Thursday, November 2, 2023

पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१६) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

गतांक के आगे :-

स्वच्छ भारत अभियान के तहत या उससे पहले से भी स्वच्छता पसंद कोई भी प्राणी अपनी दिनचर्या के दौरान उत्पन्न कचरों का यथोचित निष्पादन करके स्वयं के एक जिम्मेवार नागरिक होने का परिचय सदैव देता रहा है। परन्तु हम अपने घरों के अनुपयोगी कचरों को यथोचित स्थान पर डाल कर उसे प्रायः भूल ही जाते हैं। यूँ तो हमारा ऐसा करना स्वाभाविक भी है और .. उचित भी है ही .. शायद ...

परन्तु इस प्रक्रिया में हम जाने-अंजाने अपनी दिनचर्या की कई सारी निजी बातें सार्वजनिक करने से भी नहीं चूकते हैं। मसलन - कचरे में शामिल हमारे द्वारा खाए गए फलों और सब्जियों के अनुपयोगी छिलके या लहसुन-प्याज के छिलके, 'ब्रेड' के 'रैपर', 'कोल्ड ड्रिंक' के खाली 'कैन' या बोतल, 'केचप'-'सॅस' की खाली बोतलें या 'पाउच', 'चॉकलेट'-'टॉफ़ी' के 'रैपर', विभिन्न प्रकार के 'ब्रांडेड' मसालों के खाली 'पाउच' या 'पैकेट्स' के 'ब्रांड' या 'साइज़' इत्यादि हमारे खानपान के बारे में बहुत कुछ बोल देते हैं। इनके अलावा कचरे में माँसाहारी परिवार के घरों से डाले गए शेष बचे अंडे के छिलके, मछलियों के काँटे या माँस की बड़ी या छोटी आकार की हड्डियाँ हमारे माँसाहारी होने की चुग़ली तो करती ही हैं और .. बड़ी या छोटी हड्डियाँ क्रमशः "बड़का" (बीफ /Beef) या "छोटका" (मटन/Mutton) के मुर्दे-माँस को खाने वालों की श्रेणी में हमें स्वतः बाँट देती हैं। इसी प्रकार हमारे 'अंडरगारमेंट्स' या अन्य नए खरीदे गए परिधानों के अनुपयोगी डब्बे हमारी रूचि के साथ-साथ हमारे जीवन स्तर और ... हमारे 'अंडरगारमेंट्स' के माप की भी जानकारी आम करते हैं .. शायद ...

इन सब के अलावा हमारे द्वारा कचरे में फेंकी गयी 'टॉनिक' की खाली शीशी, 'टैबलेट' के खाली 'रैपर', 'इन्सुलिन' की खाली 'पैकिंग', 'सिरिंज', 'नीडल', 'बैंडेज' इत्यादि हमारे द्वारा या हमारे परिवार में किसी भी सदस्य के द्वारा भी सेवन की गयी दवाईयों और उनसे सम्बंधित हमारी विभिन्न बीमारियों की पोल खोल देती हैं। दूसरी तरफ ... घर से निकले कचरों में पड़े सिगरेट के शेष बचे 'फिल्टर'युक्त टुकड़े, शराब की छोटी शीशी या बड़ी बोतलें, चखना के तौर पर 'चिप्स' या 'मिक्सचर्स' के 'रैपर्स' .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही के हमारे आदी होने की ओर इंगित करते हैं .. शायद ...

अक़्सर दूरदर्शन पर विभिन्न समाचार 'चैनलों' द्वारा हम दर्शकों को किसी भी घटना से सम्बन्धित विचलित करने वाले दृश्यों या दृश्य के कुछ हिस्सों को 'ब्लर' (धुँधला) कर दिया जाता है। यथासम्भव यह क़ानून की हद का भी ध्यान रखते हुए किया जाता है। परन्तु शब्दों के माध्यम से कुछ भी कहने (लिखने) के क्रम में 'ब्लर' करने जैसी कोई तकनीक अभी तक नहीं बन पायी है और अगर होगी भी तो मुझे ज्ञात नहीं है। अब ऐसे में अगर कथ्य के संदर्भ में शर्म, लज्जा, संकोच, झिझक या हिचकिचाहट की जाए तो तथ्य के साथ न्याय नहीं हो पाता .. शायद ... अब तथ्य या कथ्य ? .. दोनों में से एक के चुनाव के लिए हम जैसे अनुभवहीन और अतुकांतों की बतकही करने वालों के लिए तो तथ्य ही महत्वपूर्ण है .. शायद ...

तथ्यों को उजागर करने के लिए हो सकता है कई सारे आपत्तिजनक शब्दों या शब्द-चित्रों को भी इस्मत आपा जी (इस्मत चुग़ताई) या मंटो जी (सआदत हसन मंटो) की तरह (?) लिखनी पड़ जाए या यूँ कहें कि लिखना पड़ रहा है, तो .. मेरी बतकही पर अपनी सरसरी नज़र दौड़ाने वाले या वाली आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत लोगों से .. अग्रिम क्षमाप्रार्थी ...

हाँ .. तो .. प्रसंगवश उपरोक्त क्षमा याचना के पश्चात कचरे के कुछ और भी गुणगान-बखान कर ही लेते हैं। मसलन .. सर्वप्रथम तो कचरे में पड़े अगर रक्तसिक्त कपड़े के टुकड़े हों, तो यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, कि घर के किसी सदस्य के किसी अंग के कटने से बहे हुए ये रक्त हैं या किसी सदस्या के रजस्वला होने के कारण बहे रक्त से सने कपड़े का टुकड़ा है। पर हाँ .. अगर कचरे में व्यवहार किए गए रक्तसिक्त 'सैनिटरी नैपकिन' यानी 'पैड्स'हो या 'टैम्पोन' या फिर 'मेन्सट्रुअल कप' हो, तो यकीनन उन कचरों को बाहर फेंकने वाले घर में किसी के रजस्वला होने की ओर इंगित करता है। साथ ही इन सारे विभिन्न साधनों से उस परिवार विशेष की जीवन शैली और जीवन स्तर का भी पता चलता है .. शायद ... 

कभी-कभी किसी तो यूँ .. घर-परिवार विशेष के फेंके गए कचरे में पड़ी 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' और 'किट' पर रंगहीन या गुलाबी-नीली रेखाएँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं और कई दफ़ा तो इस्तेमाल किए गए वीर्य से लथपथ 'कंडोम' और साथ में उसके 'रैपर' बीती रात की निजी घटना को सार्वजनिक कर जाते हैं .. और 'रैपर' के 'ब्रांड' से उस युगल जोड़ी की पसंद या उनके जीवन स्तर की जानकारी सार्वजनिक हो जाती है .. शायद ...

अपनी-अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार हालांकि हम अपने अत्यंत निजी प्रसंग से जुड़े कूड़े को पुराने अख़बार के पन्ने या घर के बेकार ठोंगे या 'पॉलीथीन बैग' में लपेट कर उन मामलों को सार्वजनिक होने से बचाने का भरसक प्रयास करते तो हैं ही, पर .. मंडला (मध्य प्रदेश) के एक शिक्षक- श्याम बैरागी जी की रची और गायी हुई पंक्तियाँ .. "गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल" ... बजाते हुए आने वाली नगर-निगम की गाड़ी पर सवार निगमकर्मी जब अपनी 'ड्यूटी' निभाते हुए "सूखा कूड़ा" और "गीला कूड़ा" अलग-अलग करने के क्रम में हमारे कूड़ेदान को पलट कर सारे कचरों को अपने पैरों से बिखेर कर अलग-अलग करते हैं या हमारे फेंके गए बेकार कचरों में से अपने जीवन आधार को बीनने वाले नाबालिग़ बच्चों द्वारा उसे कुरेदे जाते हैं या फिर ज़ंजीर से जकड़े पालतू विदेशी नस्ल के किसी कुत्ते-कुतिया की तरह खाने-पीने व रहने की उचित व व्यवस्थित व्यवस्था नहीं होने के कारण अपनी जठराग्नि को बुझाने की कुछ भी सामग्री मिल जाने की आस लिए गली-मुहल्ले के स्वतन्त्र कुत्ते-कुतिया द्वारा उन कचरों को उलट-पलट कर बिखेरे जाते हैं, तो हमारे द्वारा की गयी अत्यन्त निजी क्रिया-कलापों से उत्पन्न कचरों को ढँक-तोप कर छुपाने की हमारी बुद्धिमत्ता तो धरी की धरी ही रह जाती है .. शायद ...

और हाँ .. यही सारी बातें कचरे के साथ-साथ कबाड़ के साथ भी लागू होती हैं। हमारे घर से छाँट कर कबाड़ी को बेचे गये कबाड़ से भी हमारे जीवन स्तर का पता चलता है।कभी-कभी तो अचरज भी होता है .. जब कभी मुहल्ले भर की नज़रों में किसी व्यक्ति विशेष की छवि निहायत शरीफ़ और चरित्रवान इंसान की बनी हो और कबाड़ी वाला उसके घर से अक़्सर शराब की बोतलें गिन कर या तौल कर ले जाता हो या प्रतिदिन सुबह-सुबह जोर-जोर से शंख बजाने और मन्त्रोच्चार करने की वजह से किसी सभ्य समाज द्वारा किसी सभ्य माने जाने वाले व्यक्ति के घर से रद्दी वाले प्रायः पुराने अख़बारों के बीच फ़ुटपाथी अश्लील (?) किताबें भी लेकर निकलते हों .. जिनका प्रचलन आजकल 'यूट्यूब' जैसी सुविधा-साधन पर अनगिनत 'पोर्न साइट्स' उपलब्ध होने के कारण कम-सा हो गया है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ये सब तो चलता ही रहेगा .. लोग दिन के उजाले में चालीसा भी चिल्लाएंगे और रात के अँधियारे में 'पोर्न साइट्स' भी देखने से नहीं चूकेंगे .. दोहरी मानसिकता .. दोहरे चरित्र .. सदियों से होते रहे हैं .. होते ही रहेंगे .. बस यूँ ही ... 

इतनी विस्तृत अनर्गल बतकही वाली भूमिका के बाद लौटते हैं हम .. हमारे धारावाहिक के जीवंत पात्रों की ओर .. तो .. मन्टू अभी-अभी प्रतिदिन सुबह-सुबह स्कूल जाते समय अंजलि द्वारा फेंकी गयी घर के कूड़ों से भरी थैली के 'पोस्टमार्टम' के लिए मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया को पुचकार कर, फिर ना मानने पर पत्थर से मार कर भी रोज की तरह सामान्य रूप से उसकी बात मान लेने वाली बसन्तिया को ना मानने पर .. सब की नज़र बचा कर पहले अपने दाएँ पैर से और फिर .. अपने हाथों से उस थैली के कचरों को बिखेर कर अंजलि की दिनचर्या का 'पोस्टमार्टम' करने लगा है। इसी से उसे हर माह पता चलता रहता है, कि अंजलि के "मुश्किल से भरे वो चार दिन" कब शुरू होते हैं और कब ख़त्म .. जिसके बाद उसके 'शैम्पू' किए .. अपने खुले बालों में उसके दर्शन हो जाने से वह मन ही मन .. बहुत ही खुश होता रहता है। पर ये क्या .. अभी तो उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं है .. चेहरे पर एक तनाव की गहरी रेखा अचानक खींच गयी है। आख़िर ऐसा क्या दिख गया भला उसे अंजलि के घर से निकले आज के कचरे में ... ? 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, October 30, 2023

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...


दोहरे चरित्र वाले इंसानों की उपस्थिति हमारे हर समाज, मुहल्ले, गाँव, शहर, राज्य, देश, विदेश में प्रायः होती ही होती है .. शायद ...

मसलन .. कई दफ़ा रामनवमी के मौके पर निकलने वाली शोभायात्राओं में कई युवाओं या वयस्कों के मुँह में घुलते गुटखे, एक हाथ में सुलगते सिगरेट, दूसरे में नंगी तलवार .. और .. गुटखे चबाने वाले और धुएँ के छल्ले उगलने वाले उसी मुँह से चीख़ती हुई निकलती आवाज़ .. जय श्री राम.. देखने-सुनने के लिए मिलती है .. शायद ...

अक़्सर राहों से गुजरते वक्त सफ़ेद और लम्बी दाढ़ीधारी मौलाना 'टाइप' कुछेक इंसानों को सार्वजनिक स्थल पर या कई दफ़ा तो मस्जिद की चौखट या सीढ़ी पर बैठ कर बीड़ी फूँकते हुए देख लेने पर उन्हें हम तो टोक ही देते हैं। उनकी उम्र और मज़हब का लिहाज़ किए बिना कहना पड़ता है कि - " श्रीमान ! .. आप तो दो-दो गुनाह एक साथ कर रहे हैं .. एक तो आपके मज़हब के मुताबिक़ किसी भी तरह का नशा हराम है। दूजा अपने देश के संविधान के अनुसार सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान वर्जित और क़ानूनन अपराध भी है। " 

ऐसे में सामने वाला कितना भी अक्खड़ वाला हो, अकड़ वाला हो, उनकी गर्दन झुक ही जाती है और बीड़ी या सिगरेट को जकड़ने वाली तर्जनी और मध्यमा उनके चूतड़ की पृष्ठभूमि में स्वतः चली जाती है या फिर शेष बची बीड़ी या सिगरेट उनकी उँगलियों की गिरफ़्त से आज़ाद हो कर झट से जमीन में पड़ी धूल चाटती हुई नज़र आने लगती है .. शायद ...

कई-कई बार तो प्रायः कई सज्जन पुरुष (नारी भी) स्वयं को किसी भी महापुरुष का अनुयायी स्वघोषित करते नज़र आ जाते हैं .. ख़ासकर 'सोशल मीडिया' पर। वह किसी एक महान व्यक्ति के अपने मन-हृदय में बसने की भी बात करते हैं, परन्तु व्यवहारिक रूप से वे उनके आदर्शों से कोसों दूर नज़र आते हैं .. शायद ...

तो क्या ..  ऐसे दोहरे चरित्र वाले सज्जन इंसानों को सामने से टोकना या पीछे से दर्पण दिखलाना किसी हिंसा की श्रेणी में रखा जाएगा ? शायद नहीं .. तो आज से .. अभी से .. हम सभी को .. जब कभी भी ऐसे लोग नज़र आएँ तो उन्हें सामने से दिखें टोक कर, एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें अपना यथोचित कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी ही चाहिए .. बस यूँ ही ...

ऐसे एक व्यक्ति को टोक कर उन्हें उनकी भूल और साथ ही शर्मिंदगी का एहसास कराना .. हमारे-आपके द्वारा हर वर्ष 'व्हाट्सएप्प' पर भेजे जाने वाले 'कॉपी & पेस्ट' वाले 'हैप्पी रिपब्लिक डे' या 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' जैसे सैकड़ों 'मैसेजों' से कई गुणा बेहतर है .. शायद ...

अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध स्वयंसेवी संस्थान (जिनका यहाँ नाम लेना उचित नहीं .. शायद ...) द्वारा एक सरकारी विद्यालय की चहारदीवारी के भीतर परती जमीन में  आयोजित वृक्षारोपण कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला, तो कार्यक्रम के दौरान वहाँ उपस्थित कुछ स्वयंसेवकों को बाहरी चिलचिलाते धूप से बचने के लिए एक कार के भीतर बैठ कर "चखने" के साथ मद्यपान करते और कार से बाहर धूम्रपान करते देख कर .. तो हमारा मन विचलित-सा हो गया .. तत्क्षण सोचने लगा कि दुनिया में ना जाने ऐसे कितने सारे दोहरे चरित्र वाले सज्जन लोग भरे पड़े हैं .. शायद ... 

इन विसंगतियों से भरी आबनूसी काली अँधेरी रात में ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम हम एक जुगनू तो बन ही सकते हैं .. शायद ...  ऐसी ही सारी विसंगतियों से भरी घटनाओं से अभिप्रेरित होकर मन में ऊपजी कुछ तुकबन्दियों वाली बतकही आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...

मस्जिदों की सीढ़ियों पर ...

कई सनातनियों के मुख से यूँ निकलते तो हैं जय श्री राम,

उसी मुख के गुटखे हैं बनाते दीवारों-सड़कों को पीकदान ?


जाने क्यूँ बन्दे ख़ुदा के ख़ुद को कहने वाले यूँ कुछ इंसान, 

प्रायः बैठे मस्जिदों की सीढ़ियों पर करते हैं भला धूम्रपान ?


हों जिनके आदर्श, करने वाले बकरी के दूध का दुग्धपान,  

भला करते हैं क्यों और क्योंकर वे महान जन मदिरापान ?


करते हैं क्यों हर बात में अमित्र करने की बात कई इंसान,

जो कहते हैं स्वयं को हर बार अहिंसा-पुजारी के कद्रदान ?


सोचो-सोचो जीते जी, करो भलाई किसी अमित्र की भी,

मरने पर ना जा के क़ब्रिस्तान, ना श्मशान, करके देहदान।


Thursday, October 26, 2023

पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१५) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

गतांक के आगे :-

यूँ तो किसी के भी यौवन काल की प्रेम कहानियाँ .. ना .. ना .. प्रेम घटनाएँ इतनी भी छोटी नहीं होती, जिसे तीन घन्टे से भी कम समय वाले फ़िल्मी पर्दे पर देखा जा सके या फिर चंद पन्नों के उपन्यास में पढ़ा जा सके। उस काल की प्रेम घटनाओं की लम्बाई और गहराई निर्भर करती हैं .. दोनों ही प्रेमी-प्रेमिका की सम्वेदनशीलता पर .. मन से मन के जुड़ाव पर। वैसे तो .. तन से तन का जुड़ाव तो एक मौसम विशेष में राह चलते कुत्ते-कुत्तियों के बीच .. कहीं भी .. कभी भी हो जाते हैं .. शायद ...

ओह ! ... प्रसंगवश अभी-अभी .. कुत्ते-कुत्तियों की चर्चा होने से .. याद आयी कि हमलोग मन्टू को "पुंश्चली .. (९)" के दौरान मुहल्ले भर में घुमने वाली गली की काली कुतिया- बसन्तिया के पास छोड़ कर आयें हैं, तो .. अभी मन्टू और रजनी यानी .. मन्टू की रज्ज़ो की और भी ढेर सारी प्रेम घटनाओं की चर्चा आगे फिर कभी .. फिलहाल चलते हैं रसिकवा की "रसिक चाय दुकान" के निकट वाले कूड़ेदानों के समीप .. जहाँ मन्टू और बसन्तिया की नोक-झोंक से चाँद और भूरा के साथ-साथ हम सब भी रूबरू हुए हैं।

दरअसल रंजन के कोरोना के गाल में समाने के बाद मन्टू निःसहाय हो चुकी अपनी अंजलि भाभी के प्रति स्वाभाविक सहानुभूतिवश जुड़ते-जुड़ते ना जाने कब अपने मन में एक कोमल भावनाओं को पनपा लिया .. इसका उसे तो भान तक भी नहीं हो पाया है। फिर तो अपने मन में एकतरफा प्रेम के वशीभूत होकर घर, स्कूल के अलावा दोनों की दूरी तय करने के दौरान भी कभी आमने-सामने, तो कभी छुप-छुपा कर उस पर अपनी पैनी और कोमल नज़रें भी रखने लगा है। अंजलि की सुरक्षा के ख़्याल से भी और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए भी। इन्हीं सब बातों के अंतर्गत अब मन्टू की दिनचर्या में शामिल है, रोजाना सुबह-सुबह तीन वर्षीय अम्मू यानी अमन के साथ-साथ अंजलि के स्कूल जाते वक्त अपने घर के एक दिन पहले के पूरे दिन-रात वाले कूड़े-करकट से भरी थैली को उसके द्वारा सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने तक छुप-छुपा कर पीछा करना और फ़ेंक देने के बाद उस थैली का 'पोस्टमार्टम' करना या काली कुतिया- बसन्तिया से करवाना। 

आज भी अंजलि भाभी के कचरे वाली थैली का बसन्तिया 'पोस्टमार्टम' नहीं कर रही है, तो ... मन्टू ने गुस्से में आकर उस पर एक पत्थर के टुकड़े से वार कर दिया है। वास्तव में बसन्तिया को सुबह-सुबह तेज भूख लगी थी और कूड़ेदान में उसे किसी के घर से माँसाहारी व्यंजन की चूसी-चबायी हुई अवशेष रूप में फेंकी गयी जूठी बची-खुची हड्डियाँ मिल गयी है, तो उसके लिए तो मनपसंद जलपान ही मिल गया है। उसी वक्त अंजलि वाली कचरे से भरी थैली को रोज की तरह बसन्तिया से उसको पुचकार कर खुलवाने की मन्टू की कोशिश नाकाम हो गयी है।

इसके बाद फ़ौरन उसे बसन्तिया को मारने पर बहुत ही अफ़सोस भी हो रहा है, क्योंकि मन्टू, भूरा और चाँद ही नहीं रसिकवा, परबतिया, शनिचरी चाची के साथ-साथ बुद्धनवा व उसकी पत्नी रामरतिया भी .. बल्कि यूँ कहें कि पूरे मुहल्ले भर की चहेती है बसन्तिया। ख़ैर ! .. पुनः उसकी पीठ और माथे को सहलाते हुए मन्टू उसे पुचकार कर कचरे वाली थैली की ओर अपनी दायीं तर्जनी से संकेत करता है। रोज-रोज मन्टू के इस काम में मदद करते हुए बसन्तिया भी उसके इशारे बख़ूबी जान गयी है।

मन्टू और भूरा के सामने कभी चाँद ने ही अपनी 'टैक्सी' में चढ़े सवारियों की अजीबोग़रीब और रहस्यमयी बातों की चर्चा करते हुए बोला था, कि उस दिन दो जासूस साहब लोग आपस में अजीबोग़रीब बातें 'डिस्कस' कर रहे थे।

एक साहब - " विदेशों में तो बड़े-बड़े जासूस लोग किसी भी  व्यक्ति विशेष की जासूसी करके उसकी जानकारी हासिल करने लिए कई-कई महीने तक उसके घर से मिले कचरों का अध्ययन-विश्लेषण करते हैं। "

दूसरे साहब - " विदेशों में ही नहीं .. अपने देश में भी ये वाली पद्धति अपनायी जाती है। "

उस दिन इस तरह की अचरज भरी बातें सुनकर भूरा बीच में ही टपक पड़ा था। 

भूरा - " भला कचरे से भी जासूसी की जा सकती है ? तब तो हम भी एक जासूसी वाली कम्पनी खोल लेते हैं। "

चाँद - " 213 नम्बर वाली भाभी के घर 'केचप् फ़ैक्ट्री' खुलने वाली बात की जानकारी भी तो कचरे से तेरी की जाने वाली जासूसी का ही तो परिणाम है बे। "

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Wednesday, October 25, 2023

रामायण संग युधिष्ठिर ! ...






दरअसल ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन घाट पर प्रतिदिन होने वाली गंगा आरती के दौरान कल विजयादशमी के अवसर पर आरती के साथ ही विशेष आयोजन भी किए गए थे। 




जिसके तहत राम-रामायण से जुड़े कुछ प्रसंगों की झांकियों  की प्रस्तुति की गयी थी।  





दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले पुराने धारावाहिक- महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी भी उस आयोजन में हिस्सा लेने के लिए उपस्थित हुए थे।





बस यही तात्पर्य था हमारी आज की बतकही के शीर्षक का, कि कल रामायण वाले प्रसंगों के मध्य महाभारत दूरदर्शन धारावाहिक के युधिष्ठिर के पात्र को निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी की उपस्थिति से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया था .. बस यूँ ही ...







Thursday, October 19, 2023

पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१४) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-


गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 


गतांक के आगे :-

मेहता जी की इस नाराज़गी की वजह किसी आम भारतीय अभिभावक की तरह .. उनकी संतान के अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेने पर समाज में जगहँसाई वाली नहीं थी, बल्कि उनके पैसों से पोषित एक मजदूरिन के छीन जाने की थी। जो उनके घर और स्कूल दोनों ही जगह खटती रहती थी।

मेहता जी की बस इतनी ही मेहरबानी रही कि रंजन के गुजर जाने के बाद अंजलि के पास कोई भी जीवकोपार्जन के साधन ना रहने पर और उसके अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण कुछ ही दिनों बाद मन्टू की आर्थिक मदद ना लेने के लिए हठ करने पर, जब मेहता जी आगे अंजलि और उसके तीन वर्षीय अम्मू के लिए मन्टू के गिड़गिड़ाने पर अंजलि को अपने स्कूल में सहायिका के रूप में रखने के लिए तैयार हो गए थे।

यूँ तो वह बाद में अंजलि को अपने घर में भी दुबारा रखने के लिए मन बना लिए थे। पर तब अंजलि ने साफ़-साफ़ मना कर दिया था। वह उनके स्कूल में मासिक वेतन पर नौकरी कर के ही संतुष्ट थी या यूँ कहें कि वह अपने बेटे के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ श्रमिक बनना नहीं चाहती है। उसे अपने और रंजन की आख़िरी निशानी .. अपने अम्मू के भविष्य की चिन्ता है। वह जानती है कि अगर वह दोबारा मेहता जी के घर गयी तो उसके साथ-साथ उसका अम्मू भी एक मज़दूर बन कर रह जाएगा। 

मेहता जी में लाख बुराई के बावजूद उनकी एक और रहम-ओ-करम के लिए तो उनकी तारीफ़ तो करनी ही चाहिए कि उन्होंने अपनी तरफ से अम्मू की पढ़ाई के लिए उनके स्कूल में पढ़ने तक किसी भी तरह के शुल्क से मुक्त कर दिया है। यह भी परोक्ष रूप से अंजलि के लिए एक आर्थिक सहायता ही है, जिससे उसका स्वाभिमान भी चोटिल नहीं होता है।

यूँ तो अंजलि अपने जीवन में रंजन के जीते जी और अचानक चले जाने के बाद भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई तरह के सहयोग का एहसानमंद है मन्टू का। उस के इस घर में आने से भी पहले रंजन का भी जाने-अन्जाने बहुत ही बड़ा हितैषी रहा है मन्टू। इन सारी बातों से शनिचरी चाची भली-भाँति अवगत हैं। पर स्वयं मन्टू को ही किसी के लिए भी किया गया उसका कोई भी सहयोग याद नहीं रहता है। उसे तो बस और बस आज भी केवल रज्ज़ो की ही याद आती रहती है। 

रज्ज़ो .. मतलब मन्टू के बचपन की पड़ोस में रहने वाली रजनी .. तब मन्टू पाँच साल का रहा होगा, जब रजनी के घरवाले मन्टू के बगल में एक मज़बूर परिवार से उसका बना -बनाया मकान खरीद कर रहने आ गये थे। 

दरअसल उस मकान के मूल मालिक की तपेदिक की चिकित्सा के कारण अत्यधिक उधार हो गये थे। एक तो उस दम्पति की कोई सन्तान ना थी और तपेदिक के कारण उस घर का मालिक कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया था। जब ठीक था, तब तो एक किराने की दुकान में साधारण-सी नौकरी कर के अपना और अपनी पत्नी का पेट भर लेता था। रहने के लिए एक साधारण-सा परन्तु पुश्तैनी मकान तो था ही। 

यूँ तो उसकी पत्नी साँवली-सी पर .. गदराए तन के साथ-साथ तीखे नयन और नाक-नक़्श की मालकिन थी। मुहल्ले के मनचले उसके घर के आसपास या यूँ कहें कि उसके आसपास मंडराते रहते थे। लगभग तीस-बत्तीस वर्षीया उस औरत की शारीरिक भूख या मानसिक यौन इच्छाओं जैसी भी कोई समस्या रही होगी, जो अन्य भूख या इच्छाओं के समान ही होती है और जिसे हमारा सभ्य-सुसंस्कृत समाज बुरी बात मान कर या कह कर सिरे से नकारते हुए, उस विषय पर बात करने से भी कतराता है। 

जिस समस्या का तपेदिक से पीड़ित उसके पति के पास कोई हल नहीं रहा होगा .. तभी तो वह अपने बीमार पति  की सेवा-शुश्रूषा और चूल्हा-चौका को शीघ्र ही निपटा कर, फ़ुर्सत के वक्त अपने दरवाज़े की चौखट पर बैठ कर मुहल्ले के कई मनचलों के साथ अक़्सर हँसी-ठठ्ठा करती नज़र आती थी। उन्हीं में से एक के साथ उसका कुछ ज्यादा ही मेल-मिलाप था। 

वही विशेष चहेता मनचला कई दफ़ा रात के अँधियारे में या कभी-कभार तो साँझ में भी मुहल्ले भर की बिजली गुल रहने का फ़ायदा उठाते हुए उसके घर में आता-जाता दिख जाता था। जब कभी बिजली विभाग द्वारा दैनिक समाचार पत्र में सप्ताह भर या माह भर के लिए शाम में एक निश्चित समय के लिए 'लोड शेडिंग' की घोषणा की जाती थी, तो मुहल्ले भर के लोग उस घोषित समय से पहले ही अपने शाम का सारा काम पूरा करके मोमबत्ती और लालटेन की तैयारी करके बैठ जाते थे। बच्चे लोग भी अपना 'होमवर्क' पूरा कर लेते थे। मुहल्ले भर की सभी गृहणियाँ चूल्हा-चौका भी 'लोड शेडिंग' के पहले पूरा कर लेती थीं और ऐसे मौकों पर उधर उस मनचले के साथ-साथ उस औरत की भी तो मानो 'लॉटरी' निकल आती थी। उन दोनों का वश चलता तो सालों भर 'लोड शेडिंग' करवा देते .. शायद ...

अंततः उधार चुकाने के लिए और आगे की चिकित्सा व जीवकोपार्जन के लिए मन पर पत्थर रख कर उन्हें अपने इस पुश्तैनी घर का सौदा करना ही पड़ा था। मकान के बदले मिले रुपयों के अधिकांश हिस्से से सारे उधार देने वालों का मुँह चुप कराया दोनों ने और उसके बाद वे दोनों अपने पुश्तैनी घर से और मुहल्ले से भी निकल कर चले गए थे। बाद में पता चला था, कि शहर की आबादी से दूर कम किराए पर एक कोठरी वाली गृहस्थी में दोनों जीवन गुजारने लगे थे।

तब पाँच साल का मन्टू और उस वक्त की तीन वर्ष की रजनी एक ही स्कूल में पढ़ने जाते थे। एक ही रिक्शा गाड़ी पर बैठ कर दोनों स्कूल जाते थे। 

मानव नर और मादा को अपने बचपन में अपने शारीरिक बनावट में दिखने वाले जनन तंत्र के अंतर से ऊपजी उत्सुकता उनकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ शनैः-शनैः ... अंतर और उत्सुकता दोनों ही बढ़ती जाती है। 

वक्त के साथ-साथ वे दोनों ही तथाकथित 'टीन ऐज' के गलियारे में चहलकदमी करने लगे थे। स्कूल से घर आ जाने के बाद भी रजनी गणित का या विज्ञान के किसी कठिन सवाल को लेकर मन्टू के पास उसके घर पर समझने के बहाने चली आती थी। कभी भूगोल या संस्कृत सम्बंधित भी। 

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Saturday, October 14, 2023

हे प्रिये ! .. काश ! .. कभी ...

हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


मन्दिरों में फिर हमें शायद 

दिख जाएँ तुम्हारे पूज्य भगवन

और दिखने लग जाए प्रिये तुम्हें 

पूजा की थाली में निर्मम पुष्प हनन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


श्रद्धा से पढ़ पाएँ शायद तब हम

दोहे-चालीसे, कर पाएँ भजन-कीर्तन

और तुम्हें दिख पाए कभी भी, 

कहीं भी .. मुरली की तानों में ही वृंदावन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


देख सकें हम अनायास विधाता

मंदिरों-धामों के गढ़े हुए पाषाणों में और 

हो दिव्य दर्शन प्रिये तुम्हें देख हर कीट-खग, 

पशु-पादप, नदी-सागर, अनगढ़ पर्वत, बाग़-वन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी .. 

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


सिर झुका पाएँ हम, मूँदें अपनी आँखें,

ढाक की थाप संग हो जब रक्तरंजित मंदिर प्राँगण

और दिख जाएँ तुम्हें वीभत्स छटपटाहट,

साथ सुन पाओ निरीह पठरुओं के तुम करुण क्रंदन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


जिह्वा मचले तब हमारी लार भरे मुँह में,

देख कर कोई भी माँसाहारी व्यंजन

और हो भान तुम्हें प्रिये .. वध किए 

प्राणी के मृत अंगों पे तेल-मसालों का लेपन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


दिख पाए हमें दाह-संस्कार से ही 

सम्भव हमारे मृत तन का निष्पादन 

और शव में भी प्रिये तुम्हें दिख जाएँ,

सूरों के लिए शेष बचे मेरे दो अनमोल नयन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


लग जाएँ करने हम मानव-मानव में अंतर,

जाति-धर्म, भाषा-भूषा, वर्ण-वर्ग के मापदण्ड पर

और हो जाए प्रिये प्रतीत तुम्हें सारे मानव समान,

सबकी एक ही धरती, एक ही सूरज-चाँद के आलंबन,

समान प्राणवायु में श्वसन, एक जीवन-स्रोत हृदय स्पंदन।



Thursday, October 12, 2023

पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१३) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

गतांक के आगे :-

यूँ तो इस ब्रह्मांड में सभी प्राणी अपनी-अपनी समझदारी के पैमाने के अनुसार अपनी-अपनी समझ रखते हैं। पर कोई उसे व्यक्त या साझा कर पाने की मादा रखता है और समय-समय पर कर भी पाता है और ... कोई अपने में ही दफ़न किए हुए एक दिन दुनिया में ही कफ़न ओढ़े दफ़न हो जाता है या फिर दाह संस्कार के हवाले हो कर विलुप्त हो जाता है। पुष्पा भी तो अपनी समझदार मामी जी की तरह ही अपनी समझ के अनुसार समझती है कि वह अपने पिता जी और माँ के ग़रीब होने की सजा भुगत रही है। पर उसके मुँह पर मज़बूरी के ताले जड़े पड़े हैं। 

कई दफ़ा तो कई लोगों के जीवन में पीड़ा की सबसे बड़ी वजह होती है कि उन्हें समझने वाला कोई नहीं होता .. ना घर-परिवार में और ना ही बाहर-समाज में .. या यूँ कह सकते हैं कि जिस मान-सम्मान, स्नेह-श्रद्धा के वो हक़दार होते हैं .. वह उन्हें जीते जी नहीं मिल पाता है। अगर मरने के बाद मिल भी जाए तो भला उनका क्या ?

वैसे तो पाँच साल की उम्र तक तो पुष्पा ने अपने घर की अमीरी नहीं भी तो .. कम से कम एक सामान्य खुशहाल दिनचर्या अवश्य देखी है। घर में ना तो खाने-पीने की कमी थी और ना ही पहनने-ओढ़ने की। भला और चाहिए ही क्या इंसान को ? भोजन, वस्त्र, पढ़ाई और दवाई ही तो ? .. इन सब की कोई कमी नहीं थी उसके घर में। उसका परिवार इन चारों ही उपलब्धियों की दृष्टिकोण से एक खुशहाल परिवार था।

परन्तु .. उसकी माँ अपनी रीढ़ की हड्डी में अक़्सर होने वाली पीड़ा में विज्ञापनों से महिमामंडित पीड़ाहारी 'बाम' लगाने के पश्चात भी आराम ना मिलने पर एक बार अपने शहर के सरकारी अस्पताल में चिकित्सा कराने क्या गयी, उस दिन से उस परिवार की आर्थिक स्थिति की रीढ़ की हड्डी ही टूट गयी। माँ की रीढ़ की हड्डी की पीड़ा से दिन-प्रतिदिन बढ़ती शारीरिक अशक्तता, अस्पताल के चक्कर, इलाज, दवाई, 'ऑपरेशन', शय्याग्रस्त दिनचर्या, बीमार की सेवा-शुश्रुषा .. इन सब ने बीमार माँ के साथ-साथ समस्त परिवार को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह असहाय बना दिया था। 

पिता जी की इकलौती कमायी इलाज के लिए लिए गए उधार को चुकाने में भी कम पड़ने लगी थी। शादी के समय मिले और घर में रखे सारे ज़ेवर तो पहले ही बंधक रखे जा चुके थे। जिनके छुट कर घर वापसी की उम्मीद तो ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी बिसुक गयी गाय से दूध दुह लेने की दुरूह कोशिश। 

सारे नाते-रिश्तेदार आगे उधार माँगने पर मुँह पर ही ये बोल कर चुप करा कर लौटा देते कि - " अगर अभी कुछ उधार दे भी दें उद्धार करने की सोच के तो भविष्य में वह उधार अगले सात जन्मों तक लौटा पाना तुम लोगों के वश की बात नहीं लगती। आख़िर हमारे घर भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें पढ़ाना-लिखाना है .. फिर बेटी की शादी भी करनी है। " - जितने मुँह, उतनी बातें .. कोई कहता - " ये सब जैसे चल रहा है, चलने दो। ये सब तुम लोगों के ही इस जन्म या उस जन्म के कर्मों के फल हैं। इसे भुगतना तो पड़ेगा ही। यहाँ भुगत लोगे तो "ऊपर" शायद स्वर्ग नसीब हो जाए। यही सब तो विधि का विधान है ना 'पुसपेन्दर' (पुष्पेन्द्र) ? इसमें हम लोग को क्यों घसीट रहे हो ? .. बोलो ? "

अंत में थक-हार कर पुष्पा के माता-पिता .. ख़ासकर पिता जी- पुष्पेन्द्र महतो अपने मन को कठोर कर के उसकी आगे की पढ़ाई .. उसके बेहतर भविष्य, उसकी भावी शादी इत्यादि सोच कर उसे अपने बड़े साले साहब के घर पहुँचा आए थे। माँ भी सोची थी कि बड़का भईया-भाभी के पास रहेगी तो खाने-पहनने की कमी नहीं रहेगी और उनके स्कूल में पढ़ेगी तो इसकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। पर आज की वास्तविक वस्तुस्थिती तो पुष्पा ही अकेली जान रही है और झेल रही है। वह नहीं चाहती है अपनी माँ या पिता जी को ये सारी बातें .. अपनी मानसिक और शारीरिक पीड़ा बतला कर उन्हें मानसिक कष्ट देना। जीवन की कठोर परिस्थितियाँ कई दफ़ा कोमल बालमन को भी अपने जैसी ही कठोर बना देती हैं, जो जीवन-पथ की हर कठिनाइयों को आसानी से झेलने की मादा से सुशोभित हो जाता है .. शायद ...

रंजन के जाने के बाद अंजलि और पुष्पा की एक दूसरे के प्रति समानुभूति और नैतिक समर्थन का आलंबन ही उनके लिए प्राणवायु की तरह काम कर रहा है। अक़्सर कई पीड़ाएँ, ख़ासकर मानसिक, किसी व्यक्ति विशेष के मौखिक समर्थन से ही विलुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी तो किसी का मूक समर्थन ही किसी के लिए एक सख़्त आलंबन सिद्ध हो जाता है।

कभी रंजन के ऐसे ही मूक समर्थन ने कभी अंजलि के दुःखी दिल में रंजन के प्रति कोमल भावनाओं ने अपना डेरा जमा लिया था। दरअसल पहले ही बतला चुके हैं कि रंजन के अपने गाँव से इस शहर में आने के बाद शुरुआती दौर में काम के लिए भटकने के दौरान मन्टू ने उसकी काफ़ी सहायता की थी। किसी सगे से भी बढ़ कर। उसी समय मन्टू ने उसे भाड़े पर चलाने के लिए चंदर कबाड़ी से किराए पर टोटो दिलवाया था .. वो भी एक अजनबी के लिए ज़मानती बन कर। तभी मन्टू ने अपने स्कूल, अपने स्कूल कहने का मतलब .. जिस स्कूल के बच्चों को उनके घर से स्कूल लाने और फिर छुट्टी होने पर उन्हें उनके घर तक ले जाने का काम अपने टोटो से करता था .. उसी स्कूल में और भी अन्य बच्चों के लिए उनके अभिभावकों से रंजन की बात करवा दी थी। दिन भर भाड़े की सवारी के अलावा स्कूल से भी एक निश्चित आय का स्रोत रंजन को मन्टू के मार्फ़त मिल गया था। प्रतिदिन स्कूल आते-जाते रंजन वहाँ के सभी तथाकथित चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों से घुलमिल-सा गया था। उन्हीं में से एक अंजलि भी थी। 

बच्चे लोग भी रंजन को बहुत प्यार करते थे। वह सभी बच्चों का "ड्राईवर अंकल" बन गया था। उसकी भी वजह थी .. रंजन अपने विद्यार्थी जीवन में तो पढ़ाकू था ही, पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा कहानी-उपन्यास की किताबों को पढ़ने का शौक़ था उसे और वह आदत आज भी उस से नहीं छूटी थी। जब भी मौका मिलता उसे टोटो के अलावा पन्ना-दर-पन्ना कर के कई तरह की किताबें पढ़ लेता था। जब से बच्चों को लाने- ले जाने का काम पकड़ा था, तो जातक कथा के जैसी किताबें ज्यादा पढ़ने लगा था। साथ ही उसे अभिनय का भी शौक़ था, तो अपने गाँव में होने वाली रामलीला में या अन्य कार्यक्रमों के तहत होने वाले नाटकों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के कारण .. उन्हीं कहानियों को वह अपनी नाटकीय शैली में बच्चों को स्कूल आते-जाते रास्ते में और उस से भी ज्यादा 'टिफ़िन' के वक्त बच्चों के साथ-साथ उपस्थित कर्मचारियों को भी सुनाता था। 

धीरे-धीरे सभी की इनमें दिलचस्पी बढ़ती गयी थी। फिर तो रंजन की दिनचर्या में ये शामिल हो गया था। बाद में तो बच्चे लोग अपनी लायी हुई 'टिफ़िन' अपने "ड्राईवर अंकल" के साथ साझा करने लगे थे। बल्कि अपनी-अपनी 'मम्मी' या आया को बोल कर अपने-अपने घर से अपने "ड्राईवर अंकल" के लिए अतिरिक्त पराठा या 'सैंडविच' बनवा कर लाने लगे थे। गाहे-बगाहे रंजन भी उनलोगों के लिए बदले में प्यार से 'टॉफ़ी-चॉकलेट' ले जाता था और कभी कर्मचारियों के लिए कुछ मिठाइयाँ भी। साथ ही वह उन्हीं लोगों के साथ मिल बाँटकर खाता था। बच्चों की तो 'टिफ़िन' होती थी, पर रंजन के लिए दोपहर का भोजन हो जाता था। उसी क्रम में एक दिन वह मिठाई के तौर पर पन्तुआ खरीद कर ले गया था। 

पन्तुआ या पैंतुआ एक पारम्परिक बंगाली मिठाई है, जो गुलाब जामुन से भिन्न होती है। गुलाब जामुन की मूल सामग्री मैदा और खोवा होता है। जबकि इसके विपरीत पन्तुआ सूजी, छेना, दूध, घी के सम्मिश्रण से बने बेलनाकार या गोला की आकृति को घी या वनस्पति तेल में तल कर और उसे चीनी की चाशनी में डाल कर बनायी जाती है। 

उस दिन रंजन के द्वारा खरीद कर लायी गयी पन्तुआ को देखते ही अंजलि मानो रुआँसी हो गयी थी। सभी उपस्थित लोग ये देख कर हैरान हो गए थे, कि आख़िर अचानक क्या हो गया इसको .. जो इसकी आँखें भर गयी हैं। सबके सामने ही पुष्पा द्वारा बहुत बार जोर देकर रोने की वज़ह पूछे जाने पर बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी थी, कि मीठा तो उसे पसन्द है ही और सभी मिठाईयों में पन्तुआ उसे बचपन से ही सबसे ज्यादा पसन्द है। जिस स्थान की वह रहने वाली थी, वहाँ सभी मिठाई दुकानों में पन्तुआ बिकती भी थी और बाबू जी भी उसकी पसंद जानकर लगभग हर शाम छः नग पन्तुआ लाने लगे थे। तीन सदस्यी परिवार में सभी के लिए दो-दो नग। पर होता ये था कि माँ तो अपने हिस्से का दोनों खा जाती थी, पर बाबू जी एक ही नग खाते थे और इस तरह अंजलि को तीन नग पन्तुआ मयस्सर हो जाता था। यही सब याद करके उसकी मासूम आँखें आँसुओं में तैरने लगी थीं। उस दिन अंजलि की पसन्द जान कर आगे से रंजन लगभग हर दूसरे दिन पन्तुआ ही लेकर आ जाता था और वह भी अंजलि के नाम पर एक 'पीस' अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】