Monday, June 1, 2020

लगी शर्त्त ! ...

" नमस्कार ! .. आप कैसे/कैसी हैं ? " .. अरे-अरे .. आप से नहीं पूछ रहा हूँ मैं .. मैं तो बता रहा हूँ कि जब दो लोग, जान-पहचान वाले या मित्र/सहेली या फिर रिश्तेदार मिलते हैं आमने-सामने या फोन पर भी तो बहुधा औपचारिकतावश ही सही मगर .. दोनों में से कोई एक दूसरे सामने वाले से पहला सवाल यही करता या करती है कि- " आप कैसे/कैसी हैं ? " - है ना ?
वैसे भी अभी आप से, " आप कैसे/कैसी हैं ? ", पूछना तो बेमानी ही है; क्योंकि आप ठीक हैं, . . तभी तो ब्लॉग के मेरे इस पोस्ट पर बर्बाद .. च् - च् ... सॉरी ... बर्बाद तो नहीं कह सकता .. अपना क़ीमती समय साझा कर रहे/रही हैं। सही कह रहा हूँ ना ?
हाँ .. तो बात आगे बढ़ाते हैं। तभी झट से दूसरा सामने वाला/वाली उत्तर में, चाहे उसका हाल जैसा भी हो, औपचारिकतावश ही सही पर कहता/कहती हैं कि "हाँ .. आप की दुआ से सब ठीक ही है, बिंदास।" या "ऊपर वाले की दया से सब ठीक है, चकाचक।"
मुझे कुछ ज्यादा ही बकैती करने की .. कुछ ऊटपटाँग बकबक करते रहने की आदत-सी है। अब .. अभी क्या कर रहे हैं ? बकैती ही तो किए जा रहे तब से। है कि नहीं ? यही आदत तो मंच पर Standup Comedy ( इसके बारे में फिर कभी, फिलहाल मान लीजिए कि Open Mic की तरह ही एक विधा है ये , जिनमें मंच से कलाकार द्वारा दर्शकों/श्रोताओं को हँसाने की कोशिश की जाती है। ) करवा जाता है। इसी बतकही वाली आदत के तहत ..  मुझ से अगर कोई मेरा हाल पूछे तो मेरा एक ही तकिया क़लाम वाला जवाब होता है - " आप की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर से ठीक-ठाक हूँ। " ऐसा बोलने के पीछे भी एक मंशा है।
दरअसल लोग कहते हैं ना कि कॉकटेल ( Cocktail ) में नशा का असर ज्यादा होता है। अब .. अंग्रेजी वाले कॉकटेल के संधि विच्छेद का हिन्दी में मतलब .. मतलब मुर्गे की दुम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। अंग्रेज़ी वाले मुस्सलम कॉकटेल की बात कर रहा हूँ। कॉकटेल- मतलब दो शराबों का मिश्रण, जिसे संवैधानिक चेतावनी को भी नज़रअंदाज़ कर के पीने वाले बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं कि ऐसे ख़ास मिश्रण में नशा कुछ ज्यादा ही होता है। मेरे ऐसा कहने के पीछे भी यही मंशा होती है कि अपनों की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर ज्यादा असरदार होती है।
अरे-रे- .. बकैती में एक भूल हो गई। अब बिहार में शराबबंदी है और हम हैं कि शराब की बात कर रहे हैं। खैर .. बात ही तो कर रहे केवल, शराबबंदी नहीं भी थी तो .. कौन-सा हम पीने वाले थे या पीने वाले हैं। कभी नहीं।
कई छेड़ने वाले यहाँ भी नहीं छोड़ते। खोद कर पूछ बैठेंगे कि अगर पीते नहीं हो तो इतना कैसे पता ? जवाब देने के बजाए हम भी सवाल कर बैठते हैं कि ताजमहल किसने बनवाया था, बतलाओ जरा। फ़ौरन अपनी गर्दन अकड़ाते हुए अगले का उत्तर होता है- "शाहजहाँ" ( इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में भी तो ऐसा ही लिखा है। )। तब अगले को लपेटने की बारी हमारी होती है कि जब ताज़महल बनते हुए तुम देखे नहीं, फिर भी पता है कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। ठीक वैसे ही बिना पिए हमको मालूम है कि कॉकटेल में नशा ज्यादा होती है।
हाँ .. तो .. हमारे इन्सानी जीवन में भी कई दफ़ा कई अपने-से लगने वाले रिश्ते बस यूँ ही ... ताउम्र हालचाल पूछने और जवाब में " ठीक है " कहने जैसे औपचारिक ही गुजर जाते हैं और कई रिश्ते औपचारिक हो कर भी मन के ताखे पर हुमाद की लकड़ी की तरह सुलगते रहते हैं अनवरत, ताउम्र .. शायद ...
खैर .. छोड़िए इन बतकही में आप अपना क़ीमती समय नष्ट मत कीजिए और अब आज की मेरी निम्नलिखित रचना/विचार पर एक नज़र डालिए; जो कि वर्षों से कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में दुबके पीले पड़ चुके पन्नों में से एक से ली हुई है .. बस यूँ ही ...

लगी शर्त्त ! ...
साजन-सजनी,
सगाई,
शहनाई,
बाराती-बारात।

सात फेरे,
सात वचन,
सिन्दूर,
सुहाग-सुहागन,
सुहाग रात।

तन का मिलन,
मन (?) का मिलन,
संग श्वसन-धड़कन,
नैसर्गिक सौगात।

एक घर,
एक कमरा,
एक छत्त,
एक गर्म बिस्तर,
एक परिवार,
साथ-साथ।

पल-क्षण,
सेकेंड-मिनट,
घंटा-दिन,
सप्ताह-महीना,
साल-दर-साल।

सात जन्मों तक,
जन्म-जन्मान्तर तक,
अक्षांश-देशान्तर तक,
प्यार का सौगात
या घात-प्रतिघात।

पर कितनी ?
सात प्रतिशत,
या फिर साठ प्रतिशत,
ना, ना, शत्-प्रतिशत।
है क्या कोई शक़ ?
तो फिर .. लगी शर्त्त !

मसलन ..
द्रौपदी लगी
जुए में दाँव,
हुई सीता की
अग्निपरीक्षा,
बीता यशोधरा का
एकाकी जीवन।

हैं आज भी
कैसे-कैसे
विचित्र सम्बन्ध,
जो दे जाते हैं
अक़्सर घाव अदृश्य,
कर के देखे-अनदेखे
कई-कई घात-प्रतिघात।




Saturday, May 30, 2020

मोद के मकरंद से ...

मेरे
अंतर्मन का
शलभ ..
उदासियों की
अग्निशिखा पर,
झुलस जाने की
नियति लिए
मंडराता है,
जब कभी भी
एकाकीपन के
अँधियारे में।

तभी त्वरित
वसंती सवेरा-सा
तुम्हारे
पास होने का
अंतर्बोध भर ही,
करता है प्रक्षालन
शलभ की
नियति का
उमंगों के
फूलों वाले
मोद के मकरंद से।

बस ...
पल भर में
बन जाता है,
अनायास ही
धूसर
बदरंग-सा
अंतर्मन का
शलभ ..
अंतर्मन की
चटक रंगीन
शोख़ तितलियों में।








Friday, May 29, 2020

पगली .. हूँ तो तेरा अंश

आज बकबक करने का कोई मूड नहीं हो रहा है। इसीलिए सीधे-सीधे रचना/विचार पर आते हैं। आज की दोनों पुरानी रचनाओं में से पहली तो काफी पुरानी है।
लगभग 1986-87 की लिखी हुई, जो वर्षों पीले पड़ चुके पन्ने पर एक पुरानी लावारिस-सी कोने में पड़ी फ़ाइल में दुबकी पड़ी रही थी। बाद में जिसे दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालयों से उनके साप्ताहिक साहित्यिक सहायक पृष्ठों में छपने सम्बन्धित सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने पर, अपने पूरे झारखण्ड में होने वाले आधिकारिक दौरा (official tour) के दौरान झारखण्ड की राजधानी-राँची अवस्थित दैनिक समाचार पत्र- हिन्दुस्तान के कार्यालय में सम्बन्धित विभाग को 2005 में सौंपा था। यही रचना बाद में सप्तसमिधा नामक साझा काव्य संकलन में भी 2019 में आयी है। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...

गर्भ में ही क़ब्रिस्तान
सदियों रातों में
लोरियाँ गा-गा कर
सुलाया हमने,
एक सुबह ..
जगाने भी तो दो
हमें देकर पाक अज़ान।

महीनों गर्भ में संजोया,
प्रसव पीड़ा झेली
अकेले हमने।
कुछ माह की साझेदारी
"उनको" भी तो दो
ऐ ख़ुदा ! .. ऐ भगवान !

चूड़ियों की हथकड़ी,
पायल की बेड़ी,
बोझ लम्बे बालों का, ..
नकेल नथिया की,
बस .. यही ..
बना दी गयी मेरी पहचान।

सोचों कभी ..
"ताड़ने"* के लिए,
"जलाने"** के लिए,
मिलेगा कल कौन यहाँ ?
भला मेरे लिए
क्यों बनाते हो,
गर्भ में ही कब्रिस्तान ?

【 * - अहिल्या. /  **- सीता की अग्निपरीक्षा. ( दोनों ही पौराणिक कथा की पात्रामात्र हैं, प्रमाणिक नहीं हैं।) 】

और आज की निम्नलिखित दूसरी वाली रचना/विचार को ...




... कई बार अलग-अलग मंचों पर मंच संचालन के लिए अलग-अलग चरणों में क्षणिका के रूप में लिखा हूँ, जिन्हें एक साथ पिरोया तो इस रचना की छंदें बन गई। प्रायः लोगों को देखा या सुना भी है कि लोगबाग अपने मंच-संचालन के दौरान बीच-बीच में प्रसिद्ध रचनाकारों की पंक्तियाँ अपनी धाक जमाने के ख़्याल से या फिर ताली बटोरने के ख़्याल से कभी उन रचनाकार लोगों का नाम लेकर और कभी बिना नाम बतलाए धड़ल्ले से पढ़ जाते हैं। अपनी आदत नहीं नकल करने की। मैं अपना लिखा ही पढ़ता हूँ। हाँ ... ये अलग बात है कि मैं औरों की तरह © का इस्तेमाल भी नहीं करता। अब क्यों नहीं करता, अगली बार, फिर कभी। फ़िलहाल ये बतलाता चलूँ कि इसका चौथा और आखिरी वाला छंद तो बस अभी-अभी मन में स्वतः स्फूर्त आया और बस .. जुड़ गया .. बस यूँ ही ...

पगली ..  हूँ तो तेरा अंश
सम्पूर्ण गीत ना सही,
मात्र एक अंतरा ही सही।
चौखट ही मान लो,
घर का अँगना ना सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

पूर्ण कविता ना सही,
एक छन्द ही सही।
साथ जीवन भर का नहीं,
पल चंद ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

मंगलसूत्र ना सही,
पायल ही सही।
पायल भी नहीं,
एक घुँघरू ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

माना .. सगा मैं नहीं,
कोई अपना भी नहीं,
कभी रूबरू ना सही,
बस .. मन में ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।




मिलते हैं फिर आगे और कभी बात करते हैं © के बारे में .. तब तक .. बस यूँ ही ...


Wednesday, May 27, 2020

जो थी सगी-सी ...

आज बस यूँ ही ... कुछ पुराने अखबारों की सहेजी कतरनों से और कुछेक साझा काव्य संकलन/प्रकाशन से :-
वैसे तो एक दिन हमने गत दिनों के साझा-काव्य-प्रकाशन से मिले अपने कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों को यहाँ साझा किया ही था।

(१)
आज निम्नलिखित पहली रचना/विचारधारा सात रचनाकारों के साथ "सप्तसमिधा" नामक साझा काव्य संकलन में छपी मेरी पन्द्रह रचनाओं में से एक है। इस संकलन का विमोचन सारे रचनाकारों, सम्पादक महोदय, कुछ स्थानीय अतिथियों और कुछ श्रोताओं की उपस्थिति में बनारस (वाराणसी/काशी) शहर से होकर गुजरने वाली गंगा नदी के किनारे 21.06.2019 की शाम अस्सी घाट पर सम्पन्न हुआ था।
तो आइए देखते हैं कि जब कोई मनमीत (या मनमीता) कभी पास ना हो .. केवल उसके एहसास ही एहसास हों पास, तो .. हम अपने मन को कैसे तर्कों के साथ दिलासा देते हैं। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...



कहाँ पास होता है ?
जाड़े के गुनगुने धूप
सुबह-सवेरे करते हैं जब कम
ठिठुरन हमारी अक़्सर,
तब भला सूरज कहाँ पास होता है ?

उमस भरी गर्मियों में
शाम को सुकून देती पुरवाई
और होती है चाँदनी भी अक़्सर,
तब भला चाँद कहाँ पास होता है ?

बिखेरती हैं जब-जब बारिश की बूँदें
गर्मियों की तपिश के बाद
सोंधी सुगंध तपी मिट्टीयों की,
तब भला बादल कहाँ पास होता है ?

मीठी कूकें कोयल की
छेड़ती हैं जब-जब वसंत में
क़ुदरती सरगम का राग,
तब भला कोयल का साथ कहाँ पास होता है ?

हर सुबह-शाम घी का दीप जलाए
आँखें मूंदें, हाथों को जोड़े
श्रद्धा से नतमस्तक होते हो जिनके
तब भला वह साक्षात् कहाँ पास होता है ?
                       ●★●

(२)
ये दूसरी रचना तो सचमुच में कलम से ही लिखी गयी है। हाँ ... मजाक नहीं कर रहा .. यक़ीन कीजिए ; क्योंकि तब मोबाइल या कंप्यूटर था ही नहीं ना।
ठीक-ठीक तो याद नहीं, पर शायद 1983-84 के दौरान लिखा होगा। किसी पतझड़ के मौसम में सुबह-सवेरे बिहार की राजधानी- पटना के अपने पुश्तैनी निवास से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर गाँधी मैदान में टहलते वक्त ये कविता कौंधी थी अचानक से।
तब से पीले पड़ गए कई पन्नों के बीच परिवार वालों की नज़रों में उपेक्षित पड़ी एक पुरानी-सी फ़ाइल में बस दुबकी-सी पड़ी रही यह रचना। फिर एक शाम सन् 2000 ईस्वी में पापा के द्वारा झारखंड के धनबाद में बनाए गए अपने निवास स्थान से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित दो-तीन दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालयों में से एक दैनिक जागरण के कार्यालय हिम्मत कर के अपनी एक-दो रचना ले कर गया। फिर तो वर्षों तक यह सिलसिला जारी रहा। उन्हीं में से निम्नलिखित रचना/विचार एक है।
फिर बाद में दिसम्बर, 2019 में भी मेरे और संपादक (संपादिका) महोदया समेत पच्चीस रचनाकारों के साथ "विह्वल ह्रदय धारा" नामक एक साझा पद्य-मंजूषा में भी छपी मेरी चार रचनाओं में से यह एक रही है। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...

प्रकृति-चक्र
वृक्ष की पत्ती
जो थी सगी-सी
पतझड़ के मौसम में
टूटकर अलग हो गयी
अपने वृक्ष हमदम से।

नन्हीं-सी जान को
मिला नहीं वक्त,
ले जाने के लिए दूर
उतावली थी
हवा भी कमबख़्त।

ना ही पत्ती को
रुकने की फ़ुर्सत शेष
ना वृक्ष को थी
मिलने की चाहत विशेष।

वृक्ष - जिससे पत्ती
बिछड़ी थी कभी,
खिल गया वो तो
पुनः वसंत आने पर,
पर ... पत्ती को दुबारा
मिल सका क्या कोई वृक्ष
उसके लाख चाहने पर ?
           ●★●





                                       


Tuesday, May 26, 2020

ऊई माँ ! ~~~


प्रायः टी. वी. पर कोई भी अपना प्रिय कार्यक्रम देखते समय बीच-बीच में अत्यधिक या कम भी विज्ञापन आने पर अनायास ही हमारी ऊँगलियाँ चैनल बदलने के लिए हरक़त में आ जाती हैं, जबकि उस देखे जा रहे प्रसारित कार्यक्रम को, उन्हीं बीच में आने वाले अनचाहे विज्ञापनों वाली कम्पनियों द्वारा प्रायोजित होने के कारण हम देख पाते हैं। खैर .. आज का विषय इन से इतर है।
ऐसे ही चैनलों को बदलते वक्त कभी-कभार हमारे सामने मूक-बधिरों के लिए दिखाए जा रहे समाचार से भी अनचाहे हमारा सामना हो जाता है। है ना ? उस वक्त समाचार वाचक/वाचिका की भावभंगिमाओं से अनायास दिमाग में दो बातें कौंधती हैं। एक तो उस युग या कालखंड का मानव जाति की, जब उनकी कोई भाषा या बोली नहीं रही होगी उनकी अभिव्यक्ति के लिए और दूसरी अपनी युवावस्था में, (वो भी तब .. जब मोबाइल और व्हाट्सएप्प नहीं हुआ करता था) अपने प्रेमी/प्रेमिका से छुप-छुपा कर इशारों में बात करने की या फिर सयुंक्त परिवार में किसी सगे (?) की बातें/शिकायतें करते वक्त उस के द्वारा सुन लेने के डर से आपस में इशारे में बात करते दो रिश्तेदारों की।
मतलब .. भाषा, बोली और लिपि अगर ना हो तो हम फिर से आदिमानव या मूक-बधिरों के लिए प्रसारित होने वाले समाचार के वाचक/वाचिका बन जाएं .. शायद ...।
गूगल बाबा के मार्फ़त सर्वविदित है कि दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के अनुसार  कुल भाषाएँ  6809 हैं , जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलने वालों की संख्या एक लाख से भी कम है। लगभग दो सौ से डेढ़ सौ भाषाएँ ऐसी हैं जिनको दस लाख से अधिक लोग बोलते हैं।
इनमें से सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा चीन की राजकीय भाषा मंडारिन है।
विश्व की बोलने वालों की संख्या के आधार पर मुख्य दस भाषाओं का क्रम निम्न प्रकार है - मंडारिन, अंग्रेजी, हिन्दी, स्पेनिश,रुसी,अरबी,बंगाली, पुर्तगीज,मलय-इंडोनेशियन,फ्रेंच।
विश्व में बोलने वालों की जनसंख्या के आधार पर तीसरे क्रम की भाषा हिन्दी, जो की भारत की राष्ट्रभाषा/राजभाषा भी है, की भारत में लगभग अट्ठारह उपभाषाएँ/बोलियाँ हैं। जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं।
तमिल भाषा को दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के तौर पर मान्यता मिली हुई है और यह द्रविड़ परिवार की सबसे प्राचीन भाषा है. करीब 5000 साल पहले भी इस भाषा की उपस्थिति थी.
प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभ्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है।
लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है, किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
हमारे पुरखों ने अक़्सर कहा है कि ..
" कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी "
वैसे कोस दूरी नापने का एक भारतीय माप (इकाई) है। अभी भी गाँव में बुजुर्ग लोग दूरी के लिये कोस का प्रयोग करते हुए मिल जाते हैं।
एक कोस बराबर दो मील और एक मील बराबर 1.60 किलोमीटर होता है। मतलब एक कोस बराबर लगभग 3.20 किलोमीटर होता है।
विश्व की अन्य भाषाएँ और अलग-अलग धर्मग्रंथें जहाँ एक तरफ इंसानों को अलग-अलग समूहों में बाँटती हैं ; वहीं दूसरी तरफ विज्ञान की भाषा या किताबें सम्पूर्ण विश्व के इंसानों को एक भाषा के सूत्र में जोड़ती है। मसलन - पानी या जल के लिए विज्ञान की भाषा में पूरे विश्व के लिए एक ही नाम है - H2O. चाँदी के लिए - Ag, सोना के लिए - Au, वग़ैरह-वग़ैरह। मतलब विश्व के किसी भी हिस्से या सम्प्रदाय का वैज्ञानिक होगा, वह पानी को H2O ही कहेगा। इस विज्ञान की भाषा के लिए कोसों दूरी का भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर न्यूटन के गति के नियमों या पाइथागोरस के प्रमेय को विज्ञान का विश्व एक-सा मानता है। विज्ञान या गणित का विषय हर बार, हर पल जोड़ने का काम करता है।
कभी-कभी आसपास देख कर बहुत ही दुःख होता है, जब कोई भी बुद्धिजीवी अपने जन्मस्थल की भाषा को लेकर अपनी गर्दन अकड़ाता है और उसे विश्व में अव्वल साबित करने की कोशिश करता है। एक बार एक कवि सम्मेलन में देखने और सुनने के लिए मिला भी कि मंच से एक महोदय अपनी गर्दन अकड़ाते हुए भोजपुरी (उप)भाषा को विश्व की सर्वोत्तम और सब से ज्यादा बोली जाने वाली भाषा तक कह गए। कमाल की बात कि हॉल में बैठे सभी बुद्धिजीवी लोगों का समूह उसे सुनता रहा। किसी ने इस बात का तार्किक विरोध नहीं किया, सिवाय मेरे। साथ ही ऐसे लोग अन्य भाषा, खासकर अंग्रेजी को और वह भी साल में एक बार हिन्दी पखवाड़े के दौरान, अपना दुश्मन मानते हैं। मानो भाषा ही अंग्रेजों जैसी भारत की दुश्मन हो। जबकि अंग्रेजों के दिए कई परिधान, कई तौर-तरीके और कई राष्ट्रीय इमारतें स्वीकार्य हैं इन्हें। आज भी हमारे स्वतन्त्र भारत में जज, वक़ील, रेल कर्मचारी, पुलिसकर्मी इत्यादि अंग्रेजों के तय किए गए लिबासों में ही दिखते हैं। 
अब ये तो स्वाभाविक है कि हमारी स्थानीय भाषा हमको अच्छी लग सकती है, लगनी भी चाहिए। अपनी माँ की तरह प्यारी और पूजनीय भी लग सकती है। पर हम उनके विश्वसुंदरी होने की घोषणा नहीं ही कर सकते ना ? और हाँ ... पड़ोस की अन्य भाषा को माँ नहीं तो कम से कम अपनी चाची, मौसी या बुआ की तरह तो मान दे सकते हैं ना ? या नहीं ? उस से तो हम और समृद्ध ही होंगे, ना कि विपन्न ..शायद..।
                              आज हम फिलहाल बिहार की पाँच आंचलिक भाषाओं - अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और मैथिली में से बिहार की राजधानी- पटना जिला , उसके आसपास के क्षेत्रों और बुद्ध के ज्ञान-प्राप्ति वाला पावन स्थल- बोधगया वाले गया जिला की मूल उपभाषा - मगही उपभाषा की विशेषता के लिए बिना अपनी गर्दन अकड़ाए एक रचना/ विचार और उसके वाचन का विडिओ लेकर आएं हैं।
दरअसल ब्लॉग के कई मंचों द्वारा साप्ताहिक रूप से दिए गए किसी विषय/शब्द या चित्र पर चिट्ठाकारों द्वारा रची गई रचनाओं की तरह ही यह भी पटना के एक ओपन मिक वाले मंच पेन ऑफ़ पटना (Pen of Patna = POP) द्वारा 2018 में दिए गए एक विषय/वाक्य - " मेरी भाषा ही मेरी पहचान है " के लिए इसा लिखा था। POP के द्वारा ही इसके वाचन का वीडियो भी बनाया गया था। वीडियो बनने का :-

स्थान :- पटना के गंगा किनारे का दीघा घाट पर .. दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल के पास, जिसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण सेतु के नाम।से बुलाते हैं।
दिनांक :- 10.06.2018, लगभग दो साल पहले।
समय :- सुबह लगभग छः बजे से आठ बजे के बीच।

POP द्वारा इस वीडियो का यूट्यूब पर प्रसारण 23.10.2018 को किया गया था। इस दिन बिहार में मगही-दिवस मनाया जाता है।          मगही का पहला महाकाव्य - गौतम - महाकवि योगेश द्वारा 1960-62 में रचे जाने के बाद से ही उनके जन्मदिन के दिन यह मनाया जाता है।
पहले मगही भाषा में रचना की प्रस्तुति कर रहे हैं और कुछ भी पल्ले ना पड़े तो आपकी सुविधा के लिए उसका हिन्दी अनुवाद भी इसके नीचे लिख रहा हूँ। उम्मीद है .. आप सभी डोमकच, ठेकुआ, छठ, द्वार-पूजा जैसे शब्दों से भली-भाँति परिचित होंगे। इसी उम्मीद के साथ आपके लिए मगही उपभाषा यानि बोली और हिन्दी भाषा, दोनों  ही में रचना/विचार प्रस्तुत है। साथ ही पारम्परिक परिधान में इसके वाचन का वीडियो भी है। तो ...पढ़िए भी .. साथ ही ..सुनिए और देखिए भी ... (मेरी आवाज़ अगर थोड़ी कमजोर लगे तो शायद इअरफ़ोन लगाना पड़ सकता है वैसे।) ...

मागधी के गंगोत्री
( मगही भाषा में ).
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई
मागधी के गंगोत्री से निकलल
समय-धार पर बह चललई कलकल
समय बितलई , मगही कहलैलई
जन-जन के भाषा बन गैलई
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

जहाँ बुद्ध छोड़ अप्पन राज-पाट,
कनिया आ बुतरू के अलथिन
मागधी में ही जन-जन के उपदेश हल देलथिन
मागधिए में ही महावीरो अप्पन संदेश हल कहलथिन
वही मागधी से बनलई मगही
जे हई आज हमनीसभे के भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

आज मैथिली आ भोजपुरी सहोदर बहिन हई जेक्कर
लिपि देवनागरी के सिंगार-पटार हई ओक्कर
मुगलो अएलई, अएलइ हल इंग्लिस्तान
तइयो ना मरलई मगही भाषा हम्मर
अंग्रेजी मुँहझौंसा चाहे जेतनो बढ़ैतई झुट्ठो- मुट्ठो के शान ई
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

मौगिन सभे गाबअ हत्थिन मगहीए में
चाहे सादी-बिआह के दुआर-पुजाई होवे
चाहे डोमकच के गीत, आ चाहे ठेकुआ गढ़े बखत
छट्ठी मईया के पावन गीत, बजअ हई संघे ढोलक के संगीत।
दुःख, विपत्ति के बखत होए, चाहे खुसी के बतिया
मुँहवा से अकबका के निकल पड़अ हई
मींड़ लगल मगहीए में - " अगे ~~ मईया ~~ ... " *
काहे से कि हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

नएकन शहरू लइकन-लइकियन
ना जाने काहे ई बोले में सरमाबअ हथिन
माए-बाबु चाहे रहथिन जईसन
माए-बाबु तअ ओही रहथुन
अप्पन माए-बाबु जईसन हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
मागधी की गंगोत्री
( हिन्दी भाषा में अनुवाद ).
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है
मागधी की गंगोत्री से निकली
समय-धार पर बह चली कलकल
कालान्तर में वही मगही कहलायी
जन-जन की भाषा बन गई
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

बुद्ध जहाँ अपना राज-पाट आए थे छोड़ कर
अपनी पत्नी और अपने बेटे को भी छोड़ कर
दिए थे उपदेश बौद्ध-धर्म का जन-जन को मागधी भाषा में ही
महावीर के जैन-धर्म के सन्देश की भाषा भी थी मागधी
उसी मागधी से बनी भाषा मगही
जो है आज हम सभी की भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

आज मैथिली और भोजपुरी हैं सगी बहनें जिसकी
श्रृंगार है जिसकी लिपि देवनागरी
यहाँ मुग़ल भी आए, आए थे अंग्रेज भी
तब भी मिटी नहीं मगही भाषा हमारी
चाहे जितनी बढ़ाए अंग्रेजी हमारी झूठी शान
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

औरतें सारी यहाँ की मगही में ही गाती हैं लोकगीत
चाहे शादी-विवाह की द्वार-पूजा की रस्म हो या डोमकच के गीत
या फिर छठ पूजा में ठेकुआ बनाते समय छठी मईया के गीत
साथ बजा-बजा कर ढोलक के संगीत
दुःख की घड़ी हो या ख़ुशी के लम्हें
अनायास मुँह से निकल पड़ती है आवाज़
मींड़ लगी मगही में ही - " अगे ~~  मईया ~~.. " *
क्यों कि है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

ना जाने क्यों शहरी युवा लड़के-लड़की
शरमाते हैं बोलने में अपनी भाषा मगही
माँ-पिता जी जिस हाल में हों, हों वे जैसे भी,
बदले जा सकते नहीं, वे तो किसी के भी रहेंगे वही
हमारे अभिभावक जैसा ही है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
{ * :-  अगे मईया  = ओ माँ ! = ऊई माँ ! }.

{ विशेष :- दरअसल मगही एक बोली या उपभाषा है, परन्तु में रचना में इसे बार-बार भाषा कहा गया है। इस भूल को नजरअंदाज कर के ही आप सभी पढ़िए या विडियों को सुनिए या देखिए। }.

फिर मिलेंगे .. इसी उम्मीद के साथ ...☺
                             






                 

Monday, May 25, 2020

थे ही नहीं मुसलमान ...

इरफ़ान हो या कामरान
सिया, सुन्नी हो या पठान,
सातवीं शताब्दी में
पैगम्बर के आने के पहले,
किसी के भी पुरख़े
थे ही नहीं मुसलमान।
ना ही ईसा के पहले
था कोई भी ख्रिस्तान।
राम भी कभी होंगे नहीं
ना रामभक्त कोई यहाँ
ना ही कोई सनातनी इंसान।

एक वक्त था कभी
ना थे कई लिबास मज़हबी,
ना क़बीलों में बंटे लोग
ना मज़हबी क़ाबिल समुदाय,
ना कई सारे सम्प्रदाय
ना मंदिर, ना मस्जिद,
ना गिरजा, ना गुरुद्वारे,
ना हिन्दू, ना मुसलमान,
बस .. थे केवल नंगे इंसान।
माना कि .. थे आदिमानव
पर थे .. सारे विशुद्ध इंसान।

फिर आते गए पैगम्बर कई,
मिथक कथा वाले कई अवतार,
बाँटने तथाकथित धर्म का ज्ञान
और रचते गए धर्मग्रंथों की अम्बार।
पर बँट गए क्यों इंसान ही हर बार ?
कहते हैं सभी कि ..
इस जगत का है एक ही विधाता,
पूरे ब्रह्माण्ड का निर्माता
और एक ही सूरज की गर्मी से
पकती हैं क्यारियों में गेहूँ की बालियाँ,
फिर हो जाती हैं कैसे भला ..
हिन्दू और मुसलमान की पकी रोटियाँ ?

Sunday, May 24, 2020

टिब्बे भी तो ...

कालखंड की असीम सागर-लहरें
संग गुजरते पलों के हवा के झोंके,
भला इनसे कब तक हैं बच पाते
पनपे रेत पर पदचिन्ह बहुतेरे।
यूँ ही तो हैं रूप बदलते पल-पल
रेगिस्तान के टिब्बे भी तो रेतीले सारे ।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

माना हैं दर्ज़ पुरातत्ववेत्ताओं के इतिहास में
ईसा पूर्व के कुछ सौ या कुछ हजार साल
या सन्-ईस्वी के दो हजार बीस वर्षों के अंतराल।
पर परे इन से भी तो शायद रहा ही होगा ना
लाखों वर्षों से अनवरत घूमती धरती पर
मानव-इतिहास का अनसुलझा जीवन-काल?
अगर करते आते अनुकरण अब तक 
हम सभी सबसे पहले वाले पुराने पुरखे के,
तो .. आज भी क्या हम आदिमानव ही नहीं होते ?
पर हैं तो नहीं ना ? .. तभी तो ...
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

निर्मित पल-पल के कण-कण से
कालखंड के रेत पर पग-पग
बढ़ता ..  चलता जाता मानव जीवन
चलता, बीतता, रितता हर पल तन-मन।
कामना पदचिन्ह के अमर होने की,
पीछे अपने किसी के अनुसरण करने की,
ऐसे में तो हैं शायद शत-प्रतिशत बेमानी सारे।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

अब ऐसे में तो बस .. रचते जाना ही बेहतर
मन की बातें अपनी बस लिखते जाना ही बेहतर।
किसी से होड़ लेना बेमानी, किसी से जोड़-तोड़ बेमानी,
कालजयी होने की कोई कामना भी बेमानी
मिथ्या या मिथक का अनुकरण भी शायद बेमानी।
आइए ना .. फिलहाल तो मिलकर सोचते हैं एक बार ..
साहिर लुधियानवी साहब को गुनगुनाते हुए -
" कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
  मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ~~। "
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।