Tuesday, February 11, 2020

मन वसंत ...- चन्द पंक्तियाँ - (२३) - बस यूँ ही ...

आज के बीते और परसों के आने वाले क्रमशः तथाकथित "प्रॉमिस डे" और "किश डे" के बहाने ...

【1】💝

वादों को ...

बस केवल
खादी का ही
ताना बाना
रहने दो ना ..
वादों को
सनम ...

तुम तो
धड़कती हो
धड़कती रहो
मेरे दिल में
बस यूँ ही
हरदम ...


【2】💝

वादे की ...

भला कब
ज़रूरत
पड़ती है
अपनों को
वादे की ..
बतलाओ ना जरा ...

कोयल की
कूक-सी
फबती हो
हर पल तुम ..
सजा रखा है
जो मन वसंत मेरा ...


【3】💝

चाह चूमने की ...

होठों को
सिकोड़ कर ..
चाय की
प्याली से
बार-बार
लगाना ...

है चाह
चूमने की
तुमको ..
चाय तो है
बस एक
बहाना ...


Friday, January 31, 2020

कुछ नमी-सी ...

बयार आज अचानक कुछ-कुछ..
चिरायंध गंध से है क्यों बोझिल
शायद गाँव के हरिजन टोले में फिर
लाए गए किसी श्मशान से अधजले बाँस में
बाँध कर पैर चारों किसी जिन्दा सूअर के
लटका कर उल्टा उसे है पकाया जा रहा
पर .. साहिब !... आवाज़ तो रिरियाने की
किसी जलते सूअर की .. किसी पकते सूअर की
अभी तक तो कोई आई नहीं है
लगता है .. फिर .. कोई निरीह बलात्कृत बाला
गला घोंट कर आसपास सुलगाई गई है ...

बयार में क्यों दम अब हमारा आजकल
खुली जगहों पर भी घुटने लगा है
लगता है भोपाल गैस काण्ड जैसी
कोई जहरीली गैस है रिस रही
शायद हौले-हौले अब इस शहर में
पर ..साहिब ! ... बेतहाशा तो कहीं भी
कोई भी इंसान भागता दिखता नहीं है
सभी तो हैं इत्मीनान-से बस ठहरे
गोया मन्दिर-मस्जिद अपनी-अपनी जगह पर
लगता है .. अब इन बयार से ही
हिन्दू-मुस्लमान ज़बरन कराई गई है ...

बयार पछुआ जब भी है बहती
सुना है बुजुर्गों से अक़्सर कि ..
मुँह-नाक सुखाने वाली है होती
सूखते हैं गीले कपड़े पसारे हुए अलगनी पर
या थापे गए दीवारों पर गोबर के कंडे
या गर्मी में किसी बदन से पसीने भी जल्दी
और .. हलाल या झटका जिस भी विधि से
मारे गए भेड़-बकरे या गाय की चमड़ी
सूखती हैं टनाटन मानो नाल, ढोल-ढोलक और नगाड़े
शुष्क रहने वाली ये बारहा , ना जाने क्यों आज अचानक
इनमें कुछ नमी-सी लग रही है
लगता है .. यहीं कहीं इर्द-गिर्द ..
लहू से.. किसी अंजान राहगीर के ..
किसी सड़क को फिर से भींजाई गई है ...


Sunday, January 26, 2020

गणतंत्र दिवस के बहाने - चन्द पंक्तियाँ - (२२) - बस यूँ ही ...

*(१)* -
अपनी अभिव्यक्ति की छटपटाहट को
शब्दों में बाँधने के लिए आज
26 जनवरी के ब्रम्हमुहूर्त में
उनींदापन में एक लम्बी जम्हाई लेता
कागज़ .. कलम उठाया और ..
विषय-विशेष की उधेड़बुन में
अपना अबोध दिमाग खपाया ...
दरवाजे पर मेरे तभी दस्तक हुई
पूछा मैंने –
कौन!?..... कौन है भाई?”
मिला उत्तर –
मैं .. मैं राजतंत्र
चौंका मैं –
राजतंत्र !? ... कभी भी नहीं ... आज हीं तो 
अपने गणतंत्र दिवस की सालगिरह है भाई
दरवाजे के पार कुछ खुसुर-फुसुर तभी पड़ी सुनाई
हो हैरान पूछा पुनः मैंने –
दूसरा कौन है यार !?”
उत्तर आया –
मैं .. मैं भी हूँ साथ में ... भ्रष्टाचार ..."

*(२)* -
कभी लुटेरों ने दिया ज़ख़्म
तो कभी मिली ग़ुलामी की चोट
कभी बँटवारे का छाया मातम
तो कभी जनरक्षकों की लूट खसोट
गणतंत्र है फिर भी अपने भारत में आज
हम भी तो हैं स्वतंत्र आज मेरे भाई
फहराते हैं तिरंगा .. गाते हैं राष्ट्रगान
मनाते हैं 26 जनवरी .. बाँटते हैं मिठाई ...

*(३)* -
कुछ तिरंगे
कुछ जलेबियाँ
कुछ परेड
कुछ झाकियाँ
मन गया गणतंत्र दिवस
और भला क्या चाहिए
बस .. बस ..बस ...


                                       

Saturday, January 25, 2020

कर ली अग्नि चुटकी में ...

यार माचिस ! ..
"कर लो दुनिया मुट्ठी में "
अम्बानी जी के जोश भरे नारे से
एक कदम तुमने तो बढ़ कर आगे
कर ली अग्नि चुटकी में
पूजते आए हम सनातनी सदियों से
अग्नि देवता जिस को कह-कह के
यार! बता ना जरा .. मुझे भी
भेद अपने छोटे से कद के
करता है भला ये सब कैसे यहाँ
यार! बता ना जरा ...


यार माचिस ! ..
"ज़िन्दगी के साथ भी, ज़िन्दगी के बाद भी"
जीवन बीमा निगम के नारा को
करते हो चरितार्थ शत्-प्रतिशत तुम तो
मसलन ...
छट्ठी में काज़ल पराई के रस्म का जलाना दिया हो
या शादी में अग्नि के सात फेरे वाले हवन-कुण्ड
या फिर जीवन भर भोगे तन को लील जाने वाली
लपलपाती लौ की लपटों से भरी धधकती चिता
तुम तो बन ही जाते हो मेरे यार !.. इन सब के ही गवाह
ख़त कई गम भरा भी .. और संग कई ख़ुशी भरा
जैसे हो घर-घर बाँटता कोई डाकिया...

यार माचिस ! ..
अब देखो ना जरा !
तुम्हें भी तो होगा ही पता
कि .. काशी विश्वनाथ के मंदिर में
है जाना अंग्रेजों का निषेध
पर एक अंग्रेज के वैज्ञानिक खोज तुम
बिना बने ही घुसपैठिया
बिंदास कर जाते हो प्रवेश
जलाने के लिए आरती का दिया
हवन-कुण्ड और कई-कई अगरबत्तियां...

यार माचिस ! ..
याद आती है क्यों भला तुम्हें देख कर
एक खचाखच भीड़ भरी अदालत सदा
जहाँ आते हैं करने प्रेम-विवाह प्रेमी-युगल
और आते हैं लेने भी कई कानूनी तलाक़ .. होने जुदा
कई बलात्कारी और कई-कई मुज़रिम यहाँ
जैसे जलाते हो तुम जिस शिद्दत से
किसी मज़ार की अगरबत्तीयां .. गिरजे की मोमबत्तीयाँ
या किसी भगवान के किसी मंदिर का दिया
और .. उसी शिद्दत से तुम यार ! ...
साहब के या फिर किसी टपोरी के
सिगरेट को सुलगाते हो बनाने के लिए धुआं ...

यार माचिस ! ..
देखा है .. एक ही ब्राह्मण है लगवाता
शादी के मंडप में जिस किसी से सात फेरे
करानी पड़ती है कई दफ़ा परिस्थितिवश
श्राद्ध भी उसे ही .. उसी की
उस ब्राह्मण के तरह ही रहता है मौजूद
ख़ुशी की घड़ी हो या दुःख की हर घड़ी .. हर जगह तेरा वजूद
यूँ तो ... बचाई है कितनी .. ये तो हमें मालूम नहीं
ढपोरशंखों ने सदैव परिवर्तनशील प्रकृति-सी सभ्यता-संस्कृति
परन्तु आकर विदेश से उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में
तुमने है बचाई तुम्हारी अनुपस्थिति में सदियों से
आग की चाह में अनवरत जलने वाले अकूत ईंधन
है ना !? ... यार माचिस ! .. बता ना जरा ...






Friday, January 24, 2020

काला पानी की काली स्याही

अम्मा की लोरियों वाले
बचपन के हमारे
चन्दा मामा दूर के  ...
जो पकाते थे पुए गुड़ के
यूँ तो सदा ही रहे वे पुए
ख्याली पुलाव जैसे ही बने हुए
बिल्कुल ख्याली ताउम्र हमारे लिए
थी कभी ..  इसी ख्याली पुए-सी
ख्याली हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
पर .. हमने पा ही तो ली थी
फिर भी हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी ..
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
दो साल .. पांच महीने और
ग्यारह दिनों के बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...

हाँ .. वही गणतंत्र .. जिसके उत्सव के 
हर्षोल्लास को दोहरी करती
मनाते हैं हम राष्ट्रीय-पर्व की छुट्टी
खाते भी हैं जलेबी और इमरती
पर .. टप्-टप् टपकती चाशनी में
इन गर्मा-गर्म जलेबियों और इमरतियों की
होती नहीं प्रतिबिम्बित कभी क्या आपको
उन शहीदों के टपकते लहू
उनके अपनों के ढलकते आँसू
यूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी
ना जाने कितने ही अनाम .. गुमनाम..
और नामी शहीदों के वीर शरीरों को
मशीनों में ज़ुल्मों की .. गन्ने जैसे पेरे गए ..
शहीद किए गए .. तन के संग उनके अपनों के
रस भरे रसीले सपनों को भी
बनी उसी से स्वाधीनता-संग्राम की
मीठी-सोंधी गुड़ की डली और ..
उसी डली से बनी तभी तो मीठे पुए-सी मीठी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
2 साल, 5 महीने और 11 दिनों बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...

असंख्य गुमनाम चीखें .. आहें ..
सिसकियाँ .. चित्कार भी ना जाने कितने
और इन्क़लाबी नारे भी शहीदों के
संग जले थे सपने भी कई उनके --
सयानी होती बेटियों को ब्याहने के सपने
सयाने होते बेटों के भविष्य के सपने
बेटे, भावी बहू, भावी पोते-पोतियों के सपने
बीमार अम्मा-बाबू जी के बुढ़ापे की
लाचारी को दूर करने के सपने
नवविवाहिता युवा पत्नी के वीरान दिनों
और सूनी रातों को गुलज़ार करने के सपने
प्रेयसी को किए गए रूमानी वादों को
अपनी बाँहों में भर कर पूरे करने के सपने ...
सब के सब .. जल गए .. सब राख हुए ..
और राख की धूसर कालिमा से
तैयार हुई साहिब ! .. काली स्याही ..
हाँ .. हाँ ...  काला पानी  की काली स्याही
जिस काली स्याही से साहिब !!! ..
लिखा गया हमारा संविधान
हाँ .. तभी तो .. मिला हमें
हमारा शान वाला गणतंत्र ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ..
हाँ .. हाँ .. हमारा गणतंत्र ...





Sunday, January 19, 2020

भाषा "स्पर्श" की ...

सिन्दूर मिले सफेद दूध-सी रंगत लिए  चेहरे
चाहिए तुम्हें जिन पर  मद भरी बादामी आंखें
सूतवा नाक .. हो तराशी हुई भौं ऊपर जिनके
कोमल रसीले होठ हों गुलाब की पंखुड़ी जैसे
परिभाषा सुन्दरता की तुम सब समझो साहिब
जन्मजात सूर हम केवल भाषा "स्पर्श" की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
अंतर मापदण्ड के सुन्दरता वाले सारे के सारे ...

हैं भगवा में दिखते सनातनी हिन्दू तुम्हें
बुत दिखता है, बुतपरस्ती भी, तभी तो
मोमिन और किसी को काफ़िर हो कहते
भेद कर इमारतों में मंदिर-मस्जिद हो कहते
रंगों का भेद तो तुम सब जानो साहिब !
हम तो बस केवल "नमी" कोहरे की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
रंगों के अंतर भला इंद्रधनुष के सारे के सारे ...



Friday, January 17, 2020

रक्त पिपासा ...

साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...
होती है जब बुराई पर अच्छाई की जीत की बात
चाहे राम का तीर हो रावण की नाभि के पार
अर्जुन का तीर अपने ही सगों के सीने के पार
कृष्ण के कहने पर हुआ हो सैकड़ों नरसंहार
काली की कल्पना की हमने .. माना तारणहार
पकड़ाया खड्ग-खप्पर और पहनाया नरमुंड-हार
ख़ुदा को प्यारी है क़ुर्बानी कह-कह कर
बहा रहे वर्षों से अनगिनत निरीह का रक्तधार
साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...

मसीहा बन ईसा ने जब चाहा बचाना बुरे को
चाहा मिटाना बुरे का केवल बुरा व्यवहार
रक्त पिपासा वाली भीड़ के हाथों सूली पर
चढ़ा कर हमने ही मारा था एक बेक़सूरवार
बातें जिसने चाही करनी अहिंसा की एक बार
ज़हर की प्याली पिला कर हमने उसे दिया मार
रक्त पिपासा को बना कर हम आदर्श हर बार
कहते रहे सदा- रक्त बहा कर ही होगी बुराई की हार
साहिब ! .. ऐसे में भला कब सोचते हैं हम कि...
रक्तपिपासु ही तो बनेगा निरन्तर अपना कर्णधार
साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...