Saturday, March 20, 2021

सच्ची-मुच्ची ... (21 मार्च के बहाने ...)

सर्वविदित है कि 21 मार्च को पूरे विश्व में "विश्व कविता दिवस" (World Poetry Day) के साथ-साथ ही नस्लीय भेदभाव को मिटाने के लिए इस के विरोध में  "अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस" (International Day for the Elimination of Racial Discrimination) भी मनाया जाता है, जिन्हें मनाने के लिए इस दिनांक  विशेष की घोषणा "यूनेस्को" यानि "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" (UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) द्वारा क्रमशः 1999 और 1966 में की गई थी। यूँ तो रस्म-अदायगी के नाम पर रचनाकारों (कवि/कवयित्री)  की तो आज के दिन Social Media पर मानो बाढ़-सी आ जाती है, पर नस्लीय भेदभाव उन्मूलन के मामले में वही ढाक के तीन पात वाले मुहावरे को चरितार्थ होते पाया जाता है .. शायद ...

यह भी सर्वविदित ही है कि किसी व्यक्ति या समुदाय से उसकी जाति, रंग, नस्ल इत्यादि के आधार पर घृणा करना या उसे सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित करना ही नस्लीय भेदभाव कहलाता है।

हमारे देश में रंगभेद की जगह/तरह जातिभेद ज्यादा प्रभावी है। साथ ही उपजातिभेद भी और इन सब से भी ऊपर हावी है सम्प्रदायभेद। ऐसा नहीं कि रंगभेद का असर नहीं है .. है ही न ! .. पर प्रत्यक्ष रूप से कम और परोक्ष रूप से ज्यादा। तभी तो काली लड़कियों या काले लड़कों से शादी करने में लोगबाग प्रायः परहेज़ करते हैं या कतराते हुए नज़र आते हैं। नहीं क्या !? वैसे भी इस रंगभेद को हमारे यहाँ ज्यादा हवा देते हैं .. गोरेपन के क्रीम वाले विज्ञापनों की भरमार।
रही बात जातिभेद की तो हमारे पुरखों के काल में छुआछूत जैसी भावनाओं के कारण कई जातिविशेष लोगों के तत्कालीन पुरखों को प्रताड़ित होना पड़ता था और कमोबेश कई सामाजिक परिवेश में आज भी यह परिदृश्य देखने के लिए अक़्सर मिल ही जाता है। आज इस से विपरीत अन्य कई दूसरी जातिविशेष के लोगों को आरक्षण के दंश झेलने पड़ रहे हैं। मतलब जातिभेद का रूप भर बदला है, परन्तु समाप्त नहीं हुआ है। आरक्षण से जातिभेद को तो हवा मिल ही रही है और साथ ही हमारे देश भर से प्रतिभा पलायन (Brain Drain) की मूलभूत समस्या जस का तस सिर उठाए खड़ी है। दूसरी तरफ देश में जातिगत आरक्षण के नाम पर बेहतर प्रतिभा को पीछे धकेलते हुए कमतर प्रतिभा को आगे बढ़ाने से देश को यथोचित प्रतिभा के स्थान पर कमतर और स्तरहीन प्रतिभा वाली नींव कमज़ोर निर्माण गढ़ रही है। साथ ही आरक्षण की आड़ में कई दशकों से उपेक्षित की गई प्रतिभाओं के मन में कुंठा घर बनाती जा रही है .. शायद ...
जब तक हम अपने या अपनी अगली संतति के नाम के आगे जातिसूचक या उपजातिसूचक उपनाम (Surname) चिपकाने की सिलसिला को सीलबंद कर उसे विराम नहीं देंगे, तब तक ये जातिभेद, उपजातिभेद या फिर सम्प्रदायभेद का विषैला नाग अपना फन फैलाए हमारे तथाकथित समाज को डँसता रहेगा।
मानव इतिहास की बातें अगर मानें तो कभी उनके काम/रोज़गार के आधार पर मानव समाज का वर्गीकरण किया गया था, जो कालान्तर में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा तथाकथित समाज में वंशानुगत जातीयता के रूप को धारण कर लिया गया।  जिस से हमें हमारी स्वघोषणा करती जातिसूचक उपनाम पर जोर देकर बोलने की और उस पर गर्दन अकड़ाने की भी प्रदूषित परम्परा की अनर्गल रूप से आदत-सी पड़ती चली गई और .. सच कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि आज तो हम पूर्णरूपेण आपादमस्तक इसके दलदल के दमघोंटू माहौल में फंसे होने के बाद भी उस से निकलने के बजाय उसी में मुस्कुराते हुए साँसें ही नहीं ले रहे हैं ; बल्कि स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस कर रहे हैं। .. नहीं क्या !? ..
अगर आपस में पहली बार परिचय करते समय सामने से किसी के नाम पूछे जाने पर उपनाम रहित केवल नाम बतलाने पर सामने वाला पूरा नाम बतलाने पर जोर देता है। नहीं बतलाने पर या सच में उपनाम नहीं रहने पर सामने वाला अजीब-सा मुँह बनाता है। कहीं पर Form भरते समय भी उपनाम नहीं भरने पर उस Form को अधूरा माना जाता है। जनगणना भी हमारे देश में जातिगत करायी जाती है। हमारा नाम तो अभिभावक द्वारा तय किया गया था, परन्तु हमने अपने पुत्र का नाम अभिभावक होने के नाते अपनी इच्छा से जातिसूचक उपनामरहित केवल "शुभम्" रखा तो कई दफ़ा कई जगह पर Form भरते समय उसको परेशानी का सामना करना पड़ा और परिणामस्वरूप उसकी खीझ की प्रतिक्रिया मुझे झेलनी पड़ी। कहीं पर नाम के दुहराव से उपनाम का रिक्त स्थान भरा गया, कहीं पर किसी और विकल्प से। अब वह इससे अभ्यस्त हो गया है और शायद मेरी मानसिकता समझने भी लगा है, तो अब नहीं खीझता। पर भला आज भी कितने अभिभावक हैं जो जातिसूचक उपनाम नहीं लगाते अपने बच्चों के नाम के आगे या जातिसूचक की जगह कुछ और संज्ञा जोड़ते हैं किसी रचनाकार के नाम के आगे लगे तख़ल्लुस की तरह !?       

ऐसे में जातिगत, उपजातिगत या धर्म-सम्प्रदायगत भेदभाव भला कैसे शून्य कर पाएगा हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज !? .. और तो और .. किसी ठोस कारणवश या अधिकतर तो अकारण ही राज्य के आधार पर, भाषा के आधार पर, खान-पान के आधार पर, पहनावा के आधार पर .. हम सभी मानव-मानव में भेदभाव करते हैं। इतना ही नहीं अपने से इतर राज्य, भाषा, खान-पान या पहनावा वाले इंसान या समाज को अपने से कमतर आँकने में या कमतर समझने-बोलने में और ख़ुद के लिए गर्दन अकड़ाने में हम तनिक भी गुरेज़ नहीं करते .. शायद ...
अगर बीते कल और आज के साथ-साथ आने वाले कल यानि 22 मार्च की भी बात कर ही लें तो कल "विश्व जल दिवस" (World Day for Water) है, जिसे भी 1993 से यूनेस्को द्वारा मनाए जाने की घोषणा के बाद से हर साल मनाया जा रहा है।
ऐसे में .. कम-से-कम हमारी अपनी-अपनी आँखों में इतना पानी (जल) को तो होना ही चाहिए साहिब/साहिबा ! , ताकि नस्लीय भेदभाव का कीड़ा उस के चुल्लू भर पानी में या तो डूब कर मर जाए या फिर पानी-पानी हो कर अचेत हो जाए .. ताकि अतीत या वर्तमान की तरह कम-से-कम हमारे भावी तथाकथित मानवीय समाज में वह पानी में आग ना लगा पाए। वैसे भी किसी दिवस विशेष के एक बूँद की मिठास हमारे समाज के साग़र की विसंगतियों और कुरीतियों के खारापन को दूर करने में सक्षम हो ही नहीं सकती, जब तक कि दिनचर्या की सतत् मीठी धार से इसे दूर करने की निरन्तर कोशिश मन से ना की जाए  .. शायद ...
तो आइए स्वयं से ही शुरू करते हैं और आज कविता Post करने के बदले अपने जातिसूचक उपनाम पर अपनी गर्दन अकड़ाने की जगह ( वह भी तब .. जब कि हजार साल पूर्व के अपने पुरख़े के बारे में कुछ भी ज्ञात ना हो ) ; उसका बहिष्कार करते हैं ताकि हमें ना सही .. पर अपनी भावी पीढ़ी को तो कम से कम भेदभाव मुक्त समाज मिल सके। अगर भविष्य में भेद हो भी तो प्राचीन काल की तरह काम या बुद्धिमत्ता के आधार पर, ना कि नस्ल या जाति के आधार पर। आज मिलकर हम सभी क्यों ना .. भेदभाव से मुक्त मानवता के राग वाले सरगम की तान छेड़ें ..पर हाँ ..  केवल शाब्दिक नहीं .. बल्कि ..  सच्ची-मुच्ची .. बस यूँ ही ...



Saturday, March 13, 2021

सरस्वती हमारी बेकली की ...

जानाँ ! ..

उदास, अकेली, 

विकल रहो तुम 

जब कभी भी, 

बस .. तब तुम

मान लिया करो .. कि ..

हाँ .. कुछ भी मानने की

रही नहीं है कोई मनाही

कभी भी .. कहीं भी।

वैसे होता भी तो है

मानना मन से ही और ..

मन पर किसी के भी

जड़े नहीं जाते ताले कभी भी।

वर्ना ना जाने कितने ही मन  

रह जाते कुँवारे ही।

और फिर .. मान कर ही तो

हर छोटे-बड़े सवाल,

हर छोटी-बड़ी समस्याएं सदियों से 

हल होती रहीं हैं गणित की .. बस यूँ ही ...


मान लेने भर से ही तो

दिखते हैं संसार भर को पेड़, 

पत्थर, नदी या चाँद-सूरज में भी 

उनके भगवान ही।

माना कि .. है अपना अगर 

मिलना नहीं नसीब,

तो बस मान लो हम-तुम हैं

पास-पास .. हैं बिलकुल क़रीब।

मीरा ने भी तो बस 

माना ही तो था,

पास उनके भी भला 

कहाँ कान्हा था !?

तो बस मान लो .. और आओ !

आ के बैठ जाओ पास मेरे,

टहपोर चाँदनी के चँदोवे तले

आग़ोश में मेरे किसी झील के किनारे।

होगा जहाँ हमारी-तुम्हारी साँसों का संगम,

जिस संगम में लुप्त हो जाएगी 

सरस्वती हमारी बेकली की .. बस यूँ ही ...






Wednesday, March 10, 2021

अन्योन्याश्रय रिश्ते ...

दुबकी जड़ें मिट्टियों में

कुहंकती तो नहीं कभी,

बल्कि रहती हैं सींचती

दूब हो या बरगद कोई।


ना ग़म होने का मिट्टी में,

ना ही शिकायत कोई कि

बेलें हैं या वृक्ष विशाल 

सजे फूल-फलों से कई।


जड़े हैं तो हैं वृक्ष जीवित

और वृक्ष हैं तो जड़े भी,

अन्योन्याश्रय रिश्ते इन्हें

है ख़ूब पता औ' गर्व भी।


पुरुष बड़ा, नारी छोटी,

बात किसने है फैलायी?

नारी है तभी हैं वंश-बेलें

और मानव-श्रृंखला भी।


बँटना तो क्षैतिज ही बँटना,

यदि हो जो बँटना जरुरी।

ऊर्ध्वाधर बँटने में तो आस

होती नहीं पुनः पनपने की।


है नारी संबल प्रकृति-सी,

सार्थक पुरुष-जीवन तभी।

फिर क्यों नारी तेरे मन में  

है भरी हीनता मनोग्रंथि ?







 


Saturday, March 6, 2021

मन में ठौर / कतरनें ...

कई बार अगर हमारे जीवन में सम्पूर्णता, परिपूर्णता या संतृप्ति ना हो तो प्रायः हम कतरनों के सहारे भी जी ही लेते हैं .. मसलन- कई बार या अक़्सर हम अपने वर्त्तमान की अँगीठी की ताप को दरकिनार कर, उस से परे जीवन के अपने चंद अनमोल बीते लम्हों की यादों की कतरनों के बने लिहाफ़ के सहारे ऊष्मीय सुकून पाने की कोशिश करते हैं .. नहीं क्या !? ...

यूँ तो दर्जियों को प्रायः हर सुबह अपनी दुकान के बाहर बेकाम की कतरनों को बुहार कर फेंकते हुए ही देखा है, परन्तु कुछ ज़रूरतमंदों को या फिर हुनरमंदों को उसे बटोर-बीन कर सहेजते हुए भी देखा है अक़्सर ...

इन कतरनों से कोई ज़रूरतमंद अपने लिए या तो सुजनी बना लेता है या तकिया या फिर लिहाफ़ यानि रज़ाई बना कर ख़ुद को चैन, सुकून की नींद देता है या तो फिर .. कोई हुनरमंद इन से बनावटी व सजावटी फूल, गुड्डा-गुड़िया या फिर सुन्दर-सा, प्यारा-सा, मनलुभावन कोलाज (Kolaj Wall Hangings या Wall Piece) बना कर घर की शोभा बढ़ा देता है या किसी का दिल जीत लेने की कोशिश करता है, भले ही वो घर की दीवार ही क्यों ना हो .. शायद ...

अजी साहिब/साहिबा ! हमारी प्रकृति भी कतरनों से अछूती कहाँ है भला ! .. तभी तो काले-सफ़ेद बादलों की कतरनों से स्वयं को सजाना बख़ूबी जानती है ये प्रकृति .. है ना !? पूरी की पूरी धरती तालाब, झील, नदी, साग़र के रूप में पानी की कतरनों से अंटी पड़ी है। पहाड़, जंगल, खेत, ये सब-के -सब कतरन ही तो हैं क़ुदरत के .. या यूँ कहें की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही सूरज, चाँद-तारे, ग्रह-उपग्रह जैसे विशाल ठोस पिंडों की कतरन भर ही तो हैं .. शायद ...

ख़ैर ! बहुत हो गई आज की बतकही और साल-दर-साल स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यपुस्तकों के आरम्भ वाली पढ़ी गयी भूमिका के तर्ज़ पर बतकही या बतोलाबाजी वाली भूमिका .. बस यूँ ही ...

अब आज की चंद पंक्तियों की बात कर लेते हैं .. आज के इलेक्ट्रॉनिक (Electronic) युग में ये कहना बेमानी होगा कि मैं अपनी कलम की स्याही से फ़ुर्सत में लिखी डायरी के कागज़ी पन्नों से या पुरानी फ़ाइलों से कुछ भी लेकर आया हूँ। दरअसल आज की चंद पंक्तियाँ हमने अपने इधर-उधर यानि अपने ही इंस्टाग्राम (Instagram), यौरकोट (Yourquote) और फेसबुक (Facebook) जैसे सोशल मीडिया (Social Media) से या फिर गुमनाम पड़े अपने कीप नोट्स (Keep Notes) जैसे एप्प (App. यानि Application) के वेब-पन्नों (Web Page) से कतरनों के रूप में यहाँ पर चिपका कर एक कोलाज बनाने की एक कोशिश भर की है .. बस यूँ ही ...

वैसे यूँ तो धर्म-सम्प्रदाय, जाति-उपजाति, नस्ल-रंगभेद, देश-राज्य, शहर-गाँव, मुहल्ले-कॉलोनी, गली-सोसायटी (Society/Apartment) के आधार पर बँटे हम इंसानों की तरह हमने अल्लाह, गॉड (God), भगवान को बाँट रखा है। हम बँटवारे के नाम पर यहाँ भी नहीं थमे या थके, बल्कि भगवानों को भी कई टुकड़ों में बाँट रखा है। मसलन- फलां चौक वाले हनुमान जी, फलां बाज़ार वाले शंकर जी, फलां थान (स्थान) की देवी जी, वग़ैरह-वग़ैरह ... वैसे ही चंद बुद्धिजीवियों ने ब्लॉग, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और यौरकोट जैसे सोशल मीडिया वाले चारों या और भी कई उपलब्ध मंचों को भी निम्न-ऊँच जैसी श्रेणियों में बाँट रखा है .. शायद ... पर हम ऐसा नहीं मानते .. ये मेरा मानना भर है .. हो सकता है गलत भी/ही हो ... पर हम ने तो हमेशा इन सब का अन्तर मिटाना चाहा है, ठीक इंसानों के बीच बने अन्तर मिट जाने वाले सपनों की तरह .. शायद ... 

(१)

बदन पर अपने 

लाद कर ब्रांडों* को,

गर्दन अपनी अकड़ाने वालों, 

देखी है बहुत हमने तेरी क़वायद ...


बदन के तुम्हारे  

अकड़ने से पहले ही 

ब्रांडेड कफ़न बाज़ारों में कहीं 

आ ना जाए तेरे भी .. शायद ...

(*ब्रांडों - Brands.)


(२)

बैठेंगे कब तक तथाकथित राम और कृष्ण के भरोसे, 

भला कब तक समाज और सरकार को भी हम कोसें, 

मिलकर हम सब आओ संवेदनशील समाज की सोचें,  

सोचें ही क्यों केवल , आओ ! हर बुराई को टोकें, रोकें .. बस यूँ ही 


(३)

हिदायतें जब तक नसीहतों-सी लगे तो ठीक, पर ..

जब लगने लगे पाबन्दियाँ, तो नागवार गुजरती है।

सुकून देती तो हैं ज़माने में, गलबहियाँ बहुत जानाँ,

पर दम जो घुटने लग जाए, तो गुनाहगार ठहरती है।


(४)

साहिब ! नाचना-गाना बुरा होता है नहीं।

पुरख़े कहते हैं ... हैं तो यूँ ये भी कला ही।

कम-से-कम ... ये है मुफ़्तख़ोरी तो नहीं।

और वैसे भी तो है कला जहाँ होती नहीं,

प्रायः पनपता तो है वहाँ आतंकवाद ही .. शायद ...

(लोगबाग द्वारा कलाकार को "नचनिया-बजनिया वाला/वाली" या "नाटक-नौटंकी वाला/वाली" सम्बोधित कर के हेय दृष्टिकोण से आँकने के सन्दर्भ में।)


(५)

नीति के संग नीयत भी हमारी ,

नियत करती है नियति हमारी .. शायद ...


(६)

होड़ में बनाने के हम सफलता के फर्नीचर ,

करते गए सार्थकता के वन को दर-ब-दर .. शायद ...


(७)

पतझड़ हो या फिर आए वसंत

है साथ हमारा अनवरत-अनंत .. शायद ...


(८)

छोटे-से जीवन की 

कुछ छोटी-छोटी यादें ,

कुछ लम्हें छोटे-छोटे ...


ताउम्र आते हैं 

जब कभी भी याद 

मन को हैं गुदगुदाते .. बस यूँ ही ...


(९)

यहाँ काले कोयले की कालिमा भी है

और सेमल-पलाश की लालिमा भी है .. शायद ...

(झारखंड राज्य के धनबाद जिला के सन्दर्भ में)


(१०)

बौराया है मन मेरा, मानो नाचे वन में मोर,

अमराई में जब से यहाँ महक रहा है बौर।

भटक रहा था मन मेरा बनजारा चहुँओर,

पाया ठिकाना, पाकर वह तेरे मन में ठौर।

हर पल एहसास तेरा, मन खींचे तेरी ओर,

तन्हाई में अक्सर किया, ऐसा ही मैंने गौर .. बस यूँ ही ...


(११)

सिन्दूरी सुबह, बासंती बयार ...

सुगंध, एहसास, मन बेकरार .. बस यूँ ही ...


(१२)

मन तो है आज भी नन्हा, मासूम-सा बच्चा,

बचपन के उसी मोड़ पर है आज भी खड़ा,

अपने बचकाना सवाल पर आज भी अड़ा

कि उनका जुम्मा, हमारा मंगल क्यों है बड़ा.. शायद ...


【 #basyunhi #stupid #banjaarabastikevashinde #baklolkabakwas #bakchondharchacha 】








Wednesday, March 3, 2021

झुर्रीदार गालों पर ...

गया अपने ससुराल 

एक बार जब 

बेचारा एक बकलोल*।

था वहाँ शादी के मौके पर

हँसी-ठिठोली का माहौल।

रस्म-ओ-रिवाज़ और 

खाने-पीने के संग-साथ ,

किए हुए तय पैमाने समाज के

रिश्ते करने वाले मज़ाक के

आधार पर मग्न थे सारे 

एक-दूसरे के उड़ाने में मखौल।


बोलीं बकलोल को 

तभी वहाँ मौजूद 

उसकी एक बड़ी सरहज*

मुस्कुराते हुए बहुत ही सहज

कि - " आँय मेहमान* !! .. 

मुझ बुढ़ियों को भला 

अब पूछता कौन है ? ..

अब तो आपको भी दिखती हैं 

जवनकी* ही महज़। "

था रहने वाला बकलोल भला 

कब चुप इस के एवज़ ?


दौड़ा-दौड़ा ख़ुद ही गया और 

ले आया टोकरी से फलों की ,

एक अँगूर और ..

एक-दो किशमिश भी

खाना बना रहे भोज वाले

हलवाई के पास से।

फिर बोला बहुत ही उल्लास से

-"भाभी .. कौन 'स्टुपिड'* भला

आपको कम आँकता है ? 

पता नहीं क्या आपको कि बाज़ार में

झुर्रिदार किशमिश मँहगी बिकती है 

और रसीला अँगूर हमेशा सस्ता है !"


फिर क्या था ...

भाभी यानि सरहज के

रूज़ पुते झुर्रीदार गालों पर

तैरने लगीं थी सुर्खियां।

अपनी रंगी हुई ज़ुल्फ़ों पर

फिर फिराने लगीं वह अपनी उंगलियाँ।

उस 'हॉल'* के मौजूदा हाल में

सारी मौज़ूद वयस्क-प्रौढ़ स्त्रियाँ

महमहा उठीं अनायास

दबी-दबी मुस्कुराहटों से

मानो बन गयी हों नन्हीं-२ तितलियाँ .. बस यूँ ही ...

【२* सरहज = सलहज = साला की पत्नी = पत्नी की भाभी या भौजाई।】

【३* मेहमान = उत्तर भारत में घर के दामाद को इस सम्बोधन से सम्बोधित करते हैं।】

【४* जवनकी = बिहार (बिहार+झारखण्ड/पुराना बिहार) - उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश+उत्तराखण्ड/पुराना उत्तर प्रदेश) में स्थानीय बोली के तहत युवती/युवा स्त्री को कहते हैं।】

【५* स्टुपिड = Stupid.】

【६* हॉल = Hall.】

【【१* बकलोल = मूर्ख। = ( वह बकलोल मैं ही था  .. शायद ... ).】】●





Friday, February 26, 2021

कुरकुरी तीसीऔड़ियाँ / रुमानियत की नमी ...

जानाँ ! ...

तीसी मेरी चाहत की 

और दाल तुम्हारी हामी की

मिलजुल कर संग-संग ,

समय के सिल-बट्टे पर 

दरदरे पीसे हुए , रंगे एक रंग ,

सपनों की परतों पर पसरे 

घाम में हालात के 

हौले-हौले खोकर

रुमानियत की नमी 

हम दोनों की ;

बनी जो सूखी हुईं ..

मिलन के हमारे 

छोटे-छोटे लम्हों-सी

छोटी-छोटी .. कुरकुरी ..

तीसीऔड़ियाँ।


हैं सहेजे हुए 

धरोहर-सी आज भी

यादों के कनस्तर में ,

जो फ़ुर्सत में ..

जब कभी भी 

सोचों की आँच पर 

नयनों से विरह वाले

रिसते तेल में 

लगा कर डुबकी

सीझते हैं मानो 

तिलमिलाते हुए।

जीभ पर तभी ज़ेहन के 

है हो जाता 

अक़्सर आबाद

एक करारा .. कुरकुरा .. 

सोंधा-सा स्वाद .. बस यूँ ही ...



Wednesday, February 24, 2021

तसलवा तोर कि मोर - (भाग-२) ... {दो भागों में}.

कोई रंगकर्मी जब अपने नाम से कम और अपने जिए गए पात्र के नाम से लोगों में ज्यादा जाना-पहचाना या सम्बोधित किया जाने लगता है तो उसे उसके अभिनय की सफ़लता मानी जाती है। साथ ही अपने समय की मशहूर फ़िल्म "शोले" के संवादों की तरह किसी नाटक के संवाद भी हर तबक़े व हर आयु वर्ग की ज़ुबान पर धड़ल्ले से फ़िसलने लग जाए , तो उसे भी उस नाटक या फ़िल्म की सफलता की कसौटी मानी जाती है। अपने द्वारा लिखित , अभिनीत और निर्देशित नाटक के लिए सफलता के उपर्युक्त कसौटी के दोनों पहलूओं के बेताज बादशाह थे .. उन रेडियो के ज़माने के रेडियो के वह महान महानायक , जो थे तो मूलत: नाटककार और रंगकर्मी , पर उन्होंने नाटककार के अलावा कवि , कहानीकार और वार्ताकार के रूप में भी कई सारी रचनाओं को जन्म दिया था।

अपने समय के मशहूर समाचार पत्रों - आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स और द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया (The Illustrated Weekly of India) के अलावा ; उस ज़माने की नामी पत्रिकाओं -  धर्मयुग, ज्योत्सना, नयी धारा के अलावा दृष्टिकोण, प्रपंच, भारती जैसी और भी अन्य पत्रिकाओं में भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक अनेक एकांकी, निबन्धों, कहानियों, कविताओं और आलोचनाओं के रूप में देखने के लिए मिलती रहती थी। उनको पद्मश्री, बिहार गौरव, बिहार रत्न आदि से सम्मानित किया गया था। कई उपन्यास, काव्य रूपक, नाटक, एकांकी संग्रह जैसी कई किताबें प्रकाशित तो हुई थीं , पर बहुत सारी रचनाओं की पाण्डुलिपि तो बस यूँ ही बर्बाद हो गईं थीं। यह बात उनके एक साक्षात्कार से ज्ञात होता है , जिसमें उनका कहना था कि उनकी बहुत-सी अप्रकाशित रचनाएं खो गयीं थीं , क्योंकि उन्हें किताब छपाने की चाटुकारिता वाली विद्या नहीं आती थी। उन्हें ताउम्र इस बात का अफ़सोस रहा कि उनके एक प्रसिद्ध नाटक की लोकप्रियता के कारण उनका गंभीर साहित्य का खज़ाना लोगों की नज़रों से परे हो गया था।
जब 1948 में "आकाशवाणी , पटना" की शुरुआत हुई थी , तो "चौपाल" नामक कार्यक्रम में वह "तपेश्वर भाई" के नाम से भागीदारी करने लगे थे। फिर 1950 में 'बिहार नेशनल कॉलेज' , पटना ( पटना विश्वविद्यालय के अन्तर्गत B. N. College के नाम से विख्यात , जिसके कुछ उपद्रवी छात्रों के कारण नेहरू जी को एक बार पटना के गाँधी मैदान में अपने दिए गए भाषण के तहत प्रसंगवश एक चुटीली शैली में इसके संक्षेपाक्षर (abbreviation) के विस्तार के लिए "बदमाश नालायक कॉलेज" जैसे ज़ुमले का इस्तेमाल करना पड़ा था ) के हिंदी विभाग में व्याख्याता (Lecturer) के रूप में करियर (Career) या आजीविका शुरू किए थे। फिर 1968 में  अपने अवकाशप्राप्त पिता के अपने पास रहने के अनुरोध पर पटना के अपने साहित्यिक दुनिया को छोड़ कर सासाराम में ही अपने पिता के पास रहते हुए , वहीं के 'शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय' ( S P Jain College ) में लगभग इक्कीस वर्षों तक एक सफल और समर्पित प्रधानाचार्य भी रहे थे।
प्रसंगवश बतलाते चलें कि "आकाशवाणी , पटना" हमारे पुश्तैनी घर से लगभग महज 500 मीटर की दूरी पर है। उसी के ठीक सामने "भारतीय नृत्य कला मन्दिर" का पुराना वाला भवन है , जिसके अंतर्गत 1963 में आरम्भ हुए एक प्रेक्षागृह के अलावा एक मुक्ताकाश मंच भी है। वैसे तो पटना के लिए आज़ादी के बाद 1948 से शुरू हुआ सबसे पुराना प्रेक्षागृह "रवीन्द्र भवन" ( रवीन्द्र परिषद् ) है। आज तो इनके अलावा भारतीय नृत्य कला मन्दिर का ही एक नया प्रेक्षागृह भवन है और साथ में "कालिदास रंगालय" और "प्रेमचंद रंगशाला" नामक दो नाट्यशालाएं भी हैं। उन लम्हों के गवाह रहे मेरे अभिभावक ( जो आज इस दुनिया में नहीं हैं ) मेरे बचपन में मुझे बतलाते थे कि उस समय "आकाशवाणी , पटना" की ओर से अपने ही प्रांगण में या "भारतीय नृत्य कला मन्दिर" के मुक्ताकाश मंच पर जीवंत नाटक हुआ करता था , जिनमें भाग लेने वाले कलाकारों में अपने मशहूर नाटक के साथ इन कलाकार की प्रमुख भागीदारी होती थी। जिस नाटक को अभिभावकगण रेडियो पर अक़्सर सुना करते थे , उसे जीवंत मंच पर देखना उन को रोमांच से भर देता था। आँखों देखा हाल बतलाते थे कि .. मंच पर फुस-पुआल की बनी हुई मड़ई , उस पर कद्दू-कोहड़ा का लत्तर ( की लता ) , बरेरी से टँगे पिंजड़े में तोता , बिछी हुई खटिया और धोती-कुर्ता में पुरुष पात्र के साथ सीधा पल्ला वाली साड़ी में महिला पात्रा .. मानो राजधानी के मंच पर गाँव जीवंत हो उठता था। हम तो केवल उनके कहे को सुन कर इतना विस्तार से लिख पा रहे हैं। पर जब वो सामने से देखते होंगे तो कितना रोमांच अनुभव करते होंगे , सोचिए न जरा ! लेकिन अफ़सोस कि मैं उन दिनों पैदा ( 1966 में जन्म हुआ था ) हुआ ही नहीं था।
हमें आज वर्त्तमान में 'लैंडलाइन' (landline) फ़ोन के साथ-साथ मिले मोबाइल फ़ोन की बेहतर सुविधा की तरह , उस ज़माने में रेडियो के साथ ही उसके सुविधाजनक रूप में मिले ट्रांजिस्टर ( Transistor ) को भी नहीं भूलना चाहिए .. शायद ...
तब फ़ौजी भाइयों और किसान भाइयों के लिए कई-कई तरह के कार्यक्रम प्रसारित हुआ करते थे , जिसे वे लोग ट्रांजिस्टर के सहारे ही तो सुना करते थे। हमारे तत्कालीन अभिभावक ये भी बतलाते थे कि 1962 में हुई चीन की लड़ाई में हमारे राष्ट्र की तत्कालीन गलत (?) नीति के कारण हार रहे भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए उनके उस लोकप्रिय नाटक का रेडियो पर प्रतिदिन प्रसारण किया जाता था। उस नाटक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकप्रियता मिली थी।
ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व का नाम था - " रामेश्वर सिंह 'कश्यप' " जिनका जन्म बिहार राज्य में शेरशाह के मक़बरा को आज भी संजोए हुए सासाराम जिला के सेमरा गाँव में हुआ था और उनके उस लोकप्रिय नाटक का नाम था - "लोहा सिंह" , जिसकी नाटक-श्रृंखला की लगभग चार सौ कड़ियों में प्रसारण हुआ होगा। दरअसल एक बार इनका लिखा हुआ एक भोजपुरी नाटक - "तसलवा तोर कि मोर" का { एक प्रचलित मुहावरा / तसला (एक बर्त्तन) तुम्हारा कि मेरा } प्रसारण रेडियो पर हुआ था , जिसके मुख्य पात्र का नाम था - "लोहा सिंह"। जनसाधारण को वह नाटक बहुत पसन्द आया था। पहले लोग अपनी फ़रमाईश डाक-विभाग द्वारा अपनी चिट्ठी में लिख कर आकाशवाणी / रेडियो को भेजा करते थे लगभग सप्ताह भर का रास्ता तय कर वह अनूठी फ़रमाईश अपने गंतव्य पर पहुँचती थी। ऐसी ही बहुसंख्यक फ़रमाईश पर उस नाटक का पुनःप्रसारण कई सारी श्रृंखलाओं के साथ "लोहा सिंह" के नाम से किया जाने लगा था। जिसके लेखक , निर्देशक और नायक भी 'कश्यप' जी ही स्वयं थे। प्रसंगवश यह बतलाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए कि फ़िल्म या नाटक के पात्र को सफ़ल रंगकर्मी भी , किसी लेखक या कवि की तरह ही , अपने आसपास के किसी यथोचित पात्र को जीने की प्रायः कोशिश करते हैं। मसलन - फ़िल्मों के कलाकार , जो विविध पात्रों को परदे के पहले कैमरे के सामने जीते हैं ; उनमें से अधिकांश पात्रों के संवाद वितरण ( Dialogue Delivery ) , वेशभूषा (Getup ) और शरीर की भाषा ( Body Language ) उनकी नज़र के सामने से कभी-न-कभी गुजरी हुई किसी चरित्र विशेष की होती है। वैसे तो विविध पात्रों को जीने वाले कलाकारों में प्राण साहब और गुलशन ग्रोवर जी का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है।
ख़ैर ! .. फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं "लोहा सिंह" जी उर्फ़ "रामेश्वर सिंह 'कश्यप'" जी की , तो ये जान कर अचरज लग सकता है आपको कि उन्होंने अपनी अकूत लोकप्रियता हासिल करने वाली नाटक-श्रृंखला "लोहा सिंह" के मुख्य पात्र "लोहा सिंह" की भाव भंगिमा और बोलने की शैली की प्रेरणा अपने पिता के एक नौकर के अवकाश-प्राप्त फौजी भाई की गलत-सलत अंग्रेजी , हिन्दी और भोजपुरी मिला कर एक नयी भाषा बोलने की शैली से मिली थी क्योंकि उन फ़ौजी सज्जन के इस तरह बोलने से गाँव वालों पर इसका बड़ा रोबदार असर पड़ता था। मतलब .. लोग बहुत प्रभावित होते थे। अपने पिता राय बहादुर जानकी सिंह के अँग्रेजी हुकूमत के दौर में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ( DSP - Deputy Superintendent of Police - उप पुलिस अधीक्षक ) होने के बावज़ूद वह स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने में तनिक भी नहीं हिचकते थे।आरम्भ से ही क्रांतिकारी विचार के होते हुए भी बहुत ही विनम्र और भावुक स्वभाव के थे। मृदल स्वभाव के भावुक "कश्यप" जी उस समय स्नातक, अंतिम वर्ष के छात्र थे। उस दौर में उन फ़ौजी के बोलने के सुर ( Tone ) और चरित्र ( Character ) से प्रभावित होकर उसे अपने में समाहित कर लिए थे , जो कालान्तर में "लोहा सिंह" का पात्र बन कर जीवंत हो गया था।
हिन्दी , अंग्रेजी और भोजपुरी की खिचड़ी-भाषा में " अरे ओ खदेरन को मदर जब हम काबुल का मोरचा में था नु " ( ओ खदेरन की माँ जब मैं काबुल के मोर्चा ( युद्ध में सबसे आगे का क्षेत्र ) पर स्थित था , तो ) बोले गए लोहा सिंह का संवाद सुन कर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। बच्चों से लेकर वृद्ध , मज़दूर से लेकर अधिकारी और मालिक से लेकर मातहत तक की ज़ुबान पर इस संवाद की परत चढ़ी रहती थी। खदेरन की माँ का अपने अंदाज़ में बोला गया तकियाकलाम वाला संवाद - " मार बढ़नी रे " (बढ़नी-बहरनी-झाड़ू) अनायास चेहरे के आकाश पर मुस्कान का इन्द्रधनुष उगा जाता था। खदेरन की मदर यानि माँ बनती थीं उस जमाने की प्रसिद्ध लोक गायिका प्रो विंध्यवासिनी देवी। साथ ही प्रो शांति जैन और प्रो एन एन पांडे जैसे लोग उस अमर नाटक-श्रृंखला के कलाकार थे। उस नाटक के बहुत ही मज़ेदार एक पात्र थे "फ़ाटक बाबा" और एक मज़ेदार पात्रा थीं "भगजोगनी"।
कहा जाता है कि उस दौर में लंदन काउंटी काउंसिल (London County Council - LCC), नेपाल , जोहान्सबर्ग और मॉरीशस जैसे देशों की सरकारों की माँग पर भारत सरकार इनके हास्य, व्यंग्य और ग्रामीण परिवेश से लेकर तत्कालीन देश-समाज को झकझोरने वाली "लोहा सिंह" नामक नाटक-श्रृंखला की ऑडियो कैसेट्स (Audio Cassettes) भेजवाती रही थी। "लोहा सिंह" नाटक की लोकप्रियता से प्रभावित होकर यूनेस्को ( UNESCO: United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization ) नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा प्रकाशित ‘रूरल ब्रॉडकास्टर’ ( Rural Broadcaster ) में संस्था ने "कश्यप" जी से अनुरोधपूर्वक उस नाटक के बारे में एक लेख -‘अबाउट लोहा सिंह’ (About Loha Singh ) लिखवा कर 1960 में प्रकशित किया था। उस नाटक को अगर सोप ओपेरा ( Soap opera - धारावाहिक ) कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... वह नाटककार, निर्देशक और अभिनेता तीनों के रूप में और बिहार के अध्यक्ष की हैसियत से भी इप्टा ( IPTA - Indian People's Theatre Association - भारतीय जननाट्य संघ ) से जुड़े रहे थे।
उनको क़रीब से जानने वाले लोगों का कहना था कि उनको अपनी रचनाओं से बच्चों के समान प्यार था। वह हर रचना एक नयी कलम से लिखते थे और उसे बक्से में रख देते थे। फिर बाद में उसमें काट-छांट करते थे। इस तरह लगभग बीस हजार कलम उनके घर में सजे हुए थे।
बिहार के मशहूर फिल्मकार ( गंगाजल , अपहरण जैसी फ़िल्मों के ) - प्रकाश झा इस नाटक पर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। पर फ़िल्मीकरण के तहत कुछ बदलाव के लिए "कश्यप" जी उर्फ़ "लोहा सिंह" जी तैयार नहीं हुए थे और जब जरुरी बदलाव के लिए हामी भरने का मन बनाए तो अपनी बात प्रकाश झा को कहने के पहले ही 1992 में दुनिया छोड़ गए थे। जिस के कारण उनकी आख़िरी मंशा मन में ही रह गई थी।
ऐसी छिड़ी बातों के लम्हों में ना जाने क्यों ऐसे गुजरे लोगों , जो अपने आप में ही कला के विश्वविद्यालय को समेटे हुए होते हैं और चंद अपनों ( कुछेक रिश्तेदार और कुछ मन के करीब लोगों ) के लिए 1970 में आयी किशोर साहू जी की फ़िल्म - 'पुष्पांजलि' का वो गाना , जिसे आनंद बक्षी साहब ने लिखा था , लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने संगीतबद्ध किया था और मुकेश जी ने गाया था ; की आवाज़ बेसाख्ता कानों में गूँजने लगती है .. शायद ...



आइए .. उपरोक्त रसहीन बतकही के बाद इस सारगर्भित गाने को सुन कर लुत्फ़ लेते हुए अपने मन को कुछ हल्का करने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...

(वैसे तो .. गाने का 'लिंक' 'वेव वर्शन' वाले पन्ने पर दिख रहा है)