Tuesday, August 18, 2020

पन्द्रह नहीं, पाँच अगस्त ...

 सर्वविदित है कि हम सभी स्वतन्त्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं। लोग कहते हैं कि हमें बोलने की आज़ादी है। पर साथ ही हमें अपने-अपने ढंग से सोचने की भी तो आज़ादी है ही। सबकी अपनी-अपनी पसंद हैं और इसीलिए दुनिया रंगीन भी है। है ना ? ये बात मैं अक़्सर बोलता या यूँ कहें कि दोहराता हूँ।

इस साल 2020 का पाँच अगस्त भी सब के लिए अलग-अलग मायने रखता होगा। आप शायद उस दिन सारा दिन विशेष भूमि पूजन के लाइव टेलीकास्ट पर अपनी नज़रों को चिपकाये होंगें। पर हमारी दिल, दिमाग, आँखें ..  शत्-प्रतिशत उस समाचार के लिए लोकतंत्र के तथाकथित चौथे खम्भे के एक अंग/अंश - टी वी चैनलों, ख़ासकर रिपब्लिक भारत, पर टिकी थी, जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय से आना था - सुशांत सिंह राजपूत के केस के सन्दर्भ में। शाम तक सकारात्मक समाचार आया भी। साथ ही पालघर से सम्बन्धित भी। इस समाचार के समक्ष दिन भर के सारे समाचार फ़ीके थे हमारे लिए।

इसी संदर्भ में आपको एक बात साझा कर रहा हूँ कि दो अगस्त को हमारी एक फेसबुक परिचिता की फेसबुक पर एक पोस्ट कुछ यूँ आयी थी कि -

" 5 August को 60 साल की हो जाएगी ---* मुग़ल-ए-आज़म*
फिल्म शुरू होते ही यह आवाज़ आती है ।
        **   मैं हिन्दुस्तान हूँ  ** "

कारण - 5 अगस्त को ही 1960 में करीमुद्दीन आसिफ़ (के. आसिफ़) साहब के लगभग 15 सालों के अथक परिश्रम और सब्र के कोख़ से जन्म ली थी - ब्लैक & व्हाइट मुग़ल-ए-आज़म, जिसको आज की नस्ल तकनीकी विकास के कारण रंगीन भी देख रही है। अब चाहे श्वेत-श्याम हो या रंगीन, यह सिनेमा देखने के बाद आज भी हर उम्र के इंसान के मन को रंगीन बना देता है। ख़ैर ! बहरहाल उस पोस्ट को पढ़ कर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया था और एक प्रतिक्रिया तड़ से जड़ दी थी कि -

"मैं हिंदुस्तान हूँ" से आगे की बात नहीं कही जाए तो शायद इसके मन की, दिल की बात अधूरी रह जाए .. आगे भी कुछ कहा है इसने कि ...  "हिमालय मेरी सरहदों का निगेहबान है और गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। इतिहास के आगाज से अंधेरों और उजालों का साथी रहा हूं मैं। मेरे जिस्म पर संगमरमर की चादरों से लिपटी हुई ये खूबसूरत इमारतें गवाह हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा और मोहब्बत करने वालों ने मुझे संवारा है। नादानों ने मुझे जंजीरें पहनाई और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका है।"
फ़िल्म के शुरू में (कास्टिंग के बाद) नेपथ्य से आने वाले इस संवाद का यह भाग ज्यादा महत्वपूर्ण या भावपूर्ण है कि .. "जालिमों ने मुझे लूटा और मोहब्बत करने वालों ने मुझे संवारा है"
अब तो आपके मुग़ल-ए-आज़म की याद दिलाने के बाद तो 5 अगस्त के साथ तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ जुड़ गई :- 5 अगस्त, 1960 = मुग़ल-ए-आज़म, 5 अगस्त, 2019 = धारा 370 का हटना और 5 अगस्त, 2020 = राम मन्दिर का नींव पड़ना ..."

तब फ़ौरन उन फ़ेसबुक परिचिता की भी प्रतिक्रिया कुछ यूँ आयी थी कि -

" मैने तो फिल्म की बात की और याद दिलाया वैसे भैया बाकी घटना अच्छे दिनों की शुरुआत है इतिहास याद रखेगा और आनेवाली पीढीयां फक्र से कहेगी मै हिन्दुस्तान हूँ "

उनकी इस प्रतिक्रिया की मंशा या मंतव्य किस ओर इशारा कर रही थी, यह मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम हो पाया था या है भी। वैसे तो यहाँ प्रत्युत्तर में मेरा यह कहना उचित होता कि इतिहास तो अच्छे और बुरे दोनों दिनों को अपने पन्नों में दर्ज़ करता है। वह तो एक तरफ चंगेज़ ख़ाँ को भी याद रखता है और दूसरी तरफ दारा शिकोह, सम्राट अशोक या विक्रमादित्य को भी याद रखता है। एक तरफ हजरत मोहम्मद साहब को याद रखा है तो दूसरी तरफ़ अबू जहल को भी। पौराणिक कथाओं में राम को भी, तो साथ में रावण को भी। बस अन्तर होता है याद करने के तरीके में। पर मैं ने प्रत्युत्तर में बस एक हँसने वाली स्माइली चिपका कर इस सोशल मिडिया वाले वार्तालाप को विराम दे दिया था। कारण - कई दफ़ा अक़्सर लोग तर्क करने को, "ट्रोल" करना तक कह देते हैं। दरअसल हम तर्क करने को बुरा मानते हैं। माने भी क्यों ना भला ? .. हमारे इस सभ्य और सुसंस्कृत समाज में पिता की आज्ञा मिलने पर सिर को झुकाए चौदह वर्षों के लिए वन गमन को ही आदर्श जो माना जाता है।
ख़ैर, फ़िलहाल हम मूलतः बात करने वाले हैं सुशांत सिंह राजपूत की। अगर ये उपर्युक्त पोस्ट दो अगस्त की जगह पाँच अगस्त, 2020 के बाद आयी होती तो मेरे लिए पाँच अगस्त को फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म, धारा 370 और राम मंदिर की भूमिपूजन के अलावा चौथी महत्वपूर्ण घटना भी इस फ़ेहरिस्त में जुड़ जाती। चौथी यानि सुशांत सिंह राजपूत के केस के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की सकारात्मक रूख़ का आने वाला पहला चरण। वैसे गूगल पर तो लम्बी फ़ेहरिस्त है पाँच अगस्त के दिन की महत्ता के।
अब अगर फ़िलहाल हम सुशांत सिंह राजपूत और पाँच अगस्त की बात कर रहें हैं तो चौदह जून की उस मनहूस घड़ी की याद आनी और उसकी चर्चा होनी लाज़िमी है। है कि नहीं ? है ना ?
जिनको भी उस शख़्स के बारे में थोड़ी बहुत भी जानकारी थी, वो सभी उस मनहूस दिन के "आत्महत्या" शब्द से रत्ती भर भी सहमत नहीं थे। परन्तु हमारी एक ब्लॉगर फेसबुक परिचिता तो अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए उसी दिन ताबड़तोड़ उस घटना को आत्महत्या मान कर आत्महत्या की भर्त्सना करते हुए एक अतुकान्त "शोक गीत" नामक कविता रच डाली। उन्हें जानने वाले कई लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए सहमति में प्रतिक्रिया भी दे डाली। किसी-किसी ने तो प्रोत्साहित करती हुई अपनी प्रतिक्रिया में शायरी और दोहे तक रच डाले। परिचिता को अच्छा भी लगा। प्रत्युत्तर में कई बार लाल दिल वाली स्माइली भी चिपकायी गई। स्वाभाविक है, एक मानवीय गुण है .. अपनी प्रशंसा अच्छी लगनी। मुझे भी लगती है। उसी तर्ज़ पर कई सारी रचनाओं की बाढ़-सी आ गयी सोशल मिडिया पर। आशु रचनाकारों की होड़-सी लग गई। सभी आत्महत्या पर नसीहतों की बरसात करने लगे। अब आप हर जगह तो बकबक कर नहीं सकते, तो मैंने केवल उन परिचिता विशेष के ही ब्लॉग और फेसबुक वाले पोस्ट पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी। मैं ने उनके उस लिखे पर कठुआ काण्ड का हवाला देते हुए इकलौती प्रतिक्रिया वाला विरोध कुछ यूँ किया था कि -

"लगता है सहित्यकार और बुद्धिजीवी जन किसी ना किसी दिन क्राइम ब्रांच वालों को नौकरी से वंचित कर के ही दम लेंगे .. शायद ... हर घटना पर उतावलापन में हम अपनी प्रतिक्रिया चिपका देते हैं। अभी जांच में पता भी नही चला होता है कि ये "आत्महत्या" है या "हत्या" , हम अपनी बात थोप देते हैं।
"कठुआ काण्ड" के समय भी सारे सोशल मिडिया वालों ने उन चार लड़कों को कोस-कोस कर खूब "हुआँ-हुआँ" किया था, पर जब महीनों बाद अपने अथक परिश्रम से ज़ी न्यूज़ (Zee News) चैनल वालों ने साक्ष्य जुटा कर उन बच्चों को निर्दोष साबित किया तो सारे सोशल मिडिया वालों को मानो साँप सूंघ गया। कहीं से चूं तक की आवाज़ भी नहीं आई थी।
इस तरह के किसी राष्ट्रीय स्तर की मार्मिक घटना पर त्वरित मंतव्य सोशल मिडिया पर व्यक्त करना एक प्रश्नवाचक चिन्ह भर नज़र आता है।
ऐसा नहीं कि जो ऐसा नहीं करता वो मर्माहत नहीं होता है, बल्कि वो भी अंतर्मन तक मर्माहत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है ... शायद ..."

आगे के उत्तर, प्रत्युत्तर में मैं शरीक़ नहीं हुआ था। डर था कि कहीं इसे "ट्रोल" करने का नाम ना दे दिए जाए। मैं शायद इकलौता बेवकूफ था उन सारे लोगों की नज़रों में जो उस रचना पर अपनी सकारात्मक सहमति वाली प्रतिक्रिया दे रहे थे। मेरे सिवा सारे लोग शायद उन परिचिता के उस तरह लिखने की मंशा शत्-प्रतिशत समझ भी चुके थे। ऐसा उनका अपनी-अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में कहना था।
दो दिन बाद सोलह जून को उन परिचिता की स्वयं की ब्लॉग और फेसबुक पर मेरी नकारात्मक प्रतिक्रिया के ढाल के रूप में अलग-अलग जवाबी प्रतिक्रिया आयी थी। ब्लॉग पर कुछ यूँ था कि :-

"जी तार्किक महोदय सहमत हैं आपसे कि लोग हर घटना को लपकने की होड़ में रहते हो मानो।
सुशांत कोई आम आदमी नहीं थे देश के असंख्य लोगों के प्रिय थे उनके ऐसे जाने पर अन्वेषण दृष्टि और विकलता स्वाभाविक है।
फिर, हर घटना पर प्रतिक्रिया लिखना या न लिखना व्यक्तिगत पसंद या नापसंद है उसके लिए
जो लिख रहे उन्हे कहना उचित तो नहीं शायद..।
आपका बहुत शुक्रिया विमर्श के लिए।"

और फेसबुक पर कुछ यूँ कि :-

"जी तार्किक महोदय,
आपके विचारों का स्वागत है।
सुशांत सिंह राजपूत कोई सड़क र चल रहा गुमनाम मजदूर तो थे नहीं देश के असंख्य युवाओं के लिए  प्रेरणास्त्रोत थे उनके ऐसे जाने पर उनके लिए प्रसारित हर समाचार पर लोगों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। भावनात्मक प्रतिक्रिया किसी रिपोर्ट-जाँच-समिति की मोहताज नहीं होती है।
हर तरह के लोग है सबके विचार आपस में मिले जरूरी नहीं है न।"

बेशक़ ... मैं भी मानता हूँ कि सब के विचार आपस में नहीं मिलते और मिलनी भी नहीं चाहिए, नहीं तो दुनिया श्वेत-श्याम हो कर रह जायेगी। परन्तु .. हमें कोई भी बात सोशल मिडिया पर तार्किक हो कर साझा करनी चाहिए। तर्क करना गुनाह नहीं माना जाना चाहिए।
एक बुद्धिजीवी महानुभाव तो लगभग भड़कते हुए मेरे विरोध में यहाँ तक लिख डाले कि -

" ........ ( परिचिता के नाम को सम्बोधित करते हुए ), सुशांत सिंह ने आत्महत्या की है, यह हम-तुम जैसे लाखों-करोड़ों नादान मान रहे हैं. अब सयानों की सोच हम से अलग हो तो हुआ करे !
सुशांत सिंह 6 महीने से डिप्रेशन की दवा ले रहा था, 17 साल पहले मर चुकी माँ  को भावुक चिट्ठी लिख रहा था, इंस्टाग्राम पर उलझाने वाली रहस्यवादी तस्वीर पोस्ट कर रहा था, अब पुलिस भी प्रथम-दृष्टया आत्महत्या का केस ही मान रही है. हम शेरलॉक होम्स नहीं हैं लेकिन दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखा पढ़ लेते हैं. और अगर हमारा अंदाज़ा गलत निकला तो  माफ़ी मांग लेंगे। "

उसी पोस्ट पर अन्य प्रतिक्रिया देने वाली एक महोदया को संबोधित करते हुए अपना एक लम्बा-चौड़ा ज्ञान भी परोस दिए वह महानुभाव कि -

" ...... ..... ( नाम का सम्बोधन ) जी, सुशांत सिंह की आत्महत्या एक दुखद घटना है जिसका कि हम सबको दुःख है लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों से मुक़ाबला करने के स्थान पर उसके द्वारा आत्महत्या करने के लिए उसको ही दोषी माना जाएगा, किसी और को नहीं. राज कपूर जैसे महान अभिनेता-निर्माता-निर्देशक की बरसों की साधना -'मेरा नाम जोकर' फ़्लॉप हो गयी और उनका स्टूडियो तक गिरवी हो गया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और फिर 'बॉबी' की धमाकेदार सफलता ने उन्हें फिर उसी पुराने मुक़ाम पर पहुंचा दिया. अमिताभ बच्चन के जीवन में भी बहुत उतार-चढ़ाव आए हैं. फ़िल्म-उद्योग की चकाचौंध वाली सफलता के बाद क्षणिक असफलता भी बहुतों को गुरुदत्त की राह पर चलने  मजबूर कर देती है लेकिन उनको राज कपूर या अमिताभ बच्चन के जीवन से कुछ सीख लेकर फिर से उठ खड़ा होने की कोशिश करनी चाहिए. "

हालांकि बाद में परिचिता महोदया ने उन बुद्धिजीवी महोदय को संबोधित करते हुए थोड़ा-बहुत ही सही पर मेरे पक्ष में अपना एक पक्ष रखा जरूर था कि -

" जी सर प्रणाम।
सुबोध सर का कहने का ढंग अलग पर उनके विचार अपनी जगह उचित है कि सोशल मीडिया पर हर घटना लोगों में त्वरित प्रतिक्रिया की होड़ मची रहती है। भले ही उस घटना का सच कुछ भी हो। इस बात से तो आप भी सहमत होंगे। "

सच बताऊँ तो मैं उस दिन अपनी इकलौती प्रतिक्रिया के बाद चुप हो कर रह गया था। सोचा कि अगर आगे भी तर्क करूँ तो कहीं "ट्रोल" करने का इलज़ाम ना लगा दिया जाए। तर्क करने को लोग इतना बुरा क्यों मानते हैं भला ? अभी हाल ही में किसी ब्लॉग पर एक नोबल पुरस्कार प्राप्त महान हस्ती के वक्तव्य को उद्धरण की तरह साझा किया हुआ पढ़ा था कि -

* सिर्फ़ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाक़ू की तरह है 
जिसमे सिर्फ़ ब्लेड है. यह इसका प्रयोग करने वाले के 
हाथ से खून निकाल देता है।

अगर आज वह महापुरुष जीवित होते तो मैं उन से तर्क करने की मूर्खता जरूर करता। यार, अगर चाकू या ब्लेड गलत तरीके से प्रयोग में लाएंगे तो हाथ से ख़ून निकलेगा ही ना ! वही अगर सम्भाल कर रसोईघर में सब्जी या फल काटेंगे तो स्वाद और पौष्टिकता दोनों का आनन्द लेंगे या चारकोल पेन्सिल को सावधानीपूर्वक नुकीला बनाएंगे तो उस से कुछ सुन्दर चित्रांकन की छटा बिखेर पायेंगे। सब आपके प्रयोग पर निर्भर करता है। है या नहीं ? आप ईमानदारी से निष्पक्ष हो कर सोचिये ना जरा। कोई कुछ भी कह दे, चाहे वह नोबल पुरस्कार विजेता ही क्यों ना हो, हम आँख मूँद कर मान लें तो हम आदर्श इंसान ???

ख़ैर ! वापस विषय पर आते हैं ... एक समय कठुआ काण्ड के विरोध में रोष और सम्वेदना से भरी त्वरित कई सारी रचनाओं की बाढ़ या कहें कि सुनामी-सी आ गई थी सोशल मिडिया पर। पर हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ में से एक टी वी चैनल विशेष (ज़ी न्यूज़) वालों ने अपनी कई दिनों की अथक परिश्रम और युक्ति से उन चारों आरोपी युवाओं को निर्दोष साबित करने के लिए कई सारे साक्ष्य जुटाए और उन्हें यथोचित न्याय दिलवा कर बरी भी करवाया था। तब "हुआँ-हुआँ" वाली सारी सोशल मिडिया को मानो साँप सूँघ गया था। तब वो चैनल विशेष अकेला बेचारा बकता रहा था।

ठीक-ठीक उसी तरह तो नहीं, पर इस बार तो सुशांत सिंह राजपूत को यथोचित न्याय दिलवाने के लिए सी बी आई से जाँच करवाने की गुज़ारिश की मुहीम में इस बार के टी वी चैनल विशेष (रिपब्लिक भारत) के साथ कई सारे आम और नामचीन लोग भी शामिल हैं। पर ऐसी दुःखद घटनाओं की वजह जाने बिना, सही दोषी को जाने बिना, अपनी संवेदना (?) भरी त्वरित प्रतिक्रिया सोशल मिडिया पर प्रस्तुत करने वाली और रुदाली विलाप करने वाली सोशल मिडिया इस बार भी चुप्पी साधे हुए है।
साहिब ! माना कि आप बुद्धिजीवी और साहित्यकार लोग हैं। अतिसंवेदनशील प्राणी भी हैं। आप त्वरित रचना गढ़ने वाली प्रतिभा के धनी भी हैं। पर किसी भी बात या घटना के बिना तह में गए अपनी संवेदना की स्याही बस .. अपनी चंद आभासी टी आर पी के लिए मत बहाइए। एक बार कभी समानुभूति भी महसूस कर के देखिए और सोचिए कि अगर हमारे किसी सगे के साथ कोई दुर्घटना घट जाए कभी (क़ुदरत ना करे ऐसा हो) तो क्या तब भी हम अपनी किसी त्वरित रचना की पोस्ट भेजने की मादा रखेंगे ? कुछ दिन के उपरान्त अपनी ही रचना की प्रतिक्रिया में सुशांत सिंह राजपूत का नाम लेकर एक अन्य युवक की आत्महत्या वाली घटना के समाचार वाले लिंक को साझा करते हुए उन्होंने चौदह जून को अपनी पोस्ट की गई रचना, जिसमें आत्महत्या की भर्त्सना की गई थी, के समर्थन या पक्ष में अन्य लोगों से गुहार भी लगाई। पर मेरा कहना है कि अगर हम बिना धैर्य रखे किसी घटना (हत्या या आत्महत्या का ठीक-ठीक पता नहीं हो) की गलत तस्वीर गढ़ते हुए गलत शब्द-चित्र बनाएंगे तो युवा के सामने तो गलत सन्देश जाएगा ही ना ? आप एक बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी हैं तो आपकी समाज को सन्देश पेश करने की जिम्मेवारी और भी बड़ी है।

और सुशांत सिंह राजपूत के संदर्भ में जब आत्महत्या या हत्या तय ही नहीं हो पायी है आज तक भी तो हमने चौदह जून को ही कैसे तय कर लिया था कि यह आत्महत्या है। तरस आती है ऐसी सोच पर और ऐसे सोचों को पालने वालों पर और उन्हें प्रोत्साहन देने वालों की तादाद पर भी। 

आप सभी की ही तरह मेरा भी मानना है कि आत्महत्या एक ग़लत क़दम है। एक प्रसिद्ध या प्रतिष्ठित व्यक्ति ऐसा क़दम उठाये तो और भी ज़्यादा गलत क़दम होता है, क्योंकि उस से कई युवा प्रोत्साहित होकर गलत दिशा में मुड़ते हैं। परन्तु किसी भी घटना का सही आकलन और समीक्षा की जानी चाहिए। आप तो खुद ही एक ग़लत तस्वीर पेश कर रहे हैं। अभी हाल ही में फेसबुक पर आस्था की एक पराकाष्ठा भी पढ़ने के लिए मिली। मैं प्रतिक्रिया देकर "ट्रोल" करने के कलंक से बचना चाहा था, पर आज चर्चा हो रही है तो मन की बात को रोक नहीं पा रहा हूँ। आस्था की बहती धारा में हम इतना क्यों बह जाते हैं भला कि सावन में शिवलिंग पर जल बहाना (चढ़ाना) हमारे वातावरण में शीतलता प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण कारण हमेें लगने लगता है। ऐसे में तो सारे पंखे, एयर कूलर और एयर कंडीशन की फैक्ट्री बन्द कर के शिवलिंग की फैक्ट्री खोल देनी चाहिए पूरे विश्व में नहीं तो कम से कम भारत में तो अवश्य। वैसे सावन के महीने में झारखण्ड वाले देवघर के मंदिर-परिसर को देख कर कम से कम ऐसा तो नहीं लगता। मन्दिर के भीतर कई सालों से लगे कई एयर कंडीशनों के बावज़ूद और कई पण्डों द्वारा घूस लेकर विशेष पंक्तियों में तथाकथित भक्तों को तथाकथित लिंग के तथाकथित दर्शन के लिए मंदिर के अंदर धक्का-मुक्की के कारण बहते पसीने से तो कम से कम ऐसा नहीं लगता।
ख़ैर ! ... सुशांत सिंह राजपूत जैसी दुर्घटना एक बदनुमा दाग़ है बॉलीवुड फ़िल्मी दुनिया के रंगमहल पर, जो दाग़ कई पीढ़ियों तक आँखों में चुभती रहेगी। ऐसी घड़ी में हर सच्चे कलाकार या साहित्यकार का फ़र्ज़ बनता है कि वो दुनिया के किसी भी हिस्से में हो;  वो अपनी सीमारेखा में बंधा ज्यादा कुछ नहीं भी कर सकने में सक्षम हो तो कम से कम #CBIforSSR मुहिम का हिस्सा तो बन ही सकते हैं ; ताकि उस असमय खो गए अनमोल प्रतिभावान के साथ-साथ भावी समाज के लिए भी सोनू सूद की ही तरह या उस से भी कहीं ज्यादा सोचने वाले को यथोचित निष्पक्ष न्याय मिल सके .. शायद ...
पन्द्रह अगस्त के दिन के झंडे, परेड, राष्ट्रगान और जलेबियों के साथ-साथ सोशल मिडिया वाली औपचारिक बधाइयों की बाढ़ वाली आज़ादी के ज़श्न मनाए हैं क्या हमने ? पर बेबस आम नागरिक होने के नाते 8291952326 नम्बर पर हमने मिस कॉल किया क्या ? नहीं ???  तब तो उस दिन के झण्डे, राष्ट्रगान और जलेबियाँ बेमानी हैं हमारे लिए.. शायद ...
अब तो बस ... प्रतीक्षा है हमारे साथ-साथ सारे देश को कि उन बुद्धिजीवी महानुभाव का अंदाज़ा गलत निकले और वो अपने कहे अनुसार माफ़ी ना भी माँगे तो भी उनको माफ़ कर दिया जाए .. बस यूँ ही ...




Saturday, August 1, 2020

मन ही मन में ...

साहिब !!! ...
हवाई सर्वेक्षण के नाम पर
उड़नखटोले में आपका आना
और मंडराना मीलों ऊपर आसमान में
हमारी बेबसी और लाचारगी के।

करना सर्वेक्षण .. अवलोकन ..
आकाश में बैठे किसी 
तथाकथित भगवान की तरह
क़ुदरती विनाश लीला वाले
रौद्र रूप धरे तांडव नृत्य के।

हमारे हाल बेहाल .. बदहाल .. फटेहाल
और आपके सर्वेक्षण रिपोर्ट के 
आधार पर मिले राहत कोष की 
बन्दरबाँट चलती है साल दर साल,
हालात हर बार होते हैं बेहतर आपके।

पर साहिब !! .. आइए .. निहारिये ना एक बार .. 
हमारी बेबस बर्बादी के अवशेष,
वीरान हुए .. बहे खेत-खलिहान, 
बची-खुची .. टूटी-फूटी मड़ई के शेष,
और रौंदने के बाद के कई-कई भयावह मंज़र
गुजरे उफनते सैलाबों के पद-चिन्हों के।

जीना मुहाल, खाने के लाले,
लाले की उधारी के भरोसे जीवन को हम पालें,
पर गुजरे सैलाब के पद चिन्ह पर आई कई बीमारियाँ, 
महामारियाँ भला हम कैसे टालें ?
ऐसे में बेबस, लाचार हम मन को बहलाने के लिए
बस मन ही मन में बुदबुदा कर दोहरा लेते हैं कि -
"सीता राम, सीता राम, सीताराम कहिये,
  जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।"
साहिब !!!!! ... आप भी तो कुछ कहिए ! ...









Friday, July 31, 2020

ख़्यालों की देहरी से ...

नववधू-सी पर .. 
बिन वधू प्रवेश मुहूर्त के 
वक्त-बेवक्त .. आठों पहर
तुम्हारी यादों की दुल्हन 
मेरे ज़ेहन की चौखट वाली
ख़्यालों की देहरी से, 

पल-पल से सजे 
वर्तमान समय सरीखे
चावल के कण-कण से भरे 
नेगचार वाले कलश को
अपने नर्म-नाज़ुक पाँव से
धकेल कर हौले से परे,

संग-संग गुज़ारे लम्हों की
टहपोर लाल आलते में
सिक्त पाँवों से
मेरी सोचों के 
गलियारे से होते हुए
मन के आँगन तक

एहसासों के पद चिन्ह
सजाती रहती है,
आहिस्ता-आहिस्ता,
अनगिनत ..
अनवरत ..
बस यूँ ही ...




Wednesday, July 29, 2020

मुहावरे में परिवर्तन

अक़्सर जीते हैं 
आए दिन 
हम कुछ 
मुहावरों का सच,
मसलन ....
'गिरगिट का रंग',
'रंगा सियार'
'हाथी के दाँत',
'दो मुँहा साँप'
'आस्तीन और साँप',
'आँत की माप'
वग़ैरह-वग़ैरह ..
वैसे ये सारे 
जानवर तो 
हैं बस बदनाम,
बस यूँ ही  ...

जानवरों की 
हर फ़ितरत ने
इंसानों से 
आज मात
है खायी
और फिर ..
बढ़ भी गई है
अब शायद
बावन हाथ वाले 
आँत की लम्बाई।
ऐसे में लगता नहीं 
अब क्या कि ...
करना होगा हर
मुहावरे में परिवर्तन,
हमारे संविधान-सा 
यथोचित संशोधन ? ...

Tuesday, July 28, 2020

मन के गलीचे ...

आज की रचना/विचार को किसी ख़ास विधा, मसलन-ग़ज़ल या और भी कोई, या फिर किसी बहर, काफ़िया, मक़्ता, मतला के अंकगणित या ज्यामिति वाले तराजू में तौल कर आपकी नज़र नहीं सरके, बल्कि बस यूँ ही ...
सर्वविदित है कि ना साहित्य की किसी विधि की, ना ही किसी विधा की विधिवत जानकारी हासिल की है हमने और ना ही हासिल करने की कोई कोशिश या कोई शौक़ भी .. बस मन ही मन में कुछ अनायास उग आए एहसासों के पपड़ाए होंठों पर इस बार चंद तुकबंदियों ( वैसे तो प्रायः अतुकान्त ही ) की लाली (Lipstick) लगाने की एक कोशिश भर की है पहली रचना/विचार में .. और फिर दूसरी रचना/विचार अपनी आदतानुसार एक अतुकान्त भी है .. 
बस यूँ ही ...

(१) मन के गलीचे
थे कभी फड़कती नब्ज़ की पाबंद नज़्म के बहर,
है उन्हीं का असर, हैं बेअसर हरेक बरसते सितम।

दिल का दौरा भी एक दौर है, यूँ  ही जाएगा गुजर,
बुरे वक्त-सी टलेगी मौत और मिटेंगे सहमते वहम।

वो हों ना हों,  हैं उनकी यादों का  संग आठों पहर,
ऐसे में  भर ही जायेगें जीवन के हर उभरते जख़्म।

मन के गलीचे को तो यूँ फैलाया मैं ने बहुत मगर,
जमीन चूमने को रहे बेताब उनके बहकते क़दम।

माना मेरे हालात से नाता नहीं, पूछें भर भी वो गर,
तो शायद क़ायम रहें अपना होने के दरकते भरम।


(२) इल्म की इल्लियाँ
उनकी
भावनाओं की 
नर्म पत्तियों 
से मिले
पोषण के 
बिना बन 
कहाँ पाती
भला
कभी मेरी 
रचनाओं की
बहुरंगी तितलियाँ, 

बस 
ताउम्र 
बस यूँ ही ...
सरकती 
फिरती मेरे 
इल्म की इल्लियाँ* ...

★ - { इल्लियाँ (बहुवचन) = इल्ली - लार्वा - Larva - Caterpillar.}
(अगर तितली-जीवन-चक्र ( Butterfly Life Cycle ) को एक बार अपने मन ही मन दोहरा लें तो नज़र के साथ-साथ मन तक भी रचना/विचार पहुँच पाए .. शायद ...)








Sunday, July 26, 2020

झींसी वाली रंगोली

इन दिनों देश के कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार, असम और उत्तराखंड आदि, में क़ुदरत अपना क़हर बरपा रहा है; जिस के बारे में हम समाचार पत्रों और अन्य संचार माध्यमों से दिन रात अवगत हो रहे हैं। वैसे तो जब से होश सम्भाला है, बरसात के मौसम में उत्तर बिहार, विशेष कर कोसी क्षेत्र, के विनाशकारी बाढ़ के बारे में हम लोग सुनते आ रहे हैं। इसीलिए कोसी नदी को "बिहार का अभिशाप" या "बिहार का शोक" भी कहा जाता है। ऐसा स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया था। यूँ तो कोसी नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है। ये अलग बात है कि उस जमाने के संचार माध्यमों, अख़बार और रेडियो, की अपनी सीमाएँ थी, जिस से हम दिल दहलाने वाले उन चलायमान दुःखद  दृश्यों को आज की तरह देख नहीं पाते थे।
आज बड़ी आसानी से टी वी के पर्दे पर जब ऐसी कई आसपास की कुछ विसंगतियाँ या विषमतायें अंतर्मन को झकझोर जाती है और अपनी कुछ सीमाओं में बंधा इंसान कुछ भी नहीं कर सकने की परिस्थिति में एक घुटन महसूस करता है। तब मन में उठे कुछ सवाल, मन को मथते हैं। मन करता है कि इन विपदाओं के निदान के लिए मनुहार करें, पर किस से ? किसी को ललकारें, पर किसको ? या फिर चित्कार करें, पर किस के समक्ष ? ऐसे ही ऊहापोह की कोख़ से पनपी हैं आज की दोनों रचनाएँ/विचार .. जिनमें पहली में क़ुदरती क़हर पर कुछ सवालात हैं और दूसरी में एक मानवजनित अवहेलना पर ... बस यूँ ही ...


★ (1) झींसी वाली रंगोली

हे इंद्र !!! ...
देवता हैं आप शायद बरसात के,
कहा है ऐसा पुरखों ने,
रचा भी है धर्मग्रंथों में 
और आज भी यहाँ शायद यही सब हैं मानते।
पर .. हर साल आपके आने पर .. 
हम तो यहाँ कॉफ़ी के घूँटों को
बजाय आवाज़ करते हुए सुरकने के,
कप को होंठों से चूमने वाली 
संस्कारी बेआवाज़ चुस्कियों के साथ,
'कोलेस्ट्रॉल'-स्तर को ध्यान में रख कर
'नैपकिन पेपर' से तेल सोखे तले गर्म पकौड़ों को
मुँह के प्रेक्षागार में लारों की गलबहियाँ में लिपटाए
अपनी जीभ के 'रैम्प' पर थिरकाते हुए,
बैठ कर अपनी खिड़की के पास या 'बालकॉनी' पर
महसूसते हैं चेहरे के 'कैनवास' पर बयार की तूलिका से 
रची पानी की झींसी वाली रंगोली अक़्सर।

और पास ही बजते किसी मनपसंद रूमानी ग़ज़ल पर
अनामिका और अँगूठा के संगम से जनी 
चुटकियाँ चटकाते हुए .. जमीं पर थपकते पाँव संग,
किसी 'टेबल फैन' के मानिंद दाएँ-बाएँ झूमती गर्दन पर
झूमता सिर .. और अलसायी-सी 
कभी खुलती .. कभी बंद होती आँखों से निहारते हैं,
सामने वाली छत पर 'एस्बेस्टस' की बनी 
ओलती से चूती पानियों की झालर,
'स्टेनलेस स्टील' वाली छत की 'रेलिंग' 
और छत पर रखे अलने पर भी अनायास
उग आयी मोतियों की लम्बी क़तार,
साथ ही छत पर जमे बरसाती पानी की परत पर 
बनती-मिटती उर्मियों की मचलती मछलियाँ अनगिनत इधर-उधर।

और .. वहाँ पर .. तो प्रभु !! .. तनिक देखिए ना ..
बहता गाँव का गाँव और शहर का शहर,
जान बचा कर भागने के लिए फिर बचता ही नहीं
कोई पुल, कोई पगडंडी या सड़क वाली डगर,
चारों ओर तबाही ही तबाही .. क़हर ही क़हर,
मासूम बच्चे, युवा, वृद्ध, नर-नारी और पशु भी,
सब के सब लाचार बने बेघर।
दूर-दूर तक कोई घर या दर बचता नहीं,
जा कर जहाँ भटक सकें वे दर-ब-दर।
अपनी गृहस्थी की कहानी के गढ़े विन्यास का संक्षेपण 
समेटे फटेहाल गठरियों में भर कर .. बेबस-से बाँस की चचरी पर,
बचने की उम्मीद लिए भटकते हैं भूखे-प्यासे बस इधर-उधर।

मूक-बधिर प्रभु ! ..
अब अगर ब्राह्मणों की मान भी लें जो बकर-बकर,
तो क्या पूर्वजन्म के सारे ही पापी जन्मे थे उधर
और बसे थे सारे उसी गाँव में या उसी शहर ?
या हम सारे सच में हैं कोई पुण्यात्मा जन्मे इधर ?
सोचते हैं हम मूढ़ कि ..
ना तो आप है आकाश में, ना पाताल में,
ना तड़ित में, ना बादल, ना बरसात में,
ना मंदिरों के भीतर, ना ही कहीं बाहर, ना इधर .. ना उधर,
भला जन्मदाता या पालक होता है क्या इतना निष्ठुर ?
लगता है ... ये सब तो हैं केवल क़ुदरती क़हर ,
लाखों वर्षों से .. आदिमानव वाले काल से,
जिसे पुरख़े हमारे सदियों से हैं झेलते आये 
और कर डाली थी डर से तभी काल्पनिक रचना आपकी
और बस .. आप बस गए पहले उनकी बेबस, 
लाचार और डरी हुई सोचों में .. फिर धर्मग्रंथों में .. 
और फिर मंदिरों में बन गया आपका पक्का घर।
ये तो था बस उनका डर .. बस और बस .. उनका डर भर।
है अगर सच में कहीं .. जो आप आकाश या पाताल में .. तो ..
प्रभु! .. कुछ तो उन पर रहम कर .. अब तो कुछ .. शरम कर ...


(2) 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच 

सड़े हुए अंडों से भरे कई 'कैरेट' और
सड़े टमाटरों से भरी कुछ टोकरियाँ,
हो गई पलक झपकते खाली सारी की सारी,
हुई जब उन अंडों और टमाटरों की झमाझम बरसात
और बहुरंगी 'कार्टून' बना दिया मंचासीन साहिब को
भीड़ के कुछ लोगों ने करते हुए आदर-सत्कार।

झट साहिब पूछ बैठे धैर्य को रखते हुए बरकरार -
"भाइयों और बहनों ! भला इसकी क्या थी दरकार ?"
भीड़ से बोला एक दुबला-पतला मरियल-सा इंसान -
"बस यूँ ही ... कुछ ख़ास नहीं सरकार !"
दरअसल जब तक पौधों से थे ये टमाटर लटके ..
जब हमने तोड़े थे ..  एक उम्मीद से थे अटके ..
तब ये सारे के सारे टमाटर थे ताजे और टटके,
हृष्ट-पुष्ट .. 'कैल्शियम', 'फास्फोरस', 'साइट्रिक एसिड',
'मैलिक एसिड' और 'पालायकोपिन' से लबाबलब और
'विटामिन 'सी' व 'विटामिन 'ए' से भी भरपूर पौष्टिक थे बड़े।
और तो और .. अंडे भी जब मुर्गी से निकले थे,
तब ये सारे 'प्रोटीन', 'कोलीन', 'जिंक', 'विटामिन',
'आयरन' और 'कैल्शियम' से भरे पड़े थे हुए बेकरार।

पर आप को तो है अपने 51% वाले अंकगणित की दरकार
तो फिर 15%, 7.5%, 27% और 10% को जोड़ कर
कुल 59.50% का 'जेड प्लस' सुरक्षा कवच अपना
बना रखा है आप ने बरकरार।
उसी 59.50% के तहत पहले भर-भर कर
कुछ कम 'विटामिन' और 'प्रोटीन' वाले
कुपोषित और कम पौष्टिक टमाटर और अंडे
उपभोक्ताओं के लिए भेजे जाते हैं बाज़ार।
होती है इस कदर उत्तम उत्पादन बेकदर और
उपभोक्ता भी वर्षों से होते आ रहे हैं कुपोषण के शिकार।
बाक़ी बचे 40.50% हिस्से में ही तो
हृष्ट-पुष्ट टमाटरो और अंडों का फिर हो पाता है व्यापार ..
मिलता है बस .. 40.50% ही बचा उन्हें बाजार।

साहिब !!!
वही शेष बचे हृष्ट-पुष्ट टमाटर और अंडे,
जो तब 'विटामिन' और 'प्रोटीन' से थे भरे,
पर अब सड़ गए हैं रखे-रखे .. बस बाज़ार बिना यूँ ही पड़े-पड़े।
ये वही टमाटर और अंडे हैं अब सड़े,
जो इस वक्त आपके थोबड़े पर हैं पड़े।
इन सब को कर दिया है आपके स्वार्थ ने बेकार।
बस इसी का तो है साहिब .. मौन तकरार ..
आप कर नहीं सकते साहिब .. इस से इंकार।
अब या तो आप अपना बिगड़ा, बदहाल चेहरा झेलिए
या फिर एक बार .. तो सुन लीजिए ना .. साहिब ..
इसकी बहुरंगी बदबूओं की मायूस मौन मनुहार
या हमारी ललकार ... जो कर नहीं पा रही चीत्कार ...






















Friday, July 24, 2020

ख्वाहिशों की बूँदें ...

बचपन में हम सभी ने माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत विज्ञान या भूगोल विषय में "वृष्टिछाया" के बारे में पढ़ा था। जिसे अंग्रेजी माध्यम वाले "Rain-Shadow" कहते हैं। शायद उसकी परिभाषा याद भी हो हमें कि "जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है, तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और यह "वृष्टिछाया क्षेत्र"  यानि अंग्रेजी माध्यम वालों का "Rain-Shadow Zone" कहलाता है। इस प्रकार "वृष्टिछाया" के कारण रेगिस्तान यानि मरुस्थल का निर्माण होता है।

इस बाबत दाहिया जी एक बहुत ही सुंदर उपमा देते हैं कि “अगर हवाई अड्डा (जंगल) ही नहीं होगा तो हवाई जहाज (बादल) कैसे उतरेगा।” दाहिया जी .. यानि मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गाँव में जन्में लगभग 76 वर्षीय बघेली उपभाषा के जाने-माने रचनाकार बाबूलाल दाहिया जी, जो कई कविताओं, कहानियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के रचनाकार के साथ-साथ डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी और पूर्णरूपेण जैविक खेती करने वाले किसान भी हैं। उनके पास अब तक देशी धान की लगभग 110 किस्मों का खजाना है, जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार का सम्मान भी मिला है।

खैर! ... वैसे अपनी बकबक को विराम देते हुए, फ़िलहाल बस इतना बता दूँ कि आज की इस रचना/विचार की प्राकृतिक अभिप्रेरणा "वृष्टिछाया" की परिभाषा भर से मिली है .. बस यूँ ही ...

ख्वाहिशों की बूँदें ...
उनकी चाहतों की 
बयार में
मचलते उनके 
जज़्बातों के बादल
देखा है अक़्सर
रुमानियत की 
हरियाली से
सजे ग़ज़लों के 
पर्वतों पर
मतला से लेकर 
मक़्ता तक के 
सफ़र में 
हो मशग़ूल 
करती जाती जो 
प्यार की बरसात
और .. उनकी 
चंद मचलती 
ख्वाहिशों की बूँदें 
होकर चंद 
बंद से रज़ामंद 
बनाती जो ग़ज़ल के 
गुल को गुलकंद

तभी तो शायद .. 
अब ऐसे में .. बस .. 
कुछ ठहर-सा गया है 
मेरे मन के 
मरुस्थल में 
बमुश्किल 
पनपने वाले
मेरे अतुकांतों के 
कैक्टसों का 
पनपना भर भी 
हो गया है बंद ..
बस यूँ ही ...

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