Wednesday, September 9, 2020

एक अवतार पत्थर से परे ... (1)

आइए ! आज हम "एक अवतार पत्थर से परे ... (0)" (25.08.2020) से आगे "एक अवतार पत्थर से परे ... (1)" पर अपनी नज़र डालते हैं और जानते हैं कि कौन पुरुष कविता से इतना भी ज्यादा प्यार कर सकता है, जो अपनी धर्मपत्नी के मूल नाम की जगह उसे "कविता" नाम से ही सम्बोधित करने लगता है।

अधिकांशतः हम और हमारा तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समाज किसी "सुनीता नारायणन" को कम जानता या पहचानता है, परन्तु प्रायः किसी "सपना चौधरी" को बख़ूबी जानता और पहचानता भी है .. शायद ...

हम अपनी पुरानी बातों, रीति-रिवाजों को अपनी धरोहर मानने में अपनी अकड़ समझते हैं। वैसे तो समझनी भी चाहिए .. पर कुछ बातें या रीति-रिवाज़ जिनके बदल देने से ही समाज की भलाई हो सकती है और हम उसे भी नहीं बदलते .. बल्कि उसे बदलने में अपनी नाक कटती महसूस करने लगते हैं .. तब हम अपनी भावी पीढ़ी के साथ अन्याय करते हैं .. शायद ... । मसलन .. अगर मज़ाहिया अंदाज़ में कहूँ तो .. हम आज भी बड़े आराम से या यूँ कहें कि धड़ल्ले से बातों-बातों में कहते हैं कि - "ना रहे बाँस, ना बजे बाँसुरी।" जबकि आज बाँस के साथ-साथ कई धातुओं, मसलन- पीतल, चाँदी आदि की भी बाँसुरी बाज़ार में उपलब्ध है। यहाँ तक कि एलक्ट्रॉनिक बाँसुरी की भी मधुर और सुरीली आवाज़ की उपलब्धता हमारे पास है। अब तो कम-से-कम इस मुहावरे को त्याग देना चाहिए। इसी तर्ज़ पर कई गम्भीर बातें और कुरीतियाँ भी हैं .. जो बदलने या त्यागने के लायक हैं, जिनकी बतकही फिर कभी।


अब इन बातों से परे आज अतीत के पत्थर बन चुके अवतार के बदले वर्त्तमान युग के अवतारों की बात करते हैं। परन्तु उपर्युक्त बातें हैं तो इसी आलेख के संदर्भ में ही, तो उन्हें कहनी पड़ी। एक और बात भी इसी संदर्भ में है कि कविता लिखने की रूचि या उस से प्रेम होने के लिए किसी इंसान के पास "साहित्य वाचस्पति" (Doctor of Literature) की उपाधि का होना आवश्यक नहीं है .. शायद ... परन्तु अचरज तो तब होता है, जब कोई इंसान कविता का इतना बड़ा प्रेमी हो जाए कि वह अपनी धर्मपत्नी को उस के मूल नाम की जगह कविता नाम से ही सम्बोधित करने लग जाए और समाज में उस महिला की पहचान कविता नाम से ही बन जाए। अब बतकही को विराम .. और आज के मूल बातों का आरम्भ ...

एक अवतार पत्थर से परे ... (1) :--

(अ) कविता :-

मायानगरी मुंबई की बहुत सारी सूफी संतों की दरगाहों में से एक दरगाह है .. उपलब्ध इतिहास के अनुसार मज़हब से ऊपर और मानवतावादी सूफी संत- मख्दूम अली माहिमी का माहिम इलाके में। उस इलाके का नामकरण- "माहिम" भी सम्भवतः उन्हीं सूफ़ी संत- मख्दूम अली माहिमी के दरगाह के वहाँ अवस्थित होने के कारण ही हुआ होगा।
उसी माहिम में स्थित हिंदुजा अस्पताल (पी डी हिंदुजा हॉस्पिटल ऐंड मेडिकल रिसर्च सेंटर) में लगभग 6 साल पहले सितम्बर,2014 में मष्तिष्क घात ('ब्रेन हैमरेज') से मस्तिष्क रक्तस्राव होने के बाद एक 57 वर्षीया महिला को भर्ती कराया गया था। बाद में 'कोमा' में चले जाने के कारण उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली ('वेंटिलेटर') पर भी रखा गया था। लोग कहते हैं ना कि- " जब तक साँस, तब तक आस। " परन्तु कुछ दिनों के बाद ही वहाँ के डॉक्टरों ने उस महिला की तीनों बच्चों, दो बेटियाँ और एक बेटा, को बताया था कि अब उनकी माँ के  जीवित रहने की संभावना कम बची थी।
अन्ततः 29 सितम्बर' 2014, सोमवार की सुबह अस्पताल के द्वारा उस महिला का 'ब्रेन डेड' घोषित कर दिया गया था। जिसके बाद फ़ौरन ही  उनके तीनों बच्चों ने अपनी माँ के यानि उस महिला के अंगदान करने के लिए सम्बन्धित अस्पताल वालों को अपनी सहमति दे दी थी। फिर जीवन को अलविदा कहने वाली उस महिला की अपनी जीवितावस्था में अपने बच्चों से प्रकट की गयी उनकी इच्छानुसार ही उनके गुर्दे ( 'किडनी' ), यकृत ( 'लिवर' / ज़िगर ) वगैरह .. कुछ महत्वपूर्ण स्वस्थ अंग कुछ जरुरतमंद लोगों को दान कर दिए गए थे। हालांकि हम प्रायः रक्त के लिए भी दान शब्द यानि रक्तदान शब्द का ही प्रयोग करते हैं, पर मेरे विचारानुसार इन सब के लिए "दान" के बजाए "साझा" शब्द का प्रयोग करना चाहिए। अतः हमें यह कहना चाहिए कि मरणोपरान्त उस महिला के "अंगसाझा" कर दिए गए थे।
वह जाते-जाते तीन लोगों को जिंदगी दे कर गईं थीं। उन का एक गुर्दा 48 वर्ष के उस एक व्यक्ति को दिया गया था, जो उस समय पिछले 10 साल से 'डायलिसिस' पर टिका हुआ था। दूसरा गुर्दा जसलोक अस्पताल में 59 साल के उस व्यक्ति को दिया गया था, जो सात साल से 'किडनी ट्रांसप्लांट' का इंतज़ार कर रहा था और उन के लीवर ने कोकिलाबेन अम्बानी अस्पताल ( Kokilaben Dhirubhai Ambani Hospital ) में 49 साल के एक व्यक्ति को नया जीवन दिया था। और तो और .. परेल के हाजी बचूली ( K B H Bachooali Charitable Ophthalmic & ENT Hospital ) के Eye Bank में दान की गईं उनकी आंखें भी कुछ जरूरतमंद की रोशनी बन रही हैं।
दरअसल यह महिला थीं (हैं)- ज्योत्स्ना करकरे उर्फ़ कविता करकरे, जिन्हें उनके धर्मपति- हेमंत करकरे अपने अत्यधिक कविता-प्रेम और कविता लिखने के अपने शौक़ के कारण अपनी धर्मपत्नी को प्यार से ज्योत्स्ना की जगह कविता नाम से सम्बोधित करते थे। जिस कारण वह कविता करकरे के नाम से ज्यादा जानी जाने लगीं थीं। पेशे से वह मुम्बई के ही एक बी एड कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं। उनकी दो बेटियों में बड़ी जुई करकरे नवारे अमेरिका में और छोटी बेटी सयाली करकरे जर्मनी में रहती हैं। उन का बेटा आकाश करकरे लॉ ग्रेजुएट है, जो अब पहले तो अपने पिता की शहादत और बाद में उस कारण से अपनी माँ की मानसिक तनाव व सदमे से असमय मृत्यु के कारण लगे दोहरे सदमे में अपने घर पर ना रह कर अपने मामा जी के साथ मध्य प्रदेश में रहता है और .. उनके धर्मपति तो शायद किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं ... हेमंत करकरे, 1982 बैच के आई पी एस ( भारतीय पुलिस सेवा ) और मुंबई ए टी एस चीफ ( आतंक विरोधी दस्तासेवा प्रमुख ), जिन्हें 26/11 ( 26 नवंबर 2008 ) के आतंकी हमले के दौरान आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने के बाद मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था।
आज से लगभग 6 साल पहले 2014 में कविता जी पंचतत्व में विलीन हुईं और उस से भी 6 साल पहले यानि आज से लगभग 12 साल पहले 2008 में, एक रात हेमंत करकरे जी डिनर के लिए उन के साथ आउटिंग पर गए थे। एक फोन कॉल के बाद आधे में ही डिनर छोड़कर निकले और फिर कभी नहीं लौटे।
कविता जी अपने धर्मपति के शहीद होने के बाद उनके शहीद होने में हुए सुरक्षा चूक को लेकर हमेशा मुखर रहीं। उनके अनुसार सुरक्षा चूक की वजह से ही 26 नवंबर 2008 को आतंकी हमला हुआ था और उसी रात दक्षिण मुंबई में आतंकियों के हमले में उनके पति की जान गयी थी। वह अपने धर्मपति के शहीद होने के बाद पुलिस कर्मियों के लिए बेहतर हथियार, प्रशिक्षण और सुविधाओं की भी मांग जीवनपर्यन्त करती रहीं थीं। मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद उन्होंने मुखर हो कर आरोप लगाया था कि हमले के दौरान उनके पति को पीछे से सुरक्षा नहीं मिली थी और वह 40 मिनट तक घायल अवस्था में सड़क पर पड़े रहे थे। सूचना के अधिकार ( Right to Information-RTI / आरटीआई ) से पता चला था कि हेमंत जी का बुलेट प्रूफ जैकेट भी वहाँ नहीं था। दरअसल आरोप यह था कि वह बुलेट प्रूफ जैकेट किसी काम का था ही नहीं।

(ब) हेमन्त और जुई :-

इस आलेख में अगर इनकी बड़ी बेटी- जुई करकरे नवारे की चर्चा ना की जाए तो शायद यह आलेख अधूरी रह जाए। जुई करकरे नवारे, जो अमेरिका के बॉस्टन में अपने पति, जो बैंकिंग सेक्टर में कार्यरत हैं और दो बेटियों ईशा और रूतुजा के साथ रहती हैं। वह स्वयं पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। उन्होंने लगभग 11 सालों के बाद 'हेमंत करकरे : अ डॉटर्स मेम्वायर' ( Hemant Karkare — A Daughter’s Memoir. ) नामक अपने पिता की जीवनी और उपलब्धियों पर आधारित किताब, जिसका विमोचन 2019 में हुआ था, में लिखा है कि उसके पिता ने वैश्विक स्तर पर अपने देश का प्रतिनिधित्व किया था। उसके पिता सिर्फ एक आदर्श आइपीएस अधिकारी ही नहीं थे, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता, पारिवारिक व्यक्ति, कलाकार और संवेदनशील बेहतरीन इंसान भी थे।
इस किताब के लिए जुई ने बोस्टन में अपने पिता हेमंत करकरे की कई डायरियाँ और चिट्ठियाँ इकट्ठी कीं और पढ़ीं थी। जुई ने शहीद हेमंत करकरे की ज़िन्दगी के कई संवेदनशील पहलुओं को इस किताब में उकेरा है। यह किताब आज भी अमेज़न पर भी उपलब्ध है।
जैसा कि इस आलेख में हम पहले ही जान चुके हैं कि कविता लिखना हेमन्त जी का शौक़ था, इतना ज्यादा कि अपनी पत्नी को ज्योत्स्ना नाम के जगह कविता नाम से बुलाते थे। जुई अपनी 11 साल की उम्र में दीवाली पर जब पटाखे लायीं तो उनके पिता यानि हेमन्त करकरे बोले कि दीवाली अनाथालय में मनाएंगे। क्योंकि उन अनाथ बच्चों के लिए पटाखे तो दुर्लभ या नदारद ही होंगे। फिर सारा परिवार पटाखे लेकर अनाथालय गया और दीवाली वहीं सपरिवार अनाथ बच्चों के साथ ही मनायी गयी थी।
महाराष्ट्र के  वर्धा में 12 दिसंबर 1954 को जन्मे शहीद हेमंत करकरे
1975 में विश्वेश्वरैया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री ली थी और शुरूआती समय में हिंदुस्तान यूनीलिवर में नौकरी भी की थी। फिर 1982 में वह आईपीएस अधिकारी बने थे। महाराष्ट्र के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर के बाद इनको एटीएस चीफ बनाया गया था। वह ऑस्ट्रिया में भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के अधिकारी के रूप में भी सात साल तक थे।नक्सलियों से प्रभावित महाराष्ट्र के ही जिला चंद्रपुर में जब एसपी के तौर पर नियुक्त थे तो गाँव के लोगों को नक्सलियों से डरने से मना करते थे। उनका मानना था कि नक्सली एक विचारधारा है जिसे गोली से खत्म नहीं किया जा सकता। इसीलिए कभी नक्सलियों पर गोली नहीं चलाई। बल्कि गाँव वालों का हौसला बढ़ाते हुए बोलते थे कि वे पुलिस का साथ दें और नक्सलियों को कभी भी पनाह नहीं दें। नॉरकोटिक्स विभाग ( Narcotics Control Bureau ) में तैनाती के दौरान उन्होंने पहली बार किसी विदेशी ड्रग्स माफिया को गिरगांव चौपाटी के पास मार गिराया था। यह वही विभाग है जो इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती के ड्रग्स गैंग से उनके ड्रग्स इस्तेमाल करने के सबूत मिलने पर उन की तहक़ीक़ात कर रहा है। 8 सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में जो सीरियल ब्लास्ट हुए थे, उसकी जाँच भी इन्हीं को सौंपी गई थी। हालांकि जाँच के दौरान उनपर आरोपियों पर प्रताड़ित करने का आरोप भी लगा था। राजनीतिक पार्टी से सम्बन्ध रखने वाली साध्वी प्रज्ञा ने तो तब उनको शहीद मानने तक से इंकार करने का एलान कर दिया था। जब कि वे बेहद शांत और संयमी होने के साथ-साथ पुलिस महकमे में ईमानदार और निष्ठावान पदाधिकारी थे।
फिर उस मनहूस शाम/रात .. 26 नवंबर 2008 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ और उस खबर के मिलते ही उस समय के अपने डिनर को बीच में ही छोड़ कर फौरन अपने दस्ते के साथ वे मौका-ए-वारदात पर पहुँचे थे। फिर उनको खबर मिली कि कॉर्पोरेशन बैंक के एटीएम के पास आतंकी एक लाल रंग की कार के पीछे छिपे हुए हैं। वह वहाँ तुरंत पहुँचे तो आतंकी फायरिंग करने लगे। इसी दौरान दोतरफा फायरिंग में एक गोली एक आतंकी के कंधे पर लगी और वह घायल हो गया। उसके हाथ से उसका एके-47 गिर गया और उसे करकरे ने धर दबोचा था। दरअसल वही आतंकी अजमल कसाब था।
इसी दौरान आतंकियों की ओर से जवाबी फायरिंग में तीन गोलियाँ इन को भी लगी, जिसके बाद वह शहीद हो गए। उन के साथ-साथ सेना के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन, मुंबई पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त अशोक कामटे और वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक विजय सालस्कर भी शहीद हो गए थे। बाद में 26 नवंबर, 2009 को इन की शहादत का सम्मान कर के भारत सरकार ने मरणोपरांत अशोक चक्र से इन्हें सम्मानित किया था।

इस प्रकार हम स्वयं इन दोनों से प्रेरणा ले सकते हैं और अपनी युवा पीढ़ी को दे भी सकते हैं कि कविता करकरे जी ने इस नश्वर दुनिया को अलविदा कहने के पहले यह संदेश हमें दिया कि उनका परिवार अपना जीवन (हेमंत करकरे की शहादत) देना भी जानता है और अन्य को जीवन (कविता करकरे का अंगसाझा) देना भी। 

ऐसे में अगर कोई इंसान अपनी सौतेली माँ के प्रपंच के परिणामस्वरूप अपने पिता के आदेशानुसार 14 साल के लिए वनगमन कर के और अपनी पत्नी को उसके अपहरणकर्ता के चंगुल से छुड़ाने के लिए उस के साथ युद्ध करते हुए छल से उस को मार कर अवतार कहला सकता है, तो फिर अंगदान करके जीवनदान करने और देश सेवा में प्राण न्योछावर करने वाले इन युगल को अवतार कहें, तो अनुचित नहीं होना चाहिए। ऐसा केवल मेरा मानना है, हो सकता है गलत भी हो .. शायद ...। फ़िलहाल और बहरहाल तो .. इन दोनों - कविता करकरे और हेमन्त करकरे - पत्थर से परे अवतारों को मन से शत्-शत् ही नहीं .. सहस्त्र-सहस्त्र भी नहीं .. बल्कि कोटि कोटि नमन .. बस यूँ ही ...

( फिर मिलेंगे .. अपनी बतकही के साथ-साथ .. इसकी अगली कड़ी- "एक अवतार पत्थर से परे ... (2)" में एक और ऐसे इन्सानी अवतार से जो वर्तमान के पत्थर में तब्दील हो चुके अतीत के तथाकथित अवतारों से परे हैं .. शायद ... )



ज्योत्स्ना उर्फ़ कविता करकरे (गूगल से साभार).

"Hemant Karkare — A Daughter’s Memoir" किताब के साथ जुई (गूगल से साभार) 



Sunday, August 30, 2020

एक रात उन्मुक्त कभी ...

हुआ था जब पहली बार उन्मुक्त

गर्भ और गर्भनाल से अपनी अम्मा के,

रोया था जार-जार तब भी मैं कमबख़्त।

क्षीण होते अपने इस नश्वर शरीर से

और होऊँगा जब कभी भी उन्मुक्त,

चंद दिनों तक, चंद अपने-चंद पराए

तब भी रोएंगे-बिलखेंगे वक्त-बेवक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती 

युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,

हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ? 

बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर 

हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।

धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर 

लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


रचने की ख़ातिर हरेक कड़ी सृष्टि की

मादाएँ होती नहीं प्रसव-पीड़ा से कभी मुक्त।

दहकते लावा से अपने हो नहीं पाता उन्मुक्त, 

ज्वालामुखी भी कभी .. हो भले ही सुषुप्त।

हुए तो थे पुरख़े हमारे एक रात उन्मुक्त कभी,

ख़ुश हुए थे लहराते तिरंगे के संग अवाम सभी,

साथ मिला था पर .. ग़मज़दा बँटवारे का बंदोबस्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...




Wednesday, August 26, 2020

मुहल्ले की मुनिया ...

सुबह जागने पर प्रायः सुबह-सुबह हम अपनी पहली जम्हाई या अंगड़ाई या फिर दोनों से ही अपने दिन की शुरुआत करते तो हैं, परन्तु ... फ़ौरन ही हमारी दिनचर्या का सिलसिला विज्ञापनों के सरगम के साथ सुर मिलाने लग जाती है। 

फ़ौरन हम हमारी दिनचर्या की तालिका को विज्ञापनों के रंगों से सजाने के लिए हम अपने आप को विवश-बेबस महसूस करने लग जाते हैं। हमारे हर एक क़दम विज्ञापनों के गिरफ़्त में बँधते या बिंधते चले जाते हैं। 

तब ऐसे में हम आर्थिक रूप से ग़रीब ना भी हों तो विज्ञापनों के मायाजाल में हम अपने आप को ज़बरन भौतिक रूप से ग़रीब जरूर मान लेते हैं। फिर तो ऐसा मानकर एक प्रकार का कुढ़न होना भी लाज़िमी ही है .. शायद ... 

खैर ! .. फिलहाल .. आज की रचना/विचारधारा ... बस यूँ ही ...



मुहल्ले की मुनिया

ना तुम कॉम्प्लान 'गर्ल'

ना हम कॉम्प्लान 'बॉय'

करते नहीं कभी 

एक-दूसरे को

'टाटा' .. 'बाय-बाय',

पढ़ने-लिखने हम सब तो

बस ..सरकारी स्कूल ही जाएँ।


हमारे मुहल्ले भर की चाची 

जब लाइफबॉय से नहाएँ

तो फिर पियर्स से नहायी

'लकी' चेहरा वाली 'आँटी' 

किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले

अब हम भला कहाँ से लाएँ ?


चेहरे पर अपने 'नेम', 'फेम' 

और 'स्टार' वाली छवि

जन्मजात काली 

मुहल्ले की मुनिया भला

फेयर एंड लवली वाली

निखार कहाँ से लाए ?


पसीना बहाती दिन भर खेतों में 

गाँव की सुगिया भी भला 

'सॉफ्ट-सॉफ्ट' 'चिक्स' वाली 

मम्मी कैसे बन पाए ?

काश ! कभी 'कंपनी' कोई

मन के लिए भी तो एक प्यारा-सा 

उजला-उजला डव बनाए !!! ...




Tuesday, August 25, 2020

एक अवतार पत्थर से परे ... (0).

 हम अक़्सर अपनी बाल संतान या युवा संतान वाली पीढ़ी को सभ्य और भावी सुसंस्कृत नागरिक बनाने के क्रम में अपने-अपने धर्म-मज़हब के अनुसार गढ़े गए पौराणिक कथाओं के नायक-नायिकाओं वाले आदर्श उनके समक्ष परोसते हैं। किसी भी मौका को नहीं छोड़ते, चाहे वो धार्मिक अनुष्ठान हो, पर्व-त्योहार हो या टी वी पर प्रसारित कोई धार्मिक पौराणिक कथा पर आधारित सीरियल हो। 

भले ही कई चैनलों, मसलन - डिस्कवरी, एपिक, नेशनल जियोग्राफिक, एनिमल प्लेनेट, वाइल्ड इत्यादि - पर हमारे अपने विशाल ब्रह्माण्ड, ग्रह-उपग्रह, देश-विदेश, पर्यावरण, मौसम, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, जल-थल, वायु और अनगिनत अनदेखे सजीवों से जुड़ी शत्-प्रतिशत प्रमाणित सदृश्य जानकारियाँ और घटनाएँ प्रसारित होती हों और बेशक़ उसे बच्चे और युवा अपने प्रिय कार्टून चैनलों के साथ-साथ बारहा .. कई घर-परिवारों में देखते भी हों ; पर हम बुद्धिजीवी लोग तो उन्हीं पौराणिक सीरियलों और उनके नायकों को इतना जोर-शोर से महिमामंडित करते हैं कि वे बेचारी बाल व युवा पीढ़ी सशंकित हो जाती हैं कि वे भला अपना आदर्श माने भी तो भला माने किनको ? 

बेचारे .. बच्चे और युवा .. उसी लालन-पालन वाले माहौल में वयस्क होने के बाद वे भी वही सब करने लग जाते हैं, जो कुछ हम उन्हें कच्ची उम्र में उनके सामने परोस के अपनी गर्दन अकड़ाते हैं। 

यह बात वैसी ही प्रतीत होती है, मानो हम भौतिक रूप से तो आधुनिक हो जाते हैं परन्तु मानसिक रूप से हम हजारों साल पीछे को अपना आदर्श मानते हैं। लगता है .. मानो हम एक बाल या युवा  को मानसिक रूप से ज़बरन उसके छट्ठी के कपड़े पहनने के लिए मज़बूर कर रहे हों ... अंग्रेजी में कहें तो बचपन में ही उसे औने-औने धर्म या मज़हब के अनुसार ब्रेन वॉश कर देते हैं।

अब ऐसे में उन युवाओं को अपने आसपास के वर्त्तमान में उपस्थित कई आदर्श पुरुष, नारी या कई  बच्चे-युवा भी .. के आदर्श रूप उन्हें नज़र ही नहीं आते हैं। जिनका अगर वो अनुसरण या अनुकरण करें तो हमारे भावी समाज का आज नहीं तो कल कुछ न कुछ तो कल्याण होगा ही होगा। 

पर बच्चे और युवा बेचारों को उन पौराणिक आदर्शों के महिमामंडन के चकाचौंध में आज के आदर्श नज़र ही नहीं आते। फिर तो उनके अनुकरण का सवाल ही नहीं उठता। वे तो बेचारे तथाकथित मायावी अस्त्र-शस्त्रों की चमत्कारी ताकत, भीमकाय से बौने और बौने से भीमकाय होते मायावी बंदर, पाताल लोक में समाने वाले और सूरज को निगल जाने वाले विशेष प्रजाति के बन्दर के महिमामंडन में इस कदर खो जाते हैं कि पाठ्यक्रम में पढ़े पृथ्वी, सूरज, मानव, पशु-पक्षी (बन्दर, चूहा, मोर, हंस, सिंह) और महिमामंडन वाली कथाओं की तुलनात्मक अध्ययन में ही उलझ कर रह जाते हैं। 

उन्हें उन तथाकथित पौराणिक चमत्कारों के समक्ष विज्ञान के अब तक के सारे ख़ोज बौने प्रतीत होने लगते हैं। नतीज़न नव पीढ़ी भी हमारी तरह उन चमत्कारों के आगे नत मस्तक हो जाती है। साथ ही हम भी ऐसे कृत्य के लिए उन्हें सुसंस्कृत, सुसभ्य और शालीन होने का मुहर समय-समय पर लगाते रहते हैं। जिन से प्रोत्साहित होकर वे सारे वैसे ही हमारे पौराणिक आदर्श नायकों-नायिकाओं के आदर्श को अपना कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। उस से इतर सोचने या बोलने वाले को हम असभ्य, कुसंस्कारी और उद्दंड तक के विशेषण से विभूषित भी तो कर देते हैं ना अक़्सर।

जबकि हमारे वर्त्तमान "हुआँ-हुआँ" वाली भीड़ से भरे समाज में पौराणिक काल के तथाकथित सजीव और वर्त्तमान के पत्थरों के अवतारों से परे भी ...  कल के बीते पलों में और आज भी कई अवतारों की उपस्थिति हैं, जिन्हें बस हमारी आँखों की रेटिना पर अपने-अपने धार्मिक और पौराणिक बातों की चढ़ी अपारदर्शी परत देखने ही नहीं देती। काश ! ...

अगर हम एक बार के लिए पौराणिक कथाओं को एक प्रमाणिक इतिहास मान भी लें, तो हम इतिहास का अनुकरण या अनुसरण करें आवश्यक भी तो नहीं। सच में करते भी तो नहीं। केवल उस के नाम पर आडम्बर भर करते हैं। अगर सच में अनुकरण या अनुसरण कर रहे होते सभी लोग अपने-अपबे धर्म-मज़हब का तो ये धरती और हमारा समाज स्वर्ग या तथाकथित राम राज्य में परिवर्तित हुआ दिखता। पर ऐसा है नहीं। अगर एक बार इन अतीत का वर्तमान में औचित्य मान भी लें तो हमें वर्तमान में वर्तमान के घटित कारनामों के औचित्य को क्योंकर दरकिनार करना भला ?

अब अगर हम यह भी मान लें कि उन अतीत के अवतारों के अनुकरण या अनुसरण के हम सभी हिमायती हैं भी तो फिर .. हमें आज के मंदिरों में मूक और निर्जीव पत्थर वाले अवतारों से परे .. अपने आसपास के वर्त्तमान के किसी सजीव अवतार का अनुकरण या अनुसरण करने में क्योंकर गुरेज़ है भला ? आयँ ?

ऐसे ही किसी अवतार से मिलते हैं हम इसकी अगली कड़ी - " एक अवतार पत्थर से परे ... (1) " में, जिसके सन्दर्भ में हम इस बात से भी अवगत हो सकेंगे कि कोई पुरुष कविता से इतना भी ज्यादा प्यार कर सकता है कि अपनी धर्मपत्नी के मूल नाम की जगह उसे "कविता" नाम से ही सम्बोधित करने लग जाता है .. तो पुनः दोहरा रहा हूँ कि मिलते हैं इसकी अगली श्रृंखला - " एक अवतार पत्थर से परे ... (1) " में उन ख़ुशनसीब कविता जी से .. बस यूँ ही ...


Wednesday, August 19, 2020

हलकान है भकुआ - (१)

 यहाँ भकुआ नाम का पात्र कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है बल्कि यह एक जातिवाचक  संज्ञा है, जो हो सकता है आपके आसपास, आपके गाँव, शहर, मुहल्ले, कॉलोनी, सोसाइटी, अपार्टमेंट या आपके घर में ही हो। ज़रा ध्यान दीजिए। गौर से देखिए। नहीं दिखा ? ख़ैर, जाने भी दीजिए। दिमाग़ पर ज्यादा ज़ोर मत दीजिए। अरे, माना कि आप बुद्धिजीवी हैं, पर हाथ-पैर या शरीर की तरह आपका दिमाग भी तो थकता ही है ना ? चाहे वह बुद्धिजीवी का ही क्यों ना हो। धत् ! .. अरे बाबा .. वैसे बुद्धिजीवी का ही तो थकेगा भी ; क्योंकि भकुआ के पास तो दिमाग होता ही नहीं, जो थकेगा। 

वैसे तो ऐसे जातिवाचक संज्ञा वाले भकुआ के हलकान होने के कई सारे कारणों से अवगत होना है हमें। अभी फ़िलहाल तो आइए हमलोग "हलकान है भकुआ - (१)" पर एक नज़र डालते हैं ...

हलकान है भकुआ - (१)

आज शाम की चाय-नाश्ता की झंझट से भकुआ पूरी तरह मुक्त है। घर में अकेला सोफ़ा पर टाँग पसार कर लेटा हुआ टी वी के किसी भोजपुरी चैनल पर कोई मनपसन्द भड़कीला भोजपुरी गाना सुन रहा है। कारण - मालिक किसी मीटिंग में सुबह से ही बाहर गए हुए हैं। वह देर रात उसी मीटिंग के तहत डिनर पार्टी खा कर ही घर लौटेंगे और घर की मालकिन अपनी साहित्यकार मित्र मंडली के लगभग दस-पन्द्रह लोगों के साथ मिल कर रुखसाना मैम के यहाँ आज अभी-अभी इफ़्तारी पार्टी में खाने के लिए गई हैं। अब ये लोग रोज़ेदार तो हैं नहीं, जो इनके लिए ये कहा जाए कि रोज़ा तोड़ने गए हैं। संक्षेप में कहें तो पार्टी खाने ही गए हैं। अब शायद ही मालकिन लौट कर आने पर रात में डिनर करें। ज्यादा उम्मीद है कि वह आधा गिलास हल्दी मिला दूध पीकर सोने चली जाएंगी या मन किया तो एक कप कड़क कॉफ़ी पीकर थकान मिटा कर सो जायेंगीं। मालिक की डिनर पार्टी में तो शायद हर बार की तरह अँग्रेजी दारू-सारू चलेगी तो वो तो बिना दूध पिए ही सो जाएंगे। भकुआ को रात के अपने खाने की चिन्ता नहीं है, मालिक या मालकिन अपनी पार्टी से उसके लिए कुछ पैक करवा के ले आये तो ठीक और नहीं तो वह चूड़ा और गुड़ खा कर अपना काम चला लेगा।

वैसे तो अक़्सर मालकिन की साहित्यकार मित्र मंडली मालकिन के घर आती रहती है। उन्हीं में रुखसाना मैम भी आती हैं अक़्सर। पता नहीं सब जोर-जोर से कुछ-कुछ बोलते हैं या गाते हैं। कुछ अपनी डायरी खोल के पढ़ते हैं। कुछ मुँहजुबानी भी। सब मिल कर बीच-बीच में ताली भी बजाते रहते हैं। वैसे भकुआ को कुछ भी समझ में नहीं आता है। हाँ, लोगों को बोलते हुए सुन-सुन कर वह यह जान गया है कि इसको कवि गोष्ठी कहते हैं। कितने लोग आते हैं हर बार की गोष्ठी में वह तो बस .. आये हुए आदमी-औरतों और कुछ के साथ में आये हुए उनके बच्चों के लिए औपचारिक नाश्ते के लिए हर मुंडी पीछे बाज़ार से खरीद कर लाने वाले समोसे-रसगुल्ले की गिनती से अनुमान लगा लेता है। लगभग पन्द्रह-बीस लोग तो आते ही रहते हैं। कभी सप्ताह में एक बार, तो कभी महीना में एक बार। इसके अलावा कभी-कभी किसी ख़ास अवसरों पर भी।

हाँ, वैसे भकुआ को याद है कि एक बार दस-बारह लोग ही आ पाए थे, क्योंकि उस दिन हर बार से कम समोसे-रसगुल्ले आये थे। आये हुए सभी लोगों की बातचीत से उसे पता चला था कि उसी शाम शहर में किसी बड़े मुशायरा का आयोजन होने वाला था। इसी कारण से उर्दू भाषा वाले सम्प्रदाय विशेष के चार-पाँच लोग नहीं आ पाए थे। 

परन्तु उसी दिन किसी दूसरे राज्य के किसी बड़े शहर से वहाँ के किसी नामी साहित्यिक संस्थान के एक नामी-गिरामी व्यक्ति श्रीमान "ख"अतिथि के रूप में आये थे। वैसे भकुआ की मालकिन श्रीमती "क" का भी नाम कम प्रसिद्ध नहीं है चारों ओर। बड़े-बड़े लोगों के बीच उठना-बैठना है उनका। उस दिन श्रीमान "ख" का चेहरा नया था भकुआ के लिए। उनकी विशेष आवभगत हुई थी।

उनके विशेष आवभगत से ही भकुआ उनके अतिथि होने का अनुमान लगाया था। वे उस दिन सभी उपस्थित लोगों से ज्यादा देर तक और ज्यादा ऊँची आवाज़ में बोले भी थे। कमरे में चाय परोसते वक्त उनकी बात भकुआ गौर से सुना था। वह बोल रहे थे कि " मैं धर्मनिरपेक्ष नहीं हूँ। मैं अपने सनातनी धर्म के अलावा दूसरे लोगों का कट्टर दुश्मन हूँ। वे लोग मुझे जरा भी नहीं सुहाते हैं। मेरा वश चले तो एक-एक को ...... " वाक्य अधूरा ही छोड़ दिए थे वे। बोलते-बोलते उनकी आवाज़ और भी पैनी होती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि आज अगर वे चार-पाँच लोग मुशायरे में ना जाकर यहाँ आये होते तो ये महानुभाव उन लोगों को जान से मार देते या गोष्ठी से मार कर भगा देते या फिर ख़ुद ही गोष्ठी छोड़ कर भाग जाते। श्रीमती "क" भी उन विशेष अतिथि का मनोबल बढ़ाते हुए हाँ में हाँ मिलाने के लिए मुस्कुरा कर उपस्थित लोगों के चेहरे पर अपने पावर वाले चश्मे के शीशे के पीछे से अपनी चमकदार नज़रों को टहलाते हुए बोली थीं कि " आज बहुत अच्छा संयोग है कि आज वो सारे लोग नहीं हैं। आज केवल हम ही लोग हैं। है ना ? " उनका इशारा मुशायरे वाले सम्प्रदाय विशेष के लोगों के ना आने के तरफ था। फिर सभी से मुख़ातिब होते हुए - " है ना ? " बोल कर या पूछ कर अपने मंतव्य पर उपस्थित लोगों की हामी की मुहर लगवाने की कोशिश भी कीं थीं।

अभी अचानक ये सब याद कर के मन ही मन भकुआ सोचने लगा कि जब उन सम्प्रदाय विशेष के लोगों से इतनी नफ़रत है तो फिर आज मालकिन रुखसाना मैम के घर इफ़्तारी पार्टी में खाने कैसे चली गईं भला ? वो भी सब को लेकर। 

वैसे तो वह मालकिन को किसी से फ़ोन पर बातचीत करने के दौरान किसी दूसरे का नाम लेकर उसकी बुराई करते कई बार सुना है और उसी दूसरे से बात होने पर उसकी तारीफ़ और पहले वाले की निंदा करते सुना है। किसी के स्वयं बीमार होने या उसके किसी रिश्तेदार के मरने की ख़बर आने पर उस से फ़ोन पर रुआँसी हो कर बतियाना और फ़ौरन उस फ़ोन के काटने के बाद अचानक किसी अन्य के जन्मदिन या शादी की सालगिरह याद आने पर उस व्यक्ति को बधाई देते वक्त ठहाके लगा कर बातें करना तो उनके लिए एकदम आम बात होती है। दूसरे सम्प्रदाय वालों की पीठ पीछे भर्त्सना करने वाली यह इंसान जिनकी अपने सम्प्रदाय, जाति और उपजाति पर अकड़ने वाली इनकी गर्दन अपनी स्मार्ट फ़ोन की स्क्रीन पर अन्य सम्प्रदाय विशेष के त्योहारों पर उनको शुभकामनाएं लिख कर भेजने के लिए बख़ूबी झुकती भी है।

भकुआ सोचता है कि शायद बड़े लोगों की भाषा में इसे औपचारिकता या व्यवहारिकता कहते और मानते भी होंगे। हो सकता है ये सब सही व अच्छी सभ्यता-संस्कृति के तहत आता हो और होता हो। परन्तु उसकी मालकिन श्रीमती "क" द्वारा बार-बार बात-बात में लोगों से अपने आप को सरल कहने पर भकुआ स्तब्ध रह जाता है। एक ऊहापोह भरा सवाल उसके दिमाग़ में हमेशा कौंधता रहता है। यही सोच-सोच कर हलकान होता रहता है कि अगर  ऐसे व्यक्तित्व को सरल कहते हैं तो फिर जटिल या फिर .. कुटिल किसे कहते होंगे भला ?


Tuesday, August 18, 2020

पन्द्रह नहीं, पाँच अगस्त ...

 सर्वविदित है कि हम सभी स्वतन्त्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं। लोग कहते हैं कि हमें बोलने की आज़ादी है। पर साथ ही हमें अपने-अपने ढंग से सोचने की भी तो आज़ादी है ही। सबकी अपनी-अपनी पसंद हैं और इसीलिए दुनिया रंगीन भी है। है ना ? ये बात मैं अक़्सर बोलता या यूँ कहें कि दोहराता हूँ।

इस साल 2020 का पाँच अगस्त भी सब के लिए अलग-अलग मायने रखता होगा। आप शायद उस दिन सारा दिन विशेष भूमि पूजन के लाइव टेलीकास्ट पर अपनी नज़रों को चिपकाये होंगें। पर हमारी दिल, दिमाग, आँखें ..  शत्-प्रतिशत उस समाचार के लिए लोकतंत्र के तथाकथित चौथे खम्भे के एक अंग/अंश - टी वी चैनलों, ख़ासकर रिपब्लिक भारत, पर टिकी थी, जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय से आना था - सुशांत सिंह राजपूत के केस के सन्दर्भ में। शाम तक सकारात्मक समाचार आया भी। साथ ही पालघर से सम्बन्धित भी। इस समाचार के समक्ष दिन भर के सारे समाचार फ़ीके थे हमारे लिए।

इसी संदर्भ में आपको एक बात साझा कर रहा हूँ कि दो अगस्त को हमारी एक फेसबुक परिचिता की फेसबुक पर एक पोस्ट कुछ यूँ आयी थी कि -

" 5 August को 60 साल की हो जाएगी ---* मुग़ल-ए-आज़म*
फिल्म शुरू होते ही यह आवाज़ आती है ।
        **   मैं हिन्दुस्तान हूँ  ** "

कारण - 5 अगस्त को ही 1960 में करीमुद्दीन आसिफ़ (के. आसिफ़) साहब के लगभग 15 सालों के अथक परिश्रम और सब्र के कोख़ से जन्म ली थी - ब्लैक & व्हाइट मुग़ल-ए-आज़म, जिसको आज की नस्ल तकनीकी विकास के कारण रंगीन भी देख रही है। अब चाहे श्वेत-श्याम हो या रंगीन, यह सिनेमा देखने के बाद आज भी हर उम्र के इंसान के मन को रंगीन बना देता है। ख़ैर ! बहरहाल उस पोस्ट को पढ़ कर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया था और एक प्रतिक्रिया तड़ से जड़ दी थी कि -

"मैं हिंदुस्तान हूँ" से आगे की बात नहीं कही जाए तो शायद इसके मन की, दिल की बात अधूरी रह जाए .. आगे भी कुछ कहा है इसने कि ...  "हिमालय मेरी सरहदों का निगेहबान है और गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। इतिहास के आगाज से अंधेरों और उजालों का साथी रहा हूं मैं। मेरे जिस्म पर संगमरमर की चादरों से लिपटी हुई ये खूबसूरत इमारतें गवाह हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा और मोहब्बत करने वालों ने मुझे संवारा है। नादानों ने मुझे जंजीरें पहनाई और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका है।"
फ़िल्म के शुरू में (कास्टिंग के बाद) नेपथ्य से आने वाले इस संवाद का यह भाग ज्यादा महत्वपूर्ण या भावपूर्ण है कि .. "जालिमों ने मुझे लूटा और मोहब्बत करने वालों ने मुझे संवारा है"
अब तो आपके मुग़ल-ए-आज़म की याद दिलाने के बाद तो 5 अगस्त के साथ तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ जुड़ गई :- 5 अगस्त, 1960 = मुग़ल-ए-आज़म, 5 अगस्त, 2019 = धारा 370 का हटना और 5 अगस्त, 2020 = राम मन्दिर का नींव पड़ना ..."

तब फ़ौरन उन फ़ेसबुक परिचिता की भी प्रतिक्रिया कुछ यूँ आयी थी कि -

" मैने तो फिल्म की बात की और याद दिलाया वैसे भैया बाकी घटना अच्छे दिनों की शुरुआत है इतिहास याद रखेगा और आनेवाली पीढीयां फक्र से कहेगी मै हिन्दुस्तान हूँ "

उनकी इस प्रतिक्रिया की मंशा या मंतव्य किस ओर इशारा कर रही थी, यह मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम हो पाया था या है भी। वैसे तो यहाँ प्रत्युत्तर में मेरा यह कहना उचित होता कि इतिहास तो अच्छे और बुरे दोनों दिनों को अपने पन्नों में दर्ज़ करता है। वह तो एक तरफ चंगेज़ ख़ाँ को भी याद रखता है और दूसरी तरफ दारा शिकोह, सम्राट अशोक या विक्रमादित्य को भी याद रखता है। एक तरफ हजरत मोहम्मद साहब को याद रखा है तो दूसरी तरफ़ अबू जहल को भी। पौराणिक कथाओं में राम को भी, तो साथ में रावण को भी। बस अन्तर होता है याद करने के तरीके में। पर मैं ने प्रत्युत्तर में बस एक हँसने वाली स्माइली चिपका कर इस सोशल मिडिया वाले वार्तालाप को विराम दे दिया था। कारण - कई दफ़ा अक़्सर लोग तर्क करने को, "ट्रोल" करना तक कह देते हैं। दरअसल हम तर्क करने को बुरा मानते हैं। माने भी क्यों ना भला ? .. हमारे इस सभ्य और सुसंस्कृत समाज में पिता की आज्ञा मिलने पर सिर को झुकाए चौदह वर्षों के लिए वन गमन को ही आदर्श जो माना जाता है।
ख़ैर, फ़िलहाल हम मूलतः बात करने वाले हैं सुशांत सिंह राजपूत की। अगर ये उपर्युक्त पोस्ट दो अगस्त की जगह पाँच अगस्त, 2020 के बाद आयी होती तो मेरे लिए पाँच अगस्त को फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म, धारा 370 और राम मंदिर की भूमिपूजन के अलावा चौथी महत्वपूर्ण घटना भी इस फ़ेहरिस्त में जुड़ जाती। चौथी यानि सुशांत सिंह राजपूत के केस के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की सकारात्मक रूख़ का आने वाला पहला चरण। वैसे गूगल पर तो लम्बी फ़ेहरिस्त है पाँच अगस्त के दिन की महत्ता के।
अब अगर फ़िलहाल हम सुशांत सिंह राजपूत और पाँच अगस्त की बात कर रहें हैं तो चौदह जून की उस मनहूस घड़ी की याद आनी और उसकी चर्चा होनी लाज़िमी है। है कि नहीं ? है ना ?
जिनको भी उस शख़्स के बारे में थोड़ी बहुत भी जानकारी थी, वो सभी उस मनहूस दिन के "आत्महत्या" शब्द से रत्ती भर भी सहमत नहीं थे। परन्तु हमारी एक ब्लॉगर फेसबुक परिचिता तो अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए उसी दिन ताबड़तोड़ उस घटना को आत्महत्या मान कर आत्महत्या की भर्त्सना करते हुए एक अतुकान्त "शोक गीत" नामक कविता रच डाली। उन्हें जानने वाले कई लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए सहमति में प्रतिक्रिया भी दे डाली। किसी-किसी ने तो प्रोत्साहित करती हुई अपनी प्रतिक्रिया में शायरी और दोहे तक रच डाले। परिचिता को अच्छा भी लगा। प्रत्युत्तर में कई बार लाल दिल वाली स्माइली भी चिपकायी गई। स्वाभाविक है, एक मानवीय गुण है .. अपनी प्रशंसा अच्छी लगनी। मुझे भी लगती है। उसी तर्ज़ पर कई सारी रचनाओं की बाढ़-सी आ गयी सोशल मिडिया पर। आशु रचनाकारों की होड़-सी लग गई। सभी आत्महत्या पर नसीहतों की बरसात करने लगे। अब आप हर जगह तो बकबक कर नहीं सकते, तो मैंने केवल उन परिचिता विशेष के ही ब्लॉग और फेसबुक वाले पोस्ट पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी। मैं ने उनके उस लिखे पर कठुआ काण्ड का हवाला देते हुए इकलौती प्रतिक्रिया वाला विरोध कुछ यूँ किया था कि -

"लगता है सहित्यकार और बुद्धिजीवी जन किसी ना किसी दिन क्राइम ब्रांच वालों को नौकरी से वंचित कर के ही दम लेंगे .. शायद ... हर घटना पर उतावलापन में हम अपनी प्रतिक्रिया चिपका देते हैं। अभी जांच में पता भी नही चला होता है कि ये "आत्महत्या" है या "हत्या" , हम अपनी बात थोप देते हैं।
"कठुआ काण्ड" के समय भी सारे सोशल मिडिया वालों ने उन चार लड़कों को कोस-कोस कर खूब "हुआँ-हुआँ" किया था, पर जब महीनों बाद अपने अथक परिश्रम से ज़ी न्यूज़ (Zee News) चैनल वालों ने साक्ष्य जुटा कर उन बच्चों को निर्दोष साबित किया तो सारे सोशल मिडिया वालों को मानो साँप सूंघ गया। कहीं से चूं तक की आवाज़ भी नहीं आई थी।
इस तरह के किसी राष्ट्रीय स्तर की मार्मिक घटना पर त्वरित मंतव्य सोशल मिडिया पर व्यक्त करना एक प्रश्नवाचक चिन्ह भर नज़र आता है।
ऐसा नहीं कि जो ऐसा नहीं करता वो मर्माहत नहीं होता है, बल्कि वो भी अंतर्मन तक मर्माहत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है ... शायद ..."

आगे के उत्तर, प्रत्युत्तर में मैं शरीक़ नहीं हुआ था। डर था कि कहीं इसे "ट्रोल" करने का नाम ना दे दिए जाए। मैं शायद इकलौता बेवकूफ था उन सारे लोगों की नज़रों में जो उस रचना पर अपनी सकारात्मक सहमति वाली प्रतिक्रिया दे रहे थे। मेरे सिवा सारे लोग शायद उन परिचिता के उस तरह लिखने की मंशा शत्-प्रतिशत समझ भी चुके थे। ऐसा उनका अपनी-अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में कहना था।
दो दिन बाद सोलह जून को उन परिचिता की स्वयं की ब्लॉग और फेसबुक पर मेरी नकारात्मक प्रतिक्रिया के ढाल के रूप में अलग-अलग जवाबी प्रतिक्रिया आयी थी। ब्लॉग पर कुछ यूँ था कि :-

"जी तार्किक महोदय सहमत हैं आपसे कि लोग हर घटना को लपकने की होड़ में रहते हो मानो।
सुशांत कोई आम आदमी नहीं थे देश के असंख्य लोगों के प्रिय थे उनके ऐसे जाने पर अन्वेषण दृष्टि और विकलता स्वाभाविक है।
फिर, हर घटना पर प्रतिक्रिया लिखना या न लिखना व्यक्तिगत पसंद या नापसंद है उसके लिए
जो लिख रहे उन्हे कहना उचित तो नहीं शायद..।
आपका बहुत शुक्रिया विमर्श के लिए।"

और फेसबुक पर कुछ यूँ कि :-

"जी तार्किक महोदय,
आपके विचारों का स्वागत है।
सुशांत सिंह राजपूत कोई सड़क र चल रहा गुमनाम मजदूर तो थे नहीं देश के असंख्य युवाओं के लिए  प्रेरणास्त्रोत थे उनके ऐसे जाने पर उनके लिए प्रसारित हर समाचार पर लोगों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। भावनात्मक प्रतिक्रिया किसी रिपोर्ट-जाँच-समिति की मोहताज नहीं होती है।
हर तरह के लोग है सबके विचार आपस में मिले जरूरी नहीं है न।"

बेशक़ ... मैं भी मानता हूँ कि सब के विचार आपस में नहीं मिलते और मिलनी भी नहीं चाहिए, नहीं तो दुनिया श्वेत-श्याम हो कर रह जायेगी। परन्तु .. हमें कोई भी बात सोशल मिडिया पर तार्किक हो कर साझा करनी चाहिए। तर्क करना गुनाह नहीं माना जाना चाहिए।
एक बुद्धिजीवी महानुभाव तो लगभग भड़कते हुए मेरे विरोध में यहाँ तक लिख डाले कि -

" ........ ( परिचिता के नाम को सम्बोधित करते हुए ), सुशांत सिंह ने आत्महत्या की है, यह हम-तुम जैसे लाखों-करोड़ों नादान मान रहे हैं. अब सयानों की सोच हम से अलग हो तो हुआ करे !
सुशांत सिंह 6 महीने से डिप्रेशन की दवा ले रहा था, 17 साल पहले मर चुकी माँ  को भावुक चिट्ठी लिख रहा था, इंस्टाग्राम पर उलझाने वाली रहस्यवादी तस्वीर पोस्ट कर रहा था, अब पुलिस भी प्रथम-दृष्टया आत्महत्या का केस ही मान रही है. हम शेरलॉक होम्स नहीं हैं लेकिन दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखा पढ़ लेते हैं. और अगर हमारा अंदाज़ा गलत निकला तो  माफ़ी मांग लेंगे। "

उसी पोस्ट पर अन्य प्रतिक्रिया देने वाली एक महोदया को संबोधित करते हुए अपना एक लम्बा-चौड़ा ज्ञान भी परोस दिए वह महानुभाव कि -

" ...... ..... ( नाम का सम्बोधन ) जी, सुशांत सिंह की आत्महत्या एक दुखद घटना है जिसका कि हम सबको दुःख है लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों से मुक़ाबला करने के स्थान पर उसके द्वारा आत्महत्या करने के लिए उसको ही दोषी माना जाएगा, किसी और को नहीं. राज कपूर जैसे महान अभिनेता-निर्माता-निर्देशक की बरसों की साधना -'मेरा नाम जोकर' फ़्लॉप हो गयी और उनका स्टूडियो तक गिरवी हो गया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और फिर 'बॉबी' की धमाकेदार सफलता ने उन्हें फिर उसी पुराने मुक़ाम पर पहुंचा दिया. अमिताभ बच्चन के जीवन में भी बहुत उतार-चढ़ाव आए हैं. फ़िल्म-उद्योग की चकाचौंध वाली सफलता के बाद क्षणिक असफलता भी बहुतों को गुरुदत्त की राह पर चलने  मजबूर कर देती है लेकिन उनको राज कपूर या अमिताभ बच्चन के जीवन से कुछ सीख लेकर फिर से उठ खड़ा होने की कोशिश करनी चाहिए. "

हालांकि बाद में परिचिता महोदया ने उन बुद्धिजीवी महोदय को संबोधित करते हुए थोड़ा-बहुत ही सही पर मेरे पक्ष में अपना एक पक्ष रखा जरूर था कि -

" जी सर प्रणाम।
सुबोध सर का कहने का ढंग अलग पर उनके विचार अपनी जगह उचित है कि सोशल मीडिया पर हर घटना लोगों में त्वरित प्रतिक्रिया की होड़ मची रहती है। भले ही उस घटना का सच कुछ भी हो। इस बात से तो आप भी सहमत होंगे। "

सच बताऊँ तो मैं उस दिन अपनी इकलौती प्रतिक्रिया के बाद चुप हो कर रह गया था। सोचा कि अगर आगे भी तर्क करूँ तो कहीं "ट्रोल" करने का इलज़ाम ना लगा दिया जाए। तर्क करने को लोग इतना बुरा क्यों मानते हैं भला ? अभी हाल ही में किसी ब्लॉग पर एक नोबल पुरस्कार प्राप्त महान हस्ती के वक्तव्य को उद्धरण की तरह साझा किया हुआ पढ़ा था कि -

* सिर्फ़ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाक़ू की तरह है 
जिसमे सिर्फ़ ब्लेड है. यह इसका प्रयोग करने वाले के 
हाथ से खून निकाल देता है।

अगर आज वह महापुरुष जीवित होते तो मैं उन से तर्क करने की मूर्खता जरूर करता। यार, अगर चाकू या ब्लेड गलत तरीके से प्रयोग में लाएंगे तो हाथ से ख़ून निकलेगा ही ना ! वही अगर सम्भाल कर रसोईघर में सब्जी या फल काटेंगे तो स्वाद और पौष्टिकता दोनों का आनन्द लेंगे या चारकोल पेन्सिल को सावधानीपूर्वक नुकीला बनाएंगे तो उस से कुछ सुन्दर चित्रांकन की छटा बिखेर पायेंगे। सब आपके प्रयोग पर निर्भर करता है। है या नहीं ? आप ईमानदारी से निष्पक्ष हो कर सोचिये ना जरा। कोई कुछ भी कह दे, चाहे वह नोबल पुरस्कार विजेता ही क्यों ना हो, हम आँख मूँद कर मान लें तो हम आदर्श इंसान ???

ख़ैर ! वापस विषय पर आते हैं ... एक समय कठुआ काण्ड के विरोध में रोष और सम्वेदना से भरी त्वरित कई सारी रचनाओं की बाढ़ या कहें कि सुनामी-सी आ गई थी सोशल मिडिया पर। पर हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ में से एक टी वी चैनल विशेष (ज़ी न्यूज़) वालों ने अपनी कई दिनों की अथक परिश्रम और युक्ति से उन चारों आरोपी युवाओं को निर्दोष साबित करने के लिए कई सारे साक्ष्य जुटाए और उन्हें यथोचित न्याय दिलवा कर बरी भी करवाया था। तब "हुआँ-हुआँ" वाली सारी सोशल मिडिया को मानो साँप सूँघ गया था। तब वो चैनल विशेष अकेला बेचारा बकता रहा था।

ठीक-ठीक उसी तरह तो नहीं, पर इस बार तो सुशांत सिंह राजपूत को यथोचित न्याय दिलवाने के लिए सी बी आई से जाँच करवाने की गुज़ारिश की मुहीम में इस बार के टी वी चैनल विशेष (रिपब्लिक भारत) के साथ कई सारे आम और नामचीन लोग भी शामिल हैं। पर ऐसी दुःखद घटनाओं की वजह जाने बिना, सही दोषी को जाने बिना, अपनी संवेदना (?) भरी त्वरित प्रतिक्रिया सोशल मिडिया पर प्रस्तुत करने वाली और रुदाली विलाप करने वाली सोशल मिडिया इस बार भी चुप्पी साधे हुए है।
साहिब ! माना कि आप बुद्धिजीवी और साहित्यकार लोग हैं। अतिसंवेदनशील प्राणी भी हैं। आप त्वरित रचना गढ़ने वाली प्रतिभा के धनी भी हैं। पर किसी भी बात या घटना के बिना तह में गए अपनी संवेदना की स्याही बस .. अपनी चंद आभासी टी आर पी के लिए मत बहाइए। एक बार कभी समानुभूति भी महसूस कर के देखिए और सोचिए कि अगर हमारे किसी सगे के साथ कोई दुर्घटना घट जाए कभी (क़ुदरत ना करे ऐसा हो) तो क्या तब भी हम अपनी किसी त्वरित रचना की पोस्ट भेजने की मादा रखेंगे ? कुछ दिन के उपरान्त अपनी ही रचना की प्रतिक्रिया में सुशांत सिंह राजपूत का नाम लेकर एक अन्य युवक की आत्महत्या वाली घटना के समाचार वाले लिंक को साझा करते हुए उन्होंने चौदह जून को अपनी पोस्ट की गई रचना, जिसमें आत्महत्या की भर्त्सना की गई थी, के समर्थन या पक्ष में अन्य लोगों से गुहार भी लगाई। पर मेरा कहना है कि अगर हम बिना धैर्य रखे किसी घटना (हत्या या आत्महत्या का ठीक-ठीक पता नहीं हो) की गलत तस्वीर गढ़ते हुए गलत शब्द-चित्र बनाएंगे तो युवा के सामने तो गलत सन्देश जाएगा ही ना ? आप एक बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी हैं तो आपकी समाज को सन्देश पेश करने की जिम्मेवारी और भी बड़ी है।

और सुशांत सिंह राजपूत के संदर्भ में जब आत्महत्या या हत्या तय ही नहीं हो पायी है आज तक भी तो हमने चौदह जून को ही कैसे तय कर लिया था कि यह आत्महत्या है। तरस आती है ऐसी सोच पर और ऐसे सोचों को पालने वालों पर और उन्हें प्रोत्साहन देने वालों की तादाद पर भी। 

आप सभी की ही तरह मेरा भी मानना है कि आत्महत्या एक ग़लत क़दम है। एक प्रसिद्ध या प्रतिष्ठित व्यक्ति ऐसा क़दम उठाये तो और भी ज़्यादा गलत क़दम होता है, क्योंकि उस से कई युवा प्रोत्साहित होकर गलत दिशा में मुड़ते हैं। परन्तु किसी भी घटना का सही आकलन और समीक्षा की जानी चाहिए। आप तो खुद ही एक ग़लत तस्वीर पेश कर रहे हैं। अभी हाल ही में फेसबुक पर आस्था की एक पराकाष्ठा भी पढ़ने के लिए मिली। मैं प्रतिक्रिया देकर "ट्रोल" करने के कलंक से बचना चाहा था, पर आज चर्चा हो रही है तो मन की बात को रोक नहीं पा रहा हूँ। आस्था की बहती धारा में हम इतना क्यों बह जाते हैं भला कि सावन में शिवलिंग पर जल बहाना (चढ़ाना) हमारे वातावरण में शीतलता प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण कारण हमेें लगने लगता है। ऐसे में तो सारे पंखे, एयर कूलर और एयर कंडीशन की फैक्ट्री बन्द कर के शिवलिंग की फैक्ट्री खोल देनी चाहिए पूरे विश्व में नहीं तो कम से कम भारत में तो अवश्य। वैसे सावन के महीने में झारखण्ड वाले देवघर के मंदिर-परिसर को देख कर कम से कम ऐसा तो नहीं लगता। मन्दिर के भीतर कई सालों से लगे कई एयर कंडीशनों के बावज़ूद और कई पण्डों द्वारा घूस लेकर विशेष पंक्तियों में तथाकथित भक्तों को तथाकथित लिंग के तथाकथित दर्शन के लिए मंदिर के अंदर धक्का-मुक्की के कारण बहते पसीने से तो कम से कम ऐसा नहीं लगता।
ख़ैर ! ... सुशांत सिंह राजपूत जैसी दुर्घटना एक बदनुमा दाग़ है बॉलीवुड फ़िल्मी दुनिया के रंगमहल पर, जो दाग़ कई पीढ़ियों तक आँखों में चुभती रहेगी। ऐसी घड़ी में हर सच्चे कलाकार या साहित्यकार का फ़र्ज़ बनता है कि वो दुनिया के किसी भी हिस्से में हो;  वो अपनी सीमारेखा में बंधा ज्यादा कुछ नहीं भी कर सकने में सक्षम हो तो कम से कम #CBIforSSR मुहिम का हिस्सा तो बन ही सकते हैं ; ताकि उस असमय खो गए अनमोल प्रतिभावान के साथ-साथ भावी समाज के लिए भी सोनू सूद की ही तरह या उस से भी कहीं ज्यादा सोचने वाले को यथोचित निष्पक्ष न्याय मिल सके .. शायद ...
पन्द्रह अगस्त के दिन के झंडे, परेड, राष्ट्रगान और जलेबियों के साथ-साथ सोशल मिडिया वाली औपचारिक बधाइयों की बाढ़ वाली आज़ादी के ज़श्न मनाए हैं क्या हमने ? पर बेबस आम नागरिक होने के नाते 8291952326 नम्बर पर हमने मिस कॉल किया क्या ? नहीं ???  तब तो उस दिन के झण्डे, राष्ट्रगान और जलेबियाँ बेमानी हैं हमारे लिए.. शायद ...
अब तो बस ... प्रतीक्षा है हमारे साथ-साथ सारे देश को कि उन बुद्धिजीवी महानुभाव का अंदाज़ा गलत निकले और वो अपने कहे अनुसार माफ़ी ना भी माँगे तो भी उनको माफ़ कर दिया जाए .. बस यूँ ही ...




Saturday, August 1, 2020

मन ही मन में ...

साहिब !!! ...
हवाई सर्वेक्षण के नाम पर
उड़नखटोले में आपका आना
और मंडराना मीलों ऊपर आसमान में
हमारी बेबसी और लाचारगी के।

करना सर्वेक्षण .. अवलोकन ..
आकाश में बैठे किसी 
तथाकथित भगवान की तरह
क़ुदरती विनाश लीला वाले
रौद्र रूप धरे तांडव नृत्य के।

हमारे हाल बेहाल .. बदहाल .. फटेहाल
और आपके सर्वेक्षण रिपोर्ट के 
आधार पर मिले राहत कोष की 
बन्दरबाँट चलती है साल दर साल,
हालात हर बार होते हैं बेहतर आपके।

पर साहिब !! .. आइए .. निहारिये ना एक बार .. 
हमारी बेबस बर्बादी के अवशेष,
वीरान हुए .. बहे खेत-खलिहान, 
बची-खुची .. टूटी-फूटी मड़ई के शेष,
और रौंदने के बाद के कई-कई भयावह मंज़र
गुजरे उफनते सैलाबों के पद-चिन्हों के।

जीना मुहाल, खाने के लाले,
लाले की उधारी के भरोसे जीवन को हम पालें,
पर गुजरे सैलाब के पद चिन्ह पर आई कई बीमारियाँ, 
महामारियाँ भला हम कैसे टालें ?
ऐसे में बेबस, लाचार हम मन को बहलाने के लिए
बस मन ही मन में बुदबुदा कर दोहरा लेते हैं कि -
"सीता राम, सीता राम, सीताराम कहिये,
  जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।"
साहिब !!!!! ... आप भी तो कुछ कहिए ! ...