Wednesday, November 11, 2020

गिरमिटिया के राम - चंद पंक्तियाँ-(29)-बस यूँ ही ...

 (1) निरीह "कलावती"

"कलावती" के पति के 

जहाज़ को डुबोने वाले,

चाय लदी जहाज़ भी

कलुषित फ़िरंगियों के 

एक-दो भी तो डुबोते,

भला क्यों नहीं डुबाए तुमने ?

【कलावती = सत्यनारायण व्रतकथा की एक पात्रा】


(2) "गिरमिटिया" के राम

अपनी भार्या के 

अपहरण-जनित वियोग में,

हे अवतार ! तुम रोते-बिलखते

उसकी ख़ोज में तो फ़ौरन भागे,


पर कितनी ही सधवाएँ

ताउम्र विधवा-सी तड़पती रही

और मीलों दूर वो "गिरमिटिया" भी,

फिर भी भला तुम क्यों नहीं जागे ?

【गिरमिटिया = अंग्रेज़ों ने हमारे पुरखों को गुलामी की शर्त पर वर्षों तक जहाज में भर-भर कर धोखे से विदेश भेजे, जिनमें हमारे लोग ही "आरकटिया" बन कर हमारे लोगों को ही ग़ुलाम/बंधुआ मज़दूर बनाते रहे। इन मज़दूरों को ही "गिरमिटिया" की संज्ञा मिली। गिरमिट शब्द अंग्रेज़ी के `एग्रीमेंट/Agreement' शब्द का अपभ्रंश बताया जाता है।】




Tuesday, November 10, 2020

क़तारबद्ध हल्ला बोल

 (1) क़तारबद्ध

हर मंगल और शनिचर को प्रायः

हम शहर के प्रसिद्ध हनुमान मन्दिरों में

तब भी कतारबद्ध खड़े रहे थे और

वो तब भी कतारों में खड़े कभी कोड़े,

तो कभी गोलियाँ खाते रहे थे।

हम माथे पर लाल-सिन्दूरी टीका लगाए

गेंदे के मृत फूलों की माला पहने, 

हाथों में लड्डूओं के डब्बे लिए हुए

"लाल देह लाली लसे" वाली 

सिन्दूरी मूर्ति को पूज-पूज कर इधर

अपने कर्मो की इतिश्री तब भी करते रहे थे

और ..वो ख़ून से सने ख़ुद के पूरे 

तन को ही लाल रंगों में रंगते रहे

और मरणोपरान्त अपनी मूर्तियों पर

हमारे हाथों से माला पहनते रहे और

कई सारे तो गुमनाम भी रह गए .. शायद ...


हम आज भी खड़े मिल ही जाते है अक़्सर

किसी-न-किसी मंदिर के भीतर या बाहर कतारबद्ध,

आज भी हाथों में हमारे लड्डूओं का डब्बा होता है,

गले में गेंदे के मृत फूलों की माला

और मस्तक पर सिन्दूरी तिलक और ... 

वो सारे सचेतन प्राणी हमारी कतारों के सामने से ही,

हमारे हुजूम के बीच में से ही कभी-कभी तो ..

तन अपना अपने ही ख़ून से रंगते हैं अक़्सर, 

कभी "हल्ला-बोल" वाले "सफ़दर-हाशमी" के रूप में 

तो कभी ... और भी कई सारे नाम हैं साहिब ! ...

इनके नामों की भी एक लम्बी क़तार है .. साहिब ...

पर .. हमारी गूँगी, बहरी, अंधी और सोयी चेतना

बस .. और बस .. अनदेखी, अनसुनी और मौन-सी

बस अपने व अपनों के लिए और .. मंदिरों की क़तार में 

मौन मूर्तियों के सामने एक मौन मूर्ति बन कर 

जीना जानती है .. शायद ...

सफ़दर-हाशमी = तत्कालीन शासक के घिनौने गुर्गों/हाथों द्वारा तत्कालीन भ्रष्टाचारों के विरूद्ध आवाज़ उठाने या यूँ कहें चिल्लाने के लिए इनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या को हम हर भारतीय नागरिकों को ज़रूर जानना चाहिए .. शायद ...】.🤔

चलते -चलते :- इन दिनों एक राष्ट्रीय स्तरीय पत्रकार और उनके चैनल पर उन लोगों के चिल्लाने से कई लोगबाग असहज महसूस करते हैं अपने आप को और ऊलजलूल प्रतिक्रिया सोशल मिडिया पर करते नज़र आते हैं। मगर .. बेसुरा ही सही, पर सच चिल्लाने से तो कई गुणा बुरा है .. झूठ और मक्कारी को मीठी और मृदुल आवाज़ में कहीं भी, किसी को भी कहना .. शायद ...

(2) हल्ला बोल

"इंक़लाब ज़िन्दाबाद" के नारे को

ना तो कभी भी बुदबुदाए गए हैं

और ना ही कभी गुनगुनाए गए ,

ऊँचे स्वर में ही तो चिल्लाए गए हैं।

तब चिल्लाहट बुरी क्यों लगती है भला ?

जब कि ... हर हल्ला बोल सोतों को जगाने के लिए है .. शायद ...





Tuesday, November 3, 2020

रिश्तों का ज़ायक़ा - चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ...

 "रिश्तों का ज़ायक़ा" शीर्षक के अंतर्गत मन में पनपी अपनी रचनाओं की श्रृंखलाओं में से एक - "चंद पंक्तियाँ - (28) - बस यूँ ही ..." के तहत आम-जीवन के रंग में रंगी आज की तीन छोटी-छोटी रचनाओं के पहले हम क्यों ना एक बार अपने मन में आज सुबह से उबाल मार रही एक बतकही को आप से कह ही डालें .. भले ही आप इसे "हँसुआ के बिआह आउर (और) खुरपी के गीत" का नाम दे डालें .. क्या फ़र्क पड़ता है भला !

दरअसल सर्वविदित है कि आज बिहार के विधानसभा-चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के लिए पटना में चुनाव है। जिस के कारण यहाँ लगभग सभी सरकारी-निजी कार्यालयों के बन्द होने के कारण छुट्टी वाले दिन की अनुभूति हो रही है। सुबह डी डी भारती चैनल पर प्रेमचन्द की कहानियों में से एक "हिंसा परमो धर्म" पर आधारित नाटक देखने के क्रम में नेपथ्य से आने वाले गीत के बोल - "केहि समुझावौ सब जग अंधा" - कबीर जी की लेखनी के बहाने उन को बरबस याद करा गया। अगर मैं कहूँ कि नाटक/कहानी का अंत बरबस आँखें गीली कर गया, तो आपको अतिशयोक्ति लगे , पर .. ये सच है।

क्या आपको महसूस नहीं होता कि बुद्धिजीवियों द्वारा तय तथाकथित कलियुग नामक कालखण्ड में अब धर्मग्रन्थों वाले चमत्कार होने भले ही बन्द हो गए हों, मसलन - पुरुष की नाभि से किसी प्राणी का जन्म, किसी साँप के फ़न पर खड़ा होकर किसी का नाचना, किसी का सपत्नीक सोना या उस से समुन्द्र का तथाकथित मंथन करना, सूरज को किसी बन्दर के बच्चे द्वारा निगल जाना, सूरज की रोशनी से किसी का गर्भवती हो जाना, इत्यादि ; परन्तु 15वीं शताब्दी में कही/लिखी गयी कबीर जी की वाणी आज भी अक्षरशः शत्-प्रतिशत सत्य है और भविष्य में भी सत्य रहें भी .. शायद ...

"केहि समुझावौ सब जग अंधा

इक दु होय उन्हें समुझावौं

सबहि भुलाने पेट के धंधा।

पानी घोड़ पवन असवरवा

ढरकि परै जस ओसक बुंदा

गहिरी नदी अगम बहै धरवा

खेवनहार के पड़िगा फंदा।

घर की वस्तु नजर नहि आवत

दियना बारि के ढूॅंढ़त अंधा

लागी आगि सबै बन जरिगा

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बंदा।

कहै कबीर सुनो भाई साधो

जाय लंगोटी झारि के बंदा"

ख़ैर ! अपना माथा क्यों खपाना भला इन सब बातों में ? है कि नहीं ? अपनी ज़िन्दगी तो बस कट ही रही .. बस यूँ ही ...

"सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"

और .. अब आज की तीनों रचनाओं में भी अपना बेशकीमती वक्त तनिक जाया कीजिए ...


(१) बहकते काजल

है मालूम

यूँ तो सबब 

आसमानी 

बरसात के ,

हैं भटकते बादल ..


पर पता नहीं

सबब उन 

बरसातों का क्या , 

जिस से 

हैं बहकते काजल ...


(२) रिश्तों का ज़ायक़ा 

हत्या की गयी

'झटका' या 'हलाल'

विधि से मिली

लाशों के

नोंचे गए 

खालों के बाद मिले 

बकरों या मुर्गों के

नर्म गोश्तों के

कटे हुए कई

छोटे-छोटे टुकड़ों को ही 

केवल हम अक़्सर

"मैरीनेट" नहीं करते ..


अक़्सर हमें

अपने कई सारे

रिश्तों की

ठंडी लाशों को

समय-समय पर

"मैरीनेट" करने की

ज़रूरत पड़ती है

ताकि .. बना रहे

रिश्तों का

ज़ायक़ा अनवरत 

बस यूँ ही ...

.. शायद ...

( मैरीनेट - Marinate ).


(३) बरवक़्त .. कम्बख़्त ...

सिलवटों का 

क्या है भला !

उग ही आती हैं

अनचाही-सी

बिस्तरों पर

अक़्सर बरवक़्त ..

कम्बख़्त ...


या होती हो 

जब कभी भी 

तुम साथ हमारे

या फिर ..

रहती हो कभी 

हमसे दूर भी अगर 

वक्त-बेवक्त ...




Friday, October 30, 2020

होठों की तूलिका - चंद पंक्तियाँ - (27)- बस यूँ ही ...

आज शरद पूर्णिमा के पावन अवसर पर ....

(१) होठों की तूलिका

आज सारी रात

शरद पूर्णिमा की चाँदनी

मेरी बाहों का चित्रफलक 

तुम्हारे तन का कैनवास

मेरे होठों की तूलिका


आओ ना ! ..

आओ तो ...

रचें दोनों मिलकर

एक मौन रचना 

'खजुराहो' सरीखा ...

( चित्रफलक - Easel,

   कैनवास - Canvas,

   तूलिका - Painting Brush ).


(२) चाहतों की मीनार 

मैं 

तुम्हारे 

सुकून की 

नींव बन जाऊँ


तुम 

मेरी 

चाहतों की 

मीनार बन जाना ...


(३) मन की कंदरा ...

माना कि ..

है रौशन

चाँद से

बेशक़ 

ये सारा जहाँ ...


पर एक अदद 

जुगनू है बहुत

करने को 

रौशन

मन की कंदरा ...







Friday, October 16, 2020

किस्तों में जज़्ब ...

 " मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। " - " गेहूँ बनाम गुलाब " नामक रचना में रामवृक्ष बेनीपुरी जी की ये विचारधारा उच्च विद्यालय में हिन्दी साहित्य के अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ने के बाद से अपने टीनएज वाले कच्चे-अधपके मन में स्वयं के मानव जाति (?) में जन्म लेने पर गर्वोक्ति की अनुभूति हुई थी।

बेनीपुरी जी के इस तर्क को अगर सआदत हसन मंटो जी अपनी भाषा में विस्तार देते तो वह पेट के नीचे यानि प्रजनन तंत्र वाले कामपिपासा की भी बात करते और कहते कि पशुओं की तरह मानव शरीर में यह अंग भी पशुओं की तरह समानांतर नहीं है, बल्कि क्रमवार मस्तिष्‍क, हृदय और पेट से भी नीचे है। एक और ख़ास ग़ौरतलब बात कि पशुओं से इतर मानव-शरीर काम-क्रीड़ा के क्षणों में आमने-सामने होते हैं। मानव के सिवाय धरती पर उपलब्ध किसी भी अन्य प्राणियों में ऐसा नहीं देखा गया है या देखा जाता है कि रतिक्रिया के लम्हों में उनकी श्वसन तंत्र और उसकी प्रक्रिया एक-दूसरे के आमने-सामने हों .. शायद ...

पर इतनी सारी विशिष्टता की जानकारी के बावज़ूद भी बाद में ना जानें क्यों .. हमारे वयस्क-मानस को लगने लगा कि कई मायनों में पशु-पक्षियों की जातियाँ-प्रजातियाँ हम मनुष्यों की जाति-प्रजाति से काफ़ी बेहतर हैं। उनके समूह में कभी मानव समाज की तरह किसी बलात्कार की घटना के बारे में ना तो सुनी गयी है और ना ही देखी गयी है। पशु-पक्षियों के नरों को क़ुदरत से वरदानस्वरुप मिली अपनी-अपनी मादाओं को रिझाने की अलग-अलग कलाओं द्वारा वे सभी अपनी-अपनी मादाओं को रिझाते हैं, फिर उनकी मर्ज़ी से ही काम-क्रीड़ा या रतिक्रिया करते हैं। और तो और हम मानव से इतर क़ुदरत ने उनके काम-क्रीड़ा का अलग-अलग एक ख़ास मौसम प्रदान किया है, जिसके फलस्वरूप उनकी भावी नस्लों की कड़ियाँ आगे बढ़ती है। साथ ही हम मानव की तरह ना तो वे हस्तमैथुन करते हैं और ना ही अप्राकृतिक या समलैंगिक सम्बन्ध बनाते हैं।

ऐसे मामलों के कारण सारे अंग यानि मानस, हृदय, पेट और पेट के नीचे वाले प्रजनन अंगों के समानांतर होते हुए भी पशु-पक्षी हम मानव से बेहतर प्रतीत होते हैं, भले हम मानवों में यही सारे अंग क्रमशः क्रमबद्ध ऊपर से नीचे की ओर ही क्यों ना प्रदान किया हो क़ुदरत ने। कम-से -कम उनके समाज में बलात्कार तो नहीं होता है ना .. शायद ...

वैसे तो क़ुदरत ने हमें पशु-पक्षियों के तरह ही अपनी नस्लों की कड़ियों को आगे निरन्तर बढ़ाने के लिए ही प्रजनन-तंत्र प्रदान किया है। पर हम भटक कर या यूँ कहें कि बहक कर इनका दुरुपयोग करने लगे। सरकार ने 9वीं व 10वीं के जीव-विज्ञान के पाठ्यक्रम में हमारी भावी पीढ़ी के समक्ष उनके भावी जीवन में यौन-शिक्षा के उपयोग पर विस्तार  से प्रकाश डालने की कोशिश की है। पर हम अपने युवा से इन विषयों पर बात-विमर्श करने से कतराते हैं अक़्सर। हमारे तथाकथित सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज में इन विषयों पर लोगबाग प्रायः बात लुक-छिप कर करते हैं या फिर करने वाले को बुरा इंसान मानते हैं, जबकि आज हम उसी के कारण ही तो पूरे विश्व में चीन के बाद दूसरे नम्बर पर पहुँचने का गर्व प्राप्त किये हैं। हो सकता है कल ..  कुछ दशकों के बाद चीन को मात देकर जनसंख्या के संदर्भ में हम विश्वविजयी बन जाएं .. शायद ...

हालांकि हमारे पुरखे साहित्य और संगीत के योगदान से हम मानवों को पशु से बेहतर साबित करने की युगों पहले से प्रयास करते आ रहे हैं। लेकिन दोहरी मानसिकता वाले मुखौटे अगर हम उतार फेंके अपने वजूद से , तभी बेनीपुरी जी की सोच सार्थक होने की सम्भावना दिख पाएगी .. शायद ...

वैसे तो पशु-पक्षियों के मन में भी तो प्रेम-बिम्ब बनते ही होंगे .. शायद ... परन्तु उनसे इतर हम इंसान अपने मन-मस्तिष्क में जब कभी भी प्रेम से ओत-प्रोत बिम्ब गढ़ते हैं तो उन्हें कागज़ी पन्नों पर या वेब-पन्नों पर शब्दों का ज़ामा पहना कर उतार पाते हैं और अन्य कुछ लोगों से साझा भी कर पाते हैं। वैसे तो .. अनुमानतः .. बिम्ब तो बलात्कारी भी गढ़ते होंगे ,  पर वीभत्स ही .. शायद ... 

ख़ैर ! .. हमें क्या करना इन बातों का भला ! है कि नहीं ? हमें तो अपने पुरखों के कहे को लकीर का फकीर मान कर उनका अनुकरण करते जाना है .. बस .. और मन ही मन दोहराना या बुदबुदाना है कि - 

" सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। "

फिलहाल तो  ..  प्रेम से ओत-प्रोत ऐसे ही कुछ बिम्बों को शब्दों का जामा पहना कर आज दो रचनाओं/विचारों से वेब-पन्ने को भरने की हिमाक़त कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ...

(1)  तमन्नाओं की ताप में

चाहत के चाक पर तुम्हारे

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

गढ़ सकी जो एक सुघड़ सुराही

और फिर पकी जो तुम्हारी 

तमन्नाओं की ताप में कहीं ..


तो भर लूँगा उस पकी

सुराही में अपनी, सोचों की 

गंगधार को प्रेम की तुम्हारी

और अगर पक ना पायी

और गढ़ भी ना पायी 

कहीं जो सोचों की नम मिट्टी ..


तो बह चलेगी फिर

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

संग-संग .. कण-कण ..

अनवरत .. निर्बाध .. 

प्रेम की गंगधार में तुम्हारी ..

बस यूँ ही ...


(2)  किस्तों में जज़्ब


मन के 

लिफ़ाफ़े में

परत-दर-परत

किस्तों में जज़्ब

जज़्बातों को मेरे,


कर दो ना

सीलबंद 

कभी अपने नर्म-गर्म 

पिघलते-पसरते

एहसासों की लाह से,


ब्राह्मी लिपि में उकेरे

शब्दों वाले अपने 

लरज़ते होठों की

मुहर रख कर .. 

बस .. एक बार

शुष्क होठों पर मेरे ...





Thursday, October 8, 2020

शायद ...

सनातनी एक सोच -  

लगता है पाप 

काटने से बरगद , 

बसते हैं उसमें एक 

तथाकथित भगवान 

.. शायद ...


पर दूबें .. या तो 

नोची जाती हैं 

पूजन के लिए उसी 

तथाकथित भगवान के 

या फिर हैं कुचली जाती 

पैरों तले पगडंडियों पर 

.. शायद ...



Tuesday, October 6, 2020

काश !!! ये मलाल ...

 " आज घर में बहुत सारे मेहमान आये हुए हैं बेटी। आज तो पूर्णिमा के साथ-साथ संयोग से रविवार होने के कारण आमंत्रित किये गए लगभग सारे पड़ोसी, इसी शहर के अपने सारे नाते-रिश्तेदार, जान-पहचान वाले आए हुए हैं। घर में सत्यनारायण स्वामी की कथा के बाद सभी मेहमानों के लिए शहर के नामी कैटरर द्वारा दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी किया है हमने। तुम्हारी भी सारी सहेलियाँ शामिल हैं .. हमारी आज की इस ख़ुशी में। और तो और .. सब से ख़ास बात तो ये है कि आज के इस ख़ुशीयुक्त आयोजन की वज़ह ही हो तुम और .. तुमको मिलने वाली बैंक के पी.ओ. की नौकरी। तुम्हारी ख़ुशी के लिए ही तो ये सब आयोजन किया गया है ना बेटी ? " - ये श्री सत्येंद्र मेहता जी द्वारा अपनी बेटी को इतनी ख़ुशी के माहौल में भी उदास देख कर पूछा गया सवाल था। -" वैसे तो तुम लगभग एक सप्ताह से, जब से तुम्हारा पी. ओ. वाला रिजल्ट आया है, तुम उसी दिन से उदास दिख रही हो। हम समझ रहे थे कि .. कोई मामूली बात होगी। किसी छोटी-मोटी वजह से मन या तबियत खराब होगा शायद। पर .. आज तो इस ख़ुशी के माहौल में .. सभी लोग तो खुश हैं रानी बिटिया .. सिवाय तुम्हारे ...। आख़िर क्यों बेटा ?

सत्येंद्र मेहता जी जनगणना के आंकड़े के अनुसार ओ. बी. सी. होने के कारण आरक्षण के तहत मिली अपनी सरकारी नौकरी में 12 साल के कार्यकाल में ही आरक्षण के तहत सरकारी आंकड़ों में दर्ज सामान्य वर्ग वाली जाति की तुलना में कम समय में ही ज्यादा पदोन्नति यानि तीन-तीन बार पदोन्नति पाकर वर्तमान में अपने गृह-जिला के एक ब्लॉक में बी डी ओ के पद पर विराजमान हैं। अच्छी तनख़्वाह पर .. सीमित के साथ-साथ असीमित ऊपरी आय का भी आगमन है उनके ज़ेब और घर .. दोनों में। जिसका उपभोक्ता या यूँ कहें कि हिस्सेदार या दावेदार परिवार का हर सदस्य किसी-न-किसी रूप में होता ही रहता  है।

मेहता जी के इतना कहने पर उनकी लाडली बिटिया- कंचन, जिसे लाड से वे कंचू बुलाते हैं और जो अब तक मौन थी , अपने पापा की स्नेह भरी बातों के प्रभाव में अपनी उदासी से मुक्त होने के बजाय उल्टा और भी रुआँसी हो गई। अब तो मेहता जी का रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया। वह भी बेटी का साथ देते हुए मायूस हो कर प्यार से उसका झुका हुआ सिर सहलाते हुए पूछ बैठे - " क्या बात है बेटा ? कोई बात है मन में तो .. हमको बतलाओ ना ! पर उदास मत रहो बेटा .. तुम मेरे ज़िगर का टुकड़ा हो। हम कभी कोई कमी होने दिए हैं आज तक घर से लेकर बाहर तक तुम लोगों को ? किये हैं क्या ? .. आयँ ! .. बोलो ! .. अपने जानते-सुनते भर में क्या नहीं किये हैं तुमलोगों के लिए घर में ? " 

अब कंचन के सब्र का बाँध भी अपने पापा के प्यार की नमी पाकर ढह गया। सारे उपस्थित मेहमानों की परवाह किये बिना लगभग कपसते हुए वह फूट पड़ी - " पापा ! .. राकेश .. श्रीवास्तव अंकल का बेटा .. आप तो जानते ही हैं ना अंकल को, राकेश तो स्कूल से ही मेरा सहपाठी रहा है। एक अच्छा दोस्त भी। हर साल मुझ से ज्यादा ही अंक मिलते आये हैं उसको। मैं हमेशा उस से नोट्स लेकर अपनी पढ़ाई में मदद भी लिया करती थी। आपको तो सब पता है ना पापा। " - बोलते-बोलते बिलख-बिलख कर रोने लगी। - " आप तो अच्छी तरह ये भी जानते हैं कि उसके पापा एक साधारण प्राइवेट नौकरी करते हैं, जहाँ एक पैसा भी ऊपरी कमाई की गुंजाईश नहीं है। बहुत त्याग और कष्ट कर के उसके पापा एक उम्मीद के साथ अपने राकेश को पढ़ा कर यहाँ तक लाये हैं। पर .. उनकी सब उम्मीदें जमींदोज़ हो गई ना पापा ..  देखिये ना जरा .. आज के आपके इस आयोजन में ना तो राकेश आया है पापा और ना ही श्रीवास्तव अंकल आये हैं। पता है क्यों ? .. दरसअल .. इस प्रतियोगिता में  राकेश के मार्क्स मुझ से बेहतर हैं , पर .. मेरे मार्क्स कम होने के बावजूद ये नौकरी मुझे इसलिए मिली .. क्योंकि .. हम लोग आरक्षण के तहत आते हैं और वह जेनरल कैटगरी में आता है तो .. ऐसे में आज आज़ादी के सत्तर साल से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी सफलता के लिए जातिगत अलग-अलग कट-ऑफ मार्क्स तय किये जाते हैं पापा। आखिर क्यों ? अब उसकी ये दुर्दशा जान-सुनकर उदास ना होऊं .. या रोऊँ नहीं तो और क्या करूँ पापा ? ... "

श्री सत्येंद्र मेहता जी अब अपनी बेटी के सवाल के समक्ष अपनी नज़रें झुकाए मौन और मूर्तिवत .. पूर्णरूपेण निरूत्तर खड़े थे। उनके मन में अब बिटिया को आरक्षण के तहत तथाकथित अधिकारस्वरूप या फिर भिक्षास्वरूप मिली पी. ओ. की नौकरी की ख़ुशी से कहीं ज्यादा मलाल .. अपनी बिटिया से ज्यादा अंक लाने के बावज़ूद जेनरल कैटगरी के कारण उन से ग़रीब श्रीवास्तव जी के बेटा राकेश को पी. ओ. की नौकरी नहीं मिलने की होने लगी थी .. शायद ... 

काश !!! ये मलाल और भी कई तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत इन्सानी मनों (मन का बहुवचन) में पनप पाता .. बस यूँ ही ...