Wednesday, August 28, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१२) - बस यूँ ही ...

(१)* कपूर-बट्टियाँ

यथार्थ की पूजन-तश्तरी में
पड़ी कई टुकड़ों में बँटी
धवल .. निश्चल ..
निःस्पन्दित .. बेबस ..
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियाँ

अनायास भावनाओं की
बहती बयार संग बहती हुई
तुम्हारे मन की कपूरी-सुगन्ध
पल-पल .. निर्बाध .. निर्विध्न ..
घुलती रहती है हर पल ..
निर्विरोध .. निरन्तर ..
मेरे मन की साँसों तक

हो अनवरत सिलसिले जैसे
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियों के
मन की कपूरी-सुगन्ध में
होकर तिल-तिल तब्दील
मेरे मन की साँसों में घुल कर
सम्पूर्ण विलीन हो जाने तक ...

(2)*अक़्सर परिंदे-सी

हर पल ...
मेरे सोचों में
सजी तुम
उतर ही आती हो
अक़्सर परिंदे-सी
पर पसारे
मेरे मन के
रोशनदान से
मेरे कमरे के
उपेक्षित पड़े मेज़ पर
बिखरे कागज़ों पर

और ...
लोग हैं कि ..
बस यूँ ही ...
उलझ जाते हैं
कविताओं के
भाव और बिम्ब में

और तुम ...!!
सच-सच बतलाओ ना !
तुम्हें तो इस बात का
एहसास  है ना !??? ...



Saturday, August 24, 2019

दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला ...

समान है दोनों में शिला
पर एक सफ़ेद क़ीमती
मकराना की शिला
तो दूसरी गहलौर के
पहाड़ की काली शिला

समान हैं दोनों में बाईस वर्ष
पर एक में जुड़वाता
बीस हज़ार मज़दूरों से
सम्पन्न बादशाह शाहजहाँ और
दूसरे में तोड़ता एक अकेले
अपने दम पर विपन्न मज़दूर
दिहाड़ी वाला दशरथ माँझी

एक अपनी कई बेगमों में
एक बेगम - मुमताज़ महल की
लम्बी बीमारी के दौरान किए
अपने वादे के लिए
उसके मरने के बाद
बनवाया यादगार .. नायाब और
सात अजूबों में एक अजूबा
मक़बरा ताजमहल जुड़वा कर शिला
जिसे निहारते पर्यटक रोज-रोज
देकर एक तय शुल्क देने के बाद

दूसरा अपनी इकलौती पत्नी
साधारण-सी फ़ाल्गुनी देवी के
पहाड़ के दर्रे से गिरकर मरणोपरान्त
स्वयं से किया एक 'ढीठ' वादे के साथ
अपनी छेनी-हथौड़े के बूते ही रच डाली
दो प्रखण्डों के बीच दूरी कम करती
एक निःशुल्क सुगम राह सभी
ख़ास से लेकर आमजनों के लिए

दो-दो प्रेम-प्रदर्शन ...दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला
एक में जुड़ती शिला ... तो एक में टूटती शिला
एक सम्पन्न बादशाह तो एक विपन्न मजदूर ...
शिला जुड़वाता बादशाह तो तोड़ता मज़दूर
दोनों ही अपनी-अपनी चहेती के मरणोपरान्त
क्यों मुझे लग रहा बादशाह होता हर तरह से
एक अदना मज़दूर के प्रेम-प्रदर्शन से परास्त !?




Friday, August 23, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (११) - बस यूँ ही ...

(1)@

गाहे- बगाहे गले
मिल ही जाते हैं
साफिया की
अम्मी के
बावर्चीखाने से
बहकी ज़ाफ़रानी
जर्दा पुलाव की
भीनी ख़ुश्बू और .....
सिद्धार्थ के अम्मा के
चौके से
फैली चहुँओर
धनिया-पंजीरी की
सोंधी-सोंधी सुगन्ध ...

काश !!! मिल पाते
साफिया और
सिद्धार्थ भी
इन ख़ुश्बू और
सुगन्ध की तरह
धर्म-मज़हब से परे
गाहे-बगाहे...

(2)@

हरसिंगार के
शाखों पर
झाँकते
नारंगी-श्वेत
फूल के
स्वतन्त्र सुगंध सरीखे
चहकती तो हो
हर रोज़ कहीं दूर ....
आँखों से ओझल ...

पर... महका जाती हो
मेरी शुष्क साँसों को ...
और सहला जाती हो
अपने मौन मन से
मेरे मुखर मन को
चुपके से, हौले से
बिना शोर किए ....

(3)@

साहिब !
आपका अपनी
महफ़िल को
तारों से
सजाने का
शौक़ तो यूँ
लाज़िमी है ...
आप चाँद
जो ठहरे

हम एक
अदना-सा
बन्जारा ही
तो हैं ...
एक अदद
जुगनू भर से
अपनी शाम
सजा लेते हैं ...


Thursday, August 22, 2019

देहदान - ( कहानी ).


इसी कहानी " देहदान" का एक अंश :-
◆【लगभग ठहाका लगाते हुए अनूप ने नुपूर के दोनों कंधे को प्यार से पकड़ कर - " जो सबसे दिलचस्प है। ये तुम्हारा कंकाल भी तो मेडिकल की पढ़ाई के काम आ जाएगा। और सोचो ना .. जरा ... कितना रोमांचक और रूमानी होगा वह पल जब युवा-युवती लड़के-लड़कियाँ यानि भावी डॉक्टर- डॉक्टरनी का नर्म स्पर्श मिलेगा इन हड्डियों को। है ना नुप्पू !? तुम्हे जलन होगी ना ? वही सौतन-डाह !? "】◆
अब पूरी कहानी ... बस आपके लिए .... ●"देहदान"●.....

●देहदान●
-----/-----
" अनूप का बेटा तो अमेरिका में रहता है ना !? " अनूप के घर सुबह-सुबह इक्कट्ठी भीड़ से अलग ले जाकर उसके मकान- मालिक अपनी धर्मपत्नी से पूछ रहे थे।" उसके अमेरिका से आने के बाद ही तो दाह-संस्कार होगा ना !? "
यह पूछ कर वह जानकारी लेना और साथ ही तसल्ली भी करना चाह रहे थे कि शव-यात्रा में जाने के लिए उन्हें कब समय देना होगा। आज कल अपने व्यस्त समाज में समय की ही तो कमी है। आज पड़ोसी अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानता। ऐसा बड़े शहरों की फ्लैट,अपार्टमेंट वाली संस्कृति के लिए सुना है। हाँ ... बाहर नाम की मँहगी तख़्ती लगी हो तो बात अलग है।
दरअसल अभी सुबह साढ़े सात बजे के लगभग सुबह का सैर कर के आने के बाद अनूप , जो लगभग पैंसठ वर्ष के होंगे और पटना सिटी के इस मकान में यहीं एक निजी संस्थान में नौकरी करने के कारण लगभग पंद्रह सालों से अपनी धर्मपत्नी नुपूर के साथ रह रहे थे, कलेजे में बस अचानक दर्द उठा और ... जब तक कोई कुछ समझता , ना चाहते हुए भी जैसे सब कुछ थम-सी गई - साँसें, धड़कन, रक्त-प्रवाह ... और देखते-देखते चलते-फिरते अनूप अपनी लगभग बासठ वर्षीया व छत्तीस साल पहले ब्याही गई धर्मपत्नी की आँखों के सामने एक मृत शरीर मात्र रह गए हैं।
इस किराए के मकान में तीन तल्ले हैं - ज़मीनी तल पर बाज़ार है - मसलन सैलून, बर्त्तन के दुकान, स्टूडियो, एटीएम, उपडाकघर, टेन्ट वाले की दुकान हैं। पहली मंजिल पर दो फ्लैट, दूसरी पर दो और सबसे ऊपर तीसरी मंजिल पर बाक़ी नीचे के दोनों मंज़िल वाले दो-दो फ्लैट के क्षेत्रफल में एक फ़्लैट है, जिनमें उनके मकान-मालिक स्वयं वे और उनकी धर्मपत्नी रहती हैं। उनके तीनों बच्चे बाहर नौकरी करते हैं। पहली मंजिल के दो में से एक फ़्लैट में रहने वाले किराएदार किसी सरकारी अस्पताल के डॉक्टर साहब ने अभी-अभी सारे उचित परीक्षण के बाद अनूप को मृत घोषित कर दिया था। अनूप जो दूसरी मंजिल के दो में से एक फ्लैट में रह रहे थे।
पूरे घर में सुबह के धूप की तरह सन्नाटा पसरा था। नूपुर बस एकटक बकबक करने वाले अपने दिवंगत पति को ... जो अब हमेशा के लिए ख़ामोश हो चुके थे उनको बड़ी ख़ामोशी और उदासी से देख रही थी।
हालाँकि मकान-मालिक ने बहुत धीमी आवाज़ में अपनी पत्नी से सवाल पूछा था, पर पसरे सन्नाटे के कारण नूपुर ने अपने बेटे की अमेरिका से आने वाली बात सुन ली थी।
उनका एकलौता बेटा - सिद्धार्थ । जो अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ पिछले आठ वर्षों से अमेरिका में रह रहा हैं। वापस आने के नाम पर कोई ना कोई बहाना कर के टाल देता है।
अनूप हमेशा नुपूर को तसल्ली देने के लिए समझाया करते थे - " नूप्पू ! , वे प्यार से इसी नाम से बुलाते थे.. जैसा कि हमारे आस-पास लोग बहुत प्यार या लाड़ से या तो अपने सुविधानुसार नाम का संक्षिप्त रूप बुलाते हैं या फिर नाम के आगे 'व', 'आ' या 'या' लगाते हैं , ... नूप्पू ! गौरैये के बच्चे उड़ने लायक पंख हो जाने पर हमेशा अपना घोंसला अलग बनाते-बसाते हैं। उसी तरह उन्हें भी अपनी आज़ाद ज़िन्दगी जीने देनी चाहिए। अपने बच्चों पर बोझ नहीं बनना चाहिए।
एक निजी संस्थान में साधारण सी नौकरी कर के बैंक से शिक्षा-ऋण लिए बिना या फिर किसी जान-पहचान या नाते-रिश्तेदार के सामने हाथ फैलाए बिना ही अनूप ने अपने एकलौते बेटे - सिद्धार्थ की आई. आई. टी. की पढ़ाई पूरी करवाई थी। इसे वे अपने जीवन की इकलौती और सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे। उसकी पढ़ाई में कई छोटे-छोटे समय-समय पर सुविधानुसार जमा की गई एफ. डी. और आर. डी. , कुछ समय से , कुछ जरुरत पड़ने पर समय से पहले तोड़ दी गई थी। इसी पढ़ाई और अन्य कुछ आवश्यक खर्चों या समाज में अपनी हैसियत को बरकरार रखने या घर में सुविधा के ख़्याल से कुछ भौतिक सुख-सुविधा के आधुनिक उपकरण वह भी किस्तों पर खरीदने के कारण अपने बुढ़ापे या अचानक से बिना दस्तक दिये आकस्मिक किसी बड़ी बीमारी के लिए कुछ भी जमा नहीं किया था।
देखते-देखते सिद्धार्थ इतना बड़ा हो गया। चार साल की पढ़ाई में होने वाले आठ सेमेस्टर के दौरान अंतिम वर्ष आई.आई. टी. कैंपस से ही एक बहुराष्ट्रीय अमेरिकी बैंक में डाटा-एनालिस्ट के पद पर अच्छे पगार के लिए चयन हो गया था। परन्तु अति महत्वाकांक्षी होने के कारण वह अमेरिका की किसी अच्छी यूनिवर्सिटी से एम. एस. करना चाहता था। उसके लिए लगभग पचास लाख रूपये चाहिए थे। पर अनूप के जीते जी उसकी कमाई से सिद्धार्थ की आगे की पढ़ाई के लिए इतनी बड़ी रक़म, आर्थिक सहयोग कर पाना असम्भव ही नहीं नामुमकिन था। किन्तु सिद्धार्थ बचपन से ज़िद्दी किस्म का प्राणी था। जो ठान लेता था, वह कर के ही दम लेता था। हाँ ... उसने कभी बुरी बातों को नहीं ठाना था। इसलिए उसने अपने भविष्य की योजना ... अपने सुनहरे भविष्य की योजना मन ही मन बना ली थी। वह दो सालों तक मिली अपनी पहली नौकरी कर के लगभग पच्चीस लाख जमा किया और बाकी बैंक से उच्च शिक्षा-ऋण लेकर अमेरिका चला गया। वहाँ दो सालों की एम. एस. की पढ़ाई पूरी कर के वही की एक अच्छी कम्पनी में नौकरी करने लगा। उसे वहाँ की जीवन-शैली पसंद आ गयी इसलिए वही प्रेम-विवाह कर के वहाँ की नागरिकता ले ली। घर-परिवार बसा लिया। दो बच्चे हुए - बड़ी बेटी निक्की और उससे छोटा बेटा नूक । वहाँ से गाहे-बगाहे वीडियो कॉल कर के समय-समय पर सारी बातों से अवगत कराता रहता था। वीडियो कॉल पर ही उसने और उसकी प्रेम-विवाह वाली नवविवाहिता - लिली - दोनों ने चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद लिए थे।
एक बार मज़ाक- मज़ाक में ही चुप करा दिया था अपने पापा को। जब पापा यानि अनूप ने कहे थे .. बस यूँ ही प्यार से - " बेटा ! पूरी ज़िन्दगी की कमाई तुम्हारी पढ़ाई में लगी है ... आईआईटीयन बनने तक ... लगभग बारह से चौदह लाख। " तब सिद्धार्थ का उत्तर था - " अच्छा -अच्छा शुरू के मेरे एक-डेढ़ साल तक हर माह पचहत्तर हजार-एक लाख के दर से आप ले लीजिएगा। पूरा वसूल हो जाएगा।" हालांकि सिद्धार्थ ने ये बात हल्के में कही थी, अनूप के मन को भारी कर गया था। गहरे तक हृदय में धंस गई थी। मन ही मन बुदबुदाए थे - " हजारों वाले पगार से लाख बनाना और लाखों वाले पगार से लाख निकालना , दोनों में प्रतिशत का अंतर है ना !? किसने अपने जीवन का कितना प्रतिशत दिया , यूँ है तो ये सोचने वाली बात। पर सोचता कौन है भला !? "
पहली नौकरी के बाद , वह भी देश के सपनों की नगरी कही जाने वाली मुम्बई में, नुपूर की आँखों में एक आईआईटीयन और लाखों में पगार पाने वाले की मम्मी होने के नाते कई सारे जगे हुए सपने पलने लगे थे। मुम्बई घूमने के सपने, मुम्बई में अपने बेटे के अपने फ्लैट के सपने, कुछ वर्षों बाद बहू के आने के सपने, फिर पोते-पोतियों के सपने , उन्हें अपनी फैलाई टांगों पर लेटा कर तेल मालिश करने के सपने, मुम्बई की किसी पॉश इलाके के पार्क में पोते-पोतियों की नन्ही उंगली थामे घूमाने के सपनें, ऐसे अनगिनत सपनों में वह फिर से सिद्धार्थ का बचपन अपने स्वयं का बचपन भी साथ-साथ जी लेना चाहती थी।
पर जब सपने समय के साथ पूरे नहीं होते और अधूरे रह जाते हैं तो आँखों में पलने वाले वही सपने समय के साथ-साथ बुढ़ाने लगते हैं। बुढ़ापे में चेहरे पर पड़ने वाली अनचाही झुर्रियों की तरह झुर्रिदार हो जाती हैं।सपनों के चेहरे ही क्यों पूरी की पूरी त्वचा झुर्रीदार हो जाती है और चेहरे , त्वचा ही क्यों इनके साथ -साथ हड्डियाँ भी झुर्रियाने लगती हैं।ये हड्डियों की झुर्रियाँ दिखती तो बेशक़ नहीं, पर ये हड्डियों की झुर्रियाँ ही हैं जो बुढ़ापे में कई लोगों की कमर टेढ़ी कर देती है।
सपने भी झुर्रियों में टेढ़े हो कर उन्हीं आँखों में ... जिनमें पलते-बढ़ते हैं, समय के साथ चुभने लगते हैं।
पर एक माँ का हृदय इन सब के बावजूद टकटकी लगाए रहता है कि शायद ....!!!। इसी शायद और काश ! पर टिक जाती है इस तरह की कई सारी टकटकियाँ । पर सिद्धार्थ तो जैसे अमेरिका का ही हो कर रह गया। भूल ही गया अपने मम्मी-पापा को।भविष्य के चकाचौंध में इनकी यादें धूमिल होने लगी।वैसे तो अनूप के पापा का बनवाया हुआ काफी बड़ा मकान धनबाद में है। पर नौकरी के कारण यहाँ पटना सिटी में किराए के मकान में रहना होता है।अब आदमी जहाँ कहीं भी पन्द्रह सालों तक रह लेता है तो वहीं रिश्ते पनप जाते हैं। घरेलू भाषा में कहते हैं ना कि ' नेवता-पेहानी ' चलने लगता है। अच्छे-बुरे मौके पर रिश्तेदारों के पहले तो पड़ोसी लोग ही आते हैं। तो इस बुरे मौके पर अनूप के घर आज सुबह-सुबह मुहल्लेवालों की भीड़ लगी है।

अनूप तो "मौन" हो ही चुके हैं, नूपुर भी ख़ामोश है, उदास है। यूँ तो अंदर से उसका मन दहाड़-दहाड़ कर , बुक्का फाड़ कर ,भोंकार पार कर रोने का कर रहा है। पर बार-बार उसे अनूप के करवाए गए वादे रोने से रोक दे रहे हैं। अनूप अक़्सर अच्छे या यूँ कहें कि रूमानी मूड में 'अमर-प्रेम' के नायक 'राजेश खन्ना' के अंदाज़ में गर्दन के पिछले हिस्से में रुमाल की जगह गमछा ही दोनों हाथों से दायें-बाएं हिलाहिला कर कहते थे -"पुष्पा ! आई हेट टीयर्स " और ठठ्ठा कर हँसते और नूपुर के गाल में प्यार से चिकोटी काटते हुए कहते - " नूप्पू ! मौत एक सच्चाई है। किसी भी बिकने वाले सामान में लगे हुए प्राइस-टैग की तरह हमारे-तुम्हारे जन्म के साथ ही लग कर आती है।इसका ज़श्न मनाना चाहिए , ना कि मातम। देखना, एक दिन तुम्हारी आखिरी सौतन यानि मौत तुमसे तुम्हारे सामने ही मुझे छीन कर ले जायेगी और तुम मुँह देखती रह जाओगी। पर प्लीज यार ! मेरे मरने के बाद रोना मत ... तुमको मेरे प्यार की कसम। यह बोलते-बोलते, कोई भी हो सामने , नूपुर को बाँहों में भर लेते। अगर अन्य कोई होता तो वह शरमाती और झेंपने लगती। बाँहों से अलग होने की कोशिश करती, पर ये सब अच्छा तो उसे भी लगता था। अनूप - " लग लो गले जी भर कर ... कौन जाने बाँहों की कौन सी कसाव आखिरी हो। पर तुम मेरे मरने के बाद रोना मत। वर्ना मैं भी रोने लग जाऊँगा। याद है .. तुम्हारी विदाई के वक्त तुम्हें रोता देखकर मैं भी रोने लगा  था। क्या करूँ मेरी तो पत्रिका में कहानी पढ़ते हुए, फ़िल्म देखते हुए इमोशनल टॉपिक आने पर रोने की आदत है ना। उस वक्त तुम्हारे मायके वाले मुझे रोता देखकर , वे लोग अपना रोना भूल कर हँस पड़े थे। स्थानीय भाषा में ये बोलते हुए कि - "अरे-अरे नूपुरवा के साथे-साथे मेहमानो रोइत हथिन रे... एकदमे मौगा हथिन का रे !? "
"अब बतलाओ ना जरा ... पुरुषों को रोने का हक़ नहीं है क्या !? ये रोना केवल स्त्रियों की बपौती तो नहीं। पुरुष भी तो संवेदनशील होते हैं ना , कि नहीं !? इंसान जब दुःख या संवेदना की घड़ी में आँसू अंदर ही अंदर रोकने या सोखने की कोशिश करता है ना ... तो आँसू गाढ़े हो कर भीतर ही भीतर तेज़ाबी हो जाते हैं। फिर ये तेज़ाब आँखों को लाल कर देता है। आँखें फिर इन आँसू में जलने लगती है। नुपूर की आँखें इस वक्त बेतहाशा जल रही थी।
जुटी हुई भीड़ से कई तरह की बातें निकल कर आ रही थीं। आम आदमी - आम सोच। करेंगें इस्तेमाल विज्ञान के बनाए गए - एल ई डी, फ़्रिज़, वाशिंग मशीन, मोबाइल, टी वी, लैपटॉप, आर ओ, बाईक, कार इत्यादि ... वगैरह, वगैरह, पर ... ऐसे मौकों पर सनातन धर्म का आडम्बर करेंगें। एक तरफ कंडे के कलम से कम्प्यूटर तक और धोती से जींस तक आ गए बदलाव लाकर अपनी सुविधा के मुताबिक़, परन्तु ऐसे मौकों पर ....!? .... पाखण्डी कहीं के। कई तरह की बातें नुपूर के कानों तक पहुँच रही थीं -
" एक ही बेटा है, वह भी विदेश में।सुना है अमेरिका में है। लगता है वह भी नहीं आएगा। पिछले आठ सालों से तो नहीं आया कभी। "
" बेटा मुखाग्नि नहीं देगा तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी भाई !? "
" ये कलयुग है भईया ! "
" तब तो दाह-संस्कार जल्दी ही हो जाएगा लगता है। "
" ना, ना , धनबाद से तो जो रिश्तेदार लोग है, वो सब लोग तो आएगा ही ना भाई ! आने में समय तो लगेगा ही ना । "
अभी सब अटकलें लगा ही रहे थे कि एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ सड़क पर दूर से आते हुए बाहर जमीनी तल के मुख्य-द्वार के पास आकर शांत हो गई। सबने ऊपर से ही बालकॉनी से झाँक कर देखा कि एक एम्बुलेंस सच में खड़ी है। पर इस पर तो ... " दधीचि देहदान समिति, खाजपुरा, बेली रोड, पटना - 800014 (बिहार) " ... सभी अचम्भित थे।
तभी शोकाकुल नुपूर ने सभी की चुप्पी तोड़ते हुए एकत्रित भीड़ की कौतुहल शांत करते हुए बतलाया कि - " इन्होंने जीवन में ही अपने देहदान का फॉर्म कर इस संस्थान को अपना सम्पूर्ण मृत(मरने पर)- शरीर दान कर दिया था। मैंने सुबह ही उनके नंबर पर फोन कर दिया था। क्योंकि मारने के चार-पाँच घंटे के भीतर ही काम लायक अंगों को निकाल कर किसी और के काम ला सकते हैं। वही लोग इन्हें ले जाने के लिए आये हैं।"
फिर से खुसुर-फुसुर कानाफूसी चालू हो गया । आम आदमी - आम सोच -
" ये देहदान क्या बला है भाई !? "
" देहदान में तो देह का ' गिंजन' हो जाता है। सुना है बड़ी बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं। आँख - उख सब निकाल लेते हैं। अंग-अंग चीर-फाड़ के निकाल लेते हैं। "
" वैसे भी ये नास्तिक आदमी था। जीवन भर ऊटपटाँग बातें ही करता था। जब देखो उल्टा -पुल्टा बकते रहता था पूजा-पाठ और समाज के विरुद्ध । "
" ये तो सनातन हिन्दू धर्म का अपमान है। "
" इसलिए तो हिन्दू धर्म खतरे में है। "
" अब दाह-संस्कार नहीं होगा, तब तो 'भोजो- भात' (ब्राह्मण - भोज) नहीं ही होगा भाई ! "
धीरे-धीरे लोग छंटने लगे। कारण - दाह-संस्कार जैसे तथाकथित पुनीत कार्य में शामिल होकर उन्हें मानवता और पड़ोसी-धर्म का परिचय देने के मौके से वंचित जो रहना पड़ जा रहा था।कभी - कभी तो ये मौका आता है। नहीं तो इन्हें सालों भर 'जानवर' बनने से कौन रोक पाता है भला !?
देहदान समिति वाले दूसरी मंज़िल तक अब तक आ चुके थे। नुपूर आखिरी बार अपने सुहाग अनूप के साथ पैंतालीस साल जिये हुए जीवन को पैंतालीस सेकेण्ड में जी लेना चाहती थी। हमेशा बकबक बकैती करने वाला आदमी चुप अच्छा नहीं लगता। ऐसा ही अभी अनूप के साथ भी था।नुपूर उस 'रिंग-सेरेमनी' की शाम के पहले स्पर्श से आज तक के आखिरी स्पर्श को जी लेना चाहती थी।
बस कुछ ही पलों में उसका अनूप उसकी आँखों से ओझल हो जाएगा, फिर कभी नहीं आने के लिए। सिद्धार्थ भी तो आँखों से ओझल है, परन्तु उसके आने की उम्मीदें हैं। भले ही वे उम्मीदें बुढ़ा गई हो। लाचार हो गई हो। पर अनूप तो अब कभी भी नहीं आ पाएगा।वह रह जायेगी अकेली। अनूप के जीते जी करवाये गए वादे ने ही उसको सिद्धार्थ को ये उसके मरने की खबर देने से रोक रखा है।कम से कम उसके मृत शरीर को घर में रहते हुए।
देहदान समिति वाले लोग अब दूसरी मंजिल से नीचे एम्बुलेंस तक ले जा रहे थे अनूप के मृत शरीर को उसकी नुपूर की आँखों के सामने।
नुपूर को लगा जैसे अनूप उसको बोलते हुए जा रहे हैं कि - " नुप्पू ! मैं पूरी ज़िन्दगी समाज की कुरीतियों , आडम्बरों और विडम्बनाओं की टाँग खिंचाई करता रहा। उन सब के विरुद्ध बोलता रहा, लिखता रहा। सबकी फ़िरकी लेता रहा। तो मर कर मैं समाज के टाँगों या कन्धों पर नहीं जाना चाहता था। देखो मैं देहदान समिति वालों के स्ट्रेचर पर जा रहा हूँ। और हाँ ... सुना है ना ये गाना - ' अपने लिए जिये तो क्या जिये,ऐ दिल तू जी ज़माने के लिए ' ... तो नुप्पू ! अगर आदमी मर कर भी दूसरे के काम आ जाए तो इस से अच्छी बात क्या हो सकती है भला! बोलो !! तुम्हारी आँखें, किडनी जो - जो भी सही और स्वस्थ है, किसी को जीवन दे दे तुम्हारे मरने के बाद तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। बोलो ... भला !? और एक बात तो भूल ही गया यार " ... लगभग ठहाका लगाते हुए अनूप ने नुपूर के दोनों कंधे को प्यार से पकड़ कर - " जो सबसे दिलचस्प है। ये तुम्हारा कंकाल भी तो मेडिकल की पढ़ाई के काम आ जाएगा। और सोचो ना .. जरा ... कितना रोमांचक और रूमानी होगा वह पल जब युवा-युवती लड़के-लड़कियाँ यानि भावी डॉक्टर- डॉक्टरनी का नर्म स्पर्श मिलेगा इन हड्डियों को। है ना नुप्पू !? तुम्हे जलन होगी ना ? वही सौतन-डाह !? "
" देखो नुप्पू ! दुनिया की सारी उपलब्धियाँ अकेले में पायी है लोगों ने एडिसन को बल्ब बनाते वक्त समाज की जरुरत नहीं पड़ी थी और ना ही ग्राहम बेल को फ़ोन बनाते वक्त। देखो ना जरा ! मैं भी बिना समाज के जा रहा हूँ। वैसे भी मुझे श्मशान जाकर ना तो हिन्दू बनना है और ना ही क़ब्रिस्तान जा कर मुस्लमान बनना है। मुझे तो बस देहदान कर एक आम इंसान बनना है। अलविदा नुप्पू ! अलविदा !! अपना ख़्याल रखना। रोना मत प्लीज !.... नुप्पू ! आई हेट टीयर्स ... बस ...एक आखिरी चुम्बन दो ना !!! बस एक आखिरी ! "
नुपूर की आँखों में रह गई बस .. बेबसी - आँखों के सामने अपने अनूप के जाने देने के लिए वो भी हमेशा के लिए और सिद्धार्थ के अमेरिका से वापस ना आने की इच्छा की।
अंततः अनूप चल पड़ा देहदान के लिए ... बस मौन।


Wednesday, August 21, 2019

शाख़ से जुड़ा गुलाब

एक गुलाब पुष्पगुच्छों में बंधा
किसी वातानुकूलित सभागार के
सुसज्जित मंच के केंद्र में
एक क़ीमती मेज़ पर पड़े
किसी गुलदस्ते में था रखा

हिक़ारत भरी नज़रों से
घूरता दूर उस गुलाब को
जो था अब भी कड़ी धूप में
कई- कई काँटों के साथ ही
शाख़ों पर मायूसी से जकड़ा

सभा में आए ख़ास मंचासीन
और श्रोता सह दर्शक लोगबाग भी
बागों में कहाँ ... बस गुलदस्ते को ही
मन से निहार रहे थे...लिए हुए
उसे हाथ में पाने की लालसा
चुटकी के गिरफ़्त में ले
उस गुलाब को सूंघने की पिपासा

सभा ख़त्म हुई ... शाम गई
शाम बीती ... रात बीती ...
वातानुकूलित वातावरण में
कुम्हलाया गुलाब बेचारा
सिसक रहा था पड़ा अब
नगर-निगम के एक कूड़ेदान में
अगली सुबह ......

शाख़ से जुड़ा गुलाब
दूर वहीँ
अब भी था कड़ी धूप और
काँटो के बीच बस मौन खड़ा
सुगन्ध बिखेर रहा ..बस यूँ ही ...

Monday, August 19, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१०) - बस यूँ ही ...

(1)@

साहिब !
आप सूरज की
सभी किरणें
मुट्ठी में अपनी
समेट लेने की
ललक ओढ़े
जीते हैं ...

और ...हम हैं कि
चुटकी भर
नमक की तरह
ओसारे के
बदन भर
धूप में ही
गर्माहट चख लेते हैं ...

(2)@

यूँ तो रहते हैं लटके
सारे-सारे दिन बस्ती के
बुढ़े बरगद की शाखों पर
खामोश उलटे चमगादड़

पर बढ़ा देते हैं ना
रात होते हीं
तादाद में आसपास
अपनी चहलकदमियाँ .....

अब देखो ना !!
यादें भी ना तुम्हारी...
आजकल
चमगादड़ बन गईं हैं.....

(3)@

कई-कई कस्बों और
शहरों के किनारों को छूकर
अक़्सर मदमाने वाली
अल्हड़, मदमस्त नदी

कब जान पाती है भला
ताउम्र हो जाने वाली
बस किसी एक शहर की
किसी झील की फ़ितरत ...
तनिक बोलो ना !!!...



Saturday, August 17, 2019

इंसान वाली तस्वीर

बेटा !  सुन लो ना जरा ! ...
मरणोपरांत तस्वीर मेरी टाँगना मत
कभी भी बैठक की किसी ऊँची दीवार पर
मालूम ही है ना तुमको कि.....
ऊँचाइयों से डरता रहा हूँ मैं ताउम्र
पाँव काँपने लगते है अब भी अक़्सर
बहुमंजिली इमारतों से नीचे झाँकने पर
डरा जाते हैं वीडियो भी तो जिनमें होते हैं
ऊँचाइयों पर किए गए करतब कई ...

मत जकड़वाना तस्वीर मेरी किसी भी
चौखटे में कभी चाहे हो वो चौखटा
कितना भी क़ीमती ... क्योंकि बंधन तो
नकारता ही रहा हूँ जन्म भर मैं ... है ना !?
चाहे हो समाज की कुरीतियों का या
फिर अंधपरम्पराओं का बेतुका-सा बंधन
ताबीज़ के बंधन हो या फिर हो चाहे
कोई मौली धागा के आस्था का बंधन
या फिर मुखौटों वाले रिश्तों के बंधन ...

एल्बम में भी मत क़ैद करना तस्वीर मेरी
पता ही है तुमको कि खुले क़ुदरती वातावरण
सदा लुभाते हैं हमको हर सुबह-शाम, हर पल
और हाँ ... पहनाने के लिए  तस्वीर पर मेरी
घायल फूलों की माला की तो
सोचना भी ना तुम और ना ही किसी क़ीमती
कृत्रिम फूलों की माला के लिए तुम ...

जीते जी तो बना सका ना कभी
हिन्दू या मुसलमां के भेदभाव से परे
अपनी केवन इंसान वाली तस्वीर
पर...मरणोपरांत पर बस बना देना
मेरा देहदान कर मृत शरीर का
समाज में बस एक इंसान वाली तस्वीर
हाँ ....एक इंसान वाली तस्वीर .....
बेटा !  सुन लो ना जरा !...