Thursday, October 26, 2023

पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१५) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

गतांक के आगे :-

यूँ तो किसी के भी यौवन काल की प्रेम कहानियाँ .. ना .. ना .. प्रेम घटनाएँ इतनी भी छोटी नहीं होती, जिसे तीन घन्टे से भी कम समय वाले फ़िल्मी पर्दे पर देखा जा सके या फिर चंद पन्नों के उपन्यास में पढ़ा जा सके। उस काल की प्रेम घटनाओं की लम्बाई और गहराई निर्भर करती हैं .. दोनों ही प्रेमी-प्रेमिका की सम्वेदनशीलता पर .. मन से मन के जुड़ाव पर। वैसे तो .. तन से तन का जुड़ाव तो एक मौसम विशेष में राह चलते कुत्ते-कुत्तियों के बीच .. कहीं भी .. कभी भी हो जाते हैं .. शायद ...

ओह ! ... प्रसंगवश अभी-अभी .. कुत्ते-कुत्तियों की चर्चा होने से .. याद आयी कि हमलोग मन्टू को "पुंश्चली .. (९)" के दौरान मुहल्ले भर में घुमने वाली गली की काली कुतिया- बसन्तिया के पास छोड़ कर आयें हैं, तो .. अभी मन्टू और रजनी यानी .. मन्टू की रज्ज़ो की और भी ढेर सारी प्रेम घटनाओं की चर्चा आगे फिर कभी .. फिलहाल चलते हैं रसिकवा की "रसिक चाय दुकान" के निकट वाले कूड़ेदानों के समीप .. जहाँ मन्टू और बसन्तिया की नोक-झोंक से चाँद और भूरा के साथ-साथ हम सब भी रूबरू हुए हैं।

दरअसल रंजन के कोरोना के गाल में समाने के बाद मन्टू निःसहाय हो चुकी अपनी अंजलि भाभी के प्रति स्वाभाविक सहानुभूतिवश जुड़ते-जुड़ते ना जाने कब अपने मन में एक कोमल भावनाओं को पनपा लिया .. इसका उसे तो भान तक भी नहीं हो पाया है। फिर तो अपने मन में एकतरफा प्रेम के वशीभूत होकर घर, स्कूल के अलावा दोनों की दूरी तय करने के दौरान भी कभी आमने-सामने, तो कभी छुप-छुपा कर उस पर अपनी पैनी और कोमल नज़रें भी रखने लगा है। अंजलि की सुरक्षा के ख़्याल से भी और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए भी। इन्हीं सब बातों के अंतर्गत अब मन्टू की दिनचर्या में शामिल है, रोजाना सुबह-सुबह तीन वर्षीय अम्मू यानी अमन के साथ-साथ अंजलि के स्कूल जाते वक्त अपने घर के एक दिन पहले के पूरे दिन-रात वाले कूड़े-करकट से भरी थैली को उसके द्वारा सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने तक छुप-छुपा कर पीछा करना और फ़ेंक देने के बाद उस थैली का 'पोस्टमार्टम' करना या काली कुतिया- बसन्तिया से करवाना। 

आज भी अंजलि भाभी के कचरे वाली थैली का बसन्तिया 'पोस्टमार्टम' नहीं कर रही है, तो ... मन्टू ने गुस्से में आकर उस पर एक पत्थर के टुकड़े से वार कर दिया है। वास्तव में बसन्तिया को सुबह-सुबह तेज भूख लगी थी और कूड़ेदान में उसे किसी के घर से माँसाहारी व्यंजन की चूसी-चबायी हुई अवशेष रूप में फेंकी गयी जूठी बची-खुची हड्डियाँ मिल गयी है, तो उसके लिए तो मनपसंद जलपान ही मिल गया है। उसी वक्त अंजलि वाली कचरे से भरी थैली को रोज की तरह बसन्तिया से उसको पुचकार कर खुलवाने की मन्टू की कोशिश नाकाम हो गयी है।

इसके बाद फ़ौरन उसे बसन्तिया को मारने पर बहुत ही अफ़सोस भी हो रहा है, क्योंकि मन्टू, भूरा और चाँद ही नहीं रसिकवा, परबतिया, शनिचरी चाची के साथ-साथ बुद्धनवा व उसकी पत्नी रामरतिया भी .. बल्कि यूँ कहें कि पूरे मुहल्ले भर की चहेती है बसन्तिया। ख़ैर ! .. पुनः उसकी पीठ और माथे को सहलाते हुए मन्टू उसे पुचकार कर कचरे वाली थैली की ओर अपनी दायीं तर्जनी से संकेत करता है। रोज-रोज मन्टू के इस काम में मदद करते हुए बसन्तिया भी उसके इशारे बख़ूबी जान गयी है।

मन्टू और भूरा के सामने कभी चाँद ने ही अपनी 'टैक्सी' में चढ़े सवारियों की अजीबोग़रीब और रहस्यमयी बातों की चर्चा करते हुए बोला था, कि उस दिन दो जासूस साहब लोग आपस में अजीबोग़रीब बातें 'डिस्कस' कर रहे थे।

एक साहब - " विदेशों में तो बड़े-बड़े जासूस लोग किसी भी  व्यक्ति विशेष की जासूसी करके उसकी जानकारी हासिल करने लिए कई-कई महीने तक उसके घर से मिले कचरों का अध्ययन-विश्लेषण करते हैं। "

दूसरे साहब - " विदेशों में ही नहीं .. अपने देश में भी ये वाली पद्धति अपनायी जाती है। "

उस दिन इस तरह की अचरज भरी बातें सुनकर भूरा बीच में ही टपक पड़ा था। 

भूरा - " भला कचरे से भी जासूसी की जा सकती है ? तब तो हम भी एक जासूसी वाली कम्पनी खोल लेते हैं। "

चाँद - " 213 नम्बर वाली भाभी के घर 'केचप् फ़ैक्ट्री' खुलने वाली बात की जानकारी भी तो कचरे से तेरी की जाने वाली जासूसी का ही तो परिणाम है बे। "

इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है।  इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Wednesday, October 25, 2023

रामायण संग युधिष्ठिर ! ...






दरअसल ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन घाट पर प्रतिदिन होने वाली गंगा आरती के दौरान कल विजयादशमी के अवसर पर आरती के साथ ही विशेष आयोजन भी किए गए थे। 




जिसके तहत राम-रामायण से जुड़े कुछ प्रसंगों की झांकियों  की प्रस्तुति की गयी थी।  





दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले पुराने धारावाहिक- महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी भी उस आयोजन में हिस्सा लेने के लिए उपस्थित हुए थे।





बस यही तात्पर्य था हमारी आज की बतकही के शीर्षक का, कि कल रामायण वाले प्रसंगों के मध्य महाभारत दूरदर्शन धारावाहिक के युधिष्ठिर के पात्र को निभाने वाले अभिनेता- गजेन्द्र चौहान जी की उपस्थिति से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया था .. बस यूँ ही ...







Thursday, October 19, 2023

पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१४) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-


गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 


गतांक के आगे :-

मेहता जी की इस नाराज़गी की वजह किसी आम भारतीय अभिभावक की तरह .. उनकी संतान के अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेने पर समाज में जगहँसाई वाली नहीं थी, बल्कि उनके पैसों से पोषित एक मजदूरिन के छीन जाने की थी। जो उनके घर और स्कूल दोनों ही जगह खटती रहती थी।

मेहता जी की बस इतनी ही मेहरबानी रही कि रंजन के गुजर जाने के बाद अंजलि के पास कोई भी जीवकोपार्जन के साधन ना रहने पर और उसके अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण कुछ ही दिनों बाद मन्टू की आर्थिक मदद ना लेने के लिए हठ करने पर, जब मेहता जी आगे अंजलि और उसके तीन वर्षीय अम्मू के लिए मन्टू के गिड़गिड़ाने पर अंजलि को अपने स्कूल में सहायिका के रूप में रखने के लिए तैयार हो गए थे।

यूँ तो वह बाद में अंजलि को अपने घर में भी दुबारा रखने के लिए मन बना लिए थे। पर तब अंजलि ने साफ़-साफ़ मना कर दिया था। वह उनके स्कूल में मासिक वेतन पर नौकरी कर के ही संतुष्ट थी या यूँ कहें कि वह अपने बेटे के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ श्रमिक बनना नहीं चाहती है। उसे अपने और रंजन की आख़िरी निशानी .. अपने अम्मू के भविष्य की चिन्ता है। वह जानती है कि अगर वह दोबारा मेहता जी के घर गयी तो उसके साथ-साथ उसका अम्मू भी एक मज़दूर बन कर रह जाएगा। 

मेहता जी में लाख बुराई के बावजूद उनकी एक और रहम-ओ-करम के लिए तो उनकी तारीफ़ तो करनी ही चाहिए कि उन्होंने अपनी तरफ से अम्मू की पढ़ाई के लिए उनके स्कूल में पढ़ने तक किसी भी तरह के शुल्क से मुक्त कर दिया है। यह भी परोक्ष रूप से अंजलि के लिए एक आर्थिक सहायता ही है, जिससे उसका स्वाभिमान भी चोटिल नहीं होता है।

यूँ तो अंजलि अपने जीवन में रंजन के जीते जी और अचानक चले जाने के बाद भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई तरह के सहयोग का एहसानमंद है मन्टू का। उस के इस घर में आने से भी पहले रंजन का भी जाने-अन्जाने बहुत ही बड़ा हितैषी रहा है मन्टू। इन सारी बातों से शनिचरी चाची भली-भाँति अवगत हैं। पर स्वयं मन्टू को ही किसी के लिए भी किया गया उसका कोई भी सहयोग याद नहीं रहता है। उसे तो बस और बस आज भी केवल रज्ज़ो की ही याद आती रहती है। 

रज्ज़ो .. मतलब मन्टू के बचपन की पड़ोस में रहने वाली रजनी .. तब मन्टू पाँच साल का रहा होगा, जब रजनी के घरवाले मन्टू के बगल में एक मज़बूर परिवार से उसका बना -बनाया मकान खरीद कर रहने आ गये थे। 

दरअसल उस मकान के मूल मालिक की तपेदिक की चिकित्सा के कारण अत्यधिक उधार हो गये थे। एक तो उस दम्पति की कोई सन्तान ना थी और तपेदिक के कारण उस घर का मालिक कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया था। जब ठीक था, तब तो एक किराने की दुकान में साधारण-सी नौकरी कर के अपना और अपनी पत्नी का पेट भर लेता था। रहने के लिए एक साधारण-सा परन्तु पुश्तैनी मकान तो था ही। 

यूँ तो उसकी पत्नी साँवली-सी पर .. गदराए तन के साथ-साथ तीखे नयन और नाक-नक़्श की मालकिन थी। मुहल्ले के मनचले उसके घर के आसपास या यूँ कहें कि उसके आसपास मंडराते रहते थे। लगभग तीस-बत्तीस वर्षीया उस औरत की शारीरिक भूख या मानसिक यौन इच्छाओं जैसी भी कोई समस्या रही होगी, जो अन्य भूख या इच्छाओं के समान ही होती है और जिसे हमारा सभ्य-सुसंस्कृत समाज बुरी बात मान कर या कह कर सिरे से नकारते हुए, उस विषय पर बात करने से भी कतराता है। 

जिस समस्या का तपेदिक से पीड़ित उसके पति के पास कोई हल नहीं रहा होगा .. तभी तो वह अपने बीमार पति  की सेवा-शुश्रूषा और चूल्हा-चौका को शीघ्र ही निपटा कर, फ़ुर्सत के वक्त अपने दरवाज़े की चौखट पर बैठ कर मुहल्ले के कई मनचलों के साथ अक़्सर हँसी-ठठ्ठा करती नज़र आती थी। उन्हीं में से एक के साथ उसका कुछ ज्यादा ही मेल-मिलाप था। 

वही विशेष चहेता मनचला कई दफ़ा रात के अँधियारे में या कभी-कभार तो साँझ में भी मुहल्ले भर की बिजली गुल रहने का फ़ायदा उठाते हुए उसके घर में आता-जाता दिख जाता था। जब कभी बिजली विभाग द्वारा दैनिक समाचार पत्र में सप्ताह भर या माह भर के लिए शाम में एक निश्चित समय के लिए 'लोड शेडिंग' की घोषणा की जाती थी, तो मुहल्ले भर के लोग उस घोषित समय से पहले ही अपने शाम का सारा काम पूरा करके मोमबत्ती और लालटेन की तैयारी करके बैठ जाते थे। बच्चे लोग भी अपना 'होमवर्क' पूरा कर लेते थे। मुहल्ले भर की सभी गृहणियाँ चूल्हा-चौका भी 'लोड शेडिंग' के पहले पूरा कर लेती थीं और ऐसे मौकों पर उधर उस मनचले के साथ-साथ उस औरत की भी तो मानो 'लॉटरी' निकल आती थी। उन दोनों का वश चलता तो सालों भर 'लोड शेडिंग' करवा देते .. शायद ...

अंततः उधार चुकाने के लिए और आगे की चिकित्सा व जीवकोपार्जन के लिए मन पर पत्थर रख कर उन्हें अपने इस पुश्तैनी घर का सौदा करना ही पड़ा था। मकान के बदले मिले रुपयों के अधिकांश हिस्से से सारे उधार देने वालों का मुँह चुप कराया दोनों ने और उसके बाद वे दोनों अपने पुश्तैनी घर से और मुहल्ले से भी निकल कर चले गए थे। बाद में पता चला था, कि शहर की आबादी से दूर कम किराए पर एक कोठरी वाली गृहस्थी में दोनों जीवन गुजारने लगे थे।

तब पाँच साल का मन्टू और उस वक्त की तीन वर्ष की रजनी एक ही स्कूल में पढ़ने जाते थे। एक ही रिक्शा गाड़ी पर बैठ कर दोनों स्कूल जाते थे। 

मानव नर और मादा को अपने बचपन में अपने शारीरिक बनावट में दिखने वाले जनन तंत्र के अंतर से ऊपजी उत्सुकता उनकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ शनैः-शनैः ... अंतर और उत्सुकता दोनों ही बढ़ती जाती है। 

वक्त के साथ-साथ वे दोनों ही तथाकथित 'टीन ऐज' के गलियारे में चहलकदमी करने लगे थे। स्कूल से घर आ जाने के बाद भी रजनी गणित का या विज्ञान के किसी कठिन सवाल को लेकर मन्टू के पास उसके घर पर समझने के बहाने चली आती थी। कभी भूगोल या संस्कृत सम्बंधित भी। 

उस वर्ष सिनेमा हॉल में आयी फ़िल्म- आशिक़ी-2 के गाने ने दोनों के कच्चे मन में जली प्रेम (?) की पक्की आग में लोहबान-गुग्गल की तरह सुगन्धित ज्वलनशील सामग्री की तरह काम किया था .. "सुन रहा है ना तू , रो रही हूँ मैं ~~~~" ... सिनेमाघर की कुर्सी पर बैठे किशोर-किशोरी का ना जाने कब सिनेमा के पर्दे पर दिख रहे नायक-नायिका के चरित्र में पदार्पण हो जाता है .. कमरे में बैठे-बैठे भी कई बार उस देखी गयी फ़िल्म के गाने की आवाज़ की तरंगों पर ही सवार होकर तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे की बाँहों में समा जाने का सुख पा जाते हैं .. और पास बैठे घर-परिवार वालों को इसका भान तक भी नहीं हो पाता है .. शायद ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Saturday, October 14, 2023

हे प्रिये ! .. काश ! .. कभी ...

हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


मन्दिरों में फिर हमें शायद 

दिख जाएँ तुम्हारे पूज्य भगवन

और दिखने लग जाए प्रिये तुम्हें 

पूजा की थाली में निर्मम पुष्प हनन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


श्रद्धा से पढ़ पाएँ शायद तब हम

दोहे-चालीसे, कर पाएँ भजन-कीर्तन

और तुम्हें दिख पाए कभी भी, 

कहीं भी .. मुरली की तानों में ही वृंदावन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


देख सकें हम अनायास विधाता

मंदिरों-धामों के गढ़े हुए पाषाणों में और 

हो दिव्य दर्शन प्रिये तुम्हें देख हर कीट-खग, 

पशु-पादप, नदी-सागर, अनगढ़ पर्वत, बाग़-वन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी .. 

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


सिर झुका पाएँ हम, मूँदें अपनी आँखें,

ढाक की थाप संग हो जब रक्तरंजित मंदिर प्राँगण

और दिख जाएँ तुम्हें वीभत्स छटपटाहट,

साथ सुन पाओ निरीह पठरुओं के तुम करुण क्रंदन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


जिह्वा मचले तब हमारी लार भरे मुँह में,

देख कर कोई भी माँसाहारी व्यंजन

और हो भान तुम्हें प्रिये .. वध किए 

प्राणी के मृत अंगों पे तेल-मसालों का लेपन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


दिख पाए हमें दाह-संस्कार से ही 

सम्भव हमारे मृत तन का निष्पादन 

और शव में भी प्रिये तुम्हें दिख जाएँ,

सूरों के लिए शेष बचे मेरे दो अनमोल नयन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


लग जाएँ करने हम मानव-मानव में अंतर,

जाति-धर्म, भाषा-भूषा, वर्ण-वर्ग के मापदण्ड पर

और हो जाए प्रिये प्रतीत तुम्हें सारे मानव समान,

सबकी एक ही धरती, एक ही सूरज-चाँद के आलंबन,

समान प्राणवायु में श्वसन, एक जीवन-स्रोत हृदय स्पंदन।



Thursday, October 12, 2023

पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१३) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

गतांक के आगे :-

यूँ तो इस ब्रह्मांड में सभी प्राणी अपनी-अपनी समझदारी के पैमाने के अनुसार अपनी-अपनी समझ रखते हैं। पर कोई उसे व्यक्त या साझा कर पाने की मादा रखता है और समय-समय पर कर भी पाता है और ... कोई अपने में ही दफ़न किए हुए एक दिन दुनिया में ही कफ़न ओढ़े दफ़न हो जाता है या फिर दाह संस्कार के हवाले हो कर विलुप्त हो जाता है। पुष्पा भी तो अपनी समझदार मामी जी की तरह ही अपनी समझ के अनुसार समझती है कि वह अपने पिता जी और माँ के ग़रीब होने की सजा भुगत रही है। पर उसके मुँह पर मज़बूरी के ताले जड़े पड़े हैं। 

कई दफ़ा तो कई लोगों के जीवन में पीड़ा की सबसे बड़ी वजह होती है कि उन्हें समझने वाला कोई नहीं होता .. ना घर-परिवार में और ना ही बाहर-समाज में .. या यूँ कह सकते हैं कि जिस मान-सम्मान, स्नेह-श्रद्धा के वो हक़दार होते हैं .. वह उन्हें जीते जी नहीं मिल पाता है। अगर मरने के बाद मिल भी जाए तो भला उनका क्या ?

वैसे तो पाँच साल की उम्र तक तो पुष्पा ने अपने घर की अमीरी नहीं भी तो .. कम से कम एक सामान्य खुशहाल दिनचर्या अवश्य देखी है। घर में ना तो खाने-पीने की कमी थी और ना ही पहनने-ओढ़ने की। भला और चाहिए ही क्या इंसान को ? भोजन, वस्त्र, पढ़ाई और दवाई ही तो ? .. इन सब की कोई कमी नहीं थी उसके घर में। उसका परिवार इन चारों ही उपलब्धियों की दृष्टिकोण से एक खुशहाल परिवार था।

परन्तु .. उसकी माँ अपनी रीढ़ की हड्डी में अक़्सर होने वाली पीड़ा में विज्ञापनों से महिमामंडित पीड़ाहारी 'बाम' लगाने के पश्चात भी आराम ना मिलने पर एक बार अपने शहर के सरकारी अस्पताल में चिकित्सा कराने क्या गयी, उस दिन से उस परिवार की आर्थिक स्थिति की रीढ़ की हड्डी ही टूट गयी। माँ की रीढ़ की हड्डी की पीड़ा से दिन-प्रतिदिन बढ़ती शारीरिक अशक्तता, अस्पताल के चक्कर, इलाज, दवाई, 'ऑपरेशन', शय्याग्रस्त दिनचर्या, बीमार की सेवा-शुश्रुषा .. इन सब ने बीमार माँ के साथ-साथ समस्त परिवार को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह असहाय बना दिया था। 

पिता जी की इकलौती कमायी इलाज के लिए लिए गए उधार को चुकाने में भी कम पड़ने लगी थी। शादी के समय मिले और घर में रखे सारे ज़ेवर तो पहले ही बंधक रखे जा चुके थे। जिनके छुट कर घर वापसी की उम्मीद तो ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी बिसुक गयी गाय से दूध दुह लेने की दुरूह कोशिश। 

सारे नाते-रिश्तेदार आगे उधार माँगने पर मुँह पर ही ये बोल कर चुप करा कर लौटा देते कि - " अगर अभी कुछ उधार दे भी दें उद्धार करने की सोच के तो भविष्य में वह उधार अगले सात जन्मों तक लौटा पाना तुम लोगों के वश की बात नहीं लगती। आख़िर हमारे घर भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें पढ़ाना-लिखाना है .. फिर बेटी की शादी भी करनी है। " - जितने मुँह, उतनी बातें .. कोई कहता - " ये सब जैसे चल रहा है, चलने दो। ये सब तुम लोगों के ही इस जन्म या उस जन्म के कर्मों के फल हैं। इसे भुगतना तो पड़ेगा ही। यहाँ भुगत लोगे तो "ऊपर" शायद स्वर्ग नसीब हो जाए। यही सब तो विधि का विधान है ना 'पुसपेन्दर' (पुष्पेन्द्र) ? इसमें हम लोग को क्यों घसीट रहे हो ? .. बोलो ? "

अंत में थक-हार कर पुष्पा के माता-पिता .. ख़ासकर पिता जी- पुष्पेन्द्र महतो अपने मन को कठोर कर के उसकी आगे की पढ़ाई .. उसके बेहतर भविष्य, उसकी भावी शादी इत्यादि सोच कर उसे अपने बड़े साले साहब के घर पहुँचा आए थे। माँ भी सोची थी कि बड़का भईया-भाभी के पास रहेगी तो खाने-पहनने की कमी नहीं रहेगी और उनके स्कूल में पढ़ेगी तो इसकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। पर आज की वास्तविक वस्तुस्थिती तो पुष्पा ही अकेली जान रही है और झेल रही है। वह नहीं चाहती है अपनी माँ या पिता जी को ये सारी बातें .. अपनी मानसिक और शारीरिक पीड़ा बतला कर उन्हें मानसिक कष्ट देना। जीवन की कठोर परिस्थितियाँ कई दफ़ा कोमल बालमन को भी अपने जैसी ही कठोर बना देती हैं, जो जीवन-पथ की हर कठिनाइयों को आसानी से झेलने की मादा से सुशोभित हो जाता है .. शायद ...

रंजन के जाने के बाद अंजलि और पुष्पा की एक दूसरे के प्रति समानुभूति और नैतिक समर्थन का आलंबन ही उनके लिए प्राणवायु की तरह काम कर रहा है। अक़्सर कई पीड़ाएँ, ख़ासकर मानसिक, किसी व्यक्ति विशेष के मौखिक समर्थन से ही विलुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी तो किसी का मूक समर्थन ही किसी के लिए एक सख़्त आलंबन सिद्ध हो जाता है।

कभी रंजन के ऐसे ही मूक समर्थन ने कभी अंजलि के दुःखी दिल में रंजन के प्रति कोमल भावनाओं ने अपना डेरा जमा लिया था। दरअसल पहले ही बतला चुके हैं कि रंजन के अपने गाँव से इस शहर में आने के बाद शुरुआती दौर में काम के लिए भटकने के दौरान मन्टू ने उसकी काफ़ी सहायता की थी। किसी सगे से भी बढ़ कर। उसी समय मन्टू ने उसे भाड़े पर चलाने के लिए चंदर कबाड़ी से किराए पर टोटो दिलवाया था .. वो भी एक अजनबी के लिए ज़मानती बन कर। तभी मन्टू ने अपने स्कूल, अपने स्कूल कहने का मतलब .. जिस स्कूल के बच्चों को उनके घर से स्कूल लाने और फिर छुट्टी होने पर उन्हें उनके घर तक ले जाने का काम अपने टोटो से करता था .. उसी स्कूल में और भी अन्य बच्चों के लिए उनके अभिभावकों से रंजन की बात करवा दी थी। दिन भर भाड़े की सवारी के अलावा स्कूल से भी एक निश्चित आय का स्रोत रंजन को मन्टू के मार्फ़त मिल गया था। प्रतिदिन स्कूल आते-जाते रंजन वहाँ के सभी तथाकथित चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों से घुलमिल-सा गया था। उन्हीं में से एक अंजलि भी थी। 

बच्चे लोग भी रंजन को बहुत प्यार करते थे। वह सभी बच्चों का "ड्राईवर अंकल" बन गया था। उसकी भी वजह थी .. रंजन अपने विद्यार्थी जीवन में तो पढ़ाकू था ही, पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा कहानी-उपन्यास की किताबों को पढ़ने का शौक़ था उसे और वह आदत आज भी उस से नहीं छूटी थी। जब भी मौका मिलता उसे टोटो के अलावा पन्ना-दर-पन्ना कर के कई तरह की किताबें पढ़ लेता था। जब से बच्चों को लाने- ले जाने का काम पकड़ा था, तो जातक कथा के जैसी किताबें ज्यादा पढ़ने लगा था। साथ ही उसे अभिनय का भी शौक़ था, तो अपने गाँव में होने वाली रामलीला में या अन्य कार्यक्रमों के तहत होने वाले नाटकों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के कारण .. उन्हीं कहानियों को वह अपनी नाटकीय शैली में बच्चों को स्कूल आते-जाते रास्ते में और उस से भी ज्यादा 'टिफ़िन' के वक्त बच्चों के साथ-साथ उपस्थित कर्मचारियों को भी सुनाता था। 

धीरे-धीरे सभी की इनमें दिलचस्पी बढ़ती गयी थी। फिर तो रंजन की दिनचर्या में ये शामिल हो गया था। बाद में तो बच्चे लोग अपनी लायी हुई 'टिफ़िन' अपने "ड्राईवर अंकल" के साथ साझा करने लगे थे। बल्कि अपनी-अपनी 'मम्मी' या आया को बोल कर अपने-अपने घर से अपने "ड्राईवर अंकल" के लिए अतिरिक्त पराठा या 'सैंडविच' बनवा कर लाने लगे थे। गाहे-बगाहे रंजन भी उनलोगों के लिए बदले में प्यार से 'टॉफ़ी-चॉकलेट' ले जाता था और कभी कर्मचारियों के लिए कुछ मिठाइयाँ भी। साथ ही वह उन्हीं लोगों के साथ मिल बाँटकर खाता था। बच्चों की तो 'टिफ़िन' होती थी, पर रंजन के लिए दोपहर का भोजन हो जाता था। उसी क्रम में एक दिन वह मिठाई के तौर पर पन्तुआ खरीद कर ले गया था। 

पन्तुआ या पैंतुआ एक पारम्परिक बंगाली मिठाई है, जो गुलाब जामुन से भिन्न होती है। गुलाब जामुन की मूल सामग्री मैदा और खोवा होता है। जबकि इसके विपरीत पन्तुआ सूजी, छेना, दूध, घी के सम्मिश्रण से बने बेलनाकार या गोला की आकृति को घी या वनस्पति तेल में तल कर और उसे चीनी की चाशनी में डाल कर बनायी जाती है। 

उस दिन रंजन के द्वारा खरीद कर लायी गयी पन्तुआ को देखते ही अंजलि मानो रुआँसी हो गयी थी। सभी उपस्थित लोग ये देख कर हैरान हो गए थे, कि आख़िर अचानक क्या हो गया इसको .. जो इसकी आँखें भर गयी हैं। सबके सामने ही पुष्पा द्वारा बहुत बार जोर देकर रोने की वज़ह पूछे जाने पर बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी थी, कि मीठा तो उसे पसन्द है ही और सभी मिठाईयों में पन्तुआ उसे बचपन से ही सबसे ज्यादा पसन्द है। जिस स्थान की वह रहने वाली थी, वहाँ सभी मिठाई दुकानों में पन्तुआ बिकती भी थी और बाबू जी भी उसकी पसंद जानकर लगभग हर शाम छः नग पन्तुआ लाने लगे थे। तीन सदस्यी परिवार में सभी के लिए दो-दो नग। पर होता ये था कि माँ तो अपने हिस्से का दोनों खा जाती थी, पर बाबू जी एक ही नग खाते थे और इस तरह अंजलि को तीन नग पन्तुआ मयस्सर हो जाता था। यही सब याद करके उसकी मासूम आँखें आँसुओं में तैरने लगी थीं। उस दिन अंजलि की पसन्द जान कर आगे से रंजन लगभग हर दूसरे दिन पन्तुआ ही लेकर आ जाता था और वह भी अंजलि के नाम पर एक 'पीस' अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, October 5, 2023

पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१२) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

यानि पत्थर ने पत्थर को बचाया .. मतलब यहाँ भी नस्लवाद .. हद हो गयी ! .. ये दैवीय चमत्कार हाड़-माँस के पुतले जैसे हम इंसानों के लिए भी उस रात क्यों नहीं हुआ था ? .. क्या उस रात आकस्मिक मौत मरने वाले सभी के सभी पापी थे ? .. और .. अपने किसी ना किसी कुकर्मों का फल भुगत रहे थे ?

गतांक के आगे :-

ख़ैर ! .. अंजलि के माँ-बाबू जी के लिए तो उस रात कोई दैवीय चमत्कार तो नहीं हो पाया था। परन्तु उसी रात विभत्स आपदा में भी अचानक से एक अंजान इंसान द्वारा अंजलि के फ्रॉक को खींच लेने से स्वयं का उस का जीवित बच जाना एक दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। दरअसल उसकी माँ और बाबू जी को पलक झपकते काल के गाल में समाने वाली वह भयावह मनहूस रात को भी उसे पुनर्जन्म देने वाला वह जीवनदाता इंसान ही तो उसके लिए एक चमत्कार से कम नहीं था।

हालांकि उस रात के बाद आज भी जब-जब किसी की भी वजह से उसका मन दुःखी होता तो वह अपनी माँ और बाबू जी को याद कर-कर के मन ही मन .. मन भर रो लेती है। बार-बार एक ऊहापोह उसके कोमल और सम्वेदनशील मन को उद्वेलित कर जाता है कि आख़िर उसने, उसकी माँ, बाबू जी ने या उस रात की आपदा में सारे मरने वालों ने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जो उन्हें ऐसी आकस्मिक मौत मिली और ना जाने उसके जैसे कितने लोगों को अनाथ कर गयी वह निर्मम रात .. मृत्यु की आग़ोश में सोए लोग तो अपनी चुप्पी तोड़ने से रहे, पर .. अपनों को या अपने अंगों को खोकर शेष बचे आहत और मर्माहत लोगों की आवाज़ किसे दोष दें भला ऐसे मौकों पर .. मन्दिर में आसीन भगवान को, अपनी आस्था को, अपने भाग्य को, अपने इस जन्म-उस जन्म के कर्मों को, प्रकृति की मार को या एक भौगोलिक-वैज्ञानिक संयोग को या सत्तारूढ़ सरकार को ? ऐसे ही कई सारे अनुत्तरित सवाल अंजलि के दिमाग़ में गाहे-बगाहे घुमड़ते रहते हैं अक़्सर .. जो कई दफ़ा उसकी आँखों से बरसात बन कर ढलक जाते हैं।

रंजन के असमय चले जाने के बाद जिस स्कूल में आज जीवनयापन के लिए अंजलि सहायिका के रूप में कार्यरत है, उसी 'प्राइवेट स्कूल' के संस्थापक सह 'प्रिंसिपल' साहब- प्रमोद मेहता ही थे उस रात, जिन्होनें उस जानलेवा काली डरावनी रात में उसके फ़्रॉक को अनायास खींच कर उसकी जान बचायी थी। दरअसल मेहता जी अपने कुछ श्रद्धालु और बुद्धिजीवी वर्ग के मित्रों के साथ चार धामों के तीर्थाटन पर निकले थे। उनको भी अपने तीनों मित्रों का कुछ भी पता नहीं चल पाया था। ना ज़िन्दा और ना मुर्दा। ना, ना .. गलत कह गये .. उनके तीनों मित्रों में से एक मित्र की पहचान उनके गले में पहने हुए चाँदी के हार में लटके "ॐ" वाले 'लॉकेट' और दाएँ हाथ की अनामिका उंगली में मूँगा जड़ित चाँदी की अँगूठी से की गयी थी। हर इंसान की पहचान .. उसका चेहरा .. और वही चेहरा तो सड़-गल कर कंकाल मात्र रह गया था।  

उस रोज सारी रात उसी पेड़ के तने से दोनों चिपके हुए अपनी साँसों को सम्भालने की कोशिश करते रहे थे। सुबह होने पर भारतीय सेना और वायुसेना के जवान लोग हेलिकॉप्टर से वहाँ आसपास फँसे जीवित यात्रियों को विमान उत्थापक कर के बचाने के क्रम में इन दोनों को भी वहाँ से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिए थे।

तब की नन्हीं-सी जान .. अंजलि .. अपनी आँखों के सामने तेज धार में ज़िन्दा बहते हुए बाबू जी को देखकर और माँ के हश्र का अपने बालमन में अनुमान लगा कर उनके सदमा में लगभग विक्षिप्त-सी हो गयी थी। कुछ भी बीती बातें याद नहीं रही थी उसे, सिवाय माँ-बाबू जी के बिछोह के। 'प्रिंसिपल' साहब यानी प्रमोद मेहता जी ही तब उसके मौखिक संरक्षक बन बैठे थे।

किसी अनाथ या ग़रीबी से मजबूर अभिभावक के बच्चों को कोई सगा-सम्बन्धी या कोई पराया दयालु संरक्षक मिल भी जाए तो उसकी स्थिति कमोबेश देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले अधिकांश बाल सुधार गृह या बाल संरक्षण केन्द्र में रहने वाले बच्चों की तरह ही होती है। बदक़िस्मती से अगर वह अभागन लड़की हुई, तब तो उसपर होने वाले ज़ुल्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त बन जाती है। अंजलि भी उन बच्चों से अलग नहीं थी। मेहता जी को तो उनके घर के साथ-साथ स्कूल के कामों के लिए भी, दो-तीन शाम के भोजन और उनकी पन्द्रह वर्षीया बेटी के उतारन के बदले एक मज़बूर मजदूरिन मिल गयी थी- अंजलि। 

दूसरी तरफ समाज में उनके संरक्षक बनने वाले परोपकार की वाहवाही की कमी भी नहीं थी। परोपकार .. वो भी दो-दो .. एक तो अनाथ अंजलि और दूसरी उनकी सगी पर ग़रीब बहन की बेटी- पुष्पा .. दोनों ही उनकी और उनके घर वालों की प्रताड़ना की शिकार थीं, परन्तु मेहता जी समाज भर में परोपकारी पुरुष की प्रतिमूर्ति बने हुए थे। अंजलि का तो फिर भी अपना सगा कोई भी शेष नहीं बचा था अब इस दुनिया में, पर पुष्पा तो अपने मामा-मामी के हाथों ही प्रताड़ित हो रही थी। ऐसा नारकीय जीवन जी रही एक अकेली केवल वही नहीं थी, बल्कि ना जाने कितनी पुष्पाएँ अपने अभिभावक की ग़रीबी के ग्रहण से लगे सूतक को मिटाने के लिए अक़्सर अपने अमीर रिश्तेदारों को दान में प्रदान कर दी जाती हैं। जहाँ उन लाचार बच्चियों या बच्चों से ज़बरन नाज़ायज श्रम करवाने में सगे कहे या माने जाने वाले लोगों की भी संवेदनशीलता की नमी का, सुखाड़ वाले अकालग्रस्त खेतों की तरह कहीं भी, नामोनिशान तक नहीं होता। शारीरिक श्रम करवाना तो आम बात है और अगर तथाकथित क़िस्मत कुछ और भी ज्यादा ख़राब रही तो ऐसी लड़कियों का यौन शोषण भी एक आम बात ही लगती है। 

एक दिन पुष्पा का सारा शरीर तेज बुखार से तप रहा था। शाम के वक्त गर्मी के मौसम में भी थरथर कपकपा रही थी। उस दिन अंजलि ही केवल स्कूल गयी थी मेहता जी के साथ। पुष्पा घर पर ही रह गयी थी। मामी जी यानी मिसेज मेहता की महिला मित्रमंडली के साथ उनके घर पर ही कोई विशेष पार्टी थी। पूरे दिन पुष्पा चकरघिन्नी बनी मामी जी के इशारों पर उनके और उनकी सहेलियों के इर्दगिर्द घूमती रही थी। सारा दिन उतना सारा ठूँसने के बाद भी मामी जी शाम में सभी सहेलियों के साथ पास के ही बाज़ार में प्रसिद्ध "गजोधर चाट-पानी पूड़ी" की दुकान तक पानी पूड़ी खाने चली गयीं थीं। सुबह से ही पुष्पा का मन अच्छा नहीं लग रहा था। पर लाचार, ग़रीब और कमजोर लोगों का मन जैसा तो जैसे कुछ होता ही नहीं है या अगर होता भी है तो मन को सुनने वाला कोई नहीं होता। ठीक वैसे ही, जैसे चार-पाँच निर्मम मुस्टंडों द्वारा बलात्कार करते समय बलात्कृत की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता या फिर वो अपनी कातर आवाज किसी उचित संरक्षक तक पहुँचा नहीं पाती .. शायद ...

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी .. तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ...

छपा होता जो नाम शववस्त्र पर,

नाम मतलब ? .. पूरा नाम ..

यानी .. साथ नाम के होता छपा जो

जातिसूचक उपनाम भी 'प्रॉपर'।

पूरा नाम तो होता ही और साथ में 

छपता जो सेवानिवृत्त पद भी सरकारी अगर,

तो होता इसका भी व्यापक असर।

साथ छपते जो छोड़ी विरासत के आँकड़े 

तो हो जाता यूँ कुछ और भी बेहतर।

नहीं जो पूरा पता अपने भव्य भवन का,

तो कम-से-कम होता मकान का 'नम्बर'

और होता छपा खड़ी 'पोर्टिको' में 

महँगी गाड़ी का भी 'नम्बर' .. बस यूँ ही ...


रंगीनियों में जो बीती है 

जीवन-यात्रा समस्त जीवन भर,

भला फिर क्यों ओढ़ना मर कर

अपनी अंतिम यात्रा में भी

भगवा या केवल सफ़ेद वस्त्र ?

'ब्रांडेड' भी जो होते शववस्त्र सारे

जैसे .. 'रेमण्डस्' या फिर 'मान्यवर'।

विकल्प भी होते कपड़ों के ढेर सारे,

सूती, रेशमी, 'जॉर्जेट' या 'पॉलिस्टर'

और होता 'प्रिंटेड' भी तो ..

एकदम से झकास 'डिज़ाइनर',

'चेक्स' .. 'स्ट्राइप्स' या फिर होता

छींटदार या फूलदार .. चकरपकर .. बस यूँ ही ...


होते क्रय-विक्रय भी वातानुकूलित 'शोरूमों' में 

या फिर बहुमंजिली 'मॉल' के किसी तल्ले पर

और क्या कहने जो धीमी-धीमी बजती भी 

कोई शोकधुन, ग़ज़ल या "निर्गुण" वहाँ अगर।

साहिबान !!! ... सोचता हूँ मन में अक़्सर ..

कि कितना ही बढ़िया होता जो ..

शुरू कर ही देते हम मुहूर्त निकलवा कर

ऐसे मनभावन शववस्त्रों के

एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ?

काश ! .. मिल जो जाते शुरूआती तौर पर .. 

आप सभी से 'एडवांस' में  

शुभ-शुभ बोहनी के नाम पर

कुछ भी .. दो-चार 'ऑर्डर' .. बस यूँ ही ...

[शववस्त्र - कफ़न (अरबी)]