Saturday, January 25, 2020

कर ली अग्नि चुटकी में ...

यार माचिस ! ..
"कर लो दुनिया मुट्ठी में "
अम्बानी जी के जोश भरे नारे से
एक कदम तुमने तो बढ़ कर आगे
कर ली अग्नि चुटकी में
पूजते आए हम सनातनी सदियों से
अग्नि देवता जिस को कह-कह के
यार! बता ना जरा .. मुझे भी
भेद अपने छोटे से कद के
करता है भला ये सब कैसे यहाँ
यार! बता ना जरा ...


यार माचिस ! ..
"ज़िन्दगी के साथ भी, ज़िन्दगी के बाद भी"
जीवन बीमा निगम के नारा को
करते हो चरितार्थ शत्-प्रतिशत तुम तो
मसलन ...
छट्ठी में काज़ल पराई के रस्म का जलाना दिया हो
या शादी में अग्नि के सात फेरे वाले हवन-कुण्ड
या फिर जीवन भर भोगे तन को लील जाने वाली
लपलपाती लौ की लपटों से भरी धधकती चिता
तुम तो बन ही जाते हो मेरे यार !.. इन सब के ही गवाह
ख़त कई गम भरा भी .. और संग कई ख़ुशी भरा
जैसे हो घर-घर बाँटता कोई डाकिया...

यार माचिस ! ..
अब देखो ना जरा !
तुम्हें भी तो होगा ही पता
कि .. काशी विश्वनाथ के मंदिर में
है जाना अंग्रेजों का निषेध
पर एक अंग्रेज के वैज्ञानिक खोज तुम
बिना बने ही घुसपैठिया
बिंदास कर जाते हो प्रवेश
जलाने के लिए आरती का दिया
हवन-कुण्ड और कई-कई अगरबत्तियां...

यार माचिस ! ..
याद आती है क्यों भला तुम्हें देख कर
एक खचाखच भीड़ भरी अदालत सदा
जहाँ आते हैं करने प्रेम-विवाह प्रेमी-युगल
और आते हैं लेने भी कई कानूनी तलाक़ .. होने जुदा
कई बलात्कारी और कई-कई मुज़रिम यहाँ
जैसे जलाते हो तुम जिस शिद्दत से
किसी मज़ार की अगरबत्तीयां .. गिरजे की मोमबत्तीयाँ
या किसी भगवान के किसी मंदिर का दिया
और .. उसी शिद्दत से तुम यार ! ...
साहब के या फिर किसी टपोरी के
सिगरेट को सुलगाते हो बनाने के लिए धुआं ...

यार माचिस ! ..
देखा है .. एक ही ब्राह्मण है लगवाता
शादी के मंडप में जिस किसी से सात फेरे
करानी पड़ती है कई दफ़ा परिस्थितिवश
श्राद्ध भी उसे ही .. उसी की
उस ब्राह्मण के तरह ही रहता है मौजूद
ख़ुशी की घड़ी हो या दुःख की हर घड़ी .. हर जगह तेरा वजूद
यूँ तो ... बचाई है कितनी .. ये तो हमें मालूम नहीं
ढपोरशंखों ने सदैव परिवर्तनशील प्रकृति-सी सभ्यता-संस्कृति
परन्तु आकर विदेश से उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में
तुमने है बचाई तुम्हारी अनुपस्थिति में सदियों से
आग की चाह में अनवरत जलने वाले अकूत ईंधन
है ना !? ... यार माचिस ! .. बता ना जरा ...






Friday, January 24, 2020

काला पानी की काली स्याही

अम्मा की लोरियों वाले
बचपन के हमारे
चन्दा मामा दूर के  ...
जो पकाते थे पुए गुड़ के
यूँ तो सदा ही रहे वे पुए
ख्याली पुलाव जैसे ही बने हुए
बिल्कुल ख्याली ताउम्र हमारे लिए
थी कभी ..  इसी ख्याली पुए-सी
ख्याली हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
पर .. हमने पा ही तो ली थी
फिर भी हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी ..
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
दो साल .. पांच महीने और
ग्यारह दिनों के बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...

हाँ .. वही गणतंत्र .. जिसके उत्सव के 
हर्षोल्लास को दोहरी करती
मनाते हैं हम राष्ट्रीय-पर्व की छुट्टी
खाते भी हैं जलेबी और इमरती
पर .. टप्-टप् टपकती चाशनी में
इन गर्मा-गर्म जलेबियों और इमरतियों की
होती नहीं प्रतिबिम्बित कभी क्या आपको
उन शहीदों के टपकते लहू
उनके अपनों के ढलकते आँसू
यूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी
ना जाने कितने ही अनाम .. गुमनाम..
और नामी शहीदों के वीर शरीरों को
मशीनों में ज़ुल्मों की .. गन्ने जैसे पेरे गए ..
शहीद किए गए .. तन के संग उनके अपनों के
रस भरे रसीले सपनों को भी
बनी उसी से स्वाधीनता-संग्राम की
मीठी-सोंधी गुड़ की डली और ..
उसी डली से बनी तभी तो मीठे पुए-सी मीठी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
2 साल, 5 महीने और 11 दिनों बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...

असंख्य गुमनाम चीखें .. आहें ..
सिसकियाँ .. चित्कार भी ना जाने कितने
और इन्क़लाबी नारे भी शहीदों के
संग जले थे सपने भी कई उनके --
सयानी होती बेटियों को ब्याहने के सपने
सयाने होते बेटों के भविष्य के सपने
बेटे, भावी बहू, भावी पोते-पोतियों के सपने
बीमार अम्मा-बाबू जी के बुढ़ापे की
लाचारी को दूर करने के सपने
नवविवाहिता युवा पत्नी के वीरान दिनों
और सूनी रातों को गुलज़ार करने के सपने
प्रेयसी को किए गए रूमानी वादों को
अपनी बाँहों में भर कर पूरे करने के सपने ...
सब के सब .. जल गए .. सब राख हुए ..
और राख की धूसर कालिमा से
तैयार हुई साहिब ! .. काली स्याही ..
हाँ .. हाँ ...  काला पानी  की काली स्याही
जिस काली स्याही से साहिब !!! ..
लिखा गया हमारा संविधान
हाँ .. तभी तो .. मिला हमें
हमारा शान वाला गणतंत्र ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ..
हाँ .. हाँ .. हमारा गणतंत्र ...





Sunday, January 19, 2020

भाषा "स्पर्श" की ...

सिन्दूर मिले सफेद दूध-सी रंगत लिए  चेहरे
चाहिए तुम्हें जिन पर  मद भरी बादामी आंखें
सूतवा नाक .. हो तराशी हुई भौं ऊपर जिनके
कोमल रसीले होठ हों गुलाब की पंखुड़ी जैसे
परिभाषा सुन्दरता की तुम सब समझो साहिब
जन्मजात सूर हम केवल भाषा "स्पर्श" की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
अंतर मापदण्ड के सुन्दरता वाले सारे के सारे ...

हैं भगवा में दिखते सनातनी हिन्दू तुम्हें
बुत दिखता है, बुतपरस्ती भी, तभी तो
मोमिन और किसी को काफ़िर हो कहते
भेद कर इमारतों में मंदिर-मस्जिद हो कहते
रंगों का भेद तो तुम सब जानो साहिब !
हम तो बस केवल "नमी" कोहरे की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
रंगों के अंतर भला इंद्रधनुष के सारे के सारे ...



Friday, January 17, 2020

रक्त पिपासा ...

साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...
होती है जब बुराई पर अच्छाई की जीत की बात
चाहे राम का तीर हो रावण की नाभि के पार
अर्जुन का तीर अपने ही सगों के सीने के पार
कृष्ण के कहने पर हुआ हो सैकड़ों नरसंहार
काली की कल्पना की हमने .. माना तारणहार
पकड़ाया खड्ग-खप्पर और पहनाया नरमुंड-हार
ख़ुदा को प्यारी है क़ुर्बानी कह-कह कर
बहा रहे वर्षों से अनगिनत निरीह का रक्तधार
साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...

मसीहा बन ईसा ने जब चाहा बचाना बुरे को
चाहा मिटाना बुरे का केवल बुरा व्यवहार
रक्त पिपासा वाली भीड़ के हाथों सूली पर
चढ़ा कर हमने ही मारा था एक बेक़सूरवार
बातें जिसने चाही करनी अहिंसा की एक बार
ज़हर की प्याली पिला कर हमने उसे दिया मार
रक्त पिपासा को बना कर हम आदर्श हर बार
कहते रहे सदा- रक्त बहा कर ही होगी बुराई की हार
साहिब ! .. ऐसे में भला कब सोचते हैं हम कि...
रक्तपिपासु ही तो बनेगा निरन्तर अपना कर्णधार
साहिब ! .. महिमामंडित करते हैं मिल कर
रक्त पिपासा को ही तो हम सभी बारम्बार ...

Monday, January 13, 2020

निगहबान मांझा ... - चन्द पंक्तियाँ - (२१) - बस यूँ ही ...

(१)*

ठिकाना पाया इस दरवेश ने
तुम्हारे ख़्यालों के परिवेश में ...

(२)*

माना ..
घने कोहरे हैं
फासले के बहुत
दरमियां हमारे-तुम्हारे ...

है पर ..
रोशनी हर पल
'लैंप-पोस्ट' की
एहसास के तुम्हारे ...

(३)*

जब .. जहाँ हो जाऊँ
कभी भी मौन सनम!
हो जाना मत
चुप तुम भी ...
कर देना आरम्भ
उस पल ही
कुछ तुम ही बोलना ...

बस यूँ ही
पल भर भी
थमे नहीं
ताउम्र कभी भी ...
हमारे मन में प्यार की
सुरीली अंत्याक्षरी का
मधुर सुरीला सिलसिला ...

(४)*

नीले ..
खुले ..
आसमान में
दिख जाते हैं
जब कभी
उड़ते ..
रंग-बिरंगे ..
दो पतंग
इठलाते ..
गले मिलते ..
अक़्सर ...

अनायास
आते हैं
तब
याद
कुछ सगे ..
कुछ अपने ..
मिले थे
जो गले
कभी
मेरे
बनकर ...

(५)*

आस के आकाश में
संग कच्चे-धागे मन के
पतंग तुम्हारे स्वप्न के
उड़ते अविराम बारहा ...

साथ पल-पल तुम्हारे
अनवरत लिपटा रहूँ मैं
तेरे मन के कच्चे-धागे से
बना निगहबान मांझा ...


Sunday, January 12, 2020

चोट ...

निकला करती थी टोलियां बचपन में जब कभी भी
हँसती, खेलती, अठखेलियां करती सहपाठियों की
सुनकर चपरासी की बजाई गई छुट्टियों की घंटी
हो जाया करता था मैं उदास और मायूस तब भी
देखता था जब-जब ताबड़तोड़ चोट करती हुई
टंगी घंटी पर चपरासी की मुट्ठी में कसी हथौड़ी ...

पता कहाँ था तब मेरे व्यथित मन को कि ...
जीवन में कई चोट है लगनी निज मन को ही
मिलने वाली कई-कई बार अपनों और सगों की
इस घंटी पर पड़ रहे चोट से भी ज्यादा गहरी
हाँ .. चोटें तो खाई अनेकों कई बार यूँ हम ने भी
पर परोसी रचनाएँ हर बार नई चोटिल होकर ही ...

क्यों कि सारी चोटें चोटिल कर ही जाएं हर को
ऐसा हो ही हर बार यहाँ होना जरुरी तो नहीं
कई बार गढ़ जाती हैं यही चोटें मूर्तियां कई
तबले हो या ढोल .. ड्रम, डफली या हो डमरू
हो जाते हैं लयबद्ध पड़ते ही चोट थाप की
चोट पड़ते ही तारें छेड़ने लगती हैं राग-रागिनी ...

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Wednesday, January 8, 2020

एक्स और वाई ...

सुबह-सुबह अपने ओसारे में फैली चारपाई पर उदास बैठे रामखेलावन को खैनी मलते हुए देखकर घर के सामने के रास्ते से गुजरता हुआ उसका बचपन का लंगोटिया यार सिंगेसर उसी के बगल में बैठते हुए पूछ बैठा -

" क्या रामखेलावन , इतना उदास क्यों बैठे हो ? आयँ !? "

" क्या बोलें सिंगेसर, इस बार तीसरी बार भी बड़की बहू को बेटी ही उत्पन्न हुई है। अब मेरा वंश-बेल कैसे बढ़ेगा भला ? बोलो ना भाई !  कैसे मोक्ष मिलेगा बेटा को ? कौन देगा मरने पर मुँह में आग उसको ? यही सब सोच-सोच के परेशान हैं ... और क्या !! "

तभी घर से बाहर खेत पर जाते वक्त रामखेलावन का बेटा रामसुन्दर अपनी पत्नी की बेमतलब की आलोचना से तिलमिला कर टपक पड़ा दो बड़ों के बीच में -

" बाबू जी , इसमें उसका (बहू का)  क्या दोष है ? अब हम कैसे आपको समझाएं .. 'एक्स' और 'वाई' अनुसूत्र ( क्रोमोसोम ) के बारे में ... "

" चुप ! बेवकूफ़ ! चार अक्षर पढ़ लिए हो तो हमको सिखाने लगे हो ! है ना ? "

फिर सिंगेसर के तरफ मुँह करके -

" सुन रहे हो ना सिंगेसर, अब ये चार दिन का लड़का, हमारा औलाद ही .. जिसको हम पढ़ाए क,ख,ग,घ और ए, बी, सी, डी .. वही हमको सिखाएगा अब तो .. एक्स और वाई .. "

फिर बेटा की ओर -

" धत् ! बेवकूफ़ ...  पता नहीं .. क्या-क्या बकता रहता है .. जाओ , जाकर अपना काम करो .. तुम्हारा भला-बुरा सोचना हम बड़े-बुजुर्गों का काम है। जाओ यहाँ से ..  !! "

अपने दुःखी मित्र का पक्ष लेते हुए सिंगेचर भी रामसुन्दर को लगभग चुप कराते हुए बोल पड़ा -

" जाओ रामसुन्दर बेटा .. खेत जाओ, अपना काम करो, देर हो जायेगी। दो बड़े-बुजुर्ग की बातों को नहीं काटनी चाहिए। हमलोग बड़े हैं तो हमलोगों से ज्यादा ज्ञान तो नहीं ही ना होगा तुमको !? बोलो ! और ... हमलोग तुम्हारे दुश्मन नहीं ही ना हैं बेटा ! सब बुरा-भला तुम से बेहतर समझते हैं। है ना!? "

" अब आप लोगों को कैसे समझाएं चाचा कि लड़का और लड़की के पैदा होने के लिए मर्द ही जिम्मेवार है , ना कि औरत ..। "

अंत में रामखेलावन सिंगेसर को चुप कराते हुए -
" जाने दो सिंगेसर इसको, मुँह मत लगाओ इस गँवार से। इसका दिमाग फिर गया है। दिन-रात अंटशंट बकते रहता है। "

फिर बेटा से - " ठीक है बाबू जाओ अब। तुम ढेर होशियार हो गए हो और हमसब बुड़बक ही हैं। "

रामसुन्दर पैर पटकता खेत की ओर चला गया। तब रामखेलावन ने अपने मित्र से बुदबुदाते हुए एक कहावत बोल कर अपनी समझ पर सांत्वना की मुहर लगायी -

" अंधे के आगे रोना और अपने दीदे खोना ! "

और दोनों मित्र अपनी बुद्धिमता पर गौरान्वित महसूस कर खुश हो कर एक दुसरे का मुँह देख कर मुस्कुराते हुए अब तक तैयार हो चुकी खैनी अपनी-अपनी चुटकी में लेकर अपने-अपने निचले होठों में दबा रहे थे।●


{ N.B. - एक्स (♀) और वाई (♂) गुणसूत्र = X and Y Chromosome. जिन पाठक/पाठिकाओं/साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों को इसकी जानकारी नहीं हो, उन से करबद्ध निवेदन है कि कृपया  लैरी पेज (अमेरिकी) और सेर्गेई ब्रिन (रुसी) की उपयोगी खोज - Google बाबा की सहायता से इसे अवश्य समझें/जानें। -सादर }


【 ◆विशेष◆ - मौलिकता का एहसास होने के लिए शुरू में " एक्स और वाई " को मूलतः मगही भाषा में संक्षिप्त रूप में लिखा था। बाद में उपर्युक्त रूप में हिन्दी में विस्तार दिया।

उसका गँवई मगही संक्षिप्त रूप :-

"का हो रामखेलावन , एतना उदास काहे बइठल हो "
"का कहें हो सिंगेसर, इहो तीसरको बार पुतोहिया के बेटीए होलइ हे। कइसे बंस चलतइ  .... बुझाइए ना रहलइ हे।"

"बाबू जी, एकरा में ओकर का दोस हई। अब हम तोरा कइसे समझाउअ .... एक्स आउर बाई अनुसूत्र के बारे में"

"चुप  ! बुड़बक । चार अक्छर पढ़ लेले हें तअ हमरा सिखावे लगले हें।...
देख रहली हे ना सिंगेसर, अब इ चार दिन के लौंडा हमनी सभे के सिखैतई .... का तो। एक्स  ... आ .... बाई ... धुत् ! बकलोल तहीने ..." •】