Thursday, October 8, 2020

शायद ...

सनातनी एक सोच -  

लगता है पाप 

काटने से बरगद , 

बसते हैं उसमें एक 

तथाकथित भगवान 

.. शायद ...


पर दूबें .. या तो 

नोची जाती हैं 

पूजन के लिए उसी 

तथाकथित भगवान के 

या फिर हैं कुचली जाती 

पैरों तले पगडंडियों पर 

.. शायद ...



Tuesday, October 6, 2020

काश !!! ये मलाल ...

 " आज घर में बहुत सारे मेहमान आये हुए हैं बेटी। आज तो पूर्णिमा के साथ-साथ संयोग से रविवार होने के कारण आमंत्रित किये गए लगभग सारे पड़ोसी, इसी शहर के अपने सारे नाते-रिश्तेदार, जान-पहचान वाले आए हुए हैं। घर में सत्यनारायण स्वामी की कथा के बाद सभी मेहमानों के लिए शहर के नामी कैटरर द्वारा दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी किया है हमने। तुम्हारी भी सारी सहेलियाँ शामिल हैं .. हमारी आज की इस ख़ुशी में। और तो और .. सब से ख़ास बात तो ये है कि आज के इस ख़ुशीयुक्त आयोजन की वज़ह ही हो तुम और .. तुमको मिलने वाली बैंक के पी.ओ. की नौकरी। तुम्हारी ख़ुशी के लिए ही तो ये सब आयोजन किया गया है ना बेटी ? " - ये श्री सत्येंद्र मेहता जी द्वारा अपनी बेटी को इतनी ख़ुशी के माहौल में भी उदास देख कर पूछा गया सवाल था। -" वैसे तो तुम लगभग एक सप्ताह से, जब से तुम्हारा पी. ओ. वाला रिजल्ट आया है, तुम उसी दिन से उदास दिख रही हो। हम समझ रहे थे कि .. कोई मामूली बात होगी। किसी छोटी-मोटी वजह से मन या तबियत खराब होगा शायद। पर .. आज तो इस ख़ुशी के माहौल में .. सभी लोग तो खुश हैं रानी बिटिया .. सिवाय तुम्हारे ...। आख़िर क्यों बेटा ?

सत्येंद्र मेहता जी जनगणना के आंकड़े के अनुसार ओ. बी. सी. होने के कारण आरक्षण के तहत मिली अपनी सरकारी नौकरी में 12 साल के कार्यकाल में ही आरक्षण के तहत सरकारी आंकड़ों में दर्ज सामान्य वर्ग वाली जाति की तुलना में कम समय में ही ज्यादा पदोन्नति यानि तीन-तीन बार पदोन्नति पाकर वर्तमान में अपने गृह-जिला के एक ब्लॉक में बी डी ओ के पद पर विराजमान हैं। अच्छी तनख़्वाह पर .. सीमित के साथ-साथ असीमित ऊपरी आय का भी आगमन है उनके ज़ेब और घर .. दोनों में। जिसका उपभोक्ता या यूँ कहें कि हिस्सेदार या दावेदार परिवार का हर सदस्य किसी-न-किसी रूप में होता ही रहता  है।

मेहता जी के इतना कहने पर उनकी लाडली बिटिया- कंचन, जिसे लाड से वे कंचू बुलाते हैं और जो अब तक मौन थी , अपने पापा की स्नेह भरी बातों के प्रभाव में अपनी उदासी से मुक्त होने के बजाय उल्टा और भी रुआँसी हो गई। अब तो मेहता जी का रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया। वह भी बेटी का साथ देते हुए मायूस हो कर प्यार से उसका झुका हुआ सिर सहलाते हुए पूछ बैठे - " क्या बात है बेटा ? कोई बात है मन में तो .. हमको बतलाओ ना ! पर उदास मत रहो बेटा .. तुम मेरे ज़िगर का टुकड़ा हो। हम कभी कोई कमी होने दिए हैं आज तक घर से लेकर बाहर तक तुम लोगों को ? किये हैं क्या ? .. आयँ ! .. बोलो ! .. अपने जानते-सुनते भर में क्या नहीं किये हैं तुमलोगों के लिए घर में ? " 

अब कंचन के सब्र का बाँध भी अपने पापा के प्यार की नमी पाकर ढह गया। सारे उपस्थित मेहमानों की परवाह किये बिना लगभग कपसते हुए वह फूट पड़ी - " पापा ! .. राकेश .. श्रीवास्तव अंकल का बेटा .. आप तो जानते ही हैं ना अंकल को, राकेश तो स्कूल से ही मेरा सहपाठी रहा है। एक अच्छा दोस्त भी। हर साल मुझ से ज्यादा ही अंक मिलते आये हैं उसको। मैं हमेशा उस से नोट्स लेकर अपनी पढ़ाई में मदद भी लिया करती थी। आपको तो सब पता है ना पापा। " - बोलते-बोलते बिलख-बिलख कर रोने लगी। - " आप तो अच्छी तरह ये भी जानते हैं कि उसके पापा एक साधारण प्राइवेट नौकरी करते हैं, जहाँ एक पैसा भी ऊपरी कमाई की गुंजाईश नहीं है। बहुत त्याग और कष्ट कर के उसके पापा एक उम्मीद के साथ अपने राकेश को पढ़ा कर यहाँ तक लाये हैं। पर .. उनकी सब उम्मीदें जमींदोज़ हो गई ना पापा ..  देखिये ना जरा .. आज के आपके इस आयोजन में ना तो राकेश आया है पापा और ना ही श्रीवास्तव अंकल आये हैं। पता है क्यों ? .. दरसअल .. इस प्रतियोगिता में  राकेश के मार्क्स मुझ से बेहतर हैं , पर .. मेरे मार्क्स कम होने के बावजूद ये नौकरी मुझे इसलिए मिली .. क्योंकि .. हम लोग आरक्षण के तहत आते हैं और वह जेनरल कैटगरी में आता है तो .. ऐसे में आज आज़ादी के सत्तर साल से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी सफलता के लिए जातिगत अलग-अलग कट-ऑफ मार्क्स तय किये जाते हैं पापा। आखिर क्यों ? अब उसकी ये दुर्दशा जान-सुनकर उदास ना होऊं .. या रोऊँ नहीं तो और क्या करूँ पापा ? ... "

श्री सत्येंद्र मेहता जी अब अपनी बेटी के सवाल के समक्ष अपनी नज़रें झुकाए मौन और मूर्तिवत .. पूर्णरूपेण निरूत्तर खड़े थे। उनके मन में अब बिटिया को आरक्षण के तहत तथाकथित अधिकारस्वरूप या फिर भिक्षास्वरूप मिली पी. ओ. की नौकरी की ख़ुशी से कहीं ज्यादा मलाल .. अपनी बिटिया से ज्यादा अंक लाने के बावज़ूद जेनरल कैटगरी के कारण उन से ग़रीब श्रीवास्तव जी के बेटा राकेश को पी. ओ. की नौकरी नहीं मिलने की होने लगी थी .. शायद ... 

काश !!! ये मलाल और भी कई तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत इन्सानी मनों (मन का बहुवचन) में पनप पाता .. बस यूँ ही ...






Sunday, October 4, 2020

एक अवतार पत्थर से परे ... (2).

"एक अवतार पत्थर से परे" के सफ़र में अंक-0 और अंक-1 के बाद आज हमारे समक्ष हैं - "एक अवतार पत्थर से परे ... (2)" .. पर आज के अवतार की चर्चा करने के सन्दर्भ में एक बार हमारे देश में उपलब्ध B.A.M.S. की डिग्री के बारे में एक संक्षिप्त उल्लेख कर लें तो बेहतर होगा .. शायद ...

यूँ तो सर्वविदित है कि हमारे देश में M.B.B.S. के अलावा चिकित्सा की एक और भी डिग्री है - B.A.M.S. यानि “Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery” जिसे हिन्दी में “आयुर्वेदिक चिकित्सा और सर्जरी का स्नातक” कहा जाता है। जिसे 12वीं कक्षा (Intermediate) के बाद साढ़े पाँच वर्ष की अवधि में पूरी की जाती है, जिसमें एक वर्ष का इंटर्नशिप (Internship) भी शामिल रहता है। B.A.M.S. का डिग्रीधारी व्यक्ति भारत में कहीं भी प्रैक्टिस कर सकता है। इस में शरीर-रचना विज्ञान (Anatomy), शरीर-क्रिया विज्ञान (Physiology), चिकित्सा के सिद्धान्त, रोगों से बचाव तथा सामाजिक चिकित्सा, औषधि शास्त्र (Pharmacology), विष विज्ञान (Toxicology), फोरेंसिक चिकित्सा, कान-नाक-गले की चिकित्सा, आँख की चिकित्सा, शल्यक्रिया के सिद्धान्त आदि के पठन-पाठन के साथ-साथ ही आयुर्वेद की भी शिक्षा दी जाती है। सम्भवतः आने वाले दिनों में B.A.M.S. और M.B.B.S. का एकीकरण भी हो सकता है .. शायद ...

महाराष्ट्र राज्य के सतारा जिले में एक छोटे से गाँव के एक मध्यम वर्गीय परिवार के एक अभिभावक दम्पति अपने बेटे की पढ़ाई-लिखाई के बाद उसके बेहतर भविष्य की आशा में अपना सब कुछ उसकी पढ़ाई में निवेश कर देते हैं। 

उनका बेटा भी उनकी उम्मीद पर खड़ा उतरते हुए, BAMS की पढ़ाई 1999 में तिलक आयुर्वेद महाविद्यालय,पूना (पुणे) से पूरी कर तो लिया पर उसे कोई यथोचित नौकरी नहीं मिल पायी। दूसरी तरफ अपने परिवार की आर्थिक तंगी के कारण वह अपना किसी भी तरह का क्लीनिक खोलने में भी असमर्थ था। तब वह आज की आधुनिक बाज़ारवाद की रणनीति के तहत दर-दर ( Door to door ) जाकर मुहल्ले, सोसाइटी (अमूमन बड़े शहारों में अपार्टमेंट को सोसायटी नाम से बुलाते हैं) के लोगों के दरवाज़े पर दस्तक देकर या उपलब्ध कॉल बेल बजा कर उन से उनके परिवार के किसी भी सदस्य की किसी भी तरह की बीमारी के लिए चिकित्सकीय आवश्यकता के बारे में पूछता और आवश्यकता होने पर सशुल्क सेवा प्रदान करने लगा था ताकि घर चलाने के लिए उसे चार पैसे की आमदनी हो सके। इस दौरान वह चिकित्सा सम्बन्धी अपने सारे उपकरण के साथ-साथ परिश्रावक ( Stethoscope ) वग़ैरह एक बैग में लेकर चलता था। ऐसे में कुछ लोग तो अपनी आवश्यकतानुसार अपना इलाज करवाने लगे और कुछ लोग उन्हें अपमानित करते हुए अपने दरवाजे से भगा देते कि इतने सम्मानित डिग्रीधारी डॉक्टर हो कर भी इस तरह दर-दर घुमने की क्या जरूरत है भला !

समय का पहिया घुमता रहा, समय गुजरता गया और आज वह अपनी धर्मपत्नी, जो स्वयं एक BAMS डॉक्टर हैं, के साथ पुणे की गलियों में, सड़कों पर, मंदिरों-मस्जिदों के आगे या अन्य और भी कई सार्वजनिक स्थानों पर भीख माँगने वाले, बेघर लोगों या झुग्गी-झोपड़ियों में अपनी गुजर-बसर करने वाले बुज़ुर्ग, बेसहारा लोगों को या फिर यूँ कहें कि किसी भी जरूरतमंद को मुफ़्त जाँच और मुफ़्त दवाइयाँ उन तक जाकर उन्हें मुहैया कराते हैं। सड़क के किनारे बैठे भिखारियों की निःशुल्क जाँच करके निःशुल्क दवाएँ देकर उपचार करने के साथ-साथ ऐसे सभी लोगों की भी निःशुल्क सेवा करते हैं, जिनके परिवार वालों ने उनकी देखभाल से मुँह मोड़ लिया है। यह नेक काम हर सोमवार से शनिवार तक हर सुबह 10 बजे से शाम 3 बजे तक घूम घूम कर चलता है। ये सिलसिला यहीं नहीं थमता, बल्कि जब वे जरूरतमंद लोग पूरी तरह ठीक हो जाते हैं तो उन्हें ये चिकित्सक दम्पति प्यार से समझाते हैं और बताते हैं कि भीख माँगना कोई अच्‍छी बात नहीं है। इस प्रकार उनका भीख मँगवाना छुड़वा कर उन्हें यथासंभव आर्थिक सहायता देकर अपना कोई भी यथोचित छोटा-मोटा काम-धंधा करने के लायक बना देते हैं। इस कोशिश में लगे लोगों की आर्थिक के अलावा और भी अन्‍य प्रकार की मदद के लिए भी हर वक्त ये युगल तत्पर रहते हैं। उन के अनुसार ऐसा करके उन्हें खुशी मिलती है। लोग उन्‍हें " भिखारियों का डॉक्टर " (“Doctor For Beggars”) कह कर बुलाते हैं। उन्‍हें खुद को ऐसा कहलाने में कोई उलझन या परेशानी भी नहीं होती है।  

लगभग 44 वर्षीय पुणे के उस अवतारस्वरूप डॉक्टर का नाम है - डॉ अभिजीत सोनवणे और उनकी धर्मपत्नी हैं - डॉ मनीषा सोनवणे जो दिनरात उनके साथ योगदान करती हैं। शाम 3 बजे से मनीषा अपना सशुल्क क्लिनिक चलाती है, जिसकी आमदनी भी जरूरतमंदों पर खर्च की जाती है।

आज इनके द्वारा चलाया जा रहा सोहम् न्यास (Soham Trust) नामक एक न्यास समग्र पुणे में सामाजिक स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिए व्यापक स्वास्थ्य देखभाल परियोजना का काम करता है। शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के जरूरतमंदों के अलावा युवा वर्ग में भी यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सम्बंधित जागरूकता फैलाते हैं। गर्भवती महिलाओं और उसके परिवार को स्वच्छता के तरीके बतलाते हैं। साथ ही गरीबों में आम बीमारी - रक्ताल्पता (Anaemia) की बीमारी की भी जाँच और उपचार करते हैं। 

हम अक़्सर अपने तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समाज में अपने घर-समाज के युवाओं से जिन विषय पर बात करते हुए झेंपते हैं या बात करना नहीं चाहते या फिर इसे गन्दी बात कह कर टाल देते हैं, उस विषय पर भी युवाओं से ये बातें करके उसकी बुराईयों से अवगत कराते हैं। युवाओं के साथ-साथ व्यवसायिक यौनकर्मियों को भी HIV/AIDS से बचने के प्रति सजग करते हैं और साथ ही व्यवसायिक यौनकर्मियों को इस संक्रमण रोग से बचने के उपाय, मसलन- कंडोम वग़ैरह , उन्हें मुफ़्त में उपलब्ध कराते हैं। समय-समय पर गरीब और बेसहारा बुजुर्गों के अलावा गरीब कुपोषित बच्चों को भी पोषण पूरक (Nutritional Supplements) मुफ़्त में देते हैं। अब तक हज़ारों लोगों की मदद कर चुका है, इनका ये गैर लाभकारी संगठन (Non Profit Organization)। गरीबों-बेसहारों के लिए मसीहा के तरह हर पल तत्पर खड़ा है - "सोहम् न्यास" (Soham Trust)। कुछ वर्षों पहले सोहम् न्यास (Soham Trust) आरम्भ करने के बाद अब तक इन दम्पति ने लगभग सैकड़ों जरूरतमंदों के मोतियाबिंद का मुफ़्त ऑपरेशन किया है। लगभग इतने ही असहाय, वृद्ध भिखारियों से उनके भीख माँगने की दिनचर्या छुड़वा कर उनके जीवकोपार्जन का अन्य साधन भी जुटा चुके हैं।

अब ऐसे में किसी भी शहर के लड्डू-पेड़े और कहीं-कहीं सोने-चाँदी या अन्य धन-दौलत के चढ़ावे वाले और तिलकधारी तोंदिले के संरक्षण वाले ऊँचे कँगूरे से सजे हजारों मन्दिरों, भभूत वाले सैकड़ों मज़ारों, मस्जिदों, आज भी सलीब पर प्रतीकात्मक मसीहे को लटकाए गिरजाघरों से तो बेहतर है कि हर शहर और हर गाँव में इन डॉ अभिजीत सोनवणे और उनकी धर्मपत्नी डॉ मनीषा सोनवणे के जैसे ही आज के पत्थर से परे जीवित अवतार-दम्पति हों ताकि कुछ तो जनकल्याण हो सके। ऐसे पत्थर से परे अवतारों को कोटि-कोटि ही नहीं अनगिनत नमन कहना चाहिए .. शायद ... बस यूँ ही ...






Wednesday, September 9, 2020

एक अवतार पत्थर से परे ... (1)

आइए ! आज हम "एक अवतार पत्थर से परे ... (0)" (25.08.2020) से आगे "एक अवतार पत्थर से परे ... (1)" पर अपनी नज़र डालते हैं और जानते हैं कि कौन पुरुष कविता से इतना भी ज्यादा प्यार कर सकता है, जो अपनी धर्मपत्नी के मूल नाम की जगह उसे "कविता" नाम से ही सम्बोधित करने लगता है।

अधिकांशतः हम और हमारा तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समाज किसी "सुनीता नारायणन" को कम जानता या पहचानता है, परन्तु प्रायः किसी "सपना चौधरी" को बख़ूबी जानता और पहचानता भी है .. शायद ...

हम अपनी पुरानी बातों, रीति-रिवाजों को अपनी धरोहर मानने में अपनी अकड़ समझते हैं। वैसे तो समझनी भी चाहिए .. पर कुछ बातें या रीति-रिवाज़ जिनके बदल देने से ही समाज की भलाई हो सकती है और हम उसे भी नहीं बदलते .. बल्कि उसे बदलने में अपनी नाक कटती महसूस करने लगते हैं .. तब हम अपनी भावी पीढ़ी के साथ अन्याय करते हैं .. शायद ... । मसलन .. अगर मज़ाहिया अंदाज़ में कहूँ तो .. हम आज भी बड़े आराम से या यूँ कहें कि धड़ल्ले से बातों-बातों में कहते हैं कि - "ना रहे बाँस, ना बजे बाँसुरी।" जबकि आज बाँस के साथ-साथ कई धातुओं, मसलन- पीतल, चाँदी आदि की भी बाँसुरी बाज़ार में उपलब्ध है। यहाँ तक कि एलक्ट्रॉनिक बाँसुरी की भी मधुर और सुरीली आवाज़ की उपलब्धता हमारे पास है। अब तो कम-से-कम इस मुहावरे को त्याग देना चाहिए। इसी तर्ज़ पर कई गम्भीर बातें और कुरीतियाँ भी हैं .. जो बदलने या त्यागने के लायक हैं, जिनकी बतकही फिर कभी।


अब इन बातों से परे आज अतीत के पत्थर बन चुके अवतार के बदले वर्त्तमान युग के अवतारों की बात करते हैं। परन्तु उपर्युक्त बातें हैं तो इसी आलेख के संदर्भ में ही, तो उन्हें कहनी पड़ी। एक और बात भी इसी संदर्भ में है कि कविता लिखने की रूचि या उस से प्रेम होने के लिए किसी इंसान के पास "साहित्य वाचस्पति" (Doctor of Literature) की उपाधि का होना आवश्यक नहीं है .. शायद ... परन्तु अचरज तो तब होता है, जब कोई इंसान कविता का इतना बड़ा प्रेमी हो जाए कि वह अपनी धर्मपत्नी को उस के मूल नाम की जगह कविता नाम से ही सम्बोधित करने लग जाए और समाज में उस महिला की पहचान कविता नाम से ही बन जाए। अब बतकही को विराम .. और आज के मूल बातों का आरम्भ ...

एक अवतार पत्थर से परे ... (1) :--

(अ) कविता :-

मायानगरी मुंबई की बहुत सारी सूफी संतों की दरगाहों में से एक दरगाह है .. उपलब्ध इतिहास के अनुसार मज़हब से ऊपर और मानवतावादी सूफी संत- मख्दूम अली माहिमी का माहिम इलाके में। उस इलाके का नामकरण- "माहिम" भी सम्भवतः उन्हीं सूफ़ी संत- मख्दूम अली माहिमी के दरगाह के वहाँ अवस्थित होने के कारण ही हुआ होगा।
उसी माहिम में स्थित हिंदुजा अस्पताल (पी डी हिंदुजा हॉस्पिटल ऐंड मेडिकल रिसर्च सेंटर) में लगभग 6 साल पहले सितम्बर,2014 में मष्तिष्क घात ('ब्रेन हैमरेज') से मस्तिष्क रक्तस्राव होने के बाद एक 57 वर्षीया महिला को भर्ती कराया गया था। बाद में 'कोमा' में चले जाने के कारण उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली ('वेंटिलेटर') पर भी रखा गया था। लोग कहते हैं ना कि- " जब तक साँस, तब तक आस। " परन्तु कुछ दिनों के बाद ही वहाँ के डॉक्टरों ने उस महिला की तीनों बच्चों, दो बेटियाँ और एक बेटा, को बताया था कि अब उनकी माँ के  जीवित रहने की संभावना कम बची थी।
अन्ततः 29 सितम्बर' 2014, सोमवार की सुबह अस्पताल के द्वारा उस महिला का 'ब्रेन डेड' घोषित कर दिया गया था। जिसके बाद फ़ौरन ही  उनके तीनों बच्चों ने अपनी माँ के यानि उस महिला के अंगदान करने के लिए सम्बन्धित अस्पताल वालों को अपनी सहमति दे दी थी। फिर जीवन को अलविदा कहने वाली उस महिला की अपनी जीवितावस्था में अपने बच्चों से प्रकट की गयी उनकी इच्छानुसार ही उनके गुर्दे ( 'किडनी' ), यकृत ( 'लिवर' / ज़िगर ) वगैरह .. कुछ महत्वपूर्ण स्वस्थ अंग कुछ जरुरतमंद लोगों को दान कर दिए गए थे। हालांकि हम प्रायः रक्त के लिए भी दान शब्द यानि रक्तदान शब्द का ही प्रयोग करते हैं, पर मेरे विचारानुसार इन सब के लिए "दान" के बजाए "साझा" शब्द का प्रयोग करना चाहिए। अतः हमें यह कहना चाहिए कि मरणोपरान्त उस महिला के "अंगसाझा" कर दिए गए थे।
वह जाते-जाते तीन लोगों को जिंदगी दे कर गईं थीं। उन का एक गुर्दा 48 वर्ष के उस एक व्यक्ति को दिया गया था, जो उस समय पिछले 10 साल से 'डायलिसिस' पर टिका हुआ था। दूसरा गुर्दा जसलोक अस्पताल में 59 साल के उस व्यक्ति को दिया गया था, जो सात साल से 'किडनी ट्रांसप्लांट' का इंतज़ार कर रहा था और उन के लीवर ने कोकिलाबेन अम्बानी अस्पताल ( Kokilaben Dhirubhai Ambani Hospital ) में 49 साल के एक व्यक्ति को नया जीवन दिया था। और तो और .. परेल के हाजी बचूली ( K B H Bachooali Charitable Ophthalmic & ENT Hospital ) के Eye Bank में दान की गईं उनकी आंखें भी कुछ जरूरतमंद की रोशनी बन रही हैं।
दरअसल यह महिला थीं (हैं)- ज्योत्स्ना करकरे उर्फ़ कविता करकरे, जिन्हें उनके धर्मपति- हेमंत करकरे अपने अत्यधिक कविता-प्रेम और कविता लिखने के अपने शौक़ के कारण अपनी धर्मपत्नी को प्यार से ज्योत्स्ना की जगह कविता नाम से सम्बोधित करते थे। जिस कारण वह कविता करकरे के नाम से ज्यादा जानी जाने लगीं थीं। पेशे से वह मुम्बई के ही एक बी एड कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं। उनकी दो बेटियों में बड़ी जुई करकरे नवारे अमेरिका में और छोटी बेटी सयाली करकरे जर्मनी में रहती हैं। उन का बेटा आकाश करकरे लॉ ग्रेजुएट है, जो अब पहले तो अपने पिता की शहादत और बाद में उस कारण से अपनी माँ की मानसिक तनाव व सदमे से असमय मृत्यु के कारण लगे दोहरे सदमे में अपने घर पर ना रह कर अपने मामा जी के साथ मध्य प्रदेश में रहता है और .. उनके धर्मपति तो शायद किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं ... हेमंत करकरे, 1982 बैच के आई पी एस ( भारतीय पुलिस सेवा ) और मुंबई ए टी एस चीफ ( आतंक विरोधी दस्तासेवा प्रमुख ), जिन्हें 26/11 ( 26 नवंबर 2008 ) के आतंकी हमले के दौरान आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने के बाद मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था।
आज से लगभग 6 साल पहले 2014 में कविता जी पंचतत्व में विलीन हुईं और उस से भी 6 साल पहले यानि आज से लगभग 12 साल पहले 2008 में, एक रात हेमंत करकरे जी डिनर के लिए उन के साथ आउटिंग पर गए थे। एक फोन कॉल के बाद आधे में ही डिनर छोड़कर निकले और फिर कभी नहीं लौटे।
कविता जी अपने धर्मपति के शहीद होने के बाद उनके शहीद होने में हुए सुरक्षा चूक को लेकर हमेशा मुखर रहीं। उनके अनुसार सुरक्षा चूक की वजह से ही 26 नवंबर 2008 को आतंकी हमला हुआ था और उसी रात दक्षिण मुंबई में आतंकियों के हमले में उनके पति की जान गयी थी। वह अपने धर्मपति के शहीद होने के बाद पुलिस कर्मियों के लिए बेहतर हथियार, प्रशिक्षण और सुविधाओं की भी मांग जीवनपर्यन्त करती रहीं थीं। मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद उन्होंने मुखर हो कर आरोप लगाया था कि हमले के दौरान उनके पति को पीछे से सुरक्षा नहीं मिली थी और वह 40 मिनट तक घायल अवस्था में सड़क पर पड़े रहे थे। सूचना के अधिकार ( Right to Information-RTI / आरटीआई ) से पता चला था कि हेमंत जी का बुलेट प्रूफ जैकेट भी वहाँ नहीं था। दरअसल आरोप यह था कि वह बुलेट प्रूफ जैकेट किसी काम का था ही नहीं।

(ब) हेमन्त और जुई :-

इस आलेख में अगर इनकी बड़ी बेटी- जुई करकरे नवारे की चर्चा ना की जाए तो शायद यह आलेख अधूरी रह जाए। जुई करकरे नवारे, जो अमेरिका के बॉस्टन में अपने पति, जो बैंकिंग सेक्टर में कार्यरत हैं और दो बेटियों ईशा और रूतुजा के साथ रहती हैं। वह स्वयं पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। उन्होंने लगभग 11 सालों के बाद 'हेमंत करकरे : अ डॉटर्स मेम्वायर' ( Hemant Karkare — A Daughter’s Memoir. ) नामक अपने पिता की जीवनी और उपलब्धियों पर आधारित किताब, जिसका विमोचन 2019 में हुआ था, में लिखा है कि उसके पिता ने वैश्विक स्तर पर अपने देश का प्रतिनिधित्व किया था। उसके पिता सिर्फ एक आदर्श आइपीएस अधिकारी ही नहीं थे, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता, पारिवारिक व्यक्ति, कलाकार और संवेदनशील बेहतरीन इंसान भी थे।
इस किताब के लिए जुई ने बोस्टन में अपने पिता हेमंत करकरे की कई डायरियाँ और चिट्ठियाँ इकट्ठी कीं और पढ़ीं थी। जुई ने शहीद हेमंत करकरे की ज़िन्दगी के कई संवेदनशील पहलुओं को इस किताब में उकेरा है। यह किताब आज भी अमेज़न पर भी उपलब्ध है।
जैसा कि इस आलेख में हम पहले ही जान चुके हैं कि कविता लिखना हेमन्त जी का शौक़ था, इतना ज्यादा कि अपनी पत्नी को ज्योत्स्ना नाम के जगह कविता नाम से बुलाते थे। जुई अपनी 11 साल की उम्र में दीवाली पर जब पटाखे लायीं तो उनके पिता यानि हेमन्त करकरे बोले कि दीवाली अनाथालय में मनाएंगे। क्योंकि उन अनाथ बच्चों के लिए पटाखे तो दुर्लभ या नदारद ही होंगे। फिर सारा परिवार पटाखे लेकर अनाथालय गया और दीवाली वहीं सपरिवार अनाथ बच्चों के साथ ही मनायी गयी थी।
महाराष्ट्र के  वर्धा में 12 दिसंबर 1954 को जन्मे शहीद हेमंत करकरे
1975 में विश्वेश्वरैया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री ली थी और शुरूआती समय में हिंदुस्तान यूनीलिवर में नौकरी भी की थी। फिर 1982 में वह आईपीएस अधिकारी बने थे। महाराष्ट्र के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर के बाद इनको एटीएस चीफ बनाया गया था। वह ऑस्ट्रिया में भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के अधिकारी के रूप में भी सात साल तक थे।नक्सलियों से प्रभावित महाराष्ट्र के ही जिला चंद्रपुर में जब एसपी के तौर पर नियुक्त थे तो गाँव के लोगों को नक्सलियों से डरने से मना करते थे। उनका मानना था कि नक्सली एक विचारधारा है जिसे गोली से खत्म नहीं किया जा सकता। इसीलिए कभी नक्सलियों पर गोली नहीं चलाई। बल्कि गाँव वालों का हौसला बढ़ाते हुए बोलते थे कि वे पुलिस का साथ दें और नक्सलियों को कभी भी पनाह नहीं दें। नॉरकोटिक्स विभाग ( Narcotics Control Bureau ) में तैनाती के दौरान उन्होंने पहली बार किसी विदेशी ड्रग्स माफिया को गिरगांव चौपाटी के पास मार गिराया था। यह वही विभाग है जो इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती के ड्रग्स गैंग से उनके ड्रग्स इस्तेमाल करने के सबूत मिलने पर उन की तहक़ीक़ात कर रहा है। 8 सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में जो सीरियल ब्लास्ट हुए थे, उसकी जाँच भी इन्हीं को सौंपी गई थी। हालांकि जाँच के दौरान उनपर आरोपियों पर प्रताड़ित करने का आरोप भी लगा था। राजनीतिक पार्टी से सम्बन्ध रखने वाली साध्वी प्रज्ञा ने तो तब उनको शहीद मानने तक से इंकार करने का एलान कर दिया था। जब कि वे बेहद शांत और संयमी होने के साथ-साथ पुलिस महकमे में ईमानदार और निष्ठावान पदाधिकारी थे।
फिर उस मनहूस शाम/रात .. 26 नवंबर 2008 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ और उस खबर के मिलते ही उस समय के अपने डिनर को बीच में ही छोड़ कर फौरन अपने दस्ते के साथ वे मौका-ए-वारदात पर पहुँचे थे। फिर उनको खबर मिली कि कॉर्पोरेशन बैंक के एटीएम के पास आतंकी एक लाल रंग की कार के पीछे छिपे हुए हैं। वह वहाँ तुरंत पहुँचे तो आतंकी फायरिंग करने लगे। इसी दौरान दोतरफा फायरिंग में एक गोली एक आतंकी के कंधे पर लगी और वह घायल हो गया। उसके हाथ से उसका एके-47 गिर गया और उसे करकरे ने धर दबोचा था। दरअसल वही आतंकी अजमल कसाब था।
इसी दौरान आतंकियों की ओर से जवाबी फायरिंग में तीन गोलियाँ इन को भी लगी, जिसके बाद वह शहीद हो गए। उन के साथ-साथ सेना के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन, मुंबई पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त अशोक कामटे और वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक विजय सालस्कर भी शहीद हो गए थे। बाद में 26 नवंबर, 2009 को इन की शहादत का सम्मान कर के भारत सरकार ने मरणोपरांत अशोक चक्र से इन्हें सम्मानित किया था।

इस प्रकार हम स्वयं इन दोनों से प्रेरणा ले सकते हैं और अपनी युवा पीढ़ी को दे भी सकते हैं कि कविता करकरे जी ने इस नश्वर दुनिया को अलविदा कहने के पहले यह संदेश हमें दिया कि उनका परिवार अपना जीवन (हेमंत करकरे की शहादत) देना भी जानता है और अन्य को जीवन (कविता करकरे का अंगसाझा) देना भी। 

ऐसे में अगर कोई इंसान अपनी सौतेली माँ के प्रपंच के परिणामस्वरूप अपने पिता के आदेशानुसार 14 साल के लिए वनगमन कर के और अपनी पत्नी को उसके अपहरणकर्ता के चंगुल से छुड़ाने के लिए उस के साथ युद्ध करते हुए छल से उस को मार कर अवतार कहला सकता है, तो फिर अंगदान करके जीवनदान करने और देश सेवा में प्राण न्योछावर करने वाले इन युगल को अवतार कहें, तो अनुचित नहीं होना चाहिए। ऐसा केवल मेरा मानना है, हो सकता है गलत भी हो .. शायद ...। फ़िलहाल और बहरहाल तो .. इन दोनों - कविता करकरे और हेमन्त करकरे - पत्थर से परे अवतारों को मन से शत्-शत् ही नहीं .. सहस्त्र-सहस्त्र भी नहीं .. बल्कि कोटि कोटि नमन .. बस यूँ ही ...

( फिर मिलेंगे .. अपनी बतकही के साथ-साथ .. इसकी अगली कड़ी- "एक अवतार पत्थर से परे ... (2)" में एक और ऐसे इन्सानी अवतार से जो वर्तमान के पत्थर में तब्दील हो चुके अतीत के तथाकथित अवतारों से परे हैं .. शायद ... )



ज्योत्स्ना उर्फ़ कविता करकरे (गूगल से साभार).

"Hemant Karkare — A Daughter’s Memoir" किताब के साथ जुई (गूगल से साभार) 



Sunday, August 30, 2020

एक रात उन्मुक्त कभी ...

हुआ था जब पहली बार उन्मुक्त

गर्भ और गर्भनाल से अपनी अम्मा के,

रोया था जार-जार तब भी मैं कमबख़्त।

क्षीण होते अपने इस नश्वर शरीर से

और होऊँगा जब कभी भी उन्मुक्त,

चंद दिनों तक, चंद अपने-चंद पराए

तब भी रोएंगे-बिलखेंगे वक्त-बेवक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती 

युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,

हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ? 

बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर 

हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।

धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर 

लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


रचने की ख़ातिर हरेक कड़ी सृष्टि की

मादाएँ होती नहीं प्रसव-पीड़ा से कभी मुक्त।

दहकते लावा से अपने हो नहीं पाता उन्मुक्त, 

ज्वालामुखी भी कभी .. हो भले ही सुषुप्त।

हुए तो थे पुरख़े हमारे एक रात उन्मुक्त कभी,

ख़ुश हुए थे लहराते तिरंगे के संग अवाम सभी,

साथ मिला था पर .. ग़मज़दा बँटवारे का बंदोबस्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...




Wednesday, August 26, 2020

मुहल्ले की मुनिया ...

सुबह जागने पर प्रायः सुबह-सुबह हम अपनी पहली जम्हाई या अंगड़ाई या फिर दोनों से ही अपने दिन की शुरुआत करते तो हैं, परन्तु ... फ़ौरन ही हमारी दिनचर्या का सिलसिला विज्ञापनों के सरगम के साथ सुर मिलाने लग जाती है। 

फ़ौरन हम हमारी दिनचर्या की तालिका को विज्ञापनों के रंगों से सजाने के लिए हम अपने आप को विवश-बेबस महसूस करने लग जाते हैं। हमारे हर एक क़दम विज्ञापनों के गिरफ़्त में बँधते या बिंधते चले जाते हैं। 

तब ऐसे में हम आर्थिक रूप से ग़रीब ना भी हों तो विज्ञापनों के मायाजाल में हम अपने आप को ज़बरन भौतिक रूप से ग़रीब जरूर मान लेते हैं। फिर तो ऐसा मानकर एक प्रकार का कुढ़न होना भी लाज़िमी ही है .. शायद ... 

खैर ! .. फिलहाल .. आज की रचना/विचारधारा ... बस यूँ ही ...



मुहल्ले की मुनिया

ना तुम कॉम्प्लान 'गर्ल'

ना हम कॉम्प्लान 'बॉय'

करते नहीं कभी 

एक-दूसरे को

'टाटा' .. 'बाय-बाय',

पढ़ने-लिखने हम सब तो

बस ..सरकारी स्कूल ही जाएँ।


हमारे मुहल्ले भर की चाची 

जब लाइफबॉय से नहाएँ

तो फिर पियर्स से नहायी

'लकी' चेहरा वाली 'आँटी' 

किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले

अब हम भला कहाँ से लाएँ ?


चेहरे पर अपने 'नेम', 'फेम' 

और 'स्टार' वाली छवि

जन्मजात काली 

मुहल्ले की मुनिया भला

फेयर एंड लवली वाली

निखार कहाँ से लाए ?


पसीना बहाती दिन भर खेतों में 

गाँव की सुगिया भी भला 

'सॉफ्ट-सॉफ्ट' 'चिक्स' वाली 

मम्मी कैसे बन पाए ?

काश ! कभी 'कंपनी' कोई

मन के लिए भी तो एक प्यारा-सा 

उजला-उजला डव बनाए !!! ...




Tuesday, August 25, 2020

एक अवतार पत्थर से परे ... (0).

 हम अक़्सर अपनी बाल संतान या युवा संतान वाली पीढ़ी को सभ्य और भावी सुसंस्कृत नागरिक बनाने के क्रम में अपने-अपने धर्म-मज़हब के अनुसार गढ़े गए पौराणिक कथाओं के नायक-नायिकाओं वाले आदर्श उनके समक्ष परोसते हैं। किसी भी मौका को नहीं छोड़ते, चाहे वो धार्मिक अनुष्ठान हो, पर्व-त्योहार हो या टी वी पर प्रसारित कोई धार्मिक पौराणिक कथा पर आधारित सीरियल हो। 

भले ही कई चैनलों, मसलन - डिस्कवरी, एपिक, नेशनल जियोग्राफिक, एनिमल प्लेनेट, वाइल्ड इत्यादि - पर हमारे अपने विशाल ब्रह्माण्ड, ग्रह-उपग्रह, देश-विदेश, पर्यावरण, मौसम, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, जल-थल, वायु और अनगिनत अनदेखे सजीवों से जुड़ी शत्-प्रतिशत प्रमाणित सदृश्य जानकारियाँ और घटनाएँ प्रसारित होती हों और बेशक़ उसे बच्चे और युवा अपने प्रिय कार्टून चैनलों के साथ-साथ बारहा .. कई घर-परिवारों में देखते भी हों ; पर हम बुद्धिजीवी लोग तो उन्हीं पौराणिक सीरियलों और उनके नायकों को इतना जोर-शोर से महिमामंडित करते हैं कि वे बेचारी बाल व युवा पीढ़ी सशंकित हो जाती हैं कि वे भला अपना आदर्श माने भी तो भला माने किनको ? 

बेचारे .. बच्चे और युवा .. उसी लालन-पालन वाले माहौल में वयस्क होने के बाद वे भी वही सब करने लग जाते हैं, जो कुछ हम उन्हें कच्ची उम्र में उनके सामने परोस के अपनी गर्दन अकड़ाते हैं। 

यह बात वैसी ही प्रतीत होती है, मानो हम भौतिक रूप से तो आधुनिक हो जाते हैं परन्तु मानसिक रूप से हम हजारों साल पीछे को अपना आदर्श मानते हैं। लगता है .. मानो हम एक बाल या युवा  को मानसिक रूप से ज़बरन उसके छट्ठी के कपड़े पहनने के लिए मज़बूर कर रहे हों ... अंग्रेजी में कहें तो बचपन में ही उसे औने-औने धर्म या मज़हब के अनुसार ब्रेन वॉश कर देते हैं।

अब ऐसे में उन युवाओं को अपने आसपास के वर्त्तमान में उपस्थित कई आदर्श पुरुष, नारी या कई  बच्चे-युवा भी .. के आदर्श रूप उन्हें नज़र ही नहीं आते हैं। जिनका अगर वो अनुसरण या अनुकरण करें तो हमारे भावी समाज का आज नहीं तो कल कुछ न कुछ तो कल्याण होगा ही होगा। 

पर बच्चे और युवा बेचारों को उन पौराणिक आदर्शों के महिमामंडन के चकाचौंध में आज के आदर्श नज़र ही नहीं आते। फिर तो उनके अनुकरण का सवाल ही नहीं उठता। वे तो बेचारे तथाकथित मायावी अस्त्र-शस्त्रों की चमत्कारी ताकत, भीमकाय से बौने और बौने से भीमकाय होते मायावी बंदर, पाताल लोक में समाने वाले और सूरज को निगल जाने वाले विशेष प्रजाति के बन्दर के महिमामंडन में इस कदर खो जाते हैं कि पाठ्यक्रम में पढ़े पृथ्वी, सूरज, मानव, पशु-पक्षी (बन्दर, चूहा, मोर, हंस, सिंह) और महिमामंडन वाली कथाओं की तुलनात्मक अध्ययन में ही उलझ कर रह जाते हैं। 

उन्हें उन तथाकथित पौराणिक चमत्कारों के समक्ष विज्ञान के अब तक के सारे ख़ोज बौने प्रतीत होने लगते हैं। नतीज़न नव पीढ़ी भी हमारी तरह उन चमत्कारों के आगे नत मस्तक हो जाती है। साथ ही हम भी ऐसे कृत्य के लिए उन्हें सुसंस्कृत, सुसभ्य और शालीन होने का मुहर समय-समय पर लगाते रहते हैं। जिन से प्रोत्साहित होकर वे सारे वैसे ही हमारे पौराणिक आदर्श नायकों-नायिकाओं के आदर्श को अपना कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। उस से इतर सोचने या बोलने वाले को हम असभ्य, कुसंस्कारी और उद्दंड तक के विशेषण से विभूषित भी तो कर देते हैं ना अक़्सर।

जबकि हमारे वर्त्तमान "हुआँ-हुआँ" वाली भीड़ से भरे समाज में पौराणिक काल के तथाकथित सजीव और वर्त्तमान के पत्थरों के अवतारों से परे भी ...  कल के बीते पलों में और आज भी कई अवतारों की उपस्थिति हैं, जिन्हें बस हमारी आँखों की रेटिना पर अपने-अपने धार्मिक और पौराणिक बातों की चढ़ी अपारदर्शी परत देखने ही नहीं देती। काश ! ...

अगर हम एक बार के लिए पौराणिक कथाओं को एक प्रमाणिक इतिहास मान भी लें, तो हम इतिहास का अनुकरण या अनुसरण करें आवश्यक भी तो नहीं। सच में करते भी तो नहीं। केवल उस के नाम पर आडम्बर भर करते हैं। अगर सच में अनुकरण या अनुसरण कर रहे होते सभी लोग अपने-अपबे धर्म-मज़हब का तो ये धरती और हमारा समाज स्वर्ग या तथाकथित राम राज्य में परिवर्तित हुआ दिखता। पर ऐसा है नहीं। अगर एक बार इन अतीत का वर्तमान में औचित्य मान भी लें तो हमें वर्तमान में वर्तमान के घटित कारनामों के औचित्य को क्योंकर दरकिनार करना भला ?

अब अगर हम यह भी मान लें कि उन अतीत के अवतारों के अनुकरण या अनुसरण के हम सभी हिमायती हैं भी तो फिर .. हमें आज के मंदिरों में मूक और निर्जीव पत्थर वाले अवतारों से परे .. अपने आसपास के वर्त्तमान के किसी सजीव अवतार का अनुकरण या अनुसरण करने में क्योंकर गुरेज़ है भला ? आयँ ?

ऐसे ही किसी अवतार से मिलते हैं हम इसकी अगली कड़ी - " एक अवतार पत्थर से परे ... (1) " में, जिसके सन्दर्भ में हम इस बात से भी अवगत हो सकेंगे कि कोई पुरुष कविता से इतना भी ज्यादा प्यार कर सकता है कि अपनी धर्मपत्नी के मूल नाम की जगह उसे "कविता" नाम से ही सम्बोधित करने लग जाता है .. तो पुनः दोहरा रहा हूँ कि मिलते हैं इसकी अगली श्रृंखला - " एक अवतार पत्थर से परे ... (1) " में उन ख़ुशनसीब कविता जी से .. बस यूँ ही ...