Sunday, June 14, 2020

दायरे की त्रिज्या ...

सर्वविदित है कि आज, 14 जून को,  विश्व रक्तदान दिवस  या विश्व रक्तदाता दिवस है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 2004 में 14 जून को इस रूप में मनाने का उद्देश्य पूरे विश्व में रक्त, रक्त उत्पादों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सुरक्षित जीवन रक्षक रक्त के दान करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें आभार व्यक्त करना था। वैसे 1970 से प्रतिवर्ष जनवरी महीने को राष्ट्रीय रक्तदाता माह के रूप में भी मनाया जाता है।
इसको दिनचर्या में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार कोई भी स्वस्थ इंसान लगभग तीन महीने में एक ही बार अपना रक्त दे सकता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर में 10 यूनिट यानि 5-6 लीटर रक्त होता है और रक्तदान में केवल 1 यूनिट रक्त यानि 1 पिंट या 450 मिली या कभी-कभी 400-525 मिली लीटर तक ही लिया जाता है। जिसकी भरपाई शरीर लगभग 24 घन्टे में कर लेता है। अलग-अलग इंसान की क्षमता भी उनके स्वास्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।

आज की रचना के पहले इतनी सर्वविदित बात के लिए भी बकबक करने और इसको पढ़ने में आपका समय नष्ट करवाने का बस एक ही मक़सद है कि अगर हो सके तो हमारे द्वारा, जैसा कि निजी तौर पर मेरा सोचना भी है, रक्तदान को "रक्तसाझाकहा जाए तो बेहतर अनुभव होता .. शायद ...। कारण, ये दान जुड़ा हुआ शब्द हमारे सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के कन्यादान शब्द जैसा कान को चुभता है। आपको नहीं क्या ???...नाराज़ मत होइएगा, आपसे पूछ भर लिया .. बस यूँ ही ...
खैर ... सोचने के लिए तो बुद्धिजीवी लोगों की भीड़ हैं ही यहाँ पर, हमें क्या करना .. चलिए .. आज की रचना/विचार की ओर ...


दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!"

"हाँ, उस्ताद!"

"जमूरे ! चल बतला जरा, स्वतंत्र हुए हमें हो गए कितने साल ?"

"भला मुझे क्या पता उस्ताद, मेरा तो तूने कर रखा है बुरा हाल,
माना, मेरी दाल-रोटी है चलाता, साथ चलाता तो है तू अपनी दुकान,
स्वतंत्र भारत में, कर परतंत्र मुझे, कर रखा है जीना मेरा मुहाल"

"जमूरे! कमोबेश .. सबकी है यहाँ यही हाल, बात दाल-रोटी की
कर-कर के दूसरे की,  सब चलाते हैं बस अपनी ही दुकान"

"उस्ताद!, स्वतंत्र तो हैं इधर-उधर टहलने वाले यहाँ के कुत्ते सारे,
गली के लावारिस हों वो या फिर पालतू विदेशी भिन्न-भिन्न नस्ल वाले,
सुबह-शाम सड़कों पर, कचरों पर, सार्वजनिक पार्कों में हगने वाले"

"जमूरे! चुप .. ठहर, अनर्गल बातें मत कर, दिखता नहीं तुझे बदकार
तमाशबीन जुटे हैं यहाँ सारे सभ्य, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, साहित्यकार,
कुत्ते के हगने जैसी बात करने पर, कर देंगे विद्वजन तेरा बहिष्कार,
बोलने के लिए तू स्वतंत्र है, पर संविधान का इतना भी नहीं अधिकार,
हो कर उकड़ू श्वान और श्वानी करते हैं जो विष्ठा का त्याग इधर-उधर, 
हैं सच में स्वतंत्र वही यहाँ, ऐसी सभ्य भाषा बोलनी होती है ना यार?"

"क्या जाने ये भाषा-वाषा, ना हम बुद्धिजीवी और ना ही साहित्यकार"

"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जिसे जन्म से पहले, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"

"उस्ताद! मुझे बस दाल-रोटी चाहिए, जाति-धर्म का क्या करना ?"

"हाँ.. वैसे तो कहीं भी थूकने के लिए, मूतने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ,
जिन्दाबाद, मुर्दाबाद के लिए कहीं भी, कभी भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
उपवास, रोज़ा, भूख हड़ताल या अनशन के लिए तू स्वतंत्र हैं यहाँ,
धर्मों और त्योहारों के नाम पर शोर करने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ
और शादी के नाम पर दहेज देने-लेने के लिए भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
पर स्वतंत्र हो कर भी ऑनर किलिंग को कभी मत जमूरे तू भूलना।
चाहे लड़की हो या लड़का कोई, कितना भी हो स्वतंत्र वो यहाँ,
पर शादी के लिए स्वदेश में, अपनी जाति-धर्म में ही पड़ता है ढूँढ़ना।"


"अच्छा!!! .. पर मैंने तो सुना है कि ..."

"अब बातें मत करने लगना तुम, बड़े नेता या किसी सिने-स्टार की,
देवताओं या ऋषियों को भी आती थी कभी तिकड़म बलात्कार की।"

"छिः, छिः, उस्ताद! देवी, देवताओं के लिए ऐसी बातें नहीं करते,
नहीं तो, लाख उपकार कर के भी नर्क जाओगे, जब तुम मरोगे।"

"जमूरे! तू निरा मूर्ख ही रह जाएगा .. अगर ऐसी ही बात है तो हम
कल ही सत्यनारायण स्वामी की कथा हैं करवाते, शंख हैं बजवाते,
या चलो किसी देवी का नाम लेकर किसी पहाड़ पर हैं चढ़ जाते,
या फिर किसी पादरी के सामने चल कर 'कन्फ़ेस' हैं कर आते,
या रियायती 'हज़-सब्सिडी' पर मिलकर हम हज़ हैं कर आते"

"चलो, चलते हैं उस्ताद, खाने और घूमने में बड़ा ही मजा आएगा,
  .. है ना ?"

"पर नहीं, इतने भी स्वतंत्र नहीं जमूरे, जो हम सारे जगहों पर जाएँ।
किसी एक ही जगह जाना होगा, धर्म-मज़हब के अनुसार ही अपने,
फिर किए गए अपने पापों से हो जाएंगे हम स्वतंत्र, तय है ये जमूरे!"

"तो, उस्ताद! ..."

"बोल, जमूरे! ..."

"आज मदारी यहीं खत्म करते हैं, पाप मिटाने हम तीर्थ पर चलते हैं।"

"हाँ जमूरे!, .. तो बच्चे लोग बजाओ ताली, बोलो सब हाली-हाली,
जय काली, कलकत्ते वाली, तेरा वचन जाए ना खाली।
जो देगा उसका भला, जो ना देगा उसका भी भला।
फ़िलहाल .. करने स्वतंत्र देश को कोरोना से .. टालने बला ..
जमूरा और .. मैं मन्दिर चला।"





Wednesday, June 10, 2020

जलती-बुझती लाल बत्ती ...


एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ ..  मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।

अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद )  के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?

इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं। 

ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ  हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।

बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण  ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
                                                 
                                    परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ...  रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके  मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।

खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ...  :-

जय  जवान  और जय  किसान
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।
जय   जवान  करे   दुश्मन   दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।

हम  सब  का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई  रत्न।
हम    नहीं   डरेंगे   तूफ़ान   से,
हम   सदा   लड़ेंगे   शान    से।

सदा   ही  दुश्मन  दूर  भगायेंगे,
सदा  आगे   ही   बढ़ते  जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम  सब  भारत नया  बसाएंगे।

आओ!    याद   करें    क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या   शान  उन्होंने   थी  पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।

आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें  बचा  कर वतन  की  शान।
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।





Tuesday, June 9, 2020

तनिक चीखो ना ! ...

ऐ आम औरतों ! .. एक अलग वर्ग-विशेष की ..
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?

भारत है ये ..  और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की ..  मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।

भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।

जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।

सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी  ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?

( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)


Saturday, June 6, 2020

नासपीटा कहीं का ...


यूँ तो अच्छी नस्लों को कब और कहाँ ..
अपने समाज के लिए सहेजा हमने ?
सुकरात को ज़हर दे कर मारा हमने,
ईसा को भी सूली पर चढ़ाया हमने,
दारा शिकोह को मार डाला उसके ही अपनों ने
ऐसे कई अच्छे डी एन ए को तो
सदा वहीं नष्ट कर डाला हमने।
और कई दार्शनिक, वैज्ञानिक और
बुद्धिजीवी भी तो रह गए कुँवारे ताउम्र।
ना इनकी भी कोई संतति मिल पायी
बहुधा समाज को हमारे।

फिर ईसा पूर्व में हखामनी साम्राज्य के
दारा प्रथम का पहला सफल हमला
और फिर यूनान, शक़, हूण से लेकर
अंग्रेजों तक का निरन्तर आना
हुए यहाँ कई-कई समर ..
हुए यहाँ कई-कई ग़दर,
हुए कई-कई देखे-अनदेखे जुल्मोंसितम ..
कई कहे-अनकहे क़हर,
लूटे गए कई बसे गाँव-घर ..
कई-कई बसे-बसाए शहर।

आक्रमण कर के कुछ का लूटपाट करना, 
कुछ का शोषण करना,
कुछ का तो वर्षों तक शोषण
और शासन भी करना।
कुछ का औपनिवेशिक जमीन से
अपने वतन लौट जाना,
कुछ का अपनी आबादी का
तादाद बढ़ाते हुए यहीं बस जाना।
जाने वालों का कुछ-कुछ यहाँ से ले जाना
और साथ ही कुछ-कुछ हमें दे जाना।

कुछ-कुछ नहीं .. शायद ... बहुत-बहुत कुछ ..
ले जाना भी और दे जाना भी।
बड़ी से बड़ी भी ..  मसलन- कई इमारतें
और छोटी से छोटी भी .. मसलन- अपने डी एन ए को
शुक्राणुओं की शक़्ल में .. शायद ...
हाँ , सूक्ष्म शुक्राणुओं की बौछार ..
ज़बरन, ज़ोर-ज़बर्दस्ती लूटी औरतों की
चीखों से बेख़बर हर बार..
उनकी कोखों में .. हर बार .. बारम्बार
बस बलात्कार ही बलात्कार।
अब भला उनकी वो संकर
औलादें कहाँ हैं ? .. कौन हैं ?
हम में से ही कोई ना कोई तो है ? .. है ना ? ..

अब जीव-विज्ञान तो है महज़ एक विज्ञान ..
क़ुदरत का एक है वरदान।
अब इन शुक्राणुओं को और
अंडाणुओं को भी भला कहाँ है मालूम कि ..
सम्भोग करने वाला .. पति है या प्रेमी
या फिर लूटेरा या बलात्कारी कोई।
वो तो मिलते ही बस .. बनाने लग जाते हैं
युग्मनज गर्भों में बस यूँ ही ...।
ये विज्ञान या क़ुदरत भी न अज़ीब है ..
मतलब .. नीरा बेवकूफ भी।
पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है।
जाति निरपेक्ष और देश निरपेक्ष भी।
जरा भी .. भेद करना जानता ही नहीं
नासपीटा कहीं का ... हमारी तरह कभी।

फिर जब राजतंत्र और शासन थे तो ..
शासक का होना था लाज़िमी
और इन राजाओं और बादशाहों की
रानियां, पटरानियाँ और बेग़में भी तो थीं ही
साथ ही हरम में रखैलें, दासियाँ भी
अनगिनत थीं हुआ करतीं।
अनगिनत रखैलों की नस्लों की तादाद भी तो
वाजिब है अनगिनत ही होगी .. है कि नहीं ?
हमारे बीच ही तो हैं ना वो हरम में
जन्मीं औलादों की नस्लें आज भी ?

सोचता हूँ कभी-कभी कि ..
लगभग हजार साल पहले
महमूद गजनवी के सोलहवें
आक्रमण के समय 1025 ईस्वी में
कोई ना कोई तो हमारा भी
एक अदना-सा पूर्वज रहा होगा ?
पर भला कौन रहा होगा ?
जिसके डी एन ए का अंश आज हमारा होगा
मुझे तो पता ही नहीं .. तनिक भी नहीं।

शायद आपको पता होगा ..
शायद नहीं .. पक्का ही ..
हाँ .. हाँ .. आपको तो पता होगा ही ..
हजार क्या, हजारों-हजार साल पुराने भी
वंश बेल की अपनी हर पुरानी
शाखाओं-उपशाखाओं की जानकारी।
शान से कहते हैं तभी तो
अकड़ा कर गर्दन आप अपनी कि ..
आप हैं किसी ना किसी देवता
या ऋषि के कुल की विशुद्ध संतति।


पर हमने जो अपने गिरेबान में झाँका ..
जब कभी भी .. जहाँँ कहीं भी .. बार-बार झाँका,
हजार साल पहले के मेरे पुरख़े का
फिर भी मालूम कुछ भी मुझे चला नहीं।
तभी तो हम अपनी जाति-धर्म के लिए
अपनी गर्दन कभी भी अकड़ाते  नहीं।



Friday, June 5, 2020

कब लोगे अवतार ?

आज की रचना/विचार " कब लोगे अवतार " के पहले कुछ बातें आज के ख़ास दिवस " विश्व पर्यावरण दिवस " के बारे में कर लेते हैं .. है ना !? ...

 पहले आज की कुछ-कुछ बात  :-
आज .. अभी अगर आपके पास दो पल का समय हो तो आइए .. हमलोग एक बार अपने घर या मकान, अपार्टमेंट के फ्लैट या ड्यूप्लेक्स को ग़ौर से देखते हैं .. निहारते हैं। आइए न .. देखते हैं कि ...
1) हमारे घर या फ़्लैट या ड्यूप्लेक्स में इमारती लकड़ी के चौखट से जड़े वार्निश से, किसी एनामेल पेंट से या सनमाइका की परत चढ़ी चमचमाती हुई .. इमारती लकड़ी या फिर प्लाईवुड के दरवाज़े या खिड़कियों के पल्ले हैं या नहीं ?
2) इसके अलावा अन्य क़ीमती फर्नीचरों में .. मसलन- सोफे, डाइनिंग टेबल के सेट, बुक सेल्फ़, कपबोर्ड, दीवारों से जड़ी बड़ी-बड़ी अलमारियां, पूजे की फैंसी अलमारी, पलँग-दीवान इत्यादि लकड़ियों से निर्मित हैं या नहीं ?
3) हमारे घर में भौतिक सुख देने वाले विदेशों में आविष्कार किए गए आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों में .. मसलन- रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर में आज भी ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैस क्लोरो-फ्लोरो कार्बन ( Chlorofluorocarbons / CFCs) गैस या हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (Hydrochlorofluorocarbon / HCFC ) गैस भरी है या फिर उसकी जगह पर ओजोन परत को नुकसान नहीं पहुँचाने वाली हाइड्रो फ्लोरो कार्बन ( Hydrofluorocarbon / HFC ) गैस भरी है ?

ऐसे और भी कई सवाल हैं, पर .. आज और अभी इतना ही। इनमें से अगर एक भी सवाल का आपका जवाब "हाँ" में है और हमने वेव-पन्नों पर  आज विश्व पर्यावरण दिवस पर कुछ भी पोस्ट करके अपने कर्त्तव्य-पालन का निर्वाह मान कर अपनी गर्दन अकड़ायी है या फिर आसपास के सच में या किसी काल्पनिक पेड़ के कटने पर वेव-पन्नों पर शाब्दिक आँसू बहाए हैं तो आप को ऐसा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए .. शायद ...
अब सोशल मीडिया के वेव पन्नों पर आज या यूँ कहें कि पिछले कई दिनों से पर्यावरण की तरंगीय (वेब - Wave ) सुरक्षा और संरक्षण की जा रही है। आज तो विशेषतौर पर, कारण कि .. आज ही तो विश्व पर्यावरण दिवस है। अच्छी बात भी है। अच्छा सन्देश भी है। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर पर्यावरण प्रदूषित या नष्ट होगा तो किसी भी प्राणी, खास कर हम मानवों (?) का जीवन दूभर या असम्भव हो जाएगा। यहाँ तक सोचना .. इसकी सुरक्षा और संरक्षण के लिए प्रयासरत होना .. बिल्कुल उचित है।

अचरज का विषय तो तब लगता है, जब शहर के विकास, मुहल्ले/कॉलोनी के विस्तार या सड़क के चौड़ीकरण के लिए किसी पेड़ के काटने पर शाब्दिक आँसू बहाए जाते हैं। 
ज़नाब ! इतने आँसू न बहाइए .. पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के अंतर्गत हमें जल संरक्षण भी करने हैं .. है ना ? 
तनिक तो सोचिए .. जब शहरीकरण का विस्तार होगा या कभी हुआ होगा, नया फ्लैट या अपार्टमेंट बनेगा या जब कभी भी बना होगा तो जंगल, बाग़ीचे या खेत कम किए गए होंगे। नहीं क्या ? 
जिस लकड़ी के सोफे, पलँग या मेज-कुर्सी पर पालथी मार, लेट कर या पैर लटका कर और हिला-हिला कर आप तरंगीय आँसू वेव-पन्नों पर चुआ रहे होंगे, उसके लिए भी किसी ना किसी पेड़ को काटा ही गया होगा। है ना ? तो फिर अब किसी पेड़ के कटने पर इतनी हाय-तौबा का मतलब ? 
माना आपके पोस्ट को ढेर सारे लाइक, कमेंट्स, स्माइली मिल भी गए .. आप गिनती बटोर कर खुश भी हो गए .. और रात में अपने ए. सी. वाले कमरे में दीवान या पलँग पर दोहर ओढ़ कर और टाँग पसार कर, नाक बजाते हुए सो भी गए तो .. पर्यावरण का आपने कौन सा भला कर दिया .. भला ?
अरे ज़नाब ! कटने पर आँसू बहाने के बजाय युवा पीढ़ी को पेड़ लगाने की सीख देना और खुद लगाना ही सही-सही पर्यावरण दिवस ही नहीं, हमारी दिनचर्या में शामिल होना चाहिए। नहीं क्या ?

चलते-चलते एक नज़र विस्तार से विश्व पर्यावरण दिवस पर .. वैसे तो सर्वविदित है कि 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस को पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में 1974 से मनाया जा रहा है। वैसे तो इसकी घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ ( United Nations Organisation ) द्वारा पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु 1972 में ही की गईं थी।
संयुक्त राष्ट्र संघ या संयुक्त राष्ट्र एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसका उद्देश्य है - अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने में सहयोग देना, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति के लिए कार्यरत रहना। इस की स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों, जिनमें हमारा परतंत्र देश तत्कालीन भारत भी था, के हस्ताक्षर होने के साथ हुई थी। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त 193 देश हैं। इसका मुख्यालय  अमेरिका ( The United States of America/ USA) के न्यूयॉर्क शहर के मैनहटन शहर में है, जो हडसन नदी के मुहाने पर मुख्य रूप से मैनहटन द्वीप पर स्थित है। संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी, और स्पेनी हैं। यहाँ भी हमारी हिन्दी नहीं है।
विस्तृत रूप में पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के अंतर्गत भूजल संरक्षण, वायु प्रदूषण से बचाव, ओजोन परत का बचाव, भूमि व  मृदा संरक्षण, मानव खाद्य श्रृंखला में जहरीले रसायन से बचाव, खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन और निपटान इत्यादि आते हैं।

तो आइए .. मिलकर पहले अपने घर के और अपने भीतर झांकें और फिर बाहरी पर्यावरण की बात करें तो शोभा देगा .. शायद ...

◆ अब आज की रचना/विचार की कुछ बातें :-
भारत के 28 राज्यों में से एक- उत्तर प्रदेश जो वर्तमान में सबसे ज्यादा जिलों यानि 75 जिलों वाला राज्य है। इन जिलों में से एक- वाराणसी जिला प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों वाला शहर है।
यहाँ स्थित संकट मोचन मंदिर में, वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन और दशाश्वमेध घाट पर 7 मार्च ' 2006, मंगलवार के दिन बम विस्फोट हुए थे। इस सीरियल (धारावाहिक)  बम धमाके में लगभग 28 लोगों की जान चली गई थी और लगभग 101 लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए थे। बाद में जाँच में पता चला था कि इस नापाक दुष्कर्म में लश्कर-ए-तोएबा नामक आतंकवादी संगठन का हाथ था।

उस घटना हताहत मन में एक सवाल कुलबुलाया था, जिस ने बाद में इस निम्नलिखित रचना/विचार का रूप धारण किया था। कुछ दिनों बाद झारखण्ड के धनबाद जिला से प्रकाशित होने वाले हिन्दी दैनिक समाचार पत्र "दैनिक जागरण" के सहायक पृष्ठ पर 28.03.2006 को इस रचना/विचार को स्थान भी मिला था।
तो फिर अब देर किस बात की ? आपकी नज़रों के लिए प्रतिक्षारत है ये रचना/विचार .. बस यूँ ही ...


कब लोगे अवतार ?
आस्था से भरा संकटमोचन
श्रद्धालुओं की भीड़ भरी एक शाम
दिन भी था पावन मंगलवार,
न जाने किया किस नराधम ने
पवित्र धाम पर अमंगल वार।

इधर क्षत-विक्षत छितरायी चहुँओर
वीभत्स लाश होंकर लहूलुहान,
कहीं आतंकित, तो कहीं असहाय
ख़ून से लथपथ घायल इंसान,
उधर केसरिया सिन्दूर से लिपटे
गदाधारी मूक प्रस्तर हनुमान,
रहा है सदा ही ऊहापोह
हरेंगे कब संकट भक्तों के
ये संकटमोचक भगवान ।

जला कर विस्फोटों की होलिका
सदा खेलते ख़ून की होली
जाने कब थकेंगे उनके हाथ ?
चीत्कारों, सुलगती लाशों और
फिर सिसकियों से भला
वे लोग कब तक साधेंगे स्वार्थ।

सुनों ! हे विष्णु के अवतार !
महाभारत के अनुपम सूत्रधार !
कलियुग में कब लोगे अवतार ?
हो हक्का-बक्का ढूँढ़ रहा है तुम्हें,
आज आपका निरीह अकेला पार्थ।





Wednesday, June 3, 2020

विडम्बना ...


आज की रचना/विचार- "विडम्बना ..."भी फिर एक बार पुराने समाचार पत्रों से सहेजे कतरनों में से एक है, जो 7 मार्च ' 2006 को झारखण्ड के धनबाद से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र "दैनिक जागरण" के मंगलवार को आने वाले सहायक पृष्ठों में छपी थी।
आज बकबक नहीं .. ना .. फिर कभी। आज तो बस .. इतना ही साझा करना भर है आप से कि ... ये रचना/विचार मेरे मन में भला पनपी कैसे होगी।
दरअसल 30 सितम्बर ' 2005 को यूरोप महादेश/महाद्वीप के डेनमार्क देश से प्रकाशित होने वाले डैनिश समाचार पत्र "The Jyllands-Posten" में धर्म-विशेष के पैगम्बर मोहम्मद साहब से संबंधित 12 संपादकीय कार्टून (व्यंग्यचित्र) छपे थे।
जिस के ख़िलाफ़ महीनों तक दुनिया भर में, ख़ास कर मुस्लिम राष्ट्रों में, विरोध प्रदर्शन चलता रहा था। अफ़ग़ानिस्तान, सोमालिया, ईरान, सीरिया, लेबनान के अलावा भारत, डेनमार्क, नॉर्वे और इंडोनेशिया में भी हिंसक प्रदर्शन और दंगे हुए थे। इनमें कई लोग जान से भी मारे भी गए थे। अन्य बहुत सारे लोगों के हताहत होने के साथ-साथ और भी कई नुकसान हुए थे। ये आग महीनों तक सुलगती रही थी।
                        अब इन सब से मन में जो बस यूँ ही ... तो नहीं कह सकते; हाँ इन घटनाओं से व्यथित मन में जो एक इतर बात उपजी, उसी ने इस रचना/विचार की निम्नलिखित शक़्ल ली थी। 
बस यूँ ही ... :-


विडम्बना ...
ये कविताएँ
शब्दकोश से सहेजे
शब्दों का महज मेल भर नहीं
जो लाए पपड़ाये होंठों पर
मात्र एक बुदबुदाहट।

और कार्टूनें
अनायास आड़ी-तिरछी
रेखाओं का सहज खेलभर नहीं
जो लाए बुझे मन में
मात्र कम्पनहीन गुदगुदाहट।

ये सारे के सारे देते ही हैं दस्तक
कभी सकारात्मक
तो कभी नकारात्मक
हो कर खड़े हमारे मन की चौखट पर
हो भले ही अनसुनी आहट।

यूँ तो .. कविता या भाषण
या कभी छोटा-सा नारा भी
करता है प्रेरित इतना कि
स्वेच्छा से आमजन तक
पा जाते हैं हँस-हँस कर शहादत।

या कभी छोटा-सा कार्टून भी
जो धर्म जैसे नाजुक
विषय-विशेष पर बना हो तो
अनुयायियों में उनके लाता है
अंतरराष्ट्रीय स्तर की बौखलाहट।

विडम्बना है ...
कि जो है असरदार
अनुयायियों और
समर्थकों पर भी
सार्थक या अनर्थक।

मगर होता नहीं असर
पाँच वर्षों तक
"उन पर" .. उनके स्वयं पर
बने तोंदिले कार्टूनों का
जो छपते हैं प्रायः
दैनिक अखबारों में
मानो ..हो हासिल उन्हें
थेथर गोह-सी महारत।




Monday, June 1, 2020

लगी शर्त्त ! ...

" नमस्कार ! .. आप कैसे/कैसी हैं ? " .. अरे-अरे .. आप से नहीं पूछ रहा हूँ मैं .. मैं तो बता रहा हूँ कि जब दो लोग, जान-पहचान वाले या मित्र/सहेली या फिर रिश्तेदार मिलते हैं आमने-सामने या फोन पर भी तो बहुधा औपचारिकतावश ही सही मगर .. दोनों में से कोई एक दूसरे सामने वाले से पहला सवाल यही करता या करती है कि- " आप कैसे/कैसी हैं ? " - है ना ?
वैसे भी अभी आप से, " आप कैसे/कैसी हैं ? ", पूछना तो बेमानी ही है; क्योंकि आप ठीक हैं, . . तभी तो ब्लॉग के मेरे इस पोस्ट पर बर्बाद .. च् - च् ... सॉरी ... बर्बाद तो नहीं कह सकता .. अपना क़ीमती समय साझा कर रहे/रही हैं। सही कह रहा हूँ ना ?
हाँ .. तो बात आगे बढ़ाते हैं। तभी झट से दूसरा सामने वाला/वाली उत्तर में, चाहे उसका हाल जैसा भी हो, औपचारिकतावश ही सही पर कहता/कहती हैं कि "हाँ .. आप की दुआ से सब ठीक ही है, बिंदास।" या "ऊपर वाले की दया से सब ठीक है, चकाचक।"
मुझे कुछ ज्यादा ही बकैती करने की .. कुछ ऊटपटाँग बकबक करते रहने की आदत-सी है। अब .. अभी क्या कर रहे हैं ? बकैती ही तो किए जा रहे तब से। है कि नहीं ? यही आदत तो मंच पर Standup Comedy ( इसके बारे में फिर कभी, फिलहाल मान लीजिए कि Open Mic की तरह ही एक विधा है ये , जिनमें मंच से कलाकार द्वारा दर्शकों/श्रोताओं को हँसाने की कोशिश की जाती है। ) करवा जाता है। इसी बतकही वाली आदत के तहत ..  मुझ से अगर कोई मेरा हाल पूछे तो मेरा एक ही तकिया क़लाम वाला जवाब होता है - " आप की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर से ठीक-ठाक हूँ। " ऐसा बोलने के पीछे भी एक मंशा है।
दरअसल लोग कहते हैं ना कि कॉकटेल ( Cocktail ) में नशा का असर ज्यादा होता है। अब .. अंग्रेजी वाले कॉकटेल के संधि विच्छेद का हिन्दी में मतलब .. मतलब मुर्गे की दुम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। अंग्रेज़ी वाले मुस्सलम कॉकटेल की बात कर रहा हूँ। कॉकटेल- मतलब दो शराबों का मिश्रण, जिसे संवैधानिक चेतावनी को भी नज़रअंदाज़ कर के पीने वाले बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं कि ऐसे ख़ास मिश्रण में नशा कुछ ज्यादा ही होता है। मेरे ऐसा कहने के पीछे भी यही मंशा होती है कि अपनों की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर ज्यादा असरदार होती है।
अरे-रे- .. बकैती में एक भूल हो गई। अब बिहार में शराबबंदी है और हम हैं कि शराब की बात कर रहे हैं। खैर .. बात ही तो कर रहे केवल, शराबबंदी नहीं भी थी तो .. कौन-सा हम पीने वाले थे या पीने वाले हैं। कभी नहीं।
कई छेड़ने वाले यहाँ भी नहीं छोड़ते। खोद कर पूछ बैठेंगे कि अगर पीते नहीं हो तो इतना कैसे पता ? जवाब देने के बजाए हम भी सवाल कर बैठते हैं कि ताजमहल किसने बनवाया था, बतलाओ जरा। फ़ौरन अपनी गर्दन अकड़ाते हुए अगले का उत्तर होता है- "शाहजहाँ" ( इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में भी तो ऐसा ही लिखा है। )। तब अगले को लपेटने की बारी हमारी होती है कि जब ताज़महल बनते हुए तुम देखे नहीं, फिर भी पता है कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। ठीक वैसे ही बिना पिए हमको मालूम है कि कॉकटेल में नशा ज्यादा होती है।
हाँ .. तो .. हमारे इन्सानी जीवन में भी कई दफ़ा कई अपने-से लगने वाले रिश्ते बस यूँ ही ... ताउम्र हालचाल पूछने और जवाब में " ठीक है " कहने जैसे औपचारिक ही गुजर जाते हैं और कई रिश्ते औपचारिक हो कर भी मन के ताखे पर हुमाद की लकड़ी की तरह सुलगते रहते हैं अनवरत, ताउम्र .. शायद ...
खैर .. छोड़िए इन बतकही में आप अपना क़ीमती समय नष्ट मत कीजिए और अब आज की मेरी निम्नलिखित रचना/विचार पर एक नज़र डालिए; जो कि वर्षों से कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में दुबके पीले पड़ चुके पन्नों में से एक से ली हुई है .. बस यूँ ही ...

लगी शर्त्त ! ...
साजन-सजनी,
सगाई,
शहनाई,
बाराती-बारात।

सात फेरे,
सात वचन,
सिन्दूर,
सुहाग-सुहागन,
सुहाग रात।

तन का मिलन,
मन (?) का मिलन,
संग श्वसन-धड़कन,
नैसर्गिक सौगात।

एक घर,
एक कमरा,
एक छत्त,
एक गर्म बिस्तर,
एक परिवार,
साथ-साथ।

पल-क्षण,
सेकेंड-मिनट,
घंटा-दिन,
सप्ताह-महीना,
साल-दर-साल।

सात जन्मों तक,
जन्म-जन्मान्तर तक,
अक्षांश-देशान्तर तक,
प्यार का सौगात
या घात-प्रतिघात।

पर कितनी ?
सात प्रतिशत,
या फिर साठ प्रतिशत,
ना, ना, शत्-प्रतिशत।
है क्या कोई शक़ ?
तो फिर .. लगी शर्त्त !

मसलन ..
द्रौपदी लगी
जुए में दाँव,
हुई सीता की
अग्निपरीक्षा,
बीता यशोधरा का
एकाकी जीवन।

हैं आज भी
कैसे-कैसे
विचित्र सम्बन्ध,
जो दे जाते हैं
अक़्सर घाव अदृश्य,
कर के देखे-अनदेखे
कई-कई घात-प्रतिघात।