Monday, July 18, 2022

 बस यूँ ही ...

 

(1)

तुम ना सही, 

तेरी यादें ही सही, 

मन के आले पर संभाले, 

रखा हूँ आज भी तुम्हें सहेज करके .. बस यूँ ही ...


वर्ना यूँ तो 

पूजते हैं जिसे सभी,

अक़्सर उन्हें भी ताखे से 

फ़ुटपाथों पे छोड़ने में नहीं गुरेज़ करते .. बस यूँ ही ...



(2)

गाते हैं सभी 

यूँ तो यहाँ पर

"ये हसीं वादियाँ ..

 ये खुला आसमां"~~~,

पर जानम बिन तेरे

है मेरे लिए तो ये

जैसे कोई मसान .. बस यूँ ही ...


सुलगते

भीमसेनी कपूर-सी

तुम्हारी

सोंधी साँसों के

बिन है जानम 

सब ये यहाँ

सुनसान, वीरान ..बस यूँ ही ...

Saturday, April 30, 2022

आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले ... ( भाग - २ ).[अन्तिम].

'बिस्कुट' .. हाँ, हाँ, .. साहिबान ...

याद आयी अभी-अभी और भी एक बात ये,

होते ही ज़िक्र अभी 'बिस्कुट' के,

महज दशमलव पाँच-पाँच प्रतिशत यानी 

मात्र पाँच-पाँच ग्राम हर एक किलो में,

गोया कि .. आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले,

'बिस्कुट' को पहना कर किसी मुखौटे की तरह 

लुभावने रंगीन 'रैपर' 'फाइव ग्रेन बिस्कुट' वाले

किसी 'मल्टीनेशनल कम्पनी' के दावे 

या फिर वादे की मानिंद भी आप हैं लगते,

'कैमरे' की ओर जब-जब मुँह उठाए, अपने दाँतें निपोड़े,

अदाओं भरी अपनी-अपनी 'सेल्फ़ियों' में

या सामने किसी के हाथ में मुँह फाड़े कैमरे के आगे,

रोपते हुए किसी पौधे को या बस .. केवल थामे हुए,

अकेले या फिर किसी जनसमूह की भीड़ में 

पौधे पकड़े हुए किसी हाथ की कोहनी भर पकड़े हुए,

दावा या दिखावा करते हुए एक पर्यावरण प्रेमी होने के

बस यूँ तो हर एक पर्यावरण दिवस पे .. बस यूँ ही ...


या फिर यूँ कहें कि कभी-कभी तो नज़र हैं आते 

आप मानिंद एक मशहूर पुराने 'फ़िल्मी' गीत के,

इकबाल हुसैन उर्फ़ इकबाल अहमद मसऊदी 

उर्फ़ "हसरत जयपुरी" साहब के लिखे

"बदन पे सितारे लपेटे हुए" के तर्ज़ पे

स्वास्थ्यवर्द्धक व क़ीमती 'ग्रेन्स' चंद चिपके हुए,

आम मैदे या गेहूँ के आटे से बने 

किसी 'मल्टीग्रेन ब्रांडेड ब्रेड' के 

केवल ऊपर-ऊपर ही बदन पे .. शायद ...


साहिबान !!! ...

यूँ तो .. कोई नित्य है बन रहा हम में से 

और बना भी रहा नित्य ही कोई हम में से 

एक-दूसरे को वैशाखनंदन समय-समय पे।

वैसे भी भला .. अब बनाना है क्या ..

हम तो जन्मजात ही हैं 

वैशाखनंदन पैदा हुए .. शायद ...

अक़्सर .. तभी तो .. विज्ञापनों में

तमाम 'कम्पनियाँ' पुरुष 'अंडरगारमेंट्स' के,

'फिट' पहन कर 'हिट' होने के नुस्ख़े 

दिन-रात बतला-बतला के

बेचते हैं हमें नित्य उत्पाद अपने।

वैसे भी तो .. होता है शायद ..

पहनना कम ही जिन्हें,

उनके 'लोगो' उकेरे हुए 'अंडरगारमेंट्स' के, 

सीने और कमर के पास के,

आपकी 'सेल्फ़ियों' की तरह ही तो 

बस .. लोगों को दर्शन होते हैं कराने .. शायद ...



Thursday, April 28, 2022

आधे-आधे प्रतिशत 'मल्टीग्रेन' वाले ... ( भाग - १).

करने वाली 'कम्पनी' विशेष कोई 

स्वयं के स्वदेशी होने के दावे,

और एक स्वास्थ्यवर्द्धक उत्पाद

सोया 'चिप्स' देने के वादे,

यूँ होते तो हैं जिनमें पर ...

छः प्रतिशत ही मात्र

स्वास्थ्यवर्द्धक सोयाबीन के आटे।

ऐसी ही किसी 'कम्पनी' विशेष के 

फूल कर कुप्पा हुए,

आधे से ज्यादा 'नाइट्रोजन गैस' से भरे,

रंगीन विज्ञापनों से सजे-धजे,

उन 'पिल्लो पाउचों' की मानिंद

बारहा नज़र आप भी तो हैं आते,

तमाम 'सोशल मीडिया' पर जब-जब 

तमाम बहुरंगी 'सेल्फियाँ' हैं अपनी बिखेरते,

कई सारे 'टैग्स' और 'कैप्शन्स' भरे,

करते हुए भव्य स्वघोषणा स्वयं के 

एक सभ्य समाजसेवी होने के,

चंद बच्चों को किसी 'स्लम एरिया' के 

चंद 'पैकेट्स' 'बिस्कुट' के बाँटते हुए 

या फिर कुछ उन्हीं में से 

या फिर सभी मैले-कुचैले 

गरीब बच्चों को पास बैठा के पुचकारते हुए 

बस ... 'ऑन' रहने तक सामने किसी 'कैमरे' के .. शायद ...









Sunday, April 24, 2022

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे ...


पाता होगा समझ जितना

विशुद्ध बांग्ला भाषी कोई,

ज्ञानपीठ मिले किसी भी 

कन्नड़ साहित्यकार की 

कोई कन्नड़ रचना

या विशुद्ध कन्नड़ भाषी भी

कोई बांग्ला रचना ;

साहिब ! .. शायद ...

पाते हैं समझ बस उतना ही

मूढ़ साक्षर या भोले निरक्षर सारे,

हों आपके आदेश या निर्देश 

या कोई ख़ास संदेश,

या फिर हों नारों वाले विज्ञापन सारे, 

गाँव-गाँव, शहर-शहर, 

हर तरफ, इधर-उधर ...

मसलन ... "स्वच्छ भारत अभियान" के .. शायद ...


ईंट की दीवारों की जगह

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे,

काश ! .. कुछ इस तरह 

हो पाते अंकित ये नारे

"स्वच्छ भारत अभियान" के।

पर .. इसकी ख़ातिर तो

होगा जगाना जन-जन को पहले,

और फिर शायद ... शाब्दिक 

"स्वच्छ भारत अभियान" से भी पहले,

अक्षर-ज्ञान हम जन-जन को दे लें।

काश ! ...

सफल हम मिलकर कर पाते पहले,

"साक्षर भारत अभियान" यहाँ पे।

सभी तभी तो समझ पाते,

आपकी संदेशों की बातें,

"स्वच्छ भारत अभियान" वाले .. शायद ...






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Saturday, April 23, 2022

'मेन एट वर्क' ...


जितनी ही ज्यादा स्वयं को 

'वर्किंग लेडी' कह के जब-जब 

आपने अपनी गर्दन है अकड़ाई ;

उतनी ही ज्यादा उन्होंने ख़ुद को 

'हाउस वाइफ' बतलाते हुए तब-तब 

अपनी गर्दन है झुकाई .. शायद ...


साहिबान !!  तनिक देखिए तो ..

भला अब किसने वहाँ पे तख़्ती 

'मेन एट वर्क' की है लगाई ?

पर उनकी डगमगाती गर्दन पे अड़े

सिर पर धरे बोझ ईंटों के देख के भी

लज्जा जिन्हें आयी ना आयी .. शायद ...



【 हमारे तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी समाज की विडंबना  एक तरफ ये है, कि एक दिन के चंद तय घंटों के लिए नौकरीशुदा महिलाएँ अपनी गर्दनें अकड़ाती हैं और चौबीसों घंटे स्वयं को समर्पित की हुई औरतें झेपतीं हैं अक़्सर ये कहते हुए कि "कुछ नहीं करती हम .. हम बस 'सिम्पली हाउस वाइफ' हैं जी" .. और ... दूसरी ओर मेरी सोच से .. ये 'मेन एट वर्क' वाली तख्तियाँ भी शायद पुरुष प्रधान सोच की उपज की ही द्योतक हैं , जब कि 'पीपल एट वर्क' की तख़्ती लगानी ही तर्कसंगत होनी चाहिए .. शायद .. बस यूँ ही ... 】






Friday, April 22, 2022

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की ...

अक़्सर .. अनायास ...

कुम्हला ही जाता है चेहरा अपना,

जब कभी भी .. सोचता हूँ जानाँ,

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की

विरुद्ध हुई मन के तुम्हारे  

बात पर किसी भी।


हो मानो .. आए दिन 

या हर दिन, प्रतिदिन,

किए हुए अतिक्रमण

किसी 'फ्लाईओवर' के नीचे

या फिर किसी 'फुटपाथ' पर,

देकर रोजाना चौपाए-से पगुराते 

गुटखाभक्षी को किसी, 

कानूनी या गैरकानूनी ज़बरन उगाही,

सुबह से शाम तक बैठी, 

किसी सब्जी-मंडी की 

वो उदास सब्जीवाली की

निस्तेज चेहरे की कुम्हलाहट।


देर शाम तक टोकरी में जिसकी 

शेष बचे हों आधे से ज्यादा 

कुम्हलाए पालक और लाल साग,

तो कभी बथुआ, खेंसारी या चना के,

या कभी चौलाई या गदपूरना के भी साग,

अनुसार मौसम के अलग-अलग।


और तो और ..

मुनाफ़ा तो दूर, पूँजी भी जिसकी

देर शाम तक भी हो ना लौटी।

तो तरोताज़े साग-सी,

मुस्कराहट सुबह वाली जिसकी, 

देर शाम तक तब 

शेष बचे कुम्हलाए साग में हो,

जो यूँ बेजान-सी अटकी।

सोचती .. बुझेगी भला आज कैसे ..

बच्चों के पेट की आग ?

बेसुरा-सा हो जिस बेचारी के

जीवन का हर राग .. बस यूँ ही ...





Sunday, April 17, 2022

चौपाई - जो समझ आयी .. बस यूँ ही ...


आराध्यों को अपने-अपने यूँ तो श्रद्धा सुमन,

करने के लिए अर्पण ज्ञानियों ने थी बतलायी।

श्रद्धा भूल बैठे हैं हम, सुमन ही याद रह पायी,

सदियों से सुमनों की तभी तो है शामत आयी .. शायद ...




वजह चिल्लाने की अज्ञात, ऊहापोह भी, क्या बहरे हैं "उनके वाले"?
प्रश्न अनुत्तरित जोह रहा बाट, आज भी कबीर का सैकड़ों सालों से।
खड़ा कर रहे अब तुम भी एक और प्रश्न, 'लाउडस्पीकर' बाँट-२ के,
कबीर भौंचक सोच रहे, बहरे हो गए साहिब ! अब "तुम्हारे वाले"?