Tuesday, May 26, 2020

ऊई माँ ! ~~~


प्रायः टी. वी. पर कोई भी अपना प्रिय कार्यक्रम देखते समय बीच-बीच में अत्यधिक या कम भी विज्ञापन आने पर अनायास ही हमारी ऊँगलियाँ चैनल बदलने के लिए हरक़त में आ जाती हैं, जबकि उस देखे जा रहे प्रसारित कार्यक्रम को, उन्हीं बीच में आने वाले अनचाहे विज्ञापनों वाली कम्पनियों द्वारा प्रायोजित होने के कारण हम देख पाते हैं। खैर .. आज का विषय इन से इतर है।
ऐसे ही चैनलों को बदलते वक्त कभी-कभार हमारे सामने मूक-बधिरों के लिए दिखाए जा रहे समाचार से भी अनचाहे हमारा सामना हो जाता है। है ना ? उस वक्त समाचार वाचक/वाचिका की भावभंगिमाओं से अनायास दिमाग में दो बातें कौंधती हैं। एक तो उस युग या कालखंड का मानव जाति की, जब उनकी कोई भाषा या बोली नहीं रही होगी उनकी अभिव्यक्ति के लिए और दूसरी अपनी युवावस्था में, (वो भी तब .. जब मोबाइल और व्हाट्सएप्प नहीं हुआ करता था) अपने प्रेमी/प्रेमिका से छुप-छुपा कर इशारों में बात करने की या फिर सयुंक्त परिवार में किसी सगे (?) की बातें/शिकायतें करते वक्त उस के द्वारा सुन लेने के डर से आपस में इशारे में बात करते दो रिश्तेदारों की।
मतलब .. भाषा, बोली और लिपि अगर ना हो तो हम फिर से आदिमानव या मूक-बधिरों के लिए प्रसारित होने वाले समाचार के वाचक/वाचिका बन जाएं .. शायद ...।
गूगल बाबा के मार्फ़त सर्वविदित है कि दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के अनुसार  कुल भाषाएँ  6809 हैं , जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलने वालों की संख्या एक लाख से भी कम है। लगभग दो सौ से डेढ़ सौ भाषाएँ ऐसी हैं जिनको दस लाख से अधिक लोग बोलते हैं।
इनमें से सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा चीन की राजकीय भाषा मंडारिन है।
विश्व की बोलने वालों की संख्या के आधार पर मुख्य दस भाषाओं का क्रम निम्न प्रकार है - मंडारिन, अंग्रेजी, हिन्दी, स्पेनिश,रुसी,अरबी,बंगाली, पुर्तगीज,मलय-इंडोनेशियन,फ्रेंच।
विश्व में बोलने वालों की जनसंख्या के आधार पर तीसरे क्रम की भाषा हिन्दी, जो की भारत की राष्ट्रभाषा/राजभाषा भी है, की भारत में लगभग अट्ठारह उपभाषाएँ/बोलियाँ हैं। जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं।
तमिल भाषा को दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के तौर पर मान्यता मिली हुई है और यह द्रविड़ परिवार की सबसे प्राचीन भाषा है. करीब 5000 साल पहले भी इस भाषा की उपस्थिति थी.
प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभ्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है।
लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है, किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
हमारे पुरखों ने अक़्सर कहा है कि ..
" कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी "
वैसे कोस दूरी नापने का एक भारतीय माप (इकाई) है। अभी भी गाँव में बुजुर्ग लोग दूरी के लिये कोस का प्रयोग करते हुए मिल जाते हैं।
एक कोस बराबर दो मील और एक मील बराबर 1.60 किलोमीटर होता है। मतलब एक कोस बराबर लगभग 3.20 किलोमीटर होता है।
विश्व की अन्य भाषाएँ और अलग-अलग धर्मग्रंथें जहाँ एक तरफ इंसानों को अलग-अलग समूहों में बाँटती हैं ; वहीं दूसरी तरफ विज्ञान की भाषा या किताबें सम्पूर्ण विश्व के इंसानों को एक भाषा के सूत्र में जोड़ती है। मसलन - पानी या जल के लिए विज्ञान की भाषा में पूरे विश्व के लिए एक ही नाम है - H2O. चाँदी के लिए - Ag, सोना के लिए - Au, वग़ैरह-वग़ैरह। मतलब विश्व के किसी भी हिस्से या सम्प्रदाय का वैज्ञानिक होगा, वह पानी को H2O ही कहेगा। इस विज्ञान की भाषा के लिए कोसों दूरी का भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर न्यूटन के गति के नियमों या पाइथागोरस के प्रमेय को विज्ञान का विश्व एक-सा मानता है। विज्ञान या गणित का विषय हर बार, हर पल जोड़ने का काम करता है।
कभी-कभी आसपास देख कर बहुत ही दुःख होता है, जब कोई भी बुद्धिजीवी अपने जन्मस्थल की भाषा को लेकर अपनी गर्दन अकड़ाता है और उसे विश्व में अव्वल साबित करने की कोशिश करता है। एक बार एक कवि सम्मेलन में देखने और सुनने के लिए मिला भी कि मंच से एक महोदय अपनी गर्दन अकड़ाते हुए भोजपुरी (उप)भाषा को विश्व की सर्वोत्तम और सब से ज्यादा बोली जाने वाली भाषा तक कह गए। कमाल की बात कि हॉल में बैठे सभी बुद्धिजीवी लोगों का समूह उसे सुनता रहा। किसी ने इस बात का तार्किक विरोध नहीं किया, सिवाय मेरे। साथ ही ऐसे लोग अन्य भाषा, खासकर अंग्रेजी को और वह भी साल में एक बार हिन्दी पखवाड़े के दौरान, अपना दुश्मन मानते हैं। मानो भाषा ही अंग्रेजों जैसी भारत की दुश्मन हो। जबकि अंग्रेजों के दिए कई परिधान, कई तौर-तरीके और कई राष्ट्रीय इमारतें स्वीकार्य हैं इन्हें। आज भी हमारे स्वतन्त्र भारत में जज, वक़ील, रेल कर्मचारी, पुलिसकर्मी इत्यादि अंग्रेजों के तय किए गए लिबासों में ही दिखते हैं। 
अब ये तो स्वाभाविक है कि हमारी स्थानीय भाषा हमको अच्छी लग सकती है, लगनी भी चाहिए। अपनी माँ की तरह प्यारी और पूजनीय भी लग सकती है। पर हम उनके विश्वसुंदरी होने की घोषणा नहीं ही कर सकते ना ? और हाँ ... पड़ोस की अन्य भाषा को माँ नहीं तो कम से कम अपनी चाची, मौसी या बुआ की तरह तो मान दे सकते हैं ना ? या नहीं ? उस से तो हम और समृद्ध ही होंगे, ना कि विपन्न ..शायद..।
                              आज हम फिलहाल बिहार की पाँच आंचलिक भाषाओं - अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और मैथिली में से बिहार की राजधानी- पटना जिला , उसके आसपास के क्षेत्रों और बुद्ध के ज्ञान-प्राप्ति वाला पावन स्थल- बोधगया वाले गया जिला की मूल उपभाषा - मगही उपभाषा की विशेषता के लिए बिना अपनी गर्दन अकड़ाए एक रचना/ विचार और उसके वाचन का विडिओ लेकर आएं हैं।
दरअसल ब्लॉग के कई मंचों द्वारा साप्ताहिक रूप से दिए गए किसी विषय/शब्द या चित्र पर चिट्ठाकारों द्वारा रची गई रचनाओं की तरह ही यह भी पटना के एक ओपन मिक वाले मंच पेन ऑफ़ पटना (Pen of Patna = POP) द्वारा 2018 में दिए गए एक विषय/वाक्य - " मेरी भाषा ही मेरी पहचान है " के लिए इसा लिखा था। POP के द्वारा ही इसके वाचन का वीडियो भी बनाया गया था। वीडियो बनने का :-

स्थान :- पटना के गंगा किनारे का दीघा घाट पर .. दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल के पास, जिसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण सेतु के नाम।से बुलाते हैं।
दिनांक :- 10.06.2018, लगभग दो साल पहले।
समय :- सुबह लगभग छः बजे से आठ बजे के बीच।

POP द्वारा इस वीडियो का यूट्यूब पर प्रसारण 23.10.2018 को किया गया था। इस दिन बिहार में मगही-दिवस मनाया जाता है।          मगही का पहला महाकाव्य - गौतम - महाकवि योगेश द्वारा 1960-62 में रचे जाने के बाद से ही उनके जन्मदिन के दिन यह मनाया जाता है।
पहले मगही भाषा में रचना की प्रस्तुति कर रहे हैं और कुछ भी पल्ले ना पड़े तो आपकी सुविधा के लिए उसका हिन्दी अनुवाद भी इसके नीचे लिख रहा हूँ। उम्मीद है .. आप सभी डोमकच, ठेकुआ, छठ, द्वार-पूजा जैसे शब्दों से भली-भाँति परिचित होंगे। इसी उम्मीद के साथ आपके लिए मगही उपभाषा यानि बोली और हिन्दी भाषा, दोनों  ही में रचना/विचार प्रस्तुत है। साथ ही पारम्परिक परिधान में इसके वाचन का वीडियो भी है। तो ...पढ़िए भी .. साथ ही ..सुनिए और देखिए भी ... (मेरी आवाज़ अगर थोड़ी कमजोर लगे तो शायद इअरफ़ोन लगाना पड़ सकता है वैसे।) ...

मागधी के गंगोत्री
( मगही भाषा में ).
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई
मागधी के गंगोत्री से निकलल
समय-धार पर बह चललई कलकल
समय बितलई , मगही कहलैलई
जन-जन के भाषा बन गैलई
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

जहाँ बुद्ध छोड़ अप्पन राज-पाट,
कनिया आ बुतरू के अलथिन
मागधी में ही जन-जन के उपदेश हल देलथिन
मागधिए में ही महावीरो अप्पन संदेश हल कहलथिन
वही मागधी से बनलई मगही
जे हई आज हमनीसभे के भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

आज मैथिली आ भोजपुरी सहोदर बहिन हई जेक्कर
लिपि देवनागरी के सिंगार-पटार हई ओक्कर
मुगलो अएलई, अएलइ हल इंग्लिस्तान
तइयो ना मरलई मगही भाषा हम्मर
अंग्रेजी मुँहझौंसा चाहे जेतनो बढ़ैतई झुट्ठो- मुट्ठो के शान ई
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

मौगिन सभे गाबअ हत्थिन मगहीए में
चाहे सादी-बिआह के दुआर-पुजाई होवे
चाहे डोमकच के गीत, आ चाहे ठेकुआ गढ़े बखत
छट्ठी मईया के पावन गीत, बजअ हई संघे ढोलक के संगीत।
दुःख, विपत्ति के बखत होए, चाहे खुसी के बतिया
मुँहवा से अकबका के निकल पड़अ हई
मींड़ लगल मगहीए में - " अगे ~~ मईया ~~ ... " *
काहे से कि हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

नएकन शहरू लइकन-लइकियन
ना जाने काहे ई बोले में सरमाबअ हथिन
माए-बाबु चाहे रहथिन जईसन
माए-बाबु तअ ओही रहथुन
अप्पन माए-बाबु जईसन हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
मागधी की गंगोत्री
( हिन्दी भाषा में अनुवाद ).
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है
मागधी की गंगोत्री से निकली
समय-धार पर बह चली कलकल
कालान्तर में वही मगही कहलायी
जन-जन की भाषा बन गई
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

बुद्ध जहाँ अपना राज-पाट आए थे छोड़ कर
अपनी पत्नी और अपने बेटे को भी छोड़ कर
दिए थे उपदेश बौद्ध-धर्म का जन-जन को मागधी भाषा में ही
महावीर के जैन-धर्म के सन्देश की भाषा भी थी मागधी
उसी मागधी से बनी भाषा मगही
जो है आज हम सभी की भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

आज मैथिली और भोजपुरी हैं सगी बहनें जिसकी
श्रृंगार है जिसकी लिपि देवनागरी
यहाँ मुग़ल भी आए, आए थे अंग्रेज भी
तब भी मिटी नहीं मगही भाषा हमारी
चाहे जितनी बढ़ाए अंग्रेजी हमारी झूठी शान
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

औरतें सारी यहाँ की मगही में ही गाती हैं लोकगीत
चाहे शादी-विवाह की द्वार-पूजा की रस्म हो या डोमकच के गीत
या फिर छठ पूजा में ठेकुआ बनाते समय छठी मईया के गीत
साथ बजा-बजा कर ढोलक के संगीत
दुःख की घड़ी हो या ख़ुशी के लम्हें
अनायास मुँह से निकल पड़ती है आवाज़
मींड़ लगी मगही में ही - " अगे ~~  मईया ~~.. " *
क्यों कि है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

ना जाने क्यों शहरी युवा लड़के-लड़की
शरमाते हैं बोलने में अपनी भाषा मगही
माँ-पिता जी जिस हाल में हों, हों वे जैसे भी,
बदले जा सकते नहीं, वे तो किसी के भी रहेंगे वही
हमारे अभिभावक जैसा ही है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
{ * :-  अगे मईया  = ओ माँ ! = ऊई माँ ! }.

{ विशेष :- दरअसल मगही एक बोली या उपभाषा है, परन्तु में रचना में इसे बार-बार भाषा कहा गया है। इस भूल को नजरअंदाज कर के ही आप सभी पढ़िए या विडियों को सुनिए या देखिए। }.

फिर मिलेंगे .. इसी उम्मीद के साथ ...☺
                             






                 

Monday, May 25, 2020

थे ही नहीं मुसलमान ...

इरफ़ान हो या कामरान
सिया, सुन्नी हो या पठान,
सातवीं शताब्दी में
पैगम्बर के आने के पहले,
किसी के भी पुरख़े
थे ही नहीं मुसलमान।
ना ही ईसा के पहले
था कोई भी ख्रिस्तान।
राम भी कभी होंगे नहीं
ना रामभक्त कोई यहाँ
ना ही कोई सनातनी इंसान।

एक वक्त था कभी
ना थे कई लिबास मज़हबी,
ना क़बीलों में बंटे लोग
ना मज़हबी क़ाबिल समुदाय,
ना कई सारे सम्प्रदाय
ना मंदिर, ना मस्जिद,
ना गिरजा, ना गुरुद्वारे,
ना हिन्दू, ना मुसलमान,
बस .. थे केवल नंगे इंसान।
माना कि .. थे आदिमानव
पर थे .. सारे विशुद्ध इंसान।

फिर आते गए पैगम्बर कई,
मिथक कथा वाले कई अवतार,
बाँटने तथाकथित धर्म का ज्ञान
और रचते गए धर्मग्रंथों की अम्बार।
पर बँट गए क्यों इंसान ही हर बार ?
कहते हैं सभी कि ..
इस जगत का है एक ही विधाता,
पूरे ब्रह्माण्ड का निर्माता
और एक ही सूरज की गर्मी से
पकती हैं क्यारियों में गेहूँ की बालियाँ,
फिर हो जाती हैं कैसे भला ..
हिन्दू और मुसलमान की पकी रोटियाँ ?

Sunday, May 24, 2020

टिब्बे भी तो ...

कालखंड की असीम सागर-लहरें
संग गुजरते पलों के हवा के झोंके,
भला इनसे कब तक हैं बच पाते
पनपे रेत पर पदचिन्ह बहुतेरे।
यूँ ही तो हैं रूप बदलते पल-पल
रेगिस्तान के टिब्बे भी तो रेतीले सारे ।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

माना हैं दर्ज़ पुरातत्ववेत्ताओं के इतिहास में
ईसा पूर्व के कुछ सौ या कुछ हजार साल
या सन्-ईस्वी के दो हजार बीस वर्षों के अंतराल।
पर परे इन से भी तो शायद रहा ही होगा ना
लाखों वर्षों से अनवरत घूमती धरती पर
मानव-इतिहास का अनसुलझा जीवन-काल?
अगर करते आते अनुकरण अब तक 
हम सभी सबसे पहले वाले पुराने पुरखे के,
तो .. आज भी क्या हम आदिमानव ही नहीं होते ?
पर हैं तो नहीं ना ? .. तभी तो ...
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

निर्मित पल-पल के कण-कण से
कालखंड के रेत पर पग-पग
बढ़ता ..  चलता जाता मानव जीवन
चलता, बीतता, रितता हर पल तन-मन।
कामना पदचिन्ह के अमर होने की,
पीछे अपने किसी के अनुसरण करने की,
ऐसे में तो हैं शायद शत-प्रतिशत बेमानी सारे।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।

अब ऐसे में तो बस .. रचते जाना ही बेहतर
मन की बातें अपनी बस लिखते जाना ही बेहतर।
किसी से होड़ लेना बेमानी, किसी से जोड़-तोड़ बेमानी,
कालजयी होने की कोई कामना भी बेमानी
मिथ्या या मिथक का अनुकरण भी शायद बेमानी।
आइए ना .. फिलहाल तो मिलकर सोचते हैं एक बार ..
साहिर लुधियानवी साहब को गुनगुनाते हुए -
" कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
  मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ~~। "
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
                               

Friday, May 22, 2020

मिले फ़ुर्सत कभी तो ...


ओपन मिक या ओपन माइक ( Open Mic/Mike ) - हाँ .. यही तो नाम है , अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की इस विधा का या इस मंच का। जो शायद अंग्रेजी के शब्द Open Microphone से बना होगा। नाम से ही स्पष्ट है कि यह ओपन है। मतलब यह सभी के लिए एक खुला माइक या मंच है। यह एक लाइव शो (Live Show) यानि प्रत्यक्ष-प्रदर्शन है। वर्त्तमान में पिछले कुछ सालों से बड़े शहरों में यह विशेषतौर पर युवाओं में कुछ ज्यादा ही प्रचलित है।
लगभग बीसवीं शताब्दी के अंत के और इक्कीसवीं शताब्दी के शुरूआत के सालों में विकसित देशों में पब (Pub), नाईट क्लब (Night Club), कॉफ़ी हाउस (Coffee House), कॉमेडी क्लब (Comedy Club) या किसी संस्थान में प्रायः रातों में देर रात तक या रात भर वहाँ उपस्थित जनसमूह के मनोरंजन के लिए किसी भी परिपक्व या नया कलाकार द्वारा कविता, गीत-संगीत या हास्य-संवाद के रूप में अपनी-अपनी प्रस्तुति देने का दौर शुरू हुआ था। दुनिया में इसके आरम्भ होने के समय की तुलना हम मोबाइल फ़ोन के भारत में शुरू होने के समय से कर सकते हैं .. शायद ...। कहीं-कहीं इसकी व्यवस्था अथार्त किराए पर लाए जाने वाले माइक, साउंड बॉक्स (Sound Box) इत्यादि में होने वाले ख़र्चे को क्लब वाले प्रस्तुति देने वाले कलाकारों से या कहीं-कहीं पूरे जनसमूह से वसूलते थे या हैं भी।
धीरे-धीरे यह विधा पाँव पसारती हुई , महानगरों (Metro Town) के युवाओं को लुभाती हुई , अब तो हर छोटे-बड़ो शहरों के युवाओं में भी आम है। बड़े-बड़े रेस्टुरेन्ट, होटलों, क्लबों के अलावा सभागारों या किसी भी बड़े हॉलनुमा कमरे में यह ओपन मिक संभव है। कुछ वर्षों से अब तो प्रस्तुति की वीडियो बना कर उसे यूट्यूब (Youtube) पर अपलोड (Upload) करने का भी प्रचलन जोर-शोर से है। कहते हैं कि यूट्यूब पर व्यूअर (Viewers) की संख्या के आधार पर यूट्यूब के तरफ से युवाओं की वार्षिक कमाई भी होती है।
वैसे तो .. यह सर्वविदित ही है कि यूट्यूब वीडियो साझा करने का एक अमेरिकी एप्प (App = Application) है। इसी तरह के मंचों में एक बहुत प्रसिद्ध हो चुका मंच है, जिसका नाम आपको भी मालूम होगा ही  - यौरकोट (Yourquote), जो कलाकारों या रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन और ऑफ लाइन (Online & Offline Plateform) प्रदान करता है और प्रस्तुति को यूट्यूब के माध्यम से विस्तार भी देता है। अब तो कई-कई शहरों में यौरकोट जैसे कई-कई स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर पर स्थान बनाने के लिए प्रयासरत मंच देखने के लिए मिल जाते हैं। स्वाभाविक है कि इन सब प्रक्रियाओं में धन की आवश्यकता भी पड़ती है, तो इस धन को प्रतिभागियों से ही लिया जाता है। ऐसा ही तो कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा भी किया जाता है। यदाकदा किसी संस्थान या व्यक्तिविशेष द्वारा इस तरह का मंच प्रतिभागियों के लिए मुफ़्त में भी प्रदान किया जाता है। इस मंच से प्रायः कविताएँ (Poetry) , कहानियाँ (Storytelling) , कॉमेडी ( Standup Comedy) या गायन-वादन (ज़्यादातर Rap Songs) की प्रस्तुति की जाती है।                           प्रसंगवश मेरा ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बचपन में तीसरी कक्षा से कुछ-कुछ लिखने की कोशिश भर जो जाने-अन्जाने में सुषुप्तावस्था में कभी-कभार ही निकल कर बाहर आ पाती थी , अचानक 2018 में ओपन मिक के बहाने इन युवाओं के सम्पर्क में आने के बाद से ही उम्र की 52वें पड़ाव में एक रफ़्तार-सा पकड़ लिया। निःसन्देह .. फिर बाद में 2019 में ब्लॉग की दुनिया में आप लोगों की सोहबत में आने के बाद तो और भी रफ़्तार तेज़ और संतुलित भी हो गई।
लोगों का मानना है कि चूँकि अधिकांशतः इन में युवा ही होते हैं तो स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं में तथाकथित स्थापित, सत्यापित या स्वघोषित बुद्धिजीवी साहित्यकारों वाली बात नहीं होती है। परन्तु वस्तुतः सच्चाई ऐसी नहीं है और यहाँ भी कई अच्छे और गंभीर सोचने और लिखने वाले मिलते हैं। कई तुकबन्दी करने वाले या पैरोडी गाने वाले भी होते हैं। कई कुछ प्रसिद्ध रचनाकारों की लेखन या पढ़ने की शैली की नक़ल करते भी नज़र आते हैं। वैसे इन सभी तरह की मिलीजुली शख़्सियतें तो कई तथाकथित साहित्यिक कवि सम्मेलनों में भी दिख ही जाते हैं। कई बुद्धिजीवी .. या तो इस ओपन मिक के बारे में जानते ही नहीं है या अगर जानते भी हैं तो इसे उपेक्षित नज़रों से देखते हैं। इसी डर से आलेख की शुरुआत से ही मैं इसकी तुलना साहित्यिक गोष्टी या साहित्यिक सम्मेलन से नहीं कर रहा हूँ। पता नहीं किसी बुद्धिजीवी को नागवार गुजर जाए।
कई लोग तो ब्लॉग और फेसबुक जैसे दोनों विदेशों से मुफ़्त में मिले मंचों/एप्पों में भी बेहतर-निम्नतर जैसा फ़र्क करने से गुरेज़ नहीं करते , जबकि एप्प या मंच कोई भी बुरा नहीं होता। बुरे होते हैं उसको व्यवहार करने वाले .. उस में अपनी रचना साझा करने वाले और उसके पाठक या श्रोतागण। ब्लॉग की तुलना में फेसबुक तकनीकी रूप से ज्यादा लचीला और समृद्ध भी है , जिस कारणवश वह जनसुलभ और लोकप्रिय भी है। तभी तो ब्लॉग के लिए अपनी गर्दन अकड़ाने वालों को भी फेसबुक का सहारा लेना ही पड़ता है। मालूम नहीं फ़ेसबुक को लोग हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं ?
खैर ... अभी फिलहाल ओपन मिक की बात करते हैं। जैसे विश्व में अलग-अलग जगहों की भाषाएँ भी अलग-अलग होती है , ठीक वैसे ही अलग-अलग पीढ़ियों की भी अपनी-अपनी भाषाएँ होती हैं। और अगर हम सामने वाले से उसी की भाषा में बात करें तो वो बात सामने वाले के मन में सीधे-सीधे उतरती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित रचना/विचार को युवाओं की नज़र से देखकर लिखा था और उसकी प्रस्तुति दी थी।
लगभग दो साल पहले ही जब कोरोना के वायरस (Virus) और सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing) शब्द का भी कोई नामोनिशान तक नहीं था, तब भी सर्दी के वायरस और सोशल डिस्टेंसिंग की परिकल्पना की गई थी इस रचना में। आप पढ़ कर ख़ुद ही देख लीजिए ना ...
यहाँ इस रचना/विचार के बाद इसकी प्रस्तुति का वीडियो भी है। समय हो तो पढ़िए भी और वीडियो भी देखिए .. शायद .. आपको भी अच्छा लगे .. बस .. पढ़ते या वीडियो देखते वक्त खुद को युवावस्था में महसूस भर कर लीजिए .. बस .. तो फिर देर किस बात की ? ...
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मिले फ़ुर्सत कभी तो ...

"शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
 मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ..."

पिछले दिसम्बर की एक बर्फीली सुबह
अपने जैकेट का जीप ऊपर सरकाते वक्त उस में
उलझ-सा गया था मेरे मफ़लर का एक हिस्सा।
फिर याद आई अचानक ..
वो वर्षों पहले गुजरा दिसम्बर का एक दिन
अरे हाँ ! .. हमारे अपने डेटिंग (Dating) वाला दिन
जब खोलते वक्त मेरे जैकेट के जीप में उलझा था
तुम्हारा वो आसमानी जॉर्जेट का दुपट्टा।
उस दिन भी ठंड काफी थी पर .. उस दिन ..
जैकेट का जीप लगाने के बजाए खोला था मैं
ताकि .. छुपा कर उस में तुम चेहरा अपना
हर बार की तरह महसूस कर सको मेरे बदन की गर्माहट
और ... तुम्हारी नर्म-गर्म मखमली साँसों को मैं।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

हिन्दी मीडियम (Hindi Medium) वाला मैं
तुमसे मिलने के पहले भला कहाँ जानता था
मतलब स्मूचिंग (Smooching) का।
हाँ .. उस दिन थोड़ा ज्यादा जोर हो गया था।
लगा था तुम्हें कि .. कुछ ज्यादा ही बहक गया हूँ मैं
पर दरअसल चाहता था खींच लेना खुद में मैं
सारे वायरस तुम्हें परेशान करती तुम्हारी पनीली सर्दी के।
फिर एक दिन लगा था तुम्हें कि .. भाव खा रहा हूँ मैं
स्मूचिंग तो दूर .. क़तरा रहा हूँ करीब आने से भी तुम्हारे
पर दरअसल चाहता था रखना बचाए तुम्हें मैं
वायरस से अपनी उन दिनों की अपनी सर्दी से।
 शायद प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

कई साल गुजर गए .. है ना ? .. कई साल गुजर गए ..
वट-सावित्री पूजा में बरगद के पेड़ से लिपटे
कच्चे धागे की तरह जब आखिरी बार लिपटी थी तुम मुझसे ;
यक़ीन मानो .. आज भी तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू ने
कमी महसूस होने नहीं दी है कभी किसी डिओ (Deo) की।
हमेशा इस्तेमाल किया था तुमने मुझे
सिलेबस (Syllabus) की किताबों की तरह मगर ..
मैं तो सजा रखा हूँ तुम्हें आज भी दिल की दीवार पर
पिरियोडिक टेबल (Periodic Table) की तरह।
अक़्सर इस्तेमाल किया तुमने मुझे
अपने मुश्किल भरे चार दिनों के सैनिटरी नैप......*
खैर ! .. जाने दो ना।
मैं ने तो संजो रखा है आज भी तुम्हें
किसी सगे के छट्ठी वाले कपड़ों की तरह।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

आखिर गलत साबित कर ही दिया ना तुमने ..
न्यूटन के तीसरे नियम** को ,
मेरे प्यार के बदले मुझे पराया कर के।
झुठलाने के लिए आर्किमिडीज के सिद्धान्त*** को मैंने भी
तुम्हारे दिए गए ग़मों के वजन के बावज़ूद
समय के लहरों पर तैरता रहा मैं ताउम्र अनवरत।
और .. वो भी क्या भूल पाई होगी तुम ? .. बोलो ना ! ..
हर डेटिंग पर मेरे एक ही डेरी मिल्क (Dairy Milk) लाने में दिखती थी जो तुम्हें मेरी कंजूसी।
पर .. इसी कारण तो तुम मेरे क़रीब
कुछ ज्यादा ही क़रीब .. थी खींचती चली आती।
करते थे जब हम दोनों अपनी-अपनी ओर अपने-अपने दाँतों में दबाकर उस एक डेरी मिल्क का आपस में बँटवारा।
तब मैं थोड़ी बेईमानी था कर जाता।
उस एक डेरी मिल्क के कुल दस स्क्वायर (Square) में से
साढ़े छः तुम्हें और साढ़े तीन अपने हिस्से में था काटता।
बना कर बहाना ये कि .. ज्यादा मीठा मुझे अच्छा नहीं लगता
भले ही .. घर में अपने .. अपनी अम्मा के हिस्से का भी
खीर मैं अक़्सर छुपा कर था चट कर जाता।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

लग रहा है .. अभी भी तुम यहीं कहीं हो .. मेरे आसपास ..
आओ ना पास .. क्यों सता रही हो ?
ना जाने क्यों ये लग रहा है कि .. तुम अभी-अभी आओगी
किसी कोने से और .. मेरी टी-शर्ट (T-Shirt) की बाँह में
अपने गीले होठों को पोंछते हुए ..
हर बार की तरह शरमा कर कहोगी मुझसे कि .. --
" तुम ना .. बड़े ज़िद्दी हो .. अपनी ज़िद मनवा कर ही मानते हो .. हमें इस तरह कोई देख लेता तो ? .. आँ ? "
अब क्या करूँ मैं ? ... अब ..
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

( * सैनिटरी नैप...... = सैनिटरी नैपकिन = Sanitary Napkin.
** न्यूटन के तीसरे नियम =Newton's 3rd Law.
*** आर्किमिडीज के सिद्धान्त  = Archimedes' Principle. ).

( N.B. :- उपर्युक्त रचना/विचार को AWAAZ - The Poetry Band के Open Mic के लिए मेरे द्वारा 08.07.2018 को पढ़ी गयी थी और उन लोगों द्वारा उस पाठन का यह निम्न Youtube Video  30.08.2018 को प्रसारित किया गया था। ). :-

                                           



Saturday, May 16, 2020

जल-स्पर्श नदारद ...

गाँव के खेत-खलिहानों में कहीं
तो खेल के मैदानों में कभी
लालसा बस छू भर लेने की
उस जगह को जो अक़्सर थी 
आभास-सी कराती कि .. धरती
आसमान से हो मानो मिल रही ...

बालमन ने होड़ लगाई कितनी
कई लगाई बालतन ने दौड़ भी
ना मिलनी थी .. ना ही मिली कभी
सफलता किसी जगह .. कभी भी
राह रोकता हुआ कोई जब कि
दिखा नहीं व्यवधान कहीं भी ...

है तो बस केवल एक आभासी
आँखों का एहसास भर ही
जिसे क्षितिज कहते थे गुरु जी
ये शब्द .. ये बातें .. सारी ज्ञान की
बाद में मैं था जान पाया
स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही ...

घने अरण्य में बारहा
है बीच तपती दुपहरी
प्यासी भटकती झुण्ड हिरणों की
जिन्हें मृग मरीचिका है लुभाती
पर जल-स्पर्श नदारद
हर बार ठीक क्षितिज-सी ...

बालतन लाख हो गया बड़ा
आज बड़ा और बूढा भी
पर बालमन था जहाँ
है ठिठका खड़ा वहीं
चाह लिए मन में अपने
मिल जाने के आज भी ...

काश ! मिल पाते कभी
सच्चे मन से दो रिश्तेदार सगे
रिश्तों के आभासी क्षितिज पर
मिल पाती उसे तृप्ति भी कभी
जो भटक रहा ताउम्र अनवरत 
रिश्तों की मृग मरीचिका के पीछे
प्यास लिए अपनापन की ...

प्यास लिए .. ये आस लिए कि
क्षितिज-से आभासी रिश्तों के बीच
इन्हीं आभासी क्षितिज से
कभी तो उगेगा कोई दूर ही सही
पर एक अपना-सा सूरज
अपनापन की किरणों वाली
गर्माहट लिए एहसासों के धूप की ...






Thursday, May 14, 2020

" बताइए ना पापा " - ...

अगर पूरा पढ़ने का समय हो तभी आगे बढ़िएगा / पढ़िएगा ...

हमलोगों ने इन अनायास आयी वैश्विक विपदा की परिस्थितियों के दौरान हमारी सुरक्षा के लिए ही हमारी केंद्र और राज्य सरकार की सहमति से लागू लॉकडाउन की तीन श्रंखलाओं - 1.0, 2.0 और 3.0 - की अवधि को अपने-अपने तरीके से गुजारा है। अब आज से तीन दिनों बाद इसकी अगली कड़ी लॉकडाउन- 4.0 को भी गुजारना है। आगे के लिए भी तैयार रहना है, हर रूप में, चाहे वो आर्थिक हो, शारीरिक हो, मानसिक हो या सामाजिक हो। ना, ना, मैं कोई ज्ञान नहीं बाँट रहा और ना ही किसी को दाल-रोटी। बस यूँ ही ...
इस दौरान कई लोग तो अपनी दाल-रोटी, तो कोई नौकरी-रोजगार, तो कोई अपने घर वापसी के लिए तो, कोई कुछ, कोई कुछ के लिए परेशान रहा। पर कुछ लोग सौभाग्यशाली थे या हैं जो अपने घर-परिवार के बीच अपने घर में "वर्क फ्रॉम होम" के तहत सही समय पर खाते-पीते हुए अपनी सुषुप्त रुचियों को जगा रहे थे या हैं और साथ ही तरह-तरह के उपलब्ध मनोरंजन के साधन का सदुपयोग भी कर रहे हैं। इन में से एक मैं और मेरा परिवार भी है।
इसी मनोरंजन के तहत आपने अपनी-अपनी पसंद की कई फ़िल्में भी देखी होगीं। श्वेत-श्याम, ईस्ट मैन कलर से लेकर आज तक की आधुनिक तकनीक से बनी फ़िल्में। पुरानी और नयी फिल्मों में रंग, शैली, अदाकारी और समसामयिक कथानकों में अंतर के अलावा एक बात और भी नोटिस की होगी कि कास्टिंग यानि पर्दे पर किसी चलचित्र और धुन के साथ जब उस फ़िल्म के पर्दे पर के और पर्दे के पीछे के सभी संबंधित कलाकारों और तकनीशियनों के नाम दिखाए जाते हैं; जिसे पहले के समय में फ़िल्म शुरू होते ही दिखलाई जाती थी और आजकल फ़िल्म ख़त्म होने के बाद , अंत में। इसके कारण का तो पता नहीं, किसी को हो यहाँ बतला सकते हैं वैसे।
परन्तु एक समानता भी है इनमें और टी. वी. सीरियलों में भी जो आरम्भ में ही पर्दे पर एक खंडन (Disclaimer) दिखला दी जाती है और वो ये कि ... " इस कहानी के किसी भी पात्र या घटना का किसी भी सच्ची घटना से कोई लेना-देना नहीं है। अगर ऐसा होता भी है तो यह एक संयोगमात्र होगा। इसके लिए निर्माता या निर्देशक जिम्मेवार नहीं होगा या है। "
उसी शैली में मैं कह (लिख) रहा हूँ कि निम्नलिखित कहानी के साथ भी सारी उपरोक्त शर्तें लागू होती हैं। और हाँ ... एक विशेष बात और कि इसको संस्मरण या आत्मसंस्मरण समझने की भूल तो कतई नहीं की जाए।
अब आज की अपनी बकैती को यहीं पर देता हूँ विराम ... और आप शुरू कर दीजिए कहानी पढ़ने का काम ...

" बताइए ना पापा " - ...
अगर किसी विवाहित लड़की का मायका और ससुराल एक ही शहर में हो ..  मसलन - बिहार की राजधानी पटना की बात करें तो मान लेते हैं कि मायका कंकड़बाग में और ससुराल राजा बाज़ार में है .. लगभग दस-बारह किमी की दूरी , तो इसके कई फ़ायदे हैं और हानियाँ भी। पर फ़िलहाल फ़ायदे यानि लाभ की ही बात करते हैं।मसलन - छोटे से छोटे आयोजन या त्योहार में भी मायके की दूरियाँ नाप आती हैं लड़कियाँ। या फिर मायके वाले भी अपनी ब्याही बेटी के ससुराल के सारे सुख-दुःख में आसानी से शरीक हो लेते हैं। ठीक ऐसा ही ससुराल वाले भी अपने समधीयाना यानि परिवार के बहू के मायके वाले के साथ करते हैं। बराबर आने-जाने से आपसी औपचारिकताएं भी कम हो जाती हैं .. शायद ।
ऐसे ही लाभ का लाभ उठाते हुए एक शाम मैं सपरिवार - अम्मा, पापा, तथाकथित अर्द्धांगिनी , तथाकथित इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बेटे को जन्म देते वक्त इस ने अकेले ही प्रसव-पीड़ा झेली थी, वो भी लगभग पन्द्रह-सोलह घन्टे तक, मुझे तो जरा भी दर्द नहीं हुआ था।अर्द्धांगिनी यानि आधा अंग होने के नाते आधे दर्द में मैं भी तो तड़पता ना ? पर जरा भी नहीं तड़पा। फिर भी यह पुरुष-प्रधान समाज इन्हें अर्द्धांगिनी  कह कर भरमाए रख कर ख़ुश रखने की कोशिश भर करता है .. शायद ...।
हाँ .. तो साथ में अम्मा, पापा, अर्द्धांगिनी और मेरा पाँच साल का बेटा भी था - सोमू। सोमवार को उसका जन्म हुआ था। दिन सोमवार - 25.08.1997 को। तो .. इए तरह प्यार से घर में बुलाने के लिए सोमू नाम के पीछे दो सोचें थी - एक तो जन्म लेने का दिन सोमवार और दूसरा ये कि मेरे नाम सिद्धार्थ का 'स' और एक नाम मंजरी का 'म' भी इस नाम में शामिल हो जा रहा था। मंजरी मतलब सोमू की मम्मी और मेरी पत्नी।
हम सभी पाँचों लोग कंकड़बाग से अपनी छोटी बहन मधुलिका के राजा बाज़ार स्थित उसके ससुराल उसके छोटे बेटे के तीसरे जन्मदिन के अवसर पर भेजे गए निमन्त्रण आने पर जा रहे थे। हम पाँचों सार्वजनिक वाहन से उतर कर बाहरी मेन गेट को खोलते हुए उसके घर के अंदर घुसे। जूली - उसके घर की पालतू कुतिया - गेट खुलने की आवाज़ सुन कर जोर-जोर से भौंकने लगी। तभी अमर जी - छोटी बहन के पति जिन्हें हमलोग इसी नाम से बुलाते हैं - यानि हमारे बहनोई हमलोगों को जूली को शांत कराते हुए और अम्मा-पापा का पाँव छू कर आशीर्वाद लेते हुए मुस्कुरा कर अंदर की ओर ले गए। वैसे मेन गेट पर इनके नेमप्लेट पर तो अंग्रेजी में - अमरेंद्र भूषण प्रसाद- एडवोकेट , वाटिका एपार्टमेंट, रोड न.-3, अम्बेडकर नगर, पटना-800014. लिखा हुआ है।
घर का अतिथि-कक्ष रंगीन गुब्बारों और फीतों से सजा हुआ था। दीवार पर थर्मोकोल से बना हुआ, अंग्रेजी में हैप्पी बर्थ डे दीपू लिखा हुआ चिपकाया हुआ था। सभी वयस्क और युवा लोग अपने-अपने हमउम्रों से गपशप में मशग़ूल हो गए और बच्चे धमाचौकड़ी में। ख़ुशी के माहौल में व्यस्तता और गपशप के कारण रात के कब दस बज गए, पता ही नहीं चला। वो तो सभी में खलबली तब मची , जब सब को पता चला कि चार वर्षीय दीपू घर आये अतिथि-बच्चों के साथ खेलता-खेलता थक कर सो गया था।
दरअसल बहन के ससुराल वाले दीपू के डॉक्टर अंकल का इंतज़ार कर रहे थे। डॉक्टर अंकल मतलब दीपू के फूफा जी मतलब इस घर के दामाद। ये अंग्रेज़ी भाषा भी ना .. बहुत ही कंजूस है। नहीं क्या ? अब देखिए ना .. चाचा, मामा, मौसा, फूफा .. सभी के लिए बस एक ही शब्द - अंकल। बहनोई और साला , दोनों के लिए ही - ब्रदर इन लॉ। साथ ही हमारे समाज में एक ये भी चलन है ना कि जब परिवार का कोई सदस्य बड़े ओहदे पर होता है तो परिवार , मुहल्ले या जान-पहचान वालों के बीच उसके सम्बोधन के लिए नाम गौण हो जाता है और उसका पद ही मुखर हो जाता है। जातिवाचक संज्ञा ना जाने कब खुद-ब-खुद व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है। मसलन - वक़ील चाचा, इंजीनियर मामा, डॉक्टर मौसा, दारोग़ा बउआ इत्यादि।
पता चला था कि बस कुछ ही देर में डॉक्टर अंकल आज शाम वाले अपने आखिरी मरीज़ का ऑपरेशन कर के आने ही वाले थे। कुछ ही देर में वे, जो इस शहर के नामी सर्जन हैं और अपने निजी अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर से निकल कर अपनी कार से सपत्नीक उत्सव में पहुँच भी गए थे।
दीपू को बहुत मुश्किल से जगाया गया। हैप्पी बर्थ डे टू यू दीपू के समवेत समूहगान और तालियों के बीच जन्मदिन के लिए शहर के एक नामी ब्रांडेड बेकरी वाले के वातानुकूलित शो रूम से आया हुआ केक कटवाया गया। लगभग ऊंघते हुए दीपू के साथ-साथ आए हुए बच्चों में से अब तक के जागे बच्चों का डांस, गुब्बारा फोड़ना, फोटोग्राफ़ी, गिफ्ट का लेना-देना और अंततः स्पेशल पार्टी वाली डिनर के बाद रिटर्न गिफ्ट की औपचारिकता पूरी की गई थी। फिर धीरे-धीरे ओके, बाई-बाई, गुड नाइट के साथ सारे मेहमान विदा होने लगे। रात का ग्यारह बज चुका था।
हम पाँचों लोग - मैं, पत्नी, सोमू, अम्मा और पापा - भी अब सार्वजनिक वाहन से राजा बाज़ार से कंकड़बाग अपने घर के लिए रास्ते में पार्टी और डिनर की प्रशंसा आपस में ही करते हुए लौट पड़े थे। सोमू गोद में ही सो चुका था।
घर आ कर उसे जगाया गया। सोने के लिए पार्टी वाला कपड़ा बदलते वक्त पाँच वर्षीय सोमू ने मुझ से अचानक एक सवाल पूछ कर मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया। उसने पूछा - " पापा , पिछले महीने हम, आप और मम्मी जब मामा जी के घर हाजीपुर गए थे, चिंटू भईया ( चिंटू -  ममेरा भाई है सोमू का ) के बर्थ डे में .. तब तो केक काटने के समय आपके सामने आने तक का इन्तज़ार नहीं किया गया था। आप भी तो दीपू भईया के डॉक्टर अंकल के तरह चिंटू भईया के फूफा जी हैं। फिर ऐसा अंतर क्यों पापा ? "
" ............ " - मैं निरूत्तर मौन सामने बैठा था।
" बताइए ना पापा ... " - फिर लगभग दस-पन्द्रह मिनट बाद साथ सोते समय सोमू अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए जोर देते हुए मुझे टोका - " आपको याद तो है ना पापा ? आपने ये अंतर नोटिस किया था ना ? "
अब मैं कैसे कहता कि - हाँ, हमने भी नोटिस किया था। पिछले माह हम सभी मतलब तीनों - मैं, मंजरी और सोमू - मंजरी के बड़े भईया के छोटे बेटे - चिंटू - के चौथे जन्मदिन के उत्सव में शामिल होने बस से हाजीपुर उनके रेलवे विभाग के सरकारी बंगलानुमा आवास पर गए थे। हाजीपुर भारतीय पूर्वी मध्य रेलवे का मुख्यालय है। बिहार की राजधानी पटना से इसकी सड़क-मार्ग से दूरी लगभग पच्चीस किमी है। सरकारी आवास के मेन गेट पर अंग्रेजी में उनके नाम की तख़्ती टंगी थी - श्री अमिताभ श्रीवास्तव, आई. आर. ए. एस. ऑफिसर, मतलब - इंडियन रेलवे अकॉउंटस सर्विस ऑफिसर - भारतीय रेलवे लेखा सेवा अधिकारी।
अपने कुछ हज़ार की प्राइवेट नौकरी से बड़ी मुश्किल से सारे घरेलू ख़र्चे के बाद किसी आकस्मिक आवश्यकता के लिए कुछ जमा की गई राशी से अपनी हैसियत के पैमाने के अनुसार बर्थ डे वाले भतीजे चिंटू के लिए एक साधारण-सा खिलौना उपहारस्वरूप और औपचारिकता के लिए थोड़ी-सी मिठाइयाँ लेकर जा रहे थे हमलोग। रास्ते में गंगा-पुल - महात्मा गाँधी सेतु - पर आम दिनों की तरह ट्रैफिक-जाम के कारण हाजीपुर आने में कुछ ज्यादा ही विलम्ब हो गया था। बस की यात्रा और जून-जुलाई की गर्मी से चेहरे व शरीर पर रास्ते भर के धूल व पसीने और थकान को मिटाने के लिए हम तीनों बारी-बारी से वॉशरूम में गए थे। सबसे पहले सोमू, फिर मंजरी और अंत में आने ही पेश की गई गर्मा-गर्म चाय और नमकीन को उदरस्थ कर के मैं गया था वॉशरूम में।
मैं अभी वॉशरूम में ही था कि चिंटू के बर्थ डे केक .. " हैप्पी बर्थ डे टू यू चिंटू " के समूहगान और तालियों की आवाज़ के साथ कटने का आभास मिला। मैं जब तक मुँह-हाथ पोंछता हुआ बाहर आया तब तक आधा से ज्यादा केक मेहमान लोगों में वयस्क, युवा और बच्चों को बँट चुका था। अभी भी किसी-किसी को बाँटने की औपचारिकता चल ही रही थी।
मंजरी रसोईघर में और सोमू बच्चों के साथ ख़ुशी में शरीक था। तभी किसी ने कहा - " अरे, मीरा ( उस घर की काम वाली बाई ) सोमू के पापा को केक दो ला कर। " मीरा बोन चाइना के एक प्लेट में केक का एक टुकड़ा ला कर दी थी। वैसे तो उस वक्त रात का साढ़े आठ ही बजा था।
" पापा ! .. कुछ बोल नहीं रहे आप ? ... " - अपनी जिज्ञासा शांत हुए बिना चैन से नहीं बैठने वाली अपनी आदतानुसार , चाहे विषय कोई भी हो ... पाठ्यपुस्तक की हो या फिर थोड़ी बहुत उसकी समझ में आने वाली दुनियादारी की , सोमू मेरे नज़रअंदाज़ करने पर भी मुझे फिर से टोक दिया। अब उसे क्या जवाब देता उस वक्त .. उस वक्त तो क्या .. मैं आज तक अनुत्तरित और किंकर्तव्यविमूढ़ सोच ही रहा हूँ कि क्या कारण बतलाऊँ उसे भला ?
आप में से कोई बुद्धिजीवी हैं जो बता सकें मेरे बेटे सोमू को जो आज 23 वर्ष का हो चुका है, कि .. बर्थ डे केक काटने वाले मुख्य समय के लिए समाज में किस रिश्तेदार या परिचित का इंतज़ार किया जाता है और किसका नहीं ? किस के सामने केक कटता है और किसके ना भी होने से चलता है।
प्रतिक्रिया में ही सही .. कृपया बतलाइएगा जरूर .. ताकि मैं देर से ही सही .. सोमू के मन के उथल-पथल को सन्तुष्ट और शांत कर सकूँ ... आपके सही उत्तर के इंतज़ार में मैं ...
                                               







Wednesday, May 13, 2020

महज़ एक इंसान ...

मैं हूँ तो इंसान ही। मेरे पास भी है ही ना एक मानव मन। वह भी वैसा इंसान ( कम से कम मेरा मानना है ) जिसने दिखावे के लिए कभी संजीदगी के पैरहन नहीं लादे अपने ऊपर, बल्कि आज तक, अभी तक अपने बचपना को मरने नहीं दिया। बच्चों की तरह जो मन में, वही मुँह पर।
अब बच्चा-मन मतलब साहित्यिक भाषा में कहें तो बालसुलभ मन कभी-कभी अपनी प्रशंसा सुनकर चहकने लगता है। या फिर कभी-कभी कोई भी पात्र सामने से किसी कारणवश या अकारण ( सामने वाले को शायद इस प्रक्रिया से कुछ आत्मतुष्टि मिलने की आशा हो ) अपमानित या उपेक्षित करता है , तो मन क्षणिक मलिन भी होता है।
अब ऐसे दोनों ही - सकारात्मक और नकारात्मक पलों - को एक बिन्दु पर केन्द्रित करने के ख़्याल से ही ये दो पंक्तियाँ मन में उपजी थीं कभी , जो आज भी मन में ऐसे पलों में दुहरा लूँ तो .. मन पल में सागर से झील बन जाता है।
प्रशंसा से चहकने वाले पलों में अपने लिए और .. अपमान या उपेक्षा वाले मलिन पलों में सामने वाले के लिए यही भाव उभारता हूँ ...

श्मशान टहल आएं ...
आज कुछ
अभिमान-सा
होने लगा है
शायद ..
चलो ना जरा
पास किसी
श्मशान या
फिर किसी
कब्रिस्तान तक
टहल आएं ...

                                     



हम सभी जानते हैं, पर मानते नहीं कि हमारे अपने जन्म के दिन से ही जीवन के अटल सत्य - मृत्यु का टैग - हमारे साथ चिपका रहता है। फिर भी हम इस की चर्चा करने से चिढ़ते हैं, चर्चा करने में झिझकते हैं, चर्चा करने को बुरा मानते हैं। मैं भी कभी चर्चा करूँ तो सौ बातें घर-परिवार के बीच सुनने के लिए मिलती है। प्रायः इसे मनहूस, फ़ालतू, बेकार की बात कह कर झिड़क कर शांत कर दिया जाता है।
जीते जी हम अपनी मृत्यु की कोई योजना नहीं बनाते, क्योंकि मृत्यु के अटल-सत्य होते हुए भी हम इसके उत्सव मनाने की बात कभी नहीं सोचते।
हमारे जीवन के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण दो पहलूएं .. दो छोरें - जन्म और मृत्यु - जिनका हमारे लिए तथाकथित "पतरा" देखकर तयशुदा कोई भी तथाकथित मुहूर्त नहीं होता। बाकी तो हम बीच के संस्कारों वाले दिनों के, उत्सवों वाले पलों के दसों मुहूर्त तथाकथित पंडितों से ऑन लाइन या ऑफ लाइन पतरा में टटोलवा कर पता करते रहते हैं।
मसलन - छट्ठी के, मुंडन के, शादी के, गृह-प्रवेश के, किसी व्यापार या अन्य महत्वपूर्ण कार्यों के आरम्भ के, किसी प्रतिष्ठान के उदघाट्न के, मतलब कई मौकों के लिए मुहूर्त निकलवा कर ही काम सम्पादित करते हैं हम।
ऐसी कई भौंचक्का कर देने वाली बातें, घटनाएँ, सोचें हैं , जिसे हम बड़े आराम से और आसानी से आडम्बर और विडंबना की चाशनी के साथ ताउम्र चाटते रहते हैं .. आत्मसात करते रहते हैं।
खैर .. फ़िलहाल तो ये मनन करते हैं कि जीवन भर हिन्दू-मुस्लमान जैसे जाति-धर्म और उपजाति जैसे पचड़े से बचने की कोशिश करने वाला कोई भी इंसान .. कैसे भला स्वयं के मृत शरीर को क़ब्रिस्तान या श्मशान के मार्ग में जाने से रोक कर .. मरने के बाद भी हिन्दू और मुस्लमान नहीं बनना चाहता हो तो फिर क्या करे वो ? आइए .. इस प्रश्न का हल निम्नलिखित चंद पंक्तियों में तलाशने की कोशिश करते हैं ...

महज़ एक इंसान
क्यों भला हमलोग जीते जी
हिन्दू- मुस्लमान करते हैं ?
कोई अल्लाह ..
तो कोई भगवान कहते हैं
एक ही धरती की
किसी ज़मीन को हिन्दुस्तान ..
तो कहीं पाकिस्तान करते हैं

मर कर भी चैन
नहीं मिलता हमको
तभी तो कुछ श्मशान
तो कुछ क़ब्रिस्तान ढूँढ़ते हैं ...

मिटाते क्यों नहीं
हम लोग आपस का
झगड़ा जीते जी
महज़ एक इंसान बनकर
और मर कर भी औरों के
काम आ जाएं हमलोग
क्यों नहीं भला हमलोग
देहदान करते हैं ...

आज का बकबक बस इतना ही ... शेष बतकही अगली बार ...