को निरन्तर तन्मयता के साथ पढ़ी गयी होगी, तो आप सभी को ज्ञात होगा ही कि .. हमारी बतकही के पात्रों में से एक- रेशमा है .. जोकि एक किन्नर है .. सात किन्नरों की गुरु, चाँद- भाड़े पर अपनी 'कार' चलाने वाला 'टैक्सी ड्राइवर', भूरा - घर-घर से कचरे एकत्रित करके शहर से दूर यथोचित तयशुदा स्थान पर निष्पादन के लिए ले जाने वाली नगर निगम की बड़ी वाली गाड़ी के पिछले हिस्से में खड़ा-खड़ा हर घर के दरवाजे पर गाड़ी रुकने पर उस घर से कचरे की पोटली या बाल्टी लेकर गीले व सूखे कचरों को अलग-अलग करने का काम साथ-साथ करता जाता है और .. साथ ही घरों से कचरे के रूप में मिले खाली और अनुपयोगी टिन के डब्बों, बोतलों, कार्टूनों को अलग एकत्रित करता जाता है .. जिसे बाद में चंदर कबाड़ी को बेच कर .. कुछ उचित ऊपरी कमाई कर लेता है। "ऊपरी कमाई" के पहले "उचित" विशेषण इसलिए चिपकाना पड़ा है, क्योंकि .. बहुधा सरकारी नौकरियों में "ऊपरी कमाई" से तात्पर्य "अनुचित कमाई" को ही समझा जाता है .. शायद ... 

वैसे तो लब्बोलुआब यही है कि भूरा एक सफाई कर्मचारी है।

इन सभी के अलावा .. मयंक और शशांक अपनी स्नातक तक की पढ़ाई अपने क्षेत्र से ही पूरी करके .. सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने हेतु यहाँ आने के बाद मोनिका भाभी के पी जी में रह कर 'कोचिंग' कर रहे हैं। हमने एक अन्य पात्र- ललन चच्चा की चर्चा तो अभी हाल ही में की थी। बाकी तो .. रसिक चाय दुकान (?) का मालिक- रसिकवा, उसी के दुकान में "बाल मजदूरी (निषेध एवं नियमन) अधिनियम, 1986" को अँगूठा दिखलाता हुआ .. काम करने वाला तेरह वर्षीय- कलुआ, मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया, शनिचरी चाची, सुधीर, रामचरितर, रामभुलावन, बुद्धनवा, रमरतिया, परबतिया,चंदर कबाड़ी, मेहता जी, सक्सेना जी, 'नर्सिंग कोर्स' करने वाली निशा, वक़ील साहब, उनकी धर्मपत्नी, पेशकार, माखन पासवान, मंगड़ा, सुगिया, असग़र अंसारी, उसकी सौतेली अम्मी और उसका बड़ा भाई, सिपाही जी, सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा व चच्ची, 'प्रोफेसर' साहब, 'स्टोरकीपर' साहब, लावारिस रेशमा का पालन-पोषण करने वाली मंजू माँ .. जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं .. मन्टू- टोटो गाड़ी चला कर जीवकोपार्जन करने वाला ड्राइवर, उसकी रज्ज़ो .. जो सबकी रजनी है, एक 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक- मेहता जी व उनकी धर्मपत्नी और पुष्पा .. परन्तु इन सभी पात्रों के बारे में विस्तारित रूप से फ़िलहाल तो हम कुछ भी बतलाने नहीं जा रहे हैं .. क्योंकि उपरोक्त सभी पात्रों के बारे में पहले के ही धारावाहिकों में विस्तारपूर्वक बतला चुके हैं हम तो .. और इन सब के अलावा .. रंजन .. जो कोरोनाकाल के दूसरे दौर में काल-कवलित हो चुका है और उसकी प्रेमविवाह वाली विधवा- अंजलि व उन दोनों का तीन वर्षीय बेटा- अमन .. जिसे सभी अम्मू कह कर बुलाते हैं .. इनके तीनों के बारे में भी तो फ़िलवक्त विशेष करके दुबारा चर्चा नहीं करनी हमको .. वैसे यदि इन सब के बारे में जानने की आपकी तनिक भी रूचि हो, तो .. इसके लिए हमारी बतकही वाले अब तक के सारे धारावाहिकों को क्रमवार पढ़ने जैसा एक उलझन भरा काम आपको शायद करना पड़ेगा .. बस यूँ ही ...

तो अब .. गतांक के आगे के परिदृश्य को निहारने के पहले .. आज प्रसंगवश ये भी बतलाना हमें आवश्यक लग रहा है, कि .. अब तक "पुंश्चली .. (१)" से लेकर "पुंश्चली .. (२७)" तक में .. आपने गौर किया होगा, कि .. अब तक के सारे के सारे धारावाहिकों के घटित घटनाक्रम .. किसी एक ही दिन की सुबह-सुबह के हैं और एक ही स्थान के भी हैं .. वो स्थान है भी तो- रसिक की चाय दुकान के ही इर्द-गिर्द के .. शायद ...

अब मन्टू अपनी हवा हवाई गाड़ी, जिसे टोटो गाड़ी या ई रिक्शा भी कहा जाता है, की ओर जा रहा है और साथ में रेशमा एवं उसकी सात किन्नरों की टोली भी। दरअसल रेशमा .. एक किन्नर होने के नाते .. अपनी टोली के साथ अभी सुबह-सुबह लगभग प्रतिदिन की भाँति मन्टू की टोटो गाड़ी में पीछे के 'पैसेंजर सीटों' के साथ-साथ 'ड्राइवर सीट' पर भी आगे-पीछे ठूँस-ठूँस के बैठ कर दो-तीन 'नर्सिंग होम' जा रही है। वो दोनों चलते-चलते बातों को आगे बढ़ाते हुए ..

मन्टू - " तुम्हारे मुँह से ये दकियानूसी सोच वाली बातें अच्छी नहीं लगती .. "

रेशमा - " मन्टू भाई .. अक्खा हिन्दुस्तान बोहनी को मानता है, तो .. अपुन लोगों को भी इद्रिच मानना माँगता है, वर्ना .. अपुन लोग बिरादरी से निकाल दिए जायेंगे .. " - बम्बईया (मुम्बईया) अंदाज़ में बोलते हुए ठहाके लगा कर रेशमा हँस रही है और प्रतिक्रियास्वरुप मन्टू भी मुस्कुरा रहा है।

मन्टू - " रेशमा .. पर आँखें मूँद कर अंधपरम्पराओं को सहर्ष या फिर किसी जाने-अन्जाने भयवश स्वीकार कर लेना भी तो हमारे बुद्धिजीवी होने पर एक प्रश्नचिन्ह चिपकाता महसूस होता है .. वो भी चेहरे की सुन्दरता बढ़ाने वाले तिल की तरह नहीं, बल्कि चेचक के दाग़ जैसे .. "

रेशमा - " आप मानो या ना मानो .. समाज के लोग तो मानते हैं .. बोहनी और जतरा जैसी मान्यताओं को .. है कि नहीं ? .."

मन्टू - " माना कि लोग मानते हैं और अगर हमने भी अपनी आँखें मूँदें वही सब मान लिया तो .. समाज में परिवर्तन क्योंकर आएगा भला ? .. जबकि सभी ये भी तो मानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है .. है कि नहीं ? बोलो ! .. "

बातें करते-करते सभी टोटो गाड़ी में लद गए हैं। 

रेशमा - " मन्टू भाई आज पहले चलते हैं आशीर्वाद नर्सिंग होम .. ठीक है ना ? " - अपनी टोली के समर्थन के लिए रेशमा उन सभी की ओर भी देख रही है। प्रतिक्रियास्वरूप कोई तो अपनी मुंडी उर्ध्वाधरतः ऊपर-नीचे हिला कर और कोई "हूँ" या "हाँ" बोलकर अपना समर्थन दे रहे हैं। 

मन्टू की टोटो गाड़ी अब निकल पड़ी है .. आशीर्वाद नर्सिंग होम के लिए .. दरअसल किन्नर होने के नाते लगभग रोज सुबह रेशमा अपनी टोली के साथ मिलकर मन्टू के टोटो गाड़ी से शहर के अलग-अलग हिस्से के विभिन्न 'नर्सिंग होम' में जा-जाकर वहाँ उपलब्ध 'रजिस्टर' से नवजात शिशुओं के निवास स्थान का पता मालूम करती है। उसके बाद ये लोग चार-चार की दो टोलियों में बँटकर अलग-अलग मुहल्लों में नवजात शिशुओं के घर-घर जाकर मान्यता और परम्परा के अनुसार शिशु को गोद में लेकर उसे अपने आशीर्वचनों से सजाते हैं। साथ ही ढोलक की थापों पर सभी नाचते-गाते हैं और नवजात शिशु के घर वालों से नेग लेकर जाते हैं। यही नेग उनके जीवकोपार्जन का साधन होता है, क्योंकि अन्य कमाने के अवसरों से उन्हें हमारे समाज ने वंचित रखा हुआ है .. शायद ...

अपनी टोटो गाड़ी को चला कर आशीर्वाद नर्सिंग होम की ओर बढ़ते हुए ...

मन्टू - " रेशमा ! .. तुमने बड़े-बड़े 'ब्रांडों' के 'शोरूम' में या उससे अटे पड़े 'मॉल' में भी बोहनी जैसे चोचले देखे या सुने हैं कभी ? .. "

रेशमा - " ना .. नहीं तो ! .. "

मन्टू - " वुडलैंड, तनिष्क, रेमण्ड इत्यादि के 'शोरूम' जैसे जगहों पर तो बोहनी वाली बात नज़र नहीं आती .. तो क्या इनके धंधे कमजोर होते हैं ? नहीं ना ? .. आम दुकानों से ज्यादा ही ये लोग दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करते जाते हैं .. ये सब पोंगापंथी हम 'मिडिल क्लास' लोगों में ही ज्यादा है रेशमा "

रेशमा - " हाँ .. सो तो है .. पर .. समाज-बिरादरी भी तो कुछ .. "

मन्टू - " ये समाज-बिरादरी वाले चोचले भी हम जैसे 'मिडिल क्लास' लोगों में ही ज्यादा है, वर्ना .. 'सेलिब्रिटी' लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी दूसरी-तीसरी शादी कर लेने पर भी या फिर अन्तर्जातीय विवाह कर लेने पर भी लोग उन्हें बिरादरी से बाहर निकाल देंगे या कि .. कुछ और भी .. उल्टे .. इसी समाज के लोग उन्हें हाथों-हाथ लेते भी हैं और .. इतना ही नहीं .. उनके उन कृत्यों का चटखारे ले-लेकर बखान भी करते हुए मिल जाते हैं .. "

रेशमा - " हाँ .. ये भी सही है .. ऐसे तो सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं अपने इस देश-समाज में ही .. कुत्ते-कमीनों के ख़ून पीने वाले 'हीरो' और धन्नो नामक घोड़ी से अपनी इज़्ज़त बचाने की गुहार लगाने वाली 'हीरोइन' की जोड़ी भी तो कुछ ऐसी ही है .. है ना ? "

मन्टू 'नर्सिंग होम' के सामने 'ब्रेक' लगाते हुए ..

मन्टू - " लो भई .. आ गयी आप सब की आज की पहली मंज़िल .. "

रेशमा - " चलो .. आ जाओ जल्दी-जल्दी .. " 

तभी अचानक 'नर्सिंग होम' से बाहर आती हुई अंजलि और अम्मू पर रेशमा और मन्टू की भी नज़र पड़ गयी है ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, January 11, 2024

पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२६)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " सही बात बोल रहे हैं आप दोनों .. पर सभी लोग इतना सोचें तभी ना .. ख़ैर ! .. अब हमलोगों को यहाँ से निकलना चाहिए और अपने-अपने काम में लग जाने के साथ-साथ ललन चच्चा के लिए किराए का मकान भी खोजना है .." मयंक-शशांक को ये कहते हुए रेशमा अपने बटुए में पड़ी कुछ टॉफियाँ निकालते हुए कलुआ को बुला कर दे रही है। राह चलते जाने-अन्जाने बच्चों को प्यार से टॉफियाँ बाँटना रेशमा की आदतों में शुमार है।

गतांक के आगे :-

वैसे तो .. अब हर बार ये जरूरी नहीं होता कि रेशमा द्वारा बच्चों को दी गयी टॉफियाँ हर बच्चे खा ही लें। कुछ बच्चे तो देते ही अपने मुँह में हस्तांतरण कर लेते हैं और कुछ .. अपने जेब में डाल कर आगे बढ़ जाते हैं। गोद वाले कुछ बच्चे को उनकी माँ अपने हाथों से टॉफ़ी को 'रैपर' से निकाल कर फौरन खिला देती हैं और कुछ अपनी मुट्ठी में दबाए हुए आगे बढ़ जाती हैं। 

जो बच्चे या उनकी माँ रेशमा की दी गयी टॉफी जेब में डाल कर या मुट्ठी में दबा कर आगे बढ़ जाती हैं, तो रेशमा समझ जाती है, कि ये लोग तथाकथित नज़र लगने जैसी सोच से ग्रसित हैं और आगे जाने के बाद नज़रों से ओझल होते ही उनके द्वारा उस टॉफी को किसी नाले में या कचरे पर फेंकी जानी है। 

कोई-कोई बच्चे या उनकी माँ जब कभी भी 'रैपर' सड़क किनारे पड़े नगर-निगम के कूड़ेदान में ना फेंक कर वहीं गली-सड़क पर फेंक देती हैं, तो रेशमा स्वयं उसे उठाकर यथोचित जगह पर डालते हुए उन्हें आगे से कूड़ेदान में डालने की नसीहत भी दे डालती है। साथ ही वह उस बच्चे को टॉफी खाने के फ़ौरन बाद तुरन्त साफ़ पानी लेकर अच्छे तरीके से कुल्ला करने के लिए भी समझाती है, वर्ना उनके दाँत सड़ जायेंगे .. ऐसा बतलाती भी है।

कई बच्चे तो चुपचाप मुस्कुराते हुए उसकी दी हुई टॉफ़ी गड़प कर जाते हैं और कई जाते-जाते उसे 'थैंक यू दीदी' या 'थैंक यू  मौसी' बोल जाते हैं। कई बच्चों की माँएँ भी 'थैंक यू रेशमा' बोल जाती हैं या अपने बच्चे से ऐसा बोलने के लिए कहती हैं। तब रेशमा बड़े ही स्नेह के साथ मुस्कुराते हुए उस बच्चे को समझाती है कि जब आपको 'मम्मी' दूध पिलाती है या खाना खिलाती है तो क्या .. आप उन्हें 'थैंक यू' बोलते हो ? या .. अगर आपके 'पापा' आपके पढ़ने-लिखने के लिए किताब-कॉपी बाज़ार से खरीद कर लाते हैं तो क्या आप उन्हें 'थैंक यू' बोलते हो ? .. नहीं ना ? .. क्यों ? .. क्योंकि वे लोग आपके सगे हैं .. है ना ? और .. हमें ये 'थैंक यू' बोल कर हमारे पराया होने का एहसास करवाना चाहते हो ना आप ? .. है ना ? .. नहीं बेटा .. अब से हमारी टॉफ़ी के बदले 'थैंक यू' मत कहना हमको .. ठीक है ? .. हम भी तो आपके अपने ही हैं ना बेटा ... है ना ?

अब तक मयंक और शशांक अपने जगह से उठ कर रसिक के पास पहुँच चुके हैं ..

मयंक - " रसिक भाई ! .. सुबह से अभी तक जितनी भी चाय मन्टू जी और रेशमा की 'टीम' के साथ-साथ हम दोनों ने पी है .. वो सारी चाय का हिसाब हमारे खाते में लिख लीजिएगा .. "

तभी रेशमा भी अपने बटुए से रुपए निकालते हुए रसिक के पास पहुँचती है ..

रेशमा - " ये गलत बात है मयंक भईया .. हर बार आप ही पैसा दीजिएगा ? .. कभी हमलोगों को भी तो मौका दीजिए .. अब आगे से आपके साथ चाय नहीं पीनी है हमलोगों को .. "

शशांक - " इसमें इतना गुस्साने वाली कौन-सी बात हो गयी .. अगली बार आप दे देना .. "

रेशमा - " अगली बार .. अगली बार बोल के आप दोनों लोग हर बार हमें टरका जाते हैं .. वो अगली बार फिर कभी आता ही नहीं .." 

चाँद - " सही फ़रमा रही है रेशमा .. कभी हमें भी तो ख़िदमत का मौका दिया कीजिए .. अब ये क्या कि .. हर बार .. "

मन्टू - " अभी तो आपलोगों की नौकरी भी नहीं लगी .. अभी आप दोनों पढ़-लिख ही रहे हैं .. आप दोनों के अभिभावकों के भेजे पैसों पर तो .. आपलोग खुद ही आश्रित हो .. है ना ? .. "

रेशमा - " हम सब तो कमाने वाले हैं .. भले ही सरकारी नौकरी नहीं है तो क्या हुआ .. कमा-खा तो रहे हैं ना ? "

मन्टू - " देश भर की जनसंख्या के कितने ही प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी करते हैं ? .. बतलाओ ना जरा ! ... तीन से चार प्रतिशत ही तो .. बाक़ी के सत्तानवे-छियानवे प्रतिशत लोग भी तो इंसान ही हैं और इंसान की तरह अपना परिवार चला रहे हैं .. नहीं क्या ? .."

चाँद - " ये सब बातें करने का वक्त नहीं है अभी मन्टू भाई .. अभी तो बस इतना कहना है कि थोड़ा बहुत ये लोग 'ट्यूशन' पढ़ा कर कमाते हैं .. वो सब भी हम जैसे लोगों पर ख़र्च कर देते हैं .. पर आगे से ऐसा नहीं करने देंगे हम लोग इनको .. "

ललन चाचा अपनी जगह से बैठे-बैठे ही .. जो अभी तक घर खाली करने वाली 'नोटिस' की अपनी ही उधेड़बुन में तल्लीन थे .. अचानक इन सभी की बातों पर गौर करके ..

ललन चाचा -" यहाँ पर तुमलोगों के बीच सबसे बड़े तो हम हैं .. फिर ऐसे में तो चाय की क़ीमत तुम दोनों के देने से मेरे लिए भी शर्मिंदगी वाली बात हो गयी .. है कि नहीं रेशमा ? .. बोलो ! .. "

रेशमा - " सही कह रहे हैं ललन चच्चा आप .. "

मयंक दोनों हाथ जोड़ कर ललन चाचा से माफ़ी माँगते हुए ..

मयंक - " ना - ना चच्चा .. ऐसी बात नहीं है .. आप तो सभी के चाचा हैं .. ऐसे में भतीजे-भतीजियों का फ़र्ज़ नहीं होता क्या कि ..  वो लोग आपको चाय पिलाएँ .. बोलिए ? .." 

अपनी जगह से बैठे-बैठे ही आशीर्वाद वाली मुद्रा में अपनी दायीं हथेली हवा में लहराते हुए मुस्कुरा कर .. 

ललन चाचा - " तुम दोनों से बातों में जीत पाना बहुत ही मुश्किल है बेटा .. "

सभी ललन चाचा के मुस्कुराते चेहरे को और भी ख़ुशी प्रदान करने के ख़्याल से जोर-जोर से हँसते हुए समवेत स्वर में कह रहे हैं .. " सही बोले चच्चा " ...

तभी मुस्कुराते हुए सभी की ओर देख कर चाँद के कँधे पर अपनी दायीं हथेली थपथपा कर मयंक कह रहा है ..

मयंक - " अच्छा .. आगे की बात को आगे देखेंगे .. अभी फ़िलहाल तो हमलोग चलें यहाँ से .. अच्छा तो हम चलते हैं .."

ये कहते हुए या .. यूँ कहें कि एक पुराने फ़िल्मी गाने के तर्ज़ पर "अच्छा तो हम चलते हैं" गाते हुए मयंक और शशांक .. दोनों ही अपने 'पी जी' की ओर चले जा रहे हैं .. तभी ललन चाचा भी .. जो अब तक इन लोगों की सकारात्मक सांत्वना से पहले की ही तरह प्रफुल्लित होकर .. सभी को बतलाते हुए अपने घर की ओर जा रहे हैं .. तभी ...

चाँद - " हम भी चले .. मेरी भी एक 'बुकिंग' है .. एक ग्राहक को उसके घर से ले जाकर उसे ट्रेन पकड़वानी है .." 

मन्टू - " ठीक है .. कल सुबह मिलते हैं .." 

रेशमा भी प्रत्युत्तर में किसी उद्घोषिका के अंदाज़ में चाँद की ओर अपना रुख़ करके ...

रेशमा - " हाँ - हाँ .. ठीक है .. अब कल मिलते हैं .. एक छोटे से 'ब्रेक' के बाद .. " और फिर मन्टू की ओर मुख़ातिब होकर - " मन्टू भईया चलिए .. अब तो हमलोग भी चलें .. काफ़ी देर हो गयी है आज तो .. आपकी आज की बोहनी करवानी है .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, January 4, 2024

पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

 


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२५)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मुकेश - " अगर आप हमको बार-बार नहीं टोकते, प्यार से नहीं समझाते या हमको ज़बरन नशामुक्ति केन्द्र तक नहीं ले जाते .. समय-समय पर मेरे इलाज के लिए आर्थिक मदद नहीं करते, तो हम भी आज .. " 

गतांक के आगे :-

रेशमा - " मुकेश भईया ! .. आर्थिक मदद केवल आपको ही नहीं .. ललन चच्चा तो इस तरह की मदद .. ना जाने कितने जरूरतमंद लोगों की करते आ रहे हैं .. है ना चच्चा ? "

मन्टू - " सच में .. कितनों का उद्धार किया है चच्चा ने .. ये सब बतलाने और कहने-सुनने वाली बात नहीं है और .. चच्चा जी को इन सब बातों के ढोल पीटना पसन्द भी नहीं है। "

चाँद - " इनका शुरू से उसूल रहा है कि नेकी कर दरिया में डाल .. "

भूरा - " और मेरा उसूल है कि गीला कचरा और सूखे कचरे को अलग-अलग उनके तयशुदा डब्बे में ही डाल.. ना कि इधर-उधर कहीं भी उछाल .. " - दूर से मुहल्ले की ओर गाना- "~~ गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल ~~~ " बजाते हुए नगर-निगम की आती हुई गाड़ी को देख कर सभी को हँसाने के लिए ऐसा बोल भूरा स्वयं भी हँस रहा है और सभी को सम्बोधित करते हुए - " हमारी गाड़ी आ गयी .. अब हम चले अपनी आज की 'ड्यूटी' के लिए .."

मयंक - " किसी की 'ड्यूटी' करने नहीं .. बल्कि .. मानो, सोचो और बोलो कि आप जा रहे हो अपने लिए रोटी-दाल कमाने "

यहाँ रसिक चाय दुकान पर ललन चच्चा के आने के पहले से ही शशांक और मयंक, दोनों ही, अपने तीनों नए मित्रों- समर, अमर और अजीत के यहाँ से वापस जाने के बाद अपने दो अन्य शैक्षणिक मित्रों के अचानक 'कॉल' आ जाने पर 'कॉन्फ़्रेंस कॉल' पर पढ़ाई से सम्बन्धित कुछ जरूरी बातों पर व्यस्त रहने के कारण थोड़ा हट कर .. यहीं पर पास के पिलखन के पेड़ के नीचे वाले चबूतरे पर बैठे हुए थे। वहीं से उठकर अभी-अभी अपने 'पी जी' जाने के लिए सभी से औपचारिक अनुमति लेने आए हैं। तभी आते-आते में भूरा की 'ड्यूटी' जाने वाली बात सुनकर मयंक ने अभी अपनी प्रतिक्रिया दी है।

भूरा - " हाँ.. हाँ .. वही मयंक भईया .. वही .. मतलब दाल-रोटी कमाने जा रहे हैं .."

मयंक की बोली बात को भूरा के नाटकीय ढंग से दोहराने के कारण .. दोहराते ही सब जोर से हँसने लगे हैं। भूरा नगर-निगम की गाड़ी के पिछले हिस्से में लद कर और सभी को हाथ हिला-हिला कर विदा लेते हुए मुहल्ले की ओर जा रहा है।

चूँकि शशांक और मयंक दुबारा यहाँ अभी-अभी आने के कारण, ललन चच्चा के यहाँ आने के बाद हुई सारी बातों से अनभिज्ञ हैं, इसीलिए दोनों मुस्कुराते हुए ललन चच्चा को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम कर रहे हैं। तभी लगे हाथ ललन चच्चा दोनों को पास बुलाकर, दोनों के सिर पर अपने हाथ रखकर अपने आशीर्वचनों से सुसज्जित कर रहे हैं। तभी ...

रेशमा - " मयंक भईया ! .. ललन चच्चा के लिए एक चिन्ता करने वाली मुसीबत आ गयी है .. उनको एक महीने के भीतर घर खाली करने की 'नोटिस' मिली है .. हम सभी को अपना-अपना काम करते हुए भी .. समय निकाल कर इसी मुहल्ले में या आसपास के इलाके में इनके लायक .. इनके लिए किराए का मकान तलाशना होगा .."

मयंक - " जरूर .. "

शशांक - " ये भी कोई बोलने की बात थोड़े ही ना है .."

मयंक - " निःसन्देह .. हम सभी मिलकर खोजेंगे .. आप अपनी चिन्ता भूल जाइए चाचा जी .. "

शशांक - " आपकी चिन्ता, अब .. हम सभी की चिन्ता है .."

मन्टू - " इस काम में हमलोगों की मदद तो .. रसिक भी करेगा .."

चाँद - " हाँ .. सही बोले .. दिन भर इसकी दुकान पर इसकी कड़क चाय पीने तो .. इस मुहल्ले के अलावा आसपास के लोग भी आते-जाते रहते हैं .. "

मयंक - " हम और शशांक मिल कर एक 'चार्ट पेपर' पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिख कर रसिक की चाय दुकान पर एक 'नोटिस' टाँग देते हैं .. लिख देंगे कि .. "किराए पर एक घर की आवश्यकता है - विशाखा" .. ठीक रहेगा ना ? " 

अब रसिक दूर ही से अपना नाम सुन कर ख़ुशी से बीच में टपक पड़ा है।

रसिक - " पर .. 'पोस्टर' के नीचे में ललन चच्चा का नाम क्यों नहीं ? .. विशाखा बिटिया का क्यों ? "

ललन चच्चा अपने समर्थन में होने वाली सहायता के लिए बनायी जा रही सभी की योजनाओं को देख-सुन कर मन ही मन आश्वस्त लग रहे हैं, जिसकी झलक उनके चेहरे पर भी दिख रही है। 

वैसे भी अनुभवी लोगों का मानना या कहना है कि पारदर्शी सोच व चरित्र वालों का चेहरा प्रायः पारदर्शी ही होता है .. उन लोगों के जो मन में, वही चेहरे पर झलकता है और कलुषित सोच वालों का चेहरा तो कुछ और दर्शाता है, पर मन ही मन में कुछ और ही चल रहा होता है।

रसिक के अभी वाले ऊहापोह भरे सवाल पर रेशमा की टोली से अचानक अनुष्का बोल पड़ी है ...

अनुष्का - " दरअसल .. रसिक भईया .. ललन चच्चा के बदले, विशाखा का नाम रहेगा तो .. लड़की का नाम देख कर लोग फ़ौरन अपनी प्रतिक्रिया देंगे। "

रसिक - " अच्छा ! .. ऐसा है क्या ? "

अनुष्का - " और नहीं तो क्या ! .. देखते नहीं हैं .. अगर राह चलते दुर्घटनावश कोई लड़का या पुरुष गिर जाता है, तो लोग जल्दी पास भी नहीं फटकते और उल्टा उसका मज़ाक बनाते हैं। वहीं अगर .. कोई लड़की या कोई महिला राह चलते गिर जाती है तो .. लोग अपना सारा काम छोड़ कर उसको उठाने के बहाने .. उसको छूने की होड़ में लग जाते हैं .. नहीं क्या ? "

रसिक - " अरे हाँ .. एकदम सही .. ऐसा तो कई दफ़ा इसी चौक पर देखने के लिए मिल जाता है। "

शशांक - " केवल .. इतना ही नहीं .. इस पुरुष प्रधान समाज के बहुमुखी आकर्षण के केन्द्र में प्रायः महिलाएँ ही होती हैं .. "

मयंक - " तभी तो .. देखते नहीं क्या ? .. कि 'लिपस्टिक-नेल पॉलिश' या फिर 'सैनिटरी नैपकिन' के विज्ञापनों में तो लड़कियों-औरतों को बड़ी-बड़ी 'कम्पनी' वाले दिखलाते ही हैं और .. मर्दों के इस्तेमाल करने वाले 'रेजर-ब्लेड' से लेकर चड्डी-बनियान जैसे उत्पाद हों या फिर 'कॉन्डोम' .. इन सभी के विज्ञापनों में भी मर्दों से ज्यादा औरतों को ही 'फोकस' किया जाता है .."

शशांक - " ताकि पुरुषों के इस्तेमाल किए जाने वाले उन उत्पादों वाले विज्ञापनों की ओर लड़कियों-औरतों के प्रदर्शन के बहाने .. या यूँ कहें कि अंग प्रदर्शन वाले आकर्षण के कारण पुरुष उपभोक्ताओं का ध्यान जाए और उनके उत्पादों के वे लोग तादाद में क्रेता बन सकें और .. उन कम्पनियों द्वारा ऐसे ऊलजलूल विज्ञापनों को बनाने और उसे प्रसारित करने में हुए ख़र्चों से और उत्पादन की लागत से भी कई गुणा ज्यादा मुनाफ़ा उन कम्पनियों को हो सके .. "

मयंक - " ये तो हुई आकर्षण के केन्द्र बिन्दु को भुनाने  वाले विज्ञापनों की बात .. विज्ञापनों का एक स्वरूप और भी है .. वो है .. भयभीत करने वाले अंड बंड विज्ञापनों को दिखला कर .. पहले तो मन में डर पैदा करते हैं .. फिर उस डर से छुटकारा पाने के लिए अपने उत्पादों को इस्तेमाल करने की नसीहत देकर आम जनता से रूपए ऎंठने का काम करते हैं .. मसलन- मच्छरों, चूहों के अलावा रोगाणुओं को नष्ट करने वाले हमारे बाज़ारों में उपलब्ध ढेर सारे उत्पाद .. "

शशांक - " जैसे सदियों से ब्राह्मण लोग स्वर्ग-नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य जैसी बातों का डर दिखला कर पादरियों और मौलानाओं की तरह धर्म-मज़हब की आड़ में आमजन की आस्था का नाजायज फ़ायदा उठाने के लिए उन्हें सदियों से सब्ज़बाग दिखलाते आ रहे हैं .. नहीं क्या ? .."

मयंक - " कई गलतियाँ हमारी भी हैं .. कहीं ना कहीं दोषी हम भी हैं .. हमलोग अपनी जरूरत की चीजें कम खरीदते हैं, बल्कि विज्ञापनों को देख कर अपनी जरूरतें पैदा करते हैं और फिर .. उन आभासी जरूरतों की चीजों को खरीद कर हम बेवकूफ़ बनते रहते हैं .. "

शशांक - " हमें अपने बुद्धिजीवी दिमाग़ पर जोर देकर कभी सोचना चाहिए .. चिंतन-मनन करना चाहिए कि अगर .. गोरा करने वाली क्रीम वास्तव में होती तो अफ़्रीकी मूल के सारे लोग अब तक कश्मीरियों या अँग्रेज़ों की तरह गोरे हो गए होते या फिर बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा या ओपेरा विनफ्रे और व्हूपी गोल्डबर्ग जैसी प्रसिद्ध और अमीर लोग भी अब तक काली नहीं, बल्कि गोरी नज़र आतीं .. "

मयंक - " सही में .. वैसे ही अगर सचमुच में .. लम्बाई बढ़ाने वाली कोई दवा होती तो चीन-नेपाल के लोग अभी तक नाटे कद के नहीं रहते और अगर बाल उगाने वाले कोई तेल सच में होते बाज़ार में तो .. अब तक कोई टकला नहीं बचता .. "

रेशमा - " सही बात बोल रहे हैं आप दोनों .. पर सभी लोग इतना सोचें तभी ना .. ख़ैर ! .. अब हमलोगों को यहाँ से निकलना चाहिए और अपने-अपने काम में लग जाने के साथ-साथ ललन चच्चा के लिए किराए का मकान भी खोजना है .." मयंक-शशांक को ये कहते हुए रेशमा अपने बटुए में पड़ी कुछ टॉफियाँ निकालते हुए कलुआ को बुला कर दे रही है। वैसे भी राह चलते जाने-अन्जाने बच्चों को प्यार से टॉफियाँ बाँटना रेशमा की आदतों में शुमार है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, December 28, 2023

पुंश्चली .. (२५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२४)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " हाँ तो .. और ये मकान मालिक होने का धौंस जमाना भी एक मूर्खतापूर्ण क़दम है चच्चा .. जबकि इस धरती पर रहने वाला हर इंसान एक किराएदार है .. चाहे वह पचास साल का हो .. सौ साल का हो .. पर है तो वो किराएदार ही .. बस .. उसकी आँखें जब कभी भी चिरनिंद्रा में मूँदी और वह उसी पल अपनी जायदाद से बेदख़ल हो जाता है .. फिर भी इतनी हेकड़ी ? .."

गतांक के आगे :-

ललन चच्चा को सम्बोधित करके बोली गयी रेशमा की बातों की अन्तिम पंक्ति भर ही सुन पाने के कारण ठीक अभी-अभी चाय की दुकान पर आया हुआ मुकेश रेशमा को सम्बोधित करते हुए ...

मुकेश - " कौन हेकड़ी दिखा रहा है भला .. हमारे रहते हुए ? जरा नाम तो बतलाओ उसका .. उसको नानी याद आ जायेगी .. "

ये बोलता-पूछता .. सब की ओर मुस्कुराहट बिखेरता हुआ .. मुकेश आदर भाव के साथ ललन चच्चा के घुटने स्पर्श करके उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहा है।

तभी ललन चच्चा .. जिनका मन अभी तक की रेशमा, मन्टू, चाँद और भूरा की बातों से कुछ-कुछ सकारात्मक हो गया है ; मुकेश के सिर पर अपनी दायीं हथेली हौले-हौले थपथपा के अपने अंदाज़ में शुभाशीष दे रहे हैं।

रेशमा - " आपके रहते किसकी हिम्मत है, जो मुहल्ले भर में कोई अपनी हेकड़ी दिखा सके ? " - मुकेश को सम्बोधित करते हुए ललन चच्चा के प्रति अपनी समानुभूति जतला कर - " चच्चा को घर खाली करने की 'नोटिस' मिली है .. वो भी एक महीने में .. सुखपाल चच्चा के घर में वर्षों से ये लोग रहते आ रहे हैं .. उन्हीं के घर में विशाखा जन्म ली है .. पली-बढ़ी है .. और आज अचानक से .. "

मुकेश - " तो .. क्या करना है चच्चा .. उनसे 'नोटिस' वापस लौटवा दें ? .. आप एक इशारा भर कीजिए ना .. "

ललन चच्चा - " ना .. ना .. ये सब कभी मत करना मुकेश .. अपने जीवन में दुनिया के दिए कुछ कष्ट, कुछ परेशानी भले ही झेल लो, पर इनके कारण अपने आचरण मत बिगाड़ो .. "

मुकेश - " ठीक है चच्चा .. जैसा आप बोलिएगा, वही करेंगे .."

ललन चच्चा - " सहायता ही करनी है तो .. एक खाली किराए का मकान खोजने में मेरी सहायता कर दो .. इस मुहल्ले में मिल जाए तो अति उत्तम .. नहीं तो .. कम से कम आसपास के इलाके में ही खोजने में मेरी सहायता कर दो .. तुम लोगों से दूर जाने का मन नहीं करता .. "

मन्टू - " हमलोग भी आपको दूर जाने देना नहीं चाहते .."

चाँद - " हम सब मिलकर दिन-रात एक कर देंगे .. पर आपको दूर नहीं जाने देंगे .."

इतने अपनापन भरे भरोसों से ललन चच्चा के चेहरे पर ख़ुशी के रंग-रोग़न की एक परत-सी चढ़ गयी है और उन्हें मुस्कुराता देख कर वहाँ उपस्थित सभी उनके चाहने वालों को भी अच्छे की अनुभूति हो रही है।

ललन चच्चा - " अपने जीवन का आधे से भी ज्यादा हिस्सा यहाँ .. इस मुहल्ले के इस घर में हमने गुजारे हैं। काम के सिलसिले में जब से इस शहर में आए थे, तब से यहीं के होकर रह गए हैं .. अब तो .. माँ-बाबू जी के गुजर जाने के बाद से तो .. अपने गाँव गए हुए .. लगता है एक लम्बा अरसा गुजर गया है .." - अब विशेष रूप से मुकेश को बोलते हुए - " पर तुम कोई ऐसा-वैसा क़दम मत उठाना मुकेश .. समझ रहे हो ना ? "

मुकेश - " अच्छी तरह समझ रहे हैं चच्चा .. अब .. आपकी बातों को हम से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? .. आयँ ! .. आप ही की सीख के बदौलत आज मुकेश का ये रूप खड़ा है .. जो दो-चार पैसा कमा कर अपना और अपनी बीवी का पेट पाल रहा है, वर्ना .. हम किसी नाला में पड़े-पड़े सड़ रहे होते या जेल में सड़ रहे होते या .. नहीं तो .. किसी गाड़ी के नीचे आकर ऊपर उठ गए होते .."

ललन चच्चा - " अब वो सब दोहराने से क्या लाभ है ? .. बोलो ! .. बुरे दिनों को याद करके .. अपनी आज की ख़ुशी को क्यों बर्बाद करना ?.. "

मुकेश - " नहीं .. याद नहीं कर रहे चच्चा .. बस .. बतला रहे हैं कि .. अगर आप हमारी रोज दारू पीने वाली आदत को नहीं छुड़ाते तो .. शायद .. हम दारू की बाढ़ में ही बह गए होते .. "

ललन चच्चा - " दारू सस्ती हो या महँगी .. देसी हो या अंग्रेजी .. वो हमारे लिए विनाशकारी है .. वो हमारी आर्थिक स्थिति के साथ-साथ हमारी शारीरिक क्षमता ही नहीं .. हमारे अवचेतन मन को भी विनाशकारी मोड़ पर ले जाती है .. दारू के नशे में इंसान की अपनी ज़ुबान, अपना शरीर ही नहीं .. दिमाग़ भी अपने वश में नहीं रह पाता .. सबसे बड़ी बात कि .. वह अपना विवेक खो देता है .. "

चाँद - " क़दमों के साथ-साथ उसकी ज़िन्दगी भी डगमगाने लगती है .. "

भूरा - " परसों रात के वक्त मेरी बस्ती में पूरन पी के हल्ला-गुल्ला करता हुआ आया और अपनी दादी की दवाई खरीद कर घर लौट रही बस्ती की ही माला का दुपट्टा खींच कर उसे छेड़ने लगा .."

रेशमा - " अच्छा ! "

चाँद - " तुम्हारी बस्ती में तो रोज रात में किसी ना किसी नाना पाटेकर की 'मोनो एक्टिंग' चलती रहती है .. मने फोकट का सिनेमा .. "

ललन चच्चा और मन्टू को छोड़कर वहाँ उपस्थित सभी लोग चाँद की बात पर ठठाकर हँस रहे हैं। इन दोनों के नहीं हँस पाने का कारण है .. ललन चच्चा का अपने घर बदलने की चिन्ता के कारण और मन्टू .. रंजन के इस दुनिया से असमय चले जाने के दो सालों बाद भी अंजलि द्वारा कूड़ेदान में सुबह-सुबह फेंके गए कचरे में से मिले 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' के मिलने से ऊपजे तनावपूर्ण ऊहापोह के कारण .. 

भूरा - " हँसने वाली बात नहीं है मन्टू भईया .. हमको तो तरस आती है ऐसे लोगों पर .. मामला इतना बिगड़ गया कि .. अब क्या बोलें .. पूरन दारू के नशे की धुनकी में .. माला के अपने छेड़ने का विरोध करने पर उस के दुपट्टे में अपना नेटा छिड़क दिया .. माला को उबकाई-सी आ गयी .. वह दुपट्टा गली में फेंक कर रोती हुई भागी थी .."

मन्टू - " अरे .. अरे .. च् . च् . च् ! .. ये तो बहुत ही बुरा हुआ .. "

भूरा - " उसी भाग-दौड़ में उसकी दादी की दवाई नाले में गिर गयी .. रास्ते में जा रहे लोग पूरन को लात-घूँसे से जम कर पीटने लगे .. अधमरा-सा हो गया था .. वो तो मर ही जाता .. मगर बस्ती के कुछ भले लोगों ने उसका बीच-बचाव कर के उसकी जान बचायी .. उन लोगों ने पीटने वाले लोगों से कहा कि नशे में छेड़ दिया है .. होश में नहीं है ना .. इसीलिए .. छोड़ दिया जाए .."

मन्टू - " ये गलत बात है भूरा .. गलत सोचते हैं लोग कि नशे की हालत में गुनाह हो जाती है .. पर नहीं .. नशे में गलत क़दम उठते तो जरूर हैं, पर इतने भी नहीं कि एक इंसान दूसरे इंसान को ना पहचाने .. तुमने कभी किसी शराबी को नशे की हालत में अपनी बहन की सलवार के नाड़े या माँ की साड़ी खोलते देखा है कभी ? .. नहीं ना ? .. कभी उसे अपनी भाभी-चाची की कुर्ती में हाथ डालते देखा है ? .. नहीं ना ? .. मतलब ? .. इंसान बेहोश हो कर भी होश में रहता है .. समझे कि नहीं ? .."

रेशमा - " हम तो आज तक ये समझ नहीं पाए कि बेवड़ों की बीवियाँ रात में बेवड़ों के मुँह से आने वाली उबकाई उत्पन्न करती दुर्गंध को किस तरह झेल पाती होंगी ? "

चाँद - " ऐसे ही तो तम्बाकू खाने वालों और बीड़ी-सिगरेट पीने वालों की बीवियों को भी तो बर्दाश्त करना पड़ता होगा ना ? .. "

ललन चच्चा - " हम तो कहते हैं कि अगर अपने देश में सभी पत्नियाँ आर्थिक रूप से अपने पैर पर खड़ी हो जाएँ तो .. पश्चिमी देशों से भी ज्यादा हो जाएगी अपने देश में .. तलाक़ की संख्या .. मजबूरीवश अपने पति को झेलने वाली पत्नियों को हम प्रायः सुशील और भारतीय नारी कह-कह के झूठ-मूठ का महिमामंडन करते रहते हैं .. "

मुकेश - " अगर आप हमको बार-बार नहीं टोकते, प्यार से नहीं समझाते या हमको ज़बरन नशामुक्ति केन्द्र तक नहीं ले जाते .. समय-समय पर मेरे इलाज के लिए आर्थिक मदद नहीं करते, तो हम भी आज .. " 

आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Friday, December 22, 2023

पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२३)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठ कर जाते-जाते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है। 

गतांक के आगे :-

ललन चच्चा के रसिक चाय दुकान के नजदीक आने से कुछ क़दम पहले ही रेशमा का अपने स्थान से उठकर दो-चार क़दम उनकी ओर बढ़ कर उनका पाँव छूना ही और वहाँ चाय की चुस्की लेने वाली उपस्थित मंडली का चुस्ती के साथ आदर भाव सहित अपने-अपने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार करते हुए अभी-अभी उठ जाना भी सामाजिक दायरे में उनकी प्रतिष्ठा को बतलाने के लिए पर्याप्त है .. शायद ...

परन्तु हमेशा प्रफुल्लित रहने वाला और आध्यात्मिक आभा से दैदीप्यमान रहने वाला ललन चच्चा का मुखड़ा अभी कुम्हलाया देख कर आसपास उपस्थित लगभग हर लोग उनकी ओर सहानुभूति की दृष्टि से देख रहे हैं। उनके बैठने लिए रसिक की दुकान के बेंच पर खाली किए गए जगह पर वह अब बैठ रहे हैं। आख़िरकार मन्टू उनके निकट आ कर उनकी उदासी की वजह वाले सभी ऊहापोह को ख़त्म करने के लिए विनम्रता के साथ अभी कुछ पूछने की सोच ही रहा है कि... रेशमा ही अपने जगह से बैठे-बैठे ही उनसे वार्तालाप की शुरुआत कर देती है ...

रेशमा - " चच्चा ! .. आज सुबह-सुबह क्या हो गया .. जो आप परेशान दिख रहे हैं ? .. आज आपके हारमोनियम की धौंकनी में कुछ गड़बड़ी हो गयी है या विशाखा की किसी ऊटपटाँग फ़रमाइश ने आपको परेशान कर डाला है सुबह-सुबह ? "

रेशमा के द्वारा सवाल पूछे जाने के कारण .. विशेष तौर पर रेशमा को सम्बोधित करते हुए और साथ-साथ बेचारगी युक्त अपनी क़ातर नज़रों से सभी को देखते हुए वह अपने रुँधे हुए कंठ से मानो फूट पड़े हैं।

ललन चाचा - " तुम लोग ईमानदारी से बतलाना कि .. हमारे या हमारे कुल तीन लोगों के परिवार से तुमलोगों को कभी कोई परेशानी हुई है क्या इतने वर्षों में ? .. "

मन्टू - " क्या बात बोल रहे हैं आप चच्चा ? .. उल्टा .. आप के यहाँ रहने से हम सभी को गर्व महसूस होता है .. नहीं क्या चाँद भाई ? "

रेशमा - " और नहीं तो क्या ? .. एकदम सही बात बोल रहे हो भाई .. सुबह-सुबह इनके रियाज़ के दौरान लिए गए आलापों और विशाखा के सरगम छेड़ने से तो मुहल्ले भर में सभी की हर सुबह आँखें खुलती हैं। "

चाँद - " और हर शाम भी तो इनके ग़ज़लों के रियाज़ से पूरा मुहल्ला गुलज़ार हो जाता है .. है कि नहीं मन्टू भैया ? .. "

मन्टू - " अभी तो .. आप ही बतलाइए ना जरा .. आख़िर किसको परेशानी हो गयी यहाँ पर भला .. आपके और आपके परिवार के रहने से ? "

रेशमा - " हाँ .. चच्चा .. बतलाइए ना .. "

ललन चाचा - " बेटा ! .. तुम लोग तो जब से होश सम्भाले हो या जो लोग भी जब से आये हो इस मुहल्ले में .. हमको तो शुरू दिन से ही जानते हो .. "

रेशमा - " हाँ जी चच्चा .. इस में तो कोई भी शंका वाली बात ही नहीं है .."

ललन चाचा - " इतने दिनों में तुम लोगों को तो कभी भी हमसे किसी भी तरह की परेशानी नहीं हुई है .. बल्कि रेशमा और .. इसके अलावा भी कई लड़के-लड़की भी मेरे घर आ-आकर मुफ़्त में गायकी की बारीकी सीखते हैं .. "

मन्टू - " एकदम सही बात है चच्चा .."

रेशमा - " चच्चा आज तक कभी झूठ बोले ही नहीं हैं .."

ललन चाचा - " विशाखा बेटी भी तो आज चौदह साल की हुई है .. तुम्हीं लोगों के सामने .. कभी भी हम लोगों की ऊँची आवाज़ सुने हो तुम लोग ? "

भूरा - " ना चच्चा .. कभी भी ना .. उल्टा .. आप तो हमेशा लोगों के आपसी झगड़े सुलझाते रहते हैं चच्चा .."

चाँद - " ये सब बोलने-बतलाने की बात ही नहीं है भूरा .. कि .. चच्चा एक निहायत ही शरीफ़ इंसान हैं इस मुहल्ले भर में .. "

रेशमा - " छोड़ो भी भाई लोग ये सब .. चच्चा .. आप अपनी बात बतलाइए कि .. कौन हो रहा है भला आप से परेशान ? "

ललन चाचा - " रेशमा .. क्या बोलें तुमको .. एक सप्ताह से मेरे मकान मालिक को मेरे और विशाखा के सुबह-शाम गाने के अभ्यास से अशांति हो रही है। जोकि हम लोग वर्षों से करते आ रहे हैं। यही गीत-संगीत तो हमारी आजीविका कल भी थी और आज भी है .. " 

रेशमा - " आप से सुखपाल चच्चा को परेशानी हो रही है या उनकी पत्नी को ? या फिर उनके बड़े वाले बेटे-बहू को ? "

ललन चाचा - " अंदर की पारिवारिक बात तो नहीं मालूम रेशमा .. पर हमको तो सुखपाल जी ही घर खाली करने की चेतावनी दिए हैं कि .. एक महीने के अंदर ही घर खाली करना होगा, क्योंकि हमलोगों से उन लोगों की शांति भंग हो जाती है। पता नहीं क्यों अचानक से .. जबकि शुरू से ही हर माह समय पर उनके हाथ में किराया देते आ रहे हैं .. फिर भी ..."

मन्टू - " मकान मालिकों का कोई ठिकाना नहीं चच्चा .. अभी ज्यादा किराया देने वाला कोई मिल गया होगा, तो फिर आपका पत्ता साफ़ कर दिया सुखपाल बाबू ने .. इनके साथ आपका वर्षों का रिश्ता .. बस .. मिनटों में फ़ुस्स हो जाता है .. नहीं क्या ? .. अब .. सब कोई मेरी मकान मालकिन शनिचरी चाची जैसी थोड़े ही ना हो जाता है चच्चा .." 

ललन चाचा - " सही कह रहे हो बेटा .. हम तो उनको अपने बड़े भाई की तरह मानते रहे .. उनकी पत्नी को भाभी और उनके बच्चों को अपनी आँखों के सामने बड़ा होते देखे हैं .. उनकी शादी .. फिर उनके बच्चे .. उन बच्चों का बड़ा होना .. सब कुछ हमारी इन्हीं आँखों के सामने हुआ है .. दिन-दिन भर उनके बेटे-बेटी, फिर उनके पोते-पोतियाँ हमारे घर में लोटपोट करते रहते थे .. उनका गुह-मूत सब हमने और विशाखा की माँ ने किया है .. "

रेशमा - " ये सब तो कोई बतलाने वाली बात थोड़े ही ना है चच्चा .."

ललन चाचा - " और तो और .. सुबह-साम की चाय हमलोग साथ में पीते थे .. हम दोनों परिवार के यहाँ कुछ भी विशेष व्यंजन बनने पर हमदोनों के घर में आदान-प्रदान होता था .. तीज-त्योहारों को साथ-साथ मिलकर दोनों परिवार मनाते थे। तीज और करवा चौथ के दिन तो भाभी जी विशेष कर के विशाखा के माँ के साथ मिल कर मेरे ही कमरे में सारा अनुष्ठान करती थीं और नवरात्री के समय या छठ व्रत के दौरान प्रसाद के नाम पर हम तीनों का खाना-पीना उनके ही घर होता था .. फिर अचानक से .. ऐसा व्यवहार ? .. दरअसल अक़्सर अवसर मिलते ही इंसानी इच्छाएँ बलवती हो उठती हैं बेटा .. रात के अँधियारे वाले दुशाले में ना जाने कब इंसान दुश्चरित्रता के पसीने में तरबतर हो जाए .. "

चाँद - " आप ठहरे चच्चा .. एक फ़नकार आदमी, तो .. आप तो जज़्बाती होंगे ही .. जो भी इंसान मन से फ़नकार होता है ना चच्चा .. उसका जज़्बाती होना लाज़िमी है .. या फिर आप ये भी कह सकते हैं कि जज़्बाती इंसान ही फ़नकार होता है चच्चा .. " 

ललन चाचा - " वो तो है बेटा .."

चाँद - " अब आप तो सबसे दिल से जुड़ जाते हैं पर .. लोग  हैं कि आप से तिजारती ही बने रहते हैं .."

रेशमा - " पर ऐसे लोग बहुत ही खतरनाक होते हैं चच्चा .. आप तो देख ही रहे हैं ना .. जिन-जिन देशों में या सभ्यताओं में संगीत-साहित्य के लिए जगह नहीं है .. वो सारे के सारे पूरी दुनिया में आतंकवादी बने फिर रहे हैं .. वो ना तो ख़ुद चैन से रह पाते हैं और ना आम इंसान को चैन से रहने देते हैं .. "

इनलोगों की बातचीत के बीच कलुआ ललन चाचा के लिए बिना चीनी वाली चाय कुल्हड़ में ले कर आ गया है। कलुआ से चाय का कुल्हड़ लेकर ...

ललन चाचा - " एक और बात रेशमा .. हमने जब उनसे बोला कि इतने सालों बाद आपके घर में रहने के बाद इन सारे सामानों के साथ कहाँ और कैसे जाएँगे ? इतने सारे सामान, इतने सारे पौधों के गमले  .. सब कैसे लेकर जा पायेंगे .. जो किराया बढ़ाना हो बढ़ा लीजिए पर .. यहीं रहने दीजिए ना .. "

रेशमा - " घबराइए मत चच्चा .. हम लोग हैं ना .. हमलोग किस दिन काम आयेंगे चच्चा .. जल्दी ही कोई व्यवस्था करते हैं हमलोग .. और .. आपको इसी मुहल्ला में ही रखेंगे .. बाहर कहीं नहीं जाने देंगे .. "

ललन चाचा को रेशमा की बातों से कुछ ढाढ़स होता सा लग रहा है। उनके चेहरे की उदासी कुछ कम हो गयी है। 

ललन चाचा - " जब हमारे पौधों वाले गमले की बात हमने उनसे कही तो .. उनका कहना था कि .. जैसे अपना सब सामान अपने कँधे पर लाद लेकर जाइएगा .. वैसे ही इन गमलों को भी अपने कँधे पर लाद कर ले जाइयेगा .. मेरा तो कलेजा फट गया बेटा .. ऐसी रूखी बात उनके मुँह से सुन कर तो .." 

मन्टू - " तो .. तो क्या चच्चा .. इसमें आपकी बेईज्ज़ती थोड़े ही ना है .. इससे तो उनकी अज्ञानता झलकती है चच्चा .. "

रेशमा - " हाँ .. और क्या .. उस नादान आदमी को ये भी एहसास नहीं है कि .. आपको, हमको, हम सबको और .. उनको भी .. एक ना एक दिन .. चार इंसानी कँधों पर लद कर ही अपने जीवन की अंतिम यात्रा तय करनी है .. फिर ये दूसरे को ऐसी बात कह के नीचे गिराना .. "

मन्टू - " इंसान ख़ुद ही नीचे गिर जाता है .. "

रेशमा - " हाँ तो .. और ये मकान मालिक होने का धौंस जमाना भी एक मूर्खतापूर्ण क़दम है चच्चा .. जबकि इस धरती पर रहने वाला हर इंसान एक किराएदार है .. चाहे वह पचास साल का हो .. सौ साल का हो .. पर है तो वो किराएदार ही .. बस .. उसकी आँखें जब कभी भी चिरनिंद्रा में मूँदी और वह उसी पल अपनी जायदाद से बेदख़ल हो जाता है .. फिर भी इतनी हेकड़ी ? .."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, December 14, 2023

पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "

गतांक के आगे :-

रेशमा के इस तथ्यात्मक सवाल से मयंक निरूत्तर होकर अपनी दोनों हथेलियों से जुड़ी दसों उंगलियों को चटकाते हुए, सामने बैठी रेशमा से लगभग अपनी नज़रें चुराते हुए समर, अमर और अजीत की ओर देखने का प्रयास भर कर रहा है .. जो फ़िलहाल यहाँ से वापस जाने की सोच रहे हैं और ऐसा बोल भी चुके हैं। 

किसी भी इंसान के पास जब कभी भी किसी सवाल या समस्या का हल ना हो तो वह उससे अक़्सर निपटने के बजाए बचने का भरसक प्रयास करता ही नज़र आता है .. कभी अपनी हथेलियों की उंगलियों को चटका कर तो .. कभी पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदने का असफल प्रयास कर के .. शायद ...

तभी अचानक शशांक वर्तमान की वस्तुस्थिती समझते हुए .. रेशमा को ठहरने का इशारा करते हुए अजीत को सम्बोधित करके कह रहा है ...

शशांक - " अजीत .. ठीक है .. तुम लोग निकलो .. तुम लोगों को देर हो रही है .."

अजीत - " हाँ .. सही .. फिर आते हैं हम तीनों किसी भी छुट्टी के दिन .."

अमर - " हाँ.. अब तो आना ही होगा .. कम से कम रसिक भाई की कड़क चाय पीने के लिए तो .. "

समर - " हमको भी रेशमा जी से मिलना अच्छा लगा .. आपके विचार अच्छे लगे .. अब तो बार-बार मिलना ही होगा .. है ना ? .."

बातें करते-करते भावुकतावश नम हो गयी रेशमा की आँखों को देखते हुए अब समर अपनी बात कह रहा है। वैसे तो इन तीनों की बातों में औपचारिकता की झलक तो लेशमात्र भी नहीं जान पड़ रही .. हाँ .. बेशक़ उनकी बातों में आत्मीयता का ही भान हो रहा है। वैसे भी जब दो इंसानों के विचार आपस में मिलते हों तो ... तो .. पर .. हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज किन्नरों को इंसान मानता कब है भला ? 

किन्नरों को तो .. हमारा उपरोक्त समाज हिजड़ा, छक्का, नामर्द जैसे संज्ञाओं से विभूषित करके सदियों से .. पीढ़ी दर पीढ़ी उपहास का पात्र बनाकर किसी 'एलियन' की तरह घूरता आया है। हमारी सामाजिक दकियानूसी सोचों के कारणवश ही, हमारे लिए सहज-सुलभ उपलब्ध कई सारे अवसरों से भी, सदियों उन्हें वंचित रख कर हमने अपने जननांगों पर अपनी गर्दन अकड़ाई है .. शायद ...

अब ऐसे में उन लोगों का मज़बूरीवश किसी 'ट्रेन-बस' में या कभी-कभी चलते-फिरते सड़कों-बाज़ारों में अक़्सर अपनी एक हथेली क्षैतिजतः और दूसरी को उर्ध्वाधरतः दिशा की मुद्रा में रखकर और दोनों हथेलियों की उंगलियों को लगभग नब्बे डिग्री पर अलग-अलग दिशा में रखते हुए .. सर्वाधिकार सुरक्षित वाली मुद्रा में विशेष तरीके से .. ताली बजा-बजा कर और .. प्राकृतिक रूप से अपनी काया के 'हार्मोनल' असंतुलन के कारणवश भारी आवाज़ या यूँ कहें कर्कश आवाज़ में कई तरह के लोकगीत या फिर फ़िल्मी हास्यानुकृति (पैरोडी/Parody) गा-गा कर अपने जीविकार्जन के लिए या तो .. प्रेमपूर्वक अपने हाथ फैला कर लोगों से सहायता माँगते हैं या कई बार भद्दे ढंग से छेड़ के या यूँ कहें कि .. परेशान करके रुपए वसूलते हैं। इनकी इन सब बेतुकी करतूतों के लिए भी हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज ही उत्तरदायी है .. शायद ...

प्रसंगवश .. यूँ तो सर्वविदित है कि हमारे सभ्य समाज की ताली का स्वरूप, इनकी ताली से इतर होता है। किन्नरों से इतर नर-नारी वाले हमारे तथाकथित समाज की तालियों के दौरान दोनों हथेलियाँ प्रायः उर्ध्वाधरतः रहती हैं और दोनों हथेलियों की सारी उंगलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श करती हुईं, एक-दूसरे के सामने समानान्तर होती हैं। इन तालियों के भी कई ताल और ताल पर आधारित इनके नाना प्रकार होते हैं। मसलन- आरती-पूजा की ताली, कव्वाली की ताली, योगाभ्यास की ताली, 'सिनेमा हॉल' या 'मल्टीप्लेक्स' में बजने वाली ताली, खेल के मैदान में बजने वाली तालियाँ, नेता जी के भाषण के तदोपरान्त वाली ताली, किसी विशिष्ट जन के स्वागत की ताली, कवि गोष्ठी या मुशायरे वाली ताली, गुस्से में "वाह बेटा ! वाह !" कहते हुए हथेलियों को मसल-मसल कर बजायी गयी ताली, तम्बाकू (खैनी) मलते समय बजने वाली ताली, रास्ते या मैदान में साइकिल या 'स्कूटी' चलाना सीख रहे या रही किसी नवसिखुए के असंतुलित होकर गिर जाने पर आसपास खेल रहे बच्चों द्वारा बजायी गयी ताली, अबोध बच्चों द्वारा हर्षोल्लास में अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से बजायी गयी ताली, तथाकथित सभ्य जन द्वारा किसी सभा में बेआवाज़ बजायी जाने वाली सभ्य ताली, लोकसभा और राज्यसभा में क्रमशः सांसद और विधायकों द्वारा .. "ताली दोनों हाथ से बजती है" जैसे मुहावरे को मुँह चिढ़ाते हुए .. मेज पर एक ही हथेली से थपकी दे-देकर किसी बात के समर्थन में या किसी बात की ख़ुशी में बजने वाली ताली, मेले, मदारी, सर्कस में दर्शकों की सामूहिक तालियाँ इत्यादि नाना प्रकार की तालियों को .. करतल ध्वनियों के ताल-बेताल वाले सुर-ताल के साथ तो .. हम और हमारा तथाकथित सभ्य समाज सहर्ष स्वीकार कर ही लेता है .. परन्तु .. सिवाय और सिवाय एक ताली के .. किन्नरों की तालियों के .. शायद ...

ख़ैर ! .. अब रसिक चाय दुकान की कड़क चाय पीने के बाद समर, अमर और अजीत .. तीनों लोग मयंक, शशांक, रेशमा, रेशमा की टोली, मन्टू, चाँद और भूरा के साथ-साथ रसिक और कलुआ से भी मिलकर अपने 'पी जी' वाले गन्तव्य की ओर सभी को 'टाटा' की मुद्रा में हाथ हिलाते हुए प्रस्थान कर रहे हैं। 

तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठते-उठते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर  की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है। 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】